Speeches & Writings
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प्रायश्चित और संकल्प
सृष्टि के आदि से, जब से हिन्दुस्तान का इतिहास मिलता है, हिन्दुस्तान में इसी देश के निवासियों का राज्य था । उस राज्य में हिन्दुओं ने सब प्रकार की उन्नति की थी । विद्या में, सभ्यता में, कला कौशल में, राजनीति में, जितने विभागों में मनुष्य उन्नति कर सकता है उन सबमें उन्होंने ऐसी श्रेष्ठता पायी थी कि उसके यश की सुगन्धि सहस्त्रों वर्ष का अन्तर पड़ने पर भी अब भी जर्मनी, अमेरिका तथा और-और सभ्य देशों के विद्वानों को मोहित करती है । उस समय में हिन्दुओं को अपने राज्य का पूरा सुख और वैभव प्राप्त था । उस समय उनमें सब प्रकार की शक्ति, सब प्रकार का बल पौरुष, उत्साह और साहस था । उस अवस्था में न केवल हिमालय से कन्याकुमारी तक, अपितु पश्चिम में काबुल-कंधार और उसके परे भी और उसी प्रकार में पूर्व दिशा में हिन्दुस्तान की प्राकृतिक सीमा के परे भी हिन्दुओं का चक्रवर्ती राज्य था । उस समय का इतिहास और उस समय के हमारे पूर्व पुरुषों के वैभव के सूचक शब्द-चित्रों को पढ़कर हम अब भी जातीय अभिमान से अपना सिर ऊपर उठाते हैं । किन्तु जब हम उस दशा के साथ अपनी वर्तमान गिरी हुई पराधीनता की दशा की तुलना करते हैं, तो बिना प्रयास के हमारी झुकी हुई गर्दन अधिक झुक जाती है और हमारे नेत्र लज्जा और दुःख के वेग से मंद और मलिन हो जाते हैं ।
इतिहास इस बात का साक्षी है कि अपनी स्वतन्त्रता को अपने पूर्व पुरुषों में से कुछ के अहंकार और दुराग्रह के दोष से और उससे उत्पन्न फूट और आपस के बैर से खोया है । उन पुरुषों का नाम हम नहीं लेना चाहते, जिन्होनें अपने भाइयों का मद तोड़ने में अपनी सहायता के लिए विदेशी और विधर्मी लोगों के सैन्य-दलों को इस देश में बुलाया । उनके पाप का प्रायश्चित कदाचित अब तक हमारे सहस्त्रों वर्षों के दुःख और पराधीनता से भी पूरा नहीं हुआ । दूसरा पाप उन लोगों का था जिन्होनें स्वार्थ या आलस्य के वश अपने देश के एक प्रधान या नृप को विदेशी शत्रुओं से पीड़ित होते देखकर अपनी स्वतन्त्रता और देश की स्वतन्त्रता रखने में सहायता नहीं की । उस समय के नराधिपों में आपस में जो फूट थी, उनमें जो बैर और कलह था, उसी के कारण वे एक-दूसरे के सहायक नहीं हुए । और एक-एक करते अपनी स्वतन्त्रता को खोते और विदेशियों के पैरों के नीचे गिरते चले गये । संक्षेप में यही मुसलमानों के इस देश में आने का लज्जाजनक इतिहास है । मुसलमान आक्रमण करने वालों ने इस देश में जो पैर जमाया, यह उस समय के हिन्दू राजा-रईसों के आपस में फूट के कारण, या उस समय के हिन्दुओं में जातीयता का वह उन्नत भाव नहीं रह गया था जो जाति के प्रत्येक मनुष्य को अपने देश की रक्षा के लिए व्याकुल और शक्ति-सम्पन्न करता है । धर्म का भाव अवश्य था और उसके अनुसार एक-एक प्रान्त के राजा और उनके वीर बन्धु जहाँ तक विदेशियों से लड़ सके, लड़े । किन्तु जातीयता का भाव दुर्बल होने के कारण वे सब मिलकर ऐसा प्रयत्न न कर सके, जिससे वे अपनी और देश स्वतन्त्रता को बचा सकते । कई सौ वर्ष तक मुसलमानों