Mahamana Madan Mohan Malaviya

Mahamana Madan Mohan Malaviya
Speeches & Writings

अकाल

 

इस समय हमारे देश में विचारवान देश-हितैषियों के विचारार्थ नाना प्रकार के जितने विषय उपस्थित हैं उन सब में अन्न का विषय सबसे गम्भीर, आवश्यक और चिन्ताजनक है भारतवर्ष की भूमि संसार-भर में सबसे अधिक उपजाऊ है, तब भी अन्न बिना जितना कष्ट भारतवासियों को उठाना पड़ता है, उतना किसी देश के मनुष्यों को नहीं उठाना पड़ता जितने मनुष्य यहां अकाल से मरते हैं, उतने और कहीं नहीं मरते अन्न का भाव दिन-दिन बढ़ता जाता है सन १८६५ में यहां चावल रूपये में करीब २६ सेर, गेहूँ २२ सेर ८ छटांक, चना २९ सेर, बाजरा २३ सेर ८ छटांक और रागी २८ सेर बिकते थे इसके चालीस वर्ष बाद, अर्थात १९०५ में चावल का भाव रूपये में १३ सेर, गेहूँ का १४.५ सेर, चना का १६.५ सेर, बाजरा का १८.५ सेर, और रागी का २२ सेर हो गया गत जुलाई के महीने में भाव इतना तेज हो गया कि चावल रूपये में ८ सेर, गेहूँ ११ सेर, चना १३.५ सेर, बाजरा १२ सेर और रागी २० सेर बिकने लगे अर्थात ४२ वर्ष के बीच में मोटे हिसाब से चावल १७ सेर, गेहूँ ११ सेर, चना १५.५ सेर, बाजरा ११.५ सेर और रागी ८ सेर महंगे हो गए हैं हमारे पाठकजन भाव की इस महंगी को विचार कर अत्यन्त चकित होंगे तेजी जैसी आश्चर्यजनक है, उतनी ही भयानक भी है यदि इसी हिसाब से भाव बढ़ता गया, तो चालीस वर्ष बाद रूपये का एक सेर अन्न भी दुर्लभ हो जायगा हम लोग चिरकाल ऐसी और निद्रा में सोये रहे कि हम लोग ने न अपने व्यापार के धीरे-धीरे नाश होने पर कुछ विचार किया और न अपने देश के बचे हुए एकमात्र अवलम्बन, अन्न की बढ़ती हुई दुर्लभता का कुछ ख्याल किया इस देश के प्रतिवर्ष बढ़ते हुए अन्न के भाव के साथ अपनी-अपनी उन्नति करते हुए देशों का भाव देखिये कि वह किस प्रकार प्रतिवर्ष कम हो रहा है सन १८५७ में इंग्लैंड और वेल्स में गेहूँ औसत हिसाब से रूपये में करीब तीन सेर बिकता था और ४६ वर्ष बाद सन १९०३ में उसका भाव करीब ६ सेर, अर्थात दूना हो गया इसी प्रकार चावल आदि का भाव भी घटा फ्रांस आदि देशों में भी इंग्लैंड की तरह अन्न का भाव घटता गया


ऊपर दिए हुए अंकों को देखकर पाठकों को मालुम हो जायगा कि ज्यों-ज्यों हमारे अन्न का भाव तेज होता जाता है, त्यों-त्यों और देशों में वह घटता जाता है अन्न की बढ़ती हुई दुर्बलता के दो कारण हैं, एक तो भारतवर्ष का अन्न विदेशों को भेजा जाता है, और दूसरे, अन्न बोने के लिए भूमि दिन-प्रतिदिन कम होती जाती है


