Mahamana Madan Mohan Malaviya

Mahamana Madan Mohan Malaviya
Speeches & Writings

स्त्री-शिक्षा

 

वर्तमान काल में देश के एक ओर से दूसरे ओर तक सर्वत्र जातीय जीवन के उच्च भार्वी की सूचना दिखलायी पड़ती है आकाश में धन (बादल) और घटा के होने पर भी प्रातः काल के समय जब सूर्य भगवान की किरणों के निकलने का समय होता है, तब स्वयं संसार में प्रकाश की आभा दिखाई पड़ने लगती है और सूर्य भगवान के उदय का अनुमान होता है उसी प्रकार वर्तमान समय की कार्य-प्रणाली देश के लोगों का उत्साह और जातीय हित का अनुराग देखकर वह बात ध्यान में आती है कि हम लोगों की नसों में भी जातीय जीवन का रक्त प्रवाहित हो रहा है थोड़े दिन पहले जिस जाति को लोग मृतक-समान समझ रहे थे, उसमें अभी जान बाकी है, इस बात का लोगों को निश्चय होता जा रहा है


अब तक बहुधा लोग यही समझते थे कि जातीय जीवन के विकास के लिए केवल राजनैतिक चर्चा काफी है इसी के द्वारा जाति का मंगल हो सकता है और हमारी जाति नवीन रूप धारण करके उन्नति के सोपान चढ़ सकती है परन्तु अनुभव से कहो अथवा ज्ञान ज्योति के प्रभाव से कहो, या राजनैतिक आन्दोलन में बहुत-सी जगहों पर व्यर्थ मनोरथ होने का परिणाम कहो- अब लोगों का मन इस ओर आकर्षित हुआ है कि सामाजिक संस्कार के बिना राजनैतिक अधिकार लाभ होना कठिन कार्य है जब तक ब्रह्मचर्य के उत्कृष्ट नियमों का पालन न होगा, गृहस्थाश्रम के उच्च पथ का अवलम्बन न किया जायगा और जब तक हम लोगों के चरित्र उत्तम रूप से गठित न होगा, तब तक हम कभी राजनैतिक क्षेत्र में कार्य करने के योग्य न होंगे जब तक हमारा सामाजिक संस्कार ठीक-ठीक न होगा, तब तक हमारी दशा रहेगी, जैसी एक अविवेकी ब्राह्मण की हुई थी, जिसे सिंह ने धोखे में डालकर खा लिया क्योंकि जब जाति का चरित्र सबल, कर्मयोग में दृढ़ और नीति के पद पर आरूढ़ न होगा, तब तक जातीय जीवन अंधकारमय बना रहेगा, उसका प्रबल प्रभाव कभी देश पर नहीं पड़ सकता हमारे जातीय जीवन में सैंकड़ों वर्ष से अंधविश्वास रुपी कुसंस्कार इकट्ठे हो गए हैं, जिनके कारण ही हमारी जाति प्राण-विहीन समझी जाती है अतएव इन कुसंस्कारों को हटाने के लिए ब्रह्मचर्य और सुचरित्र रुपी पैने हथियारों का उपयोग करना ही जातीय जीवन के उत्थान का एकमात्र मार्ग है परन्तु हमारा सुचरित्र होना, ब्रह्मचारी बन्ना अथवा अंधविश्वास का त्याग करना तभी हो सकता है, जब हम अपने स्त्री-वर्ग को सुधार कर उसे अपने अनुकूल बना लें जब तक हम इस वर्ग को अपने साथ लेकर नहीं चलते, तब तक हम कभी जातीय जीवन की लहलहाती हुई लता को देखकर आनन्दित नहीं हो सकते क्योंकि मनुष्य-समाज का कल्याण अथवा अकल्याण, उच्च अथवा नीच होना स्त्रियों के ही हाथ में है बाल्यावस्था से लेकर वृद्धावस्था तक पुरुष इन्हीं के हाथों की कठपुतली है वे जिस प्रकार चाहे, उनको चलावें पुरुषों को सदा उनके अधीन रहना पड़ता है यदि स्त्रियाँ पुरुषों के पास रहकर उनके लाभ अथवा सुख की सहायता न हो, तो पुरुष सुखी अथवा आनन्दित नहीं रह सकते पुरषों की उन्नति अथवा अवनति मानों स्त्रियों के ही हाथ में है ! लेडी मैकबेथ सरीखी जिस प्रकार पुरुषों को उनके दुष्कृति के अन्धकार से निकाल सकती है, उसी प्रकार गांधारी और द्रौपदी सरीखी विदुषियों के समान स्त्रियाँ भी दुराचारियों के हाथों अपनी रक्षा करके अपने कुल का उद्धार और पापी को पुण्य के पथ पे ले जा सकती है परन्त्तु ऐसा तब हो सकता है, जब उनको इस प्रकार की गूढ़ नीति समझने और यथासमय उनका उत्तम रूप से उपयोग करने के लिए उपयुक्त शिक्षा दी जावे स्त्री-शिक्षा का जो अर्थ लोग साधारणतः आजकल कर लेते हैं उस बारे में अपने पाठकों से कुछ भी अधिक निवेदन करना नहीं चाहते हमारा तात्पर्य शिक्षा से हृदय और मन की सारी शक्तियों का सम्यक रूप से विकास और उनकी पूर्ण पुष्टि से है स्त्रियों को ईश्वर की दी हुई विपुल शक्ति के जीवन के उच्च आदर्श के सामने लाकर सुगठित करना और कर्मशील बनाना ही हमारा उद्देश्य है और यही हमारे जातीय जीवन का सुख और कर्त्तव्य कर्म है जो दशा आजकल हमारे देश की स्त्री-शिक्षा के सम्बन्ध में हो रही है, वही आज से पचास वर्ष पहले यूरोप और अमेरिका आदि सभ्य देशों की थी स्त्रियों को उच्च शिक्षा दिए जाने के सम्बन्ध में जो नाना प्रकार के तर्क और भ्रांतिमूलक, कल्पित और दुर्बल धारणाएँ इस समय यहाँ पर प्रवाहित हैं, इसी प्रकार उस समय सभ्य देशों की दशा थी परन्तु समय के फेर से उन लोगों के मन इस दुर्नीति की ओर से अब हट गए हैं और हटने के साथ ही उनके जातीय जीवन में नवीन रक्त का संचार हुआ है स्त्री-शिक्षा की ओर ध्यान देने से ही उनकी कायापलट हो गई यूरोप और अमेरिका ने जितनी उन्नति गत पचास वर्ष में की, उतनी उन्नति पिछली दो शताब्दियों में भी न कर सके


