Mahamana Madan Mohan Malaviya

Mahamana Madan Mohan Malaviya
Speeches & Writings

भगवान् कृष्ण की महिमा

 

सच्चिदानन्दरूपाय स्थित्युत्पत्त्यादिहेतवे।

तापत्रयविनाशाय श्रीकृष्णाय वयन्नुम:।।


     ले लोगों को शरण देने वाले, सत्, चित् और आनन्द स्वरूप, संसार के सृजन, पालन और संहार के कारण, और आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक तीनों तापों को दूर करनेवाले भगवान् कृष्ण को हम लोग प्रणाम करते हैं।


     इस बात को मैं कई बार कह चुका हूँ कि मनुष्य जाति के इतिहास में जितने पुरुषों की कथा संसार में विदित है, उनमें सबसे बड़े भगवान् कृष्ण हुए हैं। मनुष्य की शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक शक्तियोका जितना ऊँचा विकास उनमें हुआ, उतना किसी दूसरे पुरुष में नहीं हुआ। जैसे विमल ज्ञान और जैसी सात्त्विक नीति का उन्होंने उपदेश किया, वैसा किसी और ने नहीं किया। उनकी महिमा के विषय में मैंने अपना सब अभिप्राय दो श्लोकों में लिख दिया है-


सत्यव्रतौ महात्मानौ भीष्मव्यासौ सुविश्रुतौ।

    उभाभ्याम्पूजित: कृष्ण: साक्षाद्विष्णुरिति ह्यलम्।

माहात्म्यं वासुदेवस्य हरेरद्भुतकर्मण:।

  तमेव शरणं गच्छ यदिश्रेयोऽभिवाञ्छसि।


      अर्थात् जिन भगवान् कृष्ण ने अपने प्रकट होने के समय से अन्तर्धान होने के समय तक साधुओं की रक्षा, दुष्टों का दमन, पाप और धर्म की स्थापना आदि अनेक अद्भुत कर्म किए, उनका माहात्म्य केवल इसी बात से भलीभाँति विदित है कि महाभारत के रचयिता श्री वेदव्यास और भीष्म पितामह, जिनका सत्य का व्रत प्रसिद्ध है और जो दोनों कृष्ण के समकालीन थे, और इसलिये जो उनके गुणों से भलीभाँति परिचित थे, दोनों ही महात्माओं ने भगवान् कृष्ण को साक्षात् विष्णु मानकर पूजा है।


    जितना ही मैं कृष्ण-चरित्र का मनन करता हूँ, उतना ही यह दृढ़ विश्वास होता जाता है और मेरे हृदय में यही उत्कण्ठा होती है कि किस प्रकार से भगवान् के गुणों और उनके पवित्र उपदेशों का ज्ञान समस्त प्राणियों में फैला दूँ। जैसे मनुष्य कितनी ही बार अमृत का पान कर फिर अमृत के पीने के लिये ही इच्छा करता है, वैसे ही भगवान् कृष्ण के दिव्य चरित्र को बार-बार स्मरण करने पर भी फिर उसके रस को जानने वाला भक्त उनके नाम और गुणों के कीर्त्तन करने से तृप्त नहीं होता। संसार के लिये यह मंगल की बात है कि भगवान् के दिव्य चरित्र का और उनके अमृतमय उपदेश का ज्ञान समस्त संसार में फैलाया जाया।


इस समय मैं भगवान् की अलौकिक बाललीला की चर्चा न करूँगा। वह तो युग-युगान्तर से करोड़ों प्राणियों के कण्ठ से गाई गई है। आज भी अनगिनत प्राणियों के कण्ठो से निकलकर मनुष्यों का अनन्त उपकार करते हैं।


आज मैं कृष्ण-चरित्र के कुछ प्रधान-प्रधान रूप और उपदेशों के प्रति पदकों का ध्यान खीचूँगा। परन्तु कृष्ण-चरित्र के पढ़ने के पूर्व हमको भीष्म का चरित्र पढ़ना आवश्यक है। भीष्म, व्यास और कृष्ण ऐसे तीन महापुरुष एक समय में कहीं दूसरी जगह प्रकट नहीं हुए।


