Mahamana Madan Mohan Malaviya

Mahamana Madan Mohan Malaviya
Speeches & Writings

भारतीय सेना

 

पाठकों को विदित होगा कि जनरल सर विलियम निकतसन के सभापतित्व में एक कमेटी भारतीय सेना सम्बन्धी प्रश्नों पर विचार करने के लिए बैठी है निःसंदेह यह उचित ही हुआ है, ततापि यह कहने का साहस नहीं होता कि इससे हम लोगों को कुछ लाभ अवश्य हो होगा, क्योंकि हम जानते हैं कि हम भारतवासी हैं और आजकल भारतवासी के पर्यायवाचक शब्द दीन, दुखी, और जिसकी आशा कभी भी फलीभूत न हो, हैं अस्तु कमेटी इसलिए बनायी गई है कि वह इस प्रश्न पर विचार करें कि भारत में सेना किस प्रकार की और कितनी हो यह बड़े दुःख की बात है कि रिपोर्ट प्राइवेट रहेगी वह हाउस आफ कामन्स में रक्खी जायगी सर्वसाधारण के सामने कमेटी की रिपोर्ट रखने से तथा उनकी सम्मति लेने से अधिकतर लाभ ही होता है अस्तु


दो भावों से सेना-सम्बन्धी प्रश्नों पर विचार किया जा सकता है : एक तो आशा भारतीय-भाव से और दूसरे समस्त ब्रिटिश साम्राज्य के भाव से हम आशा करते हैं कि कमेटी के सभ्य कृपा पर भारतीय भाव को अधिक महत्त्व प्रदान करेंगे भारतीय सेना-सम्बन्धी प्रश्नों पर विचार करने के लिए आवश्यक है कि पहले हम लोग यह जान लें कि सेना की आवश्यकता क्यों हैं सेना इसलिए रक्खी जाती है कि (१) वह आभ्यन्तरिक शान्ति रक्खे और अन्य राष्ट्रों और अन्य राष्ट्रों के आक्रमणों से भारत की रक्षा करे या इसलिए कि (२) वह समस्त एशियाई ब्रिटिश साम्राज्य की रक्षा करे और इंग्लैंड की प्रभुता बढ़ावे ? यदि सेना पूर्वकथित बातों के लिए है, तब हम लोगों को यह विचार करना आवश्यक है कि जितनी सेना वर्तमान समय में है उस कार्य के लिए काफी है या अधिक है यदि सेना दूसरी बातों के लिए है, तब यह विचार उपस्थित होता है कि समस्त साम्राज्य की रक्षा का भार गरीब भारतवासियों के माथे ही क्यों रक्खा जा रहा है ?


यहाँ पर बहुत से सज्जन यह कहने को उद्यत हो जायेंगे कि इंग्लैंड केवल भारत की हितेच्छा से इतनी झंझट उठाये हुए हैं भारत से उसे तनिक भी लाभ नहीं है और ऐसी अवस्था में इंग्लैंड का एक पैसा भी खर्च करना ठीक नहीं है हम यहाँ पर इस प्रश्न को उठाकर व्यर्थ का वितण्डावाद कहदे नहीं करना चाहते हैं कि इंग्लैंड को भारत से कितना लाभ है, माना कि इंग्लैंड को भारत से तनिक भी लाभ नहीं है, और इसीलिए, अन्य आत्मशासन की योग्यता वाली कालोनीज की भाँति वह सेना के व्यय से मुक्त नहीं हो सकता, किन्तु क्या यह भी सम्भव और सत्य है कि इंग्लैंड को एशिया के अन्य अधिकृत देशों से भी कुछ लाभ नहीं है ? ऐसी अवस्था में क्या यह न्यायोचित और धर्मयुक्त है कि उन समस्त प्रान्तों की रक्षा करने वाली सेना का भार भी हम गरीब, नित्यप्रति अकाल, प्लेग और मलेरिया से पीड़ित भारतवासी ही वहां करें ? हम आशा करते हैं कि कमेटी के माननीय सभ्य इस प्रश्न पर विचार करेंगे कि समस्त एशियाई ब्रिटिश सामराज्य की रक्षा करने वाली सेना के व्यय में कितना अंश इंग्लैंड और कितना अन्य अधिकृत देशों को देना चाहिए सन १८७३ ई० में सर चार्ल्स ट्रैवेलियन ने पार्लामेंट की आज्ञा से गठित राजस्व कमेटी के सामने साक्षी देते हुए कहा था: 'कनाडा, आस्ट्रेलिया प्रभृति उपनिवेशों से हम लोग कुछ भी नहीं लेते हैं: ऐसी अवस्था में हम लोग भारत से ही कुछ क्यों लें ? अन्तर केवल इतना ही है कि कनाडा आदि देशों में हमारी बातों पर कोई कान नहीं देता, किन्तु भारत हमारे अधीन है और उससे हम मनमाना कर वसूल सकते हैं ।' यह एक पार्लामेण्ट के सभ्य का ही कथन नहीं है, लार्ड रिपन, लेंसडाउन और नार्थब्रुक जैसे बड़े भारतीय लाटों की भी यही राय थी और अपने समय में उन लोगों ने इसके लिए बहुत कुछ लिखा-पढ़ी भी की थी इंग्लैंड को साम्राज्य की सामरिक शक्ति के निर्वहन में जितनी सहायता भारत से मिलती है, उतनी उसे किसी भी अन्य अधिकृत देश से नहीं मिलती


