Mahamana Madan Mohan Malaviya

Mahamana Madan Mohan Malaviya
Speeches & Writings

काशी हिंदू विश्वविधालय

 

यह क्यों वांछित है और इसके लक्ष्य क्या हैं?

 

काशी में एक हिंदू विश्वविधालय स्थापित करने का प्रस्ताव सर्वप्रथम काशी-स्थित मिंट हाउस में १९०४ में काशी नरेश के सभा पतित्व में हुई बैठक से प्रस्तुत किया गया था| अक्टूबर सन १९०५ में प्रस्तावित विश्वविधालय पत्र का एक विवरण प्रकाशित और वितरित किया गया था|काशी के तोवन हॉल में ३१ दिसम्बर सन १९०५ इ. को देश के प्रमुख शिक्षा के आचार्यो तथा भारत के लगभग सभी प्रान्तों के हिंदू समुदाय के प्रतिनिधियों के समक्ष इस विवरण पर एक विशिष्ट बैठक में विचार किया गया था| सन १९०६ इ. के जनवरी महीने में प्रयागम में सनातन धर्मं महासभा द्वारा भी इस पर विचार विमर्श एंव सवीकृति दी गई| जनता तथा समाचार पत्रों द्वारा इस प्रस्ताव को अतिअधिक अनुमोदन तथा सहारा प्राप्त हुआ|

इस हिंदू विश्वविधालय की स्थापना के लिए “पयोनिअर” ने एक अग्रलेख में कहा कि,”......... हार्दिक प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए| एक करोड रुपयों की राशि ऐसे उदेश्य के लिए अतियाधिक नहीं लगती जो स्पष्टता इतना श्रेष्ठ है, और जो निसंदेह अधिसंख्य लोगो को आकर्षित करेगा| यदि इसे एंवं मुस्लिम लोग इस नवीन विधा केन्द्र द्वारा दिए गए सर्वाधिक उदार अवसरों को अंगीकार करने हेतु अग्रसर ना भी हो तो कम से कम एक वास्तविक मात्र संस्था के रूप में बीस करोड हिन्दूओ को ज़रूर आकर्षित करनी चाहिए और निश्चय ही       इससे बड़े समर्थक वर्ग की आकांक्षा भी नहीं की जानी चाहिए|

संयुक्त प्रांत के तत्कालीन लेफ्टिनेंट गवर्नर माननीय सर जेम्स ला टूश ने निम्नांकित शब्दों में इसको आशीर्वाद दिया- “यदि सम्पूरण भारत का सुसंस्कृत वर्ग एक ऐसे हिन्दू विश्वविध्यालय की स्थापना करना चाहते है जिसके महाविध्यालय उसके परिसर में हो तो उसकी सफलता के लिए मेरी शुभेच्छाएँ है| किन्तु यदि यह संस्था उच्च कोटि की बनानी है तो उसका परिव्यय बहुत अधिक होगा | और धन का अधिकाँश इस प्रांत की अपेक्षा अन्यत्र से पाना होगा | विश्व की उन्नत्ति  के इस कालखंड में दूसरी श्रेणी की संस्था को स्वीकृति देना कोई नहीं चाहेगा|”

यह सन १९०६ इ. की बात है | कार्य शुरू करने की दृष्टि से तभी से इस पर निरंतर विचार किया जा रहा है और लोगो से सम्मति ली जा रही है, किन्तु अनुलेख्निए परिस्थितियों के कारण, और व्यवस्थित उधोग्शिलता के अभाव से यह प्रस्ताव तबसे गत वर्ष तक निरंतर टलता रहा|पिछले वर्ष यह प्रयास अव्यश्य आरम्भ हो जाना था| परन्तु इसी बीच में सम्राट की मृत्यु के कारन राष्ट्रीय तथा प्रान्तीय स्मारको,तथा वर्तमान वाइसराय महोदये के विदा होने के उपलक्ष्य में एक भारतीय स्मारक के निर्माण का प्रश्न आ गया, और फल्तः विश्वविधालय का निर्माण कार्य पुनः स्थगित करना पड़ा| गत जनवरी से इस बहु –प्रतीक्षित विचार को कार्यरूप में परिणत किये जाने का उद्योग हो रहा है | इतने दिनों तक चले विचार विमर्श के परिणाम स्वरुप इस योगना में भी बहुत से महत्वपूर्ण परिवर्तन किये गए है | सामान्यत: इस बात पर सहमति है कि प्रस्तावित विश्वविधालय आधुनिक प्रकार का आवासीय तथा शैक्षिक होना चाहिए |वर्त्तमान में भारत में इस प्रकार का कोई भी विश्वविधालय अस्तित्व में नहीं है | इस समय विधमान पांचो विश्वविधालय मुख्यत: परीक्षा लेने वाले विश्वविधालय है |उन्होंने अति उपयोगी कार्य किया है और वे कर भी रहे है |परन्तु ऐसे विश्वविधालयो की आवश्यकता बहुत दिनों से महसूस की जा रही थी,और जो संतुष्ट किये जाने योग्य भी है, जिस में पढाई तथा परीक्षा दोनों हो और जो आवासीय होने के कारण विश्वविधालय जीवन के उन आदर्शो को आतमसात करे झो प्राचीन भारत में ज्ञात थे और जो अब भी विकसित पाश्चात्य देशो में ज्ञात है |

उद्देश्य

 

 

विश्वविधालय के उद्देश्य निम्नवत प्रतिपादित किए गए है-

 

१.      विशेषत: हिंदू समुदाय को, और सामान्यत: सार्वभोम को हिन्दुओ की संस्कृति, उनके श्रेष्ट हिन्त्नो, और उनकी प्राचीन सभ्यता में जो कुछ विशिष्ट एंवं महान था, उसका ज्ञान कराने के लिए हिंदू शास्त्र व संस्कृत भाषा के अध्यन को एक साधन के रूप में संरक्षित व प्रोत्साहित करना|

२.      साधारणत: कला तथा विज्ञान की सभी शाखाओं में शिक्षण तथा शोध कार्य को प्रोत्साहन देना|

