Speeches & Writings
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भारतीय-राष्ट्रीय महासभा (कांग्रेस) कलकत्ता अधिवेशन में अध्यक्षीय भाषण
सन १९३२ ई०, में कांग्रेस के सैंतालीसवें अधिवेशन, कलकत्ता के लिये यह भाषण सभापति मालवीयजी ने तैयार किया था, परन्तु कांग्रेस कि गैरकानूनी संस्था घोषित करने के कारण उनको पहले ही गिरफ्तार कर लिया गया I अतएव श्रीमती नलिनी सेन गुप्त से सभापतित्व में वह अधिवेशन हुआ, जिसमे महामना का निम्न भाषण पढ़कर सुनाया गया I
प्रतिनधि भाइयों!
राष्ट्रीय महासभा के प्रधान पद के लिये चौथी बार निर्वाचित कर आपने जो मुझे सम्मानित किया है, उसके लिये मैं आप लोगों को हार्दिक धन्यवाद देता हूँ I यह सम्मान मुझे ऐसे अवसर पर प्राप्त हुआ है जब देश की स्थिति बड़ी विषम हो गई है I हमारे देश के पूज्य नेता महात्मा गाँधी और भारत माता के बहुसंख्यक देशभक्त पुत्र और पुत्रियाँ जेल में बंद हैं I ऐसे अवसर पर मुझ पर जो विश्वास प्रकट किया है, उसके लिये तो मैं और अधिक कृतज्ञ हो गया हूँ I मुझ पर जो दायित्व दिया गया है उसका मैं पूर्णतः अनुभव कर रहा हूँ I मैं भगवन से मनाता हूँ कि मैं इस दायित्व को निभाने में समर्थ हो सकूँ I
गत वर्ष जब मैं राष्ट्रीय महासभा का सभापतित्व करने के लिये दिल्ली में प्रवेश कर रहा था, मैं गिरफ्तार करके कांग्रेस की बैठक होने तक के लिये, तथा पुलिस द्वारा उसे रोकने का उद्द्योग करते रहने पर भी, प्रस्ताव पास होने के बाद तक जेल में रोक रक्खा गया I इस बात से और कांग्रेस के प्रति सरकार के व्यवहार से, जैसा कि हाल के सरकारी घोषणा से स्पष्ट है- जनता को यह संदेह हो गया है कि इस वर्ष भी मैं कांग्रेस में सम्मिलित नहीं होने दिया जाऊंगा I यह केवल अनुमान और कल्पना कि बात नहीं रह गई है I यह लेख लिखते समय आज प्रातः काल काशी के कलेक्टर का निम्नांकित पत्र मुझे प्राप्त हुआ I
"प्रिय पण्डित मदन मोहन मालवीय!
बंगाल सरकार से इस प्रांतीय सरकार को लिखा है कि बंगाल में जनता-संरक्षण-कानून जारी है I अतः यदि आप और अन्य नेता कलकत्ता-कांग्रेस कि बैठक के लिये जायेंगे तो आपको उसमे सम्मिलित नहीं होने दिया जायगा I मुझे आदेश मिला है कि मैं उपयुक्त सूचना आपको दूँ I मैं प्रार्थना करता हूँ कि आप इसकी सुचना अन्य नेताओं को भी देने की कृपा करेंगे, जो इस समय काशी में हों I"
मैं बंगाल सरकार की इस शिष्ट रीति से चेतावनी भेजने की प्रशंसा करता हूँ I किन्तु मैंने बंगाल सरकार को सूचित कर दिया है कि मेरे विचार से उनके इस निर्णय में कोई औचित्य नहीं है कि हम लोग कांग्रेस में सम्मिलित न हों I मैंने उन्हें बता दिया है कि मैंने किस गाडी से कलकत्ते जाने का विचार किया है I गत वर्ष सरकार ने दिल्ली की कांग्रेस में सम्मिलित होने के लिये आते समय बहुत लोगों को रास्ते में ही गिरफ्तार कर लिया I मैं सुनता हूँ की इस साल भी कांग्रेस में सम्मिलित होने के लिये कलकत्ता जाने वाले लोगों को रोकने में पुलिस बड़ी तत्परता दिखा रही है I किन्तु संभवतः इस बात की शंका करके कि गत वर्ष कि तरह इस वर्ष भी पुलिस प्रतिनिधियों को कलकत्ता आने से रोकें में असमर्थ रहेगी- कलकत्ते के पुलिस कमिश्नर ने पत्रों कि इस आशय कि एक सुचना जनता को चेतावनी देते हुए प्रकाशित कराई है कि जो कोई भी यह जानते हुए कि अमुक व्यक्ति सन १९३३ ई० के कलकत्ता कांग्रेस के लिये प्रतिनिधि होकर आया है, उसको आश्रय देगा, स्वागत करेगा, या अपने या अपने अधिकार के किसी घर में सभा होने कि सुविधा करेगा, वह दंड विधान की धारा के अनुसार दण्डित होगा I कमिश्नर ने सभी ज़मीन्दारों को भी चेतावनी दे दी है की उक्त कांग्रेस की