Speeches & Writings
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व्यवस्थापक कमीशन
व्यवस्थापक कमीशन (स्टेचुटरी कमीशन) पर ये लेख २४ तथा २७ नवम्बर, सन् १९२७ ई. को दिल्ली के ‘दि हिन्दुस्तान टाइम्स’ नामक अंग्रेजी पत्र में छपे थे। -सम्पादक
हमारी परीक्षा
स्वयं मनुज ही अपने बलपर अपना भाग्य–विधाता है।
आत्मज्योति से ही वह सच्चा महापुरुष बन जाता है।।
सब साधन, सारा भविष्य वह करतलगत कर लाता है। सत्त्वर ही या विलम्ब से कोई क्या कुछ पाता है? स्वयं हमारे भले बुरे ही कर्म हमें फल देते हैं। मूक भाव से सदा हमारी जीवन-नौका खेते हैं||
मेरे देशवासियों! ग्रेट ब्रिटेन-वासियों ने हमारे सामने अपनी ब्रिटिश कट्टरता का फिर एक बार परिचय दिया है। भारतीयों के व्यापक विचार तथा एकमत का निरादर करते हुए वहाँ के राजनीतिज्ञों ने भारतीय व्यवस्थापक कमीशन में एक भी भारतीय की नियुक्ति ऩहीं होने दी। लॉर्ड बर्केनहेड का यह कहना उपहासास्पद है कि यदि वे एक भी भारतीय की नियुक्ति करते तो उन्हें बीस और नियुक्त करने पड़ते और दलित वर्गों के प्रति उंनको सहानुभूति भी मिथ्या है। यदि वे ईमानदारी से किन्ही छ: भारतीय प्रतिनिधियों को चुन लेते तो सम्पूर्ण भारतीय प्रजा सन्तुष्ट हो जाती। दलितों के विषय में तो यह है कि जो सरकार आज तक उनके लिये प्रारम्भिक शिक्षा का भी प्रबन्ध नहीं कर सकी, उसके प्रतिनिधि का यह कहना कि वह बिना एक अछूत प्रतिनिधि को कमीशन में स्थान दिए किसी भी भारतीय को नियुक्त नहीं कर सकता, कितना निर्लज्जतापूर्ण पाखण्ड है! यदि वह वास्तव मेँ इस कमीशन में किसी दलित वर्ग के प्रतिनिधि को नियुक्ति चाहते थे तो ऐसा करने से उन्हें किसने रोका था? वास्तव मे
१. मैन इज़ हिज ओन स्टार, ऐण्ड दि सोल दैन कैन रेण्डर ऐन आँनेस्ट एण्ड ए पफेंक्ट मैन कमाण्ड्स ऑल इन्फ्ल्यून्स, ऑल फेट, नथिंग टु हिम कम्स अर्ली ऑर अू लेट अवर ऐक्ट्स अवर ऐंजिल्स आर, ऑर गुड ऑर इल अवर फैटल्स शैडोज दैन वाक बाई अस स्टिल किसी भी भारतीय को इस बात में विरोध न होता।
किन्तु, मेरे देश-भाइयो! अब हम लोगों की परीक्षा है। सारा संसार यह देखने के लिये उत्सुक होगा कि किस प्रकार भारतीय लोग ब्रिटिश जाति के इस नये निर्दयतापूर्ण अत्याचार से लोहा लेते है। इस अवसर पर हमें यहाँ दिखला देने की आवश्यकता है कि भारतीयों में भी यह क्षमता है कि वे ब्रिटिश कठोरता का सामना कर सकें। हमें भी चाहिए कि हम इस बात पर दृढ़ हो जायँ कि इस कमीशन के पास हम न फटकें। मातृभूमि की प्रतिष्ठा की रक्षा के लिये यह आवश्यक है कि हम लोग इस कमीशन के विरुद्ध संघटन करके सारे भारतवर्ष में इसका पूर्णतया विरोध करें। मैं आशा करता हूँ कि ऐसा करने में भारत के सभी लोग एकमत होंगे। परन्तु केवल यही करने से काम नहीं चलेगा। यहाँ सारे राष्ट्र का अपमान किया गया है। हम लोगों ने, सम्पूर्ण राष्ट्र ने ही यह अनुभव किया है। अतएव अपने सर्व पवित्र अथवा सर्वप्रिय के नाम पर हमें चाहिए कि आज ही प्रेतिज्ञा करें कि एक राष्ट्र बनकर रहेंगे और कार्य करेंगे।
हम लोगों ने ब्रिटिश जाति की इसलिये कड़ी समालोचना की है कि उन्होंने भारत के प्रति अपने कर्त्तव्य का पालन नहीं किया। परन्तु हमें यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि स्वयं हम लोगों का कितना भारी दोष है कि हम मातृभूमि के प्रति अपना कर्त्तव्य नहीं पालन करते। यह निर्विवाद है कि नियमानुकूल प्रत्येक देश अपनी योग्यता के अनुसार अपना राज्याधिकार पाता है। तो क्या हम लोगों ने अपनी माँग के अनुकूल अपने कर्त्तव्य का पालन अथवा उतना त्याग किया है?
