Mahamana Madan Mohan Malaviya

Mahamana Madan Mohan Malaviya
Speeches & Writings

राजनीति

भारत के लिए संघीय शासन-व्यवस्था

 

       सन् १९०८ के प्रारम्भ में संघीय शासन-व्यवस्था में सुधार के लिये जो कमीशन नियुक्त हुआ, उसके सम्मुख प्रस्तुत करने के लिये पूज्य मालवीयजी ने जो लेख लिखा था, वह निम्नलिखित है-


-सम्पादक


       ब्रिटिश भारत में आठ प्रमुख प्रान्त हैं, जिनका शासन प्रान्तीय सरकारों द्वारा अलग ही होता है मद्रास और बम्बई प्रान्तों का शासन सपरिषद् गवर्नर द्वारा होता है, जिनके अधिकारों तथा कर्त्तव्यों का निर्धारण पार्लियामेण्ट-विधान के द्वारा होता है। बंगाल, यूक्तप्रान्त, पूर्वीय बंगाल, आसाम, पंजाब और ब्रह्मा का शासन छोटे लाटों द्वारा होता है। मध्यप्रान्त अभी तक चीफ कमिश्नर के अधीन है।


सपरिषद् बड़े लाट महोदय भारत की शासन तथा धन-सम्बन्धी समस्याओं के मुख्यतर निर्णायक, या यों कहिए कि सर्वेसर्वा हैं। परन्तु वास्तविक राज्य-प्रबन्ध का कार्य भारत-सरकार तथा प्रान्तीय सरकारों में बंटा हुआ है। भारत-सरकार अथवा सपरिषद् बड़े लाट विदेश-सम्बन्ध, देश-रक्षा, सार्वजनिक-कर, सिक्के का संचालन, ॠण, आयत-निर्यात कर,  डाक,  तार तथा रेलवे आदि निभागों के अन्तर्गत कार्यों की देखरेख अपने हाथ में रखते हैं। साधारण अन्तरराष्ट्रीय राज्यप्रबन्ध, भूमिकर निर्णय तथा उसका संग्रह, शिक्षा, औषधि क्या स्वास्थ्य-सम्बन्धी प्रबन्ध, नहर, भवन तथा सड़कों आदि के निर्माण का भार प्रान्तीय सरकार के ऊपर है। किन्तु इन सभी कार्यों पर भारत-सरकार का व्यापक तथा अविच्छिन्न नियंत्रण है। यह उनके लिये नीति निर्धारित करती है और यह जाँच करती है कि उनके नियमों का पालन हो रहा है या नहीं। इसके लिये प्रान्तीय सरकारें मुख्य-मुख्य विभागों के शासन-सम्बन्धी विवरण प्रातिवर्ष उसके पास भेजती हैं। रेल, डाक, तार, माप, भूगर्भ आदि अपने अधीन विभागों पर नियंत्रण करने के लिये तो शासकगण रखती ही है, साथ-साथ अन्य प्रान्तों के कृषि, सिंचाई, जंगल, स्वास्थ्य, शिक्षा आदि विभागों के लिये भी बहुत से निरीक्षकों तथा मन्त्रियों को भी नियुक्त करती है। यह केवल प्रान्तीय सरकार के प्रतिवर्ष की आय-व्यय में ही आवश्यक संशोधन नहीं करती, बल्कि प्रत्येक नविन महत्त्वपूर्ण नियुक्ति तथा प्रत्येक विभाग में छोटी-से छोटी वृद्धि के लिये भी स्वीकृति देती है। इसका फल यह होता है कि बिना इसकी स्वीकृति के राज्य-शासन में कोई परिवर्त्तन नहीं हो सकता। मद्रास तथा बम्बई के बाहर प्रान्तीय शासन में कोई भी प्रमुख अधिकारी नियुक्त करने के लिये बड़े लाट की स्वीकृति की आवश्यकता है। “सभी प्रान्तों में सरकारी नीति तथा आवश्यक प्रश्नों को सपरिषद् भारत-सरकार की अनुमति लेने के लिये भेजना पड़ता है और प्रान्तीय सरकारों के धन व्यय करने के अधिकार कड़े तथा निश्चित नियमों से नियन्त्रित होते हैं, अर्थात् प्रान्तीत सरकारें भारत-सरकार की केवल आज्ञाकारी प्रतिनिधि मात्र हैं। उन्हें अपने आर्थिक तथा अन्य सभी प्रश्नों की स्वीकृति भारत-सरकार से लेनी पड़ती है।


