Mahamana Madan Mohan Malaviya

Mahamana Madan Mohan Malaviya
Speeches & Writings

गोरक्षा के साधन

 

दूध-उत्पादन में वृद्धि की आवश्यकता

 

               भारत-सरकार द्वारा दूध के व्यवसाय पर हाल की प्रकाशित रिपोर्ट में हम यह पढ़ते हैं- मनुष्य के भोजन में दूध का व्यवहार तभी से चला आता है,  जब से मानव इस जगत् में आया है। जितने ऐसे खाद्य पदार्थ हैं, जो अकेले आहार के काम में आ सकते हैं, दूध सबसे अधिक पूर्ण है। इसलिये वह सदा बड़ा आदरणीय समझा जाता रहा है। इसके अन्दर जीवन को स्थिर रखने तथा बढ़ाने के लिये आवश्यक सभी तत्व सुपाच्य रूप में विद्यमान हैं, आज तक किसी ऐसे दूसरे स्वतन्त्र आहार का पता नहीं चला, जिसका प्रयोग दूध के स्थान पर किया जा सके।’


उसी रिपोर्ट के अन्तर्गत ‘दूध के उत्पादन को बढ़ाने की सम्भावनाएँ’ शीर्षक में लिखा है- 'उचित भोजन और व्यवस्था के द्वारा भारतीय पशुओं के दूध का उत्पादन जल्दी ही पचास प्रतिशत के लगभग बढ़ाया जा सकता है। इस कथन की पुष्टि इस बात से होती है कि देहाती गायें जब सरकारी फार्मों में लायी जाती हैं तो आगे के ब्यानों में पहले की अपेक्षा साठ प्रतिशत अधिक दूध देती हैं। इन गायों की पहली सन्तानों के दूध में उनकी माताओं की अपेक्षा भी दस-से-पंद्रह प्रतिशत तक और अधिक वृद्धि देखी जाती है। गाँवों में गौएँ अधिक समय तक दूध नहीं देतीं,  छुटी रहती हैं;  फार्मों में पहुँच जाने पर उनके छूटे रहने का समय भी बहुत घट जाता है,  जिसके परिणामस्वरूप उसी अनुपात में दूध के उत्पादन की लागत भी कम हो जाती है। इन आशाजनक लक्षणों से तथा इस बात से कि गौओं के बहुत से टोलों के दूध का उत्पादन बीस वर्ष से कम में वस्तुत: तिगुना हो गया है,  यह बात सूचित होती है कि भारतीय गौओं को यदि अच्छा भोजन दिया जाय,  चुने हुए साँड़ों से उन्हें गाभिन कराया जाय तथा उन्हें रखने का उचित प्रबन्ध हो तो उनका दूध बहुत अधिक बढ़ जाता है।’


       

 प्रति व्यक्ति दूध की खपत

 

       किसी समय इस देश में दूध बहुत अधिक मात्रा में मिलता था। किन्तु अब यह सोचकर बड़ा खेद होता है कि मनुष्य के आहार के ऐसे आवश्यक पदार्थ की खपत प्रति व्यक्ति इस देश में शायद अन्य सभी सभ्य देशों की अपेक्षा कम है। भारत के पशु-व्यवसाय की वृद्धि तथा भारत में दूध के व्यवसाय के सम्बन्ध में प्रकाशित हुई रिपोर्टें में अनेक परामर्श दिये गये हैं,  जो विचार करने योग्य हैं तथा जिन्हें ऐसे परिवर्तनों के साथ जो स्थानीय परिस्थिति के अनुसार आवश्यक हो  व्यवहार में लाना चाहिये।


‘भारत के दूध-व्यवसाय'  पर जो रिपोर्ट छपी है,  उसमे लिखा है- "व्यवसाय की दृष्टि से दूध तथा दूध से बने हुए पदार्थों को माँग केवल शहरों मे  ही अधिक हैं।


यद्यपि दूध देने वाले पशुओं में पंचानबे प्रतिशत से अधिक गाँवों में ही पाये जाते हैं तथा भारत की नब्बे प्रतिशत से अधिक जनता गाँवों में रहती है,  तो भी गाँवों मे दूध के ग्राहक अधिक नहीं हैं। इसके कई करणों में  एक तो यह है कि दूध खाने वालों में से बहुतो  के घर में ही दूध होता है;  दूसरे नगरवासियो की अपेक्षा गाँवों के किसानो  में  दूध खरीदने की सामर्थ्य कम होती हैं  उनमे  से अधिकांश दूध या दूध से बने हुए पदार्थ खरीद कर नहीं खा सकते। वहाँ बहुत से लोगों को तो,  जिनमें बच्चे भी सम्मिलित हैं,  कभी दूध मिलता ही नहीं। यहाँ तक कि ऐसे इलाको  मे  भी,  जहाँ दूध का व्यवसाय होता है और जहाँ बहुत अधिक मात्रा में दूध होता है,  सोलह प्रतिशत परिवार दूध या दूध से बने पदार्थों का बिल्कुल उपयोग नही  करते। ऐसी दशा में जहाँ दूध बहुत कम होता है,  ऐसे भारतीय देहातों में तो दूध या दूध से बने पदार्थों को खरीद कर खाने की सामर्थ्य और भी कम होनी चाहिये।


