व्यवस्थात्मक सुधार के लिये केमॉण्टेग्यू-चेम्सफोर्ड प्रस्तावोंके छपने के थोड़े ही समय बाद माननीय पण्डित मालवीय जी ने लीडर में लिखा था कि ““इन प्रस्तावों में बहुत अधिक तथा उदार सुधारों की योजना है,किन्तु इनसे देश की आवश्यकताएँपूरी नहींहोतीं। इन प्रस्तावों का पूर्ण विरोध तो किया ही नहीं जा सकता। हमेंचाहिए किइसमें आवश्यक युक्तिपूर्ण सुधार और इसका विस्तार करें”।” उस समय बहुत से लोगों ने इसका पूर्णत:विरोध किया था। निम्नलिखित लेख पूज्य मालवीय जी ने अपने उक्त विचार को विस्तृत करके लिखा था।
-सम्पादक
यह कहना व्यर्थ होगा कि भारत-सचिव और बड़े लाट के व्यवस्थात्मकसुधार-सम्बन्धी प्रस्ताव महीनों के कुतूहलपूर्ण विवादएवं सचेष्ट विचार के परिणाम हैं।कारण यह है कि जिस परिस्थिति में यह कार्य सम्पादन हुआ, वह इतना प्रसिद्ध है किइसकी आवृत्ति कुछ विशेष महत्त्व नहीं रखती। प्रस्ताव-कर्त्ताओं के शब्दों में प्रस्तावबड़ेही महत्त्वपूर्ण एवं गूढ़हैं। अच्छा होता यदि भारत-सरकार द्वारा इस पर इंग्लैण्डमें विचार होने के पूर्व सर्वसाधारण की समालोचना के लिये इसका प्रकाशन भारत मेंहो जाता। प्रस्ताव दोनों दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण हैं। एक तो ये स्वत: महत्त्वपूर्ण हैं, दूसरेइनके दोनों प्रस्तावक उच्च-पदस्थ सरकारी कर्मचारी हैं। भारत के भविष्य के लिये जोविचारशील भारतीय प्रयत्नशील हैं, उन सबको इन प्रस्तावों पर बड़ी सावधानी सेविचार करना चाहिए।
प्रस्ताव का अधिकांश उदारतापूर्ण है। उससे वास्तविक तथा लाभकारी परिवर्तनहो सकेगा। हमें उतने अंश का स्वागत करना चाहिए और इसके लिये प्रस्तावकों काउपकार मानना चाहिए। किन्तु इन प्रस्तावों मेंबड़ी कमी है, जिसकी पूर्त्ति किए बिनाभारत का अभीष्ट सुधार असम्भव है, और तबतक ये देश की आवश्यकता के लिए अपूर्ण ही रहेंगे। प्रस्तावों की संक्षिप्त सूची में इनका जो क्रम दिया गया है। उस क्रमसे सर्वप्रथम श्रेणी में भारत-सचिव का वेतन ब्रिटिश संयुक्त-राष्ट्र के आधार पर करना,भारतीय मामलों के लिये इंग्लैण्ड की पार्लियामेण्ट की साधारण सभा के सदस्यों में से विशिष्ट समिति का निर्वाचन करना, बड़े लाट की कार्यकारिणी समिति में भारतीयों की वृद्धि के लिये एक दूसरे भारतीय सदस्य की नियुक्ति करना, तथा वर्तमान बड़े लाट की व्यवस्थापिका सभा को बदलकर एक सौ सदस्यों की एक बड़ी व्यवस्थापिका सभाबनाना है, जिसके दो तिहाई सदस्य निर्वाचित होंगे, स्थायी सभा का सहयोग प्राप्त करना जिसके दो तिहाई सदस्य गैरसरकारी सदस्यों द्वारा निर्वाचित होंगे, जिसमेंयथासम्भव सब सरकारी विभाग होंगे। बड़ी व्यवस्थापिका के किसी सदस्य को आनुषंगिक प्रश्न करने का अधिकार दिलाना। इसी श्रेणी में प्रान्तीय१ सरकारों से सम्बन्ध रखने वाले अनेक नियम हैं; उदाहरण के लिये, यह प्रस्ताव कि प्रत्येक प्रान्त की शासक-सभा(एग्जीक्यूटिव गवर्नमेण्ट) में प्रान्तीय लाट और दो सदस्यों की कार्यकारिणी-समिति होगी, जिसमें से एक भारतीय होगा और छोटी व्यवस्थापिका सभा के निर्वाचित सदस्यों में से प्रांतीय लाट द्वारा मनोनीत एक मंत्री या मंत्रीगण होंगे। इन मंत्रियों के अधिकार में कुछ विषयोंसे सम्बन्ध रखने वाले विभाग होंगे और इन विषयों के सम्बन्ध में मंत्री का निर्णय ही अन्तिम निर्णय होगा। परन्तु इस सम्बन्ध में गवर्नर की सम्मति और उनकानियंत्रण भी मान्य होगे। गवर्नर के लिये यद्यपि नियंत्रण का अधिकार सुरक्षित है तथापियह आशा की जाती है कि वे इसका प्रयोग तभी करेंगे जब मंत्री के प्रस्ताव का परिणामगम्भीर स्थिति उत्पन्न करने वाला होगा। इसका यह तात्पर्य नहीं है कि गवर्नर स्वेच्छासे मंत्री के प्रस्ताव पर विचार होने की स्वीकृति ही न दें। प्रत्येक प्रान्त में एकपरिवर्द्धितव्यवस्थापिका सभा की स्थापना हो जिसके अधिकांश सदस्य जनता द्वारा निर्वाचित हों।जहाँ तक सम्भव हो सर्वसाधारण के मताधिकार का क्षेत्र विस्तृत करके सदस्यों कानिर्वाचन कराया जाय; व्यवस्थापिका सभा के प्रत्येक सदस्य को आनुषंगिक प्रश्न पूछनेका अधिकार दिलाना; प्रत्येक विभाग के साथ एक स्थायी समिति हो जिसके अधिकांशसदस्य व्यवस्थापिका सभा द्वारा चुने जायँ। प्रान्तीय और भारतीय कर-विभाग पूर्णत:विभक्त हों, प्रत्येक प्रान्त प्रतिवर्ष भारत-सरकार को कुछ निर्धारित रकम दिया करें औरयह रकम प्रान्तीय कर से अदा की जाय। प्रान्तीय सरकार को ऋण लेने और कर लगानेके कुछ अधिकार प्राप्त हो; और अन्तिम तथा अत्यन्त आवश्यक नियम कच्चे चिट्ठे काव्यवस्थापिका सभा के समक्ष विचारार्थ रक्खा जाना है;परन्तु इस संरक्षण के साथ किउसमें केवल इतना ही परिवर्तन किया जा सके कि उस सभा के प्रस्तावों का पालन होसके। वह संरक्षणयह है कि यदि व्यवस्थापिका सभा सुरक्षित विभाग के कच्चे-चिट्ठेके किसी प्रस्ताव को अस्वीकार कर दे तो ऐसी परिस्थिति में सपरिषद् गवर्नर को अधिकार होगा कि वे अपने विशेषाधिकार से मूल प्रस्ताव को या उसके किसी अंश कोज्यों-का-त्यों स्वीकार कर लें। परन्तु गवर्नर को यह लिखित रूप में प्रमाणित करनाहोगा कि उनकी स्वीकृति देने का कारण या तो प्रान्त या उसके किसी भाग की शान्तिथा अथवा सुरक्षित विभाग के प्रति अपने दायित्त्व के लिये था। निस्सन्देह संरक्षण काक्षेत्र बड़ा व्यापक है। अत: इसके परित्याग या परिमार्जन की आवश्यकता है। इस पर मैं फिर विचार करूँगा। ऐसा ही लाभकारी एक यह भी प्रस्ताव है कि प्रान्तीय सभाओंमें, जहाँ तक हो सके, जनता को पूर्ण आधिपत्य दिया जाय; सरकारी नौकरियों में जातीयता का जो प्रतिबन्ध अब तक है, उसको हटा दिया जाय; इंग्लैण्ड मेंभरती करने के अतिरिक्त भारत में भी समस्त सरकारी नौकरियों मेंनियुक्ति की व्यवस्था की जायऔर नियुक्ति की प्रतिशत संख्या कुछ वृद्धि के साथ निश्चित हो जाय।यद्यपि भारतीय सिविल सर्विस के लिये प्रस्तावित प्रतिशत संख्या अपर्याप्त है, तथापि आवश्यकता इसबात की है कि शीघ्र ही यह संख्या तैंतीस से पचास प्रतिशत कर दी जाय। देशी राज्यों से सम्बन्ध रखने वाले प्रस्ताव सन्तोषपूर्ण हैं। समस्त प्रस्ताव यथार्थत: उदारपूर्ण प्रगतिशीलता का परिचय देते हैं, और ये अवश्य ही हमें वर्तमान अवस्था से आगे ले जाने वाले हैं। इसके लिये श्री मॉण्टेग्यू और लॉर्ड चेम्सफोर्ट के प्रति हम अपना कृतज्ञतापूर्ण धन्यवाद प्रदान करते है। परन्तु मेरी राय में देश की आवश्यकताओं की पूर्त्ति के लिये ये पर्याप्त नहीं हैं। प्रस्तावकों ने रिपोर्ट के तीन सौ तिरपनवेवाक्यमेंप्रस्ताव के प्रभाव का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार दिया है- “स्वायत्त-शासन विभाग केक्षेत्र को अधिक विस्तृत करके हम सुधार-कार्य का श्रीगणेशकरते हैं। इससे मतदाताओंको उन विषयों में कुशलता प्राप्त होगी, जिन्हें वे ही भली प्रकार समझ सकते हैं। साथ ही साथ हमारे प्रान्तों में अधिक प्रतिनिधित्त्व के लिये, भारत-सरकार के कार्यों की औरभी अधिक आलोचना के लिये तथा पार्लिंयामेण्ट को भारतीय मामलों का पूर्ण ज्ञानकराने के लिये हमने प्रान्तों को पर्याप्त स्वायत्त अधिकार दिए हैं। इसके उचित संचालन के लिये हम प्रकिया भी निश्चित कर देते हैं, जिसके-द्वारा समय-समय पर दायित्त्व का भाव क्रमश: बढ़ता रहेगा और साथ ही सरकारी नियंत्रण कम होता जायेगा। यह प्रक्रिया एक प्रकार से क्रमिक उन्नति करेगी और तात्कालिक आन्दोलनों और शिकायत को भी दूर करेगी। यथार्थ में इसका तात्पर्य उन्नति तो है, परन्तु बिल्कुल मन्द उन्नति है। यदि भारत को निकट भविष्यमें अपने बच्चों और अपने राष्ट्र के प्रति अपना कर्तव्य पालन करने के लिये व्यावसायिक और राजनीतिक साधनों से सुसज्जित होना है, तो आवश्यक है कि प्रान्तों में प्रयाप्त और प्रगतिशील उन्नति के प्रयोगात्मक स्वायत्त-शासन के क्षेत्र को अधिक विस्तृत करके विश्वास दिलाया जाय, और साथ ही भारत-सरकार के स्वरुप में भी प्रयाप्त परिवर्तन होना चाहिए।
(काँग्रेस-लीग) काँग्रेस-संघ की योजना
काँग्रेस-संघ की कल्पना का सूत्रपात जनता के प्रतिनिधियों को प्रान्तीय एवं राज्य-परिषदों में भेजने के लिये हुआ था। उस समय के शिक्षित वर्ग का विश्वास था कि इस प्रकार शासन-शक्ति का यथार्थ अंश जनता के हाथ में रहेगा। देश-रक्षा, युद्ध, शान्ति,विदेशों से राजनीतिक सम्बन्ध आदि सब बातों में समस्त शक्ति केन्द्रीय प्रबन्धकारिणी सरकार को ही प्राप्त थी। प्रबन्धकारिणी समिति को इसका पूरा अधिकार प्राप्त था कि वह चाहे जिस कानून यासिद्धान्त को आपत्तिजनक बताकर रोक दे।उपर्युक्त प्रस्ताव के संक्षिप्त विवरण से यह स्पष्ट है कि श्री मॉन्टेग्यू और लॉर्डचेम्सफोर्ड ने काँग्रेस-संघ की योजना की बहुत सी माँगों को स्वीकार कर लिया थाकिन्तु उन्होंने उसके मूल प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया था। उदाहरणार्थ, जनता केप्रतिनिधि को शासन में सरकार की समानता का अधिकार पाना, सिवाय उन मामलों के,जिनको प्रान्तीय व्यवस्थापिका सभाओं के हाथ सौंपने का प्रस्ताव किया गया है। मैंसमझता हूँ कि यह उन्होंने विचारपूर्ण कार्यं नहीं किया। यदि उन्होंने यह सिफारिश कीहोती कि काँग्रेस और मुसलिम लीग के प्रस्तावानुसार जनता के प्रतिनिधि व्यवस्थासम्बन्धी कार्यों में सरकार की समानता का अधिकार पा सकते हैं, तब उन लोगों केआक्षेपों का परिहार योजना में कुछ हेर-फेर करके या घटा-बढ़ा कर हो सकता था।क्योंकि जब हम कहते हैं कि इस प्रस्ताव के विरुद्ध कि “प्रबन्ध-समिति के सदस्योंकानिर्वाचन निर्वाचित सदस्यों द्वारा हो”, उन लोगोंने जो तर्क उपस्थित किए हैं, उनकासमाधान इस प्रकार हो जाता कि सरकार भारतीय सदस्योंको नामजद करे। यहनामजदगी उस सूची में से होगी जिसकी सिफारिश निर्वाचित सदस्यों ने की है। काँग्रेस-संघ के प्रस्ताव का स्पष्ट उद्देश्य यह है कि प्रबन्ध-समिति के भारतीय सदस्य ऐसेव्यक्ति होने चाहिए जिन पर जनता का विश्वास हो। ये भी वैसे ही होजैसे व्यवस्थपिकासभा के सदस्य हैं, अर्थात् जनता के सच्चे प्रतिनिधि हों। जबतक यह उद्देश्य सुरक्षितथा, तब तक इसकी प्राप्ति की प्रक्रिया में किसी को कोई विवाद नहीं था। परन्तु उद्देश्यका सुरक्षितहोना आवश्यक है। काँग्रेस-संघ की योजना की जो उन लोगों ने आलोचनाकी है, उसके उपसंहार में विशिष्ट लेखकद्वय कहते हैं कि “हम लोगों का प्रथम अनुभवयह है कि इस प्रणाली से सुयोग्य मतदाताओं की सृष्टि होगी और व्यवस्थापिका सभाजनता की सच्ची प्रतिनिधि सभा होगी। उनका विश्वास है कि कालान्तर में उपयुक्तचुनाव-प्रणाली और सच्ची प्रतिनिधि सभा का प्रादुर्भाव होगा”। किन्तु उनका कहना है कि ‘हम ऐसे प्रस्ताव पर अपनी स्वीकृति नहीं दे सकते जो इसी कल्पना पर आश्रित हैकि ऐसी संस्थाएँ अत्यन्त शीघ्र विकसित होने वाली हैं। मैं यहाँ लेखक-द्वय के विचारसे विनीत भाव से सहमत हूँ।मेरी दृढ़ धारणा है कि ऐसी संस्थाएँ हो सकती हैं, अतएवउन्हेंअब अस्तित्त्वमें लाना चाहिए। मैंबाद मेंबताऊँगा कि यह कैसे हो सकता है’।
अल्पसंख्यकों के प्रतिनिधित्त्व के सम्बन्ध में काँग्रेस-संघ योजना की आलोचनाकरते हुए विशिष्ट लेखक-द्वय की शिकायत है कि पृथक् निर्वाचन की प्रथा का सभीप्रान्तों में प्रस्ताव हुआ है। यहाँ तक कि उन प्रान्तों से भी यह प्रस्ताव हुआ है,जहाँमुसलमान अधिक संख्या में हैं। और जहाँकहीं वे संख्या में कम हैं, वहाँ के लियेप्रस्तावित अनुपात उनकी वास्तविक संख्या से कहीं अधिक है। किन्तु गैर-मुस्लिम विरोध होने पर भी सरकार ने इस नियम का आरम्भ एवं प्रचलन कर दिया है। ऐसाविधान बन जाने पर यह दशा हो गई है कि अब किसी भीप्रकार हिन्दूलोग मुसलमानोंको समझौते के लिये राजी नहीं कर सकते।हिन्दूलोगउनकी माँगोंके वर्तमान अनुपातसे कहीं अधिक प्रतिनिधित्त्व देने पर राजी हो गए हैं। अन्य प्रान्तों में विशिष्ट मुस्लिम मतदाताओं के लिये स्थान का संरक्षण भी एकमात्र इसी सन्धि के ही आधार पर हुआ है। हिन्दू लोग स्वेच्छा से इस प्रस्ताव पर सहमत हूए हैं। क्योंकि वे चाहते हैं किमुसलमानोंमें एकता और संघटन बना रहे।
यह बिल्कुल सत्य है कि सुविधा प्रदान करना आपत्तिजनक है। यदि कोईदूसरा सम्प्रदाय पृथक्निर्वाचन की माँग का प्रश्न उठाकर लाभ उठाना चाहे तो उसकोभी गैर-मुस्लिम स्थानों को भेंट करके सन्तुष्ट किया जायगा, या अनुपातक्रम से हिन्दूऔर मुस्लिम दोनों स्थानों में कमी करके तीसरे को प्रसन्न किया जायगा। किन्तु जबहिन्दू और मुसलमान ऐसे समझौते पर राजी होंतो निराश होने का कोई कारण नहीं है,क्योंकि आवश्यकता पड़ने पर हिन्दू और मुस्लिम नेता समझौते के निर्णय पर पहुँचसकेंगे। अब इन लोगों ने यह जान लिया है कि कभी-कभी एक व्यक्ति को दूसरे से,और एक सम्प्रदाय को दूसरे सम्प्रदाय से सामाजिक उन्नति के लिये समझौता करना हीपड़ता है। लेखक-द्वय ने भी यह परिस्थिति जान लेने पर बड़ी अनमनी के साथ केवलवर्तमान समय के लिये ही मुसलमानों के पृथक् निर्वाचनाधिकार की स्वीकृति दी है।उनके समक्ष जो विशेष प्रस्ताव उपस्थित किया गया था उस पर उन लोगों ने तबतकके लिये अपनी सम्मति सुरक्षित रख छोड़ी थी, जबतक वे यह नहीं जान लेते कि इससेअन्य सम्प्रदायों के हित पर क्या प्रभाव पड़ेगा। इसके लिये उन्होंने विधान भी किया है।
काँग्रेस-संघ की योजना के सम्बन्ध में विशिष्ट लेखक-द्वय ने जो आलोचना कीहै, उस पर अभी प्रकाश डालने का मैं प्रयत्न नहीं करुँगा। मैं आशा करता हूँकि उचितसमय पर काँग्रेस और मुस्लिम लीग की ओर से वक्तव्य तैयार किया जायगा। यद्यपि इनआक्षेपोंमें ये कुछ महत्त्वपूर्ण हैं, तथापि मुझे विश्वास है कि उनका पूर्णत: एवं स्पष्ट रीतिसे निराकरण हो सकता है। मैं अब भी सोचता हूँकिकाँग्रेस और मुस्लिम लीग कुछघटा-बढ़ाकर उक्त योजना के लिये सहमत हो जायगी, जो देश की आवश्यकताओं केलिये पर्याप्त होगी। काँग्रेस और मुस्लिम लीग भारत में दायित्त्वपूर्ण सरकार स्थापित करनेके लिये पहली सीढी बनायेंगे। दायित्त्वपूर्ण का अर्थ वह नहीं है, जो प्रस्ताव के विशिष्टलेखक-द्वयको अभीष्ट है या जो इंग्लैण्ड वाले लगाया करते हैं। दायित्त्व शब्द का प्रयोगबहुत निश्चित अर्थमें किया गया है। उदाहरणार्थ, प्रबन्धकारिणी के प्रत्येक सदस्य को पद-ग्रहण करने के पूर्व पार्लियामेण्ट की ओर से यह आदेश मिलना चाहिए कि यद्यपिवे व्यवस्थापिका सभा की इच्छा से नियुक्त नहीं हुए हैं, किन्तु उन्हें समझ लेना चाहिए किजनता के प्रति उनका नैतिक दायित्त्व है, और उन्हें व्यवस्थापिका सभाओं में भेजे हुएजनता के प्रतिनिधियों के विचार के साथ सहयोग करते हुए कार्य करना होगा।
किन्तु मैं समझता हूँकि महीनों के विवाद और विचार के बाद श्री मॉन्टेग्यूऔर लॉर्ड चेम्सफोर्ड ने जो प्रस्ताव उपस्थित किए हैं, उससे काँग्रेस संघ-योजना केस्वीकृत होने का अवसर जाता रहा। मेरा विचार है कि परिस्थिति को वर्तमान दशा मेंसबसे व्यावहारिक कार्य यह है कि इन्हें पूर्ण एवं उपयोगी बनाने के लिये प्रस्ताव में परिवर्तन एवं परिवर्द्धन करने के लिये दबाव डाला जाय।यदि ऐसा हो जाय तोसिद्धान्तत: इनका समावेश काँग्रेस संघ-योजना के अन्तर्गत हो जायगा।
समस्याओं की स्थिति :शिक्षाहीनता
श्री मॉण्टेग्यू और लॉर्ड चेम्सफोर्ड के प्रस्ताव में जो सिफारिशें की गई हैंउनपर विचार करते समय निस्सन्देह हम लोगोंकी यह धारणा होनी चाहिए कि लेखकों नेअपने उद्धरण की शब्दावली में गत २० अगस्तकी घोषणा का भीविचार रक्खा था।किन्तु मेरी राय में इन लोगों ने उस शब्दावली की बहुत ही संकुचित व्याख्या की है।विशेषत: दायित्त्वपूर्ण सरकार की स्थापना में प्रगति वाला नियम अधिक संकुचित है। आगे चलकर भारतीयों के कल्याण का दायित्त्व इंग्लैण्ड के निर्वाचकों एवं वहाँ की पार्लियामेण्ट को सौंपा है। उन्होंने इस बात पर कई बार आवश्यकता से अधिक जोर दिया है कि इंग्लैण्ड के निर्वाचक तब तक उस दायित्त्व को नहीं छोड़ सकते, जब तक भारतीय निर्वाचक उनके बोझ को वहन करने का सामर्थ्य नहीं दिखाते। इस भावना से प्रभावित होने के कारण वे सत्य एवं पक्षपातरहित दृष्टि से समस्या को सुलझाने में असमर्थ रहे। प्रस्ताव के ““समस्या की स्थिति” शीर्षक अंश के मनन करने से यह दीख पड़ता है कि दायित्त्वपूर्ण सरकार स्थापित करने के विरुद्ध जो परिस्थितियाँ हैं, उनको सीमा से अधिक बढा दिया गया है, और जो इसके पक्ष में हैं, उनकी या तो उपेक्षा की गई हैअथवा उन्हेंकम महत्त्व दिया गया है। दो बातों पर विशेष ध्यान दिखाया गया है। एक तो यह कि समाज के अधिकतर लोग यूरोप की अपेक्षा अधिक निर्धन, अज्ञ और असहाय हैं। भारतीय समाज में धार्मिक, जातीय, एवं वर्णगत भिन्नता अभी मौजूद है, जो एकता के लिये सदा घटक है। किसी भी विचारशील राजनितिक योजना में इसका अधिक ध्यान रखना पड़ता है। वक्तव्य का प्रथम अंश तो पूर्णतः सत्य है, किन्तु इसका कलंक वर्त्तमान नौकरशाही प्रथा के माथे ही लगता है, और इससे सिद्ध होता है कि भारत में सर्वमान्य स्वराज्य की स्थापना शीघ्रातिशीघ्र हो जाना चाहिए।नौकरशाही प्रथा ने भारत पर लगभग एक शताब्दी से भी अधिक काल तक पूर्ण शासन किया है, किन्तु वह भारत के विशाल समाज को दरिद्रता, अज्ञान तथा असहायावस्था से ऊपर नहीं उठा सकी।भारत के शिक्षित वर्ग का रहन-सहन भारतीय जनता के अनुकूल है। उन्होंने सरकार से शासन में सहयोग प्रदान करने की कई बार प्रार्थना की,जिससे वे सरकार के साथ जनता के भयानक दारिद्रय्मोचन एवं आज्ञात के दूरीकरण में सहायता प्रदान कर सकें, किन्तु नौकरशाही और पार्लियामेण्ट ने अधिकार देने में निरन्तर अपनी अस्वीकृतिही ग्रकट की।अत: इसके परिणाम का दायित्त्वभी इन्हीं पर है।
जनता मेंशिक्षा के अल्प प्रचार पर अधिक जोर दिया गया है। इस पर भी ध्यानदिया गया है कि गहरी आमदनी के उपभोग करने वालोंकी संख्या बहुत थोड़ी है। यहभी लिखा गया है कि भूमि-आय के अतिरिक्त छियासठ पौण्ड प्रतिवर्ष की आमदनी करनेवालों की संख्या एक प्रान्त में ३०,००० है और दूसरे प्रान्त में२०,००० है। कुछ लोगोंका ऐसा अनुमान है कि युक्तप्रान्त की आबादी चार सौ अस्सी लाख है, जिसमें कुछ ऐसे जमीन्दार हैं, जिनकी जमीन्दारी की वार्षिक आय बीस पौण्ड से अधिक है। यह निर्विवाद है कि जनसंख्या का अधिक भाग जीवन की आवश्यकताओं के अतिरिक्त बहुत कम बचा पाता है। यह सत्य ही नहीं, बिल्कुल सत्य है। इसलिये यह भी दृढ़ कारण है कि वे अपने अधिकार एवं दायित्त्व का कम-से-कम कुछ अंश, भारतीयों को प्रदान करें जिसका एकाधिकार गत सौ वर्षो से बिना समुचित तरीके और बिना सम्पादन की अभिवृद्धि एवं धन का बँटवारा किए प्राप्त हैं।उपर्युक्त दलील के उत्तर में यह कहा जाता है कि भारत में राजनीतिक मामलों में दिलचस्पी रखने वालों की संख्या बहुत ही अल्प है। इस बात पर जोर देने के बाद कि जो नगर-निवासी राजनीतिक प्रश्नों में दिलचस्पी रखते हैं, सम्पूर्ण जनता के एक भाग है। रिपोर्ट में लिखा गया है कि-““गाँव की जनसंख्या के अधिकांश व्यक्ति निर्धन,मूर्ख, राजनीतिक विचार से रहित और निर्वाचन की किसी भी प्रथा से अनभ्यस्त हैं,और अपने को वस्तुतः जीवन-संग्राम में व्यस्त रखते हैं।देश में गाँव के लोगों की ही प्रधानता है। यही सरकार को अधिकांश कर देते हैं। परन्तु राजनीति के लिये ये साधन ही नहीं, वरन् इसमें भाग लेनाभी नहीं चाहते। इनमें कुछ बड़े जमीन्दार हैं और अधिकतर खेतिहर हैं। राजनीति में भाग लेने की क्षमता इनमें है, परन्तु कुछ को छोड़कर अधिक लोगों नेइस ओर ध्यान नहींदिया है”। लेकिन प्रत्येक देश में तथा इंग्लैण्ड में भी जनता की रुचि तबतक राजनीति की ओर नहीं प्रवृत्त हुई जब तक उन्हें राजनीतिक शक्ति के उपयोग और मत प्रदान करने का अधिकार नहीं दिया गया।राजनीतिक अधिकार प्रदान करने के अतिरिक्त दूसरा और कौन सा रास्ता है जिससे जनताकी रुचि राजनीति की ओर लाई जा सके?
