Speeches & Writings
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तप
समय के हेर फेर से जहाँ हमारे देश में धर्म, राजनीति, इतिहास-प्रभृति विषयों में अनेक प्रकार के परिवर्तन हुए हैं, वहाँ शब्दों के अर्थ और उनके आभ्यन्तरिक भावों में भी ऐसी तबदीली हुई कि जिसने हमारे विचारों, चरित्रों, रीतियों और व्यवहारों को कुछ का कुछ बना दिया है और इसके कारण हमारे जातीय जीवन की काया ऐसी पलटी है कि जब तक उन शब्दों के वास्तविक तात्पर्य और अर्थ को हिन्दू जाति के सम्मुख दुबारा पूर्ण रूप से न रखा जायेगा और उन शब्दों के साथ श्रेष्ठ और उच्चा भावों और विचारों से सम्बन्ध न पैदा किया जायगा तब तक हमारे सामाजिक व्यवहार और नीति-रीति का सुधार होना बहुत कठिन है ।
हमारे वर्तमान सब कुसंस्कारों, कुरीतियों, अनाचारों, असद व्यवहारों और कुलक्षणों के अनेक कारण हैं । किसी जाति का अधः पतन किसी एक ही कारण से नहीं होता, बल्कि सूक्ष्म और स्थूल रूप से होता है । कोई कारण तो साफ तौर से दृष्टिगत होता है और कोई धीरे-धीरे अन्दर से अपना कार्य करता है । यदि हम शब्दों कि महान शक्ति कि मीमांसा करें और मनुष्य-समाज तथा मानव-जीवन के प्रत्येक व्यवहार और व्यापार पर ध्यान दें, तो मालुम होगा कि शब्दों ही से बहुत कुछ होता है । यदि शास्त्रानुसार जगत का विश्लेषण करें तो ज्ञात होगा कि सृष्टि के दो अवयव हैं- शब्द और अर्थ । यदि शब्दों के और अर्थ कर दिए जायं तो दुनिया में बड़ी गड़बड़ हो जाय, और ऐसा अनर्थ होने से जीवन के प्रत्येक विभाग में कोई व्यवस्था न रहे । यदि किसी शब्द का दुरूपयोग किया जाये तो वह अपने प्रयोजन और वास्तविक अर्थ को ठीक-ठीक वर्णन नहीं करेगा और परिणाम यह होगा कि अनेक प्रकार के शब्दों द्वारा मूर्खता और हठ का प्रचार होगा । अतः लोगों को शब्दों के स्वरुप का ज्ञान कराना अत्यन्त आवश्यक है । किसी जाति के मानसिक और व्यावहारिक जीवन की सभ्यता की इस बात से भली प्रकार परीक्षा हो सकती है कि उसकी धार्मिक, सामाजिक, व्यावहारिक और पारमार्थिक शब्दावली के क्या मानी हैं, अर्थात इन शब्दों को बोलते और सुनते समय वक्ता और श्रोता के मन में क्या भाव और विचार उत्पन्न होते हैं । यदि भाव अच्छे हैं तो जाति की मानसिक और व्यावहारिक दशा अच्छी है, और बुरे हैं तो बुरी । किसी जाति की भाषा का एक-एक शब्द उस जाति के समग्र जीवन का दर्पण है । इसमें हम उनकी अवस्था का पूर्ण रूप से अनुभव कर सकते हैं । यदि शब्दों के उच्चारण करते ही अच्छे विचारों और संस्कारों की लड़ी बँध जाती है श्रेष्ठ जीवन, विमल चरित्र और उच्च आदर्श चक्षुओं के सामने आ जाते हैं, तो वह जाति आचार के विचार से उन्नतिशील कही जा सकती है और यदि पापमय और नीच संस्कारों का सिलसिला बँध जाता है तो वह जाति अधोगति को प्राप्त है ।