भारत में पशुओ  तथा दूध के व्यवसाय की बृद्धि के सम्बन्ध में जो रिपोर्ट छपी है,  उसमें लिखा है- 'यदि भारतीय जनता यह चाहती है कि उसे भोजन में दूध पर्याप्त मात्रा में मिले तो सबसे पहले यह आवश्यक है कि देश में दूध का उत्पादन बहुत अधिक मात्रा में बढ़ाया जाय। यह अनुमान किया गया है कि न्यूनतम आवश्यकता की पूर्ति के लिये भी दूध का उत्पादन कम-से-कम दुगुना करना पड़ेगा। किन्तु उत्पादन की इस वृद्धि से तब तक उद्देश्य-सिद्धि न होगी जब तक कि दूध का भाव न घटा दिया जाय, अथवा जनता की औसत आय में  बृद्धि न हो। दूसरा उद्देश्य,  जिसे सदा ध्यान में रखना हो,  यह है कि दूध का भाव इतना मंदा रहे कि उसे अधिकांश जनता खरीद सके।


                     

खपत में वृद्धि की गुंजायश

 

        पर्याप्त गोचर भूमि की व्यवस्था,  अच्छी नस्ल पैदा करने के लिये साँड़ों की संख्या में पर्याप्त बृद्धि तथा दूध की बिक्री का प्रबन्ध- इन तीनों बातों की इस समय सबसे अधिक आवश्यकता है और उत्सुकतापूर्वक यह आशा की जाती है कि यथासम्भव शीघ्र  ही इन आवश्यकताओं की पुर्ति के लिये यथेष्ट प्रयत्न किये जायेंगे।


          

गोचर-भूमि

 

      जैसा कि बार-बार बताया जा चुका है,  पशुओं के ह्यस का एक मुख्य कारण पर्याप्त गोचर-भूमि का न होना है। एक तो गोचर-भूमि यों ही पर्याप्त नहीं;  उस पर भी अधिक शोचनीय बात यह है कि प्रतिदिन जमींदार एवं किसानों के लोभ के कारण इनका क्षेत्रफल लगातार कम होता जा रहा है। कई वर्ष पूर्व लेफ्टिनेंट कर्नल रेमंड ने कहा था कि ‘बंगाल के सभी जिलाधीशों की रिपोर्ट बतलाती हैं कि बंगाल प्रान्त के प्राय: सभी जिलों में गोचर-भूमियों की संख्या कम कर दी गयी है,  जिसके परिणाम-स्वरूप पशुओं की संख्या घट गयी है’। श्रीयुत ब्लैंकवुड ने भी कहा था कि ‘निस्सन्देह बंगाल में पशुओं की बृद्धि में सबसे मुख्य बाधा गोचर भूमियों की कमी है।’


ऐसा कहा जाता है कि यूरोप के किसी भी देश की अपेक्षा भारत में भूमि का मूल्य सस्ता है। ऐसी दशा में आशा तो यह होनी चाहिये थी कि यहाँ पशुओं के चरने के लिये और देशों की अपेक्षा भूमि का अधिक भाग सुरक्षित रक्खा जाता,  किन्तु बात ऐसी नहीं है। कुछ वर्ष पूर्व गोचर-भूमि तथा जोती हुई भूमि का अनुपात संयुक्त राज्य अमेरिका में १:१६, जर्मनी में १:६,  इंग्लैण्ड में १:३ तथा जापान में १:६ था, किन्तु भारत में केवल १:२७ था। भारत में गोचर-भूमि का क्षेत्रफल बढ़ाने की आवश्यकता पर जितना अधिक जोर दिया जाय,  उतना थोड़ा है।


सन् १९९३ में कृषि बोर्ड के सम्मुख गोचर-भूमि की न्यूनता का प्रश्न विचार के लिये उपस्थित हुआ था। उक्त बोर्ड ने माननीय श्रीयुत् एच.आर.सी. हेली की अध्यक्षता में विशेषज्ञों की एक समिति नियुक्ति की। उस समिति ने निम्नाकित परामर्श दिये-


१ . गोचर-भूमि को छोड़ने की व्यवस्था कानून द्वारा होनी चाहिये। पशु-चारण के अधिकार पर सभी प्रकार के नियन्त्रण अवांछनीय समझे जाने चाहिये। स्थानीय अधिकारियों तथा म्यूनिसिपल एवं जिला बोर्डों को चाहिये कि वे गोचर-भूमियों की सीमा बाँध दें तथा उन पर किसी का अधिकार न होने दें।


२ . अनुपयोगी भूमि को खेती के योग्य बनाना। यह कार्य कृषि-विभाग के निकट सहयोग से जंगल-विभाग द्वारा व्यवस्थित रूप में होना चाहिये और इस प्रकार खेती के योग्य बनायी हुई भूमि को गोचर-भूमि के रूप में खुली छोड़ देना चाहिये।


३ . वर्तमान गोचर-भूमियों पर किसी का अधिकर न हो,  इसके लिये कानून बनने चाहिये और ऐसे कानूनों द्वारा म्यूनिसिपल एवं जिला-बोर्डों को अधिकार दिये जाने चाहिये कि वे अपनी आय का एक भाग गोचर-भूमियों को अधिकृत करने में  व्यय करें।



४. सरकार तथा स्थानीय बोर्डों के खर्च से गोचर-भूमियों को अधिकृत करना चाहिये।



       कृषि के सम्बन्ध में सम्राट् की ओर से एक कमीशन (जाँच-समिति) बैठा था,  जिसने इस विषय पर विचार करके सन् १९२८ में अपनी रिपोर्ट दी थी। कमीशन ने लिखा था- ‘पशुओं की रक्षा के सम्बन्ध में सबसे आवश्यक बात है- उनके भोजन की व्यवस्था। भारत में,  जहाँ पशुओं को बाँधकर खिलाने की प्रथा नहीं-सी है,  चराने की सुविधाओं पर ही मुख्य रूप से विचार करना चाहिये। ऐसा कहा जा सकता है कि भारत के प्राय: प्रत्येक भाग में गाँव के समीप की सार्वजनिक गोचर-भूमि तथा घास के मैदानों में सामान्यत: आवश्यकता से अधिक पशु चराये जाते हैं’।



