Mahamana Madan Mohan Malaviya

Mahamana Madan Mohan Malaviya
Speeches & Writings

अछूतोध्दार

अन्त्जोध्दार-विधि:

 

(१)

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय |

यत: कृष्णस्ततो धर्मो यतो धर्मस्ततो जय: |

यत्कीर्तन यत्स्मरण यदीश्रण यव्दन्दन यच्छ्रवण यदर्हणम् |

लोकस्य सधो विधुनोति कल्मष तस्मै सभ्रदश्रवसे नमो नम: ||

भागवते |

करुणामूर्तिना येन चतुरस्य साधका: |

चत्त्वारो रचिता वेदा वर्णाच्श्रत्त्वार आश्रमा: ||

धर्मश्रेत्रे  कुरुश्रेत्रे विश्रुते रणमूर्धनि |

यो हृादादर्जुन ज्ञान विशुद्ध विजयप्रदम् ||

सच्चिदाननन्दरूपाय विव्श्रोत्पत्त्यादिहेतवे |

तापत्रयविनाशाय श्रीकृष्णाय वय नुम: ||

यं पृथग्धर्मचरणा: पृथग्धर्मफलैषिण: |

                   पृथग्धर्मौ: समर्चन्ति तस्मै धर्मात्मने नम: ||             भारते |

धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रश्रति रश्रित: |

                    तस्माद्धर्मो न हन्तव्यो मानो धर्मो हतोऽवधीत् ||               मनु: |

न जातु कामान्न भयान्न लोभात्त्यजेद्धर्म जीवित्स्यापि हेतो: |

             धर्मो नित्य: सुखदुःखे त्त्वनित्य जीवो नित्यो हेतुरस्य त्त्वनित्य: ||        व्यास |

नाह कामान्न सरभान्न द्वेषान्नार्थकारणात् |

                     न हेतुवादाल्लोभाव्दा धर्म जहम्ँ कथच्ञन ||               कृष्ण:भारते |

विधा रूप धन शौर्य कुलीनत्त्वमरोगता |

राज्य श्वर्गच्श्र मोश्रच्श्र सर्व  धर्माद्वाप्य्ते ||

देवता ब्राह्मणा: संतो यश्रा मनुश्चारणा: |

                      धार्मिकान् पूजयन्तीह न धनाढयान्न कमिन: ||                 भीष्मपूर्व |

मम प्रतिज्ञाच्श्र निबोध सत्याँ वृणे धर्मममृताज्जीविताच्च |

राज्यच्ञ पुत्राच्ञ यशो धनच्ञ सर्व न सत्यस्य कलामुपैति ||

                                                                        युधिष्ठिर: |

 

 

कोऽयं धर्म:

 

                    यतोऽन्यदस्ति:श्रेयससिद्धि:  स धर्म: |               कणाद |

लोकयात्रार्थमेवेह  धर्मस्य नियम: कृत: |

उभयत्र सुखोदर्क: एस चैव परत्र च ||

अकारणो हि नैवास्ति धर्म:सुश्र्मो हि जाजले |

                   भूतभव्यार्थमेवेह धर्मप्रवचन कृतम् ||              भारते |

धारणाद्धर्ममित्याहु: धर्मो धारयति प्रजा: |

य: स्याद्धारणसयुक्त: स धर्म इति निच्श्रय: ||

प्रभवार्थाय भूताना धर्मप्रवचन कृतम् |

य: स्याद्धारणसयुक्त: स धर्म इति निच्श्रय: ||

अहिंसार्थाय भूताना धर्मप्रवचन कृतम् |

य: स्याद्धारणसयुक्त: स धर्म इति निच्श्रय: ||

 

कोऽयं सनातनोधर्म: ?

 

वेदोऽखिलो धर्ममूल स्मृतिशीले च तव्दिदाम् |

               आचारच्श्रैव सधुनामात्मनस्तुष्टिरेव च ||          मनु: |

पुराणन्यायमीमाँसाधर्मशास्त्राग्डमिश्रिता: |

                      वेदा: स्थानानि विधाना धर्मस्य च चतुर्दश ||            याज्ञवल्क्य: |

वेदार्थादधिक मन्ये पुराणार्थ वारनने |

वेदा: प्रतिष्ठिता देवि ! पुराणे नात्र संशय: ||

यन्न दृष्ट हि वेदेषु तददृष्ट स्मृतिषु व्दिजा: |

उभयोर्यन्नदृष्ट तत् पुराणे परिगीयते ||

बिभेत्यल्पश्रुताव्देदो मामय चालयिष्यति |

इतिहासपुराणाभ्या वेद समुपबरुहयेत् ||

युधिष्ठिर: ----

भगवन् ! श्रोतुमिच्छामि नृणा धर्म सनातनम् |

वर्णाश्रमाचारयुतं यत्पुमान्विन्दते परम् ||

नारद उवाच----

नत्त्वा भगवतेऽजाय लोकाना धर्महेतवे |

वश्र्ये सनातनधर्म नारायणमुखाचछु्तम् ||

धर्ममूल हि भगवान् सर्वदेवमयो हरि: |

स्मृत च तव्दिदा राजन् येन चात्मा प्रसीदति ||

सत्य दया तप: शौच तितिक्षेक्षा शमो दम: |

आहिंसा ब्रह्माचर्यच्च त्याग: स्वाध्याय आर्जवाम् ||

सन्तोष: समद्दग्सेवा ग्राम्येहेपरम: शनै: |

नृणा विपर्ययेहेक्षा मौनमत्मविमशरम् ||

अन्नाधादे: स्न्विभागो भूतेभयच्च यथहत: |

तषवात्मदेवता बुद्धि: सुतरा नृशु पाण्डव ||

श्रवण कीर्तन चास्य स्मरण महता गते: |

सेवेज्यावनतिद्रस्य अख्य्मात्मसमपूर्णम् ||

नृणामय परो धर्म: सर्वेशा समुदाहत: |

त्रिशल्लक्षणवान राजन सर्वात्मा येन तुष्यति ||

शमो दमस्तप: शौच सन्तोष: क्षान्तिरार्जवम् |

ज्ञान दयाऽच्युतात्मतत्व सत्य च ब्रह्मालक्षणम् ||

शौर्य वीर्य धृतिस्तेजसत्याग आत्माजयक्षमा |

ब्रह्माणयता प्रसादचश्र रक्षा च क्षत्रलक्षणम् ||

देवगुर्वच्युते भक्तिस्त्रीवर्गपरिपोषणम् |

आस्तिकिमुधमो नित्य पैपुण्य वैशयलक्षणमृ ||

शुद्रस्य सन्नति: शौच सेवा स्वामिनयमायाय |

अन्मत्रयज्ञो ह्मस्टेय सत्य गोविप्ररक्षणम् ||

तथा भारते -----

जातकर्मदिभिर्यस्तु सन्सकारै: संस्कृत: शुचि: |

वेदाध्ययन्स्मपन्न: षटसु कर्मस्वनुष्ठीत: ||

शौचाचास्थित: सम्यक विघसाशी गुरुप्रिय: |

नित्यव्रिति सत्यपर: स वै ब्राह्मण उच्चते ||

क्षत्रज सेवते कर्म वेदाध्ययनसगडत: |

दनादन रतिर्यस्तु स वै क्षत्रिय उच्चते ||

वाणिज्य पशुरक्षा च कृषया दानरति: शुचि |

वेदाध्ययनसम्प्न्न: स वैश्य इति संज्ञित: ||

सर्वभक्षरतिनिरत्य सर्वकर्मकरोऽशुचि: |

त्यतत्कवेदसत्त्वनाचार: स वै शुद्र इति समृत: ||

यस्य यल्लक्षण प्रोक्त पुंसा वर्णनाभिव्यज्जकम् |

यदन्यत्रिपि दृशयेत त्तेनैव विनिदिर्शेत् ||

सवे सवे कर्मणयभिरत: सनसिद्धि लभते नर: |

स्वकम्रनिरत: सिद्धि यथा विन्दति तच्छणु ||

यत: प्रवत्तिभुर्ताना येन सर्वमिद ततम् |

स्वकर्ण तमभयचर्च सिद्धि विन्ति मानव: ||

श्रयान अव्धार्मो विगुण: परधर्मातस्वनुष्टितात् |

स्वभावनियत कर्म कुर्वेन्नाप्नोति किल्विषम् ||

सहज कर्म कौन्तोय सदाषमपि न त्यजेत् |

 सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरविावृता: ||

सर्वकर्मानयति सदा कुर्वाणो मद्दयपाश्रय: |

मत्प्रसादादवाप्नोति शश्रत पदम्व्ययम् ||

महाभारत के उध्योग पर्व में लिखा है -------

एष धर्मो महायोग दान भुतदया तथा |

ब्रह्माचर्य तथा सत्यमनुक्रोशो धृति: क्षमा |

सनातनस्य धर्मस्य मूलमेंततसनातनम् ||

भगवान् मून ने धर्म के देश लक्षण कहे है ----

धृति: क्षमा दमोऽसतेय शौचमिन्द्रियनिग्रह: |

धीर्विधा सत्यमक्रोधो दशक धर्मलक्षणम् ||

और चारो वर्णों के लिए आमसिक पांच धर्म कहे है -----

अहिंसा सत्यमसतेय शौचमिन्द्रियनिग्रह: |

एत सामाजिक धर्म चातुर्वणयेऽब्रविन्मनु: ||

 

