Mahamana Madan Mohan Malaviya

Mahamana Madan Mohan Malaviya
Speeches & Writings

भारत में दमन-चक्र

 

        २० अप्रैल, सन् १९३२ ई. तक,  सरकार ने जो दमन किया,  उस पर पण्डित मालवीय जी ने एक वक्तव्य लिखकर तार द्वारा लन्दन भेजने का विचार किया था, किन्तु वह तार रोक दिया गया। यह उसी  का अनुवाद है,  जो पूज्य मालवीय जी के पुत्र तथा निजी सचिव पण्डित गोविन्द मालवीय ने प्रकाशित कराया था।      

                                                                                                                                 

-  सम्पादक

 

      त २८ फरवरी सन् १९३२ ई. को मैंने जो तार लन्दन भेजने का प्रयत्न किया था,  उसमें मैंने संक्षेप में उसकी परिस्थिति का दिग्दर्शन कराया था,  और कुछ ऐसी चुनी हुई घटनाएँ भी बतलाई थीं, जो उस तारीख तक भारत-सरकार की उस दमन-नीति के कारण देश के सभी भागोमें हो रही थीं,  जो सत्याग्रह आन्दोलन को दबाने और भारतीय राष्ट्रीय महासभा को कुचलने के उद्देश्य से जारी है। वही नीति अभी तक निरन्तर काम कर रही है और उसमें कोई कमीं नहीं हुई है। इधर २० अप्रैल,  सन् १९३२ ई. तक जो-जो घटनाएँ हुई हैं, उन सबका यहाँ एक संक्षिप्त विवरण दिया जाता है।


      वह विवरण देश में प्रकाशित होने वाले ऐसे प्रमुख समाचार-पत्रों में प्रकाशित समाचारों के आधार पर तैयार किया गया है जिनकी खबरों की सरकार बराबर जाँच और काट-छाँट कर लेती है। इस समय भारत में  जो विशेषाधिकार राज्य चल रहा हैं, उसके कारन भी समाचार-पत्रों के लिये सच्ची खबरे  छापने में भी बहुत बाधा होती हैं, और ऐसी लाचारी हालत में  छपने-वाले समाचार-पत्रों का ही आधार लिया गया है। इसके सिवा अपनी व्यक्तिगत जानकारी से भी काम लिया गया है। देश में काँग्रेस के संघटन का जो जाल बिछा हुआ हैं,  उसके द्वारा भी हमें बहुत से समाचार और बहुत सी सूचनाएँ मिली हैं, जिनका रूप और भी विकट है। पर ऐसे समाचार और सुचनाएँ इसमें सम्मिलित नहीं की गई हैं। कुछ थोड़ी सी घटनाओं को छोड़कर साधारणत: बाकी घटनाओ  पर किसी तरह की टीका–टिप्पणी भी नहीं की गई है।


    इस प्रकार यह विवरण मानो सब घटनाओं का एक ऐसा चित्र है जो सरकारी स्वीकृति से समाचार – पत्रों में प्रकाशित हुआ है। लेकिन देश में जैसी परिस्थिति है, उसे देखते हुए यह विवरण न तो बिल्कुल पूरा और विस्तृत ही हो सकता है, और न इससे पाठकों को इस बात का पूरा-पूरा पता ही चल सकता है कि भारत में प्रचलित विशेषाधिकारों के अपवित्र संरक्षण में सरकारी कर्मचारी हमारे देश के पुरुषों और स्त्रियों के साथ उनको दमन करने के लिये कैसे पाशविक,  नीचतापूर्ण और रोमांचकारी कार्य कर रहे हैं। पर साथ ही यह संक्षिप्त विवरण केवल प्रथम श्रेणी के समाचार-पत्रों के आधार पर तैयार किया गया है, और इसलिये इसका महत्त्व निर्विवाद है।


     जिस समाचार के सम्बन्ध में जरा भी सन्देह या अनिश्चय हुआ है,  उसे छोड़ दिया गया है,  और मैंने जो कुछ अनुमान किए हैं,  वे वास्तविक स्थिति से बहूत ही कम हैं। इसके सिवा मैं और अधिक कुछ कहना नहीं चाहता। एक जनवरी से २० अप्रैल, सन् १९३२ ई. तक की घटनाओं के जो संक्षिप्त विवरण ओर अंक यहाँ दिए गए हैं, स्वयं उन्हीं से परिस्थिति का पता चल सकता है,  और उनके सम्बन्ध में कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है।


 

कुल गिरफ्तरियाँ

 


       इतने समय में समाचार-पत्रों में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार सारे देश में सत्याग्रह आन्दोलन के सम्बन्ध में कुल छाछठ हजार छ: सौ छियालीस गिरफ्तारियाँ हुई हैं,  जिनमें पाँच हजार तीन सौ पच्चीस स्त्रियाँ और बहुत से बच्चे भी हैं। लेकिन भारत के गाँवों और देहातों में बहुत सी ऐसी गिरफ्तारियाँ होती हैं, जिनकी खबरें समाचार-पत्रों में किसी तरह पहुँचती ही नहीं,  और जो उसमें सम्मिलित नहीं हो सकती। इन सब बातों का विचार करते हुए जो लोग भारत की वर्त्तमान स्थिति से परिचित हैं,  वे तुरन्त यह मान लेंगे कि सारे देश में अवश्य ही अस्सी हजार से अधिक गिरफ्तरियाँ हूई हैं।