भारत-सरकार सम्पूर्ण ब्रिटिश भारत के करों का अपने को ही स्वामी समझती है। सन् १८७० तक प्रत्येक प्रान्तीय-सरकार को अपने अग्रिम वर्ष के व्यय का कच्चा-चिट्ठा बड़े लाट की परिषद् के सामने उपस्थित करना पड़ता था। सपरिषद् बड़े लाट उन सम्पूर्ण आय-व्यय के कच्चे-चिट्ठों पर अनुमानित कर की तुलना करने के बाद विभिन्न प्रान्तों की आवश्यकताओं के अनुसार प्रान्तीय सरकारों को धन वितरित करती थी। इस व्यवस्था की त्रुटियों तथा कठिनाइयों को देखकर लॉर्ड मेयो ने केन्द्रीय सरकार द्वारा धन वितरित करने की प्रणाली बदल दी। अनेक सुधारों के बाद इसका स्वरूप सन् १९०४ ई. में अर्द्धस्थायी प्रबन्ध बन गया। राज्यकर के कुछ अंश पूर्णतया राजकीय माने गए हैं,  और कुछ अंश केवल प्रान्तीय हैं, और शेषांश राजकीय तथा प्रान्तीय सरकारों के बीच बाँट लिए जाते हैं।


यह व्यवस्था इस अर्थ में स्थायी है कि एक निर्दिष्ट समय तक इसमें कोई परिवर्त्तन नहीं हो सकता। परन्तु भारत-सरकार को यह अधिकार है कि आवश्यकता पड़ने पर वह किसी एक अथवा सब प्रान्तों की इस व्यवस्था में उचित परिवर्त्तन कर सकती है। यह आवश्यकता कब होगी,  इस बात के निर्णय का अधिकार भारत-सरकार ने अपने हाथ में रक्खा है। प्रान्तीय सरकारों को इसमें चूँ तक करने का अधिकार नहीं है, और इन व्यवस्थाओं की शर्तों पर भी विचार करने का अधिकार नहीं है। ये नियम किसी न्याय अथवा सत्य के सिद्धान्तों पर नहीं बने हैं। भारत-सरकार ने कुछ नियम निर्धारित कर लिए हैं, और उन्हें लागू करने पर ज्ञात हुआ कि प्रान्तीय सरकारों का सम्पूर्ण व्यय पूरी आय के एक चौथाई से भी कम हुआ,  और भारत-सरकार का व्यय तीन चौथाई से भी अधिक बढ़ गया,  जिसमें सेना तथा आन्तरिक व्यय भी सम्मिलित है। ये अनुपात ही भारतीय तथा प्रान्तीय सरकारों के बीच कर-विभाजन के आधार माने गए। किन्तु समयानुकूल इसमें अनेक आवश्यक परिवर्त्तन होते रहे। इसमें हमें प्रान्तीय सरकारों की वास्तविक परिस्थिति का पूर्ण परिचय मिलता है। भारत-सरकार के अधीन प्रान्तीय सरकारों की शासन तथा आर्थिक प्रबन्ध सम्बन्धी शक्ति का इससे ठीक पता लग जाता है। उपर्युक्त व्यवस्था से भारतभर में राजनीतिक एकता तथा प्रबन्ध की समरूपता स्थापित हो गई है। इससे साम्राज्य के विकास तथा विस्तार दोनों में योग मिलता है। भारत-सरकार सम्मूर्ण देश के आर्थिक साधनों की अधिकारिणी रही है,  और राजकीय कार्यों के लिये उसने उन साधनों का अनावश्यक उदारता से उपयोग किया है। उसने उक्त द्रव्य का उचित अंश भारतीय जनता की नैतिक तथा आर्थिक उन्नति के लिये व्यय न किया। इसका फल यह हुआ है कि बाहर से इस साम्राज्य की जितनी तड़क-भड़क दिखाई दे रही है, उतनी ही भारतवासियों की दशा बुरी हो गई है। इस वर्तमान व्यवस्था के अनौचित्य का प्रमाण हमें इसी से मिलता है कि जहाँ सरकार कई वर्षों तक बचत की निन्दा करती रही, वहाँ अब उन बचत करने वाले प्रान्तों को केवल काम चलाने भर को ही मिलता है। प्रान्तीय सरकारों का कर-स्थापन, कर-संग्रह, शिक्षा, स्वास्थ्य, भवन-निर्माण तथा सड़कों के निर्माण इत्यादि सब प्रबन्ध के लिये सम्पूर्ण आय का चौथाई से भी कम भाग व्यय होता है, और ठीक इसके विपरीत राजकीय व्यय में, जिसमें सेना तथा गृह-व्यय भी सम्मिलित है, तीन चौथाई से भी अधिक व्यय होता है। इससे स्पष्ट है कि जबतक वर्त्तमान व्यवस्था में एकदम परिवर्त्तन न किया जायगा, तब तक जनता के अत्यन्त हितकर स्वत्त्वों की उन्नति असम्भव है।