ऊपर उद्धत वचनों से स्पष्ट है कि सनातनधर्म में धर्म का एक मूल अंग शौच भी है | दक्ष सहित में लिखा है ---

 

शौचे यत्न: सदा कार्य: शौचमुलो द्दिज: स्मृत: |

शौचाचारविहीनस्य समस्ता निष्फला: क्रिया: ||

 

शौच- सफाई के विषय में सदा यत्न करना चाहिए | द्दिजाती ब्राह्मण क्षित्रय वैश्य होने का मूल शौच है | जो सदा और सदाचार से रहित है , उसकी सब क्रियाए निष्फल होती है |

 

शौचेन सतत युक्त: सदाचारसमन्वित: |

सानुक्रोशश्र बुतेषु त्द्दीजतिशु लक्ष्मण ||

 

शास्त्रकारो ने भिन्न भिन्न वर्णों का धर्म बरण कर यह भी लिखा है कि सदाचार के सेवन से , सत्कर्म करने से , शुद्र भी द्दीज्त्त्व को पहुच सकता है और दुराचार , अर्थात बुरे कामो के करने से ब्राह्मण भी नीचे गिरकर शुद्र्ता को पहुच सकता है |

 

वर्णोंतकर्षमवाप्नोति नर: पुण्येन कर्मणा |

यथाऽप्कर्ष पापेन इति शास्त्रनिदर्शनम् ||

यथादयगिरौ द्रव्य सन्निकषेण दीप्यते |

तथा सत्यसन्निकषेण हिन्वर्णोंऽपि दीप्यते ||

शुद्रोऽपि शिलासम्पन्नो गुणवान् ब्राह्मणों भवेत् |

ब्रह्माणोऽपि क्रियाहिन्: शुद्रात् प्रत्यन्वरो भवेत् ||

शुद्रे तु यभ्दवेल्लश्र्म व्दिजे तच्च न विधते |

                        न वै शुद्रो भवेच्छूद्रो ब्राह्मणों न च ब्राह्मण: ||            वन.१८०-२५ |

 

युधिष्ठिर:---

 

सत्य दान श्रमा शीलमानृशस्य तपो घृणा |

दृश्यन्ते यत्र नागेन्द्र स ब्राह्मण हति स्मृत: ||

 

नहुष:----

 

चातुर्वण्र्य प्रमाण च सत्य च ब्रह्म चैव हि |

शूद्रेष्वपि य सत्य च दानमक्रोध एव च ||

आनृशस्यमहिंसा च घृणा चैव युधिष्ठिर |

 

अन्यच्च

 

यत्रैतल्लश्र्यते सर्प वृत्त स ब्राह्मण: स्मृत: |

                    यत्रैतन्नभवेत्सर्प तं शूद्रेति विनिर्दिशेत् ||          वनपर्व१८० |

धर्मेप्सवस्तु धर्मज्ञा: सता वृत्तमनुष्ठिता: |

               मंत्रवज्य न दुष्यन्ति प्रशंसा प्राप्नुवन्ति च ||         मनु.१०

 

अयमर्थ:----

 

ये पुन: शूद्रा: धर्मप्राप्तिकामा: त्रैवर्णिकानामाचारमनिषिद्धमाश्रिता: ते नमस्कारेण

मंत्रेण मंत्रान्तररहित पंचयज्ञादि धर्मान् कुर्वाणा न प्रत्यवयन् ख्याति च लोके लभन्ते |

यथा यथा हि सदवृत्तमातिष्ठत्यनसूयक:|

तथा तथेममामुच्च लोंक प्राप्नोत्य्निन्दित:||

पार्गुणानिंदक: शुद्र यथा यथा दियात्याचारमनषिदधमनुतिष्ठति तथा यथा ज्नेर्निन्दित इह लोक उत्कृष्ठ: स्मृत : स्वर्गादिलोक च प्राप्नोति | इति कुल्लूक :|

 

इसी प्रकार के शास्त्र के और वचन है जिनसे यह सीधी होता है कि निच्तिनिच शुद्र भी बुरे कर्मो के त्यागने से और भले कर्मो के पालन करने से ब्राह्मण के समान मान पाने के योग्य हो सकता है | और ऐसा सुदर यदि विज्ञानं हो तो दिज्नमा उससे आत्मज्ञान तक सिख सकता है | स्वयं मनुजी का वचन है

 

श्रद्दधान: शुबहा विद्यामाद्दिताअवराद्पि |

अत्याद्पी पर धर्म स्त्रीरत्न दुष्कुलादपि||

 

अर्थात-श्रध्द्युक्तो दिज: सुबह द्रिश्श्क्ति गारूडादिविद्यमवराच्छुद्रद्पि गृहणीयात| अन्त्श्चाणडालस्तस्माद्पी जातिस्म्रदेर्वीहित्योगप्रषरत दुश्क्त्शेषोपभोगार्थ्म्वाप्त चाणडालजनमत: पर धर्मं मोक्षोपायमात्मज्ञानमाद्दित | इति कुल्लूक :| तथा अज्ञानमेवोप्क्रमय मोक्षधर्म “प्राप्य ज्ञान ब्राह्मणत क्ष्त्रियादा वैश्यच्छद्रदपि निचादभीक्ष्णम श्रदातव्य श्रद्दधानेन नित्य न श्रदिन प्रति जन्म्रित्यु विशेषता |”

 

उत्कर्ष के दो बड़े उदाहरण

 

चाण्डाल और व्श्रभी इसी जन्म में ब्राहमण,क्षात्रिय, वैश्य के समान मान पाने के योग्य हो सकते है, इसके दो बड़े उदाहरण है | एक धर्मव्याध की कथा जो महाभारत के वनपर्व में है, और दूसरी मूल चाण्डाल की कथा जो पद्मपुराण में मिलती है |

 

धर्मव्याध की कथा

 

एक कौशिक नाम वेदाध्यायी तपोधन ब्राहमण था | उसको क्रोध और अभिमान आ गया | उस दशा में उनको एक पतिव्रता स्त्री ने उपदेश किया कि आप धर्म को अभी नहीं जानते है | आप जाइए | मिथिलापुरी में धर्मव्याध रहना है, उससे धर्म का उपदेश लिजिए | ब्राह्मण धर्मव्याध के पास गया , वः धर्मव्याध अपनी मॉस की दुकान पर बैठा था | वह ब्राह्मण को अपने घर ले गया और ब्राहमण ने वहा उससे कहा की तुम मुझे शिष्टाचार का उपदेश करो | व्याध ने बहुत विस्तार के साथ ब्राह्मण को धर्म का उपदेश किया | वः कथा वनपर्व के १०५वे अध्याय से २१४वे अध्याय तक में वरणत है | उसी प्रसग्ड में व्याध ने कहा-----     

   

अशीलच्श्रापि पुरुषो भूत्त्वा भवति शीलवान् |

                        प्रणिहिसारतच्श्राऽपि भवते धार्मिक: पुमान् ||            वनपर्व२०६-३३ |

 

पुरुष दुच्श्ररित्र होकर भी सुचरित्र हो सकता है और प्राणियो की हिंसा में रत रहने पर भी मनुष्य धार्मिक हो सकता है |

 

पापचेत् पुरुष: कृत्त्वा कल्याणमभिपधते |

मुच्यते सर्वपापेभ्यो ,आहाभ्रेणेव चन्द्रमा: ||

यथादित्य: समुधन् वै तम: पूर्व व्यपोहति |

एवं कल्याणमातीष्ठन् सर्वपापै: प्रमुच्यते ||

वनपर्व२०६-५५-५६

 

आगे चलकर व्याध ने कहा-----

शूद्रयोनौ हि जातस्य सद्गुणानुपतिष्ठत: |

वेश्यतत्व लभते ब्रह्मन क्षत्रियत्त्व तथैव च ||

 

        अर्थात, शूद्रयोनी में भी उत्पन्न हुआ पुरुष यदि अपने में अच्छे गुणों को संग्रह करे, तो हे ब्रह्मन ! वह वैश्य हो जाता है, और क्षत्रिय यदि सदाचार से जीवन यापन करे तो उसमे ब्राह्मण की योग्यता भी उत्पन्न हो जाती है |