स्वागत-कारिणी-समिति-गैर-कानूनी-संस्था घोषित कर दी गई है I और कोई स्थान, जो बंगाल-सरकार की समझ में उस गैर-कानूनी संस्था की बैठक में काम नें लाया जाएगा, वह जब्त करके पुलिस के अधिकार में कर लिया जाएगा और उस मकान में जो व्यक्ति पाया जायगा उसे निकाल कर उसकी चल संपत्ति जब्द कर ली जायगी I सरकार ने कलकत्ता कांग्रेस की बैठक ने होने देने के लिये भरसक प्रयत्न किया I सरकार जितने कांग्रेस-वालों को गिरफ्तार कर सकेगी, गिरफ्तारी होगी I इतना होने पर भी कांग्रेस वाले सभा करने और भाषण करने के साधारण अधिकार की रक्षा करेंगे I इसके अतिरिक्त, गतवर्ष की भाँती कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन के बाद प्रांतीय और जिला कांग्रेस अधिवेशन समस्त देश में होंगे, जिनमें कांग्रेस द्वारा स्वीकृत प्रस्ताव दुहराए जायेंगे I
इससे सरकार को मानना पड़ेगा कि देश में सदा ऐसे लोगों कि पर्याप्त संख्या रहेगी जो अपने को गिरफ्तार कराने, जेल जाने और सब प्रकार के कष्ट सहन करने के लिये तैयार रहेंगे, जो सरकार अपनी शक्ति से उन्हें देगी I किन्तु वे लोग मनुष्य-मात्र के उस जन्मजात अधिकार को त्यागने के लिये तैयार न होंगे, और सदा अन्यायपूर्ण, कष्टदायक और अपमानकारी कानून और व्यवस्था के विरोध में अपनी शक्ति लगावेंगे और सरकार को कांग्रेस के प्रति अपने इस व्यव्हार पर पुनः विचार करने के लिये बाध्य करेंगे I
सरकार कि वर्तमान नीति को नैतिक समर्थन नहीं प्राप्त है और राजनीतिक दृष्टि से भी यह बुद्धिसंगत नहीं है I इसकी जितनी निंदा की जाय थोड़ी है I कांग्रेस भारत की गैर-सरकारी पार्लियामेंट कही जा सकती है I यह देश का सबसे महान गतिशील राजनीतिक संघटन है I आज इसकी स्थापना हुआ सैंतालिस वर्ष हो गए I इसका इतिहास महान रहा है I गत अर्द्ध शताब्दी में, देश में जितने मुख्य व्यवस्थात्मक और प्रबन्धात्मक सुधार हुए हैं, वे सब कांग्रेस के कार्य और दबाव के कारण हुए हैं I स्वायत शासन और जानत की स्वतंत्रता के अधिकार को निरंतर दृढ़ता और निर्भीकता के साथ प्रतिपादन करने में कांग्रेस ने देश का नेतृत्व किया है I कांग्रेस की छियालीस जिलों की रिपोर्ट, इसके प्रांतीय और राज्य-परिषद तथा व्यवस्थापिका सभाओं की कार्रवाइयाँ, सब इस बात का जोरदार समर्थन करते हैं कि किस प्रकार कांग्रेस एक-एक विधान के लिये जनता की दशा और उनकी राजनीतिक उन्नति में सब ओर से उन्नति को दृष्टिकोण में रखकर लड़ती रही है I कांग्रेस सदा राजनीती में समानाधिकार की प्राप्ति और जनता के प्रत्येक वर्ग और उपवर्ग के साथ समान न्याय के लिये लड़ती रही है I गत तरह वर्षों से कांग्रेस के अति आदरणीय नेतागण देश के हित के लिये जेल-यातना भुगत रहे हैं I इन सब कारणों से जनता कांग्रेस को अपना सर्वश्रेष्ठ मित्र और पथ-प्रदर्शक मानती है I व्यक्तिगत हित का बलिदान करके भी सारा देश इसकी आज्ञा मानने के लिये सदा तत्पर है I
जब से श्री मौंटेगु और लार्ड चेम्सफोर्ड के प्रस्ताव प्रकाशित हुए हैं, तब से कांग्रेस ने केंद्रीय भारत-सरकार में दायित्व पाने के लिये बहुत जोर मारा है I यह देखकर कि सरकार ने हमारी प्रार्थना अनसुनी कर दी, तभी से कांग्रेस ने सन १९२९ ई० में यह घोषणा कर दी कि यदि सरकार आगामी वर्ष के अंत तक भारत औपनिवेशिक स्वराज्य प्रदान करने कि घोषणा नहीं करती तो कांग्रेस देश को पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त करने कि घोषणा करने कि राय देगी I सन १९२९ ई० के पहली नवंबर को बड़े लाट ने एक घोषणा की, किन्तु उस घोषणा से जनता और कांग्रेस को इच्छाओं की पूर्ति के लिये संतोष न हुआ I फलतः पहली जनवरी सन १९३० ई० को कांग्रेस ने पूर्ण स्वतंत्रता