इसलिए ज्यों-ज्यों अपने देश के तथा और देशों के लोगों की संख्या के बढ़ने के साथ-साथ अन्न की माँग भी बढ़ती है, त्यों-त्यों अन्न का भाव महंगा होता चला जाता है और सबसे अधिक अन्न इसी देश से जाता है यहाँ चावल, गेहूँ इत्यादि खाद्य पदार्थों के सिवा, नील, अलसी, सन, कपास इत्यादि की भी खेती होती है वे भी विदेश को भेजे जाते हैं और वहाँ से उनका तैयार माल बनकर यहाँ आता है इन वस्तुओं की माँग और देशों में बढ़ रही है, किन्तु सन को छोड़कर, क्योंकि उसकी खेती इसी देश में होती है, और चीजें विदेशों में उपजाती हैं और इसलिए उनके दाम या तो स्थिर रहते हैं या घटते चले जाते हैं सन १८७० में कैडी (करीब १० मन) रुई के दाम २८४ रु० १३ आ० थे, १८८० मने २०, १८९० में १९० रु० ४ आ०, १९०० में २१४ रु० १३ आ० और १९०५ में १९२ रु० ४ आ० थे इसी प्रकार १८७० में १ मन आलसी ४ रु० १० आ० में मिलती थी, १८८० में ४ रु० १० आ० में, १८९० में ४ रु० १०.५ आ० में, १९०० में ६ रु० ९.५ आ० में और १९०५ में ४ रु० १४ आ० में अंकों से जान पड़ता है कि इन पदार्थों के भाव या स्थिर रहे या घटे इन पदार्थों के भावों के घटने और खाने के पदार्थों के भावों के बढ़ने से होना तो यह चाहिये था कि खाद्य पदार्थों की खेती अधिक होती और अन्य पदार्थों की कम, किन्तु हुआ इसका उलटा इस देश में दो प्रकार के पदार्थों की खेती होती है, एक चावल-गेहूँ इत्यादि खाद्य पदार्थों की, और दूसरे रुई, सन नील इत्यादि की जो कपडे-बुनने रंगने इत्यादि कामों में आते हैं खाद्य वस्तुओं की देश-विदेश दोनों में अधिक मांग होने पर भी पहले प्रकार के पदार्थों की खेती बहुत ही कम बढ़ रही है और दूसरे प्रकार के पदार्थों की शीघ्र ही बढ़ती चली जाती है दोनों प्रकार की खेती के लिए कुल २३ करोड़ ८०.६ लाख एकड़ भूमि जोती जाती है इसमें पहले प्रकार के अर्थात खाने के पदार्थों के लिए १८ करोड़ ५०.४ लाख एकड़ भूमि जोती जाती है और दूसरे प्रकार के पदार्थों के लिए ५ करोड़ ३०.२ लाख एकड़ १८९२-९३ में कुल २२  करोड़ १०.२ लाख एकड़ भूमि जोती जाती थी इसमें से १८ करोड़ एकड़ पहले प्रकार के पदार्थों के लिए और चार करोड़ १०.२ एकड़ दूसरे प्रकार के पदार्थों के लिए इससे यह परिणाम निकला कि १२ वर्ष में केवल ७०.४ लाख एकड़ भूमि अधिक जोती गई इसमें ५०,३९ लाख एकड़ भूमि पहले प्रकार के पदार्थों के लिए और १ करोड़ १० लाख एकड़ भूमि दूसरे प्रकार के लिए अर्थात १२ वर्ष में जितने एकड़ भूमि अधिक जोती गई, उसमें दो-तिहाई से भी अधिक दूसरे प्रकार के पदार्थों के लिए जोती गई और एक-तिहाई से भी कम पहले प्रकार के पदार्थों के लिए इस बीच यहाँ की जनसंख्या १ करोड़ ५० लाख अधिक बढ़ी इसलिए अन्न के निमित्त जितनी भूमि अधिक जोती गई, उससे करीब-करीब दूनी जोती जानी चाहिए थी सबसे नयी रिपोर्ट से मालूम होता है कि अन्न की अपेक्षा सन-अलसी इत्यादिक बोने में अधिकता बढ़ती जा रही है १८९२-९३ में गेहूँ और चावल के लिए ७ करोड़ ८१.१ लाख एकड़ भूमि जोती जाती थी और १९०६-०७ में ४ करोड़ ३०.९ लाख रुई-सन इत्यादिक के लिए १८९३ में २ करोड़ ७०.९ लाख एकड़ जोती जाती थी और १९०६-०७ में ४ करोड़ ८ लाख एकड़ जोती गई