“मताधिकार के लिये शिक्षा कोआधार मानने के सम्बन्ध में, भारतीयों को इसमें कोई भी आपत्ति न होगी किनिर्वाचन की चाहे कोई भी प्रथा क्यों न जारी कीजाय, उसमें अन्य किसी योग्यता अपेक्षा शिक्षा-सम्बन्धी स्वीकृत उपाधि ही मतदाताहोने के लिये पर्याप्त है”। परन्तु मैं यह व्यक्त किए बिना नहीं रह सकता कि भारतीयव्यवस्थात्मक सुधार के मार्ग मेंयहाँकी जनता में शिक्षा के अभाव की बात व्यर्थ हीलाई गई है। हम लोग जानते हैं कि आस्ट्रिया, जर्मनी और फ्रांस ने बालिग होने परसार्वभौम मताधिकार देने के सिद्धान्त को अपनाया है। वहाँ निर्वाचक की साधारणयोग्यता यह है कि वह साधारणतया लिख और पढ़ सके। यही प्रथा इटली और अमेरिका आदि देशों में भी है। किन्तु ब्रिटिश द्वीपसमूह में आठ विश्वविद्यालयोंके अतिरिक्त शिक्षा के आधार पर मताधिकार कभी नहीं रहा है। ऐसा कहा जाता है कि जहाँ कहीं भी निर्वाचतकी व्यापक प्रथा प्रचलित है, वहाँ के मतदाता के लिये किसी निर्धारित रकम का जागीरदार, पट्टेदार अथवा कुछ खास वार्षिक आमदनी वाले मकान का मालिक होना आवश्यक है। डिजरायली ने अपने सन् १८६७ केएवोर्टिव-रिफॉर्मबिल में इंग्लैण्ड के मताधिकार को शिक्षात्मक बनाने की चेष्टा की थी।
हैन्सर्ड में लिखा है कि उस समय इंग्लैण्ड में शिक्षा इतने पीछे थी कि उस योजना में मताधिकार का आधार अल्प शिक्षा रक्खी गई और उस समय इंग्लैण्ड में शिक्षा का प्रचार बहुत ही कम था, इसलिये बड़ी हँसी हुई। श्री ग्लैडस्टन की सुधार सम्बन्धी १८६८ वाली योजना में उनकी १८३२ वाली योजना के समान मताधिकार की योग्यता धन ही रक्खा गया था। वहाँ पर प्रारम्भिक शिक्षा का प्रस्ताव तो सन् १८७० में पास हुआ, जब कि मजदूरोंको मताधिकार मिल चुका था और अंग्रेज लोग कहने लगे थे कि हमें अपने मालिकों कोसुशिक्षित बनाना चाहिए। इस कानून द्वारा प्रारम्भिक शिक्षा को व्यापक एवंअनिवार्य करदिया गया। सन् १८६१ के ‘ड्यूकऑफ न्यूकैसल’की रिपोर्ट में लिखा है कि इंग्लैण्ड औरवेल्स के अछात्रावासी विद्यार्थियों की अनुमानित संख्या सन् १८३३ में सवा ग्यारह पीछे एकथी। सन् १८६८ में भाषण करते हुए श्री ब्रूस ने कहा था कि उस समय सात या आठआदमियोंमेंएक शिक्षित था। सन् १८७० में एलिमेण्टरी एजुकेशन बिल को उपस्थित करते हुए श्री फोर्स्टर ने तत्कालीन स्थिति का वर्णन किया था कि लोगों में “अज्ञान, जिसकीजानकारी हम सबको है, अपराध और दु:ख, व्यक्तिगत विपत्ति तथा समाज के लिये भयसे युक्त था”। इस प्रकार हम १८६७-७० के इंग्लैण्ड की अपेक्षा आज अधिक बुरे नहींहैं। हम कनाडा की उस दशा से भी बुरे नहीं हैं जब लॉर्ड डरहम की सिफारिश से कनाडामें ब्रिटिश पार्लियामेण्ट ने दायित्त्वपूर्ण सरकार की स्थापना की थी। लॉर्ड डरहम ने अपनीस्मरणीय रिपोर्ट में लिखा है कि जनता में शिक्षा की कमी का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णनअसम्भव है। उन्हेंशिक्षा के लिये कभी किसी प्रकार का साधन दिया ही नहीं गया। वे सबकेसब सामूहिक रूप से लिखने और पढ़ने की योग्यता से वंचित रहे”। सन् १८६८ ई. कीयोजना के सिद्धान्त पर हमें भी या तो एक सुधार बिल उपस्थित करना चाहिए, यादायित्त्वपूर्ण सरकार की स्थापना के लिये कोई सारपूर्ण योजना तैयार करनी चाहिए। यदिहम लोग पहला काम नहीं कर सकते तो हमारा प्रत्यक्ष लक्ष्य शिक्षा-सम्बन्धी कानून स्थापित करना होना चाहिए। इस प्रकार हमारे देश से अशिक्षा का कलंक दूर हो जायगाऔर क्रमश: हमारी पाठशालाओं में विद्वानों की संख्या बढ़ सकेगी, जिससे लगभग दस वर्षके भीतर ही हमारा देश अन्य उन्नत सभ्य देशों की बराबरी कर सकेगा।
जनता मेंशिक्षा-सम्बन्धी कमी पर इतनी देर तक विचार कर चुकने के पश्चात्इसमें इतना और जोड़ देना मैं अपना कर्त्तव्य समझता हूँ कि यद्यपि अभी तक सरकार ने इनकेलिये शिक्षा-सम्बन्धी लाभ प्राप्त करने की कोई सुव्यवस्था नहीं प्रदान की है, किन्तु प्रकृतिइनके प्रति इतनी निष्ठुर नहीं है। प्रकृति ने इन्हें पर्याप्त व्यवहार बुद्धि प्रदानकी है। इनकी बुद्धि केवल जातीय पंचायत और सभाओं तक सीमित नहीं है, वरन् अपनेसम्बन्ध की प्रायः सभी बातोंमें ये पूर्ण जानकारी रखते हैं। अधिकांश जनता अपनेलाभालाभ का पूर्ण ज्ञान रखती है और उसके सम्बन्ध में शुद्ध और स्पष्ट निश्चयनिर्धारित कर लेती है। इस प्रकार की सभाओंकी संख्या जोरों से बढ़ रही है। अभी गतफरवरी महीने में ही युक्तप्रान्त के किसानोंने प्रयाग में माघ मेले के अवसर पर अपनी एक सभा की थी। उसमें उन लोगों ने मॉण्टेग्यू और बड़े लाट के पास अपना प्रतिनिधि इस अभिप्राय से भेजने का निश्चय किया था कि वे क्या चाहते हैं और उनके हित की रक्षा और अभिवृद्धि किस प्रकार हो सकती है? उन लोगों ने कुछ कहने के लिये मुझे निमन्त्रित करके सम्मानित किया था। उस सुअवसर पर सचमुच प्रसन्नता हुई कि वे अपने हित की एक-एक बात वे अच्छी तरह समझते और कितना अधिक ध्यान देते हैं! मैं दावे के साथ कहता हूँकि सम्पत्ति, अधिकार और शिक्षा को छोड़कर यदि नैसर्गिक बुद्धि की तुलना की जाय तो हमारे छोटी हैसियत वाले मालिक, किसान,गृहस्थ और मालगुजार लोग किसी भी अन्य देश के इसी श्रेणी के लोगों से बुरे नहींठहरेंगे। अन्त में हमें यह कहना है कि साम्राज्य की रक्षा के लिये युद्ध ऋण देने मेंउन्होंने जो तत्परता दिखाई है, और दिखला रहे हैं, और जैसे प्राणों की बलि चढ़ाई है,उसे देखते हुए यह कहना कि वे किसी व्यवस्थापिका सभा के लिये अपने प्रतिनिधि, पंच या मुख्तार का निर्वाचन करने मेंसर्वथा अनुपयुक्त हैं, उनके साथ अन्याय करना और भूल करना है। सरकारी और गैर-सरकारी कर्मचारियों द्वारा पूरी लगन के साथबारह महीने तक उनको मत प्रदान के लिये शिक्षित बनाने और संघटित करने का प्रयत्नकाफी होगा।यह प्रयत्न वैसा ही होना चाहिए जैसा युद्ध-ऋण संग्रह करने और फौजमें रंगरूटों की भर्ती करने में किया जाता है। इस प्रकार उन्हें दिए जाने वाले किसीप्रकार के मताधिकार के प्रयोग के लिये उन्हें तैयार कर लेना यथेष्ट है।
निर्वाचकोंके प्रश्न पर विचार करते समय इस पर भी ध्यान रखना चाहिए कियद्यपि मताधिकार को सब प्रकार से विस्तृत रूप प्रदान करना सर्वथा अभीष्ट है, तथापिइस सम्बन्ध में यह आपत्ति कभी मान्य नहीं हो सकती कि हमारे देश में निर्वाचकों कीसंख्या उन देशों की अपेक्षा बहुत ही कम है, जहाँ निर्वाचन-प्रथा बहुत समय से लाईजा रही है। यहाँ पर इंग्लैण्ड के मताधिकार के क्रमिक विस्तार का जिक्र करना अनुचितन होगा। हमें पता है कि सन् १८३२ तक साधारण सभा के अधिकांश सदस्यों कानिर्वाचन पन्द्रह हजार से कम मतदाताओं द्वाराही होता रहा है। स्कॉटलैण्ड में, जहाँ कीआबादी उस समय २,३६,००० थी, कुल ३००० ही निर्वाचक थे। सन् १८८४ में श्रीग्लैडस्टन के कथनानुसार सन् १८३२ ई. के सुधार-बिल द्वारा जो ब्रिटिश स्वाधीनता के आज्ञापत्र (मैगना कार्टा ऑफ ब्रिटिश लिबर्टी) के नाम से विख्यात है, तीनों देशों केनिर्वाचन-क्षेत्रों की संख्या में लगभग ५,००,००० कीवृद्धि हूई। सन् १८३२ के बाद सन्१८६३ में दूसरा सुधार हुआ। उस समय अमेरिका के निर्वाचन-क्षेत्रों के निर्वाचकों कीसंख्या १३,६४,००० तक पहुँची, और सन् १८६७-६९ में जो बिल स्वीकृत हुए उनसे यह संख्या बढ़कर २४,४८,००० तक पहुँच गई। सन् १८८४ में निंर्वाचन-क्षेत्रों के निर्वाचकोंकी संख्या मोटे रूप में ३०,००,००० हो गई। सन् १८८५ के कानून के द्वारा लगभग २०,००,००० की वृद्धि हुई। अर्थात् सन् १८६७ की अपेक्षा यह संख्या दुनी और सन् १८३२ की अपेक्षा चौगुनी हो गई। निर्वाचन-सम्बन्धी इस संक्षिप्त इतिहास में हमारे लिये उत्साहवर्द्धन और पथ-प्रदर्शन दोनों ही हैं। शुद्ध उदार मताधिकार से हमेंनिर्वाचन कार्य का आरम्भ करना चाहिए। प्रत्येक समझदार व्यक्ति इसकी सभी परिस्थितियों को दृष्टि में रखते हुए इसके क्षेत्र को सन्तोषप्रद समझेगा।
धार्मिक मतभेद
दूसरी ‘प्रमुख शर्त के’ सम्बन्ध में यह सत्य है कि भारतीय समाज का संघटन एक विशाल समुदाय से हुआ है, जिसके धर्म, वर्ण और जाति भिन्न-भिन्न हैं। किन्तु यह कथन मुझे अतिशयोक्तिपूर्ण प्रतीत होता है कि उक्त विभेद एकता का विघातक है। भारत के लोग संसार के अन्य देशों के निवासियों की अपेक्षा अधिक राजभक्त हैं। धर्म,जाति और वर्ण का विभेद, उनके सहनिवास और उनकी सहकारिता में विघातक नहींहैं। वे परस्पर मित्रता रखते और पास पड़ोसमें बसते हैं, और सार्वजनिक उन्नति केलिये संघटित भी होते हैं। समय-समय पर जो धार्मिक भावनाओं का विस्फोट हो जाताहै, जिसकी निन्दा हम भारतीयों से बढ़कर दूसरा नहीं कर सकता, वह अज्ञानवश होताहै। इसे दूर करने में नौकरशाही असफल रही है। यह विदेशी शासन-प्रणाली का हीप्रतिफल है।इसका निराकरण तभी हो सकता है जब जनता के प्रतिनिधियों को शासन-व्यवस्था में समानाधिकार प्राप्त हो। श्री मॉण्टेन्यू और लॉर्ड चेम्सफोर्ड कहते हैं कि“सब कठिनाइयों से बढ़कर कठिनाई धार्मिक भेद का अस्तित्त्व है”। इन महानुभावों केप्रति उचित सम्मान का भाव रखते हुए मैं यह कहने का साहस करता हूँकि इन लोगोंने इस कठिनाई के अतिशयोक्तिपूर्ण पक्ष का आश्रय लिया है। वे सन् १९१६ ई. केहिन्दू-मुसलमानोंके लखनऊ वाले समझौते का प्रशंसात्मक उल्लेख करते हैं, परन्तुसाथ ही पूछते हैंकि इसका निश्चय कैसे हो कि इन दो बड़ी जातियों का पारस्परिकवैमनस्य एकदम दूर हो गया? यह स्पष्ट है कि उक्त निश्चय केवल समझौते से ही नहींहो सकता, बल्कि वह उस उद्देश्य की पूर्त्ति से होगा, जिसे पूर्ण करना उस समझौते काध्येय है, अर्थात् स्वराज्य की प्राप्ति। यदि यह ही जाय तो शिक्षित हिन्दू और मुसलमानोंमें पर्याप्त शाक्ति एवं दायित्त्व आ जाय। तब ये देशभक्ति और सार्वजनिक भावना कीअभिवृद्धि करने में समर्थ होंगे। ये अपने देशवाशियोंमें शिक्षा, व्यावसायिक एवंव्यापारिक उद्यम की उन्नति का प्रयत्न करेंगे। इस प्रकार देश में अधिक सहयोग, उन्नतिऔर सद्भावना के नवयुग का प्रवर्त्तन होगा। इस प्रकार धार्मिक विप्लव अतीत की बातहो जायगी। श्री मॉण्टेन्यू और लॉर्ड चेम्सफ़ोर्ड, लखनऊ वाली एकता को अटूट नहींमानते। उनका कथन है कि-
““हम लोगों के विचार से जब तक इन दोनों सम्प्रदायों में अपने हित केपृथकत्त्व की वर्त्तमान धारणा बनी है, तब तक हम धार्मिक वैमनस्य के पुन: सम्भावनाकी कल्पना करने के लिये बाध्य हैं, और इसे अब भी बहुत ही सम्भाव्य मानते हैं। हिन्दूऔर मुसलमान सम्प्रदायों का बहुसंख्यक अशिक्षित वर्ग कितनी जल्दी ‘धर्म पर विपत्तिकी’आवाज सुनकर उत्तेजित हो जाता है! भारत के इतिहास में इसकी कई बार आवृत्तिहुई है। गत वर्ष का विवरण इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है”।मैं पहले ही कह चुका हूँकि इन धार्मिक दंगों की निन्दा भारतीयोंसे अधिक कोई अन्य नहीं का सकता। किन्तुविशिष्ट लेखक-द्वय यह समझने में भूल करते हैं कि धार्मिक वैमनस्य के इन आकस्मिकदंगों और दोनों सम्प्रदायों के हितों के पृथकत्त्व में कोई सम्बन्ध है। 'धर्म पर विपत्ति’की आवाज पर उत्तेजित हो जाने की प्रवृत्ति हिन्दू-मुसलमानों में धार्मिक मतभेद केकारण नहीं,बल्कि अज्ञानतावश है। यदि यह अज्ञान दूर हो जाय तो धार्मिक मतभेद के कारण होने वाला हिन्दू-मुसलमानों का झगड़ा भी दूर हो जाय,और इसी कारण से दंगे भी रुक जायँ।सम्मानित लेखक-द्वय भलीभाँति जानते हैं कि अज्ञानता के कारण कैसे-कैसे भीषण काण्ड हो जाते हैं, और यह बात इंग्लैण्ड वालों को भी विदित है। मैं यहाँ इंग्लैण्ड की साधारण सभा में १९ अप्रैल सन् १८४७ के दिए हुए लॉर्डमैकॉले के भाषण को उद्धृत करता हूँ। सरकार द्वारा प्रस्ताविक शिक्षा प्रणाली के पक्ष में बोलते हुए सन् १७८० ई. के ““नो पोपरी”” दंगे का जिक्र करते हुए आप ने कहा था कि-
““एडम स्मिथ का कथन है कि निर्धनों की शिक्षा सार्वजनिकसम्पत्ति से गहरा सम्बन्ध रखती है। जिस प्रकार मैजिस्ट्रेटको यह अधिकार है कि वह जनता में फैसतेहुए कुष्ठ रोग का निवारण करने का प्रबन्ध करे, उसी प्रकार उसका यह भी कर्त्तव्य है कि वह जनता में अज्ञानतावश फैलते हुए असौज़न्य के भाव को भी रोके। इस कर्त्तव्य की अवहेलना करने से सार्वजनिक शान्ति में अवश्य बाधा होगी।यदि आप समाज को अशिक्षित रहने देते हैं तो धार्मिक वैमनस्य के और अधिक भयानक होने और महान् अव्यवस्था उत्पन्न होने का बड़ा खतरा है”।” “महान् अव्यवस्था””,ये एडम स्मिथ के निजी शब्द हैं।ये शब्द एक महापुरुष के थे। शासकवर्ग इसकी सुचना मुश्किल से दे पाये थे कि उनकी भविष्यवाणी पूर्ण हुई, जो कभी भुलाई नहीं जा सकती। मैं सन्१७८० के “नो पोपरी दंगों” काजिक्र कर रहा हूँ।मैं नहीं समझता कि समस्त इतिहासमें इससे अधिक ज्वलन्त उदाहरण मिल सकता है।साधारण जनता की अज्ञानता सेसमस्त समाज की सम्पत्ति, अंग और जीवन अरक्षित दशा में है। कारण समझे बिना ही एक पागल की सूचना पाकर लाखों मनुष्य विद्रोह के लिये तैयार हो जाते हैं। सप्ताहभर यूरोप के सुसम्पन्न और बड़े शहरों में अराजकता रही। पार्लियामेण्ट को भी बलवाइयोंने घेर लिया था। आपके पूर्वज कुर्सी पर बैठे काँप रहे थे, और प्रत्येक क्षण ऐसा अनुभव करते थे कि अब बलबाई दरवाजा तोड़कर अन्दर घुस आए। उनका शोर कमरे के बाहर चारों ओर सुनाई पड़ रहा था। रईस लोग गाड़ियों से खींचकर नीचे गिरा दिए जाते थे। अपनी वाटिकाओं में बैठे हुए पादरी लोग खापडैलों पर चढ़कर भागने के लिये बाध्य किए गए थे। राष्ट्रीय विधानों द्वारा सुरक्षित माने हुए विदेशी दूतों के गिरजाघर तथा दूतावास नष्ट कर दिए गए। चीफ जस्टिस का घर जमीन में मिला दिया गया। प्रधान मंत्री के दुधमुँहे बच्चे रात की पोशाक पहने पलंग से उठाकर अश्वरक्षकों की मेज पर सुलाए गए,क्योंकि वही एक ऐसा स्थान था, जहाँ उत्पात से रक्षा हो सकतीथी।जेलखाने का फाटक तोड़ डाला गया। लुटेरे और हत्यारे उस हल्ले में शामिल हो गए।लंदन में एक साथ छत्तीस घरों में से आग को लपटें निकल रही थीं।अब प्रतिहिंसा की बारी आई। उन अभागों की गणना कीजिए, जिन्हें गोली मार दी गई, जो फाँसी पर लटका दिए गए, जो कुचल डाले गए,जिन्होंने स्वयं हालबौर्न पहाड़ी के निकट बहने वाली सरिताओं में डूबकर आत्महत्या कर ली, तब आप देखेंगे कि युद्ध में जय और पराजय अपेक्षाकृत कम जानें गँवाकर मिलती रहीं हैं। इस विपद् का कारण क्या था, जो लन्दन के इतिहास में महामारी के समकक्ष मानीजाती है? इस विपद् का कारण जनता का अज्ञान था, जिसके फलस्वरूप, प्रासादों, नाट्यगृहों और मन्दिरों मेंरहनेवालेउत्पीडित हुए थे। यह बर्बरता न्यूजीलैण्ड के नरभक्षक जंगलियों की सी क्रूरता औरपिशाचता को पहुँच गई है। मैं कह सकता हूँ कि यह बर्बरता स्मिथफील्ड के बाजार मेंखदेड़े जाने वाले पशुओं के साथ की जाने वाली निर्दयता के सदृश थी।
“दृष्टान्त अवश्य विस्मयकारी है, पर यही एकमात्र दृष्टान्त नहीं है। इस प्रकारके कारण निम्नलिखित विप्लवों के सम्बन्ध में हैं-नॉटिंघमके दंगे, ब्रिष्टल कीलूटपाट, स्विंग और रिवेका के सभी उपद्रव, यॉर्कशायर की सुन्दर और बहुमूल्यमशीनों की तोड़-फोड़,केराट के खलिहानों और सूखी घासों का भस्म होना, औरवेल्स के प्राचीरों और इमारतों का धराशायी होना। क्या ये बातें ऐसे देशों मेंनहीं हुई हैं,जहाँ के मजदूरों का मस्तिष्क शिक्षा से विकसित हो चुका हैं, जहाँ उन्हेंस्वबुद्धि केप्रयोग मेंआनन्दानुभव करना सिखाया जाता है, जहाँ उन्हें विश्वस्त्रष्टा का सम्मान करनेकी शिक्षा दी जाती है, जहाँ उन्हेंन्यायोचित अधिकार के आदर करने की शिक्षा दीजाती है,और जहाँ उन्हेंउचित कष्टों के सुधार के लिये शान्तिमय और वैध उपायोंकाआश्रय लेने की शिक्षा दी जाती है?