को अपना लक्ष्य घोषित कर दिया I बारहवीं मार्च को महात्मा गाँधी ने सविनय अवज्ञा-आंदोलन आरम्भ किया I क्रम से राष्ट्रीय मार्गों पर राजी होने के लिये सरकार से कहा गया, जिसकी उन्होंने और भी स्पष्ट व्याख्या कर दी थी I सरकार ने दमन नीति का प्रयोग किया, किन्तु सरकार अपने प्रयत्न में सफल रही I इसके बाद एक साल तक के दमनपूर्ण शासन के बाद लार्ड इर्विन की सरकार ने महात्मा गाँधी द्वारा कांग्रेस से समझौता करना उचित और बुद्धिमानों का कार्य समझा, जो गाँधी-इर्विन समझौता कहलाता है I इंग्लैंड के प्रधानमंत्री ने कांग्रेस को गोलमेज सभा में अपना प्रतिनिधि भेजने के लिये निमंत्रित किया, कयोंकि सरकार ने यह अनुभव किया है कि कांग्रेस के बिना उक्त सम्मलेन का कोई मूल्य नहीं है I गोलमेज के कार्य को बढ़ाने के लिये कांग्रेस की सरकार से सहयोग करने की उत्सुकता के साथ वे भारत लौटे I किन्तु, जब कि लंदन में सम्मलेन हो रहा था, उसी समय साधारण निर्वाचन द्वारा पार्लियामेंट में अपरिवर्तनवादियों का बहुमत हो गया I एक घोर अपरिवर्तनवादी ही भारत-सचिव नियुक्त हुए I गोलमेज सभा में कलकत्ते के अंग्रेज व्यापारियों का प्रतिनिधित्व करने वाले श्री बैन्थल ने कहा है कि निर्वाचन के परिणामस्वरूप नीति एकदम बदल गई I नयी सरकार के दाहिने पक्ष ने सम्मलेन मंजूर कर देने और कांग्रेस से युद्ध करने का निश्चय किया I मुसलमान लोग केंद्रीय शासन-दायित्व नहीं चाहते थे, अतः वे बड़े प्रसन्न हुए I सरकार ने निश्चय ही अपनी नीति बदल दी, और 'केंद्र में' सुधार कि प्रतिज्ञा करके प्रांतीय स्वायत-शासन से छुटकारा पाना चाहती थी I कांग्रेस के साथ युद्ध अनिवार्य हो जाने के पूर्व हम लोगों ने इसका अनुभव किया और इसकी प्रार्थना की कि केंद्रीय सरकार में, जहाँ तक शीघ्र हो सके, सुधार हो जाय तो अच्छा है I किन्तु हम लोगों ने यह निश्चय किया कि पूर्ण सफलता के लिये हमारे लिये जितने भी सम्भव हो, अपने समर्थक बनावें, अतः हमने यह आवश्यक समझा कि हिन्दुओं को उभार दें, जिनके प्रतिनिधि सप्रू, जयकर तथा अन्य सज्जन थे, क्योंकि यदि हम इनसे कांग्रेस के लिये लड़ने कि आशा नहीं करते, तो कम-से-कम इतना तो अवश्य समझना चाहिए कि ये कांग्रेस का साथ नहीं देंगे I हम लोगों ने सरकार पर इस बात का जोर दिया कि इन लोगों को संतुष्ट कर सकने वाला आवश्यक और एकमात्र सदभाव यह है कि केंद्रीय और प्रांतीय सरकार कि व्यवस्था को एक ही विधान में ला दें I
अतः हमें विचित्र साथी ढूढ़ने पड़े I सरकार ने इस बात का महत्व समझा और सम्मलेन को अव्यवस्थित रूप से भंग करने के बदले, जहाँ शत-प्रतिशत हिन्दू-राजनीतिक-भारत हमारे विरुद्ध होता, सम्मलेन का अंत निन्यानवे प्रतिशत सदस्यों द्वारा सहयोग करने की प्रतिज्ञा के साथ हुआ- जिसमें मालवीया जी के समान व्यक्ति भी सम्मिलित थे- और महात्मा गाँधी ने स्वंय स्टैंडिंग कमेटी में सम्मिलित होने की इच्छा प्रकट की थी I
इस पर टिका-टिप्पणी की आवश्यकता नहीं है I इसके बाद की घोषणा और सन १९३२ ई० के चार जून वाले वक्तव्य में अंत होने वाले सरकार के कार्य आदि से यह स्पष्ट हो गया है कि महात्मा गाँधी के देश लौट आने के पहले से ही सरकार ने खूब सोच-समझकर प्रबल दमनकारी आक्रमण कांग्रेस पर करने का निश्चय कर लिया था I और इसके लिये अपने निर्णय पर ठन्डे दिमाग से मंत्रणा भी हो चुकी थी I इन बातों से यह समझना सरल हो जाता है कि बड़े लाट ने महात्मा गाँधी से मिलने की अनुमति देने से क्यों असम्मति प्रकट की, जब कि वे बड़ी उत्सुकता से कुछ प्रांतों में सरकार और कांग्रेस के बीच फैली हुई गलतफहमी दूर करने और सविनय अवज्ञा के प्रयोग को रोकने के विषय में