Mahamana Madan Mohan Malaviya

Mahamana Madan Mohan Malaviya
Speeches & Writings

स्वराज्य : योग्यता और साधन

 

स्वराज्य से हमारा अर्थ है- प्रजा के चुने प्रतिनिधियों के द्वारा प्रजा की सम्मति से राज्य के प्रबन्ध का अधिकार हम यह भी लिख चुके हैं कि यह अधिकार हम अंगरेजी साम्राज्य के भीतर अंगरेजी साम्राज्य का एक अंग होकर मांगते हैं और हम यह दिखा चुके हैं कि यह स्वराज्य हम धीरे-धीरे पाने में संतुष्ट है अब प्रश्न यह है कि हम इसके योग्य हैं अथवा नहीं हम बिना संकोच के कहते हैं कि हम पूर्ण रूप से इसके योग्य हैं जो लोग कहते हैं कि वे इसके योग्य नहीं हैं, वे या तो अज्ञान से ऐसा कहते हैं, या दुर्भाव से जिनको हमारी सच्ची दशा विदित नहीं है, जिन्होनें कभी हमारी विद्या, हमारा नियमों के पालन का स्वभाव, हमारी कुलीनता, हमारे इतिहास से परिचय नहीं किया, वे यदि कहते हैं कि हम स्वराज्य के योग्य नहीं, तो उनका कहना उतने ही गौरव के योग्य है जितना किसी ऐसे पुरुष का, जो अंगरेजी भाषा से परिचय नहीं रखता, यह कहना कि अंगरेजी कविता ऐसी अश्लील है कि वह कुलवती स्त्रियों के पढ़ने के योग्य नहीं जिस बात को मनुष्य जानता ही नहीं, उसके विषय में उसकी सम्मति का क्या मान हो सकता है दूसरे वे योरोपीय लोग हैं जिनमें यह दुर्भाव समाया है कि प्रतिनिधि शासन प्रणाली के चलाने की योग्यता विशेषकर यूरोपीय जातियों ही को है, एशिया की जातियों को नहीं जापान की उन्नति और उसकी प्रतिनिधि पालन के क्रम में सफलता को देखकर वे लाचार होकर कहते हैं कि जापानी अपवाद है, उसके कारण सामान्य नियम गलत नहीं समझा जा सकता चीन और फारस में पार्लमेण्ट के जारी होने का हाल सुनकर वे कहते हैं कि थोड़े दिन बाद मालुम होगा कि यह क्रम चीन और फारस में नहीं चल सकेगा


जिन योरोपियनों में जातीय अभिमान और जातीय पक्षपात समाया है, वे कभी दूसरी जाती के गुणों को नहीं स्वीकार करेंगे और जो अंगरेज यह चाहते हैं कि हिन्दुस्तान के लोगों पर सदा-सर्वदा उनका वैसा ही अधिकार बना रहे, जैसा आज है उनकी आँखों में हिन्दुस्तान के लोग समय के अन्त तक इस योग्य नहीं होंगे कि उनकी देश के शासन में कुछ अधिकार दिया जाय किन्तु जिन अंगरेजों के विचार उदार हैं, जो पक्षपात से रहित हैं, विशेषकर वे, जो हमारे देश में रहकर हमारे बीच में चल-फिरकर हमारा सब कच्चा और सच्चा हाल समझे हुए हैं, जिन्होनें हमारी विद्या, हमारी योग्यता का अनुभव किया है, हमारे चरित्र को जांचा है, हमारी मान-मर्यादा, हमारे शील-स्वभाव को समझा है, वे मुक्त कण्ठ से यह कहते हैं कि हम लोग स्वराज्य पाने के योग्य हैं, यद्धपि वे यह भी कहते हैं कि गवर्नमेण्ट अपने संतोष के लिए हमको यह अधिकार धीरे-धीरे थोड़े कर दें ऐसे उदार अंगरेजों में सबसे अधिक आदरणीय, कांग्रेस के जन्मदाता मि० ए० ओ० ह्यूम, सर विलियम वेडबर्क, सर हेनरी काटन, चिरस्मरणीय मि० जार्ज यूल, मि० डिग्घी और अनेक सज्जन थे, और हैं इन दो मतों से कौन-सा मत सही है, इसके जांचने के लिए प्रत्यक्ष सबसे बड़ा प्रमाण है जो लोग कहते हैं कि हम स्वराज्य के योग्य नहीं, उन्होंने स्वराज्य की योग्यता का क्या प्रमाण माना है? क्या उनको यह मालूम है कि जब साइमन डी० मांटफर्ड ने १२६५ में प्रजा की पहली अंगरेजी पार्लामेण्ट एकत्र की थी, उस समय अंगरेजों की सभ्यता की क्या अवस्था थी? उनमें से कितने अपना काम छोड़कर सर्वसाधारण के काम में समय लगाने को तैयार थे क्या उनको यह नहीं मालूम कि कुछ दिनों तक पार्लामेण्ट में, मेम्बरों को हाजिर करने के लिए वारण्ट जारी किये जाते थे जो दशा उस समय अंगरेजों की थी उससे और जो दशा आज हिन्दुस्तानियों की है उससे, क्या कोई तुलना की जा सकती है?


