Mahamana Madan Mohan Malaviya

Mahamana Madan Mohan Malaviya
Speeches & Writings

स्वतन्त्रता की दार्शनिक व्याख्या

 

आजकल देश में स्वतन्त्रता की आकांक्षा से लोग लालायित हो रहे हैं इसका कारण पश्चिमीय शिक्षा और पश्चिमीय देशों का संघर्ष कहा जाता है इसी कारण पश्चिमीय देशों का अन्धानुकरण (आंख बन्द कर नकल करना) भी कुछ समय पहले श्रेयस्कर समझा जाता था यह बड़े आनन्द की बात है कि अब पूर्वीय देशों के निवासियों के विचारों में परिवर्तन हो रहा है अब वे समझने लगे हैं कि नक्लबाजी बुरी है यही नहीं, यह भी समझने लगे हैं कि सभी बातों से पश्चिमीय देशों की नक्ल करना श्रेय नहीं, वरन हानिकारक है इतना परिवर्तन अवश्य हुआ है, किन्तु खेद के साथ कहना पड़ता है, अभी लोगों में इतना भ्रम अवश्य बाकी है कि वे समझते हैं कि सब न सही तो पश्चिमीय शिक्षा और पश्चिमीय प्रजातन्त्र की नकल करना आवश्यक और श्रेयस्कर है पश्चिमीय शिक्षा के लिए यहाँ पर कुछ न कह कर आज हम लोग केवल मानवीय स्वतन्त्रता या प्रजातन्त्र पर ही विचार करेंगे स्वतन्त्रता की दार्शनिक व्याख्या कुछ निराली है और उसी का यहां पर उल्लेख करना हम अपना कर्तव्य समझते हैं इस पर अधिक विचार सांख्य में किया गया है मनुष्य की व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के लिए पहली आवश्यक वस्तु सांख्य के मत से यह है कि आत्मा को इतना ज्ञान हो कि वह अपने को अपने परिसर से अलग समझ सके, या यह कि अपनी स्थिति को वह अपनी आत्मा से भिन्न समझ सके


इसका नाम 'विवेक' है जब तक आत्मा में यह विवेक नहीं रहता, तब तक आत्मा व्याकुल,व्यग्र, निस्तेज और निर्जीव रहती है इस अवस्था में आत्मा को यह ज्ञान नहीं रहता कि कौन सी वस्तु अपनी है और किससे विरक्त रहना उचित है किन्तु ज्यों ही उसमें विवेक उत्पन्न होता है, त्यों ही स्थिति की भिन्नता का ज्ञान उसमें उत्पन्न हो जाता है उसमें आत्मिक बल उत्पन्न होता है और उसमें एक शक्ति का प्रार्दुभाव होता है जिसे अध्यक्षता कहते हैं वेदान्त के मतानुसार स्वतन्त्रता का तात्पर्य इसी को प्राप्त करना या स्थिति और परिसर को विवेक द्वारा जान कर और भिन्न समझ कर उसका शासन करना है इसमें यह ध्वनि है कि उसमें आधिपत्य की शक्ति-अध्यक्षता जागृत हो जाती है, जिससे वह कहता है- 'यह ऐसा ही होगा यह नहीं होगा', इसपर अधिकार हमारा होगा' इत्यादि जो सिद्धान्त व्यक्तिगत जीवन के लिए उपयुक्त है, वह राष्ट्रीय जीवन के लिए भी उपयुक्त है यह एक स्वयंसिद्ध बात है और इसके प्रमाण में बहुत-सी बातों को कह कर हम पिष्टपेषण करना उचित नहीं समझते जब तक कि राष्ट्रीय आत्मा या जीवन में 'विवेक' नहीं है, जब तक वह अपनी स्थिति को अपने से भिन्न नहीं समझ सकती, तब तक वह अस्वतन्त्र रहती है, किन्तु जब राष्ट्र में विवेक उत्पन्न हो जाता है, जब उसमें अध्यक्षता की शक्ति का प्रार्दुभाव हो जाता है, तभी वह स्वतन्त्र होता है स्वतन्त्रता प्राप्त करने का यही दार्शनिक सूत्र है दर्शनों के मतानुसार यही स्वतन्त्रता को प्राप्त करना समस्त मनुष्यों और जातियों का कर्तव्य होना चाहिए कपिल ने अपने दर्शनों में स्वतन्त्रता की व्याख्या करते हुए ललित उपाख्यानों और उदाहरणों का भी यत्र-तत्र समावेश किया है पहला उदाहरण, जो महात्मा कपिल ने दिया है, वह एक युवराज का है जो एक चांडाल के घर में पला था कपिल कहते हैं कि किसी मनुष्य को स्वतन्त्र होने के लिए यही आवश्यक है कि वह यह जान ले कि वह प्रकृति से ही स्वतन्त्र है जैसे कि युवराज को यह जानते ही कि यह राजवंश का है, अपने राजत्व का ज्ञान हो गया है, यद्यपि स्थिति के अनुसार वह चांडाल था दूसरे स्थान पर यह समझते हुए कि केवल श्रवण-मात्र से या आकस्मिक रीति से भी प्राकृतिक स्वतन्त्रता की प्राप्ति हो सकती है, उन्होंने उस राक्षस का उपाख्यान वर्णन किया है जिसने केवल कृष्ण के अर्जुन के प्रति उपदेश को सुनकर मोक्ष या स्वतन्त्रता प्राप्त की थी अनन्तर उन्होंने यह भी आदेश किया है कि एक-दो-बार के श्रवण करने से यदि मनुष्य की प्राकृतिक स्वतन्त्रता जागृत न हो, तब उसे बार-बार निरन्तर यही श्रवण करना उचित है जैसा कि आरुणि और श्वेतकेतु के सम्बन्ध में हुआ था आगे चल कर स्वतन्त्रता की मीमांसा करते हुए महात्मा ने कहा है कि स्वतन्त्रता वह है जिसके सहारे मनुष्य अपनी स्थिति को बदल सके और व्यर्थ और हानिकारक वस्तुओं, आदतों, व्यसनों को अलग कर सके- जैसे कि सर्प अपनी केंचुल को फ़ेंक दिया करते हैं अनन्तर उन्होंने स्वतन्त्रता चाहने वाले के लिए आदेश किया है कि वह दूसरे के ऊपर निर्भर न हो और न झूठी आशाओं को चित्त में स्थान ही दे, नहीं तो पिंगला की  भाँति, जो कि यह समझा करती थी कि उसके पास आने वाले सभी उससे प्रेम करते हैं, उसे धोखा खाना होगा महात्मा कपिल ने स्वतन्त्रता के और भी बहुत-सी सूत्रों का उल्लेख किया है, जिनका उल्लेख कभी आगे किया जायगा


(२३ मई, १९१२)

Mahamana Madan Mohan Malaviya