वाइसराय से मिलने को उत्सुक थे I सरकार ने उन्हें अवसर नहीं दिया और त्तभी से उन्हें बन्दी कर रक्खा है I भारत के हर भाग में अत्यंत भयानक काले कानून जारी किये गये, जिससे सरकारी कर्मचारियों को जनता पर जुल्म करने की असीम शक्ति प्राप्त हो गई I फलतः समस्त भारत में भयंकर दमन होने लगा I गत पंद्रह महीनों में लभग एक लाख बीस हजार व्यक्ति गिरफ्तार करके बन्दी बनाये गये, जिसमें कई हजार स्त्रियाँ थीं, और बालकों की भी एक खासी संख्या थी I जब से वर्तमान नीति का प्रयोग हुआ, तब से देशवासियों पर होने वाले अत्याचारों की मैं सूची नहीं देना चाहता I समाचारों की बड़ी जाँच और नियंत्रण होने पर जो कुछ अब तक समय-समय पर प्रकाशित हुआ है, उससे स्पष्ट मालूम होता है कि दमन का विस्तार और उसका स्वरुप अभूतपूर्व है I
यह सर्वविदित है कि जब सरकार ने दमन आरम्भ किया, तब सरकारी कर्मचारियों को आशा थी कि वह छः सप्ताह में कांग्रेस को कुचल डालेगी I किन्तु पंद्रह मास कि अवधि में भी सरकार अपने इस उद्देश्य कि पूर्ति न कर सकी I इसके दुने समय में भी सरकार अपने उद्देश्य कि पूर्ति में सफल नहीं होगी, क्योंकि सरकार के अधिकार में पशुबल का बाहुल्य है, अतः उसके प्रयोग से सरकारी अधिकार के अवज्ञा का बाह्य प्रदर्शन भले ही कुछ कम हो गया हो, किन्तु नैतिक विजय कांग्रेस को ही मिली है, जिसने अपनी मुख्य कार्यप्रणाली छूटने नहीं दी है I पार्लियामेंट में अपरिवर्तनवादियों के शक्तिशाली होने से जो नीति बदली, उससे सरकार कि प्रतिष्ठा कम हो गई है I जो दमन चल रहा है उससे सरकार के प्रति जनता का भाव पहले कि अपेक्षा और भी बुरा हो गया है, और इंग्लैंड से सम्बन्ध-विच्छेद कर लेने का भाव निरंतर दृद्द होता चला जा रहा है I
सविनय अवज्ञा
यह कई बार सरकार की ओर से कहा जा चूका है कि सरकार का कांग्रेस से केवल सविनय अवज्ञा के प्रयोग के सम्बन्ध का झगड़ा है I श्री बैन्थल के पात्र को उद्दृत करके मैंने यह दिखा दिया है कि कलकत्ते के अनुदार दल वालों ने, और योरोपियन समाज ने कांग्रेस के साथ लड़ने का निश्चय कर लिया है I इसलिए नहीं कि इसने सविनय अवज्ञा आंदोलन चलाया है, बल्कि इसलिए कि वह ब्रिटिश राज्य-सत्ता का भारतियों के हाथ में देने का दावा करती है I दूसरे शब्दों में वह स्वाधीनता प्राप्त कर लेने के बाद देश के मामलों का स्वंय प्रबंध करने का अधिकार पाने का दावा करती है I यह याद रखना चाहिए, जैसा कि एक बार सर सैमुअल होर ने बाद एगर्व के साथ कहा था कि इस बार सरकार कि ओर से ही छेड़-छाड़ आरम्भ हुई है I कांग्रेस ने जनता के अधिकार कि रक्षा के लिये सविनय अवज्ञा का आश्रय लिया था, जो कि काले कानूनों कि सृष्टि से सरकार द्वारा छीन लिया गया था I आंदोलन के आरम्भ से अंत तक दमन के प्रयोग को त्यागकर सविनय अवज्ञा को स्थगित करना सरकार के हाथ में था I जो कुछ मैंने ऊपर कहा है, उससे यह निष्कर्ष निकलता है कि यदि कांग्रेस सविनय अवज्ञा स्थगित कर देती है तो भी इंग्लैंड कि वर्तमान सरकार और भारत सरकार कांग्रेस के साथ अवशय लड़ती और तब तक लड़ती जब तक भारतीय लोग सुधार कि उस संकुचित योजना को स्वीकार करने के लिये तत्पर न होते, जो उनकी बुद्धि से कल्पित, पहले की योजना से भी अधिक भ्रष्ट होती I