प्रायः यह कहा जाता है कि स्वराज्य या प्रतिनिधि शासन प्रणाली के जारी करने के लिए यह आवश्यक है कि सर्वसाधारण में शिक्षा का प्रचार हो जाय सर्वसाधारण में शिक्षा के प्रचार को सभी उन्नति का मूल समझते हैं और अनेक लाभों के लोभ से हम उसको हृदय से चाहते हैं प्रतिनिधिशासन के क्रम में यह सहायक होगा किन्तु यह कहना ठीक नहीं है कि बिना इस शिक्षा के प्रतिनिधि-शासन का क्रम जारी नहीं किया जा सकता अथवा चल नहीं सकता बीस वर्ष हुए, चिरस्मरणीय मि० यूल ने प्रयाग की १९८८ की कांग्रेस में बहुत अच्छी रीति से प्रतिपादन किया था कि इंग्लैंड में भी पार्लामेण्ट के मेम्बरों के चुनने का अधिकार पाने के लिए जो एकमात्र योग्यता देखि जाती थी, वह यह थी कि जिसको यह अधिकार दिया जाय, उसकी कुछ सम्पत्ति देश में हो चार सौ वर्ष तक यह हक उनको दिया जाता था, जिनके पास चालीस शिलिंग (अर्थात उस समय की दर के अनुसार २० रुपया) साल की आमदनी की की जमीन रहती थी अब यह उनको दिया जाता है कि जो किसी मकान में रहते हैं और कुछ सालाना टैक्स देते हैं अब वहाँ लोगों को कानूनन पढ़ना पड़ता है, इसलिए वोट देने वाले प्रायः पढ़े-लिखे होते हैं किन्तु ब्रिटिश राज्य में कभी यह बात आवश्यक नहीं समझी गई कि पार्लामेण्ट मेम्बरों के लिए वही पुरुष वोट दे सके जो पढ़ा लिखा हो लेकिन मान भी लिया जाय कि ऐसा ही है, तो भी यह देखा जाता है कि इस विषय में भी सौ वर्ष पहले इंग्लैंड की जो दशा थी, उससे आज हिन्दुस्तान की दशा बहुत अच्छी है हिन्दुस्तान में अब हर ९ आदमियों में से एक पढ़-लिख सकता है प्रोफेसर रोजर्स अपनी 'ब्रिटिश सिटीजन' नामक पुस्तक में लिखते हैं कि 'मैं नहीं विश्वास करता कि (इंग्लैंड में) १०० वर्ष पहले दस पुरुषों में से एक और बीस स्त्रियों में से एक से अधिक पढ़-लिख सकते थे जब मैं हैम्पशायर नामक गाँव में बाल्यावस्था में था, तब किसानों में चालीस वर्ष से ऊपर की अवस्था वाले पुरुषों में मुश्किल से एक-दो ही पढ़-लिख सकता था? एक या दो सदी पहले इंग्लैंड के निवासी, पुरुष और बालक, ऊँचे और नीचे, कुछ मुट्ठी घर आदमियों को छोड़कर, घोर अज्ञान में डूब रहे थे और तब भी इंग्लैंड में हाउस ऑफ़ कामन्स था ।'