हमारे देश में एक अनर्थ तो यह है कि जिन शब्दों के अन्दर हजारों वर्ष के उच्च से उच्च और पवित्र से पवित्र भाव भरे थे, उनमें अब नीच से नीच और अपवित्र से अपवित्र भाव उपस्थित हैं । इसका नतीजा यह हुआ है कि बुरे शब्द तो बढ़ते गए और अच्छे शब्दों का अनर्थ होता गया । शब्द से ही मृत्यु है और शब्द ही अमरत्व देता है । वही शब्द सन्यासी है, जिसके माने सच्चा त्यागी, राग-द्वेष से रहित, परोपकारी, सत्यावरणी, विद्वान है । वही शब्द सन्यासी है, जिसके माने भगवा वस्त्र पहने भिखारी के हैं । शब्द तो बैरागी एक ही है, जिसके असली माने वैराग्यमय और त्यागी भाव वाले पुरुष के हैं लेकिन आजकल उसी के अर्थ, गँजेड़ी, भंगेड़ी, लड़ाकू, मोटे, चिमटे वाले फक्कड़ के समान समझे जाते हैं । इसी प्रकार अनेक शब्द हैं, जिनका हमारे देश में दुरूपयोग हो रहा है । उदाहरणार्थ प्रारब्ध, शोच, योगी, ब्राह्मण, गुरु, व्रत, अहिंसा, विवाह और तप ये सब के सब ऐसे शब्द हैं जिनकी व्याख्या करने की बहुत आवश्यकता है । हम आज 'तप' शब्द की व्याख्या लिखते हैं और पाठकों को बतायेंगे कि तप क्या पदार्थ है । प्रायः ग्रीष्म ऋतु में मध्याह्न के समय चारों ओर अग्नि जलाकर बैठ जाना, सरदी में जल के अन्दर रातें काटना, पाँव में रस्सा डालकर उल्टे लटकना या झूला झूलना, लोहे की कील पर नंगे पैर बैठना, नखों और बालों को बढ़ाना, उपवास करना, हाथों और पैरों को बेकाम कर देना, मौन धारण करके वाणी से किसी प्रकार की वार्ता न करना- इस प्रकार की तमाशेबाजी को तप समझा जाता है, परन्तु वास्तव में यह तप नहीं । जिस प्रकार हीरे को जलाने से कोयला रह जाता है और वह अपने असली मूल्य को भी खो देता है, उसी तरह ये वृथा नामधारी तपस्वी अपने शरीर की आयु को नष्ट करते हैं । परमात्मा ने हमको यह शरीर इसलिए नहीं प्रदान किया कि हम इसको वृथा क्षीण करें, बल्कि यह शरीर एक ऐसा साधन है जिसके द्वारा आत्मा परमात्मा तक पहुँच सकता है । अतः ऐसा तप करना बहुत अनुचित है, आत्मघात है, आत्मा और शरीर की शक्तियों के विकास को रोकने वाला है । ये मूर्ख लोग इस दुष्प्राप्य मानव जीवन को नष्ट करते हैं । और न तो अपने को ही कुछ लाभ पहुँचाते हैं और न दूसरों को ।
इसके विपरीत जिस प्रकार अग्नि से स्वर्ण को तपाने से उसके तमाम मल नष्ट हो जाते हैं, कांटी अधिक आती है और मूल्य बढ़ जाता है, इसी प्रकार जो सत्य-रुपी अग्नि में प्रवेश करते हैं, उनका न केवल शारीरिक बल ही नहीं बल्कि मानसिक और आध्यात्मिक बल भी अहर्निश वृद्धि को प्राप्त होता है । सच्चा तप निर्बल को सबल, निर्धन को धनी, प्रजा को राजा, शूद्र को ब्राह्मण, दैत्य को देवता, दास को स्वामी और भिक्षुक को दाता बना देता है । सच्चे तप का भाव उस देशभक्त में है जो अपने देश एवं अपनी जाति के गौरव और प्रतिष्ठा, कीर्ति और मान, सम्पत्ति और