Mahamana Madan Mohan Malaviya

Mahamana Madan Mohan Malaviya
Speeches & Writings

राष्ट्रीयता और देश-भक्ति

 

कहा जाता है, बहुत से लोग इसमें विश्वास भी करते हैं, कि इंग्लैंड की उन्नति का सबसे बड़ा कारण एक तो यह है कि वहाँ की जलवायु, सदैव शीतल रहने के कारण, इंग्लैंडवासियों को आलसी होकर नहीं बैठने देती ग्रीष्म ऋतु की अपेक्षा शरद ऋतु से हमारा कार्य करने में अधिक मन लगता है इंग्लैंडवासी सदैव ही ईश्वर की कृपा से अपने यहाँ ऐसा समय पाते हैं जो उन्हें प्रशिक्षण कुछ न कुछ कार्य करने के लिये प्रेरित करता है दूसरे, चारों ओर समुद्र से घिरा रहने के कारण उसे व्यापार में बहुत सुगमता रहती है तीसरे यह कि इस देश ने पृथ्वी के धरातल पर देश की उन्नति और रक्षा के लिए बड़ा उपयोगी स्थान पाया है- समुद्र से घिरा हुआ होने के कारण वह सुरक्षित तो है ही, जैसा कि प्राचीन समय में खाई से घिरा हुआ कोई बड़ा किला होता था, दूसरे यह, नयी और पुरानी दुनिया के बीच में होने से इसका सम्बन्ध दोनों से है और इस सम्बन्ध से उसने अपने व्यापार की उन्नति करने में बड़े लाभ से है और इस सम्बन्ध से उसने अपने व्यापार की उन्नति करने में बड़े लाभ उठाये हैं जापान की जलवायु इंग्लैंड ही के समान है और उसकी स्थिति भी नयी और पुरानी दुनिया (अमेरिका और एशिया-अफ्रीका) के बीच में है और इसी कारण से जापान भी इंग्लैंड की भाँति उन्नति करता चला जाता है


उपर्युक्त प्राकृतिक कारण प्रत्येक देश की उन्नति अथवा अवनति पर प्रभाव डालते हैं, हमको इसमें सन्देह नहीं है, परन्तु हमारा यह विश्वास है कि वे किसी देश की उन्नति अथवा अवनति के मुख्य कारण नहीं है यदि ध्यानपूर्वक इंग्लैंड और जापान ही के उन्नति के इतिहास का निरीक्षण किया जाय, तो पता लगता है कि उनकी उन्नति का आधार इन प्राकृतिक कारणों के अतिरिक्त एक और ही शक्ति पर था, जिसके बिना वर्षों तक यही देश अवनीति के गर्त में पड़े रहे और जिस शक्ति के प्रार्दुभाव होते ही वे उन्नति के शिखर पर पहुँच गये हम समझते हैं कि समस्त विचारशील लोग हमारे साथ इस विचार में सहमत होंगे कि इस शक्ति का नाम जातीयता, अथवा कहिये, राष्ट्रीयता है यही प्रत्येक देश की उन्नति का मुख्य कारण है और इसी के बिना आज भारत इस अवस्था को पहुँच गया है

 