का राज्य जो इस देश में स्थिर रहा और बढ़ता गया, उसका कारण भी यही हिन्दुओं की आपस की फूट और जातीयता के भाव का दुर्बल होना था । औरंगजेब ने जब बहुत अत्याचार करना प्रारम्भ किया, तब हिन्दुओं में एक शक्ति शिवाजी की उत्पन्न हुई और यह सबको विदित है कि उन्होंने किस प्रकार मुसलमानी बादशाहत को थोड़े ही दिनों में तोड़कर ऐसा दुर्बल कर दिया और अपनी जातीय शक्ति को ऐसी प्रबल किया कि आगरा और अलीगढ़ तक महाराष्ट्रों के राज्य की ध्वजा फहराने लगे । इसी प्रकार दूसरी ओर पंजाब केशरी रणजीत सिंह उत्पन्न हुए, और उन्होंने न केवल पंजाब में हिन्दुओं का राज्य फिर से स्थापित किया, अपितु उनके सेनानी हरीसिंह ने काबुल में भी अपना ऐसा प्रताप जमाया कि वहाँ माताएँ अपने बच्चों को 'हरिया आया' यह कहकर सुलाने लगीं । यह कथा अभी कल ही की मालूम होती है । जो थोड़ा समय तब से बीता है, उसके प्रारम्भ के समय पर ध्यान ले जाने से हमको यह दीख पड़ता है कि जिस प्रकार बाल-सूर्य छिन-छिन आकाश-मंडल में ऊपर से ऊपर चढ़ता चला जाता है, उसी प्रकार से इन दो हिन्दू राज्यों की शक्ति और प्रभाव दिन-दिन बढ़ता चला जाता था । किन्तु हाँ! थोड़े ही दिनों में कुछ थोड़े से व्यक्तियों के स्वार्थ, अहंकार या अयोग्यता ने, आपस की कलह और विद्वेष से, इन दलों की शक्ति दिन-दिन हीन होने लगी और थोड़े ही समय में ये बलहीन और प्रभावहीन होकर नष्ट-भ्रष्ट हो गए । अब केवल इतिहास ही से हमको पता लगता है कि थोड़े ही समय पहले ये हिन्दुस्तान के बड़े-बड़े विभागों में हिन्दू जाति का मुख उज्जवल करते और हिन्दू धर्म और हिन्दू सभ्यता की रक्षा करते थे । आज बड़ी और प्राचीन हिन्दू जाति का जिसने सहस्त्रों वर्ष तक इस पवित्र और रत्न-सम्पन्न देश पर और इसके बाहर भी दूर-दूर तक चक्रवर्ती राज्य किया था- छोटे से नेपाल राज्य को छोड़ पृथ्वी-मंडल के किसी विभाग में स्वतन्त्र साम्राज्य नहीं है ।
मुसलमानों ने भी सभ्यता और शक्ति का प्राचीन समय बहुत कुछ अनुभव किया था । यूरोप में स्पेन आदि देशों तक में चिरकाल तक उन्होंने राज्य किया था और वहाँ सभ्यता फैलायी थी । हिन्दुस्तान में जिस अनुभव को वे पहुंचे थे, उसकी क्या अभी पुरानी नहीं हुई । किन्तु आज वे और उनके भाई हिन्दू दोनों समान रीति से एक तीसरी जाति अंग्रेजों के आधीन हैं । यह सत्य है कि हिन्दुस्तान ने बाहर अरब में, टर्की में, अफगानिस्तान में तथा और कुछ स्थानों में अब तक स्वतन्त्र मुसलमानी सल्तनतें वर्तमान हैं, किन्तु हिन्दुस्तान के निवासी मुसलमान हिन्दुओं के समान अंग्रेजों के आधीन ही रहे हैं । इनमें और हिन्दुओं में इस विषय में कुछ अन्तर नहीं । हिन्दुस्तान में जो मुसलमानों का राज्य मिट गया, वह भी उसके पूर्वजों के दोष और पाप से ही मिटा है ।