स्त्री-शिक्षा की उन्नति में बाधा डालने वाली जो प्रबल युक्ति आजकल हमारे देश भाइयों के पास है, वह यह है कि स्त्रियों को पुरुषों के समान शिक्षा मिलने लगेगी तो समाज में घोर विप्लव और घरों में महान अनर्थ पैदा हो जायेंगे स्त्रियाँ घरों से बाहर निकलकर सभा-समाज करती फिरेंगी, गृहकार्य की ओर अथवा संतान-पालन, पति की सेवा और कुटुम्बियों के आदर-सत्कार की ओर उनका लक्ष्य बिलकुल न रहेगा अतएव वह ग्रह, जो आनन्द-कानन बना रहता था, जीर्ण होकर अरण्य के रूप में परिणत हो जायगा उनके मत में शिक्षा से तात्पर्य सामान्य लिखना-पढ़ना, गृहस्थी के आय-व्यय का हिसाब रखना, संतान को पालना-बस, यही स्त्रियों की शिक्षा की चरम सीमा है इससे अधिक आगे बढ़ने से स्त्रियों की प्रकृति विकृत होने की आशंका है परन्तु हमें इस प्रकार का भय का कोई कायण दिखायी नहीं पड़ता क्या कभी किसी ने यह भी नहीं सुना है कि विश्वविद्यालयों में उच्च शिक्षा लाभ करके पुरुष धन पैदा करने, अपने परिवार का पालन-पोषण करने अथवा ग्रह-कर्त्तव्य साधन करने के अयोग्य हो गया है जिस शिक्षा द्वारा पुरुषों में मानसिक, नैतिक और आध्यात्मिक गुणों का प्रकाश होता है, जिसकी सहायता से उनका जीवन उच्च हो जाता है, उसी शिक्षा को पाकर स्त्रियों के मन और हृदय उन्नत न होकर अधोगति की ओर आकर्षित होंगे- यह कैसे आश्चर्य की बात है जो शिक्षा पुरुषों को प्रकाश की ओर ले जाती है वही स्त्रियों को अन्धकार की ओर घसीट ले जायगी- वह कहाँ का विचित्र न्याय है ? जो शिक्षा मन और आत्मा की शक्तियों का प्रकाश करके पुरुष को विवेकी बनाकर, सर्वश्रेष्ठ बनाकर, उसमें पौरुषीय गुण को ले आती है वही शिक्षा स्त्रियों को अविवेकी, ज्ञानरहित और कुमार्ग की ओर ले जायेगी भारत-बन्धु फासेट साहब की कन्या ने केम्ब्रिज विश्वविद्यालय की सर्वोच्च गणित-परीक्षा में उच्च पद लाभ किया, परन्तु वह बात कभी सुनने में न आयी कि गणितशास्त्र के उच्च ज्ञान से स्त्रियों कि प्रकृति-सुलभ कोमलता से वंचित हो गई हो वैज्ञानिक क्यूरी साहब, जिन्होंने रेडियम धातु का आविष्कार करके सारे जगत को अपने आश्चर्य-कार्य से चकित कर दिया वह उनके और उनकी विदुषी स्त्री के सम्मिलित परिश्रम का फल है इस आविष्कार में किसने अधिक परिश्रम किया, यह बताना कठिन है परन्तु तो भी यह बिना कहे नहीं रहा जाता कि यदि उनकी स्त्री उच्च हृदय न होती तो वैज्ञानिक क्यूरी क्या उनसे किसी प्रकार की सहायता पा सकते थे ? क्यूरी की शोचनीय मृत्यु के पश्चात भी उसे विद्वान लोगों ने उसके पति के आसन पर