राष्ट्रीयता किसे कहते हैं? राष्ट्रीयता उस भाव का नाम है जो कि देश के सम्पूर्ण निवासियों के हृदय में देश-हित की लालसा के साथ व्याप्त हो रहा हो, जिसके आगे अन्य भावों की श्रेणी नीची ही रहती हो भारत में यह राष्ट्रीय भाव कैसे पैदा हो? प्रत्येक भाव में भक्ति और प्रेम होते हैं और प्रत्येक प्रेम और भक्ति के आधार भी होते हैं यह प्रकति का नियम है कि मनुष्य जिस वस्तु से प्रेम रखता है उसका दास बन जाता है और उसके आगे समस्त वस्तुओं को तुच्छ मानता है धन से ही प्रेम रखने वाले धर्म और यश की कुछ भी अपेक्षा नहीं करते, और जिनको कि धर्म और यश प्यारा है, उनके आगे मिटटी जैसा ही है एक युवक विद्या का उपजान करने में सम्पूर्ण विषय-भोगों का परित्याग कर देता है, और दूसरा खेल-कूद में ही अपना समय बिताता है एक दयालु आत्मा को तो दूसरों के साथ इतनी सहानुभूति होती है कि उनके दुःख से वह प्रति क्षण दुखी रहता है, और दूसरी ऐसी भी आत्मा है कि जो 'आप मरे, जग प्रलय' की कहावत पर चलती है कुछ ऐसे पुरुष हैं जो गवर्नमेंट की खैरख्वाही के पुच्छल्लों के लिए सच-झूठ बोल न्याय-अन्याय का विचार न कर, कार्य करते हुए दिन-रात खुशामद में ही लगे रहते हैं और दूसरे ऐसे हैं कि जिनकी प्रेम और भक्ति का विषय अपनी मातृभूमि है वे सच्चे सपूत दिन-रात कष्ट और हानियाँ उठाते हुए भी देश का ही हित करने में मग्न हैं जब देश में इसी भाव की बहुत-सी आत्माएँ उत्पन्न हो जाती हैं तब उनका 'समानशीलव्यसनेषु सख्यम' की उक्ति के अनुसार मन मिल जाता है और वे सबके सब मिलकर, चाहे भिन्न-भिन्न मार्गों पर चलें, परन्तु उद्देश्य एक ही रखते हुए अपने सच्चे हार्दिक प्रयत्नों में अपने-आप को नमूना और अगुआ बनाते हुए आपत्तियाँ झेलते हुए अनुचित दबाव से न दबते हुए, देश भर के सम्पूर्ण बाल-वृद्ध, स्त्री-पुरुष, नागरिक और ग्रामीणों के हृदय में सच्ची देश-भक्ति को उत्पन्न कर देते हैं थोड़े ही दिनों में देश ही समस्त देशवासियों के प्रेम और भक्ति का विषय हो जाता है और मतभेद, वर्णभेद और जाति-भेद के होते हुए भी राष्ट्रीयता का श्रेष्ठ भाव देश-व्यापी हो जाता है और इतना बढ़ जाता है कि उसके आगे अन्य भावों का दर्जा नीचा जँचने लगता है जापान राष्ट्रीयता की इस श्रेणी पर पहुँच गया है जापानियों में बौद्ध, इसाई और अन्य मतावलम्बी भी है परन्तु किसी से पुछा जाय कि तुम कौन हो, तो वह अपने को बौद्ध, इसाई अथवा मतावलम्बी नहीं बतलायेगा, किन्तु कहेगा कि मैं जापानी हूँ मेरा धर्म जापान है, मैं जापान हूँ और मेरा सर्वस्व जापान है

 

रूस और जापान के युद्ध में पोर्टआर्थर के मार्ग को रोकने में जब प्राण जाने का भय था, उस समय तोकियो हीरोज ने, जो कि उस समय कमाण्डर थे और जो कि यह जानते थे कि पोर्ट आर्थर जाना अपने प्राण गवाना ही है, कहा था, आहा! क्या ही अच्छा हो यदि ऐसे ही सात जन्म और धारण करूँ, और इसी प्रकार अपने देश के हित के लिए अपने प्राण दूँ ।  मैं मरने को तैयार हूँ मेरा हृदय दृढ़ है मुझे आशा है कि हमारी विजय होगी मैं बड़ी प्रसन्नता से जहाज पर जाता हूँ


कमाण्डर हीरोज के भाई ने जब अपने भाई की मृत्यु का तार घर को भेजा तो उसमें लिखा- 'हमारे पूर्वजों की अपगत आत्माएँ अपने वंश में हीरोज सरीखे वीर पुरुष को पाकर कितनी प्रसन्न होती होंगी उसकी मृत्यु पर हमारे वंश का अभिमान है और इसलिए हमको शोक नहीं करना चाहिए


उस युद्ध के समय राजा और प्रजा, सबके हृदय में यही भाव था देश की जय के आगे उन्हें प्रत्येक वस्तु तुच्छ जान पड़ती थी स्त्री-पुरुष, बाल और वृद्ध, सब अपने प्रियातिप्रिय प्राणों को भी देश के लिए अर्पण को उद्यत थे एक घर में इकलौते पुत्र के मर-जाने पर माता इसलिए रोती थी कि उसके कोई दूसरा पुत्र फिर युद्ध में भेजने को न था रमणियों ने अपने आभूषण उतार कर युद्ध के व्यय के हेतु दे दिये थे सम्राट ने अपने निज के व्यय को बहुत ही कम कर दिया था और धनिकों और सर्वसाधारण में परस्पर यह होड़ थी कि देखें कौन अपनी जायदाद का अधिक भाग देश के लिए समर्पित करता है जिस देश में ऐसी गाढ़ देश-भक्ति हो, क्या वहाँ पर मत-भेद, वर्ण-भेद अथवा अन्य कोई भेद, भेद डाल सकता है? कदापि नहीं गाढ़ देश-भक्ति से एकता उत्पन्न होती है, एकता से राष्ट्रीयता के भाव से देश की उन्नति होती है