अंगरेजी राज्य का इस देश में स्थापित होना और उस विस्तार को पाना, जिसको अब वे पहुँचा हुआ है, इतिहास के आश्चर्यों में से एक समझा जाता है । मुट्ठी भर अंग्रेजों की एक कम्पनी तिजारत करने को इस देश में आयी थी । आज उन अंग्रेजों का शासन इस देश के समस्त विभागों में व्यापत है, और सब देशी रियासतें सुलह की शर्तों में बंधी उस राज्य के आधीन हो रही हैं । अंग्रेजों के इस आश्चर्यमय वैभव का कारण क्या है- वह उनकी देशभक्ति, देशाभिमान और उनकी जातीय एकता है । इस देशभक्ति और देशाभिमान का अभाव हमारे हिन्दू और मुसलमानों के अधःपात और पराधीनता के कारण हुआ है । जो आग्रह हम हिन्दुओं को और मुसलमानों को भी किसी भी समय अपने-अपने धर्मों के विषय में था जिसके वश में हम उसकी रक्षा में अपना प्राण देते थे, वही आग्रह अंग्रेजों को अपनी जाति (नेशन) और अपने देश के विषय में है । यही, और कदाचित इससे भी बढ़कर भाव, जापानियों में देखा गया है । सच्चा देशभक्त, चाहे वह किसी जाति का हो- सबसे अधिक यश और अभिमान की बात यह समझता है कि वह अपने देश की इस प्रकार सेवा करे कि उसका देशभक्तों में नाम गिना जाय, वह अपने लिए यह सबसे अधिक कलंक और पाप की बात समझता है कि उससे कोई ऐसा काम बन पड़े जिससे उसके देश की हानि या देश-भाइयों की निन्दा हो । अपने लाभ अपने यश और अपने गौरव से अपने देश के लाभ, यश और गौरव को वह बहुत बड़ा समझता है । मेरी हानि हो या लाभ, मेरा मान हो या अपमान, मैं मर-मिटूँ या जीऊं । मेरे देश का, मेरी जाति का हित हो, उसका कल्याण हो, उसका अभ्युदय हो- यही उसके हृदय की उत्तम से उत्तम प्रार्थना रहती है । यह अपने को अपने देश का सेवक-मात्र समझता है, देश के विषय में उसका वही पवित्र और पूजनीय भाव है जो एक सद्भक्त का जगत्प्रभु की ओर होता है । बिना बनावट और बिना अत्युक्ति के देश के विषय में वह कह सकता है कि:
त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव बन्धुच सखा त्वमेव । त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव, त्वमेव सर्वं मम देव देव ।।
वह जानता है कि उसके समस्त धर्म-कर्म, भक्ति भाव सब देश के स्वतन्त्र और सुखी होने पर निर्भर हैं । तभी वह देश के लिए प्राण अर्पण करने को तैयार रहता है । वह सब प्रकार से अपने देश का वैभव बढ़ाता और जगत में उसका यश फैलाता है ।
अंगरेजों के इस देश में आने से हमको जहाँ अनेक विषयों में हानि हुई है, वहाँ कई बातों में लाभ, निःसंदेह हुए हैं । उन्होंने भी सर्वसाधारण शिक्षा का क्रम इस देश में जारी किया है, उससे हमको बहुत बड़ा लाभ यह हुआ है कि हमको इस जातीय भाव का विशेष ज्ञान और परिचय हो गया है । उन्होंने जो देश के एक सिरे से दूसरे सिरे तक स्कूलों और कालेजों में एक भाषा का प्रचार किया है और सर्वत्र एक प्रकार का शासन जारी किया है- रेल, तार आदि जारी कर एक प्रान्त के लोगों को दूसरे प्रान्त के लोगों से परिचय का अवसर बढ़ा दिया है- एक ही प्रबन्ध, एक ही शासन की श्रृंखला में भिन्न-भिन्न प्रान्त के लोगों को बाँध दिया है । इससे हमारे देश में, हमारे पढ़े-लिखे विचारवान भाइयों में जातीयता का भाव कहीं उपजा और कहीं प्रबल हुआ है । इसी ने हमको यह महान उपदेश दिया है कि प्रत्येक देश के अभ्युदय के लिए यह आवश्यक है कि सब देशवासियों में देश-भक्ति उत्पन्न हो, वे एक दूसरे को अपना बन्धु समझें और आपस में बैर, कलह, द्वेष अभिमान को छोड़कर परस्पर प्रीती और एकता के साथ, देश-हित के लिए प्रयत्न