३.      आवश्यक व्यवहारिक परिक्षण के साथ ऐसे वैज्ञानिक,तकनिकी, एंवं व्यावसायिक ज्ञान का संवर्धन तथा संप्रसार करना जो देशी उधोगो को प्रोत्साहन दे अनिवं देश के भौतिक संसाधन का विकास करने में सहायक हो|

४.      धर्म तथा नीति को शिक्षा का आवश्यक अंग मानकर नवयुवको में सुन्दर चरित्र –गठन के विकास को प्रोत्साहित करना|

महाविधालय

 

इन उद्देश्य की पूर्ति के लिए जिस सीमा तक विधि अनुमति दे सके, विश्वविधालय में निम्नांकित महाविधालय होने चाहिए-

१ धर्मशास्त्र विभाग से युक्त एक संस्कृत महाविधालय |

' कला और साहित्य महाविधालय (ए कौलेज आफ आर्ट्स ऐण्ड लिटरेचर)

३ . विज्ञान तथा तकनीकी महाविधालय (ए कॉंलेज़ आँफ साइन्स ऐण्ड टेक्नोलॉजी)

४. कृषि महाविधालय (ए काँलेज आँफ एग्रीकल्चर)

५. वाणिज्य महाविधालय (ए कॉलेज आँफ कॉमर्स)

६. चिकित्सा महाविधालय

७. संगीत तथा ललित कला महाविधालय

इससे ज्ञात होंगा कि जिन कलाओं' को विधा इस विश्वविधालय मेँ प्रस्तावित है, वह ठीक उसी ढंग कि है जैसे आधुनिक काल के यूरोप तथा अमेरिका आदि के विश्वविधालयों में स्वीकृति प्राप्त है। अमी तक विधि संकाय स्थापित करने का कोई प्रस्ताव नहीं है। परन्तु यह त्रुटि दूर करना आसान है। यदि इसकी सार्वजनिक माँग हुई तो विधि के अध्ययन की व्यवस्था भी की जा सकेगी।

 

संस्कृत महाविधालय

 

 

कॉलेजों का नाम अब कुछ परिवर्तित हो गया है। पुराने प्रस्ताव में जो वैदिक विधालय था, अब उसका नाम धर्मशास्त्र बिभाग के साथ संस्कृत काँलेज है, जहॉ वेदों की शिक्षा के लिए सन्तोषजनक व्यवस्था को जायगी। सौ साल से भी पहले (सन १७९१ में) काशी के रेजिडेषट जोनाथन डंकन ने त्तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड कॉंर्नवालिस से प्रस्ताव किया था कि प्रान्त के राजस्व के अधिशेष या बनारस की जमीदारी का कुछ भाग इस देश के घर्म तथा संस्कृत साहित्य के संरक्षण एवं उनकी

 

आस्था के केन्द्र एवं उनकी जातियों के सामान्य आश्रय स्थल के लिए, एक हिन्दू कॉलेज या एकेडमी की सहायता के लिए अलग कर दिया जाना चाहिए।

गवर्नर जनरल द्वारा यह प्रस्ताव स्वीकृत कर लिया क्या और संस्कृत काँलेज स्थापित किया गया। उसी समय से सम्पूर्ण भारत मेँ संस्कृत शिक्षा की उन्नति तथा उसके सरंक्षण मेँ यह संस्था सर्वाधिक महत्वपूर्ण रही। संस्कृत शिक्षा के लिये ब्रिटिश सरकार द्धारा कि गई इस व्यवस्था की कृतज्ञता के ऋणा को हिन्दू समुदाय कभी भी चुका नहीँ सकत्ता, और यह सभी प्रकार से ठीक तथा उचित जान पड़ता है कि पुन: उन्हीं विषयों की शिक्षा के लिये उसी नगर मेँ एक दूसरा संस्कृत काँलेज खोलने के बजाय उसी कॉलेज को प्रस्तावित विश्वविधालय के अन्तर्गत समाविष्ट कर लेने के लिये सरकार से प्रस्ताव किया जाय | यदि सरकार ने इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया, जैसा कि न्यायसंगत रूप से आशा हैं कि यह स्वीकृत होगा, ही तो इस संस्कृत कॉलेज में वेदो'  को पढाने के लिये केवल एक धर्मशास्त्र विभाग की निश्चय ही व्यवस्था करनी होगी। जिस समय उक्त संस्कृत कॉलेज कि स्थापना हुई थी उस समय चारों वेदों के पढाने के लिये चार पदो को स्वीकृति दी गई थी। परन्तु बाद में वे पद समाप्त कर दिये गये। यह काफी" लम्बे समय से खेद का विषय हैं। संस्कृत कॉलेज के भूतपूर्व प्रधानाध्यापक श्री ज्योंर्ज निकोल्स ने सन् १८४४ ई. में लिखा था कि-

विधा की इस अतिप्राचीन शाखा (वेदों) पर विचार करने पर यह अत्यन्त क्षोभज़नक है कि ऐसे महाविधालय में, जो स्पष्टता हिन्दूसाहित्य के मात्र शिक्षा के लिए ही नहीं बल्कि उसके सरंक्षण के लिए स्थापित किया गया, वहाँ अति प्राचीन मूल्य के ग्रनथों के अध्ययन को वेदों के प्रोफेसर के पदों को समाप्त करके हतोत्साहित किया गया हैं।" हिन्दुओं के लिये वेदों का महत्व उसको प्राचीनता से बढ़कर कुछ और भी है? वेद उनके धर्म के मूल स्रोत हैं। और भारतीयों के लिये यह बडे ही कलंक की बात है कि जर्मनी तथा अमेरिका आदि देशो' में तो वेद के अध्ययन और व्याख्या के लिये अति सुन्दर प्रबंध किये जायें, परन्तु भारतवर्ष में इस पवित्र धर्मंग्रंथों के अध्यन के लिये देशभर में एक भी उच्च कोटि का विधालय न हो। इस विश्वविधालय में वैदिक कॉलेज की स्थापना करने का पूर्ण उधोग करके इस कलंक को मिटाया जायगा। यदि यह हो गया तो इस प्राचीन विधा के केन्द्र काशी में प्राचीन संस्कृत साहित्य के उच्च अध्ययन का प्रबन्ध पूर्ण हो जायेगा। इस वैदिक महाविधालय में उन ब्रह्माचारियों के रहने के लिए एक ब्रह्मचर्याश्रम या छात्रावास भी होगा, जिनमें से कुछ को धर्योंपदेशक बनने का प्रक्षिक्षण भी दिया जायेगा, इसका नाम इसी सम्भावित समावेशन को ध्यान मेँ रख कर इस योजना में वैदिक महाविधालय से बदलकर "संस्कृत महाविधालय " केरूप में प्रतिस्यापित किया क्या है।

