Speeches & Writings
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कृष्णस्तु भगवान स्वयम
श्रीमदभागवत में सूत जी शौनकादि ऋषियों से कहते हैं कि जैसे तली-तोड़ महासरोवर से सहस्त्रों छोटी-छोटी लहरें निकलती हैं, उसी त्तरह सत्व गुण के समुद्र परमात्मा से असंख्य अवतार प्रकट होते हैं । नारद आदि ऋषि स्वायंभुव आदि मनु, ब्रह्मा आदि देवता, कश्यप आदि प्रजापति- ये सब परमात्मा की कलाएँ हैं, ये सब नारायण के अंश रूप हैं और श्री कृष्ण जी तो साक्षात भगवान ही है । श्रीमदभगवदगीता में भगवान ने अपने श्रीमुख से कहा है-
अजो पि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोपि सन । प्रकृति स्वामधिष्ठाय सम्भवाभ्यात्ममायया ।। यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत । अभ्युत्थानमधमर्स्य तदात्मानं सृजाम्यहम ।। परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम । धर्मसंस्थापनार्थाय संम्भवामि युगे-युगे ।।
अर्थात यद्यपि 'मैं अजन्मा और अविनाशी हूँ, न मेरा जन्म होता है न मरण, और सब प्राणिमात्र का स्वामी हूँ, तथापि अपनी प्रकृति में स्थित रहकर अपनी माया के बल से समय-समय पर प्रकट होता हूँ । जब-जब धर्म की ग्लानि होती है और अधर्म अधिक बढ़ता है तब-तब मैं अपने को प्रकट करता हूँ । साधुओं की रक्षा के लिए, दुष्टों के विनाश के लिए धर्म को भली प्रकार स्थापित करने के लिए मैं युग-युग में प्रकट होता हूँ ।'
मैं बहुत चाहता हूँ कि भगवान कृष्ण के विषय में जो मेरा विश्वास है उसका सारे जगत में प्रचार करूँ । जो उनके चरण में मेरी श्रद्धा और भक्ति है, उसको मनुष्य मात्र के हृदय में स्थापित करूँ, किन्तु मैं अनुभव करता हूँ कि मुझमें अभी इतनी योग्यता नहीं कि मैं इस ऊँचे मनोरथ को पूरा कर सकूं, तथापि मैंने भक्तवत्सल भगवान के चरणों में आश्रय ले लिया है, इसलिए मुझे भरोसा है कि एक दिन यह मेरा मनोरथ सिद्ध अवश्य होगा ।
भगवान कृष्ण की अवतार-कथा को सनातन-धर्म के प्राण श्री वेदव्यासजी ने महाभारत में प्रचुर रूप से लिखा है, अथवा यों कहना चाहिए कि महाभारत में श्रीकृष्ण का माहात्म्य भरा हुआ है, आदि पर्व में पहले अर्थात अनुक्रमणिका अध्याय में सूतजी ने कहा है:-
विस्तरं कुरु वंशस्य गांधार्या धर्मशीलताम । क्षतु: प्रज्ञां धृतिं कुन्त्याः सम्यक द्वैपायनो ब्रवीत् ।। वासुदेवस्य माहात्म्यं पांडवानां च सत्यताम् । दुर्वृत्तं धार्त्तराष्ट्राणां मुक्तवान् भगवानृषिः ।।
अर्थात, ऋषि वेदव्यास जी ने महाभारत में कौरव वंश का विस्तार, गांधारी की धर्मशीलता, विदुर की बुद्धिमत्ता, कुंती की धृति, कृष्ण-वासुदेव की महिमा, पाण्डवों की सच्चाई, धृतराष्ट्र के पुत्र दुर्योधनादि का दुष्ट चरित्र, बहुत अच्छी रीति से वर्णन किया है ।
यह बात प्रसिद्ध है कि 'पराशय वचः सत्यम' वेदव्यास जी ने जो लिखा है, वह सत्य है । वेदव्यास जी श्रीकृष्ण के समकालीन थे और यह बात इस कथन का समर्थन करती है कि जो कुछ उन्होंने श्रीकृष्ण जी के विषय में लिखा है, वह ज्ञानपूर्वक लिखा है और इसलिए वह सत्य है । श्रीमदभागवत में भी वेदव्यास जी ने श्रीकृष्ण जी की महिमा और उनके पुण्य चरित का विस्तार के साथ वर्णन किया है । हरिवंशपुराण में, जो महाभारत के अन्तर्गत समझा जाता है और विष्णु पुराण में भी कृष्ण की कथा विस्तार के साथ वर्णित है ।
जिन पुरुषों को भगवान ने अपनी भक्ति दी है, जिनके हृदय को उन्होंने अपनी महिमा के ज्ञान से प्रकाश और आनन्द से परिपूर्ण कर दिया है, उनका यह धर्म है कि इस प्रकार और आनन्द को सारे जगत के प्राणियों में फैला दें ।
भगवान के अनुग्रह से और गुरुजनों की दया से मैंने इस अमृत का पान किया है और प्रायः नित्य करता हूँ और चाहता हूँ कि इसको सारे जगत में बाट दूँ, पर नहीं जानता कि कहाँ से प्रारम्भ करूं, किधर जाऊं ? एक बात ध्यान में आती है कि जिसकी महिमा के ज्ञान का गान मैं गाना चाहता हूं, पहले उसके स्वरुप का स्मरण करूं ।
