Speeches & Writings
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सनातनधर्म
धर्मो विश्वस्य जगत: प्रतिष्ठा लोके धर्मिष्ठं प्रजा उपसर्पन्ति। धर्मेण पापमपनुदन्ति धर्मे सर्वं प्रतिष्टितं तस्माद्धर्मं परमं वदन्ति।
उपनिषद् कहते हैं कि सारा जगत् धर्म के मूल पर स्थित है। इसीलिये लोक में लोग उसी के पास जाते हैं जो धर्मिष्ठ हैं, धर्म से पाप को दूर करते हैं, धर्म में सब प्रतिष्ठित है, इसलिये धर्म को सबसे बड़ा कहते हैं। दूसरे स्थान में भी लिखा है-
विद्या रूपं धनं शौर्य्यं कुलीनत्त्वमरोगिता। राज्यं स्वर्गश्च मोक्षश्च सर्वं धर्मादवाप्यते।।
विद्या, रूप, धन, शूरवीरता, कुलीनता, नीरोगता, राज्य, स्वर्ग और मोक्ष, ये सब धर्म से प्राप्त होते हैं।
सनातनधर्म पृथ्वी पर सबसे पुराना और पुनीत धर्म है। यह वेद, स्मृति और पुराण से प्रतिपादित है। संसार के सब धर्मों से यह इस बात मे विशिष्ट है कि यह सिखाता है कि इस जगत् का सृजन, पालन और संहार करने वाला आदि, सनातन, अज, अविनाशी, सत्-चित्-आनन्द-स्वरूप, पूर्ण प्रकाशमय परब्रह्म परमात्मा है, और यह कि यह परमात्मा मनुष्य से लेकर सिंह, हाथी, घोडे, गौ, हरिन आदि सब थैली से उत्पन्न होने वाले जीवों में, अण्डों से उत्पन्न सब पखेरुओं में, पृथ्वी फोड़कर उगने वाले सब वृक्षों मे और पसीने और मैल से उत्पन्न होने वाले सब कीट-पतंगों में समान रूप से बस रहा है। इसी तत्त्व के कारण-
एष धर्मो महायोग दानं भूतदया तथा। ब्रह्मचर्य्यं तथा सत्यमनुक्रोशो धृति: क्षमा। सनातनस्य धर्मस्य मूलमेत् सनातनम्। महा. अश्वमेध पर्व, ९१.३२.
यह धर्म बड़े-बड़े गुणों का समूह है। दान, जीवमात्र पर दया, ब्रह्मचर्य, सत्य, दयालुता, धैर्य्य और क्षमा, इन गुणों का योग सनातनधर्म का सनातन मूल है। इन गुणों के कारण भी सनातनधर्म अन्य धर्मों से विशिष्ट है।
सनातनधर्म की दूसरी विशेषता वर्ण और आश्रम का विभाग हैं। जैसा कि भगवान् कृष्ण ने अपने श्रीमुख से कहा है - चातुवर्ण्य मया सृष्टं गुणकर्मविभागश:
मैंने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, इन चार वर्णों को गुण और कर्म के विभाग से रचा है। गुण में जन्म भी अन्तर्गत है। इसलिये गुण-कर्म के विचार में जन्म, अन्य गुण और कर्म, तीनों का समावेश हो जाता है। जैसे विद्या और तप ब्राह्मण की ब्राह्मणता के आवश्यक अंग हैं तथापि पूर्ण ब्राह्मणत्त्व की प्राप्ति के लिये- विद्या तपश्च योनिश्च त्रयं ब्राह्मणकरणम्।
विद्या, तप और ब्राह्मण-माता-पिता से जन्म, ये तीनों आवश्यक हैं। ब्राह्मणों के छ: धर्म हैं। अध्ययन, अध्यायन, यजन, याजन, दान और प्रतिग्रह| इनमें से तीन-अध्ययन, यजन और दान तो, ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य तीनों के लिये समान हैं।
वेद पढ़ाना, यज्ञ करना और दान लेना, ये तीन विशेषकर ब्राह्मणों के ही कर्म हैं। तथापि अवस्था विशेष में क्षत्रिय और वैश्य भी वेद पढ़ा सकते हैं। सामान्यतया इन तीन विशेष कर्मों के करने का अधिकार उन्हीं ब्राह्मणों को होता है जो न केवल विद्या और तप से युक्त है बल्कि जो जन्म से ब्राह्मण हैं।