 

कला और साहित्य महाविधालय

 

 

दूसरा कॉलेज कला तथा साहिंत्य महाविधालय होगा, जिसमें भाषाएँ, तुलनात्मक भाषा-बिज्ञान, दर्शन,इतिहास, राजनीति, अर्थशास्त्र, शिक्षणकला आदि पढाई जायेंगी। यह प्रस्तावित है कि काशी का विद्यमान सेन्दूल हिन्दूकॉलेज, इस महाविधालय का केन्द्र-स्थान होगा। आत्य-त्याग और समर्पण, जिन्होंने इस उच्च कोटि कि संस्था का निर्माणा किया है, को अवश्य ही कृतज्ञतापूर्वक अभिस्वीकृत किया जाना चाहिए ओर, यदि समाविष्ट किये जाने की शर्तें सन्तोषजनक ढंग से तय हो जाती हैं, जो अवश्य होंगी ही, तो महाविधालय विश्वविधालय द्वारा अंगीकृत कर लिया जाना चाहिए और इसे उन्नत तथा विकसित करके विश्वविद्यालय के कला पक्ष की प्रमुख संस्था के रूप में बनने दिया जायेगा। यह समाविष्ट किया जाना और विकास स्वाभाविक तथा युक्तिसंगत दोनों होगे, ओर यह आशा करने के पर्याप्त आधार हैं कि सेंट्रल हिन्दू कॉलेज के अधिकारी इस प्रस्ताव से सहमत होगे।

 

 

बिज्ञान तथा टेक्नोलॉजी महाविधालय

 

 

तीसरा कॉलेज विज्ञान क्या टेक्नोलॉजी का महाविधालय होगा, जिसमें शुद्ध और व्यवहृत विज्ञान के चार विशाल उपकरणों से सुसज्जित विभाग होगे। यह प्रस्तावित हैं कि यह विश्वविद्यालय द्धारा स्यापित सर्वप्रथम कॉलेज होना चाहिए। भारत की इस आर्थिक दुरवस्था में विज्ञान तथा तकनीकी की शिक्षा से चढकर अधिक आवश्यक कोई भी अन्य बिषय नही | सभी दूरदर्शी विद्वानों की एकमात्र यही सम्मति है कि देश को इस आर्थिक आपति से बचाने का एकमात्र उपाय यही है कि जनसँख्या के एक बडे भाग को कृषि से हटाकर व्यावसायिक कायों में लगाया जाया इसके लिये शिल्प तथा औद्योगिक शिक्षा के विधमान साधनों को कई गुना बढाने कि आवश्यकता है| दशकों पूर्व सन् १८७८ के अकाल-कमीशन ने अपने विवरण में कहा था कि “ भारत के लोगों को गरीबी के अधिकांशं के,  और उन खतरों के, जिनको वे अभाव के मौसम मेँ झेलते हैं, मूल मेँ खेदजनंक परिस्थितियाँ कि जन सामान्य का एक मात्र व्यवसाय कृषि है, और यह भी कि वर्तमान विपदाओं का कोई भी ऐसा उपाय पूर्ण नहीं हो सकता जो कि व्यवसाय की बिबिधतां न् प्रवतिंत करे, जिसके द्वारा जनसंख्या का अतिरिक्त भाग कृषि से अलग हटा कर उत्पादनों और ऐसे ही नियोजनों मैं अपनी आजीविका अर्जित का सकें|

 

इससे २५ वर्ष बाद माननीय सर जाँन हेवेट ने सन् १९१७ में होने वाली नैनीताल के औद्योगिक सम्मलेन के अपने अत्यंत योग्य भाषण में कहा था कि – “यह स्पष्ट है किं कुछ आशाजनक संकेतों के बावजूद, हम लोग अभी तक वैज्ञानिक सुघारों के माध्यम से जनसँख्या के पौने पाँच या पाँच करोड़ लोगो में उत्पादन विकसित कर औद्योगिक नियोजन पाने के मार्ग पर भी अग्रसर नही हो सके हैं! “

....”भारत की तकनीकी त्तथा औद्योगिक उन्नति में दिलचस्पी लेने वाला कोई भी व्यक्ति वार्षिक व्यापारिक विवरण का अध्ययन करने पर दुखी हुए बिना नहीं रह सकेगा कि देश का इतना अधिक बहुमूल्य क्रच्चा माल विदेश मे चला जाता है, जिससे देश में सब तैयार पदार्थ बन सकते थे। यही कच्चा माल विदेशो से फिर तैयार माल बन कर देश मे बिकने के लिये भेज दिया जाता है। ....”संभवत: श्रीयुत होलैंड को सर्वाधिक दुख होगा कि देश में ही सामानों के उत्पादन करने योग्य खनिज पदार्थ अधिक परिमाण में लगातार प्रतिवर्ष वाहर भेज दिया जाता है और निश्चय ही मैं उनके इस दुःख में भागीदार हूँ, किन्तु मई सवीकार करता हूँ कि मुझे सबसे अधिक दुःख इस बात का है कि यहाँ से सबसे अधिक निर्यात चमडे ,रुई तैयार सामग्री के रूप में आसानी से  सव्देश में हो सकता है|”....” हम लोग धूप, वर्षा, बोने के समय तथा उसकी पकाई पर नियंत्रण नहीं कर सकते| क्युकी यह मनुष्य के सामर्थ्य के बाहर की आत है' परन्तु हम लोग बहुत कुछ अंशों में पृथ्वी के खनिज उत्पादों  का उपयोग तो समुचित रूप से कर ही सकते हैं; और उसी के द्वारा भारतीयों के लिए नवीन उधम के मार्गों का द्वार खोल सकते हैं, तथा इस देश मे' अधिक समृद्धि फैला सकते हैं|” उसी व्याख्यान के दूसरे भाग में विशिस्थ वक्ता ने यह आग्रह किया था कि इस ध्येय की पूर्ति के लिए तकनीकी शिक्षा के  साधनों को विकसित करने की आवश्यकता है| ' सर जॉन हैवेट ने कहा था कि,” हमें यह एक स्व्याम्सिध तथ्य प्रतीत होता है कि उधोग और व्यापार कि उन्नति में परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है।

