Speeches & Writings
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राष्ट्रीय जागरण
बहुकृत्ये निरुद्योगी जागर्तव्ये प्रसुप्तकः । विश्व्स्सत्वं भयस्थाने हा पुत्रक! विहन्यसे ।।
काम बहुत करना है, तुम कुछ उद्योग नहीं कर रहे हो । जागने का समय है, तुम सोते हो । भय का स्थान है और तुम विश्वास किये बैठे हो कि कुछ भय नहीं है । हाय! तुम मारे जाते हो ।
श्री व्यासदेवजी का यह वचन भारतवर्ष की वर्तमान दशा में पूर्ण रूप से घटित होता है । एक समय था कि भारतवर्ष भूलोक का भूषण था । विद्याओं की उत्पत्ति यहाँ हुई, धर्मों का जन्म यहाँ हुआ, कलाओं की कल्पना यहाँ हुई, इन बातों को विदेशी लोग भी अब मानने लगे हैं ।
जर्मनी के बड़े विद्वान डाक्टर टीवो, जो गत वर्ष तक प्रयाग के म्युअर कालेज के अधिभ्राता थे और जो योरुप की विद्याओं में निपुण हैं और संस्कृत के भी बड़े विद्वान हैं, उन्होंने सन १८७५ के एशियाटिक सोसायटी के पत्र में सिद्ध किया है कि रेखागणित का शास्त्र, जिसकी जन्मभूमि यूरोप के लोग यूनान देश को मानते थे, यह भारतवर्ष में वैदिक यज्ञों-वेदियों की रचना से उत्पन्न हुआ था । और इसके प्रमाण में उन्होंने शुत्व-सूत्र का निर्देश किया है, जिसकी यूरोप के विद्वान भी यूनान के शास्त्रों से बहुत प्राचीन मानते हैं । इसमें कोई विवाद नहीं है कि यूनान के शास्त्रकारों का जन्म होने से सैंकड़ों वर्ष पहले वे सूत्र भी विद्यमान थे और उनसे भारतवर्ष के लोग रेखागणित की शिक्षा और व्यवहार करते थे । ज्योतिष-शास्त्र की जन्मभूमि भी, योरुप के प्रमुख डाक्टर टीवो भारतवर्ष को ही मानते हैं और उनका सिद्धान्त है कि वैदिक यज्ञों के समय का निश्चय करने के लिए तारा-मंडल के ज्ञान की आवश्यकता हुई, इससे इस शास्त्र की उत्पत्ति हुई । इस बात को भी अब सब विद्वान मानते हैं कि जो गणित की रीति और अंक यूरोप में प्रचलित हैं, उनका प्रचार वहाँ मुसलमान लोगों ने किया, और मुसलमान मानते हैं कि उन्होंने अंकों को हिन्दुस्तान से सीखा । अंकों का नाम ही मुसलमानों के यहाँ हिन्दसा है । इस बात का प्रमाण भी मिल गए हैं कि आयुर्वेद के प्रसिद्ध ग्रन्थ चरक और सुश्रुत संहिताओं का अरबी में उल्था हुआ और मुसलमानों का जिस समय योरुप में राज्य था, उस समय उन्होंने इस संहिताओं के सिद्धान्तों का और क्रियाओं का वहाँ प्रचार किया । सांख्य, न्याय, मीमांसा, व्याकरण इत्यादि शास्त्रों का जन्म इस देश में होने के विषय में तो किसी को भी सन्देह नहीं हो सकता । इसमें भी कोई सन्देह नहीं है कि रामायण, महाभारत और भागवत के सामान अदभुत ग्रन्थ किसी दूसरे देश में नहीं रचे गए ।
धर्मों में भारतवर्ष के सनातन धर्म के अतिरिक्त मुख्य धर्म बौद्ध, जैन, ईसाई और मुहम्मदी हैं । इनमें से वे बौद्ध और जैन धर्म तो भारतवर्ष में ही उत्पन्न हुए और ईसाई धर्म के विषय में अब इस बात के प्रमाण मिलते हैं कि ईसामसीह के समय में बौद्ध भिक्षुओं के संघ ईसामसीह के देश में विद्यमान थे और ईसामसीह को उनके धर्म के सिद्धान्त और आचार पहुँचे थे । इस विषय का प्रतिपादन श्रीयुत रमेशचन्द्र दत्त ने भारत के प्राचीन इतिहास में ऐसे प्रमाणों से किया है, जिसको योरुप के विद्वानों को भी मानना पड़ता है । जिन लोगों ने ईसाई और बौद्ध दोनों धर्मों के ग्रन्थ पढ़े हैं, वे कह सकते हैं कि ईसाई और बौद्ध धर्म में कोई अन्तर नहीं है और कह सकते हैं कि ईसाई धर्म में कोई उत्तम बात ऐसी नहीं है जो बौद्ध धर्म के ग्रन्थों में नहीं मिलती । मुहम्मदी धर्म की उत्पत्ति के समय में ईसाई धर्म भली-भाँति प्रचलित था और मुसलमान लोग ईसाइयों के धर्म की 'तौरेत' नामक संहिता को मानते हैं और ईसा-मूसा इत्यादिक नबियों को भी मानते हैं ।