सामान्य रीति से धर्मग्रन्थों में चारों वर्णों के गुण अलग-अलग वर्णित हैं। महाभारत के शान्तिपर्व में वर्णों के लक्षण अलग-अलग इस प्रकार लिखे हैं-
जातिकर्मादिभिर्यस्तु संस्कारै: संस्कृत: शुचि:| वेदाध्ययनसम्पन्न: षट्सु कर्मस्ववस्थित:|| शौचाचारस्थित: सम्यग् विधसाशी गुरुप्रिय:| नित्यव्रती सत्यपर: स वै ब्राह्मण उच्यते|| क्षत्रजं सेवते कर्म वेदाध्ययन सन्गत:| दानादानरतिर्यस्तु स वै क्षत्रिय उच्यते|| वाणिज्या पशुरक्षा य कृष्यादान रति: शुचि:| वेदाध्ययनसम्पन्न: स वैश्य इति संज्ञित:|| सर्वभक्षरतिर्निंत्यं सर्वकर्म करोऽशुचि| त्यक्तवेदस्त्तवनाचार: स वै शूद्र इति स्मृत:||
और इसके अन्त में लिखा है-
शौचेन सततं युक्त: सदाचारसमन्वित:| सानुक्रोशश्च भूतेषु तद्धि जातिषु लक्षणम्|
सदा शौच से युक्त रहना (काया और मन को शुद्ध रखना और शुद्ध भोजन करना), सदाचार का पालन करना, सब प्राणियों पर दया रखना, ये द्विजाति (ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य) के लक्षण हैं।
इसी के साथ महाभारत के वनपर्व में लिखा है-
वर्णोंत्कर्षमवाप्नोति नर: पुण्येन कर्मणा| तथापकर्षं पापेन इति शास्त्रनिदर्शनन्||
मनुष्य पुण्य-कर्मों के करने से वर्ण में ऊपर उठ जाता है और नीच कर्म करने से नीचे गिर जाता है, यह शास्त्र कहता है |
यह भी वहीं लिखा है-
शूद्रोऽपि शीलसम्पन्नो गुणवान ब्राह्मणो भवेत्| ब्राह्मणोऽपि क्रियाहीन: शूद्रात् प्रत्यवरो भवेत्||
शूद्र भी सुशील अर्थात् पवित्र चरित्रयुक्त और गुणवान् हो तो वह ब्राह्मण हो जाता है और ब्राह्मण भी अपना धर्म, छोड़ दे या उससे रहित हो तो वह शूद्र से भी नीचे गिर जाता है।
शुद्रे तु यद्भवेल्लक्ष्म द्विजे तच्च न विद्यते। न वै शूद्रो भवेच्छूद्रो ब्राह्मणो न च ब्राह्मण:।।
शूद्र में जो ब्राह्मण के गुण हों और ब्राह्मण में वे गुण न हों तो न वह शूद्र शूद्र है और न वह ब्राह्मण ब्राह्मण|
युधिष्ठिर का वचन है-
सत्यं दानं क्षमा शीलमानृशंत्यं तपो घृणा। दृश्यन्ते यत्र नागेन्द्र स ब्राह्मण इति स्मृत:|| यत्रैतल्लक्ष्यते सर्प वृत्तं स ब्राह्मण: स्मृत:| यत्रैतन्न भवेत्सर्प तं शूद्रमिति निर्दिशेत्||
हे नागेन्द्र ! जिसमें सत्य, दान, क्षमा, शील, अहिंसा, तप, दया दिखाई दें, उसको ब्राह्मण कहते है। जहाँ अच्छा शील-स्वभाव दिखाई दे उसको ब्राह्मण कहना, जहाँ ये न दिखाई दें उसको शूद्र कहना, चाहिए।
श्रीमद्भागवत् में भी सातवें स्कन्ध में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों के अलग-अलग गुणों का वर्णन कर नारदजी ने कहा-
यस्य यल्लक्षणं प्रोक्तं पुंसो वर्णाभिव्यञ्जकम्| यदन्यत्रापि दृश्येत तत्तेनैव विनिर्दिशेत्||
अर्थात् जिस पुरुष को जो वर्ण का प्रकट करने वाला लक्षण कहा गया है, जहाँ दूसरे में भी वह लक्षण दिखाई दे, तो उसको उसी गुणवाले वर्ण के नाम से बताना चाहिए।