उपनिवेशों की रक्षा का भार इंग्लैंड पर है, इससे इंग्लैंड को उनके लिए बहुत व्यय करना पड़ता है, किन्तु इसके बदले में उनसे इंग्लैंड को कुछ भी नहीं या नाम-मात्र को लाभ होता है, पक्षान्तर में हम गरीब भारतवासी, जिनमें से अधिकांश को एक समय भोजन भी कठिनता से नसीब होता है, प्रायः ३५ करोड़ रूपये प्रतिवर्ष खर्च कर सेना रखते हैं- इसलिए नहीं कि वह केवल हमारी रक्षा करे, वरन इसलिए कि वह अन्य पूर्वीय देशों में भी इंग्लैंड की कीर्ति-पताका को उज्जवल  रक्खे और इंग्लैंड को सुविधा हो कि पूर्वी देशों में वह अपनी प्रभुता फैलावे गत १८३८ ई० से १९०० ई० तक अफगानिस्तान, चीन, फारस, चित्राल, ट्रांसवाल प्रभृति देशों के बारह युद्धों के कारण ब्रिटिश साम्राज्य बढ़ा है- राज्य बढ़ने से इंग्लैंड का हित हुआ है या नहीं, यह इंग्लैंड वाले खूब जानते हैं- किन्तु यहाँ पर क्या कोई यह प्रश्न करने का साहस कर सकता है कि इन युद्धों के व्यय में इंग्लैंड का कितना अंश रहा है ? हम भारतवासी केवल इतना ही चाहते हैं कि हम लोगों पर उतनी ही सेना का भार रहे, जितनी सेना की हम लोगों को आवश्यकता है यदि ब्रिटिश साम्राज्य की रक्षा और प्रभुत्व के लिए अधिकतर सेना की आवश्यकता है तो उसका खर्च ब्रिटिश राज्यकोष से दिया जाय या उनसे लिया जाय जिसके हित के लिए वह सेना है सेना का यह दुर्वह भार नित्य-प्रति भारत के दरिद्र लोगों पर बढ़ता जाता है


सन १८०७ के पहले भारत में ३७ हजार विदेशी और २ लाख ३० हजार देशी सेना थी कुछ समय बाद यह निश्चय हुआ था कि यहाँ देशी सेना की संख्या गोरी सेना के दुगने से अधिक नहीं रहेगी उसी समय विदेशी सेना की संख्या ६५ हजार की गई थी, किन्तु लार्ड लारेंस के समय में देश की आर्थिक दशा बहुत क्षीण होने से सेना ५५ हजार कर दी गई थी सन १८७३ ई० में लार्ड लारेंस ने अनुसन्धान-समिति के सामने साक्षी देते हुए कहा था कि भारत में विद्रोह के दमन के लिए ६० हजार विदेशी सिपाही बहुत हैं सन १८७९ में सामरिक समिति के अधिवेशन में ये निश्चय हुआ था कि भारत में विद्रोह के दमन के लिए ६० हजार से अधिक सेना की आवश्यकता नहीं है सन १८८५ में गौरी सेना की संख्या ५५ हजार थी अनन्तर अंग्रेजों से रूस वालों की लड़ाई छिड़ जाने के कारण दस हजार गोरी सेना बढ़ाई गई थी सेना बढ़ाने के समय ही हमारे प्रतिनिधियों ने अनुरोश किया था- यह नहीं कि बढ़ी हुई सेना का व्यय ब्रिटिश राजकोष से दिया जाय, वरन यह कि लड़ाई बन्द हो जाने पर यह बड़ी हुई सेना तोड़ दी जाय, जिसमें यह सदा के लिए न बढ़ जाय, किन्तु उनकी अन्य बातों की भाँति यह भी गजट में छपकर रह गई


खेद के साथ कहना पड़ता है कि गोरी सेना नित्य-प्रति बढ़ती जाती है जिससे अधिकतर इंग्लैंड का हित है, क्योंकि सिपाही थोड़े दिन नौकरी कर फिर विलायत चले जाते हैं इन्हें शस्त्रविद्या सिखाते हैं गरीब भारतवासी, किन्तु ये कार्य करने पर काम आवेंगे इंग्लैंड में- और इस प्रकार बिना कुछ खर्च किये ही इंग्लैंड में एक रिज़र्व फोर्स तैयार होती जाती है यदि इनकी अपेक्षा हमारे सैनिक भाइयों की सेवा का काल कम दिया जाय, तो थोड़े दिन में ही भारत में एक बहुत बड़ी रिज़र्व सेना तैयार हो सकती है इसके सिवाय  विलायत से जल्दी-जल्दी सिपाहियों को बुलाने और भेजने में भी हम लोगों का बहुत सा रुपया व्यर्थ होता है यदि गोरे सिपाहियों की भांति हमारे भाइयों को भी थोड़े दिन काम करना पड़े, यदि दोनों सेनाओं के लिए एक ही नियम हो जायँ, तो हमारा बहुत-कुछ मंगल हो सकता है और धर्म और न्याय की मर्यादा भी रक्षित रह सकती है हमारे भाइयों को थोड़े दिन काम करने पर यदि छुट्टी दे दी जाय और उनके स्थान पर नये सिपाही तैयार किये जायँ, तो देश में युद्ध-विद्या में निपुण सैनिकों की संख्या बढ़ जायगी, सरकार को इतना व्यय कर इतनी बड़ी सेना रखने की आवश्यकता न होगी वर्तमान समय की अपेक्षा चौथाई सेना से हमारा काम चलेगा और हम दरिद्रों का रुपया सेना में व्यय न होकर देश के स्वास्थ्य सुधार में, शासन और न्याय-विभाग अलग करने में, खेती की उन्नति में, शिक्षा के प्रचार आदि में व्यय होगा भारत में रिज़र्व सेना बढ़ाने के लिए लार्ड राबर्ट्स ने १८७९ में आर्मी कमीशन को बताया था कि देशी सिपाहियों का सेवा-काल घटाकर रिज़र्व सेना बढ़ाने की यदि चेष्टा की जाय तो प्रत्येक दस वर्षों में भारत में ५२ हजार से ७७ हजार तक सेना तैयार रह सकती है हम लोग निरस्त्र हैं प्रायः ३३ कोटि भारतवासी आत्मरक्षा करने में असमर्थ हैं विपत्ति पड़ने पर ये अपनी या देश की क्या रक्षा कर सकते हैं ? स्वदेश की पवित्र सेवा से इन्हें वंचित रखना जितना बड़ा पाप है, स्थायी सेना पर निर्भर रह कुछ न करना उतनी ही बुद्धि के विरुद्ध बात है देश के निवासियों से उत्तम देश की रक्षा कौन कर सकता है ? सेना का व्यय बालन्टियरोँ के रहने से बहुत कम हो सकता है हिज रायल हाइनेस ड्यूक आफ कनाट ने अस्त्र विद्या का एक कालेज खोलने का भी प्रस्ताव किया था सब विद्याओं में शास्त्र-विद्या प्रधान है इसी की रक्षा से देश का शासन भी हो सकता है उपर्युक्त सभी बातें आवश्यक और विचारणीय है हम आशा करते हैं कि कमेटी के सभ्य इन पर विचार करेंगे और हम दरिद्रों का भार कुछ हल्का कर धन्यवाद के भागी होंगे


(९ मई, १९१२)

Mahamana Madan Mohan Malaviya