Speeches & Writings
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स्वदेशी-आन्दोलन
स्वदेशी आन्दोलन का मुख्य उद्देश्य देश की आर्थिक दशा को सुधारना है । देश की आर्थिक दशा तभी सुधर सकती है, जब देश में देशी चीजों का व्यापार बढे और जो हमारे नित्य की आवश्यक चीजें हैं, ये यहाँ बनने लगें । हमारे देश में व्यवसाय और शिल्प अभी नवजात हैं । इनकी रक्षा और वृद्धि बड़ी सावधानी से करनी पड़ेगी । जिन देशों में स्वराज्य है, उन देशों में इनकी रक्षा गवर्नमेंट कर लगा कर और रुपया देकर करती है, पर इस देश में इस सम्बन्ध में गवर्नमेंट से बहुत आशा नहीं की जा सकती, इसलिए आत्म-साहाय्य और स्वार्थ-त्याग से ही हमें इनकी रक्षा करनी पड़ेगी । सरकार कर नहीं लगायेगी तो हम अपने ऊपर स्वयं कर लगा सकते हैं- अर्थात देशी चीज यदि महंगी भी मिले तो भी उसको अधिक दाम देकर ले सकते हैं । यदि अच्छी चीज सस्ती मिले, तो स्वभावतः लोग महंगी और मोटी चीज को छोड़ कर उसी को मोल लेंगे, किन्तु यदि उनको दिखा दिया जाय कि कुछ दिन तक मोटी और महंगी चीज लेने से अन्त में उन्हें और देश को बहुत लाभ होगा उनके चित्त में उसके लिए प्रेम उत्पन्न कर दिया जाय और उनको यह दिखा दिया जाय कि उनके मोटी और महंगी चीज लेने से उनके किसी गरीब भाई या बहिन के पेट को अन्न और तन को वस्त्र मिल जायगा, तो वे अवश्य स्वयं हानि सहकर भी स्वदेशी वस्तुओं को ग्रहण करेंगे । लोगों के चित्त में ऐसा भाव उत्पन्न करने के लिए स्वदेशी-आन्दोलन की आवश्यकता है । यदि आन्दोलन करके हम लोगों के चित्त में यह देश-भक्ति और परोपकारिता का भाव उत्पन्न कर दें, तो हमारे नवजात व्यवसाय और शिल्प की रक्षा अवश्य होगी । और यह इस बात का अच्छा उदाहरण होगा कि धर्म से अर्थ और काम सब प्राप्त होता है । जब बीज बोया जाता है तब कुछ काल तक उसकी रक्षा करनी पड़ती है और उसे सींचना पड़ता है, पर जब वह जम जाता है और पौधा जड़ पकड़ लेता है तब वह बिना किसी कृत्रिम रक्षा के आकाश में लहराता है । इसी तरह कुछ काल तक इस प्रकार रक्षित होने से हमारा नवजात व्यवसाय और शिल्प पुष्ट और प्राढ हो जायगा । इसलिए हमारा प्रथम कर्तव्य यह है कि हमलोग व्याख्यानों और लेखों द्वारा लोगों में स्वदेशी का धर्म-भाव उत्पन्न करें और उनके चित में स्वदेशी वस्तुओं के लिए प्रेम उत्पन्न करें और उनको ग्रहण करने का लाभ और पुण्य बतावें ।
यह काम कुछ दिनों पहले होने लग गया था, पर लाला लाजपतराय के निर्वासन के समय से गवर्नमेण्ट की जो कड़ी नीति प्रारम्भ हुई है उससे, विशेषकर सभा-सम्बन्धी नए कानून से, इसको बहुत रोक पहुँच गई है । न केवल लोगों ने व्याख्यान देना और सभाएँ करना बन्द कर दिया है, अपितु वे स्वदेशी के नाम से डरने लग गए हैं । यह अत्यन्त शोचनीय बात है । एक शहर में कुछ उत्साही जनों ने एक कम्पनी खोलकर जो-जो देशी चीजें बनती हैं, उनको मंगाकर बेचने के लिए उद्योग किया था । कई लोग शेयर लेने के लिए तैयार भी हो गये थे । इतने में लाला लाजपतराय के निर्वासन के समाचार आये और प्रायः सब लोगों ने शेयर लेने से इन्कार कर दिया । ऐसा ही ओर भी कई जगह हुआ है, किन्तु लोगों का यह भय निर्मूल है । लाला लाजपतराय के निर्वासन का और ही कारण था, और यह मानना भूल है कि जो नये-नये नियम निकल रहे हैं वे स्वदेशी को दबाने के लिए हैं । स्वदेशी आन्दोलन से गवर्नमेण्ट का कोई विरोध नहीं हो सकता, क्योंकि इससे वह काम होगा जो सभ्य गवर्नमेण्ट का कर्तव्य है- अर्थात प्रजा की सुख-सम्पत्ति बढ़ाना और उसको अन्न-वस्त्र पहुँचाना । स्वदेशी आन्दोलन की सफलता से प्रजा को अन्न-वस्त्र मिलेगा और उनकी सुख-सम्पत्ति बढ़ेगी । इसलिए स्वदेशी आन्दोलन को उत्साह देना, गवर्नमेण्ट का एक कर्तव्य है, और जो लोग स्वदेशी-आन्दोलन करते हैं जैसे गवर्नमेण्ट के काम में सहायता करते हैं । अविवेकी और संकुचित दृष्टि के कोई अधिकारी इसमें अप्रसन्नता प्रकट करें तो करें । वह केवल उनकी निज की सम्पत्ति होगी, गवर्नमेण्ट की नहीं । गवर्नमेण्ट के बड़े दूरदर्शी अधिकारी स्वदेशी-आन्दोलन में न तो स्वयं बाधा डालेंगे और न किसी अधिकारी को ऐसा करने को उत्साही करेंगे ।