नि:संदेह भारत में इस बात का अनुभव नहीं किया गया और इसके तत्सम्बन्धी पिछड़ेपन का मूल कारणा शिक्षा का अभाव हो है।

श्रीयुत एस.एच. बटलर ने भी इसी प्रकार का एक लेख ओद्योगिक सम्मलेन के सामने प्रस्तुत करने के लिये तैयार किया था। उन्होंने इस विषय मेँ जापान तथा पाश्चात्य देशो' को व्यावसायिक उन्नति का उदाहरण दिया था। उन्होंने सयुंक्त प्रात्त में इसी प्रकार की शिक्षा के आरम्भ करने के लिये आग्रह किया था। अन्य संस्तुतियों मेँ कानपुर में एक तकनीकी संस्थान की स्यापना भी थी। इस विषय में उन्होंने कहा था कि-

केवल कुछ छात्रवृत्तियाँ, जो विदेशों में चलती रहें यद्यपि वे अतिश्रेष्ठ हैँ-

एक तकनीकी संस्थान को प्रेरक शक्ति नहीं मुहय्या करा सकतीं! प्रत्येक सभ्य देश में ढेर सारे तकनीकी संस्यान ही प्रारम्भ में ये समी विद्यालय हीनावस्या मे' थे, परन्तु ओद्योगिक होने के इच्छुक देशों में तकनीकी शिक्षा इस समय शिखर पर पहुँच गई है। सामान्य शिक्षा के प्रसार के अनन्तर नियमत: तकनीकी शिक्षा को प्रारंभिक कक्षाओं तक ला दिया गया है।

      यह बडे हर्ष को बात है कि औद्योगिक संमेलन के जिन प्रस्तावों का संयुक्त प्रान्तीय सरकार ने बड़े जोर से समर्थन किया था, उनका ध्यान करके कानपुर में तकनीकी संसथान की स्थापना की गई, रुड़की कॉलेज को अधिक विस्तृत किया गया और प्रान्त में अन्य औद्योगिक कार्यों की वृद्धि के लिये प्रशंसनीय सहायता दी गई। अन्य प्रान्तों मेँ मी इस विषय में वृद्धि हुई है। हमेँ इसके लिये सरकार को अवश्य धन्यवाद देना चाहिए, परन्तु साथ ही यह भी ध्यान रखना चाहिए कि देश में ऐसे साधनों की और भी बहुत आवश्यकता है और इसके लिये हमेँ सरकार पर हो आश्रित नहीं रहना चाहिए। यह भी ध्यान रखना चाहिए कि ऐसे कार्यों में देश के घनीमानियों को सरकार की हृदय से सहायता करनी चाहिए। इस विषय में भाऱत के स्टैंस्टिटिक्स के डाइरेक्टर जनरल ने एक वर्ष व्यतोत हुए, जो लेख लिखा था, वेह इस विषय में सर्वथा उपयुक है, और उसे यहाँ उद्धृत किया जा सकता हैं। श्रीयुत ओं कॉर्नर ने लिखा था कि-

“ मैं आशा करता हूँ कि ( भारत में) ओध्योगिक आंदोलन के भारतीय नेता तकनीकी ज्ञान कि शिक्षा केवल शिल्पकार वर्ग तक ही सीमित नहीं रखेंगे,  बल्कि उन्हें चाहिए कि उच्च कुलोत्पन नवयुवकों के लिए भी उच्च कोटि कि शिक्षा का प्रबन्ध करें, जिससे वे अपनी देखरेख में बड़े-बड़े कारखानों का संचालन कर सकें। देरा में तकनीकी संस्थानो' तथा कॉलेजों की कि बड़ी आवश्यकता है। इसके लिऐ भी सव्भावत: सबका ध्यान सरकार की ही सहायता की और है| मुझे तो तब संतोष होगा जब भारतीय स्वयं इनकी सथापना करेंगे और इसके वाद सरकार से  उचित सहायता की प्रार्थना करेंगे| बम्बई के स्वर्गवासी टाटा ने यह दिखला दिया हैं कि उधोग किस प्रकार किया जाता है, और मेरी हार्दिक इचा है कि उन्ही के समान यदि अन्य दस देशभक्त, स्वतंत्र, दूरदर्शी तथा सच्चे जनसेवक इस देश में हो जाएँ तो देश का दुर्भाग्य दूर हो जाए|”

इस समय तो यह नहीं दिखाई देता कि भारत में टाटा के सामान दस और भी योग्य भारत-संतानों को अपने संसार के सम्मुख ऊँचा उठाने का सौभाग्य हो; परन्तु इतनी आशा तो हम कर ही सकते हैं कि हमारे हिन्दू  समुदाय के धनीमानी लोग देश में एक बिज्ञान तथा तकनीकी बिज्ञान की व्यावसायिक शिक्षा के लिये काँलेज की स्थापना करने को टाटा से भी अधिक दुगुना धन दान दे सकते हैं। इस कॉलेज में आज तक उपलब्ध समी अन्वेषणों तथा वैज्ञतनिक अनुभवों को औद्योगिक प्रयोग मे' लाया जायगा, और बंगलोर की अन्वेषणशाला तथा कानपुर के तकनीकी महाविधालय का यह भी सहकारी बन जायगा।

 

कृषि महाविधालय

 

 