काम चाहिए, बात नहीं
हम लोगों ने स्वराज्य के लिये अपने अधिकारों की बहुत बातें की हैं। हमने स्वराज्य अथवा पूर्ण उत्तरदायित्त्व राज्याधिकार के बारे में भी बहुत कहा सुना है। परन्तु एक वर्ष के असहयोग आन्दोलन को छोड़कर, जब कि महात्मा गाँधी तथा उनके अनुगामियों ने भारतीय जनता में स्वराज्य का भाव फैलाने के लिये कठिन परिश्रम किया था, क्या हम लोगों ने स्वराज्य – प्राप्ति के अपने उद्योग में उतने ही उत्साह और लगन से कम किया है ? हम लोगों में से कितनों ने जनता के ह्रदय में स्वतंत्रता के अखण्ड प्रेम का अंचार करने के लिये गत पचास वर्षों में अपने को पूर्णतया समर्पण कर दिया है? हमारे देश में महाराणा प्रताप, गुरु गोविन्द तथा शिवाजी की देशभक्ति तथा शूरता के ज्वलन्त उदाहरण वर्त्तमान हैं| यदि हमें वह याद नहीं आते तो हममें से बहुतों ने इंग्लैण्ड के प्रभावशाली साहित्य के अन्तर्गत वर्णित स्वंतत्रतारूपी सोते में भरपूर जलपान किया है। हमने उनेक स्वतंत्रता के छन्द गाए हैं तथा ह्रदय-ग्राही लेखों को पढ़ा है| इसके अतिरिक्त हमारे सम्मुख अंग्रेज़ जाती की उन्नति तथा उनके साहस के बहुत से ज्वलन्त प्रमाण हैं; जिन्होंने डेढ़ सौ वर्षों में अपने साहस के द्वारा एक निर्बल राष्ट्र से अपने को इतना शक्तिशाली राष्ट्र बनाया| उन्होंने एक ऐसे साम्राज्य का निर्माण किया, जिसमें सूर्य कभी अस्त नहीं होता, और जिन्होंने छ: हजार मील दूर अपने गृह – द्वीप में रहते हुए हम बत्तीस करोड़ भरतीयों पर अपना शासन स्थापित किया। हम लोगों ने बार-बार उन्हें प्रसन्न तथा गौरवयुक्त होकर यह गाते हुए सुना है कि -----
“हे ब्रिटेनिया राज्य करो, तुम लहरों पर शासन करती। ब्रिटेन जाति कभी किसी की, न दासता होगी करती”।।
हमने यह भी पढ़ा है कि फ्रांस, इंग्लैण्ड, जर्मनी, बेल्जियम आदि देशों की प्रजा ने अपना कितना अधिक बलिदान किया तथा त्याग दिखलाया। हमने जापान के वीरों का त्याग पढ़ा है, जिन्होंने अपने देश के गौरव की रक्षा के लिये कितनी नि:स्वार्थता का परिचय दिया है। परन्तु इन सब उदाहरणों से प्रभावित होते हुए भी हमलोगों में से ऐसे कितने हैं जिन्हें देश-प्रेम ने पागल बनाया हो? हममें से कितनों के मन में उत्कट देश-प्रेम, साहस तथा आत्मबलिदान के वे भाव भरे हैं जिन्होंने अंग्रेजों को इतना उन्नत बनाया है? कितनों का हृदय मेजिनी तथा गैरीबाल्डी के समान साहसी हैं? हम लोगो में से कितनों के मन में जापानियों, चीनियों, तुर्कों, मिश्रियों तथा आयरिशों जितना जोश है? हम लोग ब्रिटिश जाति की समानता की बात करते हैं। अवएव हमें चाहिए कि भारतीय शक्ति भी ब्रिटिश शक्ति की समानता कर सके, जिससे वे हमारा लोहा मानें। शारीरिक बल तथा साहस में, देशभक्ति तथा लोकसेवा में, उत्साह तथा आत्मत्याग में, एकता तथा संयम में, स्वातंत्र-प्रेम तथा उसके लिये युद्ध करने और प्राण न्यौछावर करने के लिये दृढ़ रहने में, हम भारतीयों को स्वातंत्र्य-प्राप्ति तथा उसकी रक्षा करने के लिये तथा अंग्रेजों की तरह उन्नति के मार्ग पर अग्रसर होने के लिये प्रत्येक दशा में अंग्रेजों के समान अवश्य बनना चाहिए।
प्रतिदिन अंग्रेजों की प्रभुता तथा अपनी दासता को देख कर अपने न्यायसिद्ध अधिकारों से वंचित रहने का प्रतिदिन अनुभव करके, अपने ही घर में अपना अपमान होते देखकर, हमें बहुत पहले ही यह चाहिए था कि हम अपने देश -प्रेम की भावना को जागरित करके इस प्रचलित शासन-प्रणाली को जड़ से उखाड़ कर देश में स्वराज्य स्थापित कर देते। परन्तु हम ऐसा न कर सके। हम अपने प्राचीन पुरुखों के पुरुषत्व को भूल गए हैं। जिस परिस्थिति में हमे रहना पड़ रहा है, उसने हमें एक स्वतंत्र मनुष्य के ह्रदय में उत्पन्न होने वाली बलवती चेतनता से वंचित रख छोड़ा है। यह ज्ञात होता है कि हमारी वर्त्तमान अवस्था से उत्पन्न लज्जा हमारे आत्मा में क्रान्ति नहीं करती। यह ज्ञात होता है कि परमेश्वर हमें इस पतनावस्था से उठाने के लिये बार-बार आदेश कर रहा है। जब रौलेट् एक्ट बनाया गया, जब कि जालियानवाले बाग का रक्त-काण्ड रचा गया, जब कि मार्शल लॉ का अत्याचार जारी किया गया, जब कि असहयोग-आन्दोलन के समय हमारे निहत्थे तथा निरीह हजारों भाइयों और बहनों को सरकार ने बन्दीगृह में ठूँस दिया, तब उसने हममें नवजीवन जागरित किया था। परन्तु यह सब कुछ होते हुए भी हममें स्थायी तथा दृढ़ स्वातंत्र्य-भाव का संचार नहीं हो सका। इनं सब बातों
१. ‘रूल ब्रिटेनिया, ब्रिटेनिया रूल्स दि वेव्ज, ब्रिटेन्स नैवर शैल बी स्लेव्स।’
के साथ ही यह वर्त्तमान वज्रपात हुआ है, जिसने राष्ट्र को फिर अपनी दीन तथा तिरस्कृत अवस्था का परिचय कराने के लिये जागरित कर दिया है। मेरे देशवासियो! यह दैवी वज्रपात है, और मेरी आप लोगों से यही विनती है कि आप इससे शिक्षा लें। कोई भी राष्ट्र तब तक स्वतंत्रता नहीं प्राप्त कर सकता जब तक उसमें एकता न हो। हम लोग एक राष्ट्र में तभी गुंथ सकते हैं जब हम देश-प्रेम को अपना राजनीतिक धर्म मान लें। ईश्वर तथा मानव जाति के लिये हमें ऐसा करने की प्रतिज्ञा कर लेनी चाहिए। हमें चाहिए कि मातृभूमि तथा देशवासियों के प्रति यह प्रतिज्ञा कर लें कि वे देशभाइयों के साथ, जाति -पाँति का भेद-भाव छोड़कर अपने ही सदृश उनके जीवन, उनकी प्रतिष्ठा तथा स्वतंत्रता का आदर करेंगे, और व्यक्तिगत तथा जातिगत स्वार्थ के लिये देश के स्वार्थ का बलिदान नहीं करेंगे। स्वतंत्रता देवी के सच्चे पुजारी बन जाओ, और मातृभूमि को स्वतंत्र बनाने के लिये अपने को मनसा, वाचा तथा कर्मणा, हर प्रकार स्वतंत्र पुरुष और स्वतंत्र स्त्री समझो। मैं सोचता हूँ कि हमारे देश में एक नया युग आरम्भ हुआ है। मैं यह अनुभव करता हूँ कि यदि हम अपने कर्त्तव्य का ध्यान करें तथा उसका पालन करें तो बहुत शीघ्र ही हम लोग अपना राज्य-प्रबन्ध करने लगेंगे।