कई स्थानों में व्याख्यान और सभाएँ बहुत हो चुके हैं और लोगों को चेतावनी मिल गई हैं । उनके चित्त में स्वदेशी भाव उत्पन्न करने का खूब यत्न किया गया है, पर अभी अनेक स्थान ऐसे हैं जिनमें इस बात की चर्चा तक नहीं हुई है । ऐसे स्थानों में व्याख्यानों और सभाओं की आवश्यकता है । वहाँ व्याख्यानदाताओं को जाकर सभाएँ करनी चाहिए और व्याख्यान देने चाहिए । कहीं-कहीं से समाचार मिले हैं कि छोटे-छोटे कर्मचारियों ने व्याख्यानदाताओं को डरा-धमका कर व्याख्यान नहीं देने दिया । यह उन लोगों का सरासर अन्याय था ।
ऐसी बातें समाचार-पत्रों द्वारा उच्च कर्मचारियों के ध्यान में लानी चाहिए । किन्तु हमको केवल स्वदेशी वस्त्र को काम में लाने का उपदेश देकर संतुष्ट न रहना चाहिए । यदि देशी चीज सदा मोटी बनती रही और महंगी बिकती रही, तो लोग बहुत दिन तक उसको न खरीदेंगे । अन्त में जो चीज सस्ती और सुन्दर मिलेगी, उसी को खरीदेंगे । इसलिए हमें ऐसा यत्न करना चाहिए जिससे हम न केवल चीजों की उपज बढ़ा सकें, वरन उनके रूप में सुन्दरता भी ला सकें और उनको सस्ती भी बेच सकें । जब तक बड़े-बड़े कारखाने न खोले जायंगे, तब तक सस्ती और अच्छी चीजें न मिल सकेंगी । इनके लिए शिक्षित, प्रवीण, देश-हितैषी और परिश्रमीजनों की आवश्यकता है । आज तक पढ़े लिखे लोग अधिकतर सरकारी नौकरी, वकालत और डाक्टरी की तरफ झुकते रहे, और शिल्प की ओर बहुत ही कम प्रवृत हुए । इसके कई कारण हैं । एक कारण यह है कि ये पेशे बहुत प्रतिष्ठित समझे जाते हैं और दूसरा यह है कि सिवाय इनके और कोई काम लोगों को सूझता नहीं था । किन्तु हर्ष का विषय है कि अब लोगों कि रुचि व्यवसाय और शिल्प की ओर भी झुकी है । हम लोगों को चाहिए कि हम इस पेशे की, उससे अधिक नहीं, तो कम से कम उतनी प्रतिष्ठा तो अवश्य करें जितनी कि हम डाक्टरी, सरकारी नौकरी और वकालत की करते हैं ।
एक बड़ा प्रश्न यह उठता है कि रुपया कहाँ से मिले? यह प्रश्न कष्ट-साध्य तो है, किन्तु असाध्य नहीं हैं । रुपया अभी हमारे देश में मौजूद है, किन्तु या तो उसका अपव्यय हो रहा है या वह बेकार पड़ा है । जिन लोगों के पास रुपया है वे रुपया लगाने में डरते हैं । इसमें कई कारण हैं । पर मुख्य कारण दो हैं, पहला यह है कि कम्पनियों का शिक्षित, प्रतिष्ठित और देश-हितैषी पुरुष अपने हाथ में नहीं रखते । कम्पनियों के प्रबन्धकर्ता प्रायः स्वार्थ के लिए काम करते हैं और उनमें आवश्यक शिक्षा तथा पटुता का अभाव रहता है । इसी से कम्पनियों की सफलता नहीं होती और धनिक लोग रुपया लगाने से डरते हैं । दूसरा कारण यह है कि उनमें स्वयं कुछ नया काम करने की योग्यता नहीं रहती । अब एक प्रधान कर्तव्य यह है कि प्रतिष्ठित देश-हितैषी और योग्य पुरुष कारखानों का काम अपने हाथ में लें और जापान-अमेरिका से लौटे हुए नवयुवकों के द्वारा उनसे चलावें । ऐसा करने से उनसे अवश्य लाभ होगा और जब धनिक लोग देख लेंगे कि बैंक में रुपया रखने से कारखानों में रुपया लगाना अधिक लाभदायक होता है तो वे हाथ खोलकर रुपया लगायेंगे । इस काम से केवल आर्थिक लाभ ही नहीं है, किन्तु धार्मिक भी है । भारतवर्ष में अभी धर्म के नाम से हर साल बहुत रुपया खर्च होता है । कारखाने खोल कर सहस्त्रों प्राणियों को अन्न-वस्त्र देने से और बड़ा धर्म कोई नहीं है । इससे बड़ा सुख भी कोई नहीं है । क्योंकि कहा है:
अपह्रत्यतिमार्तानां सुखं यदुपजायते । तस्य स्वर्गपवर्गा वा फ्लानाह्रति षोड्शीम् ।।
कार्य कठिन है । इसमें बहुत परिश्रम और कष्ट उठाने की आवश्यकता है । पर यदि हम सच्चे हृदय से दृढ़-निश्चय होकर धर्म-बुद्धि से इस काम में लगें, तो अवश्य ही सिद्धि होगी । कई लोग स्वदेशी-आन्दोलन को राजनैतिक दृष्टि से देखते हैं, कोई आर्थिक दृष्टि से और कोई धर्म-दृष्टि से देखते हैं, क्योंकि धर्म से ही अर्थ और काम सिद्ध होते हैं ।
(श्रावण-कृष्ण १२, संवत १९९४) |