मेरी धारणा है कि विद्वान् लेखकों ने न सिर्फ दंगे के उचित कारणों का पतालगाने में ही गलती की है, बल्कि उन्होंने इस बात का भी विचार नहीं किया किअभाग्यवश भारत में कुछ ऐसे अंग्रेज कर्मचारी भी हैं, जिन्हेंधार्मिक भेदभाव प्रतिफलितहोते देखकर प्रसन्नता होती हैं। केवल हिन्दू-मुसलमानों के परस्पर वैमनस्य में ही नहीं,बल्कि मुसलमानों के विभिन्न सम्प्रदायों के वैमनस्य में भी इन्हें बड़ा मजा आता है। ऐसेलोग सर जॅानस्ट्रैची के समान विचारवाले हैं। उनका कहना है कि “देश में द्वेषपूर्ण सम्प्रदायों का रहना हम लोगों को राजनीतिक स्थिति के लिये एक प्रबल कारण है”।कोमिल्ला और जमालपुर के दंगोंको दु:खद कथाओं को दुहराना ठीक नहीं है, किन्तुइस प्रकारके विवाद में उन घटनाओं का उल्लेख करना ही पड़ता है। इस सम्बन्ध मेंइस बात पर ध्यान देना आवश्यक है कि भारतीय रियासतों में हिन्दू-मुस्लिम दंगे बहुतकम होते हैं। यही नहीं बल्कि ब्रिटिश भारत में भी जो जिले हिन्दू या मुसलमानजिलाधीशों अथवा सुपरिण्टेण्डेण्टों के अधीन हैं, वे इसतनाव और आशंका के समयभी शान्त रहते हैं। किन्तु जिन जिलों मेंअधिकांश अंग्रेज कर्मचारी हैं, वहाँ ऐसे दंगे प्रायः होते ही रहते हैं।
यहाँ यह बातभी ध्यान में रखनी चाहिए कि केवल भारत ही एक देश नहींहै जहाँ,धार्मिक मतभेद पाया जाता हो। इंग्लैण्ड भी इस मतभेद से अछूता नहीं है।इंग्लैण्ड का इतिहास प्रोटेस्टेण्ट और रोमन कैथोलिक सम्प्रदायों के पारस्परिक विद्वेषऔरलज्जाजनक घटनाओं से भरा पड़ा है। प्रोटेस्टेण्टों ने केथोलिकों को बहुत समयतक पददलित किया था। आयरलैण्ड के लिये तो यह बिल्कुल ताजी बात है।कैथोलिकों के लियेलॉर्डसभा, साधारण सभा, मजिस्ट्रेट पद, नगर के दफ्तर, सेना वकालत, न्यायधीश पद, सरकारी विभाग, शासन विभाग, सभी के दरवाजे बन्द थे।उनको पार्लियामेण्ट में अपने प्रतिनिधि भेजने का अधिकार भी प्राप्त नहीं था। सभी सामाजिक और राजनीतिक मामलों में आयरलैण्ड के कैथोलिक बहुत संख्या में अपने प्रोटेस्टेण्ट स्वामियों के लिये लकड़ी काटते और पानी खींचकर देते थे।
““कैथोलिक इमैन्सिपेशन बिल””विधान के द्वारा रोमन कैथोलिकों को पार्लियामेण्ट में प्रवेश करने की अनुमति मिली और सभी सरकारी विभागों (दीवानी और फौजदारी) के कुछ उच्च पदों को छोड़कर ये पद पाने के अधिकारी माने गए। यह विधान १८२९ में स्वीकृत हुआ। आयरलैण्ड में चर्च को स्थापित न करने का बिल अभी सन् १८३९ में स्वीकृत हुआ है।किन्तु इससे प्रकट होता है कि उस समय के प्रोटेस्टेण्टों में धार्मिक सहिष्णुता बहुत बढ़ चुकी थी। कैथोलिक-उद्धार-विधान (कैथोलिक इमैन्सिपेशन बिल)पार्लियामेण्ट में उस समय पास हुआ था, जिस समय पार्लियामेण्ट में एक भी कैथोलिक सदस्य नहीं था। यह प्रतिनिधि-सत्तात्मक संस्थाओं के उदारात्मक प्रभाव का सुन्दर उदाहरण है।जहाँ पर ऐसी संस्थाएँ हैं, वहाँ की जनता पर इसका अच्छा प्रभाव पड़ा है। ईश्वर को धन्यवाद है कि इंग्लैण्ड में प्रोटेस्टेण्टों और रोमन कैथोलिकों के वैमनस्य की अपेक्षा भारत के हिन्दू और मुसलमान कुछ परिमित कालों और क्षेत्रों को छोड़कर अधिक सुखी रहे हैं।
इस विशाल देश में हिन्दू और मुसलमान शताब्दियों तक पड़ोसी की तरह, एक दूसरे का विश्वास करते हुए और एक दूसरे के साथ अत्यन्त घनिष्ट और आत्मीय, सामाजिक तथा व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित करते हुए रहे। धार्मिक वैमनस्य के विस्फोट किसी-किसी स्थान में कभी-कभी हुए हैं, किन्तु उनकी तत्काल शान्ति भी हो गई है।गत वर्ष कुछ स्थानोंमें जो दुर्घटनाएँहुई,उनके फैलने और पैदा होने का कुल दोषजनता ने खुल्लमखुल्ला अधिकारियों के सिर मढ़ा है। राजधानी दिल्ली के हिन्दुओं नेजो “रामलीला” करना अस्वीकार कर दिया, उसका कारण हिन्दूऔऱ मुसलमानों कापरस्पर वैमनस्य नहीं था, बल्कि स्थानीय अधिकारी ही इसके दोषी थे। अधिकारियों केहठ और उनके कठोर व्यवहार के कारणदिल्ली के समस्त हिन्दुओं ने अपने विशाल कारबार को ग्यारह दिन तक लगातार बन्द रक्खा, और इसके कारण बड़ानुकसानउठाया। किन्तु यह सब होते हुए भी हिन्दुओं और मुसलमानों में शान्ति बनी रही। समस्त देश में अधिकारियों और जनता के व्यवहार में कोई शिकायत नहीं हुई। बहुत से स्थानों में, विशेषकर लाहौर में हिन्दू और मुसलमानों ने अपने-अपने त्यौहार शान्तिपूर्वक मनाने में हार्दिक सद्भावना के साथ एक दूसरे के साथ सहयोग किया।
इस विषय को समाप्त करने के पूर्व मैं कहना चाहता हूँ कि हम लोगों के धार्मिक मतभेद के कारण जो कठिनाई उपस्थित होती है, वह उस कठिनाईसे कहीं कम भयानक है जो कि सन् १८३७ में कनाडा के दो विभिन्न प्रान्तों में अंग्रेजों और फ्रांसीसियों के परस्पर वैमनस्य से उत्पन्न हुई थी। उस समय सर जेम्स क्रेग ने लिखा था कि हम लोगों ने भेद की रेखा स्पष्ट रूप से खिंच गई है, हममें मित्रता और सहयोगिता का अभाव है; यहाँ तक कि परस्पर आलाप-संलाप भी नहीं के बराबर रह गया है। लॉर्ड डरहम ने कैनाडा के लिये दायित्त्वपूर्ण सरकार की स्थापना के लियेसिफारिश करने वाली प्रसिद्ध रिपोर्ट मेंकहा है कि “मैंने एक राज्य के अन्तर्गत दो राष्ट्रोंको तलवार खींचे देखा। मैंने सिद्धान्त का युद्ध नहीं बल्कि जातिगत युद्ध का साक्षात्कारकिया”। यह सन्तोष को बात है कि वहाँ की दो बड़ी जातियों में व्यापक और गहरावैमनस्य होते हुए भी दायित्त्वपूर्ण सरकार की स्थापना मेंकोई बाधा नहीं हो सकती।किन्तु इस वैमनस्य को दूर करने के लिये यह अचूक और प्रभावशाली उपायहोगा।दायित्त्वपूर्ण सरकारकी स्थापना का यह कारण भी है। इसके बाद की घटनाएँ उसनिर्णय की बुद्धिमत्ता का समर्थन करती हैं। इस घटना से पता चलता है कि स्वायत्तशासनका अधिकार यदि दोनोंसम्प्रदायों के नेताओंको सौंप दिया जाय तो इससे धार्मिकमतभेद बन्द हो जायेंगे, तथा अनिष्ट घटनाओं का होना रुक जायगा।
जनताका हित : नौकरशाही तथा शिक्षित भारत
रिपोर्ट में इस बात पर बड़ागर्व किया गया है कि सरकारी कर्मचारी अभी तक भी रैयतों के सर्वश्रेष्ठ मित्र रहे हैं। अत: जनता की रक्षा के लिये इनके हाथ मेंतबतक शक्ति देना आवश्यक है, जबतक यह स्पष्ट न हो जाय कि उनका हित उनकेहाथों में निर्विघ्न दिया जा सकता है, अथवा व्यवस्थापिका सभा उनका प्रतिनिधित्त्व करेऔर उनके हितों का विचार करे। यही बात दलितवर्ग के सम्बन्ध में भी है। रैयत औरदलितवर्ग के हितों को रक्षा के लिये सरकारी कर्मचारियों के सचेष्ट रहने के अधिकारमें किसी को विवाद न होगा। किन्तु यह दावा अति अल्प मात्रा में सकारा जा सकताहै कि अभी तक नौकरशाही ही इन वर्गो की सर्वश्रेष्ट मित्र रही। इस पर विचार कीभी आवश्यकता है। इस बात से इस पर विचार करना और भी आवश्यक हो गया हैकि रिपोर्ट मेंवर्णन आया है कि “उन्नति की सम्भावना इस बात पर अधिक निर्भर हैकि शिक्षित भारतीय अशिक्षित वर्ग के प्रति किस अंश तक सहानुभूति प्रदर्शित करनेऔर उचित रूप से इनका प्रर्तिनिधित्त्व करने की योग्यता रखता है”। हमको यह भीस्मरण दिलाया गया है कि कुछ लोगों के विचार से देश के साधारण वर्ग से यहाँ केराजनीतिक विचार वाले लोग बहुत ऊँचे हैं और साधारण जनता से बिलकुल पृथक्रहते हैं। प्रस्तावों के विशिष्ट लेखक-द्वय ने देश के शिक्षित वर्ग से बहुत ही करुणबिनती की है कि “यदि शिक्षित वर्ग इससे कुपित हों, कि अभी तक इन्होंने अपने हीपदों की रक्षा की है और देश के मजदूर और खेतिहर वर्ग के प्रति अपर्याप्त लगनप्रदर्शित की है, तो अब उन लोगों के लिये अवसर उपस्थित है कि वे अपने को इसआक्षेप से मुक्त करें और समस्त जनता के नेता के रूप में मैदान में आवें। कई प्रस्तावतो नौकरशाही के हाथ में तबतक अधिकार देने और शिक्षित भारतीयों को न देने केसमर्थक हैं, जबतक मजदूर और किसान आत्मरक्षा का पाठ नहीं सीख लेते। जान पड़ताहै कि इसका आधार यही भावना है कि नौकरशाही सरकार जनता की अधिकहितचिन्तक है। अत: इस प्रश्न पर संक्षेप में विचार करना आवश्यक हो गया है।
ब्रिटिश शासन के आरम्भ में सरकारी कर्मचारियों ने शान्ति और व्यवस्था स्थापित करके, धन और जनकी रक्षा करके, देश को अमूल्य व्यवस्थात्मक विधान प्रदान करके, शासन में दीवानी, फौजदारी विभाग का आयोजन करके और साथ ही पुलिस और मालगुजारी विभाग कायम करके सिंचाई के साधन देकर, चिट्ठी पत्री भेजने के वर्त्तमान साधनोंमें उन्नति और नये साधनों की स्थापना करके, स्कूल और अस्पतालों का भी पर्याप्तविस्तार करके प्रजा के लिये बहुत कुछ किया। सरकार ने जमीन के अधिकांश मालिकोंको उनकी भूमि का अधिकार सौंप दिया। देश की प्राचीन प्रथा के अनुरूप ही इस सम्बन्ध में कानून भी बनवाए कि जब तक ये लगान न दें तब तक जमीन के मालिक बने रहें और कानून के अनुसार जब तक ये बेदखली से अपनी रक्षा कर सकें, और बढ़ा हुआ लगान देते रहें, तबतक वे भूस्वामी बने रहें। प्रजा के लिये और इससे अधिक जो उन्होंने किया, उसके लिये वे सब प्रकार के सम्मान और कृतज्ञता के पात्र हैं। परन्तु नौकरशाही में जितने सच्चे और भले व्यक्ति हैं, उनमें से प्रत्येक से, जिनकी संख्या अल्प नहीं है, मैं पूछता हूँ- ““कि क्या वे सच बतला सकते हैं कि जिस शासन-पद्धति के वे प्रतिनिधि हैं, उस पद्धति ने प्रजा के मजदूरों औरसाधारण वर्ग के हित की क्या पर्याप्त अभिवृद्धि की है”?जो रिपोर्ट मेरे सामनेहै वह इस बात की साक्षी है कि इस पद्धति ने उन्नति में कुछ भी सहायता नहीं की है। सन् १८७८-७९ के भयंकर अकाल के बाद जो कमीशन नियुक्त हुआ था उसने इस बात की ओर ध्यान आकृष्ट किया है कि जनता का अधिकांश भाग भयंकर दरिद्रता काशिकार है। अकाल के समय जिन कष्टों के ये शिकार हुए हैं, उसके लिये कोई उपचारतबतक पर्याप्त नहीं हो सकता जबतक इनके लिये औद्योगिक व्यवसाय की उन्नति के साथ पृथक्व्यवसाय की व्यवस्था न की जाय। अभी तक इसके लिये उल्लेखनीय कार्यबहुत ही थोड़ा हुआ है। अधिकांश प्रजा अब भी दरिद्रता और अज्ञान के गर्त में हैं।सन्१८८४ के शिक्षा-कमीशन ने सार्वभौम प्रारम्भिक शिक्षा के विस्तार के लिये सिफारिशकी है। किन्तु यह जानकर दु:ख़ होता है कि तैंतीस वर्ष बीत चुकने पर भी हम इसकीआवश्यकता का अनुभव करते हैं। जहाँ तक दलित श्रेणी से इस प्रश्न का सम्बन्ध है,वह विशेषत: उनकी शिक्षा से है। यदि शिक्षा का लाभ उनके लिये भी होता तो आज केइनकी स्थिति मेंबड़ी उन्नति हुई होती। किन्तु ऐसा नहीं हुआ। मृत्यु संख्या का बहुत अनुपात बता रहा है कि यहाँ के निवासियों का स्वास्थ्य गिरा हुआ है। स्वास्थ्य और चिकित्सा सम्बन्धी सुविधाएँ इतनी जनसंख्या की आवश्यकता के लिये अपर्याप्त हैं।व्यावसायिक शिक्षा की उन्नति नहीं हुई है। उद्योग-धन्धों को प्रोत्साहन नहीं मिला है।दीवानी और फौजी विभाग में भारतीयों को अल्पसंख्या में ही उच्च पद प्राप्त हैं।सार्वजनिक व्यय में कमी नहीं हुई है, उलटे वह अत्यन्त विस्तृत रूप से बढ़ रहा है।इतने समय तक नौकरशाही के ही हाथ में शक्ति रही है। जिन कार्यों को सरकार ने उचित समझा, उन सब कार्योंके लिये उसको रूपया मिल गया,किन्तु प्रजा के कल्याण-सम्बन्धी कार्य के लिये सरकार ने सदा रुपयों की कमी बतलाई है।
अब यह देखना है कि इस अवधि में शिक्षित भारतीय क्या करतेरहे हैं? सन्१८८५ से बराबर प्रतिवर्ष ये काँग्रेस में व्यक्तिगत हानि उठाकर भी सम्मिलित होते रहेऔर बड़ी लगन से नौकरशाही के विरुद्ध प्रस्ताव पर प्रस्ताव पास करके ग्रामीणजनता की दशा एवं सर्वसाधारण की उन्नति के लिये जोर देते रहे हैं। गत तैंतीस वर्षोंमें काँग्रेस ने जो प्रस्ताव पास किए हैं, उन पर एक सरसरी दृष्टि डालने से प्रत्यक्ष होजायगा कि शिक्षित भारतीयों का देशा की जनता के प्रति क्या व्यवहार रहा है? सन्१८८६ ई. में काँग्रेस ने अपने निर्णय में कहा था कि “भारतीय जनता के बहुसंख्यकवर्ग की बढ़ती हुई दरिद्रता से काँग्रेस की गहरी सहानुभूति हैं। वह इस दशा को गम्भीरआशंका की दृष्टि से देखती है, और प्रतिनिधि-सत्तात्मक व्यवस्था की स्थापना के लियेसिफारिश करती है। जनता की वर्तमान दशा को उन्नत करने के लिये काँग्रेस इसकोअत्यन्त आवश्यक और व्यवहार्य उपक्रम मानती है”। सन् १८८८ ई. में काँग्रेस नेसिफारिश की थी कि, “देश की निर्धनता को दृष्टि में रखते हुए यह अभीष्ट है किसरकार व्यावसायिक शिक्षा का विस्तार करे, जो कि देश की परिस्थिति के अनुकूल होऔर जिससे स्वदेशी शिल्प-व्यवसाय को प्रोत्साहन मिले”। सन् १८८० ई. मेंकाँग्रेस नेसिफारिश की थी कि भारत-सरकार का प्रथम कर्त्तव्य था कि वह “सभी विभागों मेंसाधारण और शिल्पकला-सम्बन्धी शिक्षा का पोषण करे और उसे प्रोत्साहन दे”। पुन:प्रजा की दरिद्रता की दृष्टि से स्वदेशी शिल्प के प्रोत्साहन के लिये काँग्रेस ने जोर दियाथा और देश की व्यावसायिक दशा की जाँच के लिये एक कमीशन नियुक्त करने कीप्रार्थना की थी। सन् १८९१ ई. में जनरल बूथ के एक तार के जवाब में काँग्रेस ने कहाथा कि पाँच-छ: करोड़ अर्द्ध-बुभुक्षित अनाथों की करुण दशा इसके अस्तित्त्व केप्रधान कारण हैं। काँग्रेस ने बार-बार अपने निर्णयों द्वारा सरकर पर जोर दिया है कि,“भारत का तबतक सुशासन और उचित शासन नहीं हो सकता, और न इसके निवासी तबतक उन्नति कर सकते हैं, तथा सन्तुष्ट हो सकते हैं, जबतक इसको अपने निर्वाचितप्रतिनिधियोंद्वारा देश की व्यवस्थापिका सभा में प्रबल मत स्थापित करने का अवसरनहींमिलता”। इस भयंकर दशा को सुधारने के लिये अनेक न्यूनीकरण और वृद्धीकरणके प्रस्ताव पास किए गए हैं। लगातार कई वर्षों तक काँग्रेस ने नमक-कर में कमी करनेऔर पॉच सौ सेहटाकर एक हजार की आय पर लगाने कीप्रार्थना की थी। इसके बहुतदिनों बाद सरकार ने ये कानून बनाए। काँग्रेस ने मादक द्रव्य-निषेध के सिद्धान्त कोअधिक व्यापक बनाने के लिये भी अथक प्रयत्न किया और गरीबों के दरवाजों, अर्थात् गाँवों से मादक द्रव्य के प्रलोभन को दूर रखने का उद्योग किया था। काँग्रेस ने जंगल-सम्बन्धी कानून में सुधार करने की, बेगार और रसद लेने की प्रथा को उठा देने की सिफारिश कि थी। प्रतिज्ञाबद्ध मजदूरी प्रथा के विरोध में, उपनिवेशों में भारतीयों के प्रति सद्व्यवहार आदि के लिये तथा दलित वर्ग के हित के लिये ही काँग्रेस ने आन्दोलन तथा प्रस्ताव किए थे। कृषि-सम्बन्धी उन्नति के लिये भी काँग्रेस ने सरकार से जमींन की मालगुजारी का परिमाण निर्धारित करने और सब जगह दमामी बन्दोबस्त का प्रबन्ध करने के लिये सिफारिश की थी। काँग्रेस ने सहायक बैंकों की स्थापना, अन्य देशों केसमान खेती की वृद्धि और उन्नति के लिये व्यवस्था करने, तथा देशभर में प्रदर्शनात्मकऔर प्रयोगात्मक क्षेत्रों की प्रचुर मात्रा में स्थापना करने आदि की सिफारिश की थी।काँग्रेस ने बार-बार सिफारिश की है कि प्रतिवर्ष जो पूरे पाँच करोड़ की आबादी बढ़रही है, इनकी दशा बहुत ही बुरी है और प्राय: सभी भूखों के समान हैं, जिनमें से हर दस वर्ष में करोड़ों भारतीय भूख से शरीर त्याग करते हैं। काँग्रेस ने विनीत सिफारिशकी है कि इस विपत्ति काल के उपचार के लिये तात्कालिक व्यवस्था होनी चाहिए। जबसन् १८९६ ई. का अकाल पड़ा था, तब काँग्रेस ने फिर प्रजा की भयंकर दरिद्रता कीओर सरकार का ध्यान आकर्षित किया था और फिर इस बात पर जोर दिया था किइस विपदा की आवृत्ति के निराकरण के लिये विधान में उचित उपायों का स्पष्ट उल्लेखहो जाना चाहिए। मितव्यय हो, स्थानीय लुप्त कला, व्यवसाय और स्वदेशी वस्तुओं कीउन्नति तथा नवीन कला और व्यवसाय का भी आरम्भ हो।
इस सूची को अधिक बढ़ाना अनावश्यक है, और काँग्रेस के इसी प्रकार केअन्य प्रस्तावों की उद्धरणी भी व्यर्थ है। मैं आशा करता हूँकि इतना वर्णन ही यह सिद्ध करने के लिये पर्याप्त है कि भारतीय शिक्षित वर्ग कितनी लगन, तत्परताएवं सहृदयता के साथ एक पीढ़ी से निरन्तर देश के दरिद्र भाइयोंकी दशा सुधारने के लिये प्रार्थना करता रहा है। प्रान्तीय सभाएँ, साम्प्रदायिक सम्मेलन, राज्यपरिषद्और प्रान्तीय व्यवस्थापिकासभा तक की कार्यवाही देखने से यही प्रमाण मिलेगा। किन्तु विस्तारपूर्वक उनके उद्धरण देना व्यर्थ है। मैं समझता हूँकि शिक्षित भारतीय वर्ग भली प्रकार से यह दावाकर सकता है कि वह अपने सरकारी कर्मचारी भाइयों के बराबर ही अशिक्षित वर्ग केप्रति सहानुभूति प्रदर्शित करने और उनका प्रतिनिधित्त्व करने की योग्यता रखता है।