महाभारत, भागवत, विष्णुपुराण और सब बड़े और छोटे ग्रन्थ, जिनमें कृष्ण की महिमा लिखी गई है, एक स्वर से कहते हैं कि भगवान कृष्ण के समान सुन्दर स्वरुप चौदह भुवनों में, तीन लोकों में कोई नहीं था । महाभारत के शान्ति पर्व के पैंतालिसवें अध्याय में वेदव्यास जी कहते हैं कि महाभारत के अन्त में जब पाण्डवों ने जब विजय प्राप्त कर लिया है तब युधिष्ठिर ने धृतराष्ट्र को, गांधारी को और विदुर को राज्य निवेदन करके सुखी और स्वस्थ मन होकर बैठे तथा सब प्राणियों को और सारे नगर को प्रसन्न करके अंजलि जोड़कर भगवान कृष्ण के पास गये-
ततो महति पयके मणिकांचन भूषिते । ददर्श कृष्ण्मासीतं नीलमेव समद्युतिम ।। जाजल्यमानं वपुषा दिव्याभरण भूषितम् । पीतकौशेयवसनं हेम्नवोपगतं मणिम ।। कौस्तुभेनोर मणिनाभिविरोजितम् । उद्यतेवोदयं शैलं सूर्यणाभिविराजितम् ।। नौपम्यं विद्यते तस्य त्रिषु लोकेषु किंचन ।।
अर्थात तब युधिष्ठिर जी ने एक बड़े पलंग पर जो मणि और सोने से भूषित था, कृष्ण जी को बैठे देखा जो नीले बादल के समान चमकते थे, जिनका शरीर तेज से झलमलाता था और दिव्य आभूषणों से भूषित था । पीतांबर को धारण किये हुए वे ऐसे दिखायी पड़ते थे जैसे सोने से घिरा हुआ नील मणि । उनके वक्ष:स्थल पर जो कौस्तुभ मणि जगमगा रहा था उससे उनकी ऐसी शोभा थी जैसे उगते हुए सूर्य से उदय पर्वत की शोभा होती है । अधिक क्या कहें, तीन लोकों में कोई नहीं जिनसे उनकी उपमा दी जाय ।
'परया 'शुशुभे लक्ष्म्या'-नक्षत्राणामिवोडूरात'
कृष्ण परम शोभा से ऐसे शोभित थे, जैसे नक्षत्रों में चन्द्रमा-
ततो भीष्मः शान्तनवो बुद्धया निश्चित्य वीर्यवान । वाष्णेर्य मन्यते कृष्णमहणीयतमं भुवि ।। एष ह्येषां समस्तानां तेजो बलपराक्रमैः । मध्ये तपन्निवामाति ज्योतिषामिव भास्करः ।। असूर्यमिव सूर्येण निवति इव वायुना । भासितं ह्लादितं चैव कृष्णोनेदं सदो हि नः ।। तस्मै भीष्माभ्यनुज्ञातः सहदेवः प्रतापवान । उपजहेथ विधिवत वाष्णयोर्यार्थमुत्तमम् ।।
शान्तनु के वीर्यवान पुत्र भीष्म ने बुद्धि से निश्चय करके कहा कि संसार में सबसे अधिक पूजा के योग्य कृष्ण है । सभा में बैठे समस्त पुरुषों के बीच में तेज, बल और पराक्रम से वे ऐसे चमकते दिख पड़ते हैं, जैसे ग्रहों में सूर्य । जहाँ सूर्य न हो, वहाँ सूर्य के निकलने से जैसा प्रकाश हो जाता है जहाँ वायु न चलती हो, वहाँ वायु के चलने से जैसा आनन्द हो जाता है, उसी प्रकार हमारी यह सभा कृष्ण के यहाँ बैठने से जगमग ज्योति और आनन्द से परिपूर्ण हो गई है । श्रीमदभागवत-दशमस्कन्ध के तैंतीसवे अध्याय में शुक्रदेव जी कहते हैं-
इति गोप्यः प्रगायन्त्यः प्रलपन्त्यकश्च चित्रधा । रुरुदुः सुस्वरराजन कृष्णदर्शनलालसाः ।। तासामाविरमूच्छौरिः स्मयमानमुखांभुज । पीताम्बरधरः स्त्रग्वी साक्षामन्मथमन्मथः ।।
इस प्रकार से गोपियाँ गाती हुई, अनेक प्रकार से प्रलाप करती हुई कृष्ण के दर्शन की लालसा से बड़े-ऊँचे स्वर से रोईं । उस समय भगवान वासुदेव मुस्कुराते हुए पीताम्बर पहने माला गले में डाले उनके सामने प्रकट हुए । उनका सौन्दर्य ऐसा था कि उसको देखकर भी मोहित हो ।
भीष्मपितामह जी भागवत के पहले स्कन्ध के नवें अध्याय में कहते हैं-
त्रिभुवन कमनं तमालवर्ण, रविकर गौर वरांवर दधाने । वपुरलककुला वृताननावजं विजयसखे रतिरस्तु मेनवद्या ।।
तीन लोक में सबसे सुन्दर, अलसी के फूल के समान नील वर्ण, सूर्य की किरण के समान पीले-वस्त्र को पहने हुए और जिनका मुख कमल घुंघराले वालों से शोभित हो रहा है, अर्जुन के मित्र- ऐसे कृष्ण के चरणों में मेरी विमल भक्ति हो ।
मैं आशा करता हूँ कि ऊपर जो कहा गया है उसको पढ़ने और विचारने से प्रत्येक पाठक को भगवान कृष्ण के सुन्दर स्वरुप का ज्ञान हो जायगा ।
(सनातनधर्म: वर्ष १ अंक ४) |