ऐश्वर्य की वृद्धि और उन्नति के लिए दृढ़ इच्छा रखता है । अनेक प्रकार के दुखों, संकटो और कष्टों को सहन करने कठिन से कठिन मेहनत और श्रम को उठाने और विघ्नों से मुकाबला करने के लिए उद्यत रहता है । सच्चे देश-प्रेमी और देशानुरागी कल्याण की इच्छा करते हुए तप का अनुष्ठान करते, आत्मा और मन को धर्माचरण-रुपी अग्नि में दग्ध करके, अपने और अपने देश की अपवित्रता, मलिनता और अन्य अशुद्धियों को दूर कर जाति की अयोग्यता एवं सुख-सम्पत्ति की योग्यता प्रदान करते हैं । जिन देशानुरागी पुरुषों में तपश्चर्या नहीं, जो मुसीबतों, विघ्नों और आफतों का मुकाबला करने से घबराते हैं, जो द्वंद्वों को सहन नहीं कर सकते, जो भूख और प्यास, सर्दी और गर्मी, धुप और छाँह, कोमल और कठोर, मीठा और खट्टा आदि द्वंद्वों के दास हैं, वे संसार-रुपी युद्ध-क्षेत्र में कदापि कृतकृत्य नहीं हो सकते ।
विधाता ने इस महान सृष्टि-सूर्य, चन्द्र, तारागण, पर्वत और नदी, सागर और महासागर, अग्नि, वायु और अन्तरिक्ष को उत्पन्न किया, किस बल से ये सब अपने-अपने कार्य को निर्विघ्न कर रहे हैं ? तप से ही इन सबके धर्म की स्थिति है । तप से ही धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति होती है । तप से ही आत्मा अज्ञात मार्ग पर चलती और दूसरों को चलाती है । तप से ही कणाद, गौतम, व्यास आदि महर्षियों से उपनिषदादि शास्त्रों और दर्शन ग्रन्थों की रचना की थी । तप से न्यूटन, डारविन और काँट आदि विद्वानों ने वैज्ञानिक संसार की काया पलट दी है । तप से ही भारत के मनीषी पुत्र अध्यापक बोस ने नवीन चमत्कारों और आविष्कारों को प्रकट कर भारतवर्ष की सूक्ष्म बुद्धि और वैज्ञानिक मेधा का प्रमाण दिया है । तप के बल से ही यूरोप और अमेरिका में आज दिन शिक्षा, मनोविज्ञान, चिकित्सा, रसायन विद्या आदि के अनुभूत सिद्धांतों का आविर्भाव हो रहा है । इन्ही तपस्वियों ने विचित्र संसार के चित्र उतार कर बड़े-बड़े पहाड़ों और सागरों को नाप डाला और बड़े-बड़े गिरीन्द्रों को चूर्ण कर और महावनों को तृणरहित कर सुन्दर मार्गों और नगरों को बनाया है । अनन्तकोस दूरस्थ नक्षत्रों और तारागणों की गति, स्थान और उनके पारस्परिक सम्बन्ध को जान लिया है । अनेक कला-कौशलों से आश्चर्यमय अस्त्र-शस्त्र बनाकर देश-देशान्तरों को विजय किया है । अभिप्राय यह है कि तप से अभ्युदय और निःश्रेयस, स्वर्ग और मोक्ष, धन और सम्पत्ति, नाम और यश, बल और पराक्रम, सुख और शान्ति, राज्य और अधिकार सब की ही प्राप्ति होती है और होगी ।
जिस जाति में जितना, जिस प्रकार का और जिस दरजे का तप होगा, वह उतनी ही अधिक बलवान, तेजस्वी, बुद्धिमान, धर्मनिष्ठ और ज्ञानवान होगी । कौमी इमारत का तप ही मूल, तप ही मध्य और तप ही अन्त है । जिसने इस रहस्य को समझ लिया, उसको दुनिया की कोई राजसत्ता अपने अधीन नहीं कर सकती । जो दुस्तर है, दुष्प्राप्य है और दुष्कर है, यह तप से सिद्ध हो जाता है ।