मुझे दु:ख के साथ कहना पड़ता है कि अंग्रेज राजनीतिज्ञों के वचनों पर से मेरा विश्वास उठ गया है। जिस नीति का आचरण वे आज़ तक करते आ रहे हैं, और मुख्यत: उनके जो आचरण सेना को भारतीय करने तथा इस व्यवस्था पर कमीशन के विषय में हो रहे हैं, उससे तो मेरे हृदय में यही भाव दृढ़ हो गया है कि वे भारत में स्वराज्य स्थापित करने के दिन को जहाँ तक हो सकता है, टालते चले जाने के लिये कमर कसे हुए हैं। मेरा विश्वास है कि भारत में इस शासन-प्रणाली को जारी रखने का साफ अर्थ भारतीय प्रजा के साथ अविरत अन्याय करना है। मैं समझता हूँ कि प्रत्येक भारतीय का यह कर्त्तव्य है कि वह दृढ़प्रतिज्ञ होकर जितना शीघ्र हो सके इस शासन-प्रणाली का अन्त कर देने के लिये प्राण-प्रण से तैयार हो जाय। इसके लिये मैं निम्नांकित व्यावहारिक उपाय बताता हूँ।
मैं यह प्रस्ताव करता हूँ कि सब दलों के पच्चीस पूर्ण विश्वासपात्र भारतीयों की एक सभा प्रयाग या किसी अन्य केन्द्रीय स्थान में हो, जो इस बात में एकमत हों कि वे भारत में स्वराज्य-स्थापन के कार्य में महान् उद्योग करेंगे तथा मातृभूमि के प्रति तथा एक दूसरे के प्रति सच्चे रहेंगे। वे सब मिलकर यह निर्णय करें कि इस विषय में राष्ट्र को किस पथ का अवलम्बन करना चाहिए। मैं सोचता हूँ कि—
१ . हम लोग सर्वप्रथम यह घोषणा करें कि भारतीय जनता का यह संयुक्त विचार है कि सन् १९३० ई. के जनवरी मास में भारत में पूर्ण स्वराज्य स्थापित हो जायगा।
२ . ये पच्चीस प्रमुख व्यक्ति इस बात को तै करें कि काँग्रेस के नियमों में किन-किन परिवर्त्तनों की आवश्यकता है, जिससे वह उपरोक्त उद्देश्य की प्राप्ति के लिये ३१८३३ सुन्दर प्रतिनिधिपूर्ण राष्ट्रीय-संघ बन सके।
३. सभी दलों और विचारों के प्रतिनिधि उपर्युक्त द्वितीय उदेश्य की पूर्त्ति के लिये मद्रास की काँग्रेस में उपस्थित हों।
४. प्रत्येक भारतीय व्यवस्थापिका सभा का प्रत्येक निर्वाचित सदस्य काँग्रेस का सदस्य स्वीकार किया जाय।
५. इस नवनिर्मित काँग्रेस का एक विशेष अधिवेशन फरवरी मास में दिल्ली में नित्य एक पखवाड़े या इससे कुछ अधिक दिनों तक होता रहेगा-----
(अ) जिसमें भरतीय ब्रिटिश-शासन के प्रत्येक मुख्य पहलू की जाँच की जाय तथा यह बताया जाय कि किन-किन विषयों में कहाँ तक यह भारतीय जनता के आर्थिक तथा नैतिक उत्थान में असफल रही,
(आ) जिसमें पूर्ण स्वराज्य-प्राप्ति के उपयुक्त शासन प्रणाली के लिये विधान बनाने पर विचार किया जाय तथा उसको स्वीकार किया जाय,
(इ) जिसमें यह बात तै की जाय कि इस प्रकार सर्वस्वीकृत राज्य-विधान पर ब्रिटिश पार्लियामेण्ट की स्वीकृति लेने तथा आवश्यक राज-नियम बनने के लिये एक प्रतिनिधि-समूह की ओर से उसे उपस्थिति किया जाय और यह प्रतिनिधि-समाज ब्रिटिश पार्लियामेण्ट तथा अंग्रेज जनता को यह सुचना दे दे कि यदि वे काँग्रेस द्वारा प्रस्तावित राज्य-व्यवस्था को पूर्णत: अथवा परस्पर निर्णीत परिवर्त्तनों के साथ सन् १९२९ ई. के अन्त तक स्वीकार नहीं करती तो काँग्रेस को बाध्य होकर भारतीय जनता को यह आदेश देना पड़ेगा कि वह असहयोग का चरमस्वरूप धारण करे, अर्थात् करों का देना बन्द कर दें तथा ब्रिटिश वस्तुओं के पूर्णत: बहिष्कार करने का आन्दोलन करे,
(ई) जिसमें एक भारतीय नागरिक समाज स्थापित करने का निर्णय हो, जिससे प्रत्येक गाँव तथा नगर में नागरिकता की शिक्षा देने की एक स्थायी प्रणाली का आयोजन किया जाय, जिसका एक आवश्यक अंग जनता में शारीरिक व्यायाम की शिक्षा का विस्तार हो; तथा उन्हें प्रत्येक स्वतंत्र राष्ट्र में प्राप्त नागरिकता के प्रथम अधिकार, शस्त्र धारण करने तथा उनका प्रयोग करने का अधिकार दिया जाय। इस विद्या का ज्ञान उनको इसलिये आवश्यक है कि वे अपने व्यक्तिगत अधिकारों की रक्षा कर सकें तथा मातृभूमि की रक्षा के समय अपने पौरुष को दिखलाने के लिये प्रस्तुत रहें। यह हमें सैनिक शिक्षा के उस मार्ग पर अग्रसर करेगी, जिसकी आवश्यकता सेना के भारतीयकरण के लिये है। इस समाज का यह कर्त्तव्य होगा कि वह प्रत्येक भारतीय में यह भावना भरे कि वह अपने को भारतीय साम्राज्य का एक स्वतंत्र नागरिक समझे। यदि इस प्रस्ताव का समर्थन और इसकी स्वीकृति हुई तो हम लोग सन् १९२८ ई. के जून के अन्त तक इस समाज में बीस लाख सदस्यों को भर्त्ती कर लेंगे।