यह प्रस्तावित है कि इसके बाद दूसरा महाविधालय कृपि महाविधालय होगा। जिस देश की दो तिहाई जनसंख्या अपनी जीविका के लिये पृथ्वी की पैदावार पर ही आश्रित है, उसके लिये कृषि महाविधालय की स्थापना के महत्व का अधिक वर्णन करना उचित नहीं जान पड़ता। यदि इस समय देश मेँ उत्पादन उधोगो कौ उन्नति अपनी पराकाष्ठा पर पहुँची हुई भी मान ली जाय तो भी कृषि भारत का सर्वप्रथम तथा प्रधान व्यवसाय रहेगा ही। इसके अतिरिक्त कृषि तो भारत का मूल व्यवसाय हैं जिस पर अन्य व्यवसायों को आश्रित रहना है। जैसा कि महान् वैज्ञानिक बैरन लीबिग ने कहा है-

 

“सर्वाङ्गपृड्डूर्य कृषि सभी व्यापार तथा उधोग की जननी है, तथा राज्य की समृद्धि का आधार है।" अतएव भारत की उन्नति का कृपि व्यवसाय की उन्नति से वहुत ही घनिष्ठ सम्बन्ध है। देश की वर्तमान परिस्थिति में देशवासियों की सबसे घडी सेवा यही है कि जहाँ एक अंकुर पैदा होता है वहाँ दो अंकुर उपजाए जायँ। पाश्चात्य अनुभवो' से यह सिध्द हैं कि वैज्ञानिक ढंग से कृषि करने से ही यह सिद्ध हो सकता है। इस देश मैं आजकल प्रति एकड क्या पैदावार हो रही है और प्राचीन काल में कितनी होती थी, ओदृ अब भी विदेशों में प्रति एकड कितनी होती है. इसकी तुलना से हमें ज्ञात हो जायगा कि अब भी हमारे देश को कृषि में कितनी उन्नति होने की गुंजाइश है! जो गेहू के खेत संयुक्त प्रान्त में आज ८४० पौण्ड पैदा काते हैं वही अकबर के राज्यक्रालं में ११४० पौण्ड पैदा करते थे। भारत में प्रति एकइ गैहूँ की औसत पैदावार ७०० पौण्ड है औदृ इंग्लैण्ड मैं ११०० पौण्ड है। मारत में घान २५०० पौण्ड है। अमेरिका में रूई और गेहूँ यहाँ से वहुत अधिक परिमाण मेँ पैदा होता है। पाश्चात्य देशों में इस आश्चर्यकारी पैदावार का श्रेय विज्ञान को ही है।

फरवरी मास की कृषि समिति (बोर्ड आँफ एग्रीकल्चर) के जरनल से यह पता चलता है कि केवल आंन्टेरियो प्रान्त में निन्नाकित पैदावार होती है, जो गुएल्फ कॉलेज आँफ एग्रीकल्चर को सालाना २५००० पौण्ड की सहायता देती है।

“इस काँलेज में कृपि-सम्बन्धी अन्वेषणों तथा वैज्ञानिक व्यावहारिक प्रयोगों को कृषि में उपयोग करने से व्यय से अधिक लाभ हुआ है। एक ही फसल में वैज्ञानिक प्रयोगो' के कारण इस काँलेज का सम्पूर्ण व्यय निकल आता हैं।"

कोई कारण प्रतीत नहीं होता कि उसी प्रकार के वैज्ञानिक प्रयोगों से भारत के कृषि कार्य भी संतोषप्रद न हों। सरकार ने शिक्षा के सम्बन्ध में जो प्रस्ताव सत् १९०४ हैं ई. में प्रकाशित किथा था, उसमें यह दिखलाया गया था कि भारत मे' कृषि सम्बन्धी साधनों की कमी है,  और उसमे  पुन: सुधार की अत्यन्त आवश्यकता है। तभी से बहुत कुछ उन्नति की गई है। पूसा में एक इम्पीरियल कॉलेज तथा शोघ विभाग की स्यापना की गई रही और प्रान्तीय कृषि विधालयों को समुन्नत किया गया था। इसके लिये हमें सरकार का कृतज्ञ होना ही चाहिए। परन्तु अधिक संख्या में विश्वविद्यालयों की अब भी आवश्यकत्ता है और यह आशा हें कि जनता के दान से स्थापित होकर एक कृषि महाविधालय और मी अघिक उतम फलदायी सिद्ध हो सकता हैं।

 

वाणिज्य महाविधालय

  

 

 

यह प्रस्ताव किया गया है कि स्थापित किये जाने वाला तीसरा महाविधालय वाणिज्य तथा राज्याप्रवन्ध-सम्बन्धी होगा। वाणिज्यिक शखा, अर्थात् व्यापारिक उद्योग में प्रविष्ट होने वाले नवयुवकों के लिये शिक्षा की आवश्यकत्ता पाश्चात्य देशों ने मान ली है,  जिससे देशी तथा अन्तर्देशीय दोनों प्रकार के लाभ हो सकते हीं। आज सभ्यत्ता के शिखर पर विराजमान उन पाश्चात्य देशों ने सर्वप्रथम ओर अत्यथिक ध्यान वाणिज्यिक शिक्षा पर ही दिया है। इस शिक्षा के महत्व का अनुभव सर्वप्रथम जर्मनी ने किया। क्रमश: अमेरिका और जापान ने उसका अनुकरण किया, और गत पन्द्रह वर्षों मेँ इंग्लैण्ड ने इस विषय के सभी प्रकार के अमाव दूर का दिए हैं। बरमिन्घ्म और मैन्वेस्टर विश्वविद्यालयों ने तो वाणीज्य की परीक्षा बी. ए. तक कर दी है। यही वात लीड्स विश्वविद्यालय में भी है। जब प्रोफेसर लीज स्मिथ बम्बई सरकार के अनुरोध पर भारत में पधारे थे, तब उन्होंने मद्रास के भारतीय औद्योगिक सम्मेलन के अवसर पर कहा था कि, "वाणीज्य तथा व्यवसाय को चलाने वालों को मी उसी प्रकार से वैज्ञानिक ढंग से शिक्षा देनी चाहिए, जिस प्रकार डॉक्टर, बैरिस्टर तथा अन्य पेशेवालों को दो जाती है।"

