Speeches & Writings
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सच्चा सुख
इस संसार में प्रत्येक मनुष्य जो-जो कार्य करता है, उन सबके सुख को प्राप्त करना ही उसका उद्देश्य रहता है- वह सुख सच्चा हो अथवा मिथ्या, यह दूसरी बात है । इसके अतिरिक्त सुखों की भी भिन्न श्रेणियाँ हैं । एक सुख वह है जो स्वार्थी मनुष्य अपने स्वार्थ-साधन से प्राप्त करता है, 'एक' वह है जो परोपकारी मनुष्य परोपकार में प्राप्त करता है । एक प्रकार का सुख वह है जो निर्दयी क्रूर मनुष्य निर्दयता के साथ निरपराधी को देने में प्राप्त करता है, और दूसरे प्रकार का सुख वह है जो दयावान सहृदय मनुष्य वालों के दुःख दूर करने में प्राप्त करता है । अन्त के इन दो प्रकार के सुखों का उदाहरण देने के लिए हम दो वृत्तांतों का उल्लेख करते हैं, जिनके विषय में हमारे पाठकों में से बहुतों ने सुना होगा । पहले प्रकार के सुख का उदाहरण उस निर्दयी मुग़ल बादशाह के जीवनचरित्र में पाया जाता है, जिसको निरपराध मनुष्यों के कटघरों में छोड़कर व्याघ्र आदि हिंसक जन्तुओं से फड़वाने और सर्प तथा बिच्छुओं से डंसवाने और फिर उसको तड़पते और कलपते हुए देखने में सुख मिलता था । दूसरे प्रकार के सुख का उदाहरण अमेरिका के एक भूतपूर्व प्रेसीडेंट साहब राजसभा में पहुँचे । उनके वस्त्रों में कीचड़ लिपटा हुआ देखकर सभासदों को अत्यन्त आश्चर्य हुआ और उन्होंने इसका कारण पूछा । प्रेसीडेंट साहब ने कहा कि 'मैं घर से आ रहा था । मार्ग में मैंने एक सूअर को कीचड़ में फँसा हुआ देखा । वह निकलने का प्रबल प्रयत्न कर रहा था, पर निकल नहीं सकता था । मुझसे उसकी वह दशा देखी नहीं गई । मैंने कीचड़ में जाकर सूअर को निकाल दिया । एक सभासद ने प्रेसीडेंट साहब की इस दयालुता की सराहना की । प्रेसीडेंट साहब बोल उठे- इसमें दयालुता की क्या बात है । यह कार्य मैंने अपने स्वार्थ के लिए किया । सूअर की दशा को देखकर मुझे अत्यन्त दुःख हुआ । अपने दुःख को दूर करने के लिए मैंने उसे निकाला ।'
एक प्रकार का सुख वह है, जिसको एक शक्तिमान पुरुष असहाय की सहायता और रक्षा करने में अनुभव करता है, एक प्रकार का वह है, जिसे बलवान निर्बल को सताने और दबाने में, उसके ऊपर अत्याचार करने में, प्राप्त करता है । एक सुख वह है जो योगी को ध्यान में मिलता है । एक वह है जो कामी को भोग-विलास में मिलता है । एक सुख वह है जो धन-लोलुप को धनहरण में मिलता है, एक वह है जो त्यागी को त्याग में मिलता है । इसी प्रकार सुखों के भेदों का वर्णन किया जा सकता है जो परस्पर विपरीत है । सुख में परमार्थ और सात्विकता का जितना ही अधिक अंश होगा, उतना ही वह सच्चा और चिरस्थायी होगा ।
अब यह देखना है कि सुख क्या है । यह चित्त वह भाव है मनुष्य के हृदय में उसकी अभिलाषाओं ने पूरा होने से या जिस कार्य में वह लगा हो, उसकी सफलता में या उसके उद्देश्य की सफलता से उत्पन्न होता है । अविष्कर्ताओं को सबसे अधिक सुख उस समय मिलता है, जब उनके आविष्कार (ईजाद) सिद्ध होते हैं । गणितज्ञ को सबसे अधिक सुख उस समय प्राप्त होता है जब वह किसी कठिन प्रश्न या साध्य को सिद्ध कर लेता है । वैज्ञानिक सबसे अधिक उस समय मिलता है, जिस समय वह किसी लाभकारी कानून (ऐक्ट) को पास करवाने में या किसी हानिकारक ऐक्ट को रदद करवाने में और अपने पक्ष वालों को कुछ अधिकार दिलवाने में सफल होता है । देशभक्त को उस समय परम आनन्द प्राप्त होता है जब वह देश के हित के लिए कोई कार्य कर चुकता है । संगीतप्रेमी के सुख और आनन्द का उस समय क्या ठिकाना, जब कि उसे ताल-स्वर के साथ मालवकोशिक (मालकोस) या दरबारी, कान्हड़ा सुनने को मिलता है । विद्यार्थी के सुख की उस समय क्या सीमा, जब कि वह प्रथम श्रेणी में पास होता है । चोर और डाकुओं को उस समय सबसे अधिक सुख मिलता है जिस समय उनके हाथ माल लगता है । कामी उस समय सुख का अनुभव करता है जिस समय उसे काम्य वस्तु मिलती है, किन्तु इन्द्रियों या मनुष्य में जो आसुरी प्रवर्तियाँ हैं उनको तृप्त करके जो सुख मिलता है वह क्षणिक होता है और यथार्थ में सुख नहीं कहा जा सकता । वह परिणाम में विष के समान होता है । पहले जितना सुख मिलता है, पीछे उसकी अपेक्षा सहस्त्र गुना, लक्ष गुना अधिक आपत्तियाँ और कष्ट भोगने पड़ते हैं । किन्तु परोपकार से, आर्तों के आर्तिनाशन से जो सुख मिलता है वह चिरस्थायी और सच्चा होता है और उसकी कोई सीमा नहीं होती :
अपह्रतयातिमार्तानाम सुखं यदुपजायते । तस्य स्वर्गोपवर्गों वा कलां नाहंति षोड्शीम् ।।
इन कामों में यदि मनुष्य को कष्ट भी उठाना पड़ जाता है, तो वह उस कष्ट को प्रसन्नतापूर्वक सहन कर लेता है । किन्तु बुरे कर्मों में मनुष्य को क्षणिक सुख के समय भी उससे भविष्य में होने वाली हानियों की चिन्ता उस सुख पूरा भोग नहीं करने देती । सत्कार्य में जिस समय कोई महान संकट आ भी पड़ता है, उस समय उस कार्य का पुण्य और कार्य की सिद्धि से होने वाले अच्छे परिणाम की आशा उसको उस घोर संकट को सहने के योग्य बना देती हैं ।
उपर्युक्त बातों से यह सिद्ध हुआ कि-
(१) मनुष्य भले-बुरे जितने कार्य करता है, अपने 'सुख' के लिए ही करता है । (२) सुख उसके उद्देश्य और अभिलाषाओं की पूर्ति होने में मिलता है । (३) उद्देश्य और अभिलाषाएँ जितनी ही ऊँची हों, उतना ही अधिक सच्चा और चिरस्थायी सुख मिलता है ।
इन बातों से यह स्पष्ट है कि सच्चे सुख का अनुभव वही मनुष्य करता है, जिसके चित्त में उत्कृष्ट अभिलाषाएँ और उद्देश्य हों और जो उनकी पूर्ति के लिए दृढ़तापूर्वक यत्न करता जाय । जिन मनुष्यों के चित्तों में सदा निकृष्ट विचार ही रहा करते हैं, जिनके चित्तों में उत्कृष्ट अभिलाषाओं और उद्देश्यों को स्थान देना कठिन है, किन्तु असम्भव नहीं । मनुष्य का चित्त बड़ा कोमल होता है । वह जिस ओर झुकाया जाता है उसी ओर झुक जाता है । यदि वह एक बार परोपकार, देशोपकार के मार्ग की ओर झुकाया जाय और फिर यत्न करके उस मार्ग से विचलित न होने दिया जाय, तो उसमें ये गुण सदा के लिए गड़ जायेंगे और ये ही उस मनुष्य की अभिलाषा और उद्देश्य बन जायेंगे । इस अभिलाषा और इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए वह ज्यों-ज्यों यत्न करता जायगा, त्यों-त्यों वह सच्चे सुख का अनुभव करने लगेगा । और इस सुख के आगे उसे और कोई सुख रुचिकर न होगा ।
हम अपने पाठकों से अनुरोध करते हैं कि वे इस लेख पर गम्भीरता के साथ विचार करें और आज से इस बात का प्रण कर लें कि हम जितने कार्य करेंगे, उनमें हमारा मुख्य उद्देश्य अपने भाइयों के क्लेशों को दूर करना, उनकी यथा शक्ति-सेवा करना होगा । वे इस बात को अपने चित्त में संकल्प कर लें कि हम यथासम्भव उन गुणों को स्वयं उपार्जन करने में और अपने देश भाइयों में उनका समावेश करने में अपना सर्वस्व अर्पण करेंगे, जिनकी द्वारा हमारे पूर्वजों ने भारत में ऐसी ज्योति फैलायी थी, जिसकी मन्द आभाएं आज तक हमारी इस अन्धकार से आच्छादित्त दशा में भी हमारा मुंह कुछ उज्जवल कर रही है ।
भाइयों ! स्वार्थ से तुमने अपनों को इस अधोगति को पहुँचाया, अब स्वार्थरहित हो देश का उद्धार करके अचल सुख का अनुभव करो और अटल कीर्ति एवं पुण्य के भाजन बनो ।
(७ अगस्त, १९०८) |