(उ) नवनिर्मित काँग्रेस की कार्यकारिणी समिति में पूर्ण विश्वसनीय भारतीय नेता हों, जो आगामी दो वर्षों तक अपने सभी अन्य कार्यों को छोड़कर, देश को स्वराज्य-प्राप्ति के लिये प्रस्तुत होने के लिये अपना तन, मन तथा धन लगा देने की शिक्षा दें। मेरा प्रस्ताव है कि व्यवस्थापिका सभाओं के सभी निर्वाचित सदस्य बड़ी तथा छोटी व्यवस्थापिका सभाओं में तभी जायँ जब उसका स्थान खाली न होने की नौबत आवे अथवा जब किसी भारतीय हित की रक्षा अथवा उसकी उन्नति करनी हो और वे अपनी शक्ति तथा अपना समय इसमें लगावें कि वे वर्त्तमान मतदाताओं तथा सामान्य जनता को स्वराज्य-प्राप्ति के उद्योग के लिये प्रस्तुत हो जाने की शिक्षा दें। बड़ी तथा छोटी व्यवस्थापिका सभाओं के कार्यों के अध्ययन से मुझे विश्वास हो गया है कि यदि आगामी दो वर्षों तक हम इन सभाओं की बैठक में उपस्थित नहीं होते तो इससे जो हानि होगी, वह उस लाभ के सामने तुच्छ होगी, जो सभी नेताओं के उन सभाओं से अनुपस्थित रहकर देश में स्वराज्य प्राप्ति के भाव की शिक्षा देने से होगा। यह नवनिर्मित काँग्रेस, जिसमें सभी व्यवस्थापक सभाओं के निर्वाचित सदस्य शामिल रहेंगे, प्रति तीन मास के बाद, अथवा जैसा तै हो, आगामी दो वर्षों तक अपनी बैठक करती रहेगी। हम लोगों का यह लक्ष्य होना चाहिए कि सन् ९९३० ई. में भारतीय पार्लियामेण्ट बन जाय और उसमें सभी वर्त्तमान प्रान्तीय तथा राष्ट्रीय या ऐसे ही अन्य दलों से जैसा भी तै हो, निर्वाचित सदस्य लिये जायँ। कांग्रेस की यह तिमाही बैठक इसलिये हो कि वह इस नवनिर्मित भारतीय पार्लियामेण्ट की उपयुक्तता को जाँच करे। इन तिमाही बैठकों द्वारा हमें स्वराज्य स्थापित हो जाने पर उसके राज्यप्रबन्ध-विषयक भिन्न-भिन्न अंगों में आवश्यक विधान बनाने में सहायता होगी। मैं यह अनुभव करता हूँ कि देश को लगान देना बन्द करने तथा ब्रिटिश वस्तुओं का बहिष्कार करने का आदेश देने के सुझाव में कुछ लोगों से मतभेद होगा। यह कहा जा सकता है कि ये केवल धमकियाँ समझीं जायेंगी, तथा पार्लियामेण्ट को अपने प्रस्तावों पर राजी करने के बदले इससे अंग्रेज राजनीतिज्ञ भड़क उठेंगे। बहुत समय तक सोच-विचार कर मैने इन उदेश्यों के हानि-लाभ पर अपने विचारों को तैाला है। परन्तु मुझे विश्वास है कि ब्रिटिश प्रजा भी भारत में हमारे पूर्ण स्वराज्य स्थापन करने के उद्देश्य का समर्थन तबतक नहीं कर सकती, जबतक कि हम यह साबित न कर दें कि हम लोग अपनी माँग के लिये प्राण-प्रण से उद्यत है, तथा हम लोग इस बात के लिये प्रस्तुत हैं कि इसकी प्राप्ति के लिये हम अपना सब कुछ न्यौछावर कर देंगे।
मेरे देशवासियों! मैंने अपना कार्य कर दिया। मैं अन्त में आप से यह कह देना चाहता हूँ कि मैं अपने सामने संयुक्त तथा स्वतंत्र भारत को अपूर्व रूप से शक्ति तथा सम्पन्नता की ओर अग्रसर होते हुए देख रहा हूँ। मैं ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि आप लोगों में से सभी उस दृश्य को देख सकें और उसके अनुभव के लिये सभी एक राष्ट्रीय उद्योग में संलग्न हो जायँ। यदि हम लोग एक हो जायँ तो हमारी सफलता अवश्यम्भावी है। अपने में रथायी एकता स्थापित करने के लिये हमें देशभक्ति की अग्नि में अपने को तपाना चाहिए तथा इसे अपना राजनीतिक धर्म मान लेना चाहिए। यदि हम अपने देशवासियों के प्रति सत्य सेवा का प्रण करते हैं तो हमें दुसरों के धर्म, जीवन, स्वतंत्रता तथा प्रतिष्ठा का वैसा ही ध्यान रखना चाहिए, जैसा हम अपने लिये दुसरों से चाहते हैं। यदि हम परस्पर प्रेम से रहने का निश्चय कर लें तो द्वेष यहाँ से भाग जायगा और देशभर में एकता तथा सद्भाव का विस्तार हो जायगा। हमारा विस्तृत तथा महिमाशाली देश अपने देश के बच्चों के लिये पर्याप्त भोजन, आनन्द तथा उन्नत होने के सभी साधनों से पूर्ण है। यदि हम देश में स्वराज्य स्थापित कर लें, और विदेशी शासन के इतने अधिक व्यय से बच जायँ, तो अपने देश की समृद्धि तथा सुख की हम लोग अवर्णनीय उन्नति कर लेंगे। मैं आप सबको निमंत्रित करता हूँ कि आप इस उद्योग में इस विश्वास तथा प्रार्थना के हाथ बटावें कि यदि हम ऐसा करेंगे, तो सर्वशक्तिमान् परमात्मा हमारे देश में सारे संसार को चकित करने वाला एक गौरवयुक्त परिवर्त्तन करने में हमारी सहायता करेगा।
“रुको न क्षणभर, रुकने वाला कभी न करते ऊँचे काम, दत्तचित्तता और जगत–हित-रत रहना निश्चित सुखधाम। इसी भाव की मधुर प्रेरणा सदा हमें उन्नत करती, शून्य गगन के विकल अनिल से ला संगीत ह्रदय हरती।।”
ब्रिटिश भाइयों से मेरी अभ्यर्थना
कोई पन्द्रह दिन हुए वाइसराय महोदय ने मुझसे कृपा व्यवस्थापक कमीशन का ध्येय बताया था। मैंने उनसे यह कहा कि इसमें भारतीयों की नियुक्ति न होना सारे भारतवर्ष के लिये एक अप्रतिष्ठा की बात होगी, तथा बहुसंख्यक बुद्धिमान भारतीय उसे उसी निगाह से देखेंगे, और इस कमीशन से उन्हें कोई सरोकार नहीं रह जायगा।
स्वभावत: मुझे यह देखकर बहुत ही प्रसन्नता हुई कि हमारे देशवासी अधिकतर उसी विचार से सहमत हैं, तथा पूर्ण एकता के साथ कमीशन का बहिष्कार करने को तैयार हैं। लॉर्ड बर्केन्हेड ने भारतीय नेताओं से यह अभ्यर्थना की है कि वे कमीशन के प्रति तब तक विरोध न करें जबतक वे कम-से-कम सरकार से निर्धारित