आरूढ़ किया और उसने अपना सारा जीवन विज्ञान के अनुशीलन में व्यतीत किया परन्तु क्या वह ऐसा करने में पत्नी अथवा माता के कर्तव्य-पालन में अशक्त हो गई थीं ? मुक्ति-सेना के अहदिनायक जनरल बूथ की सहधर्मिणी जीवन महाव्रत-साधन में सदैव पति की सहयोगिनी बनी रही उनका सारा समय सभा-समितियों में व्याख्यान देने में ही व्यतीत होता था, परन्तु जनरल बूथ के मुख से कभी यह शिकायत न सुनी गई कि मिसेज बूथ ने स्त्रियों के सर्वप्रधान कर्तव्य कर्म पति-सेवा और सन्तान पालन में किसी प्रकार की त्रुटि की हो यूरोप और अमेरिका में इसके और भी बहुत से उदाहरण अगर तलाश किये जावें तो मिल सकते हैं, जिनसे यह बात पायी जाती है कि स्त्रियाँ अपने कर्तव्यों का पालन करके भी अपनी इच्छा, विरूचि, शक्ति और सुविधा के अनुसार साहित्य, दर्शन, संगीत और कला कौशल का ज्ञान प्राप्त करके, उनकी आलोचना द्वारा, मनुष्य-जीवन को सफल कर सकती है कन्या, भगिनी, वधु, पत्नी और माता का कर्तव्य पालन करना स्त्रियों का मुख्य कार्य है, परन्तु मानसिक और नैतिक-शक्ति  के विकसित होने से क्या प्रीतिपूर्ण और अनुपम सुखमय उपरोक्त कार्य करने की योग्यता अधिक नहीं बढ़ सकती ? आजकल पाश्चात्य देशों में स्त्रियां अपनी शक्ति को बढाकर जातीय जीवन में कैसा उत्तम नवीन प्रभाव डाल रही है, इस बात को जानकर मनुष्य मात्र को चकित होना पड़ता है और उनके कार्य से यह भी पता चलता है कि शिक्षा द्वारा अपनी शक्ति को बढ़ाकर वे संसार में कितना कार्य कर सकती है इन बातों को हम हम सैंकड़ों वर्ष की राजनैतिक और सामाजिक पराधीनता में पड़ जाने से संकीर्ण-हृदय हो जाने के कारण बिल्कुल भूल गए हैं इसी कारण हम अपने घर अथवा समाज में शिक्षा, शक्ति और स्वाधीनता का थोड़ा-सा भी अंकुर उगते हुए देखकर अधीर हो जाते हैं परन्तु जिस प्रकार महादेव के कपाल से गंगा की धारा बह निकलने से वह भारत-भूमि को उर्वरा करती हुई शान्तिमय समुद्र में जाकर मिल जाती है, उसी प्रकार स्त्रियों में शिक्षा-रुपी प्रवाह से हमारी सामाजिक शक्ति भी उर्वरा होकर हमारे जातीय जीवन को नष्ट-भृष्ट करके, जहां पर इस समय हम स्थित हैं, उससे बहुत ही नीचे गिराकर हमारा सर्वनाश कर देगी अतएव जातीय जीवन के पुनरुत्थान के लिए स्त्री-शिक्षा के पवित्र कार्य को उत्साह और साहस के साथ अब आरम्भ कर देना चाहिए इस शुभ कार्य में जितनी देरी की जायेगी, उतनी ही देर जातीय जीवन के विकास होने में लगेगी


(मार्गशीर्ष शुक्ल ९, सं० १९६४)

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