        धर्मव्याध ने ब्राह्मण से कहा कि तुम अपने माता-पिता को दुखी करके पढ़ने के लिए घर से निकल आए हो, इसलिए तुम जाकर प्रसन्न करो, तक तुम परम धर्म को प्राप्त होगे | ब्राह्मण ने व्याध को धन्यवाद दिया और खा कि------

आर्जवे वर्तमानस्य ब्राह्मण्यमभिजायते |

 

     तुम्हारे समान धर्म को बताने वाले संसार में दुर्लभ है | तब व्याध से पूछा की हे व्याध ! कारण बताओ कि कैसे शुद्रयोनि में तुम्हारा जन्म हुआ | व्याध ने अपनी सब कथा कही | उसको उनकर ब्राह्मण ने कहा-----

 

ईदृशा दुर्लभा लोके नरा धर्मप्रदर्शका: ||

 साम्प्रतच्श्र मतो मेंऽसि ब्राहमणों नात्र सशय: |

ब्राह्मण: पतनीयेषु वर्तमानो विकर्मसु ||

दाम्भिको दुष्कृत: प्राय: शुद्रेण सदृशो भवेत् ||

यस्तु शूद्रो दमे सत्ये धर्मे च सततोत्थित: |

तं ब्राह्मणमह मन्ये वृत्तेन हि भवेद् व्दिज: ||

वनपर्व२१५-११-१२

 

    अर्थात्, यधपि शूद्रयोनि में तुम्हारा जन्म है तथापि मै तो तुमको इस समय ब्राह्मण ही मानता हू | मेरे मन में इसमे कुछ भी सशय नहीं है | जो ब्राह्मण नीचे गिराने वाले बुरे कर्मो में लगा हो, दाम्भिक तो और दुष्कर्मा हो, वह प्राय: शूद्र के सामान होता है | और जो शूद्र, मन के और इन्द्रियों को रोकने मई , सत्य मई और धर्म में सदा लगा रहता हो, उस को मै ब्राह्मण मानता हू | चरित्र से ही ब्राह्मण होता है |

    मार्कण्डेय मुनि कहते है कि चलते समय व्याध ने ब्राह्मण को फिर प्रणाम किया और ब्राह्मण उसकी प्रदक्षिणा करके अपने घर चला गया |

 

मुक चाण्डाल की कथा

 

दूसरी कथा पद्मपुराण में मुक चाण्डाल की है | यह संक्षेप: में नीचे वर्णित है-----

 

“कथयामि पूरा वृत्त विप्रा: शृणुत यत्नत: |

यं श्रुत्त्वा न पुनर्मोह प्रयास्यथ पुनर्भुवि ||  

पूरासीच्च व्दिज: कच्श्रिन्नरोत्तम इति स्मृत: |

स्वपितरावनादृत्य गतोऽसै तीर्थसेवया ||

तत: सर्वाणि तीर्थानि गच्छतो ब्राह्मणस्य च |

आकाशे स्नानचैलानि प्रशुष्यन्ति दिने दिने ||

अहक्ड़ारोऽविशत्तस्य मानसे ब्राह्मणस्य च |

मत्समो नास्ति वै कच्श्रित् पुण्यकर्मा महायशा: ||

इत्युक्ते चानने तस्य अहदच्श्र बकस्तदा |

क्रोधाच्चैवेरितस्तस्य स शशाप व्दिजो बकम् ||

भीर्व्दिजो महामोह: प्राविशच्चान्तकर्मणि |

 

देववाण्युवाच-----

गच्छ वाडव चाण्डाल मूक परमधार्मिकम् |

तत्र धर्म च जानीषे क्षेमं ते तव्दचो भेवत् ||

 

व्यास उवास-----

खाच्च तव्दचन श्रुत्त्व गतोऽसौ मूकमन्दिरम् |

शुश्रूषन्त च पितरौ सर्वारम्भान्ददर्श स: ||

ददत शीतकाले च सम्यगुषणं जल तयो: |

तैलतापनताम्बूलं तथा तुलवती पटीम् ||

नित्याशंन च मिष्टानन्न दुग्धखण्ड तथैव च |

दप्यंत वसन्ते च मधुमाला सुग्न्धिकाम् ||

त्त्सत्यो: प्राच्यो च क्रित्त्था भुद्त्त्टकेअथ सर्वदा |

श्रमस्य वारण कुर्यात्सनतापस्य तथैव च ||

एभि:पुण्यै: स्थियो विष्णुस्तस्य गेहोदरे चिरम् |

तेजोमय महासत्त्व शोभयंत च मन्दिरम् ||

दृष्टावा विस्मयमपन्नो विप्र: प्रोवाच मुककम् |

 

अनन्तर विष्णु दृष्ट्वा विप्र उचाव-

 

महापातकिस्न्सर्गान्नराचश्रैवाति पातका: |

इति जल्पन्ति धर्मज्ञा: स्मृतिशास्त्रेशु सर्वदा ||

पुराणागमवेदेषु कंथ तत्व तिष्ठसे गृहे |

 

श्री भगवानुवाच ---

 

कल्याणाना च सर्वेषा कर्त्ता मूको जगत्त्रये |

वृत्तस्थे योअपि चणडालसन्त देवा ब्राह्मण विदु: ||

मुक्स्य सदृशो नास्ति लोकेषु पुण्यकर्मत: |

पित्रोंभ्रतत्किपरो नित्य जित तेन जगत्त्रयम् ||

तयोभ्रतत्किचा त्त्वह तुष्ट: सार्वदेवगणै: सहा |

तिष्ठामि द्दीजरूपेण तस्य गेहोदरे च खे ||

पित्रोर्भत्किपर: शुद्धचश्राणडालो देवता गत: |

तस्मातेन सह प्रीत्या तिष्ठामि तस्य पन्दिरे ||

 

माता पिता की भांति से शुद्ध होकर चंडाल देवता की पदवी के योग्य हो गया | यह कथा इस बात  के लिये पर्याप्त प्रमाण है कि सदाचार से , धर्म के पालन से , चंडाल भी अपने जीवन में विद्वान् तपस्वी ब्राह्मण से ऊचे से ऊचा आदर पाने के योग्य हो सकता है | ये कथाए हमारे ही कल्याण के लिये कही गी है | इसीलिये स्मृति और पुराणों के प्रमाण से यह सिद्ध होता है की चंडाल और श्रवपच को आवश्यक शौच और आचार सिखाकर , उनमे धर्म की भावना दृढ कर हम उनको धर्म के उस मार्ग में प्रवृत कर सकते है जिसमे चलकर मूक चंडाल ब्राह्मण और धर्म व्याध की तरह कोई भी चंडाल ब्राह्मण के योग्य हो सकता है |

इन कथाओ का यह आर्थ नही है कि हम अन्त्यजो के साथ भिजन या विवाह का सम्बन्ध करे | भोजन और विवाह का सम्बन्ध तो शास्त्र और लोकमर्यादा के अनुसार उन्ही विराद्रियो में ही हो सकता है जिनमे शास्त्र और लोकमर्यादा के अनुसार होता चला आया है | इसका यह भी अर्थ नही है की जो धर्मव्याध या मूक चंडाल के समान धर्मज्ञ और सदाचारी हो उनके हम सब विषयों में ब्रह्म्नोचित व्यवहार करे | ब्राह्मण के छ: कर्म है – अध्ययन – अध्यापन यजन याजन , दान और पतिग्रहदान देना और लेना | इन छ: कामो में अध्ययन , यजन और दान ये तीनो काम ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य सबमे समान है | अध्ययन – याजन और प्रतिग्रह वेद पढाना , यज्ञ करना और दान लेना , इन तीनो कामो के अधिकारी सामान्यतया ब्राह्मण ही है | “ विद्या तपचश्र योनिचश्र त्रय ब्राह्मणकरणम् “ अर्थात जिसमें विद्या , तपस्या और जन्म तीनो गुण हो वाही ब्राह्मण है | इन कथाओ का सार यह है कि जो चंडाल भी विद्वान् , ज्ञानवान और सदाचारी हो तो उसके जन्म्मात्र के कारन उसका अनादर न करे |

 

दिशा का अर्थ महत्त्व एवं फल

 

मनुष्य को पास से छूटने और पुण्य के मार्ग में ऊपर उठाने के लिये और धर्म , अर्थ , काम , मोक्ष चारो पदार्थो के सम्पादन करने के लिए शास्त्र के अनुसार दीक्षा ही एक परम साधन है | दीक्षा का विधान अन्त्यज पर्यन्त सभी सनातनधर्मियों के लिये आया है जिसके प्रभाव से अन्त्यज भी शुद्ध , पवित्र , सदाचारी और मानी हो सकता है | यह सब आगे प्रकरण से स्पष्ट हो जायगा |