इन वचनों से स्पष्ट है कि यदि जन्म से ब्राह्मण होने वालाभी अपने धर्म-कर्म से रहित हो जाय या कुकर्म करने लगे, तो वह शूद्र से भी नीचे गिर जाता है। और नीच-से-नीच शूद्र भी यदि अच्छे आचारों को ग्रहण करे और ऊँचा पवित्र जीवन व्यतीत करने लगे, तो वह भी ब्राह्मण के समान मान पाने के योग्य हो जाता है। इसके अतिरिक्त यह प्रसिद्ध है कि भक्ति नीच-से-नीच प्राणी को भी ऊपर उठा देती है और भगवान् का प्रीति-पात्र बना देती है। उस भक्ति की यह महिमा है कि चाण्डाल भी भगवान् का नाम जपने से ब्राह्मण के समान आदर के योग्य हो जाता है। उसी भक्ति का साधन मंत्र-दीक्षा की विधि है। जैसा वैष्णव-तंत्र लिखा है-
यथा काञ्चनतां याति कांस्यं रसविधानत:| तथा दीक्षाविधानेन द्विजत्त्वं जायते नृणाम्।।
जैसे काँसे पर रस का प्रयोग करने से वह सोने के समान चमकने लगता है, वैसे ही मंत्र-दीक्षा के लेने से मनुष्य द्विजत्त्व को प्राप्त करता है, अर्थात ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य के समान आदर के योग्य हो जाता है। इसका अर्थ यह नहीं है कि वह शूद्र इस योग्य हो जाता है कि उससे रोटी-बेटी का सम्बन्ध करें या उसको वेद पढ़ाने या यज्ञ कराने को निमन्त्रित करें। इसका यह अर्थ है कि सामान्य शूद्र क्या चाण्डाल में भी यदि विद्या, ज्ञान, शौच, आचार आदि द्विजों के गुण पाए जावें तो ज्ञान के क्षेत्र में और सामान्य सामाजिक व्यवहार में द्विज लोग उसकी विद्या, ज्ञान, सदाचार के अनुरूप उसका आदर करें।
मेरा विश्वास है कि सनातनधर्म के तत्त्व को जानने वाले सब विद्धान् ऊपर लिखी व्याख्या को धर्मानुकूल मानेंगे। यदि यह धर्मानुकूल नहीं है तो मैं यह प्रार्थना करता हूँ कि निष्कल्मष, धर्मज्ञ, धर्मशील विद्धान् हिन्दू-जाति पर और विशेष कर सनातनधर्म के अनुयायियों पर अनुग्रह करके यह बतावें कि उसमें क्या दोष है। मेरा अभिप्राय यह है कि जो सत्य और धर्म का मार्ग है वही संसार को बताया जाय| और यदि ऊपर लिखे विचारशास्त्र के अनुकूल हैं तो उन्हीं के अनुसार अछूतों को आर्थिक दशा सुधाकर सदाचार सिखाकर और उनको मंत्र-दीक्षा देकर उनका उद्धार करना हमारा धर्म है। इसाई, मुसलमान जिन अछूतों को अपने धर्म में मिलाते हैं, उनको अपने समाज में बराबर स्थान देते हैं। किन्तु अछूत सनातनधर्म समाज के अंग हैं। इनकी उन्नति करना, इनको सामान्य और धार्मिक शिक्षा देना और समाज के दूसरे अंगो के समान इनकी रक्षा करना और इनको आगे बढ़ाना हमारा अवश्य कर्तव्य है। इससे हमारे धर्म की रक्षा और वृद्धि होगी और धर्म को किसी प्रकार की हानि नहीं पहुँचेगी। हिन्दू-जाति का इसी में भला होगा। ऐसे ही मार्ग के अबलम्बन करने से सनातनधर्म की महिमा पूर्ण रीति से स्थापित होगी। इस प्रकार धर्म-बुद्धि से धर्म के प्रश्नों का निर्णय करने से और उनके अनुसार चलने से समाज में धार्मिक एकता और शक्ति स्थापित होगी।
(‘सनातनधर्म' साप्ताहिक, वर्ष १, अंक ९ से उद्धत)
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