Mahamana Madan Mohan Malaviya

Mahamana Madan Mohan Malaviya
Speeches & Writings

राष्ट्र-निर्माण

 

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है-


उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्

आत्मैव ह्यात्म्नौ बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ।।


अर्थात 'अपना उद्धार अपने आप करें, अपने को नीचे गिरावे, अनुशय स्वयं ही अपना मित्र भी है और शत्रु भी है'- इस वाक्य के अनुसार हम लोगों की आजकल जो अधोगति हुई है वह हमारे ही दोषों और पापों से हुई है और हमारी उन्नति तभी होगी, जब हम अपना उद्धार के लिए स्वयं 'यत्न' करेंगेयदि हम लोग आपस में लड़कर परपक्ष में जाते तो हमारा देश हमारे हाथ से जाता और यदि हम अपने व्यवसाय और शिल्प में बराबर उन्नति करते जाते, तो वह आज नष्टप्राय होताहम लोग अपनी पुरानी लीक पीटते गये और विदेशी लोग शिल्प में नये-नये आविष्कार करने लगे जिनके द्वारा उनका माल सस्ता और अच्छा बनने लगा और उस माल के सामने हमारा महँगा देशी माल ठहर सकाहम लोग विश्वस्त हो सो रहे, हमने इस बात पर कुछ भी ध्यान नहीं दिया कि क्रम-क्रम से हम लोगों की कितनी हानि हो रही है और देखते हैं कि स्वप्नावस्था में हम कितने नीचे गिर गए हैं और हमको इस बात प्रबल आकांक्षा हो रही है कि हम फिर एक बड़ी और प्रबल जाति बनकर एक विशाल राष्ट्र-रुपी भवन का निर्माण करें


जब कोई मनुष्य मकान बनाता है तो पहले वह अपने चित्त में उसका चित्र बनाता है, फिर उसको कागज में खींचता है और कारीगरों को दिखाकर उन्हें समझाता हैउनको उसे बनाने के लिए आज्ञा देता है और उसको बनाने की सामग्री एकत्रित कर देता हैइसी प्रकार राष्ट्र भी बनता हैजब परमेश्वर की यह इच्छा होती है कि कोई गिरी और बिखरी हुई जाति फिर एक राष्ट्र हो जाय, तो उस जाति में ऐसे लोग उत्पन्न होने लगते हैं जिनके जीवन का एकमात्र उद्देश्य अपने देश की उन्नति करना रहता है और इसके लिए वे अपनी हानि-लाभ और सुख-दुःख पर भी कुछ ध्यान नहीं देतेऐसे लोगों का जन्म देश के भावी अभ्युदय को उसी प्रकार सूचित करता रहता है जैसे की अरुणोदय सूर्योदय कोऐसे ही लोगों के चित्त में पहले-पहल राष्ट्रीय-भवन का स्वप्न होता है और वे उस भवन का चित्र बनाकर उसे अपने व्याख्यानों और लेखों द्वारा सर्वसाधारण के सामने प्रकाशित करते हैं और उस भवन को बनाने में इस शक्ति और जिस सामग्री की आवश्यकता होती है, उसको वे अपने व्याख्यानों और लेखों के द्वारा उत्पन्न करते हैंयह बड़ी सन्तोषदायक और आशाजनक बात है कि हमारे देश-हितैषी और मननशील वाग्मियों के चित्त में उस भवन को बनाने का स्वप्न हो गया है और चित्र को समझा रहे हैंअब सर्वसाधारण का कर्तव्य और धर्म है कि वे उस भवन को बनाने में यथाशक्ति सहायता दें


कुछ लोगों का यह मत है कि भारतवर्ष एक राष्ट्र नहीं हो सकता क्योंकि यहां भिन्न-भिन्न भाषाएँ और अगणित जाति-भेद हैब्रिटिश राज्य के पहले एक जाति दूसरी जाति से लड़ती थी और एक प्रान्त के लोग दूसरे प्रान्त के लोगों से लड़ते थेअब भी प्रायः आर्यसमाजी सनातन धर्मावलम्बियों से लड़ते हैं और सनातन-धर्म वाले आर्यसमाज वालों सेऐसी दशा में एक राष्ट्र बनाना असम्भव हैपर यदि हम और देशों के इतिहासों को देखें तो हमारा यह भ्रम दूर हो जायगाइटली और जर्मनी कभी एक राष्ट्र नहीं थेउनके अंतर्गत जी भिन्न-भिन्न प्रान्त थे, वे अपने आपस में लड़ते रहते थेइटली में टसकनी और नेपल्स तथा जर्मनी में हैनोवर और प्रशा में रहने वालों में आपस में कितना विरोध था? किन्तु अब भारतवर्ष के भिन्न-भिन्न प्रान्तों में विरोध के बदले परस्पर मित्र-भाव उत्पन्न हो रहा हैभारतवर्ष की तरह वहाँ भी मत-मतान्तर थेयहाँ मत-भेद वाद-विवाद में समाप्त हो जाता है, वहाँ उसमें लोगों के प्राण जाते थेमेरी ने प्रोटेस्टो को जलाया, एलिजाबेथ और क्रामवेल ने रोमन कैथलिकों को मारालुई ने ह्यू गनाटस को मारा और निर्वासित किया पर वे सब देश एक राष्ट्र हो गये हैं और जब कोई जातीय विपत्ति उपस्थित होती है, तब सब एकत्र हो उसे हटाने के निमित्त अपने प्राणों को समर्पण करने के लिए उद्यत हो जाते हैं