 

“दीक्षामहत्त्व , मंत्रमाहातमय और दिक्षाकाल “

दीक्षा का अर्थ यो लिखा है ---

 

दीयते ज्ञानमत्यर्थ क्षीयते पाप्बंध्नात् |

                       अतो दिक्षेति देवेशि कथिता तत्त्वचिंतकै: ||           योगिनीतन्त्रे

 

दीक्षा के द्वारा मनुष्य को परम ज्ञान दिया जाता है और मनुष्य पाप के बंधन से छूटता है , हे पार्वती ! इसलिये तत्त्व के जानने वाले इसको दीक्षा कहते हैं | दुसरे स्थल में दीक्षा का महत्त्व इस प्रकार वर्णीत है -----

 

यस्य विज्ञानंमात्रेण देवत्त्व लभते नर: |

दिव्य ज्ञान यतो दधात् कुर्यात्पापक्षय तत: ||

त्स्माद्दीक्षेती स्म्प्रोत्का सर्वतन्त्रस्य सम्मता |

 

जिस दीक्षा के पाने मात्र से मनुष्य को ज्ञान होता है , जिस दीक्षा से दिव्य ज्ञान प्राप्त होता है और जिससे पाप का क्षय होता है , इसीलिये इसको दीक्षा कहते है , और सब तंत्रोंशास्त्रों का इस विषय में एक ही मत है |

शस्त्र कहता है –

 

भवेद्दीक्षाविहीनस्य न सिधिर्न च सद्गति: |

तस्मात्सर्वप्रयत्नेन गुरुना दीक्षितो भवेत् ||

 

स्कन्द पुराण में लिखा है की “ देवता लोग भी दीक्षा लेने को उत्सुक रहते है |” स्वमिकारत्तिकेय ने विश्वामित्रजी से नीचे लिखे शब्दो में दीक्षा मांगी |

 

त्त्कच्च माँ श्रुतिसन्सकारै: सर्वै: संस्कत्तुमर्हसि |

संस्काररहित जन्म यतचश्र पशुवत्स्म्रतम् ||

 

आप सब वेदों के संस्कारो से मेरा संस्कार करे | क्यंकि बिना संस्कार पाए मनुष्य का जीवन पशु के समान है |

आज कल दीक्षा देने का चलन बहुत कम हो गया है | और बहुत थोड़े ब्राह्मण बालको को शास्त्र के अनुसार गायत्री की दीक्षा दी जाती है | जिनको गायत्री की दीक्षा दी भी जाती है उनसे नियमानुसार वर्त का पालन नही कराया जाता | क्षत्रियो में दीक्षा का कर्म कही कही फैल रहा है | किन्तु हिन्दू जाती के कल्याण के लिए यह आवश्यक है की प्रत्येक हिन्दू सन्तान को दीक्षा दी जाय  |

   गायत्री की दीक्षा उन्ही बालको दी जाती है जिनकी शास्त्रानुकुल उपनयन संस्कार किया जाता है | धर्मरक्षा और प्रचार के लिए अत्यावश्यक है कि प्रत्येक हिन्दू – संतान को वह दीक्षा दी जाय जिसका विधान ब्राह्मण से लेकर चंडाल पर्यन्त समान हो |

मन्त्र मुत्कावली में लिखा है कि मंत्र की दीक्षा लेकर ही जप और देवता की पूजा करनी चाहिए |

 

जपो देवार्चनविधि: कार्यो दीक्षान्वितैनरै: |

 

जी बिना दीक्षा लिय अपना जीवन स्य्तित करता है , वह दुःख पाकर मोहन्धकार रूपी गढ्ढे में गिरता है , जैसे की स्वमिरहित मनुष्य की कोई रक्षा करने वाला नही होता है | उसका इस लोक में भी और परलोक में भी कोई रक्षक नही होता |

 

अथ दीक्षाविहीनो हि वत्र्तते भुवि पापभुक् |

मिहान्धकारे नरके गर्ते पतति दुख:ती: ||

अनीच्श्ररस्य मतर्यस्य नास्ति त्राता यथा भुवि |

                        तथा दीक्षाविहीनस्य नेह स्वामी परत्र च ||                 दत्तात्रेयामले

 

रुद्राध्याय में लिखा है कि जिस ब्राह्मण ने दीक्षा पाइ है वह अमृतमय ब्रह्मलोक को पहुचता है, वैश्य प्रजापतिलोक को पहुचता है और दीक्षा के फल से शूद्र गन्थर्वलोक को पहुचता है |

 

दीक्षितो ब्राह्मणों याति ब्रह्मलोक सुधामयम् |

ऐन्द्र लोक क्षत्रियोऽपि प्राजापत्यं विशस्तथा ||

                        याति गन्धर्वनगरं शुद्रो दीक्षाप्रसादत: |                   रूद्रयामले

 

वैष्णवतन्त्र ने लिखा है:----

 

यथा काच्ञनतां याति कास्य रसविधानत: |

तथा दीक्षाविधानेन व्दिजत्त्व जायते नृणाम् ||

 

      जैसा कासे पर रस का प्रयोग करने से वः सोना हो जाता है, वैसा ही दीक्षा लेने से मनुष्य व्दिजत्त्व को प्राप्त करता है |

    तन्त्रचिन्तामणि में लिखा है कि महाविधा के प्रभाव से शूद्र वैशयत्त्व को प्राप्त होता है | हे देवि ! शूद्र जाति प्रणव-पूर्वक मंत्र ग्रहण करे |

 

महाविधाप्रभावेण शूद्रो वैशयत्त्वमाप्नुयात् |

प्रणवाधं महेशानि ग्रिह्नियु शुद्रजातय: ||

 

नवरत्नेचश्र में आया है की किसी प्रकार की दीक्षा क्यों न हो , उसका फल  अवश्य अखण्ड मुक्ति है | मुक्स्ती तो बना विरोध के ही प्रसंगत हो जाती है ----

 

सर्वासामपि दिक्षणा मुक्ति: फलमखण्डित् |

अविरोधभद्वन्त्येव प्रस्डिगक्यस्तु मुक्तय: ||

 

दीक्षित मनुष्य का महत्त्व दिखाते हुए कुलार्णवतंत्र में आया है कि जैसे राजेंद्र से बिधा हुआ लोहा स्वर्ण बन जाता है , वैसे ही दीक्षा – विद्ध आत्मा शिवतत्व को प्राप्त होता है | मनुष्य दीक्षाग्नि से दग्धकर्म हो जाता है और बंधन – रहित हो जाता है | जीव भी भाव से रहित होकर शिव हो जाता है | जैसे शिवलिगड में देव बुद्धि छोड़कर पत्थर बुद्धि करने से मनुष्य पाप का भागी होता है , उसी प्रकार दीक्षित मनुष्य में उसकी पूर्वावस्था का खयाल क्लारने वाला मनुष्य भी पाप का भागी होता है ------

 

रसेंद्रेंण यथा विद्दमय: सुवार्नता वृजेत् |

दीक्षाविद्धस्तथैवात्मा शिवत्तंव लभते प्रिये ||

दीक्षाग्निग्धकर्मासौ पशाद्दिच्छिन्नबंधन: |

गतस्तस्य कर्मबंधो निर्जीवचश्र शिवो भवेत् ||

शिव्लिग्ड़े शिलाबुद्धि कुर्वन् यत्पापमाप्नुयात् |

दीक्षितस्यपि पुर्वत्त्व स्मरन् तत्पापमाप्नुयात् ||

 

शैवी दीक्षा का सर्वोत्तम मंत्र ‘ ॐ नम: शिवाय’ है | इसमें यह छ: अक्षर का मात्र है , किन्तु लोक में पंचाक्षर कहा जाता है | ‘ॐ नम: शिवाय’ का अर्थ है कि सरे जगत् की सृष्टि , पालन और संहार करने वाले परम मगडलस्वरूप परमात्मा को मै प्रणाम करता हू | इसके विषय के स्कन्द पुराण में लिखा है की शुद्र हो चाहे अन्त्यजादि हो , किन्तु शिव दीक्षा से युक्त होकर भक्ति पूर्वक यदि एक पुष्प शिवाजी के ऊपर षडक्षर मात्र से रखता है तो वह उस परम गाती को प्राप्त होता है , जिसे विधि पूर्वक यज्ञ करने वाले पाते है |

 

शुद्रो वा यदि वा विप्रो म्लेच्छो वा पाप्क्रिन्नर: |

शिवदीक्षासमोपेत: पुष्पमेंक तु यो न्यसेत् ||

षडक्षरेण मत्रेंण लिग्डस्योपरि भक्तित: |

स ता गतिमवाप्नोति यां यांतीह हि यज्विन: ||

 