कमीशन ने आगे चलकर लिखा है- ‘पशुओं की उन्नति के लिये मुख्यतया दो बातो  पर ध्यान देना आवश्यक है- खुराक और नस्ल। इनमें भी हम खुराक को प्रथम स्थान देते हैं;  क्योंकि जब तक पशुओं को अच्छी तरह खिलाया-पिलाया नहीं जायगा, तब तक सन्तानोत्पादन के तरीके में कोई विशेष सुधार नहीं हो सकता। यह कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है कि कमीशन के सामने बयान देने वालों में से बहुतों ने गोचर-भूमियों को बढ़ाने की सम्मति दी है। किन्तु इस सम्बन्ध में जो कुछ हो सकता है, उसकी पूरी छान-बीन करने के पश्चात् हम लोगों ने यह मत स्थिर किया है कि वर्तमान गोचर-भूमियों में  अधिक वृद्धि की गुंजायश नहीं है। अत: हम लोगों को चाहिये कि जितनी भूमि में  इस समय घास पैदा होती है, उसी की उत्पादन शक्ति को बढ़ाने में अपना सारा प्रयत्न लगा दें। ऐसे प्रयत्नों के लिये बहुत बड़ा क्षेत्र उपस्थित है’।



मुक्तेसर में स्थित पशु-चिकित्सा-सम्बन्धी राजकीय अनुसंधानशाला के डाइरेक्टर श्रीयुत् एफ. बेयर ने भारत की पशुचारण-समस्या पर एक वक्तव्य तैयार किया था, जिसे उन्होंने ‘बोर्ड ऑफ एग्रिकल्चर एण्ड ऐनिमल हसबंड्री'  की  'पशु-प्रबन्ध-शाखा’ की द्वितीय वार्षिक बैठक में उपस्थित किया था। उसमें उन्होंने लिखा है- 'कृषि के सम्बन्ध में बैठाये गये शाही कमीशन की सन् १९२८ की रिपोर्ट निकलने के बाद उस रिपोर्ट में विचारित कई बातों में अच्छी उन्नति हुई है;  किन्तु गो-चारण ही एक ऐसा विषय है,  जिसके सम्बन्ध में यह बात लागू नहीं होती। सन् १९२९ में पुराने कृषि बोर्ड की अन्तिम बैठक में इस विषय पर संक्षेप में विचार हुआ था। उसमे  दो सामान्य प्रस्ताव ऐसे पास हुए थे,  जिनमे  वर्तमान गोचर-भूमियों की रक्षा एवं उनके समुचित उपयोग पर जोर दिया गया था। किन्तु अब तक बहुत ही कम स्थानों में गोचर-भूमियो  के सुधार के लिये कोई स्थायी प्रयत्न किया गया है’। (पशुओं के व्यवसाय तथा दुग्ध-व्यवसाय की उन्नति पर सन् १९३७ की रिपोर्ट)-


‘पशु-चारण के लिये जंगली इलाकों के समुचित उपयोग के सम्बन्ध में जोप्राथमिक परामर्श-सभा'  (Preliminary Conference) हुई थी,  उसमे  इस विषय पर विचार किया गया था। इस सभा की रिपोर्ट सन् १९३६ में 'बोर्ड ऑफ ऐग्रिकल्चर एण्ड ऐनिमल हसबंड्री'  के सम्मुख उपस्थित हुई थी। उस पर बोर्ड ने अपनी निम्नलिखित सम्मति प्रकट की- ‘अनुपयोगी भू-भागो  की उन्नति की सम्भावनाओं पर विश्वास करते हुए हमारा यह निश्चित मत है कि रॉयल कमीशन की कल्पना के अनुसार इन अनुपयोगी भूभागों का पुनर्वर्गीकरण किसी प्रान्तीय सरकार के किसी एक विभाग पर नही  छोड़ा जा सकता। हम सिफारिश करते हैं कि प्रत्येक प्रान्त में एक स्थायी चारा तथा पशु-चारण-समिति का निर्माण हो और उसके सदस्य वे अफसर हों,  जो जंगल तथा माल (रेवेन्यू) के महकमों द्वारा इस काम के लिये नियुक्त किये जायँ तथा पशु-प्रबन्ध-विभाग का अफसर हो। प्रत्येक प्रान्त की यह स्थायी समिति  इम्पीरियर कौंसिल ऑफ एग्रिकल्चरल् रिसर्च’  की एक नवीन पशु-चारण-उपसमिति  की प्रान्तीय समिति के रूप में काम करेगी। और तब यह उपसमिति सारे भारतवर्ष के लिये सुव्यवस्थित रूप में काम कर सकेगी। यद्यपि यह समस्या भारत भर की समस्या है तथापि इसे हल करने का तरीका प्रत्येक प्रान्त के लिये अलग-अलग होगा। प्रान्तीय ‘चारा तथा पशु-चारण-समिति’ का कर्त्तव्य है कि वह सरकारी जंगलों के बाहर अनुपयोगी भू-भागों के पुनर्वर्गीकरण की जाँच करे तथा ऐसे भू-भागों को चुने,  जिनमें चारा उग सकता हो अथवा जिनको गोचर-भूमि के रूप में व्यवस्था की जा सके। समिति को ऐसे भू-भागों के अधिकार तथा प्रबन्ध के विषय में प्रस्ताव भी उपस्थित करने चाहिये।