जापानकीउन्नति
यह बड़े दु:ख की बात है कि ब्रिटिश निर्वाचक और उसकी उत्तरदायी प्रतिनिधिनौकरशाही ने, जो इतने समय तक एकमात्र शक्ति की अधिकारिणी रही है, शिक्षितभारतीयोंकी प्रार्थनाओं पर बहुत कम ध्यान दिया है। इतने ही काल में जापान ने बहुतउन्नति कर ली है, जो भारत की अपेक्षा साधनों और शासन-सम्बन्धी संघटन के विचारसे आधे के भी बराबर नहीं है। जापानियों ने अपने देशमें शिक्षा को सार्वभौम बना दियाहै। देश के नौजवानों को ऐसी वैज्ञानिक और शिल्प-सम्बन्धी शिक्षा दी गई है कि वेप्रत्येक विभाग में सफलतापूर्वक काम करने के योग्य हो गए हैं। एक सभ्य देश के योग्यदीवानी, फौजी और नौ-सेना सम्बन्धी शिक्षा उन्हें दी गई है। उन्होंने अपने व्यवसाय की उन्नति की है, शिल्प कानिर्माण किया है, देश की प्रजा की उन्नति और उनके बल की भी वृद्धि हुई है। अपने देश को संसार की शक्तिशाली जातियों में स्थान पाने के योग्य बनाया है। इसके शिल्प यूरोप और भारत मेंसर्वत्र व्याप्त हैं। उनके जहाज अपना ही माल लाते और ले जाते हैं। वर्तमान परिस्थिति में उसकी मैत्री ब्रिटिश सरकार के लिये बड़ी सहायक सिद्ध हुई है। शिक्षित भारतीय इस बात का अनुभव करते हैंकि यदि ब्रिटिशनिर्वाचकों और पार्लियामेण्ट ने सन् १८८६ ई. में भारतीयों की माँगों को स्वीकार करलिया होता, और इन्हेंभी राज्यशाक्ति प्राप्त हो गई होती तो इन लोगों ने भी इसी प्रकार की उन्नति कर ली होती। स्वभावत: ये उत्सुक हैंकि वर्तमान में और आगे भी अधिकार प्रदानकरने का क्रम रुकना न चाहिए। गत तैंतीस वर्षों मेंभारतीय प्रजा की राष्ट्रीय शक्ति औरउन्नति की प्रगति जिस कोटि तक पहुँच जानी चाहिए थी, उसके लिये नौकरशाही असफल रही है। शिक्षित भारतीयों के लगातार निवेदन करते रहने पर भी नौकरशाही नेबहुत ही अल्प उन्नति के लिये चेष्टा की है। अतएव शिक्षित वर्ग कीयह व्यापक धारणा हो गई है कि जबतक उन्नति के लिये भारतीयोंको अधिकार नहीं मिलते, तबतक देशकी वास्तविक उन्नति अनिश्चित ही है। सन् १९१४ ई. में भी यही बात थी। गत चार वर्षोंके घटनाचक्र ने इसकी आवश्यकता को और भी अधिक गम्भीर बना दिया है।
युद्ध का प्रभाव
युद्ध के पहले भारतीय लोग देश के प्रबन्ध मेंअपने जन्म-सिद्ध अधिकारऔर न्याय के आधार पर अधिकार पाने का दावा करते थे। उसका समर्थन भी ब्रिटिशशासक और पार्लियामेण्ट की प्रतिज्ञाओं से होता था। युद्ध में भारतीयों ने जो सहायताकी,इससे उनके जन्म-सिद्ध अधिकार पाने की भावना को नई स्फूर्त्तिमिली। लॉर्डहार्डिंग का भारत सदा कृतज्ञ रहेगा कि उन्होंने भारतीय सेना को विदेश में इंग्लैण्ड औरफ्रांस को स्वतंत्रता, अधिकार और न्याय के महायुद्ध में सहायता प्रदान करने काअवसर दिया। भारत को इस बात का गर्व है कि भारतीय जनता और भारतीय नरेशोंने ब्रिटिश साम्राज्य को महान् राष्ट्र विप्लव के अवसर पर उचित और पर्याप्त सहायतादी। यह बात सबने मानी है कि भारतीयों की शक्तिशाली और सामयिक सहायता प्राप्तहो जाने से फ्रांस को विजय प्राप्त हुई, नहीं तो सन् १९१४ के अन्त में फ्रांस के लियेयुद्ध का परिणाम कुछ और ही हुआ होता। यह भी निर्विवाद है कि यदि भारत ने उससमय सहायता न दी होती तो ब्रिटेन की बड़ी बदनामी होती। इस सफलता की दृष्टिसेहम भारतीय पूछते हैंकि इंग्लैण्ड के पास अब क्या कारण है कि वह कनाडा,आस्ट्रेलिया तथा अन्य स्वायत्त शासन वाले ब्रिटिश उपनिवेशों के समान भारत को अपनेघरेलू प्रबन्ध के लिये कुछ भी अधिकार प्रदान करने की अनुमति नहीं देता। श्रीमॉन्टेग्यूऔर लॉर्ड चेम्सफोर्ड ने भारत पर महायुद्ध के प्रभाव का पूरा विवरण दियाहै। उन लोगोंने निष्कर्ष निकाला है कि,“महायुद्ध ने भारत को आत्म-सम्मान के लियेनूतन भाव प्रदान किया है”। सर सत्येन्द्रनाथ बसु के शब्दों में“भारत को इस बात कागर्व है कि ब्रिटिश साम्राज्य के अन्य देशों की अपेक्षा वह पीछे नहीं रहा है, किन्तुपरीक्षा के अति दारुण अवसर पर इसने अन्य देशों के साथ कन्धे-से-कन्धा मिलाकरसाथ दिया है। भारत इसका अनुभव करता है कि उसकी परीक्षा हुई और उस परीक्षामें वह सफल रहा। इस परीक्षा से भारत का पदऊँचा उठ गया है और अब भारतइसका अधिकारी है कि ब्रिटेन उसके उच्च पद कोस्वीकार करे और साथ ही समस्त संसार भी इसकी स्वीकृति दे”। आगे चलकर उन लोगों ने इसका भी उल्लेख कियाहै कि, “अब यहबात क्रमश: स्पष्ट हो रही है कि युद्ध स्वैर शासन और स्वतंत्र शासन के बीच का संग्राम है, छोटे राष्ट्रों के अधिकार का संग्राम है,और मनुष्यमात्र को अपने राष्ट्र का स्वतंत्र शासन करने का संग्राम है। बार-बार इस बात की ओर ध्यान आकृष्ट किया गया है कि यूरोप में ब्रिटेन स्वतंत्रता के लिये लड़ रहा है, और यह भी कहा गयाहै किब्रिटेन भारत के लिये वह अधिकार देना अस्वीकार नहीं कर सकता,जिसकेलिये वह स्वयं यूरोप में लड़ रहा है, और जिसके युद्ध में भारत ने धन और जनसेउसकी सहायता की है। अमेरिका और इंग्लैण्ड के नेताओं ने जर्मनी के सैन्यबल को नष्टकरने के लिये और प्रत्येक राष्ट्र को आत्मनिर्णय के अधिकार देने के विषय में जोभाषण दिए हैं,उनसे भारत के राजनीतिक विचारों पर भारी प्रभाव पड़ा है, और इससेउनमें स्वराज्य की माँग के लिये नया उत्साह और नई शक्ति आ गई है, जिसका शिक्षितजनता में पहले से ही अधिक प्रचार था”। इस स्पष्ट और शुद्ध वक्तव्य के लिये श्रीमॉन्टेग्यूऔर लॉर्ड चेम्सफोर्ड हम लोगों के धन्यवाद के पात्र हैं। उनके इस विचारसेऐसी आशा होती है कि यह प्रस्ताव भारत में उत्तरदायित्त्वपूर्णसरकार की स्थापना के आरम्भ के लिये सारपूर्ण उपाय की सिफारिश करेगा। इससे भारत का उच्च पद भी स्वीकृत होगा और आत्म-विश्वास के सिद्धान्त का भी पालन होगा। किन्तु इनके प्रस्तावइस कार्य के लिये बहुत ही अपर्याप्त हैं। यह आश्चर्यजनक बात है कि स्थिति को पूर्णतया समझ लेने के बाद भी विशिष्ट लेखक-द्वय इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि वर्त्तमान समय में भारतीय लोग ऐसे सुधारात्मक प्रस्तावों से भी प्रसन्न हो सकते हैं जो उन्हें देशकीकेन्द्रीय और प्रान्तीय सरकार के शासन में वास्तविक अधिकार नहीं देते।
विदेशी धर्मप्रचारकों, व्यापारियों तथा सरकारी कर्मचारियों का हित
श्री मॉण्टेग्यूऔर लॉर्ड चेम्सफोर्ड ने यह धारणा बना ली है कि भारतीय लोग अधिकार पाने के योग्य नहीं हुए हैं। किन्तु कोई भी भारतीय इनका समर्थन नहीं दिखाई देता। जिन बातों से वे इस परिमाण पर पहुँचे हैं,उन पर मैं विचार कर चुका हूँ। मैं इस धारणा के सम्बन्ध में भी पर्याप्त कारण दे चूका हूँ कि शिक्षित भारतीयों के हाथ में प्रजा का हित नष्ट न होगा। मैं यह भी दिखला चुका हूँ कि अशिक्षा और धार्मिक मतभेद भी सुधार के मार्ग में बाधक नहीं हो सकते हैं।मैं ये कहने के लिए बाध्य हूँ कि भारतीय लोग उनकी इस बात पर अवश्य रोष प्रगट करेंगे कि यदि शासनाधिकार भारतीयों के हाथ में सौंपा गया तो विदेशी धर्मप्रचारकों, विदेशी व्यापारियों तथा भारत में नौकरी करने वाले विदेशियों के हित की हत्या होगी। शिक्षत भारतीयों ने विदेशी धर्मप्रचारकों के प्रति कोई भी द्वेषभाव नहीं प्रदर्शित किया है, बल्कि उल्टे अनेक के साथ अच्छी प्रकार से इनका सत्संग हुआ है।किन्तु श्री मॉण्टेग्यू और लॉर्ड चेम्सफोर्ड को चिन्ता है कि ऐसे व्यक्तियों के हित को भारतीयों के हाथ सौंपना निरापद नहीं है जो भारत के निवासियों को उनके प्राचीन धर्म को छुडाकर विलायती धर्म अपनाने का कार्य करने केलिये प्रतिज्ञाबद्ध होकर आया है। इस बात के आधार पर किसी देश को स्वराज्य केअयोग्य बताना, किसी भी तटस्थ व्यक्ति को स्वराज्य के लिये और भी अधिक उत्तेजितकरेगा। ऐसा कहना भी इस देशा केनिवासियों के साथ अन्याय करना है कि यदि इन्हेंशक्ति मिल जायगी तो ये उसका प्रयोग विदेशी व्यापारियों और सरकारी कर्मचारियों कोहानि पहुँचाने में करेंगे। क्या व्यापार के प्रधान केन्द्रों में भारतीयों का विदेशी व्यापारियोंके साथ सद्व्यवहार नहीं है? तब इस बात में कौन सा तत्त्वहै, और इस आशंका काकारण क्या है कि यदि भारतीयों को अधिकार मिल जाय तो वे विदेशी व्यवसाय परहानिकर आक्रमण कर बैठेंगे अथवा दूसरोंको प्रतिस्पर्द्धा करने की आज्ञा देंगे? क्या वेइतने मूर्ख बन जायेंगे कि विदेशी व्यापारी के विरुद्ध कोई शिकायत करके अपने देशके आयात और निर्यात सम्बन्धी व्यापार को ही नष्ट कर डालेंगे? उनका यह कथनकितना भ्रमपूर्ण है कि हममें इतनी बुद्धि नहीं होगी कि हम यह समझ सकें। व्यापार कीरक्षा और अभिवृद्धि के लिये यह सबसे अधिक आवश्यक है कि किसी भी व्यापारी केमन में उनसे नेकनीयती और ईमानदारी के व्यवहार के अतिरिक्त अन्य व्यवहार पाने कीतनिक भी शंका न हो, और सरकारी कर्मचारियों के सम्बन्ध में भी यह सन्देह कैसेउत्पन्न हुआ कि उनके न्याय-अधिकार के प्रयोग का समर्थन नहीं किया जायगा? यदिशासन में भारतीयों को अधिकार मिल जाय तो वे सरकारी कर्मचारी अपनी नियुक्ति की शर्त्तोंमेंप्राप्त अधिकारों, सुविधाओं और सुरक्षित अधिकारों का उपभोग न कर पायेंगे?क्या इस शंका मेंकोई सार है कि भारतीय समाज के सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधि ऐसा होने देंगे?क्या वे उन नियमों के भंग करने की बात सोचेंगे, जो उन्हीं के सहयोग से विधिवत्बनाए गए हैं?क्या वे कलाओं में विशिष्ट शिक्षा-प्राप्त विदेशियों को अपने हित के लियेअपने इसी व्यवहार के बलपर निमन्त्रित कर सकेंगे, जिन्हें आगामी कई वर्षों तकनिमन्त्रित करने की आवश्यकता होगी ही?वास्तव में ये शंकाएँ निर्मूल हैं।
मुझे भय है कि उपर्युक्त प्रश्नऔर इसके अतिरिक्त अन्य कई प्रश्नों परप्रस्ताव में इस समय की विशेष स्थिति पर पूर्ण विवेचननहीं हुआ है। वह प्रश्न यह हैकि यदि हम भारतीयों द्वारा प्रस्तावित स्वराज्य की पूर्ण माँग ज्यों-की-त्यों स्वीकृत होगई तो भी शासन की वर्तमान प्रणाली समूल नष्ट नहीं कर दी जायेगी। सरकार केप्रबन्ध-विभाग मेंयूरोपियनों की ही प्रधानता रहेगी। शासन-सम्बन्धी सभी विषयोंमेंइन्हीं के ही मत मान्य होंगे। जिस शासन-पद्धति की रचना में सौ वर्ष लगे हैं, उसकासमस्त स्वरूप अपने पूर्व रूप में ही रहेगा। शासन का न्याय-विभाग हाइकोर्ट के ही अधीन बना रहेगा। कानून का वर्तमान रूप ही प्रयोग में रहेगा। यदि नई व्यवस्थापिकासभा कानून में कोई परिवर्तन करना चाहे अथवा बदलना चाहे तो सरकार के प्रधान (वाइसराय) की अनुमति के बिना उसे ऐसा करने के अधिकार नहीं होंगे। नौकरियों की नियुक्ति में पहले जैसा ही नियम रहेगा। भविष्य में पचास प्रतिशत भारतीयों की ही नियुक्ति होगी। किन्तु नौकरियों में भारतीयों की संख्या आधी तक पहुँचाने के लिये अभी बहुत देर है। ये बातें इस बात की साक्षी हैं कि भावी परिवर्तन से वर्तमान नियम में कोई बाँधा नहीं उपस्थित होगी, और अंग्रेजोंके प्रति विश्वास और उत्साह की अभिवृद्धि होगी।भारत में वास्तविक स्वराज्य की योजना के प्रश्न पर विचार करने के समय की बात से अंग्रेजों में अधिक उत्साह और विश्वास होना चाहिए।
भारत को स्वावलम्बी बनाने की आवश्यकता
एक और आवश्यक बात है जो हाल ही में उत्पन्न हुई है। इस पर गम्भीर विचार की आवश्यकता है। गत महायुद्ध ने हठात्उस आशंका की ओर ध्यान खींचाहै जिसका भारत अपने वर्तमान राजनीतिक और व्यावसायिक दृष्टियों से शिकार है। यहबड़े धन्यवाद की बात है कि जो कुछ हमने किया है, सफलतापूर्वक किया है। हमेंआशा है और हम परमात्मा से प्रार्थना करते हैंकि हमारा उद्देश्य सफल हो। हमें आशाहै कि इस भयंकर युद्ध का शीघ्र ही अन्त होगा और इसके पश्चात् जो शान्ति स्थापितहोगी, वह अधिक कालतक बनी रहेगी। किन्तु केवल इस आशा के भरोसे बैठ रहनाबुद्धिमानी और नीति नहीं हो सकती है कि दस वर्ष में ही दूसरा युद्ध छिडेगा।अबउसके लियेतैयारी कैसे हो? यही विचारणीय प्रश्न है। विशिष्ट लेखक-द्वय कहते हैं कि,““आर्थिक उन्नति के लिये सैनिक अभिवृद्धि की कितनी आवश्यकता है, इस परमहायुद्ध ने प्रकाश डाला है। हम जानते हैं कि सामुद्रिक गमनागमन का मार्ग कुछ काल के लिये स्थगित होने की सम्भावना से हमको बाध्य होकर पूर्वीय युद्ध से बचने के लियेभारत पर ही निर्भर होना पड़ेगा”। यह सत्य है, किन्तु युद्ध के अनुभव ने इससे अधिकजानकारी प्रदान की है। उसने बताया है कि भारत को केवल आघात-प्रतिघात-सम्बन्धीशस्त्र बनाने में ही स्वावलम्बी होने की आवश्यकता नहीं है, बल्कि भारत के सपूतों को इन अस्त्र-शस्त्रों का प्रयोग आज की अपेक्षा अधिक कुशलता और अधिक संख्या मेंसीखने की आवशकता है। श्री मॉण्टेग्यू और लॉर्ड चेम्सफोर्ड ने इस प्रश्न पर यहटिप्पणी लगाकर पीछे विचार करने के लिये रख छोड़ा है कि इस पर विचार करकेइसका निर्णय होना चाहिए। हमेंपूर्ण आशा है कि इसका निर्णय शीघ्र और उचित रीति से होगा। भारत और इंग्लैण्ड, दोनों के हित कीदृष्टि से अंग्रेज राजनीतिज्ञ इसआवश्यकता का अनुभव करेंगे कि भविष्य में भारत का कल्याण अतीत की अपेक्षा अधिक मात्रा में भारत के सपूतों पर ही निर्भर करता है। आवश्यकता इस बात की है कि वे भी अपने अफगानिस्तान, फारस, तुर्की और जापान आदि पड़ोसियों के समानयुद्ध के साधनों से अलंकृत और उसके प्रयोग की शिक्षा से शिक्षित बनाए जायँ।इसका यह अर्थ है कि इंग्लैण्ड को अब भारत के साथ संरक्षक और नाबालिग का नाता नहीं,बल्कि विश्वस्त साझीदार का नाता मानकर जल, स्थल और वायु-सेना में समान पद देना चाहिए। न्याय और औचित्य, दोनों के अनुसार अंग्रेज लोग भारतीयों के साथ सब प्रकार सहयोगी का भाव प्रदर्शित करें। भारतीयों की शिक्षा नौकरियों के सब विभागों के प्रधान और अप्रधान पद के अनुकूल वैसी ही होनी चाहिए, जैसी अंग्रेजों की होती है। प्राय: आधी शताब्दी के निरन्तर आन्दोलन और विगत महायुद्ध प्रारम्भ होने के चार वर्षबाद शाही कमीशन में भारतीयों को स्थान पाने के प्रश्न का निपटारा हुआ। उसे देखकरमुझे आशा नहीं है कि अपने देश की रक्षा के लिये भारतीयों को योग्य बनाने का जोदावा करते हैं, उसका न्यायपूर्ण निर्णय होगा; क्योंकि यह योग्यता उचित रीति सेतबतक प्राप्त नहीं हो सकती, जबतक भारतीयों को राजनीतिक अधिकार नहीं मिलजाते। राजनीतिक योग्यता राजनीतिक शक्ति पर निर्भर करती है। श्री मॉण्टेग्यूऔर लॉर्डचेम्सफोर्ड ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि ब्रिटिश कमीशन कीआवश्यकता का प्रश्नभारतीयों की दृष्टि में अन्य प्रश्नों की अपेक्षा अधिक महत्त्व का है। इन लोगों ने इस बातकी सिफारिश की है कि भारतीयों के लिये कुछ निर्धारित कमीशनोंमेंस्थान की सुविधाहोनी चाहिए।सन् १९१४-१५ में भारत की ब्रिटिश सेना मेंदो हजार छ: सौ नवासीअफसर नौकर थे, और भारत की हिन्दुस्तानी सेना में दो हजार सात सौ एकहत्तरअफसर थे। कुल मिलाकर पाँच हजार चार सौ साठ अफसर थे। यह अनुमान है किपाँच लाख की नई सेना के लिये करीब पन्द्रह हजार अफसरों की आवश्यकता होगी।किन्तु महामाननीय भारत-सचिव की अनुमति से भारत-सरकार ने निश्चय किया है किसैण्ढसर्ट के शाही फौजी कॉलेज (रॉयल मिलिटरी कॉलेज) के लिये युद्धकाल मेंप्रतिवर्ष केवल दस कुलीन भारतीय फौजी अफसर की शिक्षा प्राप्त करने के लिये किएजायँ और हिन्दुस्तानी सेना में कुछ चुने हुए उम्मीदवारों को ही अस्थायी शाही कमीशनका पद प्राप्त हो सकता है, जिनमें से कुछ सिविल-विभाग से और कुछ फौज सेनामजद होंगे। (१), (२), अथवा (३) किसी भी कमीशन पद के लिये स्वीकृतिसंख्या नहीं निर्धारित है। भारतीयों को आशा थी कि कमीशन पद का निर्णय कुछ उदारभाव से होगा। वे स्वभावत: सोचते हैं कि उनके अधिकार के सम्बन्ध में उचित न्यायनहीं हुआ है, और वे बड़े निराश हो गएहैं, किन्तु भारतीयों के प्रति यह भाव तबतकजारी रहेगा जबतक कि भारतीयों का अपने देश के शासन में हाथ नहीं है।