सविनय अवज्ञा के सम्बन्ध में व्यवस्थात्मक इतिहास को प्रत्येक विद्यार्थी जानता है कि वह प्रत्येक व्यक्ति का अधिकार है कि वह शासनात्मक कानून और नियम की अवज्ञा करे, जो स्पष्तः अन्यायपूर्ण, अत्याचारपूर्ण और अपमानजनक है, यदि वह अवज्ञा करने वाला उस दंड को भुगतने के लिये तैयार हो, जो इस अवज्ञा के फलस्वरूप उसको दिया जाय I जनता का समर्थन प्राप्त करने के लिये मानवीय कानून को अवश्य ही काम में लाना चाहिए, जैसा की अंग्रेज जूरी ने कहा है कि- "प्रकृति का विधान-जैसे न्याय, समानता, नम्रता, दया, सर्वभूत में आत्मवत प्रयोग, दूसरों के साथ वैसा ही करना, जैसे हम दूसरों से चाहते हों- आदि पर निर्भर होना चाहिए I" एक दूसरे अंग्रेज जूरी ने कहा है- "मानवीय ह्रदय कि भावनाओं पर नियंत्रण करने का व्यवस्था-सम्बन्धी कानून को अधिकार नहीं है, बल्कि उसका काम मानवीय ह्रदय कि भावनाओं कि व्याख्या करना और उनके अनुकूल आचरण करना है I" जब सरकार विशेष कानून का प्रयोग करती है, अथवा उन कानूनों कि सृष्टि करती है, जिनके द्वारा अधिकारों का जनता पर अत्यंत अनियंत्रित असीम शक्ति प्राप्त होती है- जब कि उनकी स्वतंत्रता, उनकी शक्ति, उनकी संपत्ति का समस्त अधिकार कार्यकारिणी सरकार कि दया पर निर्भर करता है, उन्हें ऐसी आज्ञा और प्रतिबंधों का शिकार बनना पड़ता है, जिनका उद्देश्य ही स्पष्तः जनता को अपमानित, भयभीत और पतित करना होता है, तो ऐसी परिस्थिति में ऐसे कानूनों, अध्यादेशों और व्यवस्थाओं कि अवज्ञा और विरोध करना जनता का धर्म हो जाता है I अंग्रेजी राज्य-व्यवस्था के अनुसार ब्रिटिश पार्लियामेंट के हाथ में कानून बनाने का अधिकार है, और ब्रिटिश जनता के लिये किसी भी कानून कि सृष्टि और विनाश इसके हाथों का खेल है I किन्तु जैसाकि एक अंग्रेज लेखक डाएसी ने बताया है कि- "किसी राजा द्वारा, और विशेषकर पार्लियामेंट द्वारा राज्यशक्ति का उचित प्रयोग चाहे जो हो, पर वह सदा लोक-विरोध पर ही अवलम्बित है I" आगे चलकर वे कहते हैं कि- "राजा कि यथार्थ शक्ति कि बाह्य सीमा इस बात कि सम्भावना और निश्चितता में है कि उसकी प्रजा का बहुमत कहाँ उसके कानून कि अवज्ञा करेगा या उसके विरुद्ध आचरण करेगा I" और इससे भी अधिक कि, "कोई राजा ऐसे अवसर पर ऐसा बहुत कार्य करने की इच्छा करेगा, जो आजतक उसने नहीं किया है, अथवा केवल भयंकर विरोध होने पर ही कर सकता है I अन्य कई कारणों से यह विचारणीय है कि ठीक स्थान, जहाँ से बाह्य सीमा प्रारम्भ होती है- वह स्थान है, जिस पर प्रजा कि विशेष आपत्ति है, और ऐसे स्थान पर प्रजा उस शासक कि अवज्ञा करती है, जिससे वह प्रायः माँगती रही है, इसकी कोई सीमा नहीं है I" एक दूसरे बड़े लेखक को डाएसी ने उद्दृत किया है, जो कहता है कि "यदि व्यवस्थापिका सभा यह निश्चय कर दे कि नीली आँख वाले सभी लड़के मार दिए जाँय- ऐसी दशा में नीली आँख वाले लड़कों कि रक्षा का कार्य गैर-क़ानूनी हो जायगा I किन्तु कानून के मानने वालों को ऐसा कानून मानने के पहले पागल हो जाना पड़ेगा I" यह प्रतिबद्ध स्वछन्द राजा के राज्य में भी रहा है I
एक दूसरे अंग्रेज लेखक जॉन ड्रिंकवाटर कहते हैं कि यह माँग उपस्थित करना कि नागरिक उसके शासन का समर्थन ऐसी दशा में करें, जो सभी न्याय के पर, अन्यायमूलक एंव बुद्धि-विरुद्ध है- ठीक उस माँग के समान है, जो व्यक्तिगत सुविधा के लिये उपस्थित कि गई हो- जिसको किसी संस्था या व्यक्ति को उपस्थित करने का अधिकार नहीं है I श्री फिशर साहब इस सम्बन्ध में के संक्षिप्त वक्तव्य देते हैं कि "यह धारणा कि, शासन पवित्र है, वह अन्याय नहीं कर सकता, उसका विरोध नहीं होना चाहिए, और उसका सदा समर्थन तथा संरक्षण होना चाहिए- चाहे वह किसी भी अन्याय का आचरण करे, तो नागरिक के लिये एकमात्र यही विधान कि- 'मेरा देश है चाहे सही रास्ते पर है या गलत', यह धारणा व्यक्तिगत भावना कि सीकृति के विरुद्ध है I"