करें । हमारी जातीय महासभा-इण्डियन नेशनल कांग्रेस, इस पवित्र भाव का पहला वृक्ष उगा, जिसकी छाया में सब लोग हिन्दू, मुसलमान और ईसाई, मत और जातिभेद को छोड़, केवल देश-भक्ति के नाते से एकत्रित होने लगे । और बाईस वर्ष तक बैरियों के बोलने और प्रहारों को सह कर भी दिन-दिन वह पुष्ट और प्रबल होता गया था । इसमें अनेक कलियाँ भी लगी थीं । और कुछ उनमें से खिल भी गयीं थीं । और आशा थी कि अब इसमें अच्छे-अच्छे फल लगकर देश को सुख और संपत्ति पहुँचाने के कारण होंगे । ऐसी दशा में हमारे देश के पुराने शत्रु, व्यक्तिगत अहंकार और दुराग्रह से; हमारे ही देश-भाइयों के हाथ से इस पर वज्र-कुठार गिरा, यह हमारे देश का परम दुर्भाग्य है । सभ्य संसार में हम पर हंसी और हमारे प्रिय देश की निन्दा हो रही है, यह देखकर और सोचकर सब देश-भक्तों का चित्त दुःख से ग्रस्त हो रहा है । हमारे जिन भाइयों के हाथ से जातीय वृक्ष पर कुठार लगा, वे भी अब इस दुर्घटना पर खेद कर रहे हैं और कह रहे हैं कि अब काम बनाने का मार्ग सोचना चाहिए । इस बात को देखकर हमको कुछ सन्तोष होता है । किन्तु उसी के साथ हमको यह देखकर दुःख होता है कि वे अब तक दुराग्रह के वश में पड़े हुए हैं और अपने दोषों को औरों के सिर मढ़ने का अब भी यत्न करते जाते हैं । जब कोई पाप या अनर्थ का काम किसी से बन पड़े और वह उसके नाशकारी फल को नाश करना या काम को सुधारना चाहे, तो उसके लिए पहला कर्तव्य यह है कि वह व्यक्तिगत अभिमान और आग्रह को छोड़कर अपने गौरव को देश के गौरव में लीन कर, आर्यों की रीति के अनुसार अपनी भूल को स्वीकार करे । यदि उसके हृदय में इतनी उदारता नहीं है कि वह ऐसा कर सके, तो उसको इतना तो अवश्य चाहिए कि अपने को निर्दोष और दूसरों को जो वस्तुतः निर्दोष हैं अथवा उतने दोषी नहीं है जितना वह हैं, दोषी साबित करने के अनुचित प्रयत्न से हाथ खींचे । यदि देश-भक्ति सच्ची है और देश का कल्याण अभीष्ट हैं, यदि यह ईष्ट है कि सूरत कि शोचनीय घटना से बढ़ती हुई जातीय एकता पर जो कुठार चला है उसका बुरा फल दूर हो अथवा घटे, तो पहली आवश्यकता यह है कि उन लोगों को, जिनसे अपना मत नहीं मिलता, गाली देना बन्द किया जाय । मि० तिलक और मि० गोखले के पत्रों से यह बात स्पष्ट हो चुकी है कि सूरत की सभा के विध्वंस का दोष किस पर है । हठ के बार-बार अपना ही पक्ष प्रबल करने के यत्न से न उस दोष का ही प्रक्षालन होगा, न आगे के लिए निरोध कम होने की सम्भावना होगी । बिगड़े काम को फिर बनाने के मार्ग में पहला कार्य यह है कि जो दोष बन पड़ा है, उसके विषय में पश्चाताप किया जाय और भविष्य के लिए यह संकल्प किया जाय कि आगे फिर कभी भूल से भी अपने व्यक्ति या अपने पक्ष को उस देश से अधिक गौरवयुक्त न समझेंगे जिसकी सेवा करना ही अपना प्रकाशित उद्देश्य है । और अपने हठ को रखने के लिए अथवा उन लोगों को नीचा दिखाने का अभिप्राय से, जिनका पक्ष अपने से नहीं मिलता, ऐसा कार्य न करेंगे जिससे उस जातीय एकता और जातीय शक्ति की वृद्धि में बाधा पड़े, जिसके ऊपर जाति और देश के उद्धार की सब आशा निर्भर है ।
(माघ-शुक्ल ६, सं० १९६४) |