Mahamana Madan Mohan Malaviya

Mahamana Madan Mohan Malaviya
Speeches & Writings

आत्मा

 

जब कि मनुष्य सांसारिक झगड़ों से विरक्त हो जाता है, उस समय स्वभावतः उसका मन उसकी ओर झुकता है और उसी समय से मनुष्य को दर्शन और वेदान्त पर विचार करने का अधिकार हो जाता है- क्योंकि उसी समय से मनुष्य अपने अस्तित्व पर विचार करना आरम्भ करता है वह इस बात को भली प्रकार जानने के लिए प्रयत्न करने लगता है कि वह स्वयं क्या है, संसार से उसका क्या सम्बन्ध है, वह स्वतन्त्र है या परतन्त्र, परतन्त्र है तो मोक्ष कैसे प्राप्त कर सकता है, स्वतन्त्र कैसे हो सकता है, आदि-आदि इन प्रश्नों पर विचार करते ही उसे विदित होता है कि उसकी शारीरिक और मानसिक स्थितियाँ जीवनकाल में सदा बदलती रही हैं और इतना होने पर भी वह अपने को वही पुराना 'अहम' समझता है और सींचता है कि वह वही है, जब कि उसका शरीर एक बालक का था, वह अपने को बालक समझता था, जब उसका शरीर कमजोर था, वह अपनों को कमजोर समझता था, जब उसका शरीर युवा था, वह अपने को युवा समझता था


एक कमजोर शरीर में आत्मा कमजोर रहती है, मजबूत शरीर में आत्मा मजबूत रहती है ज्वर से पीड़ित शरीर में यह ज्वर से पीड़ित रहती है- इससे यह प्रत्यक्ष है कि आत्मा स्वयमेव न कमजोर है न मजबूत, न वह हिन्दू है न मुसलमान क्योंकि इन सबसे भेद प्रगट होता है जो नाशवान है, और इसीलिए, वह सांसारिक अवश्य होगा आत्मा आन्तरिक है, वह बदलती नहीं, उसका नाश नहीं होता वह हत्या नहीं करती, न उसकी कोई हत्या कर सकता है :