भीष्म की महिमा का वर्णन भगवान् कृष्ण ने स्वयं अपने मुख से बड़े प्रेम और सम्मान के साथ किया है। शान्ति-पर्व में जब भगवान् कृष्ण ने भीष्म से कहा कि आप युधिष्ठिर को धर्म का उपदेश करें, तो भीष्म पितामह ने कहा कि आपके रहते मैं क्या उपदेश करूँ? और भीष्म ने पूछा कि-


मनुष्येषु मनुष्येन्द्र न दृष्टो न च मे श्रुत:।

 

भवतो वा गुणीर्युक्त: पृथिव्यां पुरुष: क्वचित्।।

त्त्वं हि सर्वगुणै: राजन् देवानप्यतिरिच्यसे।

तपसा हि भवाञ्छक्त: स्त्रष्टुं लोकाञ्चराचरान्।।

किं पुनश्चात्मनो लोकानुत्तमानुत्तमैर्गुणै:।





     इस पर भगवान् कृष्ण ने कहा कि हे महाबाहो! मैंने इसीलिये आप में अपनी विपुल बुद्धि रख दी है, जिससे आप ही धर्म का उपदेश करें। जब तक पृथ्वी रहेगी, तब तक आपकी कीर्त्ति अटल रहेगी। उन भीष्म पितामह का सत्य का प्रेम प्रसिद्ध है। उन्होंने अपनी माता और पिता को जो वचन दिया था, उसका जन्मभर प्रतिपालन किया। उन भीष्मपितामह ने अखण्ड ब्रह्यचर्य्य-व्रत का पालन करके जगत् में अपूर्व कीर्त्ति पाई है। उसी स्थल पर भीष्म के प्रति भगवान् कृष्ण ने कहा-


त्त्वं हि धर्ममयो निधि: सर्वभूतहिते रत:।

स्त्रीसहस्त्रै: परिवृतं ब्रह्मचर्य्यव्रते स्थितम्।।

 


     उन भीष्म पितामह ने कैसी कैसी कसौटी के समय में कृष्ण को साक्षात् भगवान् कहकर पूजा है।


महाभारत के सभा-पर्व में सैंतीसवें अध्याय में वैशम्पायनजी कहते हैं कियुधिष्ठिर के राजसूय-यज्ञ के प्रारम्भ में, जब सब देवर्षि, महर्षि, राजर्षि, आचार्य, ऋत्त्विक्, स्नातक और मान के योग्य अनन्त पुरूषों की सभा में युधिष्ठिर ने पूछा कि सबसे पहले किसकी पूजा की जाय, उस समय सनातनधर्म के स्वरूप भीष्म पितामह ने विचारकर कहा कि संसार में सबसे अधिक पूजा के योग्य कृष्ण हैं। शिशुपाल ने इस बात का विरोध किया। उस समय भीष्म पितामह ने जो कृषण की महिमा कही है, वह सभा-पर्व के अडतीसवें अध्याय में वर्णित है। उसको पढ़ने से ही उनका महत्त्व ध्यान में आ सकता है। भीष्म पितामह ने कहा है कि उन्होंने प्राण छोड़ने के समय भगवान् कृष्ण का ध्यान किया और भगवान् उनके सामने आकर खड़े हो गए। उस मरण के समय जब कि मनुष्य को अनेक प्रकार की सांसारिक चिन्ताएँ व्याकुल करती हैं, उस समय पितामह ने भगवान् कि वह स्तुति की जिसकी बराबरी का उदाहरण आज तक नहीं मिलता। भीष्म पितामह ने अपने विश्वास और सच्चाई को इसी से प्रकट किया है कि भगवान् कृष्ण के सामने आते ही उन्होंने वासुदेव कृष्ण की स्तुति की।