१. लेट नो मैंन फाल्टर, नो ग्रेट डीड इस इन वाइ फाल्टरर्रस हू ऑस्क फॉर सर्टेण्टी, नो गुड इस सर्टेन, बट द स्टीडफास्ट माइण्ड द अनडिवाइडेड विल टू सिक द गुड दिस दैट कम्पेल्स द एलिमेण्ट्स, एण्ड रिंग्स ऐ ह्यूमन म्यूजिक फ्राम द इण्डिफरेण्ट एयर मार्ग के विषय में पार्लियामेण्ट का उत्तर न सुन लें, जिसकी सरकार ने सिफारिश की है। उन्हें पहले यह सोचना था कि जब इंग्लैण्ड तथा भारत की सरकार ने मिलकर तथा अच्छी प्रकार सोचकर एक प्रस्ताव को एक ही साथ दोनों देशों में छपने के लिये तैयार किया तो उन्होंने इस प्रश्न का उत्तर देने के लिये पर्याप्त प्रमाण दिए होंगे कि इस कमीशन से भारतीयों की नियुक्ति में उन्हें कौन-कौन सी रुकावटें पड़ीं। इसमें यह भी सोचने की आवश्यकता है कि यदि उस प्रस्ताव में किसी अन्य कारणों का समावेश करना होता तो बुद्धिमान भारत-सचिव तथा दूसरे ब्रिटिश सरकार के सदस्य अथवा जनता का कोई व्यक्ति, जिन्होंने इस विषय पर अपनी राय दी है, भारतीय जनता की उनसे जानकारी करने के लिये, उन्हें प्रकाशित करते। इसलिये मैं कभी भी यह आशा नहीं करता कि २५ तारीख को साधारण सभा में होने वाली बहस में, किसी नये मुख्य विचार की योजना की जायगी। सरकार की कार्रवाई के समर्थन में सब कुछ कही हुई बातों पर अच्छी प्रकार से विचार करने पर, मुझे दुःख के साथ कहना पड़ता है कि ब्रिटिश सरकार भारत के प्रति इससे बढ़कर तिरस्कार तथा इससे तुच्छ कोई निरादर नहीं कर सकती। मैं अपने सम्पूर्ण सार्वजनिक प्रश्नों के अध्ययन काल में, किसी भी इंग्लैण्ड तथा भारत की सरकार से प्रकाशित ऐसे किसी-लेख पत्र को स्मरण नहीं कर सकता, जो इससे बढ़कर शक्तिहीन निवेदनीय कार्रवाई के बिषय में हो, तथा जिसकी रक्षा का भार उसके लेखक स्वयं अपने ऊपर आवश्यक समझते हों, जैसा कि हमारे लार्ड इरविन महोदय के हस्ताक्षर के ऊपर इस प्रकाशित प्रस्ताव का हुआ है।
आत्म-विश्वास
प्रस्तावित योजना में कहा गया है कि “कमीशन का कार्य-भार साधारण नहीं होगा। व्यवस्था नियमावली के शब्दों में, इस कमीशन को यह अधिकार दिया जायगा कि वह सरकार की प्रचलित-शासन प्रणाली, शिक्षा की उन्नति तथा प्रतिनिधि स्रत्तात्मक संस्थाओं का ब्रिटिश भारत में विकास तथा उनसे सम्बन्ध रखने वाली बातों की पूर्ण समीक्षा करे, और यह कमीशन इस बात की रिपोर्ट करेगा कि भारतवर्ष में क्या और कहाँ तक उत्तरदायित्वपूर्ण राज्य की स्थापना करने की आवश्यकता है; तथा वर्त्तमान दायित्त्वपूर्ण शासन में कहाँ तक वृद्धि, सुधार तथा रुकावट की आवश्यकता है; और उसी के साथ-साथ इस बात की भी रिपोर्ट करेगी कि प्रान्तीय व्यवस्थापिका सभा के राज्यपरिषद् की स्यापना की आवश्यकता है या नहीं।" इससे पता चलता है कि चूँकि यह जाँच, “सम्पूर्ण तथा आवश्यक विषयों पर पूर्णत: विचार करने के लिये है, अवएव यह व्यापक तथा निर्वाधित होगा”। बात बिल्कुल सत्य है। परन्तु वे कौन लोग हैं जो इन जाँच के विषयों से पूर्ण जानकारी रखते हैं, और जो ब्रिटिश पार्लियामेण्ट के विचार के लिये उन विषयों को अच्छी तरह बतला सकते हैं? वे कौन लोग हैं जो अनुभव से यह बता सकते हैं कि सरकार की शासन-प्रणाली कहाँ तक सफल हुई है, तथा इसकी सफलता उत्तम रीति से क्यों नहीं हुई? वे कौन लोरा हैं जो यह कह सकते हैं कि कितनी उन्नति हुई अथवा और अधिक क्यों नहीं हुई? वे कौन लोग हैं जिनका भारत के भावी शासन -विधान में अधिक स्वार्थ है? यह प्रकट है, वे हम भारतीय ही हैं, और फिर भी हम लोग कमीशन से बहिष्कृत किए गए हैं | अंग्रेज लोग यह जानते हैं कि यदि उनका कोई देश–भाई कोई जुर्म करता है तो उसका न्याय उनके बारह–प्रमुख व्यक्तियों द्वारा होता है। अंग्रेजी पार्लियामेंट के पिता साइमन डी. मौन्टफोर्ट के समय से ही कवियों ने गाया है कि, “राष्ट्र की सर्वसाधारण जनता ही किसी विषय पर सम्मति दे, और यह रीति हो कि जनता जो अपने कानूनों से भलीभाँति परिचित है, उस विषय पर अपना मत क्या प्रगट करती है? कनूनों को वे लोग सबसे बढ़कर समझते हैं, जो उन कानूनों के द्वारा शासित होते हैं, और जो नित्य उनका व्यवहार करते हैं, उन्हें कानूनों का अच्छा ज्ञान होता है। और यह उनके स्वत्त्वों का प्रश्न है, इसलिये वे अधिक सावधानी से ध्यान देंगे तथा अपने कल्याण का ध्यान रखकर कार्य कर सकेंगे।” परन्तु इन सब सिद्धान्तों को हवा में उड़ाकर, ब्रिटिश सरकार ने इस “व्यापक तथा निर्बाधित जाँच” का भार, जिस पर भारत का भविष्य निर्भर है, सात अपरिचित विदेशियों के हाथ में दे दिया है। इसमें कुछ भी सन्देह नहीं कि सातों सम्माननीय व्यक्ति हैं, जिनकी सबसे बड़ी योग्यता तो यही जान पड़ती है कि उनका भारतवर्ष से कोई सम्बन्ध नहीं रहा है, और कहा जाता है कि वे बिना किसी ऐसे भारतीय का सहयोग प्राप्त किए भी उन विषयों का ज्ञान रखते हैं, जो उन्हें भारत के विषय में पूर्ण ज्ञान करावे तथा उनको इन व्यक्तियों और वर्गों के बहकावे में पड़ने से बचावे, जो भारत में जनता का, जनता के लिये और जनता द्वारा होने वाले शासन की स्थापता में देर कराना चाहते हैं। भारतवासियों का बहिष्कार इस आधार पर किया गया है कि "भारतीय सदस्य, भारत में स्वराज्य-स्थापना की अपनी स्वाभाविक तथा न्यायसिद्ध इच्छाओं के कारण, यह समझने में भ्रम कर जायेंगे कि भारत की वर्त्तमान शक्ति, अथवा योग्यता स्वराज्य के उत्तरदायित्त्व संभालने के लिये पर्याप्त है या नहीं।" भारतीयों को कमीशन से बहिष्कृत रखने का विचार निश्चित करके, यहाँ के अपने व्यक्तिगत अनुभव द्वारा शासन–प्रणाली की सफलता तथा शिक्षा की उन्नति के मत दे सकतें वाले सरकारी अफसरों को भी सरकार ने इस कारण बहिष्कृत कर रक्खा कि, “विचारणीय विषय से अधिक घनिष्टता होने के कारण, वे भी अपना निष्पक्ष विचार नहीं प्रगट कर सकते।"