भारतवर्ष में लोग सदा से धर्म को सर्वोपरि और सर्वश्रेष्ठ समझते चले आये हैं उसके लिए भारतवासियों ने अपने तन, मन, धन को कुछ नहीं समझा जैसे कि बहुत-से देश अपने साम्पत्तिक अभ्युदय के लिए धर्म-अधर्म का कुछ विचार नहीं करते-चाहे झूठ बोलना पड़े, बेईमानी पड़े, और हिंसा भी क्यों न हो, परन्तु यदि कोई देश अथवा माल हाथ लगे, तो कुछ परवाह नहीं ऐसा विचार भारतवर्ष का कभी नहीं रहा यहाँ के धर्मयुद्ध, धर्म-राज्य और धर्म-कार्य प्रसिद्ध हैं और इसमें सन्देह भी नहीं कि धर्म सर्वोपरि और सर्वश्रेष्ठ है इसको खोकर अन्य वस्तुओं का प्राप्त करना अपने परलोक को नष्ट करना है प्रत्येक कार्य करने में धर्म का पालन करना आवश्यक है, परन्तु धर्म को एक तमाशा बना लेना एक मूर्खता है धर्म की आड़ में अपनी काहिली, निर्बलता और मानसिक अशक्ति को छिपाना नाश का कारण है बहुधा यह कहा जाता है कि भारतवर्ष में लोगों का अपने धर्मों में अधिकतर लगे रहना ही इस देश की अवनति का कारण हुआ है परन्तु यह कहना ठीक नहीं हैं, धर्म में लगे रहना तो किसी भी अवस्था में, अवनति का कारण हो ही नहीं सकता कारण यह है कि भारतवासी, धर्म में लगे रहना तो दूर रहा, अपने धर्म को समझते ही नहीं धर्म को एक खेल मान रखा है क्या धर्मों के भेद से हिन्दुओं, आर्यों, मुसलमानों और ईसाइयों का आपस में झगड़ा करना कोई धर्म कहा जा सकता है? हिन्दू मूर्तिपूजक हैं और आर्यसमाज नहीं, इसलिए उन दोनों में सदैव तनातनी रहे, यह कोई धर्म है? हिन्दू और मुसलमानों के मत अलग-अलग है, तो इस विचार से यदि कोई मुसलमान हिन्दुओं के सदैव विरुद्ध रहे, यहाँ तक कि गवर्नमेण्ट की दृष्टि में उनको बागी साबित करने का झूठा-सच्चा प्रयत्न करे, तो क्या वे अपने धर्म में लगे हुए हैं? कदापि नहीं यदि ऐसा करते हैं तो हिन्दू और आर्य अपने वेदों के, ईसाई अपनी इंजील के, और मुसलमान अपने कुरानशरीफ के विरुद्ध चल रहे हैं धर्म यह है कि प्राणी को प्राणी के साथ सहानुभूति हो, एक-दूसरे को अच्छी अवस्था में देखकर प्रसन्न हों, और गिरी हुई अवस्था में सहायता दें


सच्चा तप यह है कि अपने भाइयों के ताप से तपा जाय, सच्चा यज्ञ यह है जिसमें अपने स्वार्थ की आहुति दी जाय, सच्चा दान वह है जिसमें कि परमार्थ किया जाय और सच्ची ईश्वर सेवा यह है कि उसके दुखी जीवों की सहायता की जाय परमात्मा सबके हृदय में व्यापक है इसलिए जितने प्राणियों को हम प्रसन्न करें, उतने ही गुना ईश्वर को प्रसन्न करेंगे