यूरोप के विद्वान अब यह भी मानते हैं कि चित्रकर्म, मूर्ति-निर्माण, वस्त्र-निर्माण, आभूषण-रचना, संगीत, नाट्य इत्यादिक शिल्प और काल भारतवर्ष में उन समय में उच्च कोटि को पहुँचे हुए थे, जब यूरोप में विद्याओं और कलाओं का आरम्भ भी नहीं हुआ था । बम्बई-हाईकोर्ट के भूतपूर्व न्यायाधीश सर जार्ज वर्डवुड़ ने एक पत्र में लिखा है कि लोहा-तांबा इत्यादिक धातु बहुत प्राचीन समयों में कहीं नहीं थे, उनकी बनाने की विधि का आविष्कार उन आर्य लोगों ने किया, कुल-परम्परा में भारत के ऋषि और आचार्य हुए ।
विचार करने की बात है कि जब गणितविद्या अर्थात पाटी-गणित, बीज-गणित, रेखा-गणित और लोहा-ताँबा इत्यादिक धातुओं की प्रक्रिया विदित न होती तो लोक की क्या अवस्था होती । कहाँ रेल होती, कहाँ तार होता, कहाँ और यंत्र होते और कहाँ यूरोप, अमेरिका की सभ्यता होती । इतिहास, काव्य, नाटकादिक इस देश के ग्रन्थों से यूनान-चीन आदि देशों के विद्वान जो इस देश को प्राचीन काल में देख गये, उनके लेखों के पड़ने से कोई सन्देह नहीं रहता कि भारतवर्ष में अतुल सम्पत्ति थी । यहाँ बड़े समृद्ध नगर और जनपद थे, बड़े-बड़े प्रासाद, दुर्ग, देवालय, उद्यान, बिहार, विद्यापीठ और कला-भवन थे । बड़े-बड़े विद्वान, तपस्वी और तेजस्वी ब्राह्मण थे, बड़े-बड़े शूरवीर प्रतापी क्षत्रिय थे, बड़े-बड़े व्यवसायी और उदार वैश्य थे, बड़े-बड़े प्रवीण शिल्पी ओर परिश्रमी कृषक थे । जिस देश में यह सब सामग्री हो, वहाँ विभव और ऐश्वर्य क्यों न हो ।
परन्तु अब एक समय ऐसा आया है कि जिन ब्राह्मणों ने संसार को धर्म और विद्या दी, उनकी सन्तानों की रोटी दुर्लभ है । जो क्षत्रिय राज्यों के शासन करते थे, उनकी सन्तानों को जोतने को खेत दुर्लभ है । जो वैश्य राजा महाराजाओं को ऋण देते थे, उनकी सन्तानों की जीविका दुर्लभ हो गई है । कहार पांच रुपये महीने में ढूँढने से मिलता है, ब्राह्मण-क्षत्रिय चार रूपये की जीविका के लिए मारे-मारे फिरते हैं । ब्राह्मणों का पंखा-कुली का, ठाकुरों का ड्यौढ़ीवान का काम ढूँढने से मिलता है । कभी नहीं भी मिलता । भारतवर्ष दुर्भिक्ष-पीड़ित और व्याधिग्रस्त है । जितने मनुष्यों के प्राण देकर जापान ने रूस जैसे विशाल राष्ट्र को परास्त करके जगत को चकित कर दिया, उनसे अधिक मनुष्यों के प्राण भारतवर्ष में एक वर्ष के दुर्भिक्ष या प्लेग में जाते हैं । तीस करोड़ प्रजा में से करोड़ों को पेट-भर रूखा अन्न भी नहीं मिलता । सो क्यों? क्या भारतवर्ष में इतना अन्न नहीं उपजता कि भारतवासी पेट भर खायें? उपजता तो है, पर बहुत-सा देशान्तरों को चला जाता है । यह क्यों चला जाता है?
न जाय देशान्तरों से जो कपडा, चीनी, लोहा, तांबा, पीतल, कांच, छतरी, जूते, टोपी, औषध इत्यादि अनेक वस्तु आती है वे कैसे आवें? ये वस्तुएं क्या भारतवर्ष में नहीं बन सकती? बन सकती हैं और बना करती थीं, कौन सी वस्तु भारतवर्ष में नहीं बन सकती? पर भारतवासी तो सोते हैं, जागें तो बनावें ।
(फाल्गुन-कृष्ण सप्तमी, संवत १९६३) |