 

 हाजिरी की आज्ञाएँ

 


       तीन सौ बहत्तर आदमी,  जिनमें समाचार-पत्रों के सम्पादक,  वकील,  बैरिस्टर,  डॉक्टर,  प्रोफेसर, व्यापारी और प्रतिष्ठित तथा सम्पन्न नागरिक हैं,  गिरफ्तार करके यह आज्ञा देकर छोड़े गए हैं कि अमुक-अमुक अपमानजनक शर्त्तों का पालन करें,  और इनमें मुख्य शर्त्त प्राय: यही हुआ करती है कि आप थाने में रोज आकर हाजिरी लिखाया करें। एक अवसर पर कुछ काँग्रेस वालों को तो यहाँ तक आज्ञा दी गई थी कि आप लोग सुबह और शाम दोनों वक्त थाने में रोज आकर कई घण्टे तक हाजिर रहा करें। जैसी कि आशा की जाती थी,  इन आज्ञाओं की उपेक्षा की गई और फल यह हुआ कि उन लोगो  को लम्बी सजाएँ और भारी जुर्माने हुए। इस प्रकार की आज्ञाओं से जनता में सरकार का उपहास भी हुआ और उसके प्रति घृणा भी उत्पन्न हुई, और अब ऐसा जान पड़ता है कि यह ढंग छोड़ दिया गया है।


 

झण्डा-सत्याग्रह 

 


        देश के भिन्न-भिन्न भागों में से झण्डा-सत्याग्रह होने के चार सौ छानबे समाचार आए हैं, जिनमें लोग केवल इसीलिये गिरफ्तार किए गए थे कि वे राष्ट्रीय झण्डा गाड़ना चाहते थे,  किसी स्थान पर लगाए रखना चाहते थे, अथवा उसका अभिवादन करना चाहते थे। ऐसे बहुत से अवसरों पर पुलिस ने लाठियाँ चलाई हैं और बहुत से आदमियों को घायल किया है। आजकल भारत के तिरंगे राष्ट्रीय झण्डे के जैसा निरीह पदार्थ भी सरकारी अफसरों के लिये वही काम दे रहा है जो काम लाल कपडा साँढ के लिये देता हैं,  और वे उसी पशु की तरह उजड्डपन से और मूर्खता से उसे दबाने का प्रयत्न करते हैं। इतना सब कुछ होने पर भी देरा में असंख्य स्थानों पर झण्डा फहरा ही रहा है।


       कम-से-कम २४९६ अवसरों पर पिकेटिंग करने के कारण गिरफ्तरियाँ होने के समाचार मिले हैं। वास्तव में इस अपराध के लिये जो गिरफ्तारियाँ हुई हैं,  उनकी संख्या अवश्य ही इससे कहीं अधिक है। लेकिन फिर भी जहाँ-जहाँ आवश्यकता समझी जाती है,  वहाँ-वहाँ शान्तिपूर्ण पिकेटिंग बराबर और खुलेआम होती ही रहती है।


जेल भर गए हैं


      इतनी अधिक गिरफ्तारियाँ होने पर भी सविनय अवज्ञा-आन्दोलन के जितने काम हैं,  वे सब बराबर हो ही रहे हैं और गिरफ्तारियों के लिये अपने-आपको समर्पण करने वालों का ऐसा ताँता लगा ही रहता हैं, जिसका कभी अन्त नहीं होता। भारत के जेल बिल्कुल भर गए हैं। और उनमेसे बहुत से जेल तो ऐसे है  कि उनमें जितने आदमी रह सकते हैं,  उनसे ड्योढे,  बल्कि उससे भी ज्यादा आदमी भरे हुए हैं। जेलों में सत्याग्रही कैदियो  के लिये जगह करने के उद्देश्य से ऐसे बहुत से साधारण कैदियों को छोड़ना आरम्भ कर दिया गया है, जिनकी मियाद पूरी होने में अभी बहुत समय बाकी है। बहुत से अस्थायी जेल भी बनाए गए हैं। लेकिन बराबर बढ़ते रहने वाले राजनीतिक कैदियों के लिये वे जेल भी पुरे नहीं पड़ रहे हैं।


जेलों में व्यवहार


        सम्भवत: लोगों को जेल जाने से रोकने के उद्देश्य से अनेक स्थानों में जेलों के अन्दर इन राजनीतिक कैदियों के साथ निर्दयतापूर्ण व्यवहार किया जाता है। भारत के जेलों में कैदियों की जो अवस्था है, और उनके साथ जो निन्दनीय व्यवहार किया जाता है,  उसकी बहुत दिनों से सख्त शिकायत होती चली आई है। राजनीतिक कैदी बराबर ऐसे व्यवहार का विरोध करते थे, यहाँ तक कि लाहौर जेल में जतीन्द्रनाथ दास ने लगातार चौंसठ दिनों तक वीरतापूर्वक अनशन किया,  जिससे उनकी मृत्यु ही हो गई, और इसके कारण सारे देश में इतना अधिक क्षोभ फैला था कि अन्त में सरकार को भी विचलित होने के लिये विवश होना पड़ा था,  और उसने जेलों के सम्बन्ध में कुछ नये नियम बनाए थे,  जिनमें से एक नई प्रणाली केदियो  के वर्गीकरण की भी थी और जिसके अनुसार राजनीतिक कैदियों को उनकी उच्च मर्यादा और रहन-सहन के अनुसार और बीश्रेणियों में रखने की व्यवस्था हुई थी,  और साधारण अपराधियों की अपेक्षा,  जो सीश्रेणी के कैदी कहे जाते थे,  ‘  और बीश्रेणीवाले कैदियों के साथ अपेक्षाकृत अच्छा व्यवहार होने को था। यह भी निश्चय हुआ था कि जो लोग हिंसा या नैतिक भ्रष्टता के अपराधों में जेल जायेंगे, वे ‘बी’ क्लास में रक्खे जायेंगे और बाकी सब लोग ‘ए’ क्लास में रहेंगे।