धन-सम्बन्धी स्वायत्तशासन
समस्या की एक दूसरी और महत्त्वपूर्ण स्थिति है, और यह स्थिति धन-सम्बन्धी स्वायत्तशासन की है। श्री मॉण्टेग्यू और लॉर्ड चेम्सफोर्ड ने अपनी रिपोर्ट मेंभारत की आर्थिक दुर्दशा और साथ ही भारतीयोंकी उसके सुधार की प्रबल इच्छा काजिक्र किया है। इन लोगों ने यह स्वीकार किया है कि भारत की आर्थिक, राजनीतिकऔर फौजी,सभी विचार का तात्पर्य यह है कि भारत की व्यावसायिक उन्नति हो। इनमहोदयों ने ठीक ही कहा है कि, “व्यावसायिक भारत से साम्राज्य को जो शक्ति मिलेगीउसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता”। वे कहते हैं कि “यदि भारत केवल विदेशियोंके व्यापार की खपत करने वाला बाजार नहीं होना चाहता, तो महायुद्ध के बाद भारतकी व्यावसायिक उन्नति की आवश्यकता और भी अधिक प्रतीत होगी, क्योंकि उससमय प्रत्येक विदेशी अपने माल की खपत के लिये बाजार पाने कीप्रतिस्पर्द्धा करेगा,क्योंकि व्यापार पर ही उनकी राजनीतिक शक्ति निर्भर करनीहै”। इन्होंने यह भी लिखा है कि “भारतीय आयात-निर्यात कर (इण्डियन टैरिफ) के प्रश्न का व्यवसाय से घनिष्ठतम सम्बन्ध है। हम इनके कृतज्ञ हैं कि इन्होंने इस महत्त्वपूर्ण विषय पर शिक्षितभारतीयों का विचार उपस्थित किया है। इन लोगों ने बताया है “कि, “शिक्षित भारतीयों की आयात-निर्यात कर केअपने अधिकार में लेने की उत्कट इच्छा है”,”.....कि ““भारत में अर्थ-सम्बन्धी स्वायत्त-शासन के लिये बलवतीएवंसच्ची इच्छा है”।”शिक्षित भारतीयों का विश्वास है कि जबतक अंग्रेज लोग भारतीयों के लिये आयत-निर्यात करके प्रश्न का निर्णय करते रहेंगे,तबतक वे इस निर्णय को इंग्लैण्ड के लाभ की दृष्टि से करेंगे, न कि भारत की दृष्टि से। इंग्लैण्ड की साधारण सभा में रूई-कर परहुई बहस से यह सिद्ध भी हो चुका है। सन्तोष की बात है कि उन्होंने यह धारणा बना ली है कि जब कभी समस्त साम्राज्य और शेष जगत् के आर्थिक सम्बन्ध का शाही सम्मेलन हो, तब उसके सम्बन्ध में विचार होगा और “उसमें भारत काउचितप्रतिनिधित्त्व होगा”। किन्तु किस प्रकार? उसमें गत दो वर्षों के समान वाइसरायद्वाराभारतीयों का निर्वाचन होगा। यह सब जानते हैं कि भारतीय जनता ऐसी नामजदगी सेसन्तुष्ट नहीं है। इसके अतिरिक्त ऐसे प्रतिनिधि सम्मेलन में किसके विचार प्रगट करेंगे? वे या तो वाइसराय अथवा परिषद्गवर्नर के या अपने व्यक्तिगत विचार प्रगट करेंगे?यदि इन्होंने वाइसराय के विचार का प्रतिनिधित्त्व किया तो यह कहना व्यर्थ होगा किसम्मेलन में भारतीय जनता के प्रतिनिधि भेजे गए थे। यदि वे प्रतिनिधि उस सम्मेलन में अपना विचार प्रगट करते है, तो क्या भारत सरकार आयात-निर्यात कर सम्बन्धी प्रश्न पर अपने उस प्रतिनिधि के व्यक्तिगत विचार से बाध्य होगी, जिसका निर्वाचन व्यवस्थापिकासभा के सदस्यों के मत की उपेक्षा करके हुआ है।यह स्थिति अत्यन्त विषम होगी। यदिभारत के प्रतिनिधित्त्व का ढोंग नहीं करना है तो एकमात्र यह नियम लागू होना चाहिए कि बड़ी और छोटी व्यवस्थापिका सभाओं के सदस्यों से सम्मेलन् के लिए भारत का प्रतिनिधित्त्व करने को किसी एक सदस्य की सिफारिश करने के लिए कहा जाय और उभय सभाओं से मनोनीत सदस्य ही सरकार द्वारा नामजद हो। ऐसा प्रतिनिधि अवश्य ही उन लोगों के विचार का प्रतिनिधित्त्व करेगा जिनके प्रति वह अपनी नियुक्ति के लिए वैध दायित्त्व रखता हैऔर उनके विचार क प्रतिनिधित्त्व करेगा, जिसके प्रति उसका मुख्य दायित्त्व है। भारत-सरकार भी उसके विचार को या तों अपना मानकर स्वीकार करेंगी अथवा सम्मलेन में भारत के प्रतिनिधित्त्व का विचार ही छोड़देगी और उस समय भारतीयों को अपने प्रतिनिधित्व के बिना ही ग्रेट ब्रिटेन तथा अन्य उपनिवेशों के प्रतिनिधियों की बनाई हुईनीति को बाध्य होकर मानना होगा।गत दो वर्षों के अनुभव से यह सरलता से कल्पना की जा सकती है की इस प्रकार के प्रस्ताव क्षण भर के लिए भी मान्य नहीं हो सकते। इसके लिए भी भारत-सरकार की नीति का नियमन करने के लिए केन्द्रीय सरकार में जनता के प्रतिनिधि के हाथ में अधिकार दिया जाना आवश्यक है। इस विषय में श्री मॉण्टेग्यू और लॉर्ड चेम्सफोर्ड के प्रस्ताव में कुछविस्तार की भी आवश्यकता है। प्रस्ताव अपने वर्तमान रूप में इस प्रकार का कोईअधिकार नहीं प्रदान करेगा। प्रस्तावकों का व्यक्तिगत विचार है कि “भारतीय शासन में जिन परिवर्त्तनों के लिये हम प्रस्ताव करते हैं, उसके अनुसार भारत के आयात-निर्यातकर का निर्णय उस सरकार के अधीन रहेगा, जो पार्लियामेण्ट और भारत सचिव केअधीन होंगी”। इसका अर्थ यह है कि भारत-सरकार की वही नीति होगी जो ब्रिटिश सम्राट् की सरकार की होगी। जितने कारण उन्होंने दिए हैंऔर जितने मैंने अपनी ओर से दिए हैं, उन सबकी दृष्टि से ये प्रस्ताव पूर्णत: असन्तोषजनक हैं। भारतीय उद्योग-धन्धों की उन्नति भारतीय राष्ट्र के जीवन की उन्नति के समान ही आवश्यक है।शक्तिशाली विदेशी व्यापारिक प्रतिस्पर्द्धा से भारतीय व्ययसाय को बचाने के लियेसंरक्षण कर लगाना अथवा आयात-निर्यात कर का प्रयोग करना अधिकतर भारत-सरकार के ऊपर निर्भर करता है, जिसके अधीन शक्ति और कर लगाने का अधिकारहै। यदि सरकार भारतीय-जनता के प्रतिनिधियों द्वारा व्यवस्थापिका सभा में उपस्थितइच्छा का पालन नहीं करती, तोइन सब महत्वपूर्ण मामलों में भारत-सरकार काआखिर क्याकर्त्तव्य है? भारत-सरकार, पार्लियामेण्ट और भारत-सचिव के अधीनरहने वाली सरकार उन्हींकी इच्छा के अनुसार चलेगी, उससे एक पग आगे नहीं बढ़सकती। भारतीयों के प्रति उत्तरदायी केवल भारत-सरकार ही जनता के हित की नीतिबना सकती है। जनता से घनिष्ठ सम्बन्ध रखने वाले मामलो में, जिनसे जनता कोआयात-निर्यात कर से अस्थायी हानि ही क्यों न होती हो, सरकार तबतक नैतिक साहसके साथ मुँह नहीं दिखा सकती, जबतक कि जनता भी उससे सहमत न हो। यदिउपर्युक्त विचार शुद्ध है तो यह आवश्यक है कि (यदि भारत की व्यावसायिक उन्नतिकरनी हो तो) भारत को आर्थिक मामलों में अवश्य अधिकार मिलना चाहिए। यदि ऐसाहो तो जनता के प्रतिनिधियों को केन्द्रीय सरकार में अवश्य अधिकार मिलना चाहिए,जिससे वे नीति निर्धारित करें, जिसका सरकार पालन करे।
इस समस्या की स्थिति पर मैंने कुछ विचार किया है। स्पष्ट कारण यह है किश्री मॉण्टेग्यू और लॉर्ड चेम्सफोर्ड ने जो सिफारिश की हैं, उन पर विचार करने मे मालूम होता है कि स्थिति के सम्बन्ध में उन लोगों का विचार संकुचित है। उन लोगों ने स्वयंकहा हैकि, “जिन विचारों पर छठें अध्याय में टिप्पणी की गई है, उसमें दिये हुए कारणतत्काल पूर्ण दायित्त्व दिलाने के लिये हमें रोकते हैं”। अत: इन लोगों कानिश्चय सरकारके “कुछ विभागों का अधिकार हस्तान्तरित करने और कुछ सुरक्षित रखने के पक्ष मेंहैं”। मैं समझता हूँ कि मैं यह सिद्ध करचुका हूँ किइन लोगों ने इस समस्या की कठिनाइयों का अतिरज्जित रूप ग्रहण किया है;और साथ ही उन परिस्थितियों के महत्त्वको नहीं समझा है, जो दायित्त्वपूर्ण सरकार प्रारम्भ करने केलिये सारयुक्त प्रबन्ध करनेके पक्ष में हैं। मैंने इस पर भी प्रकाश डाला है कि महायुद्ध-जनित परिस्थितियों को भी इन लोगों ने कम महत्त्व दिया है। विगत महायुद्ध में भारत ने जो सहायता दी है,और युद्ध के कारण निकट भविष्य में भारत की जो महत्ता होगी, उसकी भी उपेक्षा की गई है। यदि इस दृष्टि से समस्या की स्थिति में परिवर्तन की आवश्यकता हो तो इसका अर्थ यह है किजो प्रस्ताव उन लोगों ने किएहैं, उनमें बहुत ही परिवर्तन और परिवर्द्धन की आवश्यकता है। यह स्वयंसिद्ध है कि गत बीस अगस्त की घोषणा की शब्दावली ने भी उन लोगों के विचार पर बड़ीरूकावट लगा दी थी।उनकी व्याख्या से सपष्ट है कि उस घोषणा कीनीति के औचित्य पर वे पहले से ही संतुष्ट जान पड़ते हैं। बिना विचार के ही इन्होंने उस नीति के समर्थक कारणों पर विशेष जोर दिया है, और विशिष्ट लेखक-द्वय इस बात से कुछ परिचित जान पड़ते हैं। समस्या की कठिनाइयों पर जोर देने के बाद लेखकगण अपने इस कार्य क समाधान भी करते हैं। उनका कथन है कि, ““उपस्थित समस्या की गहनता की व्याख्याकरने की हमने क्यों चेष्टा की, और विशेषकर उन बातों पर क्यों जोर दिया, जिस पर व्याख्यानों और अखबारों में कुछ नहीं कहा गया? कारण यह है कि सर्वप्रथम हम इसबात पर जोर देना चाहते हैं कि देशमें जब एक बहुसंख्यक दल ऐसा है जो पूर्ण उत्तरदायी सरकार की प्राप्ति की बात न तो सोचता ही है और न उसकी योग्यता ही रखताहै, तब ऐसे समय मेंपूर्ण उत्तरदायी सरकार की स्थापना की कल्पना कहाँ तक संगत है, चाहे देश कितनी ही द्रुतगति से उन्नति की ओर क्यों न बढ़ रहा हो?किन्तु हम लोगों कामुख्य उद्देश्य इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण है। हम बीस अगस्त वाली घोषणा के औचित्यका विवेचन करना चाहते हैं। यदि हम उपस्थित समस्या की सभी कठिनाइयों को अंगीकारकर लेंतो जो नीति निर्धारित की गई है, उसका विवेचन सब दृष्टियों से सम्भव है। हमको विश्वास है कि बीस अगस्त वाली घोषणा उचित और स्पष्ट थी। जिस नीति का उसमें समावेश हैं, हिन्दुस्तान के लिये वही एकमात्र सम्भाव्य नीति है”। यदि उसमें तथ्यात्मक बातोंका ठीक-ठीक विवेचन नहीं है, तोउससे जो निष्कर्ष निकाला गया है वह भी ठीक नहीं हो सकता। घोषणा की नीति से इस अंश तक हमारा कोई विवाद नहीं है कि भारत मेंपूर्ण उत्तरदायी सरकार की स्थापना सहसा नहीं, बल्कि क्रमश: होनी चाहिए। किन्तु मैं इस विचार से सहमत नहीं हूँकि यह परम आवश्यक है कि यह क्रम बहुत लम्बा हो, और उसकी प्राप्ति अधिक काल में हो। यदि घोषणा की नीति की यही स्पष्ट व्याख्या है, और यदि घोषणा आवश्यक सुधार के मार्ग में बाधक है, तो इस कठिनाई का मार्जनदूसरी अधिक उदार घोषणा द्वारा होना चाहिए। बीसवीं अगस्त वाली घोषणा की शब्दावली को रचना में भारतीयों का सहयोग नहीं है। अत: भारत के सुधार की समस्या पर इसका अनिष्ट प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए। किन्तु मेरी धारणा है कि घोषणा में ऐसी कोई बात नहीं है जो दायित्त्वपूर्ण सरकार के लक्ष्य के श्रीगणेश करने में किसी सारवान योजनामें बाधक हो। हमने निवेदन किया है कि काँग्रेस-संघ वाली योजना से ही श्रीगणेश हो। किन्तु यदि यह सम्भावना नहीं है तो विचाराधीन प्रस्ताव में परिवर्त्तन और परिवर्द्धन होना चाहिए, जिससे कि वह स्थिति की आवश्यकता के लिये पर्याप्त हो।
परिवर्त्तन एवं परिवर्द्धन के लिये प्रस्ताव
बीस अगस्त वाली घोषणा में अनेक विशिष्ट शर्त्तोंके समावेश ने भारतीयों के मन में एक शंका उत्पन्न कर दी है कि यद्यपि भारत-सरकार ने यह घोषणा की है किब्रिटिश नीति भारत मेंउत्तरदायी सरकार स्थापित करना चाहती है, पर इस घोषणा कीयही मंशा थी कि लक्ष्य-प्राप्ति अधिक काल में हो। श्री मॉण्टेग्यूऔर लॉर्ड चेम्सफोर्डके प्रस्ताव उसी घोषणा पर निर्भर है,अत: ये उस शंका का समर्थन करते हैं। प्रांतों मेंउत्तरदायी सरकार की स्थापना के आरम्भ के लिये इन लोगों ने बहुत ही संकुचित औरसीमितयोजनाएँ बताई हैं। भावी उन्नति के सम्बन्ध मे इन्होंने यह कहकर अपनी जानबचाई है कि इनके प्रस्ताव नये विधान के दस वर्ष बाद एक कमीशन की नियुक्ति केलिये हैं। इनका यह अर्थ नहीं लगाना चाहिए कि तब तक प्रान्तोंमें पूर्णत: उत्तरदायीसरकार कीस्थापना हो जायगी। इनका कथन है कि वर्त्तमान समय में पूर्णत: उत्तरदायीसरकार की स्थापना के विरुद्ध जो कारण हैं, वे आज से दस वर्ष बाद तक किसी-न-किसी अंश में बने ही रहेंगे। भारत-सरकार भी उनके प्रान्तोंके सम्बन्ध के प्रस्तावों काअनुभव किए बिना इसमें कोई परिवर्त्तन करने के लिये तैयार नहीं है। मैं इन विचारों सेसहमत नहीं हूँ। मैं समझता हूँ कि देश की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुएप्रान्तीय सरकारों की बहुत शीघ्र स्वायत्त-शासन मिल जाना चाहिए। एक ऐसी अवधिनिश्चित हो जानी चाहिए, जिसके भीतर केन्द्रीय भारत-सरकार में उत्तरदायी सरकार कीस्थापना हो जाय यदि यह अवधि बीस वर्ष की रक्खी जाय, तो भी हम समझेंगे किआज हम कहाँ हैं। भारतीयों में अधिकतर लोग इस अवधि को बहुत बड़ी मानेंगे।योरोपियनों में अधिकतर इसको अति अल्प मानेंगे। लेकिन सब विचारों से बीस वर्ष कीअवधि वर्त्तमान शासन की सुविधाओं की दृष्टि में रखकर, तथा अब तक की उन्नति काध्यान कर, देश को तैयार करने के लिये काफी है कि जिससे वह उत्तरदायित्त्वपूर्ण शासन का भार ग्रहण कर ले। अन्य देशों के इतिहास इस बात के साक्षी हैंकि इतनीअवधि के भीतर शिक्षा को इतना व्यापक रूप दिया जा सकता है, और व्यवसाय कीइतनी उन्नति की जा सकती है कि जनता कीसाधारण आवश्यकताओं की पूर्त्ति, एवं फौजी आवश्यकताओं की पूर्त्ति, दोनों के लिये भारत को तैयार किया जा सकता है, तथाभारतीय फौज के लिये काफी संख्या में भारतीय शिक्षित किए जा सकते हैं। ये फौजमेंदेश और सरकार की सेवा के लिये अपने ब्रिटिश साथियों का स्थान ग्रहण कर सकतेहैं। इस प्रस्ताव का सबसे विशिष्ट लाभ यह होगा कि इससे सम्बन्ध रखने वाला प्रत्येकव्यक्ति जान जायगा कि निर्धारित अवधि के भीतर ही हमें लक्ष्य प्राप्त करना है। अतएवइसके लिये जो उन्नति होगी, वह अधिक निश्चित और अधिक सुव्यवस्थित होगी। यदियह प्रस्ताव मान लिया जाय तो इंग्लैण्ड में जो विधान बनने वाला है, उसकी शब्दावलीइस प्रकार की होनी चाहिए कि, “ब्रिटिश सरकार का निश्चय है कि भारत में बीस वर्षके भीतर ही पूर्णत: दायित्त्वपूर्ण सरकार की स्थापना हो”। इससे अनेक भ्रमात्मकशंकाओं का निवारण होगा और इससे कई बातों में सुविधा होगी।
मेरा द्वितीय प्रस्ताव यह है कि यदि यह निश्चय हो जाय कि निर्धारित समय के भीतर दायित्त्वपूर्ण सरकार की स्थापना करनी है, तो तत्काल भारतीयों के लिये भारत में सरकारी पदों की आधी संख्या के बराबर शासन-सम्बन्धी शिक्षा पाने के लियेपर्याप्त व्यवस्था कर देनी चाहिए, तथा फौजी और दीवानी आदि सभी सरकारी पदों के उपयुक्त शिक्षा मिलनी चाहिए, यदि वेनिर्धारित पाठ्यक्रम में उत्तीर्ण हो जायँ। यथार्थत: यह परीक्षा वैसी ही होनी चाहिए जैसी अंग्रेज प्रजा को होती है। श्री मॉण्टेग्यू और लॉर्डचेम्सफोर्ड हमारे धन्यवाद के पात्र हैं कि उन्होंने इस विषय का प्रस्ताव किया है। किन्तु इण्डियनसिविल सर्विस के लिये भारत में नियुक्ति का जो अनुपात इन लोगों ने रक्खा है, वह अपर्याप्त हैं। इसेबढ़ाकर पचास प्रतिशत कर देना चाहिए। फौजी नौकरियों के सम्बन्ध में इनकी सिफारिश है कि “अब भारतीयों को भी कमीशन में काफी स्थान मिलना चाहिए”। किन्तु अब वह समय आ गया है, जब कि कमीशन पद की आधीसंख्या भारतीयों को दे दी जानी चाहिए। इसमें यह शर्त्त अवश्य होनी चाहिए कि यहपद तभी प्राप्त होगा जब कि ये निर्धारित पाठ्यक्रम को पूरा कर लेंगे। यह क्रम देखने में तो बहुत बड़ा जँचता है, किन्तु सूक्ष्म विचार से मालूम हो जायगा कि यह उतना बड़ानहीं है। इस भयंकर युद्ध में बहुसंख्यक ब्रिटिश अफसरों के लिये हम पर दु:खद करबढ़ाया गया है। ग्रेट ब्रिटेन और आयरलैण्ड के विश्वविद्यालयों ने महायुद्ध में जो योगदिया है, उससे उनकी कीर्त्तिअमर हो गई है। किन्तु उनका भयानक विनाश हुआ है,और भविष्य में युद्ध के बाद होनेवाले राष्ट्रीय कार्यों के विभिन्न विभागों के लियेउन्हींसे सेना-नायक माँगे जायेंगे। यह सोचना उचित ही है कि सेना के लिये इतने अफसरों की माँग होगी कि वे उस माँग की पूर्त्ति न कर सकेंगे। इसके अतिरिक्त युद्धकाल मेंफौजी अफसरों के महाविनाश और भविष्य में फौज के लिये अधिक माँग के कारण,युद्ध से पहले की अपेक्षा अब अधिक नौजवानों को फौजी शिक्षा में प्रविष्ट करने की आवश्यकता है। इस विचार से भारतीय सेना में भारतीय नवयुवकों की अधिक संख्या को सैनिक अफसर के पद की शिक्षा के लिये अवसर देना ही चाहिए। इस माँग को अस्वीकार करना बुद्धि और न्याय दोनों के विरुद्ध होगा। क्वेटा और वेलिन्गटनके सैनिक कॉलेजों में अंग्रेज और भारतीय नौजवान सामान संख्या में प्रविष्ट हों,और दोनोंको समान शिक्षा दी जावे, और उनकी समान परीक्षा हो। इस कार्य से पारस्परिक मैत्री और विश्वास को प्रोत्साहन मिलेगा तथा साम्राज्य को अमूल्य सहायता प्राप्त होगी। इसी प्रकार इसकी भी सुविधा होनी चाहिए कि जल और स्थल सेना के प्रत्येक विभाग की शिक्षा भारतीयों को दी जाय, और इन विभागों में इनकी नियुक्ति भी हो। इसमें आकाश सेना-सम्बन्धी नौकरियों का भी समावेश होना चाहिए। इन प्रयोगों से लोगों को यह भी विश्वास हो जायगा कि इंग्लैण्ड भविष्य में भारत से अपने बराबरी के साक्षी के नाते व्यवहार करेगा,न कि आश्रित का।