 

 

जव इस बात पर ध्यान जाता है कि भारत का सम्पूरण आयात एवं निर्यात प्रतिवर्ष तीण सौ करोड़ रुपये का है, तब यदि व्यावसायिक तथा व्यापारिक कला की शिक्षा के लिये सन्तोषजनक सुविधाएँ हो जायँ तो देश के असंख्य बेकार नवयुवकों को देश अथवा विदेश के ओध्योगिक तथा वाणिज्यिक प्रतिष्ठानों में  सुगमतापूर्वक कार्य मिलने में कोई कठिनाई न प्रतीत हो। उन्नति का यह क्षेत्र वहुत ही विस्तृत है। अतएव इस विधा की शिक्षा के लिये एक महाविधालय की स्थापना की अत्यन्त आवश्यकता इसलिये है कि इस सम्भावना को सत्यता में परिणत किया जा सके।

  

 

चिकित्सा- महाविधालय

 

 

   यह प्रस्तावित है कि अगला महाविधालय चिकित्सा विज्ञान का हो। सरकार द्वारा स्थापित अनेक आयुर्वेदिक महाविधालय तथा पाठशालाएँ जनता के लिये हितकर कार्य कर रहीँ है। किन्तु देश कि आवश्यकता के अनुकूल अभी सुयोग्य डॉक्टरों की बहुत कमी है। जो स्नातक और शल्य चिकित्सक इन महाविधालयओं से प्रतिवर्ष निकलते हैं, उन्हें प्राय: नगरों ही में काम मिल ज़।ता है। इनमेँ प्राचीन ढंग के यूनानी तथा आयुर्वेदिक चिकित्सा वाले वैधों तथा हकीमों की भी गणना है| गाँवों में, जहाँ भारत की मुख्य जनता बसती है, अब तक सुयोग्य  वैधों का दर्शन तक नहीँ होता।

 

जिला चिकित्सालयों में भी चिकित्सा-सहायकों की नियुक्ति हूटि है। परन्तु इन सहायकों की संख्या बहुत ही थोड़ी है। इसका परिणाम यह होता है कि असंख्य देहाती जनता आयुर्वेदिक सहायता के अभाव में अपने रोगों का निवारण नहीं कर पाती और अधिकतर लोगों को ऐसे व्यक्तियों से सहायता लेनी प्रड़ती है जो “नीम हकीम खतरे जानकी कहावत को चरित्रार्थ करने वाले होते हैं| इससे स्पष्ट है कि आयुर्वेदिक कॉलेजों की अत्यधिक आवश्यकता है| राजकीय व्यवस्थापिका सभा की पिछली बैठक मेँ भारत के अस्पताल विभाग के इन्सपेक्टर जनऱल श्रीयुत सर्जन् जनरल ल्यूकिस ने बम्बई के डॉक्टर ट्रेमालजी नरीमन की सलाह का उल्लेख करते हुए कहा था कि भारतीयों को आयुर्वेदिक महाविधालयों की अधिक संख्या में स्थापना कि और प्रयतनशील होना चाहिए। सर्जन जनरल ल्युकिस ने कहा है कि---

“हम लोगों ने कल जो मनोहर व्याख्यान ध्यानपूर्वक सुना है, उसमे गोखले महाशय ने देशों  की प्रारम्भिक शिक्षा के विषय में बतलाया है कि यहृ एक ऐसा महत्त्वपूर्ण कार्य है जिसमें सरकार को जनता के साथ हार्दिक ,सहयोग द्वारा प्रयत्नशील होना चाहिए| क्या मैं इन्हीं शब्दों को दूसरे रूप मे इस प्रकार कह सकता हूकिं यह एक ऐसा कार्य है जिसमें जनता को हदय से सरकार कि सहायता करनी चाहिए| मुझे यह आशा है कि धनी तथा उदार मनुष्य इसको ध्यान में रखेगें। मै उनसे निश्चय कह सकता हूँ कि यदि देश में ऐसे गैरसरकारी आयुर्वेदिक महाविधालयों कि स्थापना हो जाए, जिनमें केवल भारतीयों ही की नियुक्ति हो, तो केवल उस विभाग की ही उन्नति नहीं, बल्कि इससे देश का बड़ा भारी हित भी होगा|”

सरकारी महाविधालयों में बहुत अल्पसंख्या में विधार्थी भारती किए जाते हैं| कलकत्ते में मैने स्वयं अनुभव किया कि दो सौ से ऊपर विधार्थी प्रतिवर्ष लौटा दिए जाते हैं| अतएव देश में इस प्रकार के गैरसरकारी महाविधालयों के लिए बहुत विस्तृत क्षेत्र हैं। है। उन्हें विश्वविद्यालयों से भी सम्बद्ध किया जा सकता है या सरकारी महाविधालयों की भांति उनका भी पृथक प्रबंध किय केवल भारतीय ही जा सकता है, जिसके अधिकारी केवल भारतीयअ ही रहे|  मैं तो उस दिन का स्वागत कस्ना चाहता हूँ जब भारत के कोने-कोने में इस प्रकार के महाविधालयों की स्थापना हो जाएगी, जो उतमता तथा श्रेष्ठ परीक्षाफलों में सरकारी महाविधालयों से टक्कर ले कर आगे बाद जाएँगे, जैसा कि डॉक्टर नरीमन ने कहा है-

इससे वर्षों का समय लगेगा, परन्तु अपने भारत से जाने के पहले कम-से-कम बम्बई तथा कलकत्ते में मैं इसे अपनी आखो से कार्य रूप में परिणत देखकर जाना चाहता हूँ| यदि मैरे कथन से जनता के नेतायों को कुछ भी प्रोत्साहन मिला, और वे इसमें हार्दिक सहायता के लिए सन्नद्ध हो गए तो मई समझूँगा कि मेरा इतना समय व्यर्थ नहीं गया”|