शिवपुराण वायवीय सहिता के ऊतर भाग में ११वे अध्याय में शिवाजी ने अपने श्री मुख्य से श्री पार्वतीजी को उपदेश किया है कि ----

 

ब्रम्हाक्षत्रविशा देवि यतिना ब्रह्मचारणिम् |

तथैव वानप्रस्थाना गृहस्थाना च सुन्दरी ||

शुद्रणामथ नारीणा धर्म एष सनातन: |

ध्येयसत्त्वयाह सेवेशी सदा जाप्य: षडक्षर: ||

 

अर्थात हे देवि ! ब्राह्मण, क्षत्रिय,वैश्य ,याति ,ब्रह्माचारी , वानप्रस्थ , गृहस्थ , शुद्र और स्त्री सबो का ( सर्वमान्य ) यह सनातनधर्म है कि तुम्हारी मुक्ति से युक्त मेरी मूर्ति का ध्यान किया करे , और सदा ‘ ॐ नम; शिवाय’ इस षडक्षर मंत्र का जप किया करे |

शिवपुराण में उसी सहित के 12 वे अध्याय में लिखा है कि भगवन् श्री कृष्ण ने महर्षि उपमन्यु के कहा कि आप पंचाक्षर का महात्म्य मुझे सुनाइए | इस पर उपमन्तु जी बोले ------

 

पंचाश्रारस्य माहात्म्य वर्षकोटिशतैरपि |

अशक्य विस्तराव्दत्क्तु तस्मात्सक्षेपत: शृणु ||

 

पंचाक्षर मंत्र का महात्म्य करोड़ वर्ष में भी विस्तार के साथ कहना सम्भव नहीं है | इसलिये संक्षेप में सुनिए |

 

वेदे शिवागमे चायमुभयत्र षडक्षर: |

मंत्रस्थित: सदा मुख्यो लोके पंचाक्षर: स्मृत: ||

सर्वमंत्राधिकच्श्रायमोक्डाराध: षडक्षर: |

सर्वेषां शिवभत्क्तानामशेषार्थप्रसिद्धये ||

प्राहोनम: शिवायेति सर्वज्ञ: सर्वदेहिनाम् |

अन्त्यजो वाऽधमो वाऽपि मूर्खो वा पण्डितोऽपि वा ||

पंचाक्षरजपे निष्ठो मुच्यते पापपच्ञरात् |

इत्युक्त्त परमेशेन देव्या पृष्टेन शुमिना |

हिताय सर्वमतर्याना जनानामविशेषत: ||

 

   वेद और शैव आगम दोनों में यह छ: अक्षर का सदा से स्थित है, और सब मंत्रो में मुख्य है | श्लोक में यही पंचाक्षर के नाम से प्रसिद्ध है | ॐकार से युक्त यह मंत्र सब मंत्रो में बड़ा है | जिनको आदिदेव महादेव में भक्ति है, उनकी सब कामनाओ को पूरा करने वाला है | सर्वज्ञ शिवजी ने सब प्राणियों के सब अर्थो की सिद्धि के साधन ‘ॐ नम: शिवाय’ मंत्र को अपने श्रीमुख से कहा है जिसको सब लोगो सुख से उच्चारण कर सकते है | अन्त्यज या नीच, मुर्ख या पण्डित, जो भी पंचाक्षर मंत्र का जप नित्य श्रद्धा से करता है वह पाप के पंजर से छुट जाता है |

     परमेच्श्रर शिवाजी ने सब प्राणियों के हित के लिये पार्वतीजी के पूछने पर ऊपर लिखा वचन खा है|

 

शिव-पार्वती संवाद

 

इसका संक्षेप नीचे लिखते है | पर्वतीजीने शिवाजी से पूछा कि-----

 

कलौ कलुषिते काले दुर्जये दुरतिक्रमें |

अपुणयतमसाचछन्ने लोके धर्मपराड्मुखे ||

क्षीणे वर्णसदाचारे सक्डरे समुपस्थिते् |

सर्वाधिकारे सन्दिग्धे निच्श्रिते वा विपर्यये ||

तदोपदेशे विहिते गुरुशिष्ट क्रमेंगते |

केनोपायेन मुच्यन्ते भक्त्तास्तव महेव्श्रर ||

 

कलियुग में विकराल काल आने पर जब पापरूपी अन्धकार फैल जाय और लोग धर्म से विमुख हो जायँ और वर्णसंकर बढने लगे, जब सब लोगो को सभी धर्म विषयों पर सन्देह होने लगे, गुरु और शिष्य के क्रम से उपदेश देने का क्रम न रहे तो महेव्श्रर ! आपके भक्त किस उपाय से पाप से छुटते है ?

 

शिवाजी बोले

 

आश्रित्य परमा विधा दृश्या पंचाक्षरी मम |

भक्त्या च भावितात्मानो मुच्यन्ते कलिजा नरा: ||

मनोवाक्कायजैर्दोषैर्वक्त्तुं स्मर्तुमनोचरै: ||

दूषिताना कृतघ्नाना निर्दयाना खलात्मनाम् |

मम पंचाक्षरी विधा संसारभयतारिणी ||

मय्यैवमसकृछेवि प्रतिज्ञात धरातले |

पतितोऽपि विमुच्येत मभ्डक्त्तो विधयानया ||

 

        कलियुग में उत्पन्न प्राणी मेरी पंचाक्षरी विधि का आश्रम कर, अर्थात पंचाक्षर मंत्र कप नित्य श्रद्धा से जप करके और मेरी भक्ति से अपनी आत्मा को पवित्र करके पाप से छूट सकते है | मन से, वचन से और काया से किए हुए पापो से दुषित प्राणियों को, जिन पापो को मुख से वर्णन करना और जिनका स्मरण करना भी कठिन हो, जो किए हुए उपकार को नहीं मानते----ऐसे कृतघ्नो को और पापियों को, दया रहित क्रूर प्राणियों को और दृष्ट आत्माओ को, लोभियों को और कुटिल मन वालो को भी मेरा पंचाक्षर मंत्र संसार के सब डरो से दूर कर देता है, यदि वे मेंरी ओर अपनी आत्मा को झुकावे |

       हे देवि ! मैने पृथ्वी तल पर बार-बार प्रतिज्ञा-पूर्वक यही खा है कि यदि पतित भी हो तो इस मंत्र के व्दारा पाप से छूट जाता है |

 

अरुद्रो वा सरुद्रो वा सकृत्पचाक्षरेण य: |

पूज्यो वा पतितो वाऽपि मढो वा मुच्यते नर: ||

  षडक्षरेण वा देवि तथा पंचाक्षरेण वा |

सब्रह्मा्ग्डेण मां भक्त्या पूजयेधदि मुच्यते |

पतितोऽपतितो वापि मंत्रेणानेन पूजयेत् ||

 

      चाहे उसने शिव-मंत्र का उपदेश विधि से लिया हो चाहे न लिया हो, पतित हो वा मुर्ख हो, जो एक बार भी श्रद्धाभक्ति से पंचाक्षर का जप करता है वः पाप से छूट जाता है | हे देवि ! षडक्षर ‘ॐ नम: शिवाय’ से या ५ अक्षर ‘ॐ नम: शिवाय’ से जो भक्ति-पूर्वक मेरा पूजन करता है वह मुक्ति को पाता है | चाहे पतित हो या अपतित हो, सबको एस मंत्र से पूजन करना चाहिए | शिवाजी ने कहा है ------

 

किमत्र बहुनोंक्त्ते भक्ता: सर्वेऽधिकारिण: |

मम पंचाक्षरे मंत्रे तस्माच्छेष्ठतरो हि स: ||

 

अर्थात , इस विषय में बहुत कहने से क्या ? जिन प्राणियों को मुझमे भक्ति है वे सब इस पंचाक्षर मंत्र के जपने के अधिकारी हैं | इसीलिए यह सब मंत्रो में शेष्ठ है |

 

स्दाचार्विहीनस्य पतितस्यन्त्यजस्य च |

पंचाक्षारात्पर नास्ति परित्राणा कलौ युगों ||

अन्त्यज्स्यापी मुर्खस्य मूढ़स्य पतित्स्य च |

निर्मर्यादस्य नीचस्य मन्त्रोअय न च निष्फल: ||

सर्वावस्था गत्स्यापी मयि भक्तिमत: परम् |

सिद्धचत्येव न संदेहों नापरस्य तु कस्यचित् ||

 