प्रान्तीय सरकार
मैं यह कह चुका हूँ कि श्री मॉण्टेग्यू और लॉर्ड चेम्सफोर्ड ने बीसवीं अगस्त वाली घोषणा की अनुचित प्रकार से संकुचित व्याख्या की है। साथ ही उन्होंने प्रान्तों में उत्तरदायित्त्वपूर्ण सरकार की स्थापना के लिये सिफारिश भी की है। इन लोगोंने प्रस्तावकिया है कि हस्तान्तरित-विभाग मंत्री या मंत्रियों के अधीन होंगे, जिनको व्यवस्थापिकासभा के निर्वाचित सदस्यों में से गवर्नर नामजद करेंगे। इन मंत्रियोंकी नियुक्तिव्यवस्थापिका सभा की अवधि के बराबर काल के लिये होगी। इन विभागों का प्रबन्धमंत्रीगण गवर्नर के सहयोग से करेंगे। इन विभागों के सम्बन्ध में मंत्रियोंका निर्णय हीमान्य होगा, केवल गवर्नर की सम्मति और उसका नियत्रंण उन पर रहेगा। इन लोगों नेकहा है कि गवर्नर अपने मंत्री का प्रस्ताव तभी अस्वीकृत करेंगे, जब उसकोकार्यरूपमें परिणत करने पर गम्भीर परिस्थिति के उत्पन्न होने कीसम्भावना होगी, अथवा उनप्रस्तावोंसे अनुभवहीनता का स्पष्ट चिह्न प्रगट हो। उनकी यह धारणा नहीं है कि गवर्नरअपने मंत्री के सभी प्रस्तावों पर सम्मति देने में असमर्थता प्रगट करेंगे। श्री मॉण्टेग्यू और लॉर्ड चेम्सफोर्ड के प्रस्ताव का यह सर्वोत्तम अंश है। इसके लिये मैं उन लोगोंकोधन्यवाद देता हूँ। हस्तान्तरित विभागों के सम्बन्ध में इस प्रस्ताव से मंत्री को काँग्रेस-संघ-योजना की अपेक्षा अधिक अधिकार और दायित्त्व प्राप्त होगा। परन्तु यह अनेकशर्तो से जकडा हुआ है। इनमें परिवर्द्धन की आवश्यकता है। प्रथम शर्त्त यह होनीचाहिए कि निर्वाचित सदस्य अथवा गवर्नर द्वारा नामजद होने वाले सदस्यों का निर्वाचनउन थोड़े सदस्यों में से हो, जिन पर उनके अधिकांश सहयोगियोंका विश्वास हो।निर्वाचन से नियुक्ति करना अब अस्वीकृत हो गया है। अत: इसके लिये सम्भवत: उत्तममार्ग यही होगा कि निर्वाचित सदस्यों ने जिन तीन या चार सदस्यों के लिये सिफारिशकी है, उन्हीं में से नियुक्ति हो। यद्यपि इससे चुनाव का क्षेत्र संकुचित हो जायगा तो भीचुनाव का कार्य गवर्नर पर ही निर्भर रहेगा। किन्तु साथ ही इसका भी निश्चय हो जानाचाहिए कि गवर्नर ऐसे व्यक्ति का चुनाव न करें, जो निर्वाचित सदस्य होते हुए भी सभाके बहुमत को मान्य न हो।
दूसरी बात यह है कि मंत्री प्रबन्ध-समिति का भी सदस्य होना चाहिए, केवलप्रबन्धकारिणी सरकार और प्रबन्ध समिति का भेद उठा देना चाहिए। सरकार के दोभागकरने के सम्बन्ध में लेखक-द्वय ने स्वयं कहा है कि इसका अर्थ विभिन्न दायित्त्ववाली दो समितियों का होना है। इससे प्रान्त के हित की उन्नति के लिये शासन-सम्बन्धी दायित्त्व और शक्ति में निर्बलता आ जायगी। यथार्थ में सुरक्षित और हस्तान्तरित इन दोविभागों पर भी विचार होना चाहिए, किन्तु आगे चलकर। प्रस्तावित प्रबन्ध के अनुसारयह निर्णय गवर्नर के अधीन होगा कि पूरी समिति को निमंत्रित करना चाहिए, अथवा उसके एक विभाग को। हस्तान्तरित-विभाग केसम्बन्ध का यथार्थ निर्णय गवर्नर औरउनके मंत्रीकरेंगे। संरक्षित विभाग-सम्बन्धी यदि कोई कार्य करना हुआ तो निर्णयगवर्नर और उनकी प्रबन्ध-समिति के अन्य सदस्यों के सहयोग से होगा। तब मतप्रदान का प्रश्न ही नहीं उपस्थित होगा, क्योंकि उसका निर्णय सरकार के उस विभाग के अधीन होगा, जिससे उस विषय का सम्बन्ध रहेगा। इस प्रबन्ध-समिति को हस्तान्तरित विभाग-सम्बन्धी मामलों में सब दायित्त्व विशेषत: छोड़ देने होंगे। हस्तान्तरित विभागों में पर्याप्त उन्नति न होने का समस्त दोष मंत्री अथवा मंत्रिमण्डल के सिर होगा।
हस्तान्तरित विभाग को जो कार्य सौंपा गया है, उसे देखकर उस कार्य के लिये दिया हुआ कोष सन्तोषप्रद नहीं है। पहले यह स्वीकार किया गया है कि जबतक सपरिषद्गवर्नर संरक्षित विभागों के लिये उत्तरदायी हैं,तबतक उन्हें मत निश्चय करनेका अधिकार होना चाहिए कि किस प्रकार के कर की उन्हें आवश्यकता है। यह प्रस्तावकिया गया है कि प्रान्तीय कच्चा-चिट्ठा कार्यकारिणी सरकार की पूरी समिति बनायेगी।प्रान्तीय कर का प्रथम भाग भारत सरकार के कोष में दिया जायगा। इससे जो बचेगावह संरक्षित-विभाग में व्यय होगा। कर का अवशिष्ट भाग मंत्रियों को हस्तान्तरित-विभाग के व्यय के लिये मिलेगा। यदि यह अवशिष्ट भाग उनकी आवश्यकताओं कीपूर्त्ति के लिये पर्याप्त न होगा तो मंत्री को अधिकार होगा कि वह प्रान्तीय कर सम्बन्धी नियम के भीतर कर लगाकर अथवा भारत-सरकार से आज्ञा प्राप्त करके कर-सम्बन्धीनिर्धारित नियम के अतिरिक्त कर लगावे। कहते हैं कि नये कर लगाने का निर्णय मंत्री और गवर्नर करेंगे।किन्तु यह स्पष्ट है कि नूतन कर लगाने का दायित्त्व यथार्थ रूप मेंमंत्री के सिर जायेगा।सरकार की पूरी कार्यकारिणी समिति इसके लिये दायी नहीं है।विशिष्ट लेखक-द्वय नूतन कर की आवश्यकता स्वीकार करते हैं। क्योंकि इनका कथनहै कि किसी भी नये व्यय के लिये किसी अन्य विभाग में इतनी बचत सम्भव नहीं है।ऐसी दशा में नया कर लगाने का दायित्त्व एकमात्र मंत्री पर ही हो। यह दायित्त्व प्रान्तकी समस्त सरकार पर क्योंन हो? प्रस्ताव की व्यवस्था निष्पक्ष नहीं है। हस्तान्तरितविभाग की उन्नति का दायित्त्व मंत्री पर है। इस दायित्त्व के पालन में कर का कितनाभाग व्यय होना चाहिए इसका निर्णय सपरिषद् गवर्नर के हाथों में सुरक्षित है। मंत्री को अधिक कर के लिये प्रस्ताव करने का अधिकार दिया गया है, किन्तु इस शक्ति केप्रयोग में सरकारी कार्यकारिणी समिति का सम्मिलित सहयोग उनको प्राप्त नहीं है। नयेकर का प्रस्ताव बहुत कम लोकमान्य होता है। जब समस्त सरकार के समर्थन के बिनाऐसा प्रस्ताव किया जायगा तो इसके स्वीकृत होने की सम्भावना भी नहीं होगी। सपरिषद्गवर्नर जिस संरक्षित विभाग-सम्बन्धी व्यय के प्रस्ताव को व्यवस्थापिका सभा के सामनेरक्खेंगे, उसे वह अपनी सम्मति बिना प्रगट किये ही स्वीकार करने को बाध्य होगी।प्रस्ताव में हस्तान्तरित विभाग में नये कर का प्रस्ताव होने पर उसका पक्ष लेने की इच्छाइसमें नहीं प्रकट होती। यह स्वत: सिद्ध बात है कि हस्तान्तरित विभाग के लिये जितनेधन की आवश्यकता है उतना नहीं दिया गया है। अत: इस सम्बन्ध का प्रस्ताव सफलहोना कठिन ही है। इससे मंत्री का पद कठिन हो जायगा। क्योंकि इन्हें या तो अपने विभाग में उन्नति न कर सकने का दोषी बनना होगा, अथवा उन्हें नये कर का प्रस्ताव करके लोक-निन्दा का भाजन बनना होगा। फिर समस्त कर और मालगुजारी के व्यय का अधिकार भी तोइनको नहीं प्राप्त है।
वर्त्तमान व्यवस्था में विभिन्न विभागों का विभाजन भारत-सरकार द्वारा उपस्थित हुआ है। प्रस्तावित व्यवस्था के अनुसार यह अधिकार सपरिषद् गवर्नर केअधीन होगा। इसके अनुसार मंत्री और व्यवस्थापिका सभा, दोनों संरक्षित विभाग केप्रदत्त अधिकार को स्वीकृत करने के लिये बाध्य होंगे, चाहे वे उससे सहमत होंया नहीं, और उन्हें भारत सरकार के समक्ष इसकी अपील करने का भी अधिकार नहीं है।श्री मॉण्टेग्यू और लॉर्ड चेम्सफोर्ड ने मंत्री और व्यवस्यापिका सभा,दोनों को आश्वासनदिया है कि निर्धारित समय पर एक कमीशन सपरिषद् गवर्नर के कार्यों की आलोचनाकरेगा। उस समय कमीशन के सामने यह विचार करने का अवसर मिलेगा कि संरक्षितविभाग पर अनावश्यक व्यय होता है। प्रति बारहवेंवर्ष कमीशन आवेगा। सपरिषद्गवर्नर के पिछले निर्णय पर कमीशन के सामने विचार करने का बहुत कम मूल्य होगा।लोकप्रिय सरकार के लिये इससे बढ़कर असुविधाजनक व्यवस्था को कल्पता नहींकी जा सकती। मुझे आश्चर्य है कि इसके स्पष्ट दोषोंको देखकर भी विशिष्ट लेखक-द्वय ने इसे अस्वीकार क्यों नहीं कर दिया?
संरक्षित और हस्तान्तरित विभाग के पार्थक्य के प्रश्न पर विचार होना चाहिए।श्री मॉण्टेग्यू और लॉर्डचेम्सफोर्ड के विचार में ऐसे विभाजन का मुख्य कारण यह है किबिना किसी परिवर्त्तनके सरकार का पूर्ण दायित्त्व तत्काल नहीं दिया जा सकता। यदिहमलोगों की योजना का कुछ मूल्य है तो तत्काल कुछ दायित्त्व दिया ही जाना चाहिए।““इस आधार पर उन लोगों ने प्रस्ताव किया है कि कुछ विभाग सरकारी कर्मचारियोंकेहाथ में संरक्षित रहने चाहिए। इन लोगों ने प्रस्ताव किया है कि यह निर्णय करने के लियेएक समिति नियुक्त होनी चाहिए, जो विचार करे कि कौन सा विभाग मंत्रियोंद्वारा शासितहोने के लिए हस्तान्तरित होना चाहिए। हन लोगोंने कुछ सिद्धान्त बनाए हैं, जिनके आधारपर इस सूची का निर्माण होना चाहिए। उनका कहना है कि इस सिद्धान्त के अनुसार हमभारतीयों को वे विभाग पाने की आशा न करनी चाहिए जिनका प्रत्यक्ष सम्बन्ध प्रजा केहित-साधन से है, हमको ऐसे विभाग के हस्तांतरित होने की कल्पना भी नहीं करनीचाहिए, जिससे जनता के हित पर प्रभाव पड़े, और जिनका नई व्यवस्थापिका सभाओं मेंपर्याप्त प्रतिनिधित्त्व भी नहीं है। उदाहरणार्थ जमीन के लगान और मालगुजारी के अधिकारका प्रश्न। इनकी इच्छा है कि ऐसे विषयों का दायित्त्व सरकारी कर्मचारी वर्ग के अधीनहो, जो अबतक भी पार्लियामेण्ट के प्रति उत्तरदायी हैं। पार्लियामेण्ट के प्रति दायित्त्व कातात्पर्य यहाँ भारत सचिव के प्रति दायित्त्व से है। व्यवहार में इस दायित्त्व का क्या अर्थहै, हम भलीभाँति जानते हैं। यह उचित समय है जब कि भारत सचिव से दायित्त्व काबोझ जनता की नियमपूर्वक निर्मित प्रतिनिधिमूलक व्यवस्थापिका सभाको दे दिया जाया।मैं पहले ही कह चुका हूँ कि निर्वाच्य, जिन्हें प्रत्येक समझदार व्यक्ति सन्तोषजनक कह सकता है, कौन्सिलोंमें जनता के पर्याप्त प्रतिनिधित्त्वप्राप्त करने के लिये देश में बहुतशीघ्र बनाए जा सकते हैं। प्रान्तीय कौन्सिल के सदस्य के निर्वाचन का अधिकार एक निश्चित, कम-से-कम आबादी वाली प्रत्येक तहसील या तालुके अथवा तहसीलों यातालुकों केसमूह के निवासियों को दे दिया जाय। मेरे प्रस्ताव के विरुद्ध यह कोई तर्कनहीं कहा जा सकता कि कौन्सिल बहुत बड़ी हो जायेगी। यदि अमेरिका, जिसकी आबादी युक्तप्रान्त से भी कम है, छ: सौ सत्तर सदस्यों की एक साधारण सभा बना सकता है, तोइसमें कोई कारण नहीं हो सकता कि युक्तप्रान्त क्यों नहीं इतनी ही बड़ी एक व्यवस्थापिका सभा रक्खे। भेदजनक तथा सम्भवनीय संघर्षात्मक हितों के सम्बन्ध की कठिनाइयांबहुत अंश में दूर हो जायेंगी, यदि प्रतिनिधित्त्व पर्याप्त बड़ी मात्रा के उचित क्षेत्रों में मिल जाय।यदि ऐसा हुआ तो यह सहज कल्पना की जा सकती है किबड़ी व्यवस्थापिका सभा मेंजमीन्दार, मालगुजार, साहूकार, व्यापारी, सौदागर, शिक्षितवर्ग, कानून-पेशावर्ग,चिकित्सक तथा इन्जीनीयर आदि सभी दल के प्रतिनिधि सम्मिलित हो जायेंगे। ऐसा सोचना क्या न्यायसंगत है कि एक कार्यकारिणी समिति, जिसमें दो अंग्रेज और एक भारतीय सदस्यहों, प्रान्त में शान्ति-स्थापना के निर्णय करने मेंजनता के अधिक प्रतिनिधियों की इस बड़ीसभा की अपेक्षा अधिक उपयुक्त या लाभकारी सिद्ध हो सकेगी?ऐसे प्रतिनिधियों से बढ़कर प्रान्त मेंशान्ति और सद्भावना की स्थापना के लिये और कौन अधिक हार्दिक रुचिरखने वाला हो सकता है? क्या यह शंका करना उचित है कि आवश्यकता पड़ने परशान्ति-स्थापना के लिये ऐसी समिति खर्च के लिये मत देना अस्वीकार कर देगी औरफिर ऐसीसभा, जिसमें प्रान्त के शिक्षित और प्रधान नेता अधिक संख्या में होंगे, धरतीके लगान और किसानों के अधिकारों से सम्बन्धित प्रश्नों पर विचार करने के लिये सबसेअधिक योग्य न होगी? क्या यह मानना ठीक होगा कि इनकी सम्मिलित बुद्धि औरन्याय-भावना ऐसी सभा को प्रजा और सरकार के बीच तथा प्रजा के भिन्न वर्गों में न्याय द्वारासद्भावना न होने देगा? तब ये विभाग सरकार द्वारा शासित और व्यवस्थापित होने के लियेदोनों प्रकार से क्यों संरक्षित रक्खे गए हैं? यह विधान है कि यदि व्यवस्थापिका सभासंरक्षित विभाग की माँग को अस्वीकृत कर दे, तो सपरिषद् गवर्नर के उस असली कच्चेचिट्ठे को पूरा या अंश में पास करने के अधिकार को हटा देना चाहिए। व्यवस्थापिका सभा का विश्वास करना चाहिए कि शान्ति-स्थापन जैसे महत्त्वपूर्ण प्रश्न को उसने ठीक तरहसे समझा है और समुचित रीति से अपने कर्त्तव्य का पालन किया है। यदि कहींयह भयहो कि शान्ति-स्थापना से मुख्य सम्बन्धित विभागों पर जो व्यय होता है वह कम कियाजा सकता है, तो विशेष विधान द्वारा इसकी रक्षा की जा सकती है, वह यह कि गवर्नर की सम्मति बिना ऐसा नहीं किया जायगा।
व्यवस्था के सम्बन्धमें ग्रैण्ड कमेटी के प्रस्ताव को छोड़ देना चाहिए। इससेप्रान्तीय व्यवस्थापिका सभा के गौरव और शक्ति में कमी करना, अनधिकार रूप से उसे कुचलता है और उसे निम्न श्रेणी का बनाना है। इस समय सभी प्रान्तीय विधान प्रान्तीयव्यवस्थापिका सभा द्वारा पास किए जाते है। ऐसा ही भविष्य में रहना चाहिए। देश में शान्ति-स्थापन के लिये भारतीय विधान में अत्यधिक विधान भरे पड़े हैं। नियम में ऐसे सभी विधान सारे भारत के लिये लागूहैं, और कुछ के अतिरिक्त भूत में इनका निर्माण राज्य-परिषद्द्वारा होता था। यह सहज में कल्पना की जा सकती है कि भविष्य में भी ऐसा ही होता रहेगा। शान्ति-स्थापन-सम्बन्धी किसी विधान को बहुत ही कम किस प्रान्तीय व्यवस्थापिका सभा ने बनाया होगा? बंगाल कौन्सिल ने सन् १८६२ ई. और सन्१९१४ ई. में कलकत्ता पुलिस कानून, बंगाल सैनिक पुलिस कानून, कलकत्ता सब-पुलिस कानून और गाँव-सम्बन्धी चौकीदारी कानून जारी किए हैं। बम्बई कौन्सिल नेसन् १८६७ ई. से अब तक बम्बई ग्राम-पुलिस, बम्बई नगर और जिला-पुलिस कानूनजारी किए हैं। यह कहना तो वर्त्तमान और भावीप्रान्तीय व्यवस्थापिका सभाओं काअपमान करना होगा कि वे प्रान्तीय कार्यकारिणी समिति के इस प्रकार के कार्यों परउचित रूप से विचार न करेंगी। यह समझाना भी कठिन है कि प्रान्तीय गवर्नर कोसंरक्षित विभाग के प्रति अपने कर्त्तव्य-पालन के लिये किस प्रकार के प्रान्तीय कानूनोंकी आवश्यकता है। किन्तु यदि यह मान भी लें कि उनको ऐसे कानूनोंकी आवश्यकताहै, तथापि मैं यह समझता हूँ कि क्या कारण है कि प्रान्तीय व्यवस्थापिका सभा ऐसाविधान नहीं बना सकती?वर्त्तमान विधान की दृष्टि से पार्लियामेण्ट को भारत कीकार्यकारिणी सरकार को कह देना चाहिए कि भविष्य में कोई ऐसा विधान नहीं बनसकता, जबतक व्यवस्थापिका सभा के अधिकांश सदस्यों का उसे समर्थन न मिलजाय। यह स्पष्ट है कि ‘ग्रैण्ड कमेटियों’को कभी-कभी करने की बात सोची गई है।यदि कभी ऐसा अवसर उपस्थित हो, जब प्रान्तीय व्यवस्थापिका सभा उस कानून कीस्वीकृति करने से मुँह मोड़ ले जिसको कार्यकारिणी सरकार आवश्यक समझती है, तोऐसी परिस्थिति में केन्द्रीय सरकार को यह कार्य सौंपना चाहिए, जिस विधान-निर्माण के सर्वोपरि अधिकार प्राप्त हैं, और प्रान्त के लिये जिस कानून का निर्माण प्रबन्ध-विभाग आवश्यक समझता है, सुरक्षित किया जाय और प्रान्त के लिये उसको कानून कारूप प्राप्त हो। जमीन की मालगुजारी और प्रजा के अधिकार के रक्षा-सम्बन्धी कानूनके निर्माण के लिये व्यवस्थापिका सभा ही सर्वमान्य है, और जिसका निर्माण नियमानुकूल हुआ है, तथा जिसके सदस्यों में जमीन्दार और प्रजा के बहुसंख्यक प्रतिनिधि हैं।