आरिराधयितु: कृष्णं वाचं जिगदिषामियाम्।

तया व्यास समासिन्या प्रीयताम्पुरुषोत्तम।।


फिर अन्त में कहा-  


इति विद्यातपोयोनिरयोनिर्विष्णुरीडित:।

    वाग्यज्ञेनार्चि्चतो देव: प्रियताम्मे जनार्द्दन।


और वैशम्पायनजी कहते हैं-


           एतावदुक्त्त्वा वचनं भीष्मस्तद्रतमानस:।

          नम इत्येव कृष्णाय प्रणाममकरोत्तदा।

               भवतु ये कृष्णपदं शरणं जरामरणहरणम्।।


      अब कृष्ण का प्रथम गुण जिस पर मैं पाठकों का ध्यान खीचूँगा, वह उनकी धर्म में दृढ़ता है। स्वयं भगवान् ने उद्योग-पर्व में कहा है-


          नाहं कामान्न संरम्भान्नद्वेषान्नार्थकारणात्।

          न हेतुवादाल्लोभाद्वा धर्मं जह्यां कथञ्चन।।


      मैं काम से, क्रोध से, द्वेष से, धन के कारण, हेतुवादवश या लालच से धर्म को कभी नहीं छोड़ सकता।


जन्म के समय परीक्षित निष्प्राण बालक हुआ था, उसको भगवान् कृष्ण ने अपने योगबल से जिला दिया था। उस समय का भगवान् का वचन है कि जैसा सत्य और धर्म मुझमें प्रतिष्टित रहते हैं, अर्थात् मैं कभी और धर्म के विरुद्ध नहीं चलता, यदि यह बात सत्य है, तो यह अभिमन्यु का मरा हुआ बालक जी उठे। धर्म को कृष्ण भगवान् सबसे ऊपर मानते थे। इस बात का यह भी प्रमाण है कि जब छ: महीने की तपस्या के उपरान्त शिवजी ने भगवान् कृष्ण को दर्शन दिया और कहा कि इच्छा के अनुसार वरदान माँगो, तो पहला वरदान कृष्ण ने धर्म’ दृढत्त्वं अर्थात् सदा धर्म में दृढ़ता का वरदान माँगा।


     दूसरा गुण भगवान् का सत्य-प्रेम है। द्रोपदी के उत्तर में भगवान् ने कहा है-


    एष ह्योषां  समस्तानां तेजोबलपराक्रमै:।

      मध्ये तपन्निवाभाति ज्योतिषामिव भास्कर:।।

 असुर्य्यमिव सुर्य्येण निर्वात इव वायुना।।

      भासितं ह्लादितञ्चैव कृष्णेनेदं सदो हि न:।।



फिर आगे कहा था-


           पूजितायाञ्च गोविन्दे हेतूद्वावपि संस्थितौ।

        वेदवेदांगविज्ञानं बलञ्चाप्यधिकं तथा।।

                 नृणां लोके हि कौऽन्योऽस्ति विशिष्ट: केशवादृते।।


        इस प्रकार उन्होंने समझाया कि हमारे ही लिये कृष्ण सबसे अधिक पूजा के योग्य नहीं हैं, बल्कि ये महापुरुष तो तीनों लोकों से पूजा योग्य हैं। मैंने बहुत से ज्ञान-वृद्ध पुरुषों की सेवा की है और मैंने उनको इकट्ठा होकर श्रीकृष्ण के बहुत से गुणों का वर्णन करते सुना है और कृष्ण ने जन्म से ही जो-जो अद्भुत कार्य किए हैं, उनको भी मैंने बहुत बार लोगों को कहते सुना है। हे शिशुपाल! हम कृष्ण की इसलिये पूजा करते हैं कि वे पृथ्वी पर सब प्राणियों को सुख पहुँचाने वाले हैं और उनके यश को, उनकी शूरवीरता को और उनकी जय को समझ करके सत्पुरुषों ने उनको पूजा है, इसलिये हम उनकी पूजा करते हैं। ब्राह्मणों में जिसका ज्ञान अधिक हो, उसका मान अधिक होता है, क्षत्रियों में जिसका बल अधिक हो, वैश्यों में जो धनधान्य से सम्पन्न हो, और शूद्रों का केवल उनके आचरण से मान होता है। कृष्ण के पूजनीय होने के दोनों ही कारण हैं, वेद-वेदांग का ज्ञान और सबसे अधिक बल। संसार में ऐसा कौन है जो कृष्ण के समान गुण-सम्पन्न हो। इनमें दानशीलता है, निपुणता है, शास्त्र का ज्ञान है, बल है, नम्रता है, यश है, उत्तम बुद्धि है, विनय है, लक्ष्मी है, धैर्य है, सन्तोष है,


