Speeches & Writings
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हमारी दशा और मुख्य कर्तव्य
किसी मनुष्य अथवा किसी जाति की तब तक उन्नति नहीं हो सकती, जब तक वह अपनी वर्तमान दशा से असंतुष्ट होकर उसे सुधारने का यत्न न करे । वर्तमान अवस्था से असन्तोष और उन्नति की इच्छा, ये दो उन्नति के मूल मन्त्र हैं । जाति की उन्नति तथा अवनति इतने धीरे-धीरे होती है कि वह होती हुई दिखायी नहीं देती । कुछ काल के अनन्तर जाना जाता है कि जाति क्या थी और क्या हो गई । जब कोई वृद्ध पुरुष अपनी युवावस्था और वृद्धावस्था का चित्र देखता है तो उसे आश्चर्य होता है कि मेरी दशा में कितना परिवर्तन हो गया है । प्राचीन भारतवर्ष की अवस्था से देश की वर्तमान अवस्था की तुलना की जाय तो बोध हो सकता है कि हमारी दशा में कैसा भयंकर परिवर्तन हो गया है । पर खेद का विषय है कि हम लोगों को जो शिक्षा मिलती है, उससे हमें अपनी प्राचीन दशा का बहुत कम ज्ञान होता है । हम लोग जीविका के लिए अंग्रेजी, या फारसी या दोनों पड़ते थे । इस कारण से कि संस्कृत और हिन्दी पढ़ना जीविका के लिए आवश्यक नहीं है, उनकी ओर हमारा ध्यान बहुत कम जाता है । मुसलमान लोग कुरान का पढ़ना अपना कर्तव्य समझते हैं । अच्छे घरों के मुसलमान अरबी, नहीं तो फारसी अवश्य पढ़े होते हैं और अरबी-फारसी के प्रचलित शब्दों को जानते हैं और उनको काम में लाते हैं । हिन्दुओं में जो पढ़े-लिखे भी हैं उनमें से बहुत से तो ऐसे हैं, जो संस्कृत तो दूर रही, हिन्दी भी नहीं जानते कि गोस्वामी तुलसीदास और महात्मा सूरदास के ग्रंथों को भली-भाँति पढ़ लें और समझ लें । ऐसी अवस्था में उनको प्राचीन-काल के भारत कि महिमा और ऋषियों-आचार्यों के विचारों को गम्भीरता और धर्म के तत्वों का गौरव कैसे विदित हो सकता है? वर्तमान समय में हम राजनीतिक, सामाजिक और धर्म-सम्बन्धी कारणों से कितने कष्ट झेल सकते हैं, उनका पूरी तरह से भी अनुमान नहीं कर सकते, क्योंकि उनको सहते रहने का हमारा स्वभाव हो गया है । यह मनुष्य की प्रकृति है कि दुःख को सहते-सहते दुःख दुसह नहीं रह जाता । कहा है:
निर्गुणस्य शरीरस्य एक एव महान गुणः । यां यामवस्थामाप्नोति तां तान्तु सहते क्रमात् ।।
अर्थात-इस निर्गुण शरीर का एक बड़ा सुख यह है कि वह जिस-जिस अवस्था को पहुँचता है, उस-उसकी वह क्रम से सह लेता है । हम लोगों को अपनी वर्तमान दशा ने जितना खिन्न और असंतुष्ट होना चाहिए, उतने हम नहीं हैं । हम लोगों को अपने धर्म का ज्ञान नहीं, हमको अपने पूरे-पूरे स्वत्व और अधिकार भी मालूम नहीं हैं, थोड़े से नेताओं को छोड़कर कोई उनको पाने का भी यत्न नहीं करते । यदि किसी से कोई अधिकार छीन लिया जाय तो वह उसको फिर से लेने का यत्न करेगा । हमारे अधिकार सैंकड़ों वर्षों से हमारे हाथ से जाते रहे और हमने अपनी आँखों में अपने पास अधिकार नहीं देखे । जो लोग 'कर' देते हैं उनका सब सभ्य देशों में अधिकार है कि वे अपने धन के व्यय के किये जाने के विषय में राय दे सकें और उसे अपने ही हित और लाभ के लिए व्यय करावें । पर हमारे देशवासी लोगों को, जो प्रतिवर्ष एक अरब से अधिक रुपया सरकार को देते हैं, कोई अधिकार नहीं है कि वे उस रुपये को अपने हित के लिए व्यय करावें । कांग्रेस बाईस वर्ष से इस बात की पुकार कर रही है कि गवर्नमेंट यह अधिकार हमारे देश के लोगों को दे । किन्तु हमारा यह विश्वास है कि जब तक सारा देश अपने अधिकारों को न जान जायगा और उनको पाने के लिए एक स्वर से अभिलाषा और उतकण्ठा न दिखावेगा, तब तक वह अधिकार हमको नहीं मिलेंगे । इसलिए हमारा पहला कर्तव्य है कि सर्वसाधारण को उनकी अवस्था का ज्ञान करावें, उनको उनके अधिकार बतलावें और उनमें अपने देश के हित के लिए इच्छा और उत्साह उत्पन्न करें । वर्ष या दो वर्ष में एक बार व्याख्यान सुना देने से लोग सदा के लिए नहीं जाग जायेंगे, हमारे देश का रोग नया नहीं है कि एक-आध तीव्र मात्रा से अच्छा हो जाय । उसका बल बढ़ाने के लिए कुछ काल तक मृदु औषधि का प्रयोग करना पड़ेगा । यह औषधि 'विद्या' है । सारे देश के लोगों को पण्डित बनाना कठिन है, पर सर्वसाधारण में दिशा का इतना प्रचार करना सर्वथा संभव और आवश्यक है कि अपने कर्म की मुख्य शिक्षाओं को पढ़ लें और पुस्तक-समाचारपत्रों आदि को पढ़कर अपने देश की दशा और अपने अधिकारों को जान लें । बड़ौदा राज्य में एक नियम बना दिया गया है जिससे लिखना पढ़ना बिना द्रव्य लिये सिखाया जायेगा और राज्य-भर के सब लड़के और लड़कियों को लिखना-पढ़ना अवश्य सीखना पड़ेगा । भूमण्डल की सभ्य जातियों के प्रायः सभी राज्यों में यह व्यवस्था हो गई है । इंग्लैंड, अमेरिका, जर्मनी, जापान आदि सब देशों में इस व्यवस्था के अनुसार काम हो रहा है । इस देश में भी इंग्लैंड का राज्य है । इसलिए गवर्नमेण्ट का कर्तव्य है कि यहाँ भी इस व्यवस्था का प्रचार करे । हमको उचित है कि हम इस बात का आन्दोलन करें कि गवर्नमेण्ट ऐसा ही नियम यहाँ भी बना दे । यदि गवर्नमेण्ट ऐसा न करे तो देश-हितैषियों का कर्तव्य है कि वे गाँव-गाँव और नगर-नगर में पाठशालाओं की स्थापना करने का प्रबन्ध करें । ब्रह्मा के देश में फुंगी लोग, जो कि एक प्रकार के सन्यासी होते हैं, प्रत्येक गाँव के मठ में उस गाँव के लड़के-लड़कियों को बुलाकर उनको लिखना पढ़ना सिखाते हैं और भिक्षावृत्ति से शरीर-यात्रा करते हैं । इसका परिणाम यह है कि ब्रह्मा देश में लिखे पढ़े लोग भारतवर्ष से सब प्रान्तों से अधिक हैं । भारतवर्ष में इसी प्रकार काम हो सकता है । विरक्त और सन्यासी इस देश में बहुत हैं । उनमें कुछ लोग ऐसे भी हैं जो पढ़ना-लिखना सिखा सकते हैं । देश हितकारियों को इस बात का प्रयत्न करना चाहिए कि साधुओं से लिखना पढ़ना सिखाने के काम में सहायता दें । गाँव वालों को प्रेरणा करें कि वे लिखें पढ़े साधुओं को अपने गाँवों में बसाने का प्रयत्न करें । लिखे पढ़े गृहस्थों का भी धर्म है कि अपने समय में से घण्टा-डेढ़ घण्टा नित्य बचाकर अपने पड़ोसियों को विद्यादान करें ।
जब लोगों को भली-भाँति लिखना-पढ़ना आ जायगा, तब वे रामायण, भागवत इत्यादि ग्रंथों के भाषानुवादों को पढ़कर भारतवर्ष की प्राचीन महिमा को जान सकेंगे और वर्तमान पुस्तकों और समाचारपत्रों से जान लेंगे कि हमारी अब कैसी दशा है । इससे उनको अपने देश की दशा में उचित परिवर्तन करने की प्रबल इच्छा उत्पन्न होगी और बुद्धिमान लोग देश की राजनैतिक, सामाजिक और अर्थ-सम्बन्धी दशा सुधारने के लिए जिन उपाथों का निश्चय करेंगे, उनमें सब लोग सहायक होंगे । काम, क्रोध, लोभ,मोह, मद, मात्सर्य से रहित विद्वान और परोपकारी पुरुष देश के कल्याण के लिए उपायों को सोचें और साधारण लोग उन उपायों को अमल में लाने में स-प्रयत्न करें, तो देश की दशा में स्पष्ट परिवर्तन हो सकता है । अभ्युदय की जो-जो सामग्री इस समय के समृद्ध देशों में है, वह इस देश में भी विद्यमान है । हमारे धर्म के उपदेश परम पवित्र और लोकोपकारी हैं । हमारे देश के लोगों में बुद्धि की तीव्रता का अभाव नहीं है । विद्याओं को पढ़ने में इंग्लैंड, जर्मनी, अमेरिका, जापान इत्यादि देशों के लोगों से यहाँ के लोगों की योग्यता कम नहीं है । कलाएँ यहाँ के लोगों को सिखायी जायँ तो उनको सीखने के लिए भी यहाँ के लोग समर्थ हैं । वाणिज्य के काम में भारतवर्ष के वणिक सदा से निपुण रहे हैं और इस समय, यद्यपि उनकी समृद्धि घट गई है तथापि यथोचित विद्या के अभ्यास से वाणिज्य का काम भली-भाँति कर सकते हैं । खेती के काम में भारतवासी जितने परिश्रमी और निपुण हैं, उससे अधिक अन्य देशों में थोड़े ही लोग पाये जायेंगे । यहाँ भूमि का अभाव नहीं, लकड़ी का नहीं, धातुओं का नहीं । ऐसी अवस्था में प्रजा पढ़ी-लिखी हो और प्रजा के प्रमुख विद्वान, बुद्धिमान, परोपकारी और स्वार्थ निरपेक्ष हों, तो कोई कारण नहीं है कि भारतवर्ष समृद्ध से समृद्ध देशों की समता न कर सके । इसके लिए देश भर में उपकारी विद्या का प्रचार ही आवश्यक है और इस विचार के लिए यत्न करना ही हमारा मुख्य कर्तव्य है ।
(ज्येष्ठ-कृष्ण ९, संवत १९६४) |