डॉक्टर एन.सी. राइट ने भारत में पशुओं के व्यवसाय तथा दूग्ध-व्यवसाय की उन्नति पर सन् १९३७ में जो रिपोर्ट उपस्थित की थी,  उसमें उन्होंने चारा तथा पशु-चारण-समितियों’ के निर्माण के प्रस्ताव का बड़ा जोरदार समर्थन किया है। यह अत्यधिक वांछनीय है कि ऐसी समितियाँ प्रत्येक जिले में बनें,  जिसमें कुछ गैर सरकारी स्थानीय कृषिकार, जमींदार तथा आसामी अपने-अपने इल्कों में काम करे के लिये सम्मिलित कर लिये जाया करें। सबसे पहले आवश्यकता इस बात की है कि भिन्न-भिन्न प्रान्तों तथा राज्यों के सरकारी अफसरों और कृषि से सम्बन्ध ऱखने वाली साधारण जनता के मस्तिष्क में यह विश्वास बैठा दिया जाय कि कृषि प्रघान भारत की आर्थिक समस्या का हल मिश्रित खेती'  की प्रणाली के ग्रहण करने पर निर्भर करता है। इस प्रणाली के अनुसार किसान अपनी साधारण खेती चालू रखते हुए साथ-साथ गाय-बैल भी पालेंगे तथा इस प्रणाली की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि देश भर में गोचर-भूमियों की पर्याप्त वृद्धि हो और पर्याप्त मात्रा में चारे की खेती हो। आशा की जाती है कि भिन्न-भिन्न प्रान्तों तथा राज्यों की सरकारें शीघ्र इस प्रश्न को हाथ में लेकर इन लाभदायक परामर्शों को कार्यरूप मेँ परिणत करेगी।


 

 नस्ल

 

 

    अब हमें नस्ल के प्रश्न पर विचार करना चाहिये। यह एक सामान्य कहावत है कि भोजन से अधिक प्रभाव नस्ल का पड़ता है। अच्छी नस्ल का मूल्य आँका नहीं जा सकता। श्री नीलानन्द चटर्जी कहते हैं कि अच्छी जाति के साँडों से नस्ल पैदा कराने में दो लाभ हैं। पहला लाभ तो यह है कि हमें बछड़े उत्तम श्रेणी के मिलते हैं। दूसरा लाभ,  जो सबसे अधिक महत्त्व का है और जिसका फल तुरंत मिलता है,  यह है कि गाय का दूध बढ़ जाता है। स्थायी लाभ इसमें है कि नस्ल की उन्नति के लिये उसी जाति के उत्तम साँड द्वारा गाय को बरधाया जाय। नस्ल का वास्तविक सुधार उत्तम-से-उत्तम देशी पशुओं द्वारा स्थानीय नस्लों की उन्नति करने में है,  न कि एक जाति की गौ को दूसरी जाति के साँड़ से बरधारे में अथवा विदेशी रक्त का मिश्रण कराने में। इंग्लैण्ड तथा आस्ट्रेलिया के साँडों से नस्ल उत्पन्न कराने के प्रयत्न अधिकांश असफल ही रहे हैं।


 सरकारी फार्मों से उत्तम जाति वाले साँडों के वितरण के सम्बन्ध में शाही कमीशन ने इस बात की ओर ध्यान आकर्षिक किया है कि देश के पशुओं की आवश्यकता को देखते हुए सन् १९२६ तक इस दिशा में बहुत ही कम प्रगति हुई है। कमीशन ने गणना करके बताया कि प्रतिवर्ष दो लाख सांडों को वितीर्ण करने की आवश्यकता थी;  किन्तु बड़े-बड़े प्रान्तों में वास्तव में ५०० से कुछ ही अधिक साँड प्रतिवर्ष बाँटे गये। यद्यपि प्रतिवर्ष सरकारी फार्मों से बाँटे जाने वाले साँडों की संख्या लगभग दुगुनी कर दी गयी है,  फिर भी भारत को जितने साँडों को आवश्यकता है,  कुल मिला कर उनका एक क्षुद्र अंश ही अब तक बाँटा गया है। ( ‘पशुओं के व्यवसाय तथा दुग्ध-व्यवसाय की उन्नति  पर सन् १९३७ की रिपोर्ट)-


          

सूरज-साँड

 

भारत में गायों को बरधाने की कोई व्यवस्थित प्रणाली न होने के कारण उसके अभाव की पूर्ति अति प्राचीनकाल से सूरज-साँडों से की जाती रही है। हिन्दू लोग इन साँडों को अपने सम्बन्धी की मृत्यु के ग्यारहवें दिन छोड़ा करते हैं। इस प्रकार छोड़े हुए साँडों का कार्य केवल गो-वंश की बृद्धि करना है। धर्मशास्त्रों मे  यह विधान किया गया है कि ऐसे साँडों को जिस काम के लिये छोड़ा जाता है,  उसके अतिरिक्त न तो उनसे हल चलाने का काम लिया जा सकता है,  न गाड़ी जोतने का,  और न कोई अन्य काम ही लिया जा सकता है। उन्हे  खूब अच्छी तरह खिला-पिलाकर स्वतंत्र घूमने के लिये छोड़ देना चाहिये,  जिससे उन्हें पर्याप्त व्यायाम मिले और वे स्वस्थ तथा बलवान बने रहें। यह प्रथा अब तक कई स्थानों में प्रचलित है। किन्तु बंगाल के कृषि-विभाग के डाइरेक्टर श्री टी.आर. ब्लैकवुड आई.सी.एस. ने यह लिखा है कि प्रान्त भर में ऐसा एक भी जिला नहीं है,  जिसमें गो-वंश की वृद्धि के लिये अच्छे साँड पर्याप्त संख्या में हों। उनका यह विचार ठीक ही है कि पवित्र समझे जाने वाले सूरज-साँडों द्वारा नस्ल पैदा करने की हिन्दुओं की पुरानी प्रथा स्वयं पशुओं के दृष्टिकोण से बहुत अच्छी थी; क्योंकि इसका परिणाम यह होता था कि चुने हुए बछड़े ही इस प्रकार छोड़े जाते थे और उन्हें खुला छोड़ देने का परिणाम भी यह होता था कि लोग उन्हे  अच्छी तरह खिलाते-पिलाते थे तथा उन्हे  पर्याप्त व्यायाम भी मिल जाता था।