बनारस के प्रस्तावित ,आयुर्वेद महाविधालय मेँ मुख्य बात यह होगी कि यूरोपियन शल्य-चिकित्सा प्रणाली के साथ-साथ हिन्दू-चिकित्सा-पद्धति कि शिक्षा भी दी जायगी। हिन्दू-चिकित्सा-प्रणाली कि और बहुत कम ध्यान दिया गया है। यह दिखाया गया है कि यूरोपियन-चिकित्सा-प्रणाली के पिता माने जाने वाले "हिपोक्रेट्स" ने, जिन्होने यूरोप मेँ इस शास्त्र का प्रचार इसे विज्ञान मानकर किया था, अपना ओषधि-शास्त्र (मटेरिया मेडिका) हिन्दुओं से ही उघार लिया था। बंगाल के डाँक्टर वाइज़ कहते हैँ कि "आयुर्वेद के औषधि-शास्त्र ज्ञान के लिये हम लोग हिन्दुओं के सदैव ऋणी रहेंगे।" रमेशा दत्त अपने "प्राचीन भारत को सभ्यता का इतिहास" नामक ग्रन्थ में कहते हैं कि भारतीयों को यह पढकर हर्ष होगा कि जहाँ आजकल प्रत्येक जिले में स्वच्छता तथा दवाई के कार्यो के लिये विदेशी वैज्ञानिक बुद्धि तथा ज्ञान आवश्यक समझा जाता है,  वहीं आज से बाईअस सौ वर्ष पहले महान् सिकन्दर ने अपने खेमे में हिन्दू वैधों को उन रोगों के निदान के लिये रखा था, जिन्हें यूनानी वैध अच्छा नहीं कर सकते थे। ग्यारह सौ वर्ष हुए बगदाद के हारुनुल रशीद बादशाह ने मंक तथा सलेह नामक दो हिन्दू वैधों को अपना दरबारी वैध बनाया था। केवल हिन्दू एवं बौध्द काल में ही नहीं, बल्कि मुस्लिम-काल मेँ भी हिन्दू चिकित्सा-प्रणाली रोग-निदान का राष्ट्रीय साधन थी। अब भी कम-से-कम हिन्दुओ में उसी प्रणाली को अधिक महत्व दिया जाता है। यह भारतीय होने के कारण भारतीयों के लिये अधिक सुविधाजनक भी है।अन्य प्रणालियों से यह सस्ती है और अधिक गुणकारी भी हैं। इसका प्रमाण इसी से मिल जायगा कि इस प्रणाली वाले जो कविराज अथवा वैध आयुर्वेद के अच्छे मर्मज्ञ हैं वे कलकते जैसे शहर में, जहाँ यूरोपियन प्रणाली के डॉक्टरों की संख्या बहुत अधिक है, अधिक धन कमाते हैं और अधिक रोगियों को अच्छा भी करते हैं।"

ऐसा होते हुए भी देश भर में एक भी संस्था नहीं है, जहाँ इस प्रकार के वैधों और कविराजों को उपयुक्त प्रकार की शिक्षा दी जा सके। हिन्दू समुदाय का हित इस बात में है कि क्म-से-कम देश मेँ एक ऐसे महाविद्यालय की स्थापना हो, जिसमे नियमित तथा स्थाई रूप से इस देश के आयुर्वेदिक ज्ञान की शिक्षा दी जाए| यह विचार है कि प्रस्तावित आयुर्वेद महाविधालय जो विश्वविद्यालय में खुलेगा,  वह इसी प्रकार का एक केन्द्र हो जाए| हिन्दू-आयुवेंद-प्रणाली का यहाँ पुररुद्धार किया जायगा और अंग्रेजी ढंग को आश्चर्यजनक सफलताओं, तथा प्राणिशास्त्र,

शल्य चिकित्सा आदि विभागों के संमावेश से उसके ज्ञान भण्डार को और अधिक विस्तृत कर दिया जायगा। इस महाविधालय का लक्ष्य देश में योग्य वैध उत्पन्न करना होगा,  जो शल्यचिकित्सा  के मर्मज्ञ होंगे। यह आशा की जाती है कि भारत की दुखी जनता की इससे बहुत बड़ी सेवा होगी|

 

संगीत तथा ललितकला-महाविधालय

 

 

यह प्रस्तावित है कि "प्रारम्भ किया जाने जाला अन्तिम महाविद्यालय संगीत तथा ललित कलाओं का होना चाहिए। इस महाविद्यालय के कार्य होंगे (अ) प्राचीन भारत के सुंरुचिसमम्पन चिंतकों द्वारा रागों में पोषित सौन्दर्य और भव्यता को पुन: प्राप्त करना एबं उसे सुसंस्कृत वर्म के लिए उपलब्ध कराना, (ब) चित्रकला तथा मूर्ति कला को प्रोत्साहित करना, ओर (स) कलात्मक वस्तुओं के उत्पादन में डिजाइन की शुद्धता की रक्षा करना तया प्रोत्साहन देना, एनवं विदेशी अनुकृतियों की नकल करने की गुलाम प्रवृत्ति को रोकना। पाश्चात्य देशों द्वारा इस बात के महत्व का पता चल गया है कि किसी राष्ट्र के सुखमय जीवन के लिये संगीत कितना आवश्यक विषय है। बहुत से विश्वविद्यालय संगीत को एक पृथक विषय मानकर उस पे बी. ए., एम. ए. तथा डॉक्टर की उपाधियाँ प्रदान करते हैं। आधुनिक काल के विश्वविद्यालय में यदि संगीत का अंग न रहे तो उसका प्रभांव तथा महत्व वहुत अंशों मेँ घट जाता है।

 

 

शिक्षा का माध्यम

 