हृष्टि-पुष्टि है। ये सब गुण सदा केशव में पाए जाते हैं। ये आचार्य, पिता, गुरु, अर्घ पाने के योग्य, पूजे हुए और पूजा के योग्य, प्रजा-पालक और लोक-प्रिय हैं। इसलिये हमने इनको पूजा के योग्य माना है।


इसी बात को धर्मराज युधिष्ठिर ने भी कहा था-


        यो वै कामान्न भयान्न लोभन्नान्यकारणात्।

  अन्यायमनुवर्त्तेत स्थिरबुद्धिरलोलुप:।।

   धर्मज्ञो धृतिमान्प्राज्ञ: सर्वभूतेषु केशव:।

   ईश्वर: सर्वभूतानां देवदेव: सनातन:।।


भीष्म पितामह के इस विश्वास की दृढ़ता और सचाई की कसौटी में उत्साह देने के लिये उनके साथी बने। जब महाभारत में दोनों दलों की सेनाएँ आमने-सामने खड़ी हो गईं और सम्बन्धियों और मित्रों को लड़ने के लिये और मरने के लिये तैयार देखकर अर्जुन के मन में विषाद हुआ कि लड़ाई न लड़ें, तब भगवान् कृष्ण ने उनको यह ऊँचा उपदेश दिया जो भगवद्गीता के नाम से जगत् को पावन कर रहा है। यह उसी उपदेश का फल था कि अर्जुन के हृदय का सब सन्देह मिट गया और वे लड़ने के लिये खड़े हो गए और उन्होंने विजय प्राप्त की। अर्जुन और कृष्ण के इस सम्बन्ध को और उसको लोकोत्तम फल को भगवान् वेदव्यास ने गीता के नीचे लिखे श्लोक में कूजे में मिश्री के समान भर दिया है-


    यत्र योगेश्वर: कृष्ण: यत्र पार्थो धनुर्धर:।

   तत्र श्रीर्विजयोभूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम।।


      जहाँ योगेश्वर कृष्ण हों, जहाँ गाण्डीवधारी अर्जुन हों, जहाँ मष्तिष्क-बल, हृदय-बल और बाहु-बल एकत्र हों- वहाँ लक्ष्मी है, वहाँ विजय है, वहाँ विभूति है और निश्चित नीति है


 ये कृष्ण प्राणी-प्राणी के हृदय में बैठे हुए हैं। स्वयं भगवान् का वचन है- ईश्वर: सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्ज्जुन तिष्ठति। हे अर्जुन! ईश्वर सब प्राणियों के हृदय में बैठा है। इस बात को स्मरण रखते हुए कि ईश्वर हृदय में बैठा हुआ है और गाण्डीवधारी अर्जुन के समान बाहुबल का प्रयोग करते हुए, जो प्राणी धर्म-युद्ध उपस्थित होने पर क्रोध और अमर्ष को छोड़कर युद्ध करेगा, वह अवश्य विजय पावेगा। भगवान् कृष्ण में भीष्म पितामह की कैसी भक्ति थी, यह भीष्मस्तवराज से विदित है, जिसके द्वारा भीष्म ने मरने के समय भगवान् कृष्ण की स्तुति की थी और जो स्तोत्रों में एक अति उत्तम स्तोत्र हैं। उस स्तोत्र में से मैं केवल दो श्लोक लिखकर इस लेख को समाप्त करता हूँ