देश में जनसंख्या के बढ़ने से अन्न की मांग बढ़ती चली जाती है और उसका भाव भी बढ़ता चला जाता है, किन्तु सन को छोड़कर अलसी, रुई. नील इत्यादिक का भाव घटता चला जाता है इस पर भी अलसी-तिल इत्यादिक के लिए जितनी अधिक भूमि जोती जाती है, उसकी अपेक्षा अन्न के लिए बहुत ही कम जोती जाती है इसका कारण यह है कि विदेशों में इन चीजों की, विशेषकर सन की बहुत मांग है अत्यन्त गरीबी के कारण हमारे देश के किसानों को रूपये की अत्यन्त आवश्यकता रहती है रैली ब्रादर्स इत्यादिक विदेशी कम्पनियों के एजेन्ट गाँव-गाँव घूमकर, खेतिहरों को पेशगी रुपया देकर, उनके अन्न को मोल ले लेते हैं और उसे विदेशों में भेज देते हैं इतना ही नहीं वे पेशगी रुपया देकर, जिस चीज को चाहते हैं, उसी की खेती करवा लेते हैं इससे और इसी प्रकार के और कारणों से जो भूमि अन्न के लिए जोती जाती थी, वह सन इत्यादिक के लिए जोती जाने लगी है विदेशी सौदागरों ने हमारे शिल्प को तो नष्टप्राय कर ही दिया था, अब खेती के ऊपर भी, जो कि अब हमारे देशवासियों में से अधिकांश का एकमात्र सहारा है, उनका बुरा प्रभाव पड़ रहा है खेतिहर लोग इस बात को नहीं समझ सकते कि विदेशी कम्पनियों के हाथ अन्न इत्यादिक बेचने से देश को कितनी हानि पहुँच रही है यदि वे समझ भी जायँ, तो कर ही क्या सकते हैं ? उनको लगान और मालगुजारी देने के लिए रूपये की आवश्यकता है यदि उनके देशवासी रैली ब्रादर्स के समान कोई ऐसा प्रबन्ध नहीं करेंगे कि समय में उनसे अन्न मोल ले लेवें, तो उनको विवश होकर विदेशी व्यापारियों के हाथ अपना अन्न बेचना ही पड़ेगा


प्राणियों के लिए अन्न सबसे आवश्यक वस्तु है इसलिए इसकी रक्षा करना सब देशहितैषियों का धर्म है उसे विदेशों को जाने से रोकना बहुत कठिन नहीं है केवल थोड़े उद्योग की आवश्यकता है प्रत्येक प्रान्त में ऐसी स्वदेशी कम्पनियाँ बन्नी चाहिए जो किसानों को पेशगी रुपया देकर उनका कुल अन्न मोल ले लें और उसको अपने ही देशवासियों के हाथ बेचें इस प्रकार अन्न विदेशों को जाने से बच जायगा सन-अलसी इत्यादिक पदार्थ, जो विदेशों को कपड़ा आदि बनने के लिए जाते हैं, उनको यहीं उसी काम में लाने का भी उद्योग होना चाहिए और विषयों की अपेक्षा इसी विषय में सबसे अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है बिना काफी आन मिले कुछ काम नहीं हो सकता