१८२१ तक इंग्लैंड में सिर्फ १८,४६७ स्कूल थे और उनमें केवल साढ़े ६ लाख विद्यार्थी पढ़ते थे बढ़ते-बढ़ते १८८१ में १,२२,००० के लगभग स्कूल हुए और विद्यार्थी हिन्दुस्तान में १८८८ में थे और मि० यूल ने बहुत ठीक कहा था कि विद्या की योग्यता के विचार से भी हिन्दुस्तान में इतने लोग उस योग्यता और गुण को रखने वाले थे जितने दो-तीन पुश्त पहले इंग्लैंड में थे, जो मर्यादाबद्ध शासन में आचि रीति से शामिल किये जा सकते थे पिछले बीस वर्षों में देश में विद्या की और अधिक उन्नति हुई पढ़े-लिखे लोगों की संख्या बहुत बढ़ गई है कालेजों से सुशिक्षित लोग निकलकर पब्लिक सर्विस में, वकालत में, डाक्टरी में, इंजीनियरी में, बड़े और छोटे व्यापारों में, साहित्य में, अध्यापक वृत्ति में, समाचारपत्रों के लिखने में, अपनी विद्या और योग्यता का अच्छा परिचय देकर यश और धन पैदा करते आये हैं जिस विभाग में गवर्नमेण्ट ने हिन्दुस्तानियों को भरती किया है, उसी में उन्होंने अपनी योग्यता दिखायी है और अपने देशवासियों की प्रतिष्ठा बढ़ायी है हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, फारसी, सब जाति के हिन्दुस्तानियों ने अपनी विद्या, विवेक और सुचरित्र से अपने देश की प्रतिष्ठा बढ़ायी है युद्ध में और शान्ति में, कानून बनाने वाली कौंसिलों में और सर्वसाधारण प्लेटफॉर्मों पर, हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस तथा कमिश्नर और कलेक्टर के पदों पर, बड़े अस्पतालों के चार्ज में और बड़ी इमारतों के बनाने में, बैंकों के प्रबन्ध करते और देशी-विदेशी व्यापार में, देशी राज्यों में मंत्रियों के पदों पर और रियासतों का प्रबन्ध करने में, जहाँ-जहाँ पढ़े-लिखे हिन्दुस्तानियों को अवसर दिया गया है उन्होंने अपना रास्ता आप काटकर निकाला है, वहाँ उन्होंने साथ में काम करने वाले अंग्रेज भाइयों के मुकाबले में तारीफ़ के साथ काम किया है हिन्दुओं की निज सभ्यता कई सहस्र वर्ष की प्राचीन सभ्यता है मुसलमानों की सभ्यता भी १५०० सौ वर्ष की पुरानी सभ्यता है पारसियों की सभ्यता भी बहुत प्राचीन है ये तीनों जातियां बहुत दिनों तक ऊंची श्रेणी की सभ्यता और प्रभाव का स्वाद चख चुकी हैं उनकी सन्तानों ने अंग्रेजी शिक्षा पाकर अंग्रेजी सभ्यता का गुण ग्रहण कर अपने को उत्तम से उत्तम सभ्य मनुष्यों के योग्य काम करने अधिक योग्य बनाया है केवल उनके पराधीन होने के बड़े पाप के कारण आज न सिर्फ लार्ड कर्जन, अपितु मि० जान मौर्लो ऐसे उदार अंग्रेज भी यह कहते हैं कि हम आत्म-शासन के अधिकार पाने के योग्य नहीं हैं