 श्री नीलानन्द चटर्जी का कहना है- पशुओं के नस्ल-सुधार के विषय परइम्पीरियल बोर्ड ऑफ एग्रिकल्चर  द्वारा कई बार,  विशेष कर सन् १९१३ तथा १९१७ में विचार हो चुका है तथा भारत के विभिन्न प्रान्तों के पशु-चिकित्सा विभाग के डाइरेक्टरों तथा स्यूपरिन्टेन्डेंटों ने भी इस विषय पर मनन-पूर्वक विचार किया है। संक्षेप में उन लोगों के परामर्श निम्नांकित हैं। आशा की जाती है कि सरकार शीघ्र ही इन पर अमल करेगी।


१. सुरज-साँड़ किसी की भी सम्पत्ति नहीं है,  अदालतों द्वारा दिये हुए इस प्रकार के निर्णयों के दुष्परिणामों को दूर करने के लिये कानून द्वारा सूरज-साँडों का अधिकार म्युनिसिपैल्टी, डिस्ट्रिक्ट-बोर्ड तथा स्थानीय सभाओं को सौंप कर उन्हें इस बात के लिये बाध्य करना चाहिये कि वे अपनी-अपनी सीमा के भीतर पशु-संख्या तथा आय के अनुपात से नस्ल-वृद्धि के लिये कम-से-कम थोड़े से उत्तम साँडों को अपने खर्च से रक्खें अथवा एक उचित रकम सहायता के रूप में देकर किसी सार्वजनिक या व्यक्तिगत संख्या द्वारा उनके भरण-पोषण की व्यवस्था करें।


२. विशेष कर नस्ल बढ़ाने के उद्देश्य से साँड रखने के विचार को प्रोत्साहन देने के लिये पुरा प्रयत्न करना चाहिये तथा डिस्ट्रिक्ट बोर्डों को चाहिये कि वे जितने साँड रख सकें,  अवश्य रक्खें।


३. इस बात को बार-बार दुहराया जा चुका है कि नस्ल में वास्तविक सुधाऱ उत्तम-से-उत्तम देशी पशुओं द्वारा स्थानीय नस्लों के सुधार से ही सम्भव है,  संकर-जाति की नस्ल उत्पत्र करके या विदेशी रक्त का मिश्रण करने से नहीं। इंग्लैण्ड तथा आस्ट्रेलिया के साँडों से नस्ल उत्पन्न करने के प्रयत्न अधिकांश  असफल ही रहे हैं। मेजर बाल्डे का कहना है कि मुख्यता आस-पास की सभी नस्लों  का ह्यस हुआ है तथा कर्नल एच. ईवन्स के कथनानुसार बर्मियों की संकर-जाति की सन्तान पैदा न करने की नीति ही बर्मी पशुओं के अत्युत्तम गुणों को बनाये रखने में सहायक हुई है।


४. भारत के कृषि-बोर्ड के सन् १९१९ के कार्य-विवरण कर्नल जी.के. वाकर तथा सर्वश्री जैकब,  वुड,  मेकेंजी,  नाइट एवं टेलर ने कहा है कि पूर्ण शक्ति के साथ पशु-वृद्धि के व्यवसाय को प्रोत्साहन देना तथा उसकी वृद्धि करना सरकार का मुख्य कर्त्तव्य है।


(क) सरकारी पशु-पालन-शालाओं की संख्या मे वृद्धि करना।


(ख) सरकार को चाहिये कि वह उत्तम-उत्तम नस्ल के देशी पशुओं का पालन करे तथा इन नस्लों की रक्त-शुद्धि बनाये रक्खे।


(ग) पशु-वृद्धि के लिये भूखण्डों को निर्धारित करना तथा उनकी रक्षा करना।


(घ) सरकारी या दूसरे प्रमाणित फार्मों से उत्तम श्रेणी के पशुओं का वितरण


        सुरज साँड़ किसी की भी सम्पत्ति नहीं हैं- हाईकोर्ट के द्वारा दिये हुए इस प्रकार के निर्णयों के दुष्परिणाम को रोकने के लिये अब तक कोई कानून नहीं बना। इस प्रकार का कानून यथासम्भव शीघ्र बन जाना चाहिये। अन्य प्रस्तावित उपायों को भी समूचे भारतवर्ष की आवश्यकता के अनुसार थोड़े या अधिक पैमाने पर अमल में लाना चाहिये।


                        

पशू-वध की रोक

 