      जिस समय ये नियम बने थे, उस समय भारत-सरकार के तत्कालीन होम मेम्बर ने भारत की बड़ी व्यवस्थापिका सभा के हम सदस्यों में से कुछ लोगों को यह विश्वाश दिलाया था कि भविष्य में सभी राजनीतिक कैदी या तो ‘ए’ में या ‘बी’ श्रेणी में रक्खे जाया करेंगे। पर आज उस दिलाए हुए विश्वाश का लोगों को सबसे अधिक स्मरण इसी रूप में होता है कि उसका पालन नहीं किया जा रहा है कुल छाछठ हजार छ: सौ छियालीस गिरफ्तारियों में से (हमारे अनुमान से यह संख्या अस्सी हजाए है ) दो-चार सौ से अधिक आदमी ‘ए’ या ‘बी’ क्लास नहीं रक्खे गए हैं।


     बहुत से बड़े-बड़े प्रतिष्ठित आदमी और ऐसे सम्पन्न नागरिक, जो जन्मभर बहुत ही सुख से रहते आए हैं, ‘सी’ श्रेणी में साधारण अपराधियों की तरह रक्खे गए हैं। इसके उदाहरण-स्वरूप हम अनेक नाम बतला सकते हैं। जैसे- महात्मा गाँधी की धर्मपत्नी श्रीमती कस्तूरबाई  (इन्हें बाद में  श्रेणी में रक्खा गया था),  सेठ जमनालाल बजाज,  जो एक बहुत बड़े और सम्पन्न व्यापारी हैं, और जिन्होंने अपने- आपको देश-सेवा के लिये अर्पित कर दिया है, जो अखिल भारतीय काँग्रेस के अवैतनिक खजाँची हैं और जो सारे देश में बहुत सम्मान की दृष्टि से देखे जाते हैं, श्रीमती कमलादेवी चट्टोपाध्याय, जो सारे भारत में प्रसिद्ध और प्रमुख काम करने वाली हैं,  और दूसरे बहुत से सम्पन्न स्त्री तथा पुरुष सविनय अवज्ञा-आन्दोलन के सम्बन्ध में जेल भेजे गए हैं,  ‘सी  श्रेणी में ही रक्खे गए हैं, जिन बहुत ही थोड़े से आदमियों को और बी  श्रेणी में रक्खा गया है,  उनके साथ भी जो व्यवहार किया जाता है, वह ऐसा निन्दनीय है जो किसी भी सभ्य सरकार पर कलंक लगाने वाला है।


      बाकी जो और हजारों देशभक्त अपने-अपने विश्वास के अनुसार अपनी मातृ-भूमि को स्वतंत्र बनाने के लिये जेल गए हैं, उनके साथ भी जो व्यवहार होता है,  वह भी ऐसा ही निन्दनीय और सरकार को कलंकित करने वाला है। वहाँ खाना और कपड़ा आदि इतना रद्दी दिया जाता है,  और दूसरे ऐसे बहुत से कष्ट पहुँचाए जाते हैं,  जैसे कष्ट संसार के दुसरे सभ्य देशों में साधारण कैदियों को भी नहीं दिए जाते। भारत में इन राजनीतिक कैदियों में से कुछ लोगों के साथ तो जेलों के अन्दर ऐसा बुरा व्यवहार किया जाता है, जिसकी कल्पना भी और देशों के रहने वाले लोग नहीं कर सकते।


      आजकल गर्मी के दिनों में राजनीतिक कैदी ऐसी बैरकों में भेड़ों की तरह भर दिए जाते हैं,  जो प्राय: सब तरफ से बन्द होते हैं; और कुछ अवस्थाओं में तो उनके ऊपर केवल टीन या लोहे की छाजनें होती हैं,  जिनके कारण उन बैरकों की दशा बहुत कुछ भट्ठी की-सी हो जाती है। और इसके सिवाय ऐसा भी हुआ है कि लोगों को दिन के समय पीने तक के लिये पूरा पानी नहीं दिया गया। छोटे-छोटे लड़के केवल “”‘“वन्देमातरम्’” का घोष करने अथवा इसी प्रकार के दूसरे तुच्छ अपराधों के कारण जेलों के अन्दर बेतों से पीटे जाते हैं। कई जेलों में स्थान के अभाव के कारण ‘सी’ श्रेणी के राजनीतिक कैदी खुले मैदान में रक्खे जाते हैं,  उनके एक पैर में बेड़ी पहना दी जाती है,  और उन सबकी बेडियों मेइस प्रकार जंजीरे कस दी जाती हैकि वे बिना काटे किसी तरह निकल ही नहीं सकतीं। ऐसी अवस्था में एक कैदी बिना बाकी सब कैदियों की निद्रा भंग किए अपने स्थान से हिल ही नहीं सकता।