य एनं वेति हन्तार यश्चैनं मन्यते हतम

उभौ तौ न विजानीतौ नायं हन्ति न हन्यते ।।

न जायते म्रियते वा कदाचि-

न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः

अजो नित्यः शाश्वतोयं पुराणौ-

न हन्यते हन्यमाने शरीरे ।।

नैनं छिदन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः

न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ।।


विचारवान मनुष्य को यह भी प्रगट हो जाता है की यद्यपि उसका बालकपन, उसकी जवानी शेष नहीं रही है, तथापि उसकी आत्मा सदा उसके साथ रही है इस  नित्यप्रति बदलते हुए संसार में एक उसकी आत्मा ही ऐसी है जो नहीं बदलती, जो न सुखी है न दुखी है, जो सब प्रकार के बन्धनों से रहित है और जो हर प्रकार से स्वतन्त्र है उसे यह भी विदित हो जाता है कि आत्मा का जब शरीर से सम्पर्क होता है, तब उसके सम्बन्ध से बहुत-सी बातों का इसमें समावेश हो जाता है गुण-अवगुण इसमें दिखायी देने लगते हैं, यद्यपि प्रकृति से इसमें गुण-अवगुण कुछ नहीं है, और यह एक आईने की तरह स्वच्छ है जिसमें पास पड़ी हुई वस्तुओं का काला-पीला प्रतिबिम्ब पड़ जाता है, वास्तव में आईने में कोई रंग नहीं है अनन्तर उसे यह विदित होता है कि आत्मा अनादि, अनन्त और स्वतन्त्र है किसी के यह प्रश्न करने पर कि जब आत्मा अनादि है, अनन्त है, सच्चिदानन्द है, स्वतन्त्र है- तब फिर क्या कारण है कि मनुष्य को पूरा ज्ञान नहीं रहता, वह दुःख भोगता है, बन्धनों से वह जकड़ा जा रहा है, परतन्त्र रहता है ? वह उत्तर देता है कि 'सत्यमेव तुम स्वतन्त्र हो, तुम्हारी आत्मा अनादि, अनन्त और सच्चिदानन्द-स्वरुप है, परन्तु तुम्हे पूरा ज्ञान नहीं है इससे तुम दुखी हो तुम बन्धनों से जकड़े हो, इसका एकमात्र कारण यही है कि तुम अपने को भूल गए हो और तुम अपने को पहचानने का प्रयत्न नहीं करते तुम आत्मा और शरीर को एक समझते हो, तुम्हें सत और असत का ज्ञान नहीं है तुम अपनी स्थिति को अपने से भिन्न नहीं समझते, तुम पर तुम्हारी स्थिति का इतना प्रभाव पड़ रहा है- तुम्हें अपनी शरीरबद्ध आत्मा की अनन्यता पर ऐसा गूढ़ विश्वास है की तुम अपनी अनादि, अनन्त, स्वतन्त्र आत्मा का स्वप्न भी नहीं देख सकते यही नहीं, यदि कोई तुमसे यह कहे की तुम स्वतन्त्र हो, तुम अनादि हो, अनन्त हो, शरीर और स्थिति अनित्य है और नाशवान है- तो तुम हँस कर उसे मूर्ख कहने को प्रस्तुत होते हैं जब अन्धकार में पड़कर तुम अपने शरीर और स्थिति को महत्त्व प्रदान करते हो, उसी समय तुम्हारे ज्ञान, सुख, स्वछन्दता सब सीमाबद्ध हो जाते हैं, क्योंकि शरीर अनादि-अनन्त नहीं है यदि तुम अपने को शरीर, 'स्थिति' से अलग कर सको, तभी और 'उसी समय तुम्हें अपना पूरा ज्ञान होगा और उसी समय तुम अपने को स्वतन्त्र, स्वछन्द, अनादि और अनन्त समझ सकोगे उस समय तुम्हें पूर्ण ज्ञान हो जायगा तुम्हारा सब पर अधिकार हो जायगा और तुम समझ सकोगे कि सब-कुछ तुम्हारे भीतर है, तुम पर निर्भर है और तुम्हीं, जो चाहो, कर सकते हो


स्वामी विवेकानन्द ने एक समय कहा था-


एक यही बात कि हम लोग अपनी कुछ बुराइयों से मुक्त हो सकते हैं, यह साबित करता है कि हम लोग ईश्वर से दूर नहीं हैं, हम लोगों की कमजोरियाँ उसी अर्थ में बुराइयाँ नहीं है जिस अर्थ में हम उन्हें बुराइयाँ समझते हैं, वरन हम लोग तत्वों के पिण्ड हैं जिनका अभी तक पूरा-पूरा संस्कार नहीं हुआ है, जिसमें उनके वे-सब बाह्य विकार दूर हो जायँ, जिनके कारण उनकी स्वाभाविक गति में रूकावट होती है अतएव उसकी अपेक्षा अधिक समय तक उसमें बंधे रहते हैं जिस समय तक हम लोग उस हालत में बंधे रहते, जबकि हम में उच्च-भावों के मनन करने की शक्ति अधिक बलवती होती मनन-शक्ति ही तत्वों की गति को तीव्र करती है और उसी के परिमाणानुसार तत्व सूक्ष्म होते हैं और आन्तरिक सूक्ष्म शक्ति का विकास होता है ।'


जो व्यक्तिगत आत्मा के लिए ठीक है, वही जनसमुदाय की और राष्ट्रीय आत्मा के लिए भी ठीक है अन्तर केवल इतना ही है कि राष्ट्रीय आत्मा के सम्बन्ध में विचार करते हुए हम लोगों के महात्मा शंकराचार्य के अर्थ को नहीं भूलना चाहिए और यह सदा ध्यान में रखना चाहिए कि जीव शरीर या प्रकृति से श्रेष्ठ अवश्य है, किन्तु एक-दूसरे में ऐसा घनिष्ट सम्बन्ध है कि एक को हीं कर हम दूसरे को महत्त्व नहीं प्रदान कर सकते यदि शरीर पर हमारा अधिकार नहीं है, तो धीरे-धीरे आत्मा पर से भी हमारा अधिकार जाता रहेगा, क्योंकि आध्यात्मिक उन्नति के लिए शरीर का सब प्रकार से पुष्ट रहना पहली और सबसे जरूरी आवश्यकता है


(२ जून, १९१२)

Mahamana Madan Mohan Malaviya