       किन्तु सबसे महत्त्व का प्रश्न,  सब प्रश्नों का एक प्रश्न,  है- पशुओं की निर्बाध हत्या। ऐसा केवल भारत में ही सम्भव है। संसार के अन्य किसी सभ्य देश में इस प्रथा को एक दिन के लिये भी प्रोत्साहन नहीं मिल सकता। श्री निलानन्द चटर्जी लिखते हैं- क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि एक अच्छी स्वस्थ, जवान गाय का भी,  जो छुटाने के समय तक प्रतिदिन लरगभग ढाई सेर दूध देती है,  बेखटके वध कर दिया जाता है?  कलकत्ते की एक म्यूनिसिपल पशु-वधशाला में मैंने अपनी आँखोऐसा होते देखा है। इस प्रकार केवल यही एक उदाहरण नहीं है। कलकत्ते की म्यूनिसिपल पशु-वधशाला में ऐसी-ऐसी पाँच सौ गायों का वध प्रतिदिन होता है। सोचिये,  कलकत्ते में कई पशु-वधशालाएँ हैं तथा भारत में कई ऐसे नगर और कसबे हैं,  जहाँ बारहों महीने गो-वध का कार्य चालू रहता है। खोज करने से पता चला है कि मारे जाने वाले पशुओ  में से सत्तर से नब्बे प्रतिशत तक पशु छोटी अवस्या में ही मार दिये जाते हैं और बजाय इसके कि वे दस या बारह वर्ष तक और जीकर मनुष्य को लाभ पहुँचाते,  पहले या दूसरे ब्यान के बाद ही मार डाले जाते हैं। इस प्रकार जो थोड़े से उत्तम श्रेणी के पशु बच रहते हैं वे भी समय से पहले ही मार दिये जाते हैं


      पशुओं के ह्यस के विषय पर लिखने वाले कई विद्वानों का कहना है कि दूध देने वाले पशुओं का वध इस ह्यस का एक मुख्य कारण है। इस विषय पर भी श्री नीलानन्द चटर्जी के निम्नांकित कथन की ओर ध्यान देना चाहिये। वे लिखते हैं- ‘इस देश में अँग्रेजों के आने के पूर्व गो-वध प्राय: नहीं होता था। यह सच है कि मुसल्मानी राज्य में कुछ मुसलमान गो-मांस खाते रहे होंगे;  किन्तु उनकी संख्या बहुत कम थी तथा बध किये जाने वाले पशुओं की संख्या तो बिल्कुल नगण्य थी। यहाँ तक कि आज भी जो अच्छे और उच्च वर्ग के मुसलमान हैं,  वे गो-मांस को छूने तक में अपनी हतक तथा अपमान समझते हैं। वे मुख्यतया मेढ़े अथवा बकरे का मांस खाते हैं। भारत का जलवायु गो-मांस-भक्षण के अनुकूल नहीं पड़ता। मुसलमानों के गो-मांस से परहेज करने में यह एक मुख्य कारण है। दूसरा कारण,  जो इससे कम महत्त्व का नहीं है, हिन्दुओं की धार्मिक भावनाओं के प्रति आदर का भाव था। इस भाव की प्रतिध्वनि हमें इस बीसवीं शताब्दी में भी सुनायी पड़ी थी,  जब कि अफगानिस्तान के स्वर्गीय अमीर हबीबुल्ला साहब भारत में पधारे थे तथा ईद के अवसर पर दिल्ली मे  इस विषय पर उन्होंने भाषण दिया था। उन्होंने मुसलमानों से कहा था- यद्यपि परम्परा के अनुसार मेरे सत्कार में आप लोगों को सौ गायों की कुर्बानी करनी चाहिये;  किन्तु आप लोग एक भी गाय की कुर्बानी मत कीजिये। आप लोगों को दिल्ली या भारत के किसी भी भाग में मेरे नाम पर गाय की कुर्बानी या और कोई ऐसा धार्मिक कृत्य नहीं करना चाहिये, जिससे सम्राट् एडवर्ड के साम्राज्य की हिन्दू प्रजा को पीड़ा या दु:ख हो। क्यों?  क्या बकरे पर्याप्त नहीं हैं? क्या दिल्ली की जुमा मस्जिद में कुर्बानी करने के लिये पर्याप्त ऊँट नहीं हैं?  मैं आप लोगों के साथ ईद का महत्त्वपूर्ण त्यौहार मनाने जा रहा हूँ। यदि आप लोगों की इच्छा हो तो बकरों की कुर्बानी कर सकते हैं। किन्तु यदि एक भी गाय का वध हुआ तो मैं सदा के लिये आप लोगों से तथा दिल्ली से मुँह फेर लूँगा। यदि मैं आज्ञा दे सकता हूँ तो मेरी बात मानिये; नहीं तो कम-से-कम मेरी प्रार्थना पर अवश्य ध्यान दीजिये?


कुछ ही दिनों से अँग्रेज सैनिकों तथा अपेक्षाकृत निम्नवर्ग की यूरोपियन तथा यूरेशियन जनता द्वारा अधिक मात्रा में गो-मांस की खपत होने लगी। पिछला महायुद्ध छिड़ने के समय तक यह पशु-वध बराबर बढ़ता ही गया। उस समय युद्ध के लिये बहुत से सिपाही भारत से बुला लिए गये, जिसके परिणामस्वरुप पशु-वध में थोड़ी सी कमी आ गयी। किन्तु यह कमी थोड़े ही समय के लिये थी, क्योंकि पशु-वध की संख्या फिर बढ़ती पर है। (इस युद्धकाल में कितना गो-वध हुआ है,  यह बताना बहुत ही कठिन है)। आगे चलकर चमड़े के व्यवसाय तथा सूखे मांस के व्यापार के लिये गौओं का वध होने लगा। इन सब कारणों ने मिलकर इस देश में वध होने वाले पशुओं की संख्या में भीषण वृद्धि कर दी।