      एक ऐसा आदमी है जिसे सम्भवत: क्षय रोग हो गया है। वह दिन-रात एक ऐसी छोटी बन्द कोठरी में  रक्खा जाता है कि उसकी सजा करीब-करीब काल कोठरी की सजा के बराबर हो जाती है। लेकिन सबसे अधिक बुरा व्यवहार स्त्री कैदियों के साथ किया जाता है। उनके साथ बहुत अनुचित व्यवहार होता है और वे बहुत तंग की जाती हैं। एक बार ऐसा हुआ था कि एक हवालात में बारह स्त्रियाँ लाठियों, ठोकरों और मुक्कों से बहुत बुरी तरह पीटी गई थीं और वे बिल्कुल नंगी कर दी गईं थीं।


      लेकिन इतना सब कुछ होने पर भी गिरफ्तारी के लिये तैयार होने वालों की संख्या  में कोई कमी नहीं होती। ऐसा जान पड़ता है कि सरकार की समझ में ही नहीआता कि क्या किया जाय। जेलों में इतने अधिक आदमी भर गए हैं, इन राजनीतिक कैदियों की इतनी बड़ी सेना को खिलाने,  पिलाने और रखने का खर्च इतना बढ़ गया है,  और कैद करके लोगोके विरोध का भाव दबाने का प्रयत्न इतना बेकार हो रहा है, कि जान पड़ता है कि सरकार ने घबरा कर इसी नीति का अवलम्बन किया है कि जहाँ तक हो सके,  लोग गिरफ्तार न किए जायँ। प्राय: सभी जगह पुलिस की अधिकतर प्रवृत्ति यही दिखलाई पड़ती है कि पिकेटिंग करने वाले स्वयंसेवकोऔर काँग्रेस के दूसरे कार्यकर्त्ताओको सब प्रकार से तंग और अपमानित किया जाय और बहुतों में से केवल उन थोड़े से आदमियो  को गिरफ्तार किया जाय,  जो हर तरह से अपने-आपको गिरफ्तारी के काबिल बनाते हों। यदि यह बात न होती तो गिरफ्तार होने वालों की संख्या इस संक्षिप्त विवरण में  बतलाई हुई संख्या की अपेक्षा कहीअधिक हो


लाठी प्रहार


        जितने दिनों का यह विवरण है,  उतने दिनों में समाचार-पत्रों  के अनुसार पुलिस ने सब मिलाकर दो सौ पच्चीस स्थानोमें निहत्थी जनता पर लाठियाँ चलाई हैं। पर काँग्रेस के एक विवरण से सूचित होता है कि केवल एक प्रान्त में तीन सौ अधिक बार लाठियाँ चलाई गई हैं। लाठी की चोट कितनी कड़ी और तकलीफ देनेवाली होती है,  इसका अनुमान केवल इस एक बात से किया जा सकता है कि यदि लाठी का एक भरपूर हाथ किसी पर बैठ जाय तो उसकी मृत्यु तक हो सकती है। प्राय: जब-जब लाठियाँ चलाई जाती हैं, तब-तब बहुत से आदमी घायल होते हैं और उन घायलों की चोट भी प्रायः सख्त ही हुआ करती है।


गोलियाँ


     लाठियों के इन प्रहारों के सिवाय देश भिन्न-भिन्न भागों में कम-से-कम उन्तीस स्थानों में ऐसे निहत्थे लोगों पर गोलियाँ चलाई गई हैं जो किसी प्रकार का विरोध नहीं करते थे। यदि निष्पक्ष रूप से जाँच की जाय तो मेरा विश्वास है कि इनमें से प्राय: प्रत्येक अवस्था में यह प्रमाणित हो जायगा कि गोलियाँ चलाने की बिल्कुल कोई आवश्यकता नहीं थी, और गोलियाँ चलाना अन्यायपूर्ण था, और ये गोलियाँ केवल इसीलिये चलाई गई थी कि लोगों में सरकारी अधिकारियों का विरोध करने का जो भाव फैल गया है, उसका उन्हें पूरा-पूरा दण्ड दिया जाय,  उसका बदला चुकाया जाय और उनके मन में  भय उत्पन्न किया जाय। लेकिन इन गोलियों का भी कोई विशेष प्रभाव नहीं हुआ है। सूचनाएँ मिली हैं कि पुलिस के गोलियाँ चलाने के बाद भी लोग बहुत बड़ी संख्या में एकत्र हुए हैं और उन्होंने अधिक दृढ़तापूर्वक अपना कार्यक्रम पूरा किया है


तलाशियाँ


      खबर है कि छ: सौ तेंतीस अवसरों पर लोगों के घरों की तलाशियाँ ली गई हैं, और बहुत से अवसरों पर तो बहुत ही तुच्छ कारणों से तलाशियाँ हुई हैं,  और घर में रहने वाले लोगों को बहुत तंग किया गया है। काँग्रेस के विवरणों से सूचित होता है कि इन तलाशियों की संख्या भी इसकी अपेक्षा कहीं अधिक है


जब्तियाँ


      एक सौ दो अवसरों पर लोगों की जायदादें इसलिये जब्त कर ली गई हैं कि वे सविनय अवज्ञा-आन्दोलन में सम्मिलित होते थे। कुछ लोगों के जुर्माने वसूल करने के लिये उनके सम्बन्धियों तक की जायदादें कुर्क कर ली गई हैं।