मत-मतान्तरों से तथा अन्य कारणों से बिखरे हुए लोगों को एकत्रित करने के लिए एक ही उद्देश्य का होना और एक ही क्लेश से पीड़ित होना बड़े भारी बन्धन हैंये दोनों बातें हमारे देश में वर्तमान हैंसब प्रान्त वालों का उद्देश्य स्वराज्य, अर्थात प्रजा के चुने हुए प्रतिनिधियों के द्वारा शासन है और सब प्रान्त वाले एक ही क्लेश अर्थात वर्तमान शासन-प्रणाली के दोषों से क्लेशित हैं


इन सब बातों को सोचने से इस बात में कोई सन्देह नहीं रह जाता कि हमारा देश फिर एक राष्ट्र हो सकता हैहमारे पास जैसी सामग्री है, वैसी किसी देश में नहीं हैहमारे में बुद्धिमानों की कमी नहींसिक्ख, राजपूत और गोरखा जैसे योद्धा हमारे यहाँ वर्तमान हैंत्याग और दान के लिए तो हमारा देश प्रसिद्ध ही हैयहाँ के किसान और मजदूर लोग इतने परिश्रमी और अल्प-व्यय से अपना जीवन-निर्वाह करने वाले हैं कि उनको देखकर विदेशी लोग चकित हो जाते हैं और उनको अपने देशों में बसने और रोजगार करने से रोकने के लिए कानून जारी करते हैंयहाँ के समान उपजाऊ भूमि भी कहीं नहीं है पर इन सब साधनों का कृपण और व्यसनी धनी के धन के समान दुरूपयोग हो रहा हैऔर इसी से हमारा जातीय बल इतना कम हैकारण यह है कि हम में उद्यम, ऐक्य, साहस और व्यवसाय नहीं हैयदि हमारी जाति में ये गुण जायँ तो हमारी शक्ति अपार हो जायेगीअब मुख्य आवश्यकता इस बात की है कि ये गुण हमारी जाति में जायँ और हमारे चित्त में इस बात कि प्रबल अभिलाषा उत्पन्न हो जाय कि हम लोग जैसे हो वैसे अपने देश को फिर उन्नति के शिखर पर पहुँचा दें, क्योंकि सब काम अभिलाषा ही से आरम्भ होते हैंहमारी अभिलाषा इतनी बढ़नी चाहिए कि वह एक प्रकार का व्यसन हो जाय


इस अभिलाषा और इन गुणों का हमारी जाति में समावेश करना लेखकों और व्याख्यानदाताओं का कर्तव्य हैजब देशोन्नति का कार्य हमारे लिए एक व्यसन-सा हो जायगा, तो हम उसके अर्थ, त्याग को स्वीकार करने के लिए भी उद्यत हो जायंगेपहले लोग आपत्तियों को सहने में हिचकिचायेंगे, पर ज्यों-ज्यों उसका व्यसन बढ़ता जाय, त्यों-त्यों वे आपत्तियों के सहने और कष्ट उठाने के लिए भी उद्यत होंगे, क्योंकि व्यसनी पुरुष आरम्भ में व्यसन करने में हिचकता है और उसके लिए थोड़ा ही व्यय करता और कष्ट उठाता है, पर ज्यों-ज्यों उसका व्यसन पुराना होता जाता है, त्यों-त्यों वह उसमें व्यय भी अधिक करता है और क्लेश भी सहता है और यद्धपि वह जानता है कि वही व्यसन उसके प्राण का ग्राहक हो जाएगा तो भी वह उसे नहीं छोड़ताइसी प्रकार जब हमारा देशोन्नति का व्यसन इतना बढ़ जायगा और हमारी अभिलाषा इतनी प्रबल होगी कि उसकी आपूर्ति क्लेशकर विदित होने लगेगी, तब अभिलषित अर्थ की प्राप्ति के लिए उद्यम उत्पन्न होगा, अभिलाषा की आपूर्ति से इतना क्लेश होगा कि निरुद्यम और आलस्य, जो प्रायः लोगों को सुनकर जान पड़ते हैं, वे दुःसाध्य मालुम होंगेतभी हमारी बातें भी सुनी जायेंगी और देश एक राष्ट्र बन जायगा


(मार्गशीर्ष कृष्ण ९, सं० १९६४)

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