अतः यह निर्विवाद है कि यदि कोई व्यवस्थापिका सभा अथवा राजा ऐसे कानून का प्रयोग करता है, जो स्पष्ट अन्यायमूलक और उत्पीड़क हो, और हमारी साधारण स्वतंत्रता का विघातक हो, तो जनता को ऐसे कानून कि अवज्ञा करने और उसके विरुद्ध गंभीर एंव घोर-विरोध करना चाहिए I अवज्ञा अथवा विरोध का यह अधिकार जनता के हाथ में बहुत ही मूल्यवान वैध्य अस्त्र है, जिसके जोर से जनता अधीश्वर या पीडक राजा पर, या व्यवस्थापिका सभा पर, बुद्धि और न्याय की सीमा के भीतर ही अधिकार प्रयोग करने के लिये बाध्य कर सकती है I इसके द्वारा वह अपनी स्वाभाविक स्वतंत्रता और अधिकार को पुनः स्थापित कर सकती है, जब भी कभी उस पर आक्रमण हो I हमारी सबसे बड़ी स्वतंत्रता विचार की स्वतंत्रता है I इसके द्वारा सरकार भी अपने कर्तव्य के अधीन हो जाती है I इसने सब काल में सत्यता को अमरत्व प्रदान किया है और संसार के उन लोगों के पवित्र रक्त से अपनी अज्ञानता को धोया है, जिन्होनें इसे प्रकाशित किया था I अतः हमारा यह कर्तव्य है कि हम ऐसे कानून कि अवज्ञा और विरोध करें, जिससे हमारे सहमिलन और सम्भाषण कि स्वतंत्रता का अपहरण होता हो I महात्मा गाँधी ने ऐसी परिस्थिति में अहिंसात्मक सविनय अवज्ञा के प्रयोग की भारतियों को शिक्षा देकर मानव समाज की महान सेवा की है I यह प्रतिवाद वैध्य और अहिंसात्मक है I स्वंय शांतिपूर्वक चोट सह लेना और चोट पहुँचाने वाले को किसी प्रकार चोट पहुँचाने की चेष्टा न करना, इसका सिद्धांत है I भारत में आपकी शिक्षा लाखों नर-नारियों ने स्वीकार की है I हमको इसका दृद्द विश्वास के साथ इसका अनुसरण करना चाहिए कि सत्य की अवश्य विजय होगी I हमें ब्रिटिश सरकार को बता देना चाहिए की हम भारतीय निशस्त्र हैं, विदेशी अनियंत्रित शासन के अंदर बसते हैं, हम अपनी स्वतंत्रता पुनः प्राप्त करने के लिये सचेष्ट हैं, और एक क्षण के लिये भी सविनय अवज्ञा रुपी अभेद्द कवच को त्याग या स्थगित करने की बात नहीं सोच सकते I सरकार के लिये उचित मार्ग यही होगा कि वह अपना सम्बन्ध जनता के अनुकूल स्वतंत्रता, समानता, पारस्परिक सदभाव और मैत्री के आधार पर स्थित करे I और वह परस्पर द्धेष तथा दुर्भाव दूर हो, जिसका वर्तमान परिस्थिति में एकमात्र अनिवार्य प्रतिफल सविनय अवज्ञा है I
भारत और इंग्लैंड का सम्बन्ध
भारत और इंग्लैंड का सम्बन्ध विषाक्त आधार पर स्थित है I अंग्रेज जाती और अंग्रेजी पार्लियामेंट ने यह सोच लिया है कि उन्हें भारत पर शासन करते रहने का नैतिक अधिकार है, जिसका अर्थ अपने राष्ट्र कि उन्नति के लिए भारत को लूटना है I वे यह स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं कि प्रत्येक अन्य देश कि तरह भारत को भी स्वशासन का अधिकार है, अर्थात ग्रेट ब्रिटेन के समान ही इसको भी पूर्ण स्वतंत्रता का अधिकार है I वह एक विचित्र स्थिति थी जब कि इंग्लैंड भारत में अपना शासन स्थापित करने में समर्थ हुआ I उक्त परिस्थितियां इतनी अधिक स्पष्ट हैं कि उनकी व्याख्या अनावश्यक है I घोषणा के बाद से ब्रिटिश राजनीतिज्ञों ने भारतियों को प्रायः अपने समान का शासित वर्ग कहा है I किन्तु अभी तक इन लोगों ने हमारे साथ समानता का व्यवहार नहीं किया है I कांग्रेस ने अपने जन्म से ही इस बात कि सिफारिश की है कि भारत में स्वायत्त-शासन स्थापित होना चाहिए I योरोप में महासागर के आरम्भ से ही कांग्रेस सरकार पर इसके लिये जोर दे रही है I इंग्लैंड के राजा और ब्रिटिश नेतृमण्डल प्रायः भारतीय नरेशों और भारतीयों से इंग्लैंड और उसके मित्र राष्ट्रों पर इस आधार पर युद्ध में सहायता करने के लिये कहते रहे हैं कि इंग्लैंड 'सत्यमेव जयते' के सिद्धांत कि स्थापना, और संधि के अधिकार कि रक्षा, और उसके प्रति कर्तव्य-पालन कि बुद्धि से प्रेरित होकर युद्ध में भाग ले रहा है, और उनका प्रतिपक्षी जर्मनी स्वतंत्रता के लिये नहीं बल्कि 'जिसकी लाठी उसकी