भारत के इन आठ प्रमुख प्रान्तों का क्षेत्रफल तथा इनकी जनसंख्या यूरोप के कई बड़े-बड़े प्रदेशों के बराबर है। ब्रह्मा का क्षेत्रफल स्वीडेन के जितना है,  परन्तु आबादी में लगभग दूना है। अविभाजित बंगाल का क्षेत्रफल यद्यपि ब्रह्मा से कुछ अंशों में कम है, किन्तु आबादी उससे आठ गुनी और फ्रांस से दुगुनी है। मद्रास की आबादी ब्रिटिश द्वीपसमूह के बराबर है। बम्बई का क्षेत्रफल भी प्राय: ब्रिटिश द्वीपसमूह के बराबर है,  किन्तु इसकी आबादी उससे कम है। संयुक्तप्रान्त की आबादी ऑस्ट्रिया हंगरी से अधिक है। मध्यप्रान्त तथा बरार दोनों का क्षेत्रफल तो संयुक्तप्रान्त के बराबर है,  और आबादी एक करोड़ तीस लाख है। पंजाब की आबादी दो करोड़ है। इंग्लैण्ड में सम्राट की सरकार ने और भारत-सरकार ने इस बात का अनुभव किया है कि इन प्रान्तों में से प्रत्येक अलग राज्य प्रबन्ध करने के लिये पर्याप्त, विस्तृत तथा उपयुक्त है। इनमें से केवल मध्यप्रान्त को छोड़कर शेष सबमें अपनी स्वतंत्र व्यवस्थापिका सभाएँ हैं। प्रत्येक प्रान्त अपनी स्वतंत्र शिक्षा, राज्य-प्रबन्ध, फौजदारी तथा दीवानी न्याय आदि विभागों का नियंत्रण स्वयं करता है। यही उचित समय है कि करोड़ों अनाथ जनता के सुख-दुख की उत्तरदायिनी इन प्रान्तीय सरकारों को राज्य-शासन तथा आर्थिक विषयों के अधिकार प्रदान किए जायँ।

 

उत्तरदायित्त्वपूर्ण सरकार

 

        इस ध्येय की पूर्त्ति के लिये वर्तमान प्रचलित शासन-विधान को संघ-विधान में परिवर्तित कर देना चाहिए। प्रान्तीय सरकारें अब भारत-सरकार की आज्ञाकारिणी प्रतिनिधिमात्र न रहकर एक अलग ही अर्द्धस्वतंत्र सरकारें  बना दी जायँ। मेरा खयाल है,  इसी प्रकार का एक प्रस्ताव लॉर्ड मेयो के शासनकाल में उस समय उनके सम्मुख उपस्थित किया गया था,  जब वे प्रान्तीय सरकारों को आर्थिक उत्तरदायित्त्व में कुछ अधिक स्वतंत्रता देने के लिये तुले हुए थे,  क्योंकि उस समय भारत-सरकार के हाथ में  कुल भार होने से बड़ी असुविधा हो रही थी।