अर्थात , सदाचार से विहीन जो पतित है , अर्थात सारे कुकर्म करने से या अपना धर्म छोड़कर किसी दुसरे मत को मान मेले के कारन जो धरम से गिर गया है , अथवा अन्त्यज है उसका इस कलियुग में पंचाक्षर से परे कोई रक्षा करनेवाला नही है | अनपढ़ अन्त्यज भी हो और दुबुद्धि पतित भी हो , जो सब मर्यादा से गिर गया हो और सब प्रकार से नीच हो , वह भी इस मंत्र को जपे तो उसका जपना निष्फल नही जाता | किसी भी अवस्था में किसी प्राणी का मुझसे भक्ति रखकर पंचाक्षर मंत्र जपना उसे सब पापो से छुडाता है और उसके लिए सब सुख का साधन बन जाता है | इनसब प्रकरणों से यह स्पष्ट है क्की ब्राह्मण से लेकर अन्त्यज पर्यन्त सभी सनातनधर्मानुयायी पुरुषो और स्त्रिओ को पंचाक्षर मंत्र जपने का अधिकार है , चाहे वह ॐ कर – सहित जपा या ॐ कर रहित |

 

मत भक्तो जितक्रोधो ह्यलब्धो लब्ध एव वा |

अल्ब्धालब्ध एवेह कोटिकोटिगुणाधिक: ||

तस्माल्ल्ब्धेव मा देवि मन्त्रेणानेन पुज्येत् |

लब्ध्वा स्म्पुजयेधस्तु मैत्रयादिगुणसंयुत: ||

ब्रह्मचर्यरतो भक्त्या मत्सादृश्यमवाप्नुयात् |

किमत्र बहुनोक्त्तेन भक्ता: सर्वेऽधिकारिण: ||

मम पंचाक्षरे मन्त्रे तस्माच्छेष्टतरो ही स: |

तस्मादनेन मन्त्रेण मनोवाक्काय भेदत: ||

आवयोरर्चनं कुर्याज्जपहोमादिकं तथा |

यदा कदापि वा भक्त्या यत्र कुत्रापि वा कृता ||

येन केनापि वा देवि ! पूज्य भुक्ति नयिष्यति |

मय्यासक्त्ते मनसा यत्कृत मम सुन्दरि ||

मत्प्रिय च शिवच्ञैव क्रमेणाप्यक्रमेण वा |

तथापि मम भक्ता ये चात्यन्त विवशा: पुन : ||

तेषामर्थेषु शास्त्रेषु मयैष नियम: कृत: |

 

      मंत्रग्रहण किए बिना पूजा करने की अपेक्षा मंत्र ग्रहण करके पूजा केना कोटि गुणा अधिक होता है | इस कारण हे देवि! मंत्र हो ग्रहण करके ही इस मंत्र से मेरी पूजा करे | मंत्र-दिक्षा लेकर सर्व सुहभ्दा वाला ब्रह्मचर्य व्रत में रत जो पुरुष भक्ति-पूर्वक मेरी पूजा करना है वह मेरे सदृश हो जाता है | इस पर अधिक क्या कहे | मेरे पंचाक्षर मंत्र का सभी भक्तो को अधिकार है | इसी कर्ण यह मंत्र सर्वश्रेष्ट है | अत: सबको चाहिए कि इस मंत्र से मन, वचन और कर्म से ह्म दोनों की पूजा और जप होमादी करे |

     हे देवि ! अपनी बुद्धि, श्रद्धा, काल, विचार, शक्ति, सम्पत्ति, यथायोग और अपनी प्रीति के अनुसार जब कभी, कही भी तथा किसी प्रकार भी भक्तिपूर्वक की हुई मेरी पूजा मुक्ति तक पहुचा देती है | हे देवि ! मुझमे आसक्त्त मनसे जो कुछ भी मेरा प्रिय और मंगल कार्यक्रम या अक्रम जिस किसी प्रकार किया जय वह सब मुक्ति देनेवाला होता है | हे देवि ! जिससे मेरे भक्त अत्यंत कठिनाई में भी रहकर मेरी पूजा कर सके, इससे उनके लिए शास्त्रों में मैने यह नियम किया है |

 

व्दादशाक्षर और अष्टाक्षर मंत्र

 

      इसी प्रकार विष्णुधर्मोत्तर में व्दादशाक्षर ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ और अष्टाक्षर ‘ॐ नमो नारायणाय’ ये मंत्र विशेषकर स्त्री तथा शुदो के लिये खे गए है , किन्तु ये मंत्र वडीजातियों के लिए भ कल्याण –कारक है | अर्थात चारो वर्णों को मंत्रो को जपना चाहिए |

 

एतत्प्रोक्त्त व्दिजातीना स्त्रीशूद्रेषु च यचछृणु |

व्दादशाष्टाक्षरौ मंत्रौ तेषा प्रोत्क्तौ महात्मनाम् ||

हितौ तौ च व्दिजातीना मंत्रश्रेष्ठौ नराधिप |

तेभ्योप्यधिकर्मत्रोऽपि विधते नहि कुत्रचित् ||

 

       नृसिह पुराण के ६२वे अध्याय में राजा सहस्त्रानीक ने

मार्कण्डेय ऋषि से पूछा कि वह पूजा की विधि बताईये कि जो सबके हित के लिए हो, अर्थात् जिसके अनुसार सब प्राणी विष्णु का पूजन कर सके | इसके उत्तर में मार्कण्डेयजी ने कहा -------

 

अष्टाक्षरेण मन्त्रेण नरसिहमनामयम् |

गन्धपुष्पादिभीर्नित्यमर्चयेडच्युत नर: ||

राजन्नष्टाक्षरो मंत्र: सर्वपापहर: पर: |

समस्त यज्ञफलद: सर्वशान्तिकर: शुभ: ||

 

       मनुष्य ‘ॐ नमो नारायणाय’ इस अष्टाक्षर मंत्र से विष्णु भगवान् नरसिह की पूजा करे | इसी से गन्ध पुष्पादि सोलहो उपचारों से पूजा करे |  

   हे राजन् ! यह अष्टाक्षर मंत्र सब पापो का हरनेवाला, सब यज्ञो के फल के देनेवाला, सब दुःख और दोषों की शान्ति करनेवाला है | उसी पुराण के १८वे अध्याय में लिखा है कि शुकदेवजी के ह प्रश्न करने पर कि किस मंत्र को जपता हुआ मनुष्य संसारसागर के दुःख से छुटकारा पाता है -----

भगवान् वेदव्यासजी ने कहा-----

 

    अष्टाक्षरं प्रवक्ष्यामि मंत्राणां मंत्रमुत्तमम् |

यं जपन्मुच्यते मत्र्यो जन्मसंसारबन्धनात् ||

एकान्ते निर्जेने स्थाने विष्ण्वग्रे वा जलान्तिके |

जपेडष्टाक्षरं मंत्र चित्ते विष्णु निधाय वै ||

 

          अष्टाक्षर मंत्र सब मंत्रो के उत्तम है | कोई मनुष्य हो, मत्र्य ही---जिसको एक दिन अवश्य मरना है ----इस मंत्र को जपकर जन्म और संसार के बन्धन से छुट जाता है | एकान्त में, निर्जन स्थान में, विष्णु के आगे वा नदी वा जल के पास भगवान् विष्णु को मन-मन्दिर में बिठाकर इस मंत्र को जपे |

    भगवन् के नाम अनन्त है | विष्णु सहस्त्र-नाम और शिव- सहस्त्र-नाम उन नामो को पूर्ण रूप से नहीं गिना सके | उनमे से किसी एक नाम को भी जो मनुष्य श्रद्धा-भक्ति से उच्चारण करे तो उसका सब प्रकार से मंगल होना | किन्तु जिस प्रकार से ईख का रस निकालकर कुज्जे में भर दिया जाता है ,उसी प्रकार जगत् का हित चाहने वाले ॠषियो ने कुछ मंत्र विशेष प्रकाश कर दिए है, जिसके जपने का अधिकार ब्राह्मणों से लेकर चाण्डाल तक को है | इस विषय को मैने ‘मंत्रमहिमा’ नामक छोटी पुस्तक में विस्तार से लिखा है, उसको मै निवेदन के साथ सम्मिलित करता हू , सज्जन वृन्द कृपाकर उसको देखे |

    इन मंत्रो की महिमा अति गम्भीर है मेरी भुत दिनों से यह प्रार्थना है कि ब्राह्मण से लेकर चाण्डाल पर्यन्त समस्त हिन्दू सन्तान इन मंत्रो की दीक्षा ले और उससे ऐहिक और परलौकिक लाभ उठावे |

     इन सब बातो को लेकर रुद्रयामल में आया है कि अनेक जन्मो की पुण्यराशी से मनुष्य दीक्षित होता है, उस पर भी अनेक पुण्यो का उदय होने पर शिव और विष्णु में परायण होता है |

 

अनेकजन्मपुण्यौघैर्दीक्षितो जायते नर: |

तत्राप्यनेकपुण्येन शिवविष्णुपरायण: ||

 