जुर्माने


      साधारणत: सरकार की यही नीति जान पड़ती है कि जिन लोगों को इस आन्दोलन के सम्बन्ध में  सजा दी जाय, उन पर भारी-भारी जुर्माने हों। सजा होने पर साधारणत: पुलिस लोगो  का इतना अधिक माल-असबाब उठा ले जाती है,  जो जुर्माने की रकम की वसूली के लिये आवश्यकता से कहीअधिक होता है। कुछ अवस्थाओं में तो दस-दस हजार रुपये तक जुर्माने हुए हैं, और अभी हाल में एक मुकदमें में बीस हजार रुपए जुर्माना हुआ है


समाचार-पत्रों पर संकट


      इन सबसे बढ़कर बात यह है कि समाचार-पत्रों का गला इस तरह घोंटा गया है, जैसा पहले कभी घोंटा नहीं गया था। ऐसी एक सौ तिरसठ घटनाओं की सूचना मिली है. जिनमें समाचार-पत्रों और सार्वजनिक छापेखानों को जब्त कर लेने या उनको जमानतें दाखिल करने की आज्ञाएँ दी गई हैं, जिनके परिणामस्वरूप अनेक समाचार-पत्र और छापेखाने बन्द हो गए हैं। इनके सिवाय समाचार-पत्रों के सम्पादकों, प्रकाशकों और मालिकों को चेतावनियाँ दी गई हैं, उनके यहाँ तलाशियाँ हुई हैं और उनकी गिरफ्तरियाँ हुई हैं। अहमदाबाद से प्रकाशित होने वाले महात्मा गाँधी के “”‘यंग इण्डिया’ और ‘नवजीवन’ नामक पत्र, प्रयाग से प्रकाशित होने वाला ‘“अभ्युदय’” नामक पत्र और दूसरे बहुत से पत्र बन्द हो गए हैं। इसके सिवाय समाचार पत्रों के पास जो समाचार आते हैं, उनकी पहले से बहुत कड़ी जाँच का ली जाती है, और अधिकारियो  ने समाचार-पत्रों से सम्बन्ध रखने वाले तथा दूसरे काले कानूनों की सर्वव्यापिनी धाराओं और उन्हे  तोड़ने के परिणामों  से समाचार-पत्रों और उनके सम्वाददाताओं को इतनी बुरी तरह से डरा दिया है कि यह बात बिल्कुल निश्चित हो गई है कि देश में जो-जो घटनाएँ होती हैं, उनकी बहुत ही कम खबरें समाचार–पत्रों में छपने प


दमन


       जो बहुत से पुरुष, स्त्रियाँ और बच्चे जेलों में बन्द कर दिए गए हैं, अहिंसात्मक पुरुषों और स्त्रियों की जो असंख्य स्रार्वजनिक सभाएँ और जुलूस लाठियाँ चलाकर और कभी-कभी गोलियाँ तक चलाकर रोक दिए गए हैं, उनके सिवा सरकारी कर्मचारियों ने जनता का उत्साह नष्ट करने और उनको भयभीत करके चुप कराने के और भी अनेक प्रकार के दमन-कार्य किए हैं। इस सम्बन्ध में अधिकारियों की ओर से जो कार्रवाईयाँ ही रही हैं और भीषण दमन के जो कार्य किए जा रहे हैं,  उनके भी कुछ उदाहरण यहाँ दे दिए जाते हैं। पर यह सूची पूरी नहीं समझनी चाहिए।