सर विलियम हण्टर ने कहा है कि उनके पूर्वकालीन कई बड़े लाटों की यही धारणा थी, और भारतीय राजनीतिज्ञों के एक दल ने तो प्रान्तीय सरकारों के आर्थिक प्रबन्ध में पूर्ण स्वतंत्रता देने की सम्मति दे दी थी। उनका यह कहना था कि प्रान्तीय सरकारें अपनी आय का वही अंश भारत-सरकार को दे सकती हैं, जो वे उसे साम्राज्य के लिये सेना तथा राज्य-ऋण आदि के रूप में देती हैं। अभाग्यवश वह प्रस्ताव स्वीकृत नहीं हुआ। मैं सोचता हूँ कि यदि इसकी स्वीकृति हो गई होती तो प्रान्तीय सरकारों ने अपनी शासित जनता की समृद्धि तथा सर्वतोमुखी उन्नति में अधिक ध्यान दिया होता। तथापि गत सैंतीस वर्षों के शासन-प्रबन्ध के अनुभव से यह प्रत्यक्ष हो गया है कि वह प्रस्ताव अब बड़ी सरलता से प्रयोग में लाया जा सकता है,  और उसकी अब नितान्त आवश्यकता भी है। इससे किसी भी प्रकार से साम्राज्य की एकता में कोई शिथिलता नहीं आ सकती। भारत-सरकार को चाहिए कि विदेश-सम्बन्ध, देश-रक्षा, सिक्का चलाना, ऋण, आयात-निर्यात-कर, डाक, तार तथा रेल आदि अपने सभी “राजकीय विभागों से कर प्राप्त करे। जिन साधारण राजकीय कर्त्तव्यों के लिये उसे धन की आवश्यकता पड़े,  उसे वह निश्चित तथा विवेकपूर्ण सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक प्रान्त से यथा भाग ले सकती है। यह धन ले लेने के बाद भारत-सरकार को यह चाहिए कि जनता के लाभार्थ समुचित तथा सदुपयोगी ढंग से यह धन प्रयोग करने के लिये प्रान्तीय सरकारों को पूर्ण स्वतंत्रता दे दे। उसको अधिकार होगा कि विशेष अवसर पड़ने पर, अथवा प्रान्तीय सरकारों से वार्षिक सहायता न मिलने पर व्यापक कर लगा सकती है। इससे भारत-सरकार की फजूलखर्ची की आदत बन्द हो जायगी और प्रान्तीय सरकारें भी अपने हाथ के धन से जनता का विशेष हित करेंगी।


भारत-सरकार का सेना-व्यय भयावह रूप से बढ़ गया है, और आशा नहीं है कि उसमें  कभी कोई संशोधन हो सकेगा। जबतक इसमें कमी नहीं होगी तबतक प्रान्तीय सरकारों की इस वार्षिक देन में कमी नहीं आ सकती। परन्तु इसमें सन्देह नहीं कि रूस तथा जापान के साथ सन्धि होने के कारण इस व्यय में निकट भविष्य में कमी होने की सम्भावना है

 

प्रान्तीय सरकारों का स्वरूप

 

 

यदि प्रान्तीय सरकारों को शासन तथा आर्थिक व्यय की अधिक स्वतंत्रता मिल गई और भारत-सरकार का उनके कर्त्तव्य-पालन में हस्तक्षेप करने का अधिकार हटा लिया गया, तो यह भी अत्यन्त आवश्यक है कि उनके स्वरूप में भी परिवर्त्तन हों। बम्बई और मद्रास का शासन केवल दो सदस्यों की परिषद् और गवर्नर द्वारा होता है। इसकी आवश्यकता है कि भारत-सचिव की कौन्सिल में और भी सदस्य बढ़ाए जायँ। यह हाल ही में घोषित किया गया है कि भारत-सचिव तथा बड़े लाट दोनों ने बड़े लाट की कौन्सिल की सदस्यता के पद पर एक भारतीय नियुक्त करने की सम्मति प्रगट की है। अतएव इन समर्थनों के अनुसार मद्रास तथा बम्बई के बड़े लाट की व्यवस्थापिका सभा की सदस्यता के पद पर दो भारतीयों की नियुक्ति करने का परामर्श सर्वथा उचित प्रतीत होता है,  और मेरा विश्वास है कि इस कार्य का श्रीगणेश अन्य प्रान्तों के लिये भी लाभप्रद होगा। मैं आशा करता हूँ कि इनकी स्वीकृति अवश्य होगी।

 

संयुक्तप्रान्त के लिये सपरिषद् गवर्नर

 

 