      दीक्षा में जो कर्तव्य किया जाता है वः सब मंत्र ग्रहण के लिये ही किया जाता है; उस मंत्र ग्रहण रूप दीक्षा का ही सब फल शास्त्रों में कहा गया है | अतएव शास्त्रों में मंत्रो की बड़ी उतकृष्ट महिमा पाई जाती है | मंत्र किसे कहते है, एस पर शास्त्रों में आया है कि जिसके मनन करने से विच्श्र का विशेष ज्ञान हो जाता है, संसार-बन्धन से रक्षा होती है और जिससे सिद्धि प्राप्त होती है, उसे मंत्र कहते है-------

 

मन्नाव्दिव्श्रविज्ञानं त्राणं संसारबन्धनात् |

                     यत: करोति ससिद्धि मंत्र इत्युच्यते तत: ||         पिग्डलामल |

 

मंत्र के महत्व के विषय में आया है कि मंत्र ही साक्षात् ईव्श्रर और महौषधि है | मंत्र से बढकर सिद्धि देनेवाला कोई नहीं है | साधको को सिद्धि देने के लिए देवताओ ने तत्तत्स्वरूप को धारण किया, परन्तु उन स्वरूपों में मंत्र का ही मुख्य स्वरूप है------

 

मंत्र: सर्वेव्श्रर: साक्षान्मंत्र एव महौषधम् |

न हि मंत्रात् पर कव्श्रित् सर्वसिद्धिप्रदायक: ||

साधकाना फल दातु त्त्तद्रूप धृतं सुरै: |

                         मुख्यस्वरूप तेषा तु मंत्रा एव न चेतरत ||                 मेरुतंत्र

 

मंत्र देनेवाले गुरु कैसे होने चाहिए , इस पर स्कन्द पुराण में लिखा है की गुरु निर्मल , साधू , स्वल्प बोलने वाले , काम क्रोधादि से रहित , जितेन्द्रिय और सदाचारी होने चाहिए | ऐसे गुरु से दिया हुआ मंत्र शीघ्र ही सिद्ध होता है -------

 

गुरवो निर्मला शांता: साधवो मितभाषिण: |

कामक्रोधविनिमुर्कता: सदाचार जितेन्द्रिया: ||

एतै: करुणयतो दत्तो मत्र: क्षिप्र प्रसिध्यति |

 

मंत्र ग्रहण एक प्रकार का धार्मिक व्रत धारण करना है | इस कारन मन्त्र लेने वाले शिष्य को कैसे होना चाहिए , इस पर भविष्य पुराण में लिखा है ---------

 

क्षमा सत्य दया दान शौचमिन्द्रियनिग्रह: |

देव्पुजग्निहवन सन्तोष: स्तेय्वर्जनम् |

                   सर्वव्रतेषवय धर्म सामान्यो द्शाधा स्थित: ||     भविष्य पु० |

 

अर्थात , व्रत धारण करने वाले शिष्य को अनानादी से शुद्ध , सत्य , दया, क्षमा, दान , जितेन्द्रिय , अग्नि में हवन , देवपूजन , सनतोष , और चोरी न करना , इन दस धर्मो का पालन करना चाहिए | महर्षि देवल का कहना है की  किसी भी बाट के लिए वर्त धारण करनेवाले को ब्रह्मचर्य , अहिंसा, सत्य और मांस का परित्याग , इन चार बातो का पालन सदा करना चाहिए --------

 

ब्रह्मचारीमहिंसा च सत्यमामिषवर्जनम् |

व्रतेषवेतानि च्त्त्वारि  चरितव्यनि नित्यशः ||

 

शिवपुराण में लिखा है कि चारो वर्णों को मघ का और मघ की गन्ध का त्याग करना भी आवश्यक है |

 

मघस्य मघग्न्धस्य वर्जन सामान्य सर्ववर्णानांम् |

 

इस प्रकार शास्त्रानुसार गुरु और शिष्य्भाव से सम्पन्न होकर रात्रि में उपवास करके मंत्रदीक्षा लेनी चाहिए | यघपि शैव वैष्णवादि का भेद लेकर एव अधिकारी और उद्देश्य का हेड लेकर मंत्र अनेक प्रकार के है , और उनकी दीक्षा के लिए लगन , मुहूर्त , वार , योगादि की शुधि अपेक्षित होती है , तथा अधिकारी भेद से मंत्रदीक्षा की अनेक विधिय भी है , तथापि शारीरिक और मानसिक शुद्धी के लिए संस्कार के रूप में शैव और वैष्णवादी मुख्य दो तिन प्रकार के ही भेद मने जाते है , और गुरु देश और भावना विशेष के कारन मंत्रदीक्षा के सरल और सर्वहित नियम भी शास्त्रों में देखे जाते है | इस कारन गुरु , शिष्य , तिथि और स्थान विशेष के महत्त्व का विचार कर किसी भी अनुकूल अवसर पर मंत्रदीक्षा ली जा सकती है | योगिनी तन्त्र में आया है कि जब भगवान् की महापूजा का दिन हो , चतुर्दशी हो , अष्टमी , पंचमी या चतुर्थी हो तो उस दिन दीक्षा कायर्य हो सकता है | क्यंकि ये सब तिथिया शुभ देने वाली कही गयी है ---

 

 मन्वन्तरासु सर्वासु महापूजा दिने तथा |

चतुर्थी पंचमी चैव चतुर्दश्य्ष्टिमी तथा ||

.............”तिथय: शुभदा: प्रोक्ता:”|

 

एव पुराण और तन्त्र ग्रन्थो में यह वचन भी आया है कि जिस दिन गुरु मंत्रदीक्षा देने के लिए प्रसन्न हो जाय उस दिन सभी वार , ग्रह , नक्षत्र और राशि शुभ हो जाते है ------

 

सर्वे वारा ग्रहा: सर्वे नक्षत्राणि च राशय: |

यस्मिनन्हनि सन्तुष्टो गुरु: सर्वे शुभावहा: ||

 

          योगिनीतन्त्र में यह भी आया है कि ग्रहण और महतीर्थो के काल-निर्णय की आवश्यकता नही होती है ------

 

ग्रहणे च महतीर्थे नास्ति कालस्य निर्णय: |

 

इतना ही नहीं, किन्तु दिक्षातत्त्व में यह भी वर्णन आया है कि गुरु की आज्ञा के अनुरूप जब इच्छा हो तभी दीक्षा हो सकती है और  जब भी स्वेच्छा से सद्गुरु मिल जाय तभी दीक्षा ली जा सकती है | उस दशा में तिथि, वार, व्रत, होम, स्नान, जपादि क्रियाओ की प्रबल कारणता भी नहीं रहती है -------

 

यदैवेच्छा तदा दीक्षा गुरोराज्ञानुरूपत: |

न तिथिर्न व्रतं होमो न स्नान न जप: क्रिया |

दीक्षाया: कारणं कीच्ञित् स्वेच्छयाप्ते तु सदगुरौ ||

 

        इन सब बातो को विचारकर इस वर्ष सनातनधर्म महासभा ने महाराज दरभंगा के सभापतित्त्व में महाशिवरात्रि के पुण्य अवसर पर अन्त्यज पर्यन्त समस्य वर्णाश्रम धर्मी हिन्द-सन्तान को, जिन्होंने अब तक किसी मंत्र की दीक्षा न ली हो, शैव पंचाक्षर से मंत्रदीक्षा देने का पस्ताव पास किया है, इसलिए कि उसके द्वारा हिन्दू-सन्तान में बल, विधा, बुद्धि और सद्भाव की वृद्धि हो | फाल्गुन मास के दीक्षा के फल में भी आया है कि फाल्गुन मास में दीक्षा लेने से बुद्धि की वृद्धि होती है----

 

माघे भवेन्मेधा विवर्धनम् |

फाल्गुनेऽपि विवृद्धि: स्यात् ||

अगस्त्यसंहिता |

        दीक्षा के लिए सर्वोत्तम स्थानों का निर्देश करते हुए योगिनितंत्र में आया है कि मंत्रज्ञ पुरुष गोशाला, गुरुगृह, देवमंदिर, स्वच्छ जग्डल, तीर्थ क्षेत्रादि पुण्य स्थान, बाग-बगीचे, नदी का स्वच्छ किनारा, आवले और बेल के वृक्ष के निकट, पर्वतों की सुंन्दर गुफाओ के समीप और गंगतट पर मंत्रदीक्षा दे | क्योकि दीक्षा  के लिये ये सब स्थान उत्तम होते है | इनमे भी गंगा का तट करोड़ो गुण वाला होता है---


गोशालायां गुरोर्गेहे देवागारे च कानने |

पुण्यक्षेत्रे तथोधाने नदीतीरे च मंत्रवित् ||

धात्रीबिल्वसमीपे च पर्वताग्रे गुफासु च |

गग्डायास्तु तटे वापि कोटिकोटि गुण भवेत् ||

 

 दीक्षा लेने की विधि

 