झूठा तर्क
प्रथम तो उपर्युक्त दोनों दशाओं में यह तर्क तभी मान्य होता जब कि कमीशन में केवल भारतीय अथवा ब्रिटिश अफसर ही सदस्य होते। वे भारतीयों तथा सरकारी अफसरों के एक सम्मिलित कमीशन की नियुक्ति के विरोध में कोई तर्क नहीं देते। दुसरे, यद्यपि सिद्धान्तत: यह अवश्य उचित है कि कमीशन के सदस्य निष्पक्षता, तथा स्वतंत्रता से विचार करें, तथापि क्या यह व्यावहारिक राजनीतिज्ञता होगी कि इस प्रकार की परीक्षा पर तुल जायँ? क्या प्राय: कमिशनों तथा समितियों में ऐसे व्यक्तियों की नियुक्ति केवल इसीलिये नहीं होती कि वे भिन्न-भिन्न हितों को उपस्थित कर सकें? ‘दि इण्डियन सैण्ढस्टॅ कमेटी’ तथा “रॉयल कमीशन ऑन करेन्सी ऐण्ड एक्सचेंज’ ये दो इसके तत्कालिक उदाहरण है। लॉर्ड इरविन ने ठीक कहा है कि सत्य का ज्ञान तभी होता है जब मतभेद होता है और विचारों में टक्कर लगती है। क्या अच्छा होता यदि इसी सत्य के आधार पर सरकार कमीशन में प्रमुख दलों के प्रतिनिधियों को नियुक्त करती।
यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि कमीशन को पूर्ण अधिकार नहीं प्राप्त हैं। भारत के भविष्य शासन-विधान का निर्माण इसके हाथ में नहीं है। यह कमीशन केवल इतना ही सूचित करेगा कि भारत के लिये कहाँ और किस हद तक उत्तरदायित्त्वपूर्ण शासन की-स्थापना होनी चाहिए, अथवा वर्त्तमान प्राप्त अधिकारों में किस अंश तक बृद्धि, सुधार अथवा रुकावट की आवश्यकता है। प्रकाशित प्रस्तावना से यह स्पष्ट हो जाता है कि जब कमीशन अपनी रिपोर्ट दे चुकेगी ओर जब भारत-सरकाऱ तथा सम्राट् की सरकार उसकी जाँच कर लेगी तब वह उसको पार्लियामेण्ट में पेश करेगा और पार्लियामेण्ट की दोनों सभाओं की एक संयुक्त समिति के सामने इस प्रस्ताव को रक्खेगा। पऱन्तु अन्तिम निर्णय पार्लियामेण्ट ही करेगी। इन बातों के कारण भास्तीयों को, इस कमीशन की सदस्यता से बहिष्कृत रखना, ब्रिटिश सरकार की अक्षम्य मूर्खता तथा अन्याय है।
निरर्थक सहयोग
भारतीय मत जानने के लिए यह नियम बनाया गया है कि कमीशन बड़ी व्यवस्थापिका सभा को इसीलिये निमंत्रित करे की वह निर्वाचित तथा मनोनीत गैर सरकारी सदस्यों की एक सम्मिलित निर्वाचित–समिति बानवे जो अपने विचारों तथा प्रस्तावों को कमीशन द्वारा निर्धारित विधि से लिखित रूप में उसके सामने जाँच के लिये रक्खे। इसी नियम का अनुकरण प्रान्तीय व्यवस्थापिका सभा को भी करना पड़ेगा| इसके साथ यह नियम भी बनाया गया है कि पार्लियामेण्ट की संयुक्त समिति अन्य समितियों सहित भारतीय बड़ी व्यवस्थापिका सभा को प्रतिनिधित्त्व के द्वारा अपने विचारों को इस समिति के समक्ष प्रकट करने के लिये निमंत्रित करेगी| ये सामयिक परिस्थिति की आवश्यकताओं की पूर्त्ति नहीं कर सकते| हम लोग केवल यही नहीं चाहते कि आपने सिद्धान्तों को कमीशन अथवा संयुक्त समिति के सामने रक्खें, किन्तु हम लोग यह जानना तथा इसकी परीक्षा करना चाहते हैं कि हमारी आवश्यकताओं तथा माँगों के विरुद्ध क्या कहा जा रहा है| साथ ही हम राष्ट्रीय दृष्टि से, कमीशन में विचारणीय विषयों पर अपना मत प्रकट करना चाहते हैं| यह कहने की आवश्यकता नहीं कि इंग्लैण्ड तथा भारत में ऐन्गलो –इण्डियनों तथा अन्य अभारतीय मत वालों का एक शक्तिशाली तथा संघटित दल है जो ब्रिटिश जनता तथा सभ्य संसार की दृष्टि में बहुत बुरी तरह से हमें गिराने का प्रयत्न कर रही है| यदि कुछ भारतीय, जो अपने देश-वासियों के विश्वासपात्र है, कमीशन के सदस्य बनाए जाते तो उनकी उपस्थिति इस प्रकार के दलों द्वारा हमारे विरुद्ध प्रकट किए जाने वाले असम्बद्ध विचारों के लिये एक रोक होती। और यदि वे ऐसे विचार प्रकट भी करते तो भारतीय सदस्य गवाहों से जिरह करके या अन्य प्रकार से भेद खोल देने में समर्थ होते। केवल कमीशन के सामने अपने विचारों को प्रकट कर देने की आज्ञा मिल जाने से हमें वह अधिकार नहीं प्राप्त होता जो अधिकार इस कमीशन के सदस्य की हैसियत से प्राप्त होता। तब हम अपने विरुद्ध प्रकट किए गए विचारों की वास्तविकता की जाँच कर सकते तथा उनकी यथोचित आलोचना कर सकते, और इस विचार के सम्बन्ध में भारतीय मत की भलीभाँति व्याख्या कर सकते।
अपमान
इन आपत्तियों के अतिरिक्त, कमीशन से भारतीयों को बहिष्कृत रखने के कारण, हमारे देशवासी सर्वगत अपमान तथा दु:ख का अनुभव कर रहे हैं, क्योंकि यह इस क्रूर बात का स्मरण दिलाने वाला भी है। हमारे ब्रिटिश-प्रजा-बन्धु भी अपनी नीति द्वारा हमें शक्तिहीन बनाकर, यह लाभ भी उठाना चाहते हैं कि वे हमें अपना प्रजा-बन्धु भी नहीं समझते और हमारे ही देश में तथा हमारे घरेलू कार्यो के विषय में भी हमारे साथ वैसी समता का व्यवहार करने के लिये वे प्रस्तुत नहीं हैं। यह सोचकर दु:ख होता है कि हमारे साथ उनका जो वर्त्तमान व्यवहार है, तथा महासमर के समय उनका जो व्यवहार था, उसमें कितना अन्तर हो गया है। जब महासमर प्रारम्भ हुआ, तो देशी नरेशों और भारत की प्रजा ने जो कुछ किया उसका वर्णन सम्राट् इस प्रकार करते हैं, “साम्राज्य के लिये उन्होंने