सर हेनरी मेन ऐसे विद्वान लिख चुके हैं कि हिन्दुस्तान में ग्राम-पंचायतों का क्रम बहुत पुराने समय से जारी था हिन्दुस्तान के लोगों को पंचों को चुनने और उनकी राय के अनुसार काम करने का बहुत पुराना अभ्यास चला आता है और अब तक है इसके अतिरिक्त सन १८८३ में, उदारहृदय शासक लार्ड रिपन ने लोकल सेल्फ गवर्नमेण्ट जारी किया, उस समय से हर साल हजारों पुरुष नगर-नगर और जिले-जिले म्युनिसिपल और डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के मेम्बरों को नियम के अनुसार चुनते हैं सन १८९३ से म्युनिसिपल डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के मेंबर लेजिस्लेटिव कौंसिलों के मेम्बर चुनने के लिए अपना-अपना प्रतिनिधि मुक़र्रर करते हैं और वे प्रतिनिधि कौंसिलों के मेम्बरों को नामजद करते हैं प्रान्तीय कौंसिल के मेम्बर वाइसराय की कौंसिल के लिए मेम्बर चुनते हैं इस सबके अतिरिक्त देश के एक छोर से दूसरे छोर तक २२ वर्ष से, बिना गवर्नमेण्ट की किसी प्रकार की सहायता के, कहीं-कहीं गवर्नमेण्ट के अफसरों का विरोध होने पर भी, प्रजागण नगर-नगर में राष्ट्रीय महासभा (नेशनल कांग्रेस) के लिए सर्वसाधारण सभा कर अपने प्रतिनिधि नियत करते हैं, और कभी पाँच सौ, कभी हजार, कभी पन्द्रह सौ, कभी दो हजार के करीब सब जाति और सभी श्रेणी के ऐसे प्रतिनिधि कांग्रेस में एकत्र होकर अनेक-अनेक समाचारपत्रों के रिपोर्टरों के सामने उनको अपनी बहस सुनने का अवसर देकर, पार्लामेण्ट के क्रम पर नियमपूर्वक देश के सर्वसाधारण के हित-अनहित की बातों पर ज्ञान, विवेक और शिष्टता के साथ विचार करते हैं तथा अपने प्रस्तावों को सर्वसाधारण और गवर्नमेण्ट के जानने के लिए प्रकाश करते हैं क्या ये सब बातें इस बात को साबित नहीं करती कि हिन्दुस्तानी स्वराज्य, अर्थात सच्ची प्रतिनिधि शासन प्रणाली पाने योग्य हैं? क्या गवर्नमेण्ट स्वयं उनको इस बात की शिक्षा नहीं देती आई है? क्या कोई निष्पक्ष पुरुष इन बातों को देख और समझकर यह कह सकता है कि हिन्दुस्तान के लोग ऐसे सभ्य नहीं हुए कि उनको आत्म-शासन का अधिकार दिया जाय? कोई भी पुरुष, जो सच और न्याय का प्रेमी है, ऐसा नहीं कह सकता हर एक न्यायवान पुरुष को यह स्वीकार करना होगा कि हिन्दुस्तानी अपनी सभ्यता से इस योग्य है उनको अपने हित-अनहित का इतना विवेक है कि उनकी सम्मति से उनके देश का शासन किया जाय इंग्लैंड का उनको इस अधिकार के देने में विलम्ब करना अन्याय है यदि वह उदारता से हिन्दुस्तानियों को उनका अधिकार देगा, तो इससे उसका प्रभाव हिन्दुस्तान में दृढ़ होगा यदि अनुदारता के वश अंग्रेज सदा यही कहते जायँगे कि हिन्दुस्तानी स्वराज्य के योग्य नहीं, तो उससे हिन्दुस्तानियों के चित्त में गवर्नमेण्ट की ओर से असन्तोष बढ़ता जायगा और उससे राजा और प्रजा दोनों का अहित होगा


स्वराज्य के साधन और कठिन है केवल मनोरथ करने ही से स्वराज्य नहीं मिल जायगा स्वराज्य मनुष्य जाति के लिए सबसे बड़ा वरदान है, सबसे बड़ी नियामत है बहुत दिनों के अविरत तप से स्वराज्य मिल सकता है यदि लेना सच-सच इष्ट है तो तपस्या करनी होगी इसमें शान्ति और साहस, धीरज और उत्साह; प्रज्ञा और पौरुष, तेज और सहनशीलता, प्रेम और स्वार्थ-त्याग, तथा इनके समान अन्य अनेक उत्तम गुणों का संग्रह करना होगा किन्तु इसका पहला और सबसे बड़ा साधन यह है कि देश में, जहाँ तक सम्भव हो, प्राणी-प्राणी में देश की भक्ति का भाव बढ़ाया जाय इससे लोगों में परस्पर प्रीती आर परस्पर विश्वास बढ़ेंगे तथा बैर और फूट घटेगी इससे और अनन्त उत्तम गुण मनुष्य में उत्पन्न होंगे, जो उनकी देश की सेवा करने के योग्य बनावेंगे और अनेक प्रकार के पाप तथा लज्जा के कर्मों से उनको बचावेंगे दूसरा साधन यह है कि जहाँ तक हो सके, नगर-नगर गाँव-गाँव लोगों को स्वराज्य का अर्थ, उसकी आवश्यकता और उसकी महिमा समझायी जाय, जिससे उनके ह्रदय में उसको पाने की उत्कट अभिलाषा उत्पन्न हो तीसरा साधन यह है प्रत्येक नगर और गाँव में सभाएँ स्थापित हों जो स्वराज्य पाने के लिए न्यायपूर्वक लगातार आन्दोलन करें


(आषाढ़-शुक्ल १३, संवत १९६४)

Mahamana Madan Mohan Malaviya