      मद्रास के कनानोर जेल के अन्दर और बेलारी जेल के अन्दर भी लाठियाँ चलाई गई हैं। - बंगाल के एक समाचार-पत्र के सम्पादक जिस समय पुलिस की हवालात में थे,  उस समय उन्हें  एक पुलिस कर्मचारी ने हथकड़ियाँ पहना कर पींटा था और उनका चश्मा तोड़ डाला था। - बम्बई में पुलिस-कमिश्नर ने व्यापारियों की एक सभा रोक दी थी,  और उनमेसे कुछ को आज्ञा दी थी कि तुम लोग नगर के बाहर मत जाओ। - सीमा प्रान्त के गाँवों में रहने वालों पर बम बरसाए गए हैं। - जेलों के अन्दर राजनीतिक कैदियोऔर छोटे-छोटे लड़कों को बेतों से पीटा गया है। - राजनीतिक आन्दोलन में सम्मिलित होने के अपराध में स्कूलों और कॉलेजों से विद्यार्थी निकाल दिए गए हैं, और मजिस्ट्रेटों ने छोटे-छोटे बालकों को बेंतों से पीटने की आज्ञा दी है। - बहुत से स्थानोमें अतिरिक्त पुलिस नियुक्त की गई है, और वहाँ के निवासियों से अतिरिक्त कर तथा जुरमाने वसूल किए गए हैं। - कैदियों से जबरदस्ती माफीनामे लिखाए  गए हैं। - नरसापूर में केवल स्वदेशी का प्रचार करने वाली संस्था के तीन जुलूसों और मद्रास में भी ऐसी संस्था के एक जुलूस पर लाठियाँ चलाई गई हैं। - काँग्रेस की और दूसरी जिन संस्थाओ  के सम्बन्ध में अधिकारियों को यह सन्देह हुआ है कि ये राष्ट्रीय कार्यों के साथ सहानुभूति रखती हैं, उनकी सब चीजें भी खूब जब्त की गई हैं। - पुत्रों और कन्याओं के राजनीतिक कार्यों के लिये उनके पिता पर जुरमाने किए गए हैं, उन्हें सजाएँ दी गई हैं और दूसरे अनेक प्रकार के दण्ड दिए गए हैं। - पिकेटिंग करनेवाली स्त्रियाँ तक बेतों से पीटी गई हैं,  और यदि कहीं उनपर कुछ कृपा दिखलाई गई है तो वे नाली आदि के गन्दे पानी से नहलाई गई हैं। - बहुत से राजनीतिक कैदियों को एक साथ जँजीरों से बाँध कर रक्खा गया है। - पिकेटिंग करने वाले पुरुष स्वयंसेवक इतने अधिक पीटे गए हैं कि वे बेहोश हो गए हैं। - मद्रास में जब कुछ स्वयंसेविकाएँ स्नान कर रही थीं, तब पुलिस ने उनके सूखे कपड़े उठा लिए थे और लगातार तीन दिनोतक इसीलिये उनका पीछा किया था कि कोई उन्हें खाने पीने की कोई चीज न देने पावे। इन स्वयंसेविकाओं ने अपना यह बयान दिया था कि हम लोगों को तीन दिन तक बिल्कुल भूखा रहना पड़ा था और जब हम लोग कहीं पेशाब करने के लिये बैठती थीं, तब हमें पेशाब भी नहीं करने दिया जाता था। - एक बार एक आदमी खद्दर के कपड़े पहने हुए कहीं चला जा रहा था। बस पुलिस उसपर टूट पड़ी और उसे बेतरह पिता। उसके कपड़े फाड़कर चीथड़े कर दिए गये और तब वह जबरदस्ती बाजार में ले जाकर विलायती कपड़े खरीदने और पहनने के लिये विवश किया गया। - मिर्जापुर में एक बालक गिरफ्तार करके केवल इसीलिये पिटा गया था कि वह सदर बाजार में “‘स्वदेशी वस्तुओं का व्यवहार कीजिए’” कहता फिरता था। - बारह वर्ष के एक बच्चे को एक दुसरे अभियोग में चार वर्ष की सादी कैद की सजा दी गई थी और उसे साधारण कैदियों के साथ रक्खा गया था। कुछ ही दिन हुए उसके पन्द्रह बेंत भी लगाने का हुक्म हुआ है। - ‘सी’ और ‘बी’ श्रेणी की, ‘बनारस जनाने जेल’ की स्त्रियों को अपना सिन्दूर मिटा देने की आज्ञा हुई है जो भारत की विश्वविदित रीत्यनुसार पति के मरने पर ही मिटाया जाता है। यह भी लोकविदित है कि उनके साथ इतना बुरा व्यवहार किया जाता था कि उन बेचारियों को इसके विरोध में कई बार अनशन करना पड़ा था। - भारत के प्रत्येक जेल में किसके साथ कैसा-कैसा व्यवहार किया जा रहा है, इसका पता लगाना काँग्रेस के लिये प्राय: असम्भव है। - १४४ वीं धरा के अन्तर्गत अब ऐसे अंश जोड़ दिए गए हैं, जिनके द्वारा किसी साधारण नागरिक अथवा संस्था के समस्त मूल अधिकार छीन लिए गए हैं। - मोटरें पुलिस द्वारा इसलिये रोक दी गई हैं कि उनपर राष्ट्रीय झण्डा फहरा रहा था। - कई नगरों में होटल वालों को यह चेतावनी दे दी गई है कि वे काँग्रेस के आदमियों को भोजन न दिया करें। - अभी कुछ दिन हुए, नागपुर में एक नागरिक को छ: महीने की सख्त कैद और एक हज़ार रुपया जुर्माना इसलिये किया गया था कि वह काँग्रेस के कुछ स्वयंसेवकों को भोजन पहुँचाता था।- बम्बई का एक मनुष्य केवल इसलिये गिरफ्तार कर लिया गया कि उसने अपने साले को, जब वह इस आन्दोलन के सम्बन्ध में गिरफ्तार कर के पुलिस द्वारा ले जाया जा रहा था, माला पहनाई थी। - एक दूसरी जगह पर पुलिस ने स्वयंसेवकों के मुँह पर काला रंग पोत दिया था और उन्हें सारे नगर में घूमाया था। - एक चर्खा-विद्यालय की सब वस्तुएँ जब्त कर ली गई। - एक व्यक्ति को यह आज्ञा दी गई कि वह स्वदेशी के लिये चन्दा न इकट्ठा करे। - शोलापुर में क्मेक्टर ने खादी भण्डार को यह आज्ञा दी है। कि वह राष्ट्रीय झण्डे, बैज और वसन्ती रंग का कपड़ा न बेंचे। - सलेम में गाँधी टोपी पहनने की मनाही कर दी गई है। - सिलहट स्कूल पर राष्ट्रीय झण्डा लगाने के अभियोग में उसके कुछ लड़के स्कूल से निकाल दिए गए। - इलाहाबाद डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के स्कूलों में  राष्ट्रीय गीतों का गाना बन्द कर दिया गया है।