अपने जीवन तथा निधि का महा व्यय किया।" उस समय हमारा स्वागत “साम्राज्य के भाग्य और हित के संयुक्त तथा समान संरक्षक" कहकर किया गया था। इंग्लैण्ड के तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीयुत एस्किवथ ने कहा था, “हम लोग धन्यवाद तथा प्रेम के साथ जाति और वर्ग का भेद न रखकर साम्राज्य के लिये दी हुई भारतीय सहायता का स्वागत करते हैं। साम्राज्य के भीतर सम्राट् की सभी बराबर हैं, तथा सार्वजनिक हित एवं भाग्य की संयुक्त तथा समान संरक्षिका हैं। हम निजी और साम्राज्य की सेना के साथ उनके कन्धे-से-कन्धा मिलाए हुए, एक ही पताका के नीचे, गम्भीरता तथा हार्दिक कृतज्ञता के साथ उनका स्वागत करते हैं, जो पताका इस बात का प्रतीक है कि सारा संसार लड़ने के लिये इस सेना से सामना करके भी इसे विच्छिन्न और विश्रान्त नहीं कर सकता। श्रीयुत बोनर लॉ ने कहा था, “मैं नहीं कह सकता कि हम पूर्णतया इस बात का विचार करते हैं कि इन भारतीयों ने, जो हमारे सैनिकों के साथ लडे तथा मरे हैं, इन कठिन दिनों में हमारी कितनी सहायता की है|” लॉर्ड हाल्ड ने कहा था कि, “भारतीय सैनिक ह्म लोगों की स्वतंत्रता के साथ-साथ मनुष्यत्त्व की रक्षा के लिये अपने प्राण तथा धन का मुक्तहस्त से वितरण किया है। अतएव उनकी दशा वैसी नहीं रहनी चाहिए जैसी अबतक रही है |” श्री लॉयड ज्यॉर्ज ने कहा था कि, “सम्राज्यान्तर्गत राष्ट्रों तथा भारत की सहायता अद्भुत थी। जो सहायता उन्होंने हमारे दुर्दिनों में की, वह अमूल्य हैं।" लॉर्ड कर्जन ने कहा था कि, “भारतीय समुद्री-सेना फ्रांस ठीक समय पर पहुँची तथा इसने मित्र राष्ट्रों तथा सभ्य संसार दोनों की रक्षा में सहायता पहुँचाई।" तथा, “इस सेवा का महत्त्व तथा रूप कभी भी भुलाया नहीं जा सकता।" श्रीयुत लॉयड ज्यॉर्ज ने एक दूसरे अवसर पर कहा था कि, “अब भारत को देखिए, किस शूरता तथा किस राजभक्ति के साथ इसने ब्रिटिश सेनाओं की सहायता की है। उनकी यह सारपूर्ण और दृढ़ सहायता जो उन्होंने हमारे इस संकट के समय में की है, उस समय भुलाई नहीं जा सकती जब कि लड़ाई समाप्त हो जाती है और भारत-सम्बन्धी प्रश्नों पर विचार करने का समय आता है।" महासमर के अन्त में लॉंयड ज्यॉर्ज ने कहा, “ब्रिटिशवासियो! आप इस बात की प्रसन्नता प्रकट कर सकते हैं कि मित्र-संघ, उपनिवेशों तथा भारत की सहायता से आपने एक भव्य विजय प्राप्त की है। संसार के इतिहास में स्वतंत्रता के लिये यह एक अपूर्व विजय है।" आगे चलकर फिर इंग्लैण्ड के उसी उद्भट उन्नायक ने कहा, “इन नवीन राष्ट्रों तथा उपनिवेशों ने बड़ी वीरता से युद्ध किया और बहुत आर्थिक सहायता दी और उपनिवेश-परिषद् में अपना स्थान प्राप्त किया। उनके विषय में जो सत्य है वही भारत-साम्राज्य के लिये भी उपयुक्त है, जिसने इन प्रशंसनीय विजयों को, अपनी आर्थिक तथा सैनिक सहायता से प्राप्त की, जिनसे हमारे दुश्मनों का मान-मर्दन आरम्भ हुआ। भारत की आवश्यकताओं को अवहेलना उस समय नहीं होनी चाहिए, जब शान्ति-सम्मेलन को सफलता प्राप्त होती है। हम लोगों ने चार वर्ष तक भ्रातृभाव का निर्वाह किया है, उसका अन्त यहीं नहीं हो जाना चाहिए।"
विस्मृत प्रतिज्ञाएँ
परन्तु प्रतीत यह होता है कि इसका अन्त वहीं हो गया। यद्यपि ब्रिटिश पार्लियामेण्ट ने यह घोषणा कर दी कि ब्रिटिश नीति का लक्ष्य, भारत में पूर्ण स्वराज्य स्थापित करना है, तथापि उसने भारत को इस “गौरवपूर्ण विजय" के न्यायपूर्ण फलों को भोगने से वन्चित रक्खा, जिसके विषय में कहा गया है कि वह "संसार के इतिहास में स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिये भव्य विजय है, और उसे भारत ने मित्र राष्ट्रों तथा अन्य उपनिवेशों के साथ-ही-साथ प्राप्त किया।" उसके लिये इसने दूसरे राष्ट्रों के साथ जिस नीति का अवलम्बन किया, उसका प्रयोग भारत के प्रति नहीं किया कि औपनिवेशिक अधिकारों के निपटारे में इस नीति का अवलम्बन किया जायगा कि सम्पूर्ण जनता के राज्याधिकार तथा हितों को उसके ऊपर शासन करने वाली सरकार के बराबर अधिकार मिलेंगे। इसने भारत को बहुत काल से अपने घरेलू प्रबन्ध स्वयं करने तथा अपना अभ्युदय करने की इच्छित स्वतंत्रता देना अस्वीकार किया। पार्लियामेण्ट इस बात को भूल गई कि कुछ समय को छोड़कर, भारतीयों ने अंग्रेजों के आगमन के पहले अपना राज्य उत्तम रीति से, प्राय: चार हजार वर्षों तक चलाया, तथा अब भी भारत के एक तिहाई भाग का शासन भारतीय नरेशों के द्वारा हो रहा है, तब भी ब्रिटिश पार्लियामेण्ट ने, भारत किस अवस्था में तथा किस समय में पूर्ण-स्वराज्य प्राप्त करने योग्य होगा, इस बात के निर्णय करने का अधिकार केवल अपने हाथ में रख छोड़ा है।
हम भारतीयों ने, इंग्लैण्ड के इस कुविचार का तीव्र विरोध किया, जैसा कि भारतीय राष्ट्रीय महासभा के विवरणों तथा बड़ी व्यवस्थापिका सभा की कार्रवाइयों द्वारा ज्ञात होता है।