यह सच्चा धर्म देशभक्ति द्वारा प्राप्त है देश-भक्ति का संचार हमारे हृदय से स्वार्थ को निकाल कर फेंक देगा हम अदूरदर्शी, स्वार्थी और खुशामदियों की तरह से कार्य कदापि न करेंगे जिनसे कि देशवासियों को हानि न पहुँचे, बल्कि दूरदर्शी, परमार्थी, सत्यशील और दृढ़ताप्रिय आत्माओं की भाँति, असंख्यों कष्ट उठाते हुए भी वही करेंगे, जिसमें देश का भला हो निर्धन धनवान, निर्बल बलवान और मुर्ख भी बुद्धिमान हो जाय, प्रत्येक प्रकार के सामाजिक दुःख मिटे और दुर्भिक्ष आदि विपत्तियाँ दूर होकर लाखों बिलबिलाती हुई आत्माओं को सुख पहुँचे देश-भक्ति द्वारा इतने धर्मों का सम्पादन होता हुआ देखकर भी यदि कोई धर्म के आगे देश-भक्ति को कुछ नहीं समझता, उस पुरुष को जान लीजिये कि वह धर्म के तत्व ही को नहीं पहचानता वह "धर्म-धर्म देश-भाइयों का विचार है कि ईश्वर का भजन और उपासना करनी चाहिए जिससे परलोक संभले, और झगड़ों में क्या रक्खा है वास्तव में झगड़ों में कुछ नहीं रक्खा है, परन्तु देश-भक्ति उन झगड़ों में शामिल नहीं यह धर्म का एक साधन है, जैसे कि गृहस्थाश्रम का पालन किये बिना सन्यास ग्रहण करना अधर्म है, उसी प्रकार बिना देश-भक्ति किये हुए मत मतान्तरों में पड़े रहना समझना चाहिए जो लोग गृहस्थाश्रम को लाँघकर सन्यासाश्रम में कूद जाते हैं, यथार्थ में वे अधर्म कमाते हैं स्मृति का वाक्य है कि-


ऋणं देवस्य यज्ञेन, ऋषीणां दान-कर्मणा

सन्तत्या पितृलोकानां, शोधयित्वा परिक्रमेत् ।।


अर्थात, यज्ञ द्वारा देवताओं का ऋण, कर्म द्वारा ऋषियों का ऋण और सन्तति द्वारा पितृ-ऋण चुकाने के अनंतर सन्यासी होना चाहिए ।"


वे माता-पिता, जिन्होनें कि अपने पुत्र के लालन-पालन में अनेक कष्ट उठाये, और जिस पिता ने पसीने की कमाई से उसे बड़ा किया और अपने आने वाले बुढ़ापे के लिए उसे अपने सहारे की लकड़ी समझा, वह यदि उनकी आशाओं को पूरा न करने उनको दीन-अवस्था में छोड़कर सन्यासी हो जाता है, तो क्या वह धर्म कमाने जा रहा है? स्त्री, जो अपने माता-पिता एवं कुटुम्ब को त्याग तुम्हारे ही ऊपर सब भरोसा करके आयी, उसको दुखावस्था में छोड़ कर वन को चले जाना दूसरे की आत्मा को दुःख पहुँचाने का अधर्म अपने सिर पर लेना नहीं है? और जिस सृष्टि रचना के लिये ईश्वर ने मनुष्य को उत्पन्न किया है, उसके लिये पुत्र उत्पन्न न करके अथवा उत्पन्न करने के पश्चात उसको योग्य न बनाकर ही घर-बार त्याग देना ईश्वर की आज्ञा का उल्लंघन करना नहीं है? हमारी सम्पत्ति में प्रत्येक विचारवान पुरुष इसके उत्तर में अवश्य 'है' ही कहेगा बस, देश सेवा किये बिना मतमतान्तरों के झगड़ों में पड़ना भी इसी प्रकार समझ लीजिये । 'धर्म के भेद, वर्ण भेद अथवा जातिभेद तो प्रायः सब देशों में हैं इसका कारण यह है कि वहाँ पर चाहे धर्म और वर्ण आदि के अनुसार भाव की भिन्नता है, परन्तु इन सबके ऊपर उनके प्रेम और भक्ति का विषय एक ओर भी है- जो कि सबके लिए एक ही है और जिसके लिए सबका एक ही भाव रहता है- यह विषय उनकी मातृ-भूमि है इसमें सन्देह नहीं है कि जो देशवासी अपनी मातृभूमि की गुरुता को भली भाँति समझ लेंगे, उनमें धर्म-भेद और वर्ण-भेद रहते हुए भी एकता का अभाव नहीं पाया जायेगा यदि आप विद्वान हैं, बलवान हैं और धनवान हैं तो आपका धर्म यह है कि अपनी विद्या, धन और बल को देश की सेवा में लगाओ उनकी सहायता करो जो कि तुम्हारी सहायता के भूखे हैं उनको योग्य बनाओ जो कि अन्यथा अयोग्य ही बने रहेंगे जो ऐसा नहीं करते, वे अपनी योग्यता का उचित प्रयोग नहीं करते और ईश्वर को सौंपी हुई अमानत में खयानत (विश्वासघात) करते हैं, जो कि एक अधर्म है, और जिसका बुरा फल मिले बिना रह नहीं सकता हैं


(भाद्रपद-शुक्ल ६, सं० १९६४)

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