गो-वध के विरुद्ध हिन्दूमात्र की प्रबल धार्मिक भावना प्रसिद्ध है। अत: उसके विषय में कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है। खेद की बात है हिन्दुओं की इस धार्मिक भावना तथा विरोध पर कोई ध्यान न दिया जाकर गो-वध बराबर जारी है। बड़े नगरों तथा कस्बों में हिन्दुओं को प्रतिदिन प्रात:काल छाती पर पत्थर रख कर बहुसंख्यंक गौओं की वधशाला की ओर ले जायी जाती हुई देखना पड़ता है। गायों से मनुष्य-जाति को इतने महान् लाभ होते हैं कि उनकी गणना नहीं हो सकती;  उन्हें सभी जानते हैं, अत: उन्हें दुहराने की आवश्कता नहीं है। गाय हमें वह दूध देती हैं,  जो मनुष्य को प्राप्त होने वाले आहारों में सबसे पूर्ण है- यह बात अधिक वैज्ञानिक खोजों द्वारा सिद्ध हो चुकी है। ऊपर बतलाया जा चुका है कि दूध मनुष्य के भोजन का एक आवश्यक अंग है। यह दूसरे आहारों को त्रुटियों को पूर्ण कर देता है। दूध के अभाव की पूर्ति करने वाला कोई दूसरा आहार नहीं है। राष्ट्र के शारीरिक विकास को बनाये रखने के लिये तथा राष्ट्र के स्वास्थ्य की उन्नति के लिये यह आवश्यक है कि धनी-निर्धन सबको पर्याप्त मात्रा मे  दूध मिले। गाय देश को बैल भी देती है,  जो  हमारे खेत जोतते और हमारे बछड़े खींचते हैं। भारत की खेती में पशुओं से जो सहायता मिलती है,  उसका सबसे अधिक महत्वपूर्ण अंग उनकी शारीरिक सेवा है। भारत में कृषि सम्बन्धी जो शाही कमीशन बैठा था,  उसके कथनानुसार बिना बैल के खेती नहीं हो सकती। बिना बैलों के पैदावार एक स्थान से दूसरे स्थान पर नहीं पहुचायी जा सकती। बैलों की रक्षा


इसीलिये की जाती है कि वे कृषि के लिये अनिवार्य हैं। यूरोप के देशों में लोग दूध देने वाले पशुओं के वध की बात सहन नहीं कर सकते। यदि कोई व्यक्ति ऐसा करता है तो कानून द्वारा उसे दण्ड दिया जाता है अथवा वह समाज से बहिष्कृत कर दिया जाता है। किन्तु यहाँ इस प्रकार की कोई व्यवस्था नहीं है। यहाँ के सबसे अधिक दूध देने वाले पशु नगरों में भेजे जा रहे हैं और वहाँ जब उनका दूध कम हो जाता है,  तो उनका बड़ी संख्या में वध कर दिया जाता है। इसका परिणाम यह हुआ है कि उत्तम गायों की संख्या घट रहीं है।‘  श्री नीलानन्द चटर्जी ने उपर्युक्त बातें कई वर्ष पूर्व लिखी थीं। तब से तो आज की स्थिति और भी अधिक शोचनीय एवं भयानक हो गयी है!


बम्बई की सरकार ने एक पशु-विशेषज्ञ-समिति नियुक्त की थी, जिसने सन् १९३९ में अपनी रिपोर्ट लिखी थी। समिति ने लिखा है- ‘समिति का यह मत है कि वर्तमान परिस्थिति में,  जिसके कारण दूध के लिये पशु नगरों की सीमा भीतर रक्खे जाते हैं, उपयोगी पशुओं के बध को रोकने के लिये कानून का बनना आवश्यक है। किन्तु समिति इस बात पर जोर देती है कि यदि नगरों की सीमा के बाहर सरकार या म्यूनिसिपैल्टी आदि के द्वारा दूध की पैदावार के हल्कों की स्थापना का उचित प्रबन्ध हो जाय, जहाँ दूध का व्यवसाय करने वाले दूध इकट्ठा कर सकें,  दूध देने वाले पशुओं का पालन एवं वृद्धि कर सकें तथा छूटे पशुओं का तब तक पालन कर सकें जब तक कि वे फिर दूध न देने लगें,  तो उपयोगी पशुओं के वध की समस्या बहुत कुछ हल्की हो जायगी तथा यह भी सम्भव है कि यथा समय वह समस्या रह ही न जाय। दूसरे शब्दों मे समिति का यह मत है कि दूध देने वाले उपयोगी पशुओं का वध नगर के भीतर दूध का व्यवसाय चलाने की प्रचलित प्रथा का प्रत्यक्ष परिणाम है। समिति बड़े जोरदार शब्दों मे यह बतलाना चाहती है कि दूध देने वाले पशुओ  की रक्षा तथा प्रान्त में  सन्तोषजनक स्थानीय दुग्ध-व्यवसाय की बृद्धि के लिये बरती जाने वाली नीति में सबसे प्रथम और अत्यन्त आवश्यक बात यह होनी चाहिये कि प्रचलित प्रणाली में परिवर्तन कर के दूध का व्यवसाय क्षेत्र नगर की सीमा के बाहर कर दिया जाय’।


सन् १९१७ में अखिल भारतवर्षीय गो-सम्मेलन-संघ,  कलकत्ता के प्रमुख श्री सर जान वुडरफ की प्रेरणा से कई म्यूनिसपैल्टियों ने उपयोगी पशुओं के वध में नियंत्रण लगाने का निश्चय किया था। किन्तु सस्कार ने उनके प्रस्तावों को इस आधार पर रद्द कर दिया कि वर्तमान कानून के अनुसार ऐसे प्रस्तावों को कार्यरूप में लाना न्याययुक्त नहीं है।’ ( श्री नीलानन्द चटर्जी)  