भैंस' वाले सिद्धांत के राज्य कि स्थापना के लिये लड़ रहा है I एक अंग्रेज राजनीतिज्ञ ने कहा है कि हम सब भी स्वतंत्रता के लिये लड़ रहे हैं I विदेशी नियंत्रण के अंदर असहय पतन कि इन लोगों ने बड़ी निन्दा की है I श्री मौंटेगू और चेम्सफोर्ड की रिपोर्ट में कहा है कि "यह युद्ध अधीश्वरवाद और स्वतंत्रता के बीच है I अपने भाग्य-निर्णय का अधिकार मनुष्यमात्र को, और छोटे राज्यों को भी प्राप्त है I उस अधिकार की रक्षा के लिये यह युद्ध है I" अमेरिका और इंग्लैंड के राजनीतिज्ञों ने अपने भाषण में यह घोषित किया था कि "यह युद्ध जर्मन सैनिकवाद के प्रतिवाद में हो रहा है I साथ ही छोटे और बड़े राष्ट्रों के अपने भाग्य के स्वंय निर्णय करने के अधिकार कि स्वीकृति के पक्ष में यह युद्ध है I भारत ने इंग्लैंड और उसके मित्र राष्ट्रों को युद्ध में सहायता करने में कोई कसार नहीं उठा रक्खी I महासागर में में भारत ने जो सहायता की थी, उसे अंग्रेजों ने बड़ी उदारता से स्वीकार किया I" इन्होनें भारत की राज्य सहायता का विवेचनपूर्ण स्वागत किया और भारतीयों और अंग्रेजों को इन्होनें सबके हित और भाग्य का समान रक्षक कहा है I युद्ध समाप्त हो जाने के बाद इन वक्तव्यों और घोषणाओं की उपेक्षा करके इंग्लैंड ने भारत के प्रति अपना रुख ही बदल डाला I तथापि सरकार इस बात से सहमत रही है, क्योंकि भारत ने विगत महासागर में जानें गवाईं हैं, और धन व्यय किया है I अतः इसको कुछ स्वतंत्र अधिकार मिलने चाहिए I ऐसा करने के बदले सरकार ने गत तरह साल तक भारतीयों को एक नीच वर्ण समझा है, जिसकी स्वायत्त शासन के अधिकार सम्बन्धी प्रगति का क्रम इंग्लैंड की पार्लियामेंट के अधीन किया है I इस बात के दम्भ ने भारतीयों के ह्रदय पर चोट पहुंचाई और अत्यंत कटु भाव फैलाया है I ब्रिटिश सरकार ने भारत में लाखों की संख्या में अपनी समान प्रजा पर जिस दमन का प्रयोग किया है, जिन्हें अंग्रेजों ने युद्धकाल में बराबरी का स्थान देकर और साम्राज्य के भाग्य का समान संरक्षक कहकर स्वागत किया था, उस दमन से भारत और इंग्लैंड-सम्बन्धी इतिहास का एक अध्याय काले पृष्ठों से भरा हुआ है, जिसके कारण लज्जा से प्रत्येक अंग्रेज का सिर नीचे रहेगा I
श्वेत-पत्र
इंग्लैंड ने जो सबसे भारी अपमान भारत का किया है, वह उसके सर्वमान्य नेता को नजरबन्द करना और भारत के लाखों देशभक्त नर और नारियों को जेलों में क़ैद करना है I इसके साथ ही दूसरी ओर वह भावी शासन के नए विधान को तैयार करने में भी लगी हुई है, जिसे वह अपने अनुकूल मनोनीत कुछ भारतीयों की सहायता से कर रही है I उसने नये विधान को ऐस दम्भ भरे हुए अधिकार को मानकर बनाया है कि ब्रिटिश पार्लियामेंट का कर्तव्य ओर नैतिक भर है कि वह इस बात का निर्णय करे कि कहाँ तक ओर किन-किन नियंत्रणों ओर संरक्षणों के साथ वह भारत को अपने घरेलु शासन में अधिकार देगी I वह श्वेत-पत्र उन ब्रिटिश राजनीतिज्ञों की भारत के, ओर उसकी समस्यायों के प्रति गन्दी मनोवृति का परिचायक है, जो अंग्रेजी पार्लियामेंट पर इस समय अधिकार किए हुए है I इसके द्वारा भारतीयों की देशभक्ति ओर बुद्धिमत्ता के विरुद्ध आज की दशा के अनुसार ओर भी अधिक निअरादर जान-बूझ कर किया गया है I यह आशा करना ही व्यर्थ था कि वह शासन-विधान भारतीयों को मान्य होगा, जिसका जन्म ऐसे वातावरण और ऐसी मनोवृतिवाले ब्रिटिश राजनीतिज्ञों द्वारा हुआ है, जो भारत के प्रतिकूल भाव रखते हैं I इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि श्वेत-पत्र कि समस्त भारत में निन्दा हुई है I मुझे आशा है कि कोई भी आत्मसम्मान वाला भारतीय, जो मातृभूमि के प्रति अपना उचित धर्म समझता है, श्वेत-पत्र से सम्बंधित किसी भी मामले में बाग़ ने लेगा, जब तक कि ब्रिटिश सरकार अपनी वर्तमान नीति में परिवर्तन न करे और भारतीयों को बराबरी का सम्मान न दे, जो इंग्लैंड के समान ही अपने देश का स्वंय प्रबंध कारण एके अधिकारी हैं I