अतसीपुष्पसन्काशं पीतवाससमच्युतम्।

ये नमस्यन्ति गोविन्दं न तेषां विद्यते भयम्।।

नमो ब्रह्मण्यदेवाय गोब्राह्मणहिताय च।

जगद्धिताय कृष्णाय गोविन्दाय नमोनम:।।


         तीसी के फूल के समान जिसका वर्ण है, जो पीताम्बर को धारण किए हुए हैं, ऐसे अच्युत गोविन्द को जो नमस्कार करते हैं, उनको किसी प्रकार का भय नहीं रहता। जो व्रह्मण्यदेव हैऔर गौ और ब्राह्मण के हित की रक्षा और उपकार करने वाले हैं और सारे जगत् के प्राणियों का हित करने वाले हैं, ऐसे कृष्ण को मैं बार-बार नमस्कार करता हूँ।




कृष्ण ने स्वयं उद्योगपर्व में कहा है-


      चलेद्धि हिमवाञ्छैलो मेदिनी शतधा भवेत्।

                             द्यो: पतेत्सनक्षत्रा न मे मौघं वचो भवेत्।।


        हिमवान् पर्वत चल जाय तो चल जाय, पृथ्वी सौ टूक हो जाय तो हो जाय, आकाश नक्षत्रों के साथ गिरे तो गिरे, परन्तु मेरा वचन निष्फल नहीं हो सकता। इसलिये उद्योग-पर्व में अर्जुन ने कहा है-


यत: सत्यं यतो धर्मो यतो ह्लीरार्जवं यत:।

  ततो भवति गोविन्दो यत: कृष्णस्ततो जय:।।


      जहाँ सत्य है, जहाँ धर्म हैं, जहाँ लज्जा है, जहाँ नम्रता है, वहाँ गोविन्द हैऔर जहाँ गोविन्द है वहीं विजय है।


एक तीसरा गुण भगवान् का, जिसका मैं पाठकों को स्मरण कराना चाहता हूँ, वह अक्रोध है। वह क्रोध के वश कभी नहीं आते थे। उद्योग-पर्व में लिखा है-


     सत्कृतोऽसत्कृतो वापि न क्रुध्येत जनार्दन:।

नालमेवमवज्ञातुं नावज्ञेयो हि केशव:।।


        उनका कोई सत्कार करे या न करे, कृष्ण कभी क्रोध नहीं करते। उनका अनादर कोई नहीं कर सकता। उनका अनादर करना सम्भव ही नहीं।


        कृष्ण का चतुर्थ गुण, उनका असीम धैर्य था। किसी अवस्था में भी कृष्ण घबराए नहीं। कितने ही शत्रुओं के बीच में क्यों न हों,  कैसा ही संकट क्यों न दिखाई पड़ता हो, उनका धैर्य कभी नहीं डिगता था। तभी अर्जुन ने कहा था-


अनन्ततेज: गोविन्द: शत्रुपूंगेषु निणर्यय:।

  पुरूष: सनातनतयो यत: कृष्णस्ततो जय:।।


     कृष्ण के तेज का वारापार नहीं था। कितने ही शत्रुओं से वे घिरे हों, उसके कारण उनके चित्त में कभी घबराहट नहीं होती थी। वे सनातन पुरुष थे- परमात्मा के रूप थे। जहाँ कृष्ण थे- वहाँ विजय निश्चित थी। इस छोटे लेख में भगवान् कृष्ण के अनन्त गुणों का वर्णन करना सम्भव नहीं है,  इसलिये इस प्रयास को मैं यहीं समाप्त करता हूँ। (कृष्णाष्टमी सं.१९९२)।


                             ‘सनातनधर्म सप्ताहिक वर्ष २, अंक ७, ३० अगस्त १९३४




 

 

Mahamana Madan Mohan Malaviya