जब कलकत्ता म्यूनिसिपैल्टी बिल धारा-सभा (Legislative Council) के सम्मुख उपस्थित हुआ,  तब श्री नीलानन्द चटर्जी तथा कुछ अन्य मित्रों ने उस बिल में एक धारा बढ़ाकर इस कानूनी त्रुटि को दूर करने की चेष्टा की। उस धारा के द्वारा कलकत्ते के कारपोरेशन को यह अधिकार दिया गया था कि आवश्यकतानुसार वह उपयोगी पशुओं के वध पर रोक लगा सके। किन्तु यूरोपियन और मुसलमान सदस्यों द्वारा उस प्रस्ताव का समर्थन न होने से वह प्रस्ताव गिर गया। गाय तथा बछडों का उनके जीवन के प्रारम्भ में ही वधन कर देने की बुरी प्रथा बिना किसी रोक-थाम के जारी है!


 हिन्दुओं की धार्मिक भावना को मार्मिक चोट पहुँचाने के साथ-साथ गो-वध की प्रथा ने सारे भारतवर्ष तथा इसमें रहने वाली सभी जातियों को अतुल आर्थिक क्षति पहुँचायी है। राष्ट्र-हित के लिये यह आवश्यक है कि समस्या की गम्भीरता का अच्छी प्रकार अनुभव किया जाय तथ दूध देने वाली गाय और उसकी सन्तान- बैलों एवे  साँडों की रक्षा के लिये सरकार या उसके द्वारा नियुक्त  अन्य कमेटियों द्वारा आमन्त्रित विशेषज्ञों के बताये हुए उपायों अथवा अन्य उपयुक्त समझे जाने वाले साधनों को काम में लाया जाय। अवश्य ही शान्तिपूर्ण शिक्षात्मक प्रचार का कार्य तो प्रचुर मात्रा में बराबर चलता रहना चाहिये। प्रजा के सभी वर्गों के समर्थन से जीवदया-सम्बन्धी आवश्यक कानून बन जाय- इसके लिये शान्तिपूर्ण शिक्षात्मक प्रचार-कार्य प्रचुर मात्रा में निरन्तर चालू रखने की आवश्यकता है।  


 जिन तथ्यों की ओर मैंने पाठकों का ध्यान आकर्षित किया है,  उनको दृष्टि में रखते हुए मैं निम्नलिखित परामर्श उनके सामने प्रस्तुत करता हूँ-



          

उपाय

 

१. सारे देश में खेती एवं गोपालन की सम्मिलित प्रणाली (Mixed farming) को प्रचलित करने के लिये देशव्यापी प्रयत्न होना चाहिये।

 

२. प्रत्येक किसान को एक या एक से अधिक गाय अपने घर में रखने तथा गाय और बैलों की नस्ल बढ़ाने के लिये प्रोत्साहन तथा सहायता दी जानी चाहिये। अधिक जनसंख्या वाले नगरों में लोगो  को सामुदायिक प्रयत्न से गोशाला अथवा डेरियाँ स्थापित करने के लिये उत्साहित करना चाहिये।


३. प्रत्येक जिले में ‘चारा तथा पशु-चारण समितियों’  की स्थापना होनी चाहिये।


४. गाँव के पशुओं के चरने के लिये यथेष्ट गोचरभूमि कानूनन अलग छुटी रहनी चाहिये।


५. सुरज-साँड़ किसी की भी सम्पत्ति नहीं है- इस विषय में दिये हुए हाईकोर्ट


के निर्णयों को व्यर्थ करने के लिये कानून बनना चाहिये।


६. काफी बड़े परिमाण में अच्छे साँडों की नस्ल बढाने के कार्य को प्रोत्साहन देना चाहिये।


७ . जवान गायों के वध को रोकने के लिये ही नहीं,  वरन् बूढी गाय,  साँड और बैलों के वधन को भी रोकने के लिये कानून बनना चाहिये।


८. बम्बई,  कलकत्ता,  मद्रास,  लाहौर तथा दूसरे बड़े शहरों में रहने वाले लोगों की माँग पूरी करने के लिये नगरों की सीमा के बाहर दूध-व्यवसाय के क्षेत्रों की स्थापना होनी चाहिये।


९. पशु-चिकित्साशाला तथा दातव्य औषधालयों का प्रबन्ध पर्याप्त संख्या में होना चाहिये।


१०. अधिक दूध उत्पन्न करो और खूब पियो’  का आन्दोलन सारे देश में मच जाना चाहिये।


११. अधिक दूध उत्पन्न करने,  खपत करने और गो-वध को बंद करने की आवश्यकता के विषय में सरकारी महकमों तथा गैर-सरकारी संस्थाओं को परस्पर मिलकर शिक्षात्मक प्रचार करना चाहिये।


१२. सरकार तथा सार्वजनिक संस्थाओं को चाहिये कि वे वर्तमान या भावी गोशालाओं के उपयोग के लिये नि:शुल्क गोचर-भूमि प्रदान करें।


यदि ये उपाय काम में लाये गये तो राष्ट्र के स्वास्थ्य तथा भारतीय जनता की आर्थिक उन्नति के लिये एक नया युग उत्पन्न हो जायेगा।


(‘कल्याण- गोअंक, वर्ष २०, अंक १, संवत् २००२)



Mahamana Madan Mohan Malaviya