अन्न की महंगी को कम करने का एक उपाय यह है किन्तु अर्थशास्त्र के जिन सिद्धान्तों को हमारे विदेशीय शासक जन मानते हैं, उनके अनुसार हमारा प्रस्ताव न विवेकयुक्त समझा जायगा, न साध्य और हमारे समाज की वर्तमान अवस्था में- हम भी यह आशा नहीं कर सकते कि रैली ब्रादर्स के समान कोई व्यवसायी दल शीघ्र हमारे यहां खड़ा हो जायगा दूसरा उपाय, जो प्रजा को महंगी की मौत से बचाने के लिए सम्भव है, वह यह है कि उनकी आमदनी बढ़े यदि हमारे देशवासियों की आय बढ़ जाय और उनके पास इतना धन हो कि अन्न कितना ही महंगा क्यों न हो, वे अपना पेट भरने के लिए काफी अन्न मोल ले सकें, तो लोग अकाल से न मरेंगे, न प्लेग से उतने मरेंगे जितने अब मरते हैं जातीय आय बढ़ाने का एक ही उपाय है यह है कि शिल्प और खनिज व्यापार की वृद्धि हो और गवर्नमेंट तथा प्रजा के हितैषी समस्त देशवासियों का यह परम कर्तव्य है कि जहाँ तक हो सके, शिल्प और वणिज-व्यापार की उन्नति के लिए यत्न करें तीसरा उपाय देशवासियों की आय बढ़ाने का यह है कि अनेक बड़े वेतन के ओहदे, सिविल और सेना-सम्बन्धी, जिनके द्वारा करोड़ों रुपया प्रतिवर्ष विलायत को चला जाता है उन पर अंग्रेजों के स्थान में हिन्दुस्तानी नियत हों एक चौथा उपाय महंगी की विपत्ति को कम करने का यह है कि प्रजा को जो थोड़ी-सी आमदनी है उसमें से जो भाग गवर्नमेंट टैक्स के द्वारा प्रजा से ले लेती है, वह भाग कम किया जाय, इससे प्रजा को प्राण बचाने के लिए अपनी परिमित आय का अधिक भाग बच जाया करेगा २२ बरस से कांग्रेस इन बातों के लिए गवर्नमेंट से प्रार्थना करती चली आई है गवर्नमेंट ने समय-समय पर इनमें से कुछ बातों को करना अपना धर्म भी बताया है- जैसे शिल्पकला की शिक्षा का प्रचार, किन्तु खेद का विषय है कि प्रजा को बार-बार होते हुए अकाल में आहुति बनने से बचाने के लिए जैसे यत्न और उपाय आवश्यक थे, वे अब तक नहीं किये गए और अब भी नहीं किये जा रहे हैं: जब तक ये सब उपाय काम में नहीं लाये जायेंगे, तब तक प्रजा को बार-बार अकाल के भयंकर दुःख और प्राण हानि सहने पड़ेंगे किन्तु ये सब सुधार समय माँगते हैं इस समय गवर्नमेंट का और प्रजा में सम्पन्न जनों का भी धर्म यह है कि तुरन्त करने लायक उपायों से प्रजा को बचावें


 

गवर्नमेंट गरीबों को अन्न या धन पहुँचाने का जो यत्न कर रही है और करेगी, वह सब प्रकार से सराहनीय है, किन्तु जैसा हम पहले अपना विश्वास प्रकाश कर चुके हैं, देश के अन्न को बाहर जाने से रोकना प्रजा को महँगी की विपत्ति से बचाने का सबसे सरल उपाय है इस उपाय के अवलम्बन करने से जितने अधिक मनुष्यों को सहायता और सहारा पहुँचेगा, उतना और किसी दूसरे उपाय के अवलम्बन से नहीं होगा इस समय सब कामों को छोड़कर अकाल से लोगों को बचाने में सब लोगों को अपना समय और अपना धन लगाना चाहिए अन्य राजनैतिक मामलों में एक वर्ष का विलम्ब भी हो जाय तो कुछ बड़ी हानि नहीं, किन्तु इस काम में एक महीने के विलम्ब से भी सहस्त्रों प्राणियों का नाश हो जायगा हम लोगों की सब शक्तियाँ इसी काम में लगनी चाहिए इस कार्य में प्रजा और गवर्नमेंट, सनातनधर्मी और आर्यसमाजी, हिन्दू और मुसलमान, ईसाई और पारसी, सभी को मिलकर काम करना चाहिए दानशील धार्मिकों को भी ऐसे अवसर पर अपना दान इन्हीं अकाल-पीड़ित और अनाथों को देना चाहिए प्रत्येक पुरुष और स्त्री को चाहिए कि अपनी सामर्थ्य के अनुसार इनके प्राण बचाने के लिए अन्न और द्रव्य दें कितने लोग इस समय न केवल भूख की आग से झुलस रहे हैं अपितु वस्त्र न होने से शीत से भी ठिठुर रहे हैं इन भूखों को अन्न और नंगों को वस्त्र देना ईश्वर को प्रसन्न करने का परम उत्तम मार्ग है


(पौष-कृष्ण १, सं० १९६४)

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