जव हिन्दू विश्वविधालय की स्थापना का प्रश्न उठा था तो यह प्रस्तावित किया गया था कि शिक्षा का माध्यम सार्वजनिक विषयों के लिये देश की कोई देशी भाषा होनी चाहिंए। यह प्रस्ताव किया गया था कि वह भाषा "हिन्दी" हो, क्योकिं देश में सबसे अधिक यही भाषा बोली तथा लिखी जाती हैं। यह सनू १८५४ की विज्ञप्ति द्वारा प्रस्तावित इस सिद्धान्त से समर्थित है कि यूरोपीय विज्ञानों तथा कलाओं की शिक्षा भारतीय भाषाओँ के द्वारा दी जाय जिससे उनका बोध सर्वसाधारण को भी हो जाय| परन्तु अभी ऐसा होना सम्भव नहीं है, क्योकि हमारी मातृभापा मैं विज्ञान की पाठ्य पुस्तकों तथा उपयुक्त ग्रन्धों का अभाव है। दूसरी कठिनाई यह है कि जिस विश्वविद्यालय मेँ देश के प्रत्येक प्रान्त से विद्यार्थियों के आने की सम्भावना है, वहाँ किसी एक भारतीय भाषा के द्वारा शिक्षा का कार्यं प्रारम्भ करने में अनेक व्यावहारिक कठिनाइयाँ उपस्थित हो जायेगी। अतएव प्रारम्भ मेँ इस लक्ष्य को छोड़ना ही पडेगा।

अतएव यह निश्चित हुआ कि शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी ही रखा जाय, पर मातृभाषा के विकास के साथ विश्वविद्यालय को अधिकार रहेगा कि वह किसी एक अथवा अधिक विषयों का शिक्षा-माध्यम किसी एक या एकाधिक भाषा को कर दें। अंग्रेजी भाषा की उपयोगिता तथा इसकी संसार-विस्तृत व्यावहारिकता का ध्यान रखकर इसको गौण भाषा मानकर इसकी भी शिक्षा जारी रहेगी|

 

विश्वविधालय की आवश्यकता

 

 

भारत में कलकत्ता, बम्बई, मद्रास, लाहौर तथा इलाहावाद में पाँच वर्त्तमान विश्वविद्यालय हैं; ये केवल परिक्षण संस्थाएं हैं। भारत सरकार ने अपने सत् १९०४ ई. के शिक्षा-सम्बन्धी प्रस्ताव में कहा था कि इन विश्वविधालयों के स्थापित करने में तत्कालीन भारत सरकार ने लन्दन विश्वविद्यालय के परिक्षण-क्रम का अनुसरण किया था। उसके पश्चात युरोप को विध्वान्मण्डली ने इस प्रणाली की त्रुटियों का अनुभव किया

 

और स्वयं लन्दन विश्वविधालय में बहुत से सुधार हुए| गत पचास वर्षों के अनुभवों ने भी यह  प्रमाणित कर दिया है कि ये विश्वविधालय केवल एक विषय में विध्यार्थ्यिओं कि परीक्षा लेते थे और साथ ही उनको उस विषय को नियमित रूप से पढ़ने के लिए बाध्य भी नहीं करते थे, इससे भारतीय मस्तिषक के समुचित विकास में कुछ दोष रह जाते थे| स्मरणशक्ति तो तीव्र हो जाती थी, परन्तु मस्तिषक का सर्वांग विकास नहीं हो सकता था| वे वास्तविक सत्य का निरिक्षण तथा मनोवैज्ञानिक विशेषण नहीं कर पाते थे|

इसके अतिरिक्त केवल परिक्षण-विश्व विधालयों में चरित्र का समुचित विकास नहीं हो सकता था, और वास्तव में चरित्र-गठन का महत्व व्यक्तिगत तथा जातीय दोनों दृष्टियों से मस्तिषक के विकास से कही अधिक बढ़कर है| इन्ही सब विहारो से यह निर्णय हुआ है कि भारत में भी पाश्चत्य राष्ट्रों के ढंग पर शिक्षण तथा गुरुकुल प्रणाली से युक्त विश्वविधालयों कि स्थापना कि जाए| इस प्रस्तावित विश्व विधालय में ये दोनों बातें होंगी| इस प्रकार यह जनता तथा सरकार दोनों कि चिराभिल्षित इच्छा कि बहुत अंशो तक पूर्ति कर सकेगा| यह आशा कि जाती है कि देश के विश्वविधालयों में यह एक भव्य विश्वविधालय के रूप में वृद्धि करने वाला होगा|

परन्तु यदि वर्तमान विश्वविधालय सभी शिक्षण संस्थाएं भी हो जाएँ तो भी देश के लिए इतने थोड़े विश्वविधालयों से काम नहीं चलेगा| सन १८५४ के शिक्षा-सम्बन्धी आदेश के अनुसार यदि भारत को यह जानना होगा कि उपयोगी सार्वजनिक ज्ञान के वितरण से सांसारिक तथा आध्यात्मिक सभी प्रकार के सुखों कि प्राप्ति होती है, जो देवेच्छा से भारत को इंग्लॅण्ड के सम्बन्ध द्वारा प्राप्त करने हैं, तथा उसकी निर्धन संतानों को, विदेशी व्यावसायिक प्रतियोगिता के युग में, अपने घरेलू राष्ट्रीय प्राचीन व्यवसायों को पुनरुद्धार करना है, तो उसे देश में प्रधानत: वैज्ञानिक, व्यावसायिक तथा शिल्पादि कलाओं कि शिक्षा अधिक बड़ा देनी चाहिए| भारत में इस क्षेत्र के विकास के सम्बन्ध में मैं केवल यही कहूँगा कि इतने विशाल देश में केवल पाँच विश्वविद्यालय है, जिसका क्षेत्रफल भारत के एक प्रांत के बराबर है, इसके अतिरिक्त यूरोप के अन्य देशों में और भी विश्वविधालय हैं| इसका कारण यह है कि पाश्चात्य देशों में केवल धनिकों के लिए ही विश्वविधालय नहीं बनाए गए हैं| इस प्रकार कि शिक्षा को अब राष्ट्रीयता का रूप दिया जाता है, क्योंकि इसके बिना वर्तमान व्यावसायिक युग में कोई देश अपनी स्थिति स्थाई नहीं रख सकता|

 

चरित्र-निर्माण

 

 

इस नवीन विश्वविधालय के स्थापन कि आवश्यकता तथा देश कि वर्तमान परिस्थिति को उन्नतिशील बनाने वाले इसके पाठ्य-विषयों कि उपादेयता के बारे में बहुत कुछ कहा जा चुका है| परन्तु केवल व्यावसायिक उन्नति में ही किसी देश की

 

 

 

Mahamana Madan Mohan Malaviya