     मद्रास की व्यवस्थापिका सभा में  इस विषय पर प्रश्न किए गए थे कि क्यों उन स्वयंसेवकों के मुँह में,  जो ताड़ी की दूकान पर पिकेटिन्ग करते हुए पुलिस द्वारा मार-मार कर बेहोश कर दिए गए थे, जबरदस्ती ताड़ी डाली गई थी,  और क्यों स्वयंसेविकाओं को ताड़ी से नहला कर उनपर जली हुई भूसी डाली गई थी? कितने ही खादी भण्डार जब्त कर लिए गए हैं  और मकान खाली करवाकर पुलिस के रहने के काम में लाए जा रहे हैं। ये विवरण न तो पूर्ण ही हैं  और न पूर्ण व्यापक। इनसे केवल उस अत्याचार का एक साधारण आभास मिल सकता है,  जिससे इस समय सारा भारत पीड़ित है। परन्तु इसकी भी कुछ परवाह न करके काँग्रेस का आन्दोलन आज भी उसी तेजी से चल रहा है।


 

बहिष्कार

 


        मार्च महीने के पिछले दिनों में विदेशी और ब्रिटिश वस्त्र के बहिष्कार के लिये काँग्रेस की ओर से एक विशेष बहिष्कार सप्ताहमनाया गया था, जिसमें देश भर की काँग्रेस-संस्थाओं ने इन्हीदो वस्तुओं के बहिष्कार पर पूर्ण ध्यान रक्खा था और शान्तिमय धरना तथा अन्य प्रदर्शनों से ही इसमें आशातीत सफलता प्राप्त कर ली थी। काँग्रेस की ओर से देश भर में ६ अप्रैल से १३ अप्रैल तक राष्ट्रीय सप्ताह मनाया गया था, जिसमें भिन्न-भिन्न कार्यों के लिये कार्यक्रम बनाया गया था। सस्कार ने इसको विफल करने का सब प्रकार से भरसक प्रयत्न किया,  परन्तु वह पूर्ण विफल रही और देश नवीन विजयोत्साह से प्रफुल्लित हो गया।


       बम्बई में, विदेशी वस्त्र के सबसे बड़े मूलजी जेठा मारकेट के लगातार बन्द होने से केवल स्वदेशी वस्त्र बेचने वाली उन दूकानों को भी, जो वहीं थीं,  बन्द रहना पड़ा और इसलिये जनता को कुछ कष्ट उठाना पड़ा। अतएव वर्त्तमान राष्ट्रनेत्री ने उसी स्थान पर एक ओर अब केवल स्वदेशी वस्तुओं की दूकानों एवं व्यापार भवनों के लिये स्थान अलग करके जनता का यह कष्ट भी दूर कर दिया है। इससे उस नगर के,  जो कि भारत के पश्चिम एवं पश्चिमोत्तर भाग का व्यापारिक केन्द्र है,  बहिष्कार की वृद्धि में बहुत अधिक सहायता पहुँचेगी। इसके अतिरिक्त बहिष्कार-आन्दोलन ने देश के अन्तरंग में इतना अधिकार कर लिया है कि अब यदि कभी कोई आदमी विदेशी अथवा ब्रिटिश वस्त्र पहनता भी है तो वह उसे छिपाता और नकारता फिरता हैं,  और किसी के देख लेने पर लज्जित होता है।


स्त्रियों के कार्य


   इस बार आन्दोलन में  स्त्रियों ने अग्रतम भाग लिया है। जैसा कि पहले कहा जा चुका है, समाचार-पत्रों में छपे हुए विवरण के अनुसार अबतक पाँच सहस्त्र से ऊपर स्त्रियाँ गिरफ्तार हो चुकी हैं। परन्तु इससे भी अधिक आश्चर्यजनक बात यह है कि अनेक नगरों में अधिकसंख्यक स्त्रियाँ प्रारम्भ से ही इस आन्दोलन में अग्रतम भाग लेती आ रही हैं। लगभग प्रत्येक बड़े केन्द्र में स्त्रियाँ नगर-काँग्रेस-कमेटियों की अधिनेत्री अथवा अधिनायिकाएँ हो चुकी हैं। अखिल भारतवर्षीय कार्यकारिणी समिति की वर्त्तमान अधिनायिका भी एक स्त्री ही हैं। लगभग सभी स्थानों पर स्त्रियाँ ही आन्दोलन को चला रही हैं और प्रशंसनीय साहस एवं वीरता के साथ कठिनतम परिस्थितियों का सामना कर रही हैं। नवयुवती और वृद्धा स्त्रियों ने भी, जो आजतक आवश्यक धार्मिक कार्य उपस्थित होने पर भी घर से नहीं निकली थीं, अपने परदे उतार फेंके हैं और इस अहिंसात्मक आन्दोलन के स्वयंसेवकों की प्रथम श्रेणी में आ उपस्थित हुई हैं। उन्होंने इतने खुले दिल से सब बाधाओं,  अपमानों एवं कष्टों का सामना किया एवं कर रही हैं कि उनकी प्रशंसा किए बिना नहीं रहा जाता।



मुसलमानों का सहयोग


    यह समाचार कि मुसलमानों ने इस आन्दोलन में किन्चित् भी भाग नहीं लिये है, पूर्णत: ठीक नहीं है। पिछले तीन महीनों में ही अखिल भारतवर्षीय काँग्रेस कार्यकारिणी समिति के सभापति दो मुसलमान हो चुके हैं। कई प्रान्तों के प्रान्तीय अधिनायक मुसलमान थे, और कई नगरों और उपनगरों के अधिनायक भी मुसलमान रह चुके हैं। ऊपर गिरफ्तारियों की संख्या दी गई हैं, उसके अन्तर्गत कई सहस्त्र मुसलमान भी हैं यद्यपि यह सत्य है कि मुसलमानों में  अधिसंख्यक आन्दोलन से अलरा रहे हैं तथापि उनमें से बहुत से काँग्रेस के साथ सदा कन्धे-से-कन्धा लगाकर खड़े रहे हैं।