जहाँ तक इस सम्बन्ध में प्रान्तीय सरकार का सम्बन्ध है, मैं सिफारिश करुँगाकि चार सदस्यों की कार्यकारिणी समिति होनी चाहिए। उसमें दो भारतीय हों, जिनकीनामजदगी व्यवस्थापिका सभा के सदस्यों द्वारा निर्वाचित सदस्यों में से गवर्नर द्वारा हो।ये सदस्य जनता से घनिष्ट सम्बन्ध रखने वाले विभागों के अधिकारी हों, और इसके लियेइन पर विशेष प्रकार का दायित्त्व हो। साथ ही, न तो संरक्षित विभाग हों और न ग्रैण्ड कमेटी। मैं इससे सहमत हूँ कि कंचे चिट्ठे के अतिरिक्त कौन्सिल के अन्य विषय-सम्बन्धी प्रस्तावों को सिफारिश के तौर पर मानना चाहिए। बजट-सम्बन्धी प्रस्ताव काप्रतिबन्ध कार्यकारिणी पर हो और उससे मेल खाने के लिये कच्चे चिट्ठे का संशोधन भी होना चाहिए, परन्तु वह इस शर्त के साथ कि सपरिषद् गवर्नर की सम्मति के बिना व्यवस्थापिका सभा को शान्ति-व्यवस्था-सम्बन्धी व्यय में कमी करने का अधिकार नहीं है। व्यवस्थापिका सभा के समर्थन के बिना कोई नया व्यय मान्य नहीं होना चाहिए।
ब्रह्मा
ब्रह्मा के बारे में कुछ कहना आवश्यक है। ब्रह्मा के राजनीतिक विकास के सम्बन्ध में अलग, और फिर कभी विचार करने के लिये जो कारण दिए गए हैं, वे थोथेऔर अग्राह्य हैं। ब्रह्मियों और भारतीयों की इच्छा के विरुद्ध ब्रह्मा ब्रिटिश भारत मेंसम्मिलित कर लिया गया है। यदि इसे ब्रिटिश उपनिवेश का पद मिल जाता, जैसाराष्ट्रीय महासभा ने सिफारिश की थी, तोइसे ‘इण्डियन सिविल सर्विस’ वालों द्वारा किएगए प्रबन्ध का भारी व्यय न उठाना पड़ता। किन्तु प्रस्ताव सिविल सर्विस वालों को अच्छा न लगा। क्योंकि भारतीय सिविल सर्विस वालों का पारितोषिक और लाभराज्यान्तर्गत उपनिवेशोंकी अपेक्षा अधिक है। अस्तु, ब्रह्मा बहुत काल तक हिन्दुस्तानका एक प्रान्त बनने के लाभ से वन्चित रहा है। किन्तु न्याय इसी में है कि यह भी अबभारत के अन्य प्रान्तोंकी भाँति व्यापक शासन का लाभ उठावे। स्वशासन प्राप्ति के लियेभारत की अपेक्षा ब्रह्मा कहीं अधिक अधिकारी है। अभी कल की बात है कि वहस्वशासन से वंचित कर विदेशी शासन के अन्तर्गत किया गया है। जिन शर्त्तों पर श्रीमॉण्टेग्यू और लॉर्ड चेम्सफोर्ड ने अधिक जोर दिया है, वे भारत की अपेक्षा ब्रह्मा केअधिक पक्ष में हैं। वहाँ जनता में शिक्षा ने व्यापक रूप धारण कर लिया है। भारत केसमान वहाँ धार्मिक भेद भी नहीं है। उच्च श्रेणीवालोंकी सामान्य जनता के साथसहानुभूति भारतीयों की अपेक्षा कहीं अधिक है। इसमें ब्रह्मा का क्या दोष है कि मॉर्ले-मिण्टोयोजना के अनुसार बनी हुई ब्रह्मा से प्रान्तीय व्यवस्थापिका सभा में एक भीप्रतिनिधि नहीं है। ब्रह्माकी सरकारी नौकरियों में अधिक हिन्दुस्तानियों को स्थान देकरब्रह्मा मेंसाधारण नीति का प्रयोग हो रहा है। इसका तात्पर्य एक विदेशी नौकरशाही केस्थान पर दूसरी नौकरशाही की नियुक्ति करना है। भारत अपने ब्राह्मी भाइयों के शासकनहीं बनना चाहते। हमें इस बात में कोई शिकायत न होगी, यदि ब्रह्मा की सभीनौकरियों पर केवल ब्रह्मानिवासी ही नियुक्त हों। किन्तु यदि ब्रह्मा की अधिकांशनौकरियाँ गैरब्रह्मियों के लिये सुरक्षित की जायँ तो, यदि भारतीय भी कैनाडा, ऑस्ट्रिया,न्यूजीलैण्ड और दक्षिण अफ्रीका की नौकरियों के लिये उम्मीदवारों में प्रतियोगिता करें,तो मैं कुछ अनुचित नहीं समझता। किन्तु इस विषय का अधिक विस्तार करनाअनावश्यक है। मैं आशा करता हूँकि भारत में जो सुधार आरम्भ हो, उसका विस्तारब्रह्मामेंभी ब्रह्मियों की इच्छा के अनुकूल कुछ संरक्षण के साथ हों।
भारत सरकार
मैं पहले ही कह चुका हूँ कि आज कोई भी ऐसा सुधार भारत की राष्ट्रीय भावना और उसकी आवश्यकताओं की पूर्त्ति के लिये उपयुक्त नहीं हो सकता, जिसकेद्वाराकेन्द्रीय सरकार में भारतीयों को उचित स्थान न मिले। इस सम्बन्ध में श्रीमॉण्टेग्यूऔर लॉर्ड चेम्सफोर्ड के प्रस्ताव अत्यन्त अपर्याप्त हैं। भारतीय साम्राज्य में भारत सरकार के हाथ में ही सारी शक्तियाँ और प्रस्तावित सुधार के कार्यरूप में परिणत होने पर भी अधिकतर ये अधिकार ज्योंके त्यों उसी केहाथ बने रहेंगे। देश से सम्बन्ध रखने वाले सभी आवश्यक विषयों का सम्पादन भारत सरकार ही करती रहेगी। उस समय भी यह अधिकतर नीति और सिद्धान्त बनाती रहेगी। शान्ति और व्यवस्था,जीवन-स्वतंत्रता, सम्पत्ति, भाषण-स्वातंत्र्य और छापने की आजादी-सम्बन्धी सभीप्रमुख विधानों का सम्पादन भारत सरकार ही करती रहेगी। जनता के धर्म से सम्बन्धरखने वाले कानूनों पर सरकार अधिक सचेष्ट रहती है। आय-कर, नमक-कर, चुंगी-कर, आयात-निर्यात-कर, टिकट, कोर्टफीस, नोट, लेनदेन, बैंक, ऋण, व्यापार औरव्यवसाय, रेलवे, पोस्टऑफिस,तार विभाग तथा अन्य, जनता से घनिष्ट विभाग हैं, उनपर भारत सरकार का ही नियंत्रण और अधिकार रहेगा। सेना और रक्षा का पूर्णस्वत्त्वाधिकार भारत सरकार को ही प्राप्त है। अन्य व्ययसाध्य सरकारी विभागों परभारत सरकार का ही अधिकार रहेगा। इन अधिकारों के अतिरिक्त श्री मॉण्टेग्यूऔरलॉर्ड चेम्सफोर्ड का प्रस्ताव है कि सरकार को सभी सुधारात्मक कार्यों के सम्पादन केलिये व्यवस्यापिका सभा का निर्णय न मानने का विशेषाधिकार प्राप्त होगा। इसअधिकार द्वारा भारत सरकार किसी प्रान्त की व्यवस्था में हस्तक्षेप कर सकेगी, जहाँ उसको उसके हित की रक्षा या वृद्धि के लिये आवश्यकता प्रतीत होगी। व्यवस्था-सम्बन्धी समानता का विचार करते हुए आवश्यकतानुसार किसी भी प्रान्तीय विषयसम्बन्धी कानून का निर्माण, समस्त भारत के लिये अथवा एक या दो प्रान्तों के लियेभारत सरकार कर सकेगी, और ऐसे कानून का निर्माण कर सकेगी जिसका उपयोगकोई भी प्रान्त अपनी इच्छा से पूर्णत: या संशोधित रूप में करना चाहे। श्री मॉण्टेग्यूऔर लॉर्ड चेम्सफोर्ड उस शासन और दायित्त्व में भारतीयों को साझीबनाने के पक्ष मेंनहीं हैं, जिसका उपयोग अब तक भारत सरकार करती रही है। इनके विचार में प्रान्तों में दायित्त्वपूर्ण सरकार की अभिवृद्धि को स्थगित रखकर, भारत सरकार केवलपार्लियामेण्ट के प्रति उत्तरदायी रहे। दूसरे शब्दों में यह कि अन्य सभी मामलों में, जोइसकी दृष्टि में शान्ति-व्यवस्था स्थापित करने और सुशासन परिचालन के लियेआवश्यक है, पार्लियामेण्ट के अतिरिक्त वह इस नि:शंक शक्ति का उपभोग करनाचाहती है। मैं नम्रतापूर्वक इस बात से सहमत हूँ। बाह्य दृष्टि से ‘शान्ति-व्यवस्था कादायित्त्व’शब्दों का अर्थ उतना कठिन नहीं प्रतीत होता, किन्तु ‘सुशासन के लियेदायित्त्व’की व्याख्या करनी असम्भव मालूम होती है। यह उक्ति बहुत ही व्यापक है,और इसके अन्तर्गत कार्यकारिणी सरकार का कोई भी उपक्रम संगत हो सकता है।पिछले अनुभव से यह आशंका और भी दृढ़ हो जाती है। किसने सोचा था कि भारत-रक्षा-कानूनमें आई हुई सार्वजनिक शान्ति की विघातक इस उक्ति की वैसी ही व्याख्याहोगी जैसी कई अवसरों पर कार्यकारिणी सरकारों ने की है?अत: अधिकार-संरक्षणके प्रकरण में श्री मॉण्टेग्यू और लॉर्ड चेम्सफोर्ड ने जो सुशासन शब्द का व्यवहार कियाहै, उसको निकाल देना चाहिए। दूसरी बात यह है कि इस संशोधन के हो जाने पर भी यह उचित है कि भारत-सरकार व्यवस्थापिका सभा के जन-प्रतिनिधियों के भारतीयजनता के प्रति कुछ उत्तरदायी रहे। जहाँ तक इस विषय का पार्लियामेण्ट से सम्बन्ध है,विशिष्ट प्रस्तावक-द्वय ने स्वयं अनुभव किया है कि “भारतीय मामलों में पार्लियामेण्टने जो अभिरुचि प्रदर्शित की है, वह समुचित और सुव्यवस्थित नहीं है। इसने विशेषकर कुछ विभागों से ही अपना सम्बन्ध रखने का निश्चय किया है। जैसे राजनीतिक आन्दोलन, अफीम का व्यापार,या रुई-कर-सम्बन्धी मामलों के विचार के लिये नीति का प्रयोग करना। इन लोगों ने ठीक लिखा है कि इस प्रकार का आक्षेपपूर्ण हस्तक्षेप इंग्लैण्ड की स्वार्थपूर्ण अवश्यकता के कारण है। अन्यत्र भी इन लोगों ने कहा हैकि ‘यथार्थ में पार्लियामेण्ट का नियंत्रण उचित नहीं है। वहाँ के विचार बिल्कुलअसमयोचित और भ्रमात्मक है। कुछ थोड़े से सदस्य इसमें भाग लेते हैं, जो पुराने विषयोंपर ही बातेंकरते हैं, और मुश्किल से उनका कोईनिर्णय हो पाता है। निस्सन्देह इन लोगों ने इसका एक उपचार बताया है कि प्रत्येक बैठक के आरम्भ में भारतीय मामलों के लिये साधारण सभा से एक निर्वाचित समिति की नियुक्ति के लिये प्रार्थना करनी चाहिए। यह समिति समय समय पर सूचना देकर भारतीय प्रश्नों के सम्बन्ध में अपने अधिकारका प्रयोग करेगी। भारतीय कच्चे चिट्ठे का साधारण सभा के सामने वार्षिक विचार होने के पूर्व ही यह रिपोर्ट उपस्थित करेगी। इन लोगोंने यह भी प्रस्ताव किया है कि भारत-सचिव का वेतन अंग्रेजों के हिसाब से निश्चित होगा और प्रतिवर्ष पार्लियामेण्टउस पर अपना मत प्रदर्शित करेगी। इसका फल यह होगा कि भारतीय शासन-सम्बन्धी कुछमहत्त्वपूर्ण विषय साधारण सभा के समक्ष विचारार्थ उपस्थित किए जा सकेंगे। किन्तु पार्लियामेण्ट के बहुसंख्यक कामों को ध्यान में रखना, जिनकी संख्या युद्ध के बाद औरअधिक हो जायगी, यह सोचना अनुचित है कि इस काम कीभीड़ में पार्लियामेण्ट भारतके हित के लिये अपने दायित्त्व का प्रतिपालन और अधिक सुन्दर रीति से करेगी। भारत सरकार का पार्लियामेण्ट के प्रति उत्तरदायित्त्व होने का अर्थ भारतीय सचिव के प्रति उत्तरदायी होना है, जो प्राय: एक अनिश्चित व्यक्ति होता है। हम जानते हैं कि पहले भी इस व्यवस्था से भारत को कोई लाभ नहीं हुआ है और भविष्य में भी इससे अधिक लाभ होने की सम्भावना नहीं है। इस दशा में पार्लियामेण्ट रक्षा के मामलों मेंविदेशी और राजनीति-सम्बन्धी मामलों को अपने हाथ में रखकर और भारत सरकार की कार्यकारिणी समिति के हाथ में यह अधिकार देकर भारत के करोड़ो प्राणियों के प्रति अपने दायित्त्व का अधिक सुन्दर प्रयोग करे कि भविष्य में भारत सरकार भारतीय जनता के प्रति उनकी व्यवस्थापिका सभा के प्रति अपना दायित्त्व समझे।
श्री मॉण्टेग्यू और लॉर्ड चेम्सफोर्ड इसके विरुद्ध हैं। उनका कथन है कि ‘प्रान्तों के जिन हस्तान्तरित विभागों पर से यथार्थ में भारत-सरकार और भारत सचिव कानियंत्रण हट जाता है,उन्हें छोड़कर पार्लियामेण्ट केप्रति भारत-सरकार के दायित्त्व के सम्बन्ध में अभी हम किसी परिवर्त्तन की सिफारिश नहीं करते। किन्तु भारत-सरकार के कार्यों पर प्रभाव डालने और उसकी आलोचना करने के लिये हम अधिक अवसर देते हैं’।पहले भी हमें पत्रों, व्याख्यान-मंचों, काँग्रेस और सम्मेलनों तथा राजकीय और प्रान्तीय व्यवस्थापक समितियों में इसके लिये बहुत अवसर मिले, और हमने यथाशक्य उनका उपयोग भी किया है। किन्तु वे सब निष्फल ही हुए, क्योंकि हमारे हाथ में शक्ति का बिल्कुलअभाव था। यही कारण है कि हम अधिकारयुक्त दायित्त्व माँग रहे हैं। श्रीमॉण्टेग्यू और लॉर्ड चेम्सफोर्ड भारत के लिये विस्तृत व्यवस्थापिका सभाओं का प्रस्तावकरते हैं, जिनमें निर्वाचित सदस्यों का बहुमत होगा,किन्तु कहते हैंकि ‘ये बड़ीव्यवस्थापिका सभा के निर्वाचित सदस्यों को कोई दायित्त्व नहीं प्रदान करते’। और इन्होंनेइसकी भीव्याख्या नहीं की है कि ‘सरकार किन बातों में निर्वाचित सदस्यों की बात मानेगी’-जैसी इन्होंने प्रान्तों के सम्बन्ध में की है। इनका कथन है कि ‘हम एक साधारण व्यवस्था बना देते हैं जिसकी व्याख्या सरकार कर लेगी’। इसके अतिरिक्त इन्होंने अपनेबहु-संख्या-निर्वाचित सदस्यों की अधिक विस्तृत व्यवस्थापिका सभा के प्रस्ताव को राज्यपरिषद् की स्थापना के प्रस्ताव द्वारा अत्यन्त महत्त्वहीन कर दिया है,जिसमें सरकारीसदस्यों का बहुमत हो। उन्होंने स्वयं कहा है कि सभी भारतीय व्यवस्थापिका सभाओं केऊपर सर्वोच्च व्यवस्थात्मक सभा राज्यपरिषद् होगी। यह केवल नाममात्र की उच्च सभानहीं होगी, प्रत्युत् अधिक अधिकार-सम्पन्न भी होगी। यह साधारण व्यवस्था-सम्बन्धी मामलों का तो सम्पादन करेगी ही,साथ ही देश में शान्ति, व्यवस्था और सुशासन आदिजनता के हित से सम्बन्ध रखने वाले विषयों में इसे ही अन्तिम व्यवस्था देने का अधिकारहोगा। यदि राज्यपरिषद्बड़ी व्यवस्थापिका सभा द्वारा स्वीकृत किसी ऐसे बिल पर ऐसासंशोधन उपस्थित करती है, जो बड़ी व्यवस्थापिका सभाद्वारा स्वीकृत होना असंभव है,तो भी बड़ीव्यवस्थापिका सभा को ऐसे संशोघन को अस्वीकृत करने एवं संशोधित करनेका अधिकार नहीं है, यदि सपरिषद् गवर्नर ने यह लिखकर अपनी अनुमति दे दी हो किराज्यपरिषद्द्वारा प्रस्तावित संशोधन, शान्ति, व्यवस्था और सुशासन तथा “उचितआर्थिकशासन” के लिये आवश्यक है। यदि बड़ी व्यवस्थापिका सभा किसी सरकारी बिल केउपस्थित किए जाने में अपनी अस्वीकृति प्रगट करती अथवा बिल किसी प्रकारअस्वीकृत हो जाता है, तब सपरिषद् गवर्नर को यह अधिकार प्राप्त है कि बिलकोउपर्युक्त कारणों से आवश्यक बताकर उस पर अपनी स्वीकृति देकर राज्य-परिषद्में नयेसिरे से विचार करने के लिये भेज दे। सपरिषद् गवर्नर को परिस्थिति विशेष के लियेकानून बनाने के भी विशेषाधिकार प्राप्त हैं। प्रथम बार यह बिल के रूप में बड़ीव्यवस्थापिका सभा में उपस्थित किया जाता है,जिसको बिल का प्रथम वाचन कहते हैं।बडी व्यवस्थापिका सभा को इसकी सूचनामात्र दे दी जाती है, और इसका द्वितीय वाचनराज्य-परिषद् में होता है, और वहीं इसको कानून का रूप प्राप्त होता है। अन्य बिल यदिबड़ीव्यवस्थापिका से ऐसे रूप में स्वीकृत होती है जो सरकार की दृष्टि में शान्ति,व्यवस्था और सुशासन के लिये घातक प्रतीत हो तो सपरिषद्बड़े लाट को,उपर्युक्त शर्त्तोंके अनुसार, अनुमति देने तथा उसको एक या दो चार राज्य-परिषद् में फिर विचार होनेके लिये भेजने का अधिकार है, और केवल राज्य-परिषषद् के आदेशानुसार वह कानूनबन सकेगा। आर्थिक विधानों के लिये भी वही क्रम होगा, जो सरकारी बिलों के विषयमें है। कच्चा-चिट्ठा बड़ी व्यवस्थापिका सभा में पेश तो होगा, किन्तु व्यवस्थापिका सभाको उस पर मत देने का अधिकार नहीं होगा। कच्चे चिट्ठे के सम्बन्ध में राज्य-परिषद्और बड़ी व्यवस्थापिका में किए हुए प्रस्ताव केवल सम्मतिसूचक समझे जायेंगे।
बड़ीव्यवस्थापिका सभा की रचना की उपयोगिता में तबतक मुझे सन्देह है,जबतक कि राज्य-परिषद्इसके लिये राहुस्वरूप वर्त्तमान है। ऊपर के उदाहरणों से यहसपष्ट है कि कुछ बातोंमेंतोइसका अस्तित्त्व ही नष्ट कर दिया गया है। मैं यह मानताहूँकि इसकी स्थापना से जनता को अधिक प्रतिनिधि भेजने का अवसर मिलेगा औरइससे सरकार के कार्यों की आलोचना करने का अवसर भी अधिक प्राप्त होगा, किन्तुउसका अधिकार-रहित अधिकांश मुझे अभीष्ट नहीं है। सन् १९०९ ई. के मिण्टो-मॉर्ले-सुधार का उपसंहार करते हुए श्रीमॉण्टेग्यू और लॉर्ड चेम्सफोर्ड ने कहा है कि,“शासन-सम्बन्धी दायित्त्व अविभाजित ही रहा। सम्पूर्ण अधिकार सरकार के हाथोंमेंही रहा और कौन्सिलों के जिम्मे केवल आलोचना करने के अतिरिक्त और दूसरा कार्यनहीं रहा”। भारत-सरकार के लिये लॉर्ड चेम्सफोर्ड और श्री मॉण्टेग्यू ने जो प्रस्तावकिए हैं, उनकी भी यही आलोचना उपयुक्त है।
श्री मॉण्टेग्यू और लॉर्ड चेम्सफोर्ड का प्रस्ताव है कि उनकी ये प्रस्तावितसिफारिशें दस वर्ष तक कायम रहेगी। उसके बाद वाले कमीशन का यह कर्त्तव्य होगा,जिसकी नियुक्ति के लिये इन लोगों ने सिफारिशकी है,कि वह भारत-सरकार के नयेविधान की परीक्षा करे और पिछले अनुभव के आधार पर अपनी रिपोर्ट देकर आगेसिफारिश कर सकेंगे। इसका अर्थ यह हुआ कि कम-से-कम पन्द्रह वर्षों तक भारत-सरकार आज के सभी प्राप्त अधिकारों का उपभोग करती रहेगी। जनता के प्रतिनिधियोंका इसमें कुछ भी हाथ नहीं रहेगा। महायुद्ध के कारण आगामी दस से पन्द्रह वर्ष भारतके लिये बड़े ही संकटमय होंगे। यह सोचकर मेरे आत्मा को कष्ट होता है कि आज तकजिस भारत-सरकार ने भारतीय जनता के बल और अभ्युदय का उचित उत्कर्ष नहींकिया है, वही सरकार अपरिवर्तित रूप से कायम रहे और जनता के उन प्रतिनिधियोंकी कोई सुनवाई न हो जो अपने भाइयोंकी दशा के सुधार के लिये चिन्तित हैं! अभी तक इस मानवता के श्रेष्ठतम हित की दृष्टि से भारत की बत्तीस करोड़ प्रजा का प्रतिनिधिहोकर, मैं इंग्लैण्ड की सद्भावना और साधुता से आशा करता हूँकि अब आगे ऐसा नहींहोगा, इंग्लैण्डके राजनीतिज्ञ इस बात को सोचें कि क्या ऐसी आशा करना न्यायसंगतहै कि भारतीय प्रजा सुधार की किसी ऐसी प्रणाली से सन्तुष्ट हो जायगी जिससे वे अपनेदेशकी केन्द्रीय सरकार में अधिकार पाने से वन्चितरक्खे गए हों?