    संयुक्तप्रान्त भारतवर्ष के बड़े प्रान्तों में द्वितीय है। यद्यपि इसका क्षेत्रफल मद्रास और बम्बई के क्षेत्रफल से कुछ ही कम होगा, किन्तु इसकी आबादी चार करोड़ अस्सी लाख है, जब कि मद्रास तथा बम्बई की आबादी क्रमश: नब्बे लाख ही है। सन् १८८७ के चार्टर एक्ट के द्वारा यह आशा हुई कि ‘प्रेसिडेन्सी ऑफ फोर्ट विलियम्स इन बंगाल’  को दो भागों में विभक्त कर देना चाहिए। एक का नाम ‘प्रेसिडेन्सी ऑफ फोर्ट विलियम ईन बंगाल होगा और दूसरे का प्रेसिडेन्सी ऑफ आगरा’ होगा। उसी विधान के अनुसार यह निर्णय हुआ कि फोर्ट विलियम इन बगाल’, फोर्ट सेण्ट ज्यॉर्ज, बम्बई और आगरा सभी प्रान्तों की प्रबन्धकारिणी सरकारें  गवर्नर और उनके तीन मन्त्रियों द्वारा शासित हुआ करेंगी। धनाभाव के कारण आगरा प्रान्त का पूर्ण रीति से प्रबन्ध न हो सका और दो वर्ष पश्चात् एक दूसरे संशोधक विधान से गवर्नर जनरल को यह अधिकार मिला कि पश्चिमोत्तर प्रान्त के लिये एक छोटा लाट नियुक्त कर दें,  तथा उसके अधिकारों को निश्चित कर दें।


सन् १८३३ ई. में सरकार की जैसी आर्थिक अवस्था थी,  उससे कहीं अधिक उत्तम वर्तमान काल में है, और गत पचहत्तर वर्षों में जो विशाल परिवर्तन हुए हैं, उनको ध्यान में रखकर मेरा विचार है कि अब यह प्रान्त भी इंग्लैण्ड से नियुक्त अनुभवी राजनीतिज्ञ की गवर्नरी और उसके सहायक मन्त्रिवर्ग के शासन से वन्चित न रक्खा जाय। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं कि भारतीय सिविल सर्विस ने भी सर एण्टोनी मैकडोनेल जैसे सुयोग्य गवर्नर बनाए हैं,  जिनके शासन में प्रजा की अपूर्व उन्नति हुई है। ऐसे ही प्रतिभाशाली व्यक्तियों की वास्तव में नियुक्ति होनी चाहिए,  परन्तु जैसा मैंने परामर्श दिया है,  और जैसा कि परम्परा से चला आता है,  यह नियम बना लेना चाहिए कि इस पद पर सीधे इंग्लैण्ड से किसी अनुभवी तथा सुयोग्य राजनीतिज्ञ को नियुक्त करना चाहिए। यदि इस प्रकार से यथोचित निर्वाचन हुआ तो इंग्लैण्ड के स्वतंत्र वातावरण से सीधे आने वाले महोदय महाराज कुमार प्रिन्स ऑफ वेल्स की आशानुसार भारतीय शासन में वर्तमान काल की अपेक्षा अधिक सहानुभूति दिखलायेंगे।  यदि एक गवर्नर तथा सहायक परिषद् की नियुक्ति हो गई तो भूमि-कर समिति (बोर्ड ऑफ रेवेन्यू) की कोई आवश्यकता नहीं रह जायगी और बोर्ड के जो दो प्रमुख सदस्य हैं, उनकी नियुक्ति गवर्नर के मन्त्रियों के पद पर कर देनी चाहिए। यह भी ध्यान में रक्खा जाना चाहिए कि एक समाय दो मन्त्रियों में से एक शासन-विभाग का हो। इनके अतिरिक्त दो भारतीय मन्त्रियों की नियुक्ति प्रबन्धकारिणी सभा में होनी चाहिए। विभिन्न प्रान्तों की प्रबन्धकारिणी सभाओं में अनुभवी तथा सुयोग्य दो भारतीयों के नियुक्त करने से अत्यन्त लाभ होगा। प्रबन्धकारिणी सभा में भारतीय सिविल सर्विस से बाहर के यूरोपियनों की नियुक्ति कर देने से फल यह होता है कि वे भारतीय जनता के मनोभावों तथा उनकी रूढ़ियों से अनभिज्ञ होने के कारण अनेक व्यर्थ के कार्य कर बैठते हैं,  परन्तु भारतीय मन्त्रियों के परामर्श आदि से ऐसे भ्रम की सम्भावना बहुत कम रहेगी। अब भारतीय जनता में अधिकार तथा सुविधाएँ प्राप्त करने की नवीन जागृति होने लगी है, और वे उनकी प्राप्ति के लिये सदा प्रयत्नशील रहेंगे,  इसलिये प्रबन्धकारिणी सभा में सुयोग्य तथा अनुभवी भारतीय मन्त्रियों की नियुक्ति हो, जो अपने विचार और व्यवहार स्पष्ट रूप से सरकार के सम्मुख रख सकें।