जनता से अपील
मैं अपने देशवासियों से अनुरोध करता हूँ कि वे सच्ची स्थिति को समझें I यह सर्वसम्मत है कि प्रत्येक भारतीय चाहता है कि हम स्वंय अपने देश का शासन-प्रबंध करें I इस स्वतंत्रता कि प्राप्ति तब सरल होगी, जब हम सब संघटित होकर लगन के साथ उसे प्राप्त करने का यत्न करें I अन्य देशवासियों से भी मेरा नम्र अनुरोध है कि सब साम्प्रदायिक मतभेद को त्यागकर, सब मत के लोगों में राजनीतिक एकता स्थापित करें I जो एकता-सम्मलेन प्रयाग में हुआ था, वह साम्प्रदायिक निर्णय लगभग कर चुका है I मुझ ेपूर्ण आशा है कि कांफ्रेंस शीघ्र ही पुनः अपना कार्य आरम्भ करेगी और सब सम्प्रदायों के लिये संतोषप्रद निर्णय करेगी I हमारा राष्ट्रीय राजनीतिक ध्येय सब दलों के लिये एक सा है I और श्वेत-पत्र ने, जो देश के लोगों की आँखें खोल दी हैं, उससे यह आशा करनी चाहिए कि हम देश में राजनीतिक एकता स्थापित कर सकेंगे I यदि हम ऐसा करने में सफल हुए तो संघटित भारत का दबाव ब्रिटिश सरकार को भारत के प्रति अपना विचार परिवर्तित करने के लिये बाध्य करेगा, और भारतीयों को स्वभाग्य-निर्णय के अधिकार देने के लिये, और ऐसा शासन-विधान मिर्मित करने के लिये बुलाया जायगा, जिसके द्वारा भारतीयों को अपना प्रबंध अपने-आप करने की वास्तविक स्वतंत्रता प्राप्त हो I
मैं आपका अहदिक समय नहीं लूंगा I हम अति विषम स्थिति में यहाँ एकत्र हो रहे हैं I सब प्रकार की विघ्न-बाधाएं, जैसे- गिरफ्तारियाँ, जब्तियां, पाशविक बल का प्रयोग, अत्याचार और दमन करके कुचलने के लिये चारों ओर से घेरकर हमको यातनाएँ दी जा रही हैं I किन्तु हमें डरकर चुप नहीं हो जाना चाहिए I ईश्वर हमारी सहायता करेगा कि जिससे हम प्रत्येक समस्या को अपनी प्यारी मातृभूमि के प्रति सम्मान और हित कि दृष्टि से विचार कर सकें और वह हमारे देशवासियों को ऐसी स्थिति में उचित और सन्मार्ग पर ले जाने के लिये हमको प्रकाश देगा, जो कि बाधाओं से घिरे रहने पर भी आशापूर्ण है I हमारा ध्येय स्पष्ट है I इसको प्राप्त करने का हमारा दृढं निश्चय है,जिसका प्रमाण गत तीन वर्षों में असंख्य नर-नारी और बच्चों के त्याग से स्पष्ट है I आज हमारे वीरिचित संग्राम पर संसार आश्चर्यचकित है I स्वतंत्रता-संग्राम में भारतीय महिलाओं और बच्चों ने जो अदभुत कार्य किया है, उससे उनका नाम अमर हो गया है I किन्तु हमें अपने निश्चय को और भी अधिक दृढं बनाना चाहिए I स्वतंत्रता का पूरा मूल्य हमें चुकाना पड़ेगा I कांग्रेस सब वर्ग और सब जातियों कि हितैषी है I इसकी सबके लिये समान न्याय दिलाने कि पवित्र प्रतिज्ञा है I मैं प्रत्येक नर और नारी से भारतीय राष्ट्रीय महासभा का सदस्य बनने का अनुरोध करता हूँ I मैं अपने प्रत्येक देशवासी से अनुरोध करता हूँ- बड़े या छोटे से- कि वे प्रतिदिन इसके कोष में कुछ-न-कुछ देकर इसकी सहायता करें और मातृभूमि कि सेवा मने त्याग और कष्ट सहन के लिये तत्पर रहें I बड़े अन्धकार के बाच मैं एक स्पष्ट ज्योति देखता हूँ कि अभी तक जो विपत्ति के मेघ हमारे ऊपर छाए हुए हैं, वे अब फट रहे हैं I भारत-माता के प्रत्येक पुत्र और पुत्रियों का कर्तव्य है कि वह स्वतंत्रता और समृद्धि के मार्ग को अधिक से अधिक प्रशस्त करे I सत्य हमारे पक्ष में है I न्याय हमारे साथ है I ईश्वर हमारी सहायता करेगा I हमारी विजय निश्चित है I वन्देमातरम I
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