काँग्रेस तथा मुस्लिम लीग ने राज्यपरिषद् (सेकिण्ड चेम्बर) का प्रस्ताव नहींकिया है, क्योंकि वह समझती थी कि कार्यकारिणी सरकार ही राज्यपरिषद्का कार्यकरेगी, क्योंकि उसके हाथ में किसी प्रस्ताव को अस्वीकार करने और व्यवस्थात्मकप्रस्ताव को रद्द करने की शक्ति है। अभी तक मेरा यह मत है कि यही उपयुक्त होगा, क्योंकि राज्यपरिषद् के निर्माण का मुख्य उद्देश्य केवल कार्यकारिणी सरकार की इच्छा को कानून का स्वरूप देना ही तो है! तब कार्यकारिणी सरकार को किसी प्रस्ताव को अस्वीकृत कर देने के अधिकार क्यों नहीं दे दिए जाते? इसके उत्तर में यह कहा जा सकता है कि इससे सरकार को रचनात्मक विधान के निर्माण का अधिकार नहीं प्राप्तहोगा,क्योंकि विशिष्ट लेखक-द्वय स्पष्ट कहते हैं कि, “हम अवसरविशेष पर प्रयोग करनेके लिये कोई साधन चाहते है। हम ऐसे प्रस्ताव को कानून का रूप देना चाहते हैं जिसकीबहस का काफी प्रचार हुआ हो, परन्तु बड़ी व्यवस्थापिका सभा के अधिकांश सदस्य उसेन स्वीकार करते हों”। किन्तु या तो सरकार को इस विचार को त्याग देना चाहिए अथवा उन्हेंबहुसंख्यक निर्वाचित सदस्यों को व्यवस्थापिका सभा बनाने का विचार छोड़ देनाचाहिए। वर्त्तमान व्यवस्था के अनुसार, वाइसराय की स्वीकृति के बिना किसी भी प्रचलितकानून का निराकरण सम्भव नहीं है। इसमें यह प्रबन्ध होना चाहिए कि देशकी रक्षा केलिये सेना आदि के कुछ निर्धारित विभागोंके वर्तमान व्यय मेंवाइसराय की अनुमति केबिना कमी नहीं की जा सकती। किन्तु इस संरक्षण के साथ कच्चे-चिट्ठे को कौन्सिल केसमक्ष मत प्रदान करने के लिये अवश्य पेश करना चाहिए। यह उचित है कि भविष्य मेंजो व्यय में वृद्धि होने वाली हो, उसका सरकार पर दायित्त्व रहे कि वह जनता केनिर्वाचित प्रतिनिधियों को उसे समझावे कि प्रस्तावित व्यय कीवृद्धि देश-हित के लिये है,क्योंकि कर का बोझ तो प्रजा को ही वहन करना है। यही क्रम प्रत्येक नये विधान के लियेभी लागूहोना चाहिए। जिस कौंन्सिल का निर्माण होने वाला है, सरकार उसी का विश्वासकरे। कौन्सिल के भारतीय सदस्य पहले भी अवसर पड़ने पर सरकार का साथ देने मेंपीछे नहीं रहे। यह शंका निर्मूल है कि इस अधिक विस्तृत कौन्सिल के सदस्य सबआवश्यक मामलों में सरकार का साथ न देंगे। श्री मॉण्टेग्यू और लॉर्ड चेम्सफोर्ड ने सरकार के प्रति भारतीय सदस्यों के व्यवहार का औचित्य स्वीकार करने में अपनीसद्भावना का परिचय दिया है। इनका कथन है कि, “हम भारतीय व्यवस्थापिका सभा केभारतीय सदस्यों की उस दायित्त्व भावना के लिये सराहना करना चाहते जो कि उन्होंनेसरकारी प्रस्तावों के अवसर पर प्रदर्शित की है”। मुद्रण कानून-सम्बन्धी-अत्यन्त विवादात्मक विधान पर सरकार को गैर-सरकारी प्रतिनिधियों का पूरा समर्थन प्राप्त हूआहै। सरकार ने ऐसे ही भारत-रक्षा-विधान, तथा राज्यकोष को दस करोड़ रुपये देने कीस्वीकृति आदि के महत्त्वपूर्ण अवसरों पर भी इनका समर्थन प्राप्त किया है। फैक्टरी कानूनऔर कम्पनी कानून के अवसरों पर भी गैर-सरकारी प्रतिनिधियों ने अपने वाद-विवादोंद्वारा सराहनीय कार्य किया है।
ऊपर मैंने जितने विचार उपस्थित किए हैं, उन सबका ध्यान रखते हुए मैंप्रस्ताव करना चाहता हूँकि राज्यपरिषद् के निर्माणवाला प्रस्ताव तो स्थगित ही करदेना चाहिए। कार्यकारिणी सरकार और बड़ी व्यवस्थापिका सभा के बीच यदि कभी गम्भीर मतभेद उपस्थित हो-जिसकी सम्भावना प्रत्येक क्षण है, तो उसका निराकरणउपस्थित प्रस्ताव अस्वीकार करने और विशेष अध्यादेश जारी करने से हो सकता है।किन्तु साथ ही उसमें यह व्यवस्था होनी चाहिए, जैसा कि सन् १८८६ ई. में काँग्रेस नेप्रस्ताव किया था कि जब कभी नकारने के अधिकार का प्रयोग हो तो, उसके प्रयोगकरने के सब कारणों का पर्याप्त विवरण प्रकाशित होनी चाहिए और उसकी एक प्रति भारत-सचिव को दी जानी चाहिए। ऐसे मामलों में यदि व्यवस्थापिका सभा के बहुसंख्यक प्रतिनिधि भारत-सरकार और भारत-सचिव के द्वारा उस ठुकराए हुए मत पर विचार कराना चाहें, तो पार्लियामेण्टकी साधारण सभा की निर्वाचित समितिके समक्ष अपना प्रस्ताव उपस्थित कर सरकार के निर्णय पर पुन: विचार करा सकते हैं। यदि ऐसी कौन्सिल बनानी ही पड़े तो यह आवश्यक है कि उसकी रचना उदारतापूर्ण हो। सन् १८८६ ई.में भारतीय राष्ट्रीय महासभा ने प्रस्ताव किया था कि राजकीय और प्रान्तीय व्यवस्थापिका सभाओं में कम-से-कम आधे निर्वाचित सदस्य होने चाहिए,एक चौथाई सरकारी पदाधिकारी और एक चौथाई सरकार द्वारा नामजद सदस्य हों।गत बत्तीस वर्षों में कौंन्सिल का दो बार पुनर्निमाण हो चुका। उन्होंने सन्तोषजनक कार्य भी किए। इतनाहो चुकने पर भी गत युद्ध के चार वर्षोंमें भारत ने जिस अनुराग औरराजभक्ति का परिचय दिया है, उसका प्रत्यक्ष प्रमाण पाने पर भी क्या यह माँग अधिकहै कि प्रस्तावित राज्यपरिषद् मेंविशेषत: भारतीय निर्वाचकों द्वारा निर्वाचित सदस्यों कीसंख्या सम्पूर्ण संख्या के आधे से कम न हो?यह अनुभव-सिद्ध बात है कि योरोपियनसमाज के निर्वाचित सदस्य सदा सरकार का ही साथ देते रहे हैं। अत: निर्वाचित होनेपर भी वे सरकार द्वारा नामजद सदस्यों के ही समान हैं। यदि ऐसी परिस्थिति में मेराअभिमत मान लिया जाय तो मैं समझता हूँकि इससे प्रस्तावित राज्यपरिषद्के लियेभारतीय जनता का समर्थन प्राप्त हो जायगा। श्री मॉण्टेग्यू और लॉर्ड चेम्सफोर्ड काप्रस्ताव है कि सपरिषद् गवर्नर राज्यपरिषद् के सदस्यों के लिये जिस योग्यता कानिर्धारण करें, वह ऐसी होनी चाहिए कि समाज में उनका मान तथा उनकी सेवाएँ ऐसीहों जिससे कौन्सिल में जागृति उत्पन्न हो और उनके गुण इतने उपयुक्त होने चाहिए जोनवनिर्मित परिषद्के योग्य हो। सरकार को विश्वास होना चाहिए कि राज्यपरिषद् केसदस्य वर्त्तमान कौन्सिल के सदस्यों की अपेक्षा कहीं अधिक मात्रा में उसके समर्थनकरने की प्रवृति रखते हैं, और शान्ति, व्यवस्था तथा सुशासन के सभी मामलों में येसरकार का साथ देने को तत्पर हैं। यदि यह प्रस्ताव स्वीकृत हो गया तो प्रस्तावितराज्यपरिषद् के सम्बन्ध में जो कटु भावनाएँ हैं, उनका निराकरण हो जायगा। इससेप्रजा राज्यपरिषद् से परिचित हो जायगी और उसका उचित आदर करेगी।
कार्यकारिणी समिति में भारतीय
मुझे केवल एक और आवश्यक परिवर्त्तन सुझाना रह गया है। यह परिवर्त्तनभारत-सरकार की कार्यकारिणी समिति में भारतीय सदस्यों की संख्या से सम्बन्ध रखने वाला है। काँग्रेस-मुस्लिम-लीग योजना में प्रस्ताव किया गया है कि राज्यपरिषद् और प्रान्तीय व्यवस्थापिका सभा, दोनों में आधी संख्या भारतीयों की होनी चाहिए। श्री मॉण्टेग्यू और लॉर्ड चेम्सफोर्ड ने सिफारिश की है कि इस सिद्धान्त का प्रयोग प्रान्तीय कार्यकारिणी समिति के सम्बन्ध में होना चाहिए। किन्तु इन लोगों ने भारत-सरकार की कार्यकारिणी समिति में केवल एक भारतीय सदस्य की नियुक्ति के लिये प्रस्ताव किया है। मेरा निवेदन है कि प्रान्तीय कार्यकारिणी समिति के सम्बन्ध में जो सिद्धान्त स्वीकृतहुआ है, वही भारत-सरकार के सम्बन्ध में भी होना चाहिए। यथार्थत: कोई अभीनिश्चयपूर्वक नहीं कह सकता कि जब कौन्सिल का पुनर्निर्माण होगा तब भारत सरकारकी कार्यकारिणी समिति में कितने भारतीय सदस्यों को स्थान मिलेगा। किन्तु ऐसीकल्पना करना सम्भव है कि उसमें ऐसे सदस्यों की संख्या छ: होगी। इन छ: सदस्योंमें से यह उचित होगा कि तीन भारतीय हों। समिति के आधे स्थान भारतीय सदस्यों कीनियुक्ति से भर जाने पर भी समिति के निर्णयों पर कोई प्रभाव नहींपड़ेगा। क्योंकिवाइसराय के योरोपियन सदस्यों का फिर भी बहुमत रहेगा। किन्तु इससे कार्यकारिणीसमिति में सम्भवत: भारतीयों के लिये पूर्ण दायित्त्ववाली सरकार के निर्माण का यहअत्यन्त प्रभावपूर्ण सोपान होगा। मेरे विचार से जिस आरम्भ की मैंने सिफारिश की है,उससे बढ़कर भारतीयों को इस बात का विश्वास दिलाने वाला और कोई उपक्रम नहींहो सकता कि इस देशमें सरकार का विचार दायित्त्वपूर्ण सरकार की स्थापना करनाहै। इससे सभी को सन्तोष होगा।
संक्षेप में तथाकथित प्रस्तावों में निम्नांकित परिवर्त्तनएवं परिवर्द्धन होनेचाहिए-----
१.इस बात का निश्चय विश्वास दिया जाना चाहिए कि सरकार का इरादा भारतमें दायित्त्वपूर्ण सरकार स्थापित करना है, जो बीस वर्ष में पूर्णत: मिलजायगी।
२. यह भी निर्धारित हो जाना चाहिए कि भारतीयों को भारत-सरकार के न्याय-विभाग और सेना-विभाग आदि सभी विभागों के योग्य शिक्षा दी जायगी औरउने विभागों में इनकी नियुक्ति भी होगी।
३. यह भी निर्णय होना चाहिए कि भारत-सरकार की कार्यकारिणी समिति केआधे सदस्य भारतीय होंगे।
४. यदि प्रस्तावित राज्यसमिति की रचना हो, तो इसमें यह शर्त्त होनी चाहिए किइसमें भारतीय निर्वाचकों द्वारा निर्वाचित सदस्यों की संख्या आधी हो।
५. यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि कुछ विभागों का व्यय, विशेषत: देशकी रक्षाके लिये सेना-सम्बन्धी व्यय में सपरिषद्गर्वनर की अनुमति के बिना कमी न की जाय, किन्तु इसमें यह शर्त्त होनी चाहिए कि बड़ी व्यवस्थापिका सभा में विचार होने के लिये कच्चा-चिट्ठा उपस्थित किया जायगा।
६. साम्राज्य के स्वायत्त शासन वाले उपनिवेशों को जितने आर्थिक अधिकार प्राप्त हैं,वे अधिकार भारत को भी प्राप्त होने चाहिए।
प्रान्तीयसरकार
१. प्रान्तीय व्यवस्थापिका सभा का विस्तार ऐसा होना चाहिए कि प्रत्येक तहसील या तालुका तथा अन्य दल भी अपना प्रतिनिधि भेज सकें, जिनकी आबादी कम-से-कमनिर्धारित संख्या के अनुकूल हो। जहाँ तक सम्भव हो मताधिकार का विस्तारहोना चाहिए, जिससे यह प्रतीत हो कि प्रजा, जमीन्दार आदि सभी दलों केहित कि रक्षा के लिये पर्याप्त प्रतिनिधित्त्व प्राप्त है।
२. यह भी निश्चय हो कि नवनिर्मित समितियों के लिये जो मंत्री नियुक्त हों वेनिर्वाचित सदस्यों के बहुमत के विश्वासपात्रों में से हों।
३. यद्यपि इन मंत्रियों के जिम्मे खास-खास विभाग होंगे, किन्तु ये प्रान्त कीकार्यकारिणी समिति के भी सदस्य रहेंगे।
४. कोई विभाग संरक्षित नहीं होने चाहिए। यदि कुछ संरक्षण हो भी तोइतने हीकि शान्ति और सुशासन की रक्षा से सम्बन्ध रखने वाले विभागों के व्यय मेंसपरिषद् गवर्नर को सम्मति के बिना कोई कमी न की जाय।
५. ग्रैण्ड कमेटी बनाने का प्रस्ताव छोड़ देना चाहिए।
६. भारत के अन्य प्रान्तों के लिये सुधार-सम्बन्धी जो सिद्धान्त बनने वाले हों,उनका प्रयोग ब्रह्मदेश के लिये भी होना चाहिए। उनमें केवल वे ही शर्त्तेंलगाई जायँ जो ब्रह्मी लोग चाहते हों।
उपसंहार
मेरा कर्त्तव्य पूरा हो चुका। श्री मॉण्टेग्यू और लॉर्ड चेम्सफोर्ड ने अपनीविस्तृत और योग्यतापूर्ण रिपोर्ट के उपसंहार में अपने प्रस्तावों पर युक्तिपूर्ण आलोचना माँगी है। मैंने कुछ प्रस्तुत करने की चेष्टा की है। मुझे आशा है कि यह उनके कुछ काम की अवश्य सिद्ध होगी। साथ ही मुझे यह भी आशा है कि वे इस समस्या के सम्बन्धकी अपनी शर्त्तोंपर, और उन विचारों के आधार पर की हुई अपनी सिफारिशों पर, पुन:विचार करेंगे। मुझे यह भी आशा है कि ब्रिटिश सरकार के अन्य सदस्य औरसाधारणत: वे अंग्रेज सज्जन इस आलोचना से कुछ सहायता प्राप्त करेंगे, जिन्हें इन सिफारिशों के अनुकूल आचरण करना है। हम ऐसी आशा करते हैं कि वे समस्या की शर्तों पर सत्य बातों और इतिहास को साक्षी लेकर विचार करेंगे। इसके अतिरिक्त भारतके प्रति उस उदारपूर्ण सहानुभूति के साथ विचार होना चाहिए, जो हम इंग्लैण्ड से पानेके अधिकारी हैं। प्रस्तावित सुधार की उपयुक्तता का प्रश्न भारत के लिये जीवन-मरणका प्रश्न है। आज तैंतीस वर्षों से शिक्षित भारतीय वर्त्तमान प्रणाली के दोषों का अनुभव कर रहे हैं। पहले इन्होंने अपने अंग्रेज सहयोगियों से अपने देश के शासन-कार्य में भाग पाने के लिये भिक्षा माँगी, किन्तु इनकी माँग अस्वीकृत कर दी गई। इसका फल यही हुआ कि देश दरिद्र और असहाय होता चला गया है, यद्यपि यह समस्त प्राकृतिक ने साधनों से सम्पन्न है। इस परिस्थिति पर बहुत ही कम प्रकाश डाला गया है कि बत्तीसकरोड़ की जनसंख्या वाला देश अपनी प्रतिज्ञा कीपूर्त्ति के लियेसदिच्छाओं से ओतप्रोत होने पर भी अट्ठारह मास के अनवरत परिश्रम के पश्चात् भी इंग्लैण्ड को दस करोड़ का युद्ध-ऋण देने की अपनी प्रतिज्ञा का आधा बड़ीमुश्किल से इकट्ठा कर सका है। मैंनेअपनी धारणा के लिये जो कारण दिए हैं कि हमने सन् १८८६ ई. से जो माँगे पेश की हैं, यदि उनके अनुसार इंग्लैण्ड ने हमको अधिकारों तथा सरकारी नौकरियों में हमकोसेवा करने का अवसर दिया होता, तो देश इतना उन्नत हो गया होता और इंग्लैण्ड सेइतना अधिक सम्बद्ध हो गया होता कि वह बड़ी आसानी से दस करोड़ की रकमनकद दे देता। और दस या बीस लाख भारतीयों ने अंग्रेजो के समान युद्ध-शिक्षा और शास्त्रास्त्र से सुसम्पन्न होकर इसके बहुत पहले युद्ध का रुख मित्र राष्ट्रों के पक्ष मेंबदल दिया होता, और लाखों बहादुर अंग्रेज और फ्रांसीसियों की जीवन-रक्षा की होती।हम यह प्रार्थना सन् १९१६ ई. से भी अधिक लगन तथा अधिक एकता के साथ दुहरारहे हैं कि जिससे फिर इसे अस्वीकार करने की गलती इंग्लैण्ड न करे। जिस सुधार कोमाँग काँग्रेस और मुस्लिम लीग ने उपस्थित की है वह भारत को आत्मरक्षा के लियेअत्यावश्यक है, और यह राज्य के शक्तिशाली होने का कारण होगा न कि निर्बलताका। इससे भारत के सपूतों में उन्नति और आनन्द की अभिवृद्धि होगी। भारत का यहअधिकार बहुत दिनों तक रोका जा चुका है। विगत महायुद्ध ने इनकी आवश्यकता कोऔर भी अधिक महत्त्वपूर्ण बना दिया है। इसने भारत की जन्मसिद्ध न्यायोचित माँगे कोअधिक सहारा दिया है। भारत इंग्लैण्ड के कठोर परीक्षाकाल में सच्चा सिद्ध हुआ है।इंग्लैण्डसे भारत एकमात्र न्याय कीप्रार्थना करता है। भारत की इंग्लैण्ड से माँग है किउसके भाग्य-निर्णय के अवसर पर उन न्याय, स्वातंत्र्य, और स्वशासन के सिद्धान्तों कापालन किया जाय जिसका पक्ष लेकर वे उस इतिहास-प्रसिद्ध युद्ध में डटे हुए हैं,जिसमेंभारत ने इंग्लैण्ड की सहायता के लिये अपना रक्त और धन बहाया है। आजइग्लैण्ड और भारत दोनों की परीक्षा का दिन है। ईश्वर हम भारतीयों को साहस औरसुदृष्टि दे तथा भारत और ब्रिटिश साम्राज्य के हित के लिये आवश्यक सुधार का उद्योगकरने तथा उससे सहमत होने के लिये अंग्रेजों को नैतिक बल दे।