तप अपने उद्देश्य, प्रयोजन का या गरज से अच्छा या बुरा, ऊँचा या नीचे, तामसी, राजसी और सात्विक एवं कायिक, वाचिक और मानसिक कहलाता है । वर्णों का तप और है और आश्रमों का दूसरा । तप एक को गिराता है, वह ही दूसरे को उठाता है । जो सन्यासी को शक्तिवान बनाता है, वह ही गृहस्थ को शक्तिहीन करता है ।
राजा का तप प्रजा से भिन्न है । ब्रह्मचारी और गृहस्थ के तप में बहुत अन्तर है । जो तप निष्काम-भाव से, फल की इच्छा त्याग कर, शम-दम से सम्पन्न होकर, श्रद्धा और धैर्य के साथ मन, वाणी या शरीर से किया जाता है, वह सात्विक तप कहलाता है । मन को जीतना अर्थात काम-क्रोध-लोभ-मोह से बचना और शुद्ध संकल्प-युक्त रहना, किसी विषय-वृत्ति के कारण विक्षित होकर फिर भी उस पर विजय प्राप्त करना, व्यवहार-काल में छल-कपट, धोखा और फरेब से मन को दूर रखना, मन को सात्विक बनाना- यह मन द्वारा सात्विक तप करना है । वाणी का सात्विक तप यह है कि जो वाक्य असत्य, दुखदायी अप्रिय और खोटा हो उसको किसी समय, किसी भी अवस्था में मुंह से न निकालना, बल्कि प्रिय, सत्य, मीठे और मधुर वचन बोलना- यह वाणी द्वारा सात्विक तप करना है । शरीर से, अर्थात शरीरावयवों, हस्त-पादापी कर्मेन्द्रियों के द्वारा दूसरों की सहायता और सेवा करना, गिरे हुए को उठाना, देश और जाति के लिए, अपने शरीर के दुःख और कष्ट की परवाह न कर, बल्कि यदि आवश्यकता हो तो धर्म और परोपकारी अर्पण कर देना- यह काया का सात्विक तप है । परन्तु अपनी स्तुति, मान, पूजा, उत्कार, प्रतिष्ठा और नाम या भोगविलास के लिए इन्हीं सब कामों को मन, वाणी व शरीर द्वारा करना इनको राजसी बना देता है । जो तप अविवेक से दूसरों को हानि पहुँचाने, दिल दुखाने, द्वेष और शत्रुता के साथ किया जाता है, वह तामसी है । इन तपों का भिन्न-भिन्न वर्णन करने से अभिप्राय यह है कि लोग अपनी-अपनी मन वाणी और शरीर की परीक्षा करें और सात्विक तपों को ग्रहण करते हुए राजसी और तामसी को त्याग दें । क्या चोर और डाकू, कपटी और फरेबी लोग, अपने-अपने कामों को हिम्मत, हौसला और दिलावरी के साथ तकलीफों और आफतों से लापरवाह होकर नहीं करते ? लेकिन भेद इतना है कि इनकी हिम्मत या हौसला तामसी है, न कि सात्विक । ये लोग भी अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए अनेक प्रकार के संकट और मुसीबतों को सहन करते हुए मन और शरीर को मजबूत बनाते हैं और हमेशा अनेक प्रकार के विघ्नों के आने पर भी अपने काम से विरत नहीं होते, लेकिन इनका साहस और पुरुषार्थ पाप और अधर्म को बढ़ाता है, और सच्चा साहस और पुरुषार्थ पाप और अधर्म को घटाता और मनुष्य-समाज में सुख और शान्ति के राज्य को स्थापित करता है ।
(१५ जनवरी, १९०९) |