 

व्यवस्थापिका सभाएँ

 

     प्रान्तीय आर्थिक तथा शासन-सम्बन्धी बढ़े हुए अधिकारों का सरकार द्वारा समुचित उपयोग कराने के लिये व्यवस्थापिका सभा में जनता के प्रतिनिधियों की संख्या बढ़ाना परमावश्यक है। यह अधिकार भी मिलना चाहिए कि वे आय-व्यय के कच्चे-चिट्ठे की उपयुक्तता पर अपनी सम्मति दे सकें तथा आवश्यकता पड़ने पर सम्मति निर्धारण के लिये व्यवस्थापिका सभा का विभाजन करा सकें। सभा के आधे सदस्य निर्वाचित हों,  एक चौथाई सरकार द्वारा नियुक्त किए जायँ और शेष अधिकारी वर्ग में से नियुक्त किए जाने चाहिए। गवर्नर को अधिकार होना चाहिए कि वह बहुमत से स्वीकृत प्रस्ताव को भी अस्वीकार कर सके। इससे आर्थिक तथा सार्वभौम शासन प्रबन्ध में वर्तमान अवस्था से भी अधिक सुधार हो जायगा। इस बात पर अधिक जोर देने की आवश्यकता नहीं प्रतीत होती कि जबतक स्वयं नागरिक सचेष्ट होकर ध्यान न दें तबतक उचित द्रव्य नहीं मिल सकता। कच्चे चिट्ठे के सम्बन्ध के विधानों के कारण राज्यशासन अपनी सीमा के अन्दर ही रहता है, परन्तु कौशलपूर्ण व्यय, लाभयुक्त तथा न्यायपूर्ण कर, तथा आय और व्यय का पूर्ण सामन्जस्य तभी सम्भव है, जब विवेकशील तथा परिश्रमी जन-समुदाय उस पर अपने विचारों द्वारा शासन करे। अतएव जनता के विचारों को समुचित रूप से प्रगट करने के लिये व्यवस्थापिका-सभाओं में प्रतिनिधियों को स्थान देना चाहिए और उस विचार को प्रभावशाली बनाने के लिये प्रतिनिधियों को कच्चे चिट्ठे पर स्वतंत्र रूप से वाद-विवाद करने का अवसर देना चाहिए। मेरे उपर्युक्त मन्तव्य भारत के आठों बड़े प्रान्तों के लिये लागू हैं। यह कहा जा सकता है कि मध्यप्रान्त तथा बरार प्रान्त के लिये,  जो एक चीफ कमिश्नर के अधीन हैं, बड़े प्रान्तों के समान शासन-व्यवस्था की आवश्यकता नहीं है। परन्तु मध्यप्रान्त की आबादी ब्रह्मा की आबादी से कम नहीं है, जो एक छोटे लाट के अधीन है। मेरी समझ में इन बड़े प्रान्तों में जो सबसे छोटा है,  वह भी प्रस्तावित शासन-व्यवस्था पाने के लिये बड़े प्रान्तों के समान ही बड़ा है।


 

 व्यय

 

 

        यदि यह पूछा जाय कि प्रस्तावित योजना का खर्च कहाँ से आवेगा, तो मैं कहूँगा कि भारत में अफसरों के वेतन अत्यधिक हैं, उनमे कमी करनी चाहिए। मेरे प्रस्ताव के स्वीकृत हो जाने पर जो नवीन नियुक्ति करनी होगी उसमें वेतन का परिमाण बहुत विवेक के साथ निश्चित होना चाहिए। किन्तु यदि ऐसा न भी हो तो इस व्यवस्था से राज्यशासन में जो उन्नति होगी उससे इसकी कमी पूरी हो जायगी।

 

 

 

Mahamana Madan Mohan Malaviya