हम लोगों ने बार-बार इस बात पर जोर दिया है कि सरकार को चाहिए कि भारत के सभी दलों और वर्गों के प्रतिनिधियों तथा सरकार के प्रतिनिधियों की एक गोल-मेज-परषिद् करावे, जिसमें भारत के लिये एक ऐसे शासन-विधान का निर्माण करे, जिससे भारतीय जनता सन्तुष्ट हो जाय। यह माँग भारतीय राष्ट्र की थी, जिसे सन् १९२4 ई. की फरवरी में जनता द्वारा निर्वाचित बड़ी व्यवस्थापिका सभा के प्रतिनिधियों के जनता की ओर से पेश किया था। ब्रिटिश सरकार ने पार्लियामेण्ट के सात सदस्यों से बने एक कमीशन की नियुक्ति द्वारा इस माँग की पूर्त्ति करने का प्रस्ताव किया है। इसने उन भारतीयों को, जिन्हें महासमर के समय ---- “अंग्रजों के संकट-समय में सशस्त्र साथी” कहकर सम्बोधित किया गया था, इस कमीशन में स्थान नहीं दिया जो इस बात की जाँच तथा रियोर्ट करने के लिये स्थापित हुआ है, और जो उनके इस में शासन-सुधार के मार्ग की जाँच का विवरण देने के लिये नियुक्त किया गया है ।
सन् १९१९ ई. की नियमावली में प्रकाशित राजकीय घोषणा में हमारे सम्राट् महोदय ने अपने अधिकारियों तथा प्रजावर्ग से यह अभ्यर्थना करने की कृपा की थी कि, “एक सर्वहितकारी उद्देश्य के लिये, हमारी प्रजा तथा अदिकारी वर्गों की पारस्परिक सहयोग से कार्य करने को एक सम्मिलित निश्चय से युक्त नये युग -------हो, तथा मुझे यह विश्वास है कि हमारे अधिकारी वर्ग तथा प्रजा पारस्परिक सहयोग से, दायित्वपूर्ण स्वराज्य की स्थापना के लिये, आवश्यक सुधार ------ सहयोग देंगे।”
यद्यपि असहयोग-आन्दोलन के फलस्वरूप प्रथम नवनिर्मित व्यवस्थापिका सभा में काँग्रेसजनों ने निर्वाचन के लिये प्रयत्न नही किया परन्तु यह ध्यान देने की बात है कि सुधारों के प्रारम्भ होने के समय से ही किसी सभा में, एक भी स्थान खाली नहीं रहा। परन्तु जहाँ भारतीय प्रजा सुधारों की सफलता में इतना सहयोग किया है, वहाँ व्यवस्थापिका सभा की बैठकों से पता चलता है कि सरकारी अधिकारी वर्ग ने जनता के प्रतिनिधियों के साथ कितना अल्प सहयोग किया है, क्योंकि व्यवस्थापिका सभा के बहुत कम ही ऐसे प्रस्ताव होंगे जिन पर सरकार ने अपनी सम्मति दी हो। इस भारतीय व्यवस्थापक कमीशन में भारतीयों का बिल्कुल बहिष्कार करके ब्रिटिश बन्धुओं ने अपने दुर्भाव को पराकाष्ठा पर पहुँचा दिया है। इससे भारतीयों तथा अंग्रेजों के पारस्परिक सम्बन्ध के दोष ज्ञात होता है। क्योंकि मुझे कोई ऐसा राजकीय कमीशन याद नहीं है जिसमें भारतीयों को स्थान न मिला हो। इंग्लैण्ड के लिये यह सदा के लिये लज्जा की बात होगी यदि, ब्रिटिश जाति महासमर में की हुई भारत को उन सेवाओं को इतना शीघ्र भूल जाय, जिनकी प्रशंसा उन्होंने स्वयं बार-बार की है, और अब हमारे स्वत्त्वों के विचार के अवसर पर वे हमें अपने ही समान एक बन्धु-प्रजा न समझकर हमें अपना आश्रित समझें? एक बड़े राष्ट्र को ऐसा व्यवहार शोभा नहीं देता। यह बिल्कुल ओछी बात है। मैं अपने ब्रिटिश भाइयों से निवेदन करता हूँ कि वे भारत की इस गूढ़ समस्या को हल करने के लिये इस कमीशन में उतनी ही संख्या में भारतीय सदस्यों की भी नियुक्ति करके इस विषम विषय की उचित जाँच तथा रिपोर्ट करावें, क्योंकि लॉर्ड बर्केन्हेड के कथनानुसार “यह भारतीयों की कई पीढ़ियों के लिये अत्यन्त महत्वपूर्ण विधानात्मक समस्या है।"
यदि ऐसा किया जायगा, और यदि सरकार का विचार शुद्ध रहेगा, जैसी कि मुझे पूर्ण आशा है, तो यह नियम होना चाहिए कि कमीशन में उन्हीं भारतीयों की नियुक्ति होगी जो अपने देशवासियों तथा अधिकांश दलों के विश्वास-पात्र हों। फलत: भारतीयों को सर जॉन साइमन के सभापतित्त्व में रहकर, ब्रिटिश भाइयों से पूर्ण सहानुभूति के साथ सहयोग करने में अत्यन्त हर्ष होगा। मुझे आशा है कि सभापति महोदय अपनी सज्जनता का परिचय देंगे और स्वतंत्रता तथा न्याय की पुजारी अंग्रेज जाति के परम्परागत नियम को स्थायी रक्खेंगे, जब उन्हें वादी-प्रतिवादियों की हैसियत से नहीं बल्कि मित्रों की हैसियत से भारतीयों के द्वारा भारतवर्ष की सच्ची अवस्था के अध्ययन में सहायता प्राप्त होगी। परन्तु, यदि यह भूलकर कि इंग्लैण्ड ने न्याय की रक्षा के लिये जर्मनी से महायुद्ध किया था, और यदि ‘जिसकी लाठी उसको भैंस वाले सिद्धान्त को चरितार्थ करना चाहते हैं, जिसके विरोध के लिये हमारे भारतीय योद्धाओं ने अपने प्राण न्यौछावर करके अंग्रजों की सहायता की थी, और यदि हमारी न्यायसिद्ध माँगों को स्वीकार नहीं करेंगे, तो वे ही जिम्मेदार होंगे, यदि सर्वश्रेष्ठ भारतीय बाध्य होकर सरकार पे असहयोग करेंगे और राष्ट्रीय प्रतिष्ठा तथा राष्ट्रीय हित की रक्षा के भाव से उत्तेजित प्रत्येक आत्म-सम्मानी भारतीय, खेद किन्तु दृढ़ता के साथ कमीशन के इस रूप का बहिष्कार करेगा। कुछ छुटपुट, व्यक्तिगत समर्थनों को छोड़कर कमीशन के कारण जो सार्वभौम विरोध उत्पन्न हुआ है, तथा जो आगे और भी दृढ़ होता जायगा, उसे दृष्टि में रखकर कोई भी सभा, प्रस्तावित संयुक्त-समिति नहीं बना सकती। क्या हमारी यह आशा करना भ्रमपूर्ण है कि जिस कमीशन का भारतीय जनता सवंसम्मति से दृढ़ विरोध करती है, उसकी गठन पर सरकार पुन: विचार करेगी तथा भारतीयों की न्यायपूर्ण माँगों को स्वीकार करके उस नीति का प्रयोग करेगी, जो कमीशन के इस महान् कार्य की पूर्त्ति के लिये परम आवश्यक है; अर्थात् इन मनुष्यों का विश्वास तथा उनकी सहयोगिता प्राप्त करना, जिनके कार्यों की जाँच तथा रिपोर्ट के लिये इसकी नियुक्ति हुई है? मैं ब्रिटिश राजनीतिज्ञों से इसका उत्तर चाहता हूँ।
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