अन्य दलों की सहानुभूति


     इस आन्दोलन की एक और विशेषता यह रही है कि जो लोग अथवा संस्थाएँ काँग्रेस के अन्तर्गत नहीं भी थीं, उन्होंने भी सरकार की इस नीति का विरोध करके, उसकी निन्दा करके अथवा उसमें कुछ परिवर्त्तन करने के लिये सम्मति देकर,  प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से काँग्रेस से अपनी सहानुभूति प्रकट की है। अबतक काँग्रेस की रिपोर्ट में ऐसे एक सौ तेईस नाम पहुँच चुके हैं, जिनमें डॉक्टर रवीन्द्रनाथ ठाकुर,  सर पी. एस्. शिवस्वामी अय्यर,  सर तेजबहादुर सप्रू, श्री एम्. आर. जयकर,  सर अब्दुल रहीम, सर पुरुषोत्तमदास ठाकुरदास, सर फीरोज सेठना,  पण्डित हृदयनाथ कुंजरू, डॉक्टर मुथु लक्ष्मी रेड्डी,  डॉक्टर सुब्बारायन आदि महानुभावों के भी नाम हैं। संस्थाओं के अन्तर्गत सर्वेण्ट्स ऑफ इण्डिया सोसाइटी, अनेक लिबरल संस्थाएँ,  व्यवस्थापिका सभाएँ,  म्युनिसिपैलिटियाँ,  बार असोसिएशन, स्त्रियों को अनेक संस्थाएँ, चेम्बर ऑफ कॉमर्स, प्रान्तीय और अखिल भारतवर्षीय जातीय संस्थाएँ, शिक्षण संस्थाएँ और भारत तथा बाहर की अनेक संस्थाएँ हैं।

 


 

सर्वसाधारण की सहानुभूति


 

         परन्तु इन व्यक्ति विशेषों,  संस्थाओं और काँग्रेस से अलग विशिष्ट व्यक्तियों एवं संस्थाओं से भी अधिक दृढ़ता से भारतीय जनता ने इस महान् आन्दोलन में काम किया है। यह कहने में अत्युक्ति नहीं कि देश भर में एक भी ऐसा घर नहीं है जिस पर इन घटनाओँ का गहरा असर न पड़ा हो,  और जो इस महान् युद्ध में किसी प्रकार की सहायता न देना चाहता हो।


         मजिस्ट्रेट और पुलिस के लगातार भय दिखाते रहने पर भी काँग्रेस द्वारा निर्धारित दिन-पर-दिन देश भर में हड़तालें होती रही हैं। जहाँ और जब कभी सम्भव हुआ है, सहस्त्रों पुरूषों और स्त्रियों ने हर बड़े जुलूस और साधारण सभा में, जिसके न होने के लिये सरकार ने पूर्व से ही घोषणा कर दी थी, भाग लिया है,  यद्यपि वे जानते रहे हैं  कि ऐसा करने पर उन्हें  क्या फल भुगतना पड़ेगा। सरकार के अन्य कानूनों को भंग करने और उसके फलस्वरूप सब प्रकार के कष्ट सहने के लिये भी दिन-प्रति-दिन अधिक संख्या में  लोग काँग्रेस में  चले आ रहे हैं। गैर-कानूनी काँग्रेस बुलेटीन और अन्य काँग्रेस समाचार-पत्र भी लगभग सभी स्थानों  से अनवरत निकल रहे हैं, यद्यपि पुलिस उनका पता लगाने का बराबर प्रयत्न कर रही है। उन स्त्रियों के अतिरिक्त, जिन्होंने इस आन्दोलन में  अदृष्टपूर्व संख्या में  भाग लिया है,  बहुत से बालक भी वानर सेना के रूप में इस आन्दोलन में भाग ले रहे हैं। उनके गुट-के-गुट काँग्रेस का सन्देश लिए इस प्रकार घूमते दिखाई पड़ते हैं, मानों यह भी उनके लिये एक खेल है।


       जान पड़ता है कि जनता ने यह दृढ़ निश्चय सा कर लिया है कि चाहे उसे देश के नाम पर कुछ भी क्यों न बलिदान करना पड़े,  वह इस आन्दोलन को अन्त तक पहुँचा कर और सफलता प्राप्त करके ही छोड़ेगी। सरकार की घोरतम दमन-नीति भी उसे नतमस्तक नहीं कर पाई है। सरकार ने,  जो यह प्रतिज्ञा की थी कि वह काँग्रेस को मटियामेट कर देगी,  इसमें वह नितान्त विफल हुई। उसके इस विफल अत्याचार से काँग्रेस की अटल शक्ति और भारतीय जनता पर उसका असेदिंग्ध अधिकार द्विगुणित रूप से सिद्ध हो गया है। सरकार के इन तीन महीनों के कार्यों से ही प्रकट ही गया कि यदि भारत में  देश के नाम पर कुछ कह सकने वाली कोई संस्था है, तो वह काँग्रेस ही है, और किसी प्रकार की सन्धि अथवा सुधार की सफलता भारतवर्ष में तब तक नहीं हो सकती,  जबतक काँग्रेस उस पर स्वीकृति न दे दे।

 

 

 

Mahamana Madan Mohan Malaviya