    दीक्षा लेने की साधारण और सरल विधि यह है कि गुरु पूर्व रात्रि में ब्रह्मचर्य-पूर्वक उपवास करे | अगले दिन प्रात:काल शैाच-स्नानादि से शुद्ध होकर दीक्षा के पवित्र स्थान में जावे | वह पर सब दिक्षार्थी उपवास और स्नानादि से शूद्ध होकर दीक्षा ले |जो गुरु असमथ्र्य या कारण विशेष से रात्रि में उपवास न कर सके, वे हविष्यान्न ग्रहण कर सकते है | नारद पंचरात्र में आया है कि मंत्र देनेवाले गुरु पहले दिन उपवास करे | यदि उपवास न कर सके तो हविष्यान्न, अर्थात् नारियल का फल दधि, घी, गौ का शुद्ध दूध, केला, आँवला आदि, अथवा चावल, जैा,मूंग की दाल, टिल आदि हविष्यान्न ग्रहण करे |

 

दधान्मंत्र गुरु: स्वच्छ शिष्य भक्तिसमन्वितंम् |

उपोष्यैकदिन पूर्व यद्वा भुक्त्वा हविष्यकम् ||

 

इस प्रकार गुरु और शिष्य शुद्ध होकर दीक्षा होकर दीक्षा-स्थान में जावे और वहा पर गुरु पूर्व की और मुख करके तथा शिष्य उत्तर की ओर मुख करके बैठे |

 

स्नात्त्वा तु निर्मले तोये पूर्वास्य सुस्थमानस: |

                              शिष्टच्ञोदड्मुखस्थच्ञ..........||                   नारद पंचरात्र|

 

    इसके बाद आचमन से शुद्ध होकर जिस मंत्र की दीक्षा देनी हो उसके मुख्य देवता को गुरु नमस्कार करे | शिव-मंत्र की दीक्षा देने के लिये शिवाजी को और विष्णु-मंत्र की दीक्षा के लिये विष्णु को नमस्कार करे | फिर मंत्र लेने वाले शिष्य के कानो में तिने बार मंत्र सुनाकर माथे पर हाथ रखकर शास्त्र-निर्दिष्ट शैव और वैष्णवं मंत्र की दीक्षा देनी चाहिए | शिवपुराण में सर्वोपयोगी एसी ही सरल विधि का वर्णन मिलना है | 

    इस प्रकार मंत्र लेकर शिष्य गुरु को प्रणाम करे और गुरु अपने शिष्य को अहिसा, चोरी न करना, शैाच, ब्रह्मचर्य, इन्द्रिय-जय, सदाचार, जुवा न खेलना, मध-माँस का त्याग, दम, दया, सन्तोष, नम्रता, ज्ञान, ईश्वर भक्ति, देव, गुरु और धर्म में दृढ भक्ति, उधम, उत्साह और परोपकारादी व्रत के पालन का उपदेश करे | अन्त में शिष्य को यह आशीर्वाद दे, “हे शिष्य! तुम सदाचारी रहो | तुम्हे सदा कीर्ति, श्री, कान्ति, मेध, आयु, आरोग्य और बल की प्राप्ति हो |”

उतिष्ठ वत्स मुक्तोऽसि समयगाचारवान् भव |

                      कीर्ति श्री कान्ति मेधायुर्बलारोग्यं सदास्तु ते ||           क्रियासंग्रह |

 

इस प्रकार मंत्र-दीक्षा लेकर नित्य प्रात:काल स्नानादि से शुद्ध होकर भगवान् को नमस्कार करके १०८ बार मंत्र का जप करना चाहिए | सूर्य में स्थित परमेव्श्रर का ध्यान करना और अध्र्य देना चाहिए |

पुराणों में मंत्रो की महिमा बड़े विस्तार के साथ वर्णित है | पंचाक्षर के महत्त्व की एक अत्यन्त मनोहर कथा स्कन्दपुराण के ब्रह्मखण्ड में इस प्रकार आई है कि मथुरा में दाशार्ह नाम का एक यदु रजा था | काशिराज की कलावती नाम की कन्या उसकी धर्मपत्नी थी | जब रजा ने उसे अपने पास बुलाया तो कलावती उसके पास नहीं आई और कहा कि तुम अशुद्ध ओ, मधपान करते हो, नित्य स्नान नहीं करते हो , वेश्यागामी हो, इस कर्ण मुझे छूने का साहस मत करो, और यह भी खा कि जब स्त्री अप्रसन्न हो, रोगिणी, गर्भवती तथा व्रतवाली हो तब उसे नहीं छूना चाहिए | कलावती की इतनी धर्मयुक्त बाते सुनने पर भी राजा ने अपने हठ नहीं छोड़ा और अपने भार्या को पकड़कर खीचना चाहा | ज्योही राजा ने उसे छुआ तो रजा को उसका शरीर अग्नि के समान जलता हुआ मालूम पड़ने लगा | तब आच्श्रर्य और भय के साथ राजा ने पूछा कि तुम्हारा शरीर जलता क्यों है ? उत्तर में रानी ने कहा कि बचपन में दुर्वासा ॠषि के दयाभाव  से मुझे पंचाक्षर मंत्र की दीक्षा मिली थी | उसी का यह प्रभाव है कि कोई अपवित्र पुरुष मुझको छु नहीं सकता है | यह सुनकर राजा ने शुद्ध और पवित्र जीवन बिताने के लिए रानी कलावती से मंत्रदीक्षा माँगी |रानी ने कहा कि आप मेरे गुरु है, इस कर्ण मै आपको मंत्रोपदेश नहीं कर सकती | किन्तु आप मंत्र जानने वाले गर्ग मुनि से दीक्षा ले | रजा ने वैसा ही किया और मंत्रदीक्षा लेंते ही रजा के सब पाप ऐसे निकल भागे जैसे हजारो कौवे उड़ चले हो | इसके उपरांत राजा स्त्री सहित गुरु को प्रणाम करके अपने घर चला गया और स्त्री-पुरुष दोनों ने धार्मिक जीवन यापन कर परम सुख प्राप्त किया | इन शास्त्रीय विधानों के द्वारा समस्त असस्कृत हिन्दू-सन्तान को विशेषकर अन्त्यज भाईयो को शुद्ध और धर्मप्रमी बनाना प्रत्येक सनातनधर्म का कर्तव्य है |

 

(२)

भक्ति की महिमा

 

इस बाट को कहने की आवश्यकता नहीं है कि हरएक विचारशील हिन्दू मानता है या मान लेना कि अन्त्यजो का उद्धार करना सारा हिन्दू जाति का धर्म है | इसके दो कर्ण है | एक यह कि वे हमारी परम आवश्यक और उपकारी सेवा सरते है, इसलिय उनका उपकार करना हमारा धर्म है | दुसरे यह कि वे हमारे धर्मी है |जिस सनातनधर्म को हम मानते है, उसी को वे भी मानते है | बहुत-सा क्लेश सहने पर भी उनकी श्रद्धा आज तक इस धर्म में बनी है | वे हमारे है | हमारा सनातनधर्म हमको उन दिन भाइयो के द्धार केने का उपदेश करता है और उसका उत्तम और सरल मार्ग बतलाता है, वः भक्ति का मार्ग है | नारदजी का वचन है ------

 

सत्यादित्रियुगे बोधवैरागयौ मुक्तिसाधकौ |

कलौ तु केवला भक्तिर्ब्रह्मसायुज्यकारिणी ||

 

सतयुग, त्रेता, द्वापर में ज्ञान और वैराग्य मोक्ष के देनेवाले होते है | कलियुग में तो केवल भक्ति ही भजनेवाले को भगवान् से मिला देती है | नारदजी ने भक्ति के प्रति कहा है--------

 

तत्व तु भक्ति प्रिया तस्य स्त्त प्राणतोअधिका |

त्त्व्यहुत्स्तु भगवान् याति नीचगृहश्वपि ||

कलीना सदृश: कोअपि युगों नास्ति वरानने |

त्सिम्स्त्तवा स्थापयिश्यमी गेहे गेहे जाने जाने ||

अन्य धर्मास्तिरसकृतय पुरस्कृतय म्होत्सवान् |

तदा नाह ह्रेद्रसो लोके त्त्वान्न प्रवत्तरये ||

त्त्वद्न्विताचश्र ये जीवा भविष्यन्ति क्लाविह |

पपिनोअपी गमिष्यन्ति निर्ह्भ्य कृष्णमन्दिरम् ||

येषा चीते वसेभ्दक्ति: सर्वदा प्रेमरूपीणी |

न ते नश्यन्ति कीनाश स्वप्नेअप्यमलमुत्तरये: ||

                पद्मपुराण , भागवत माहात्म्य  

 

हे भक्ति ! तुम तो भगवान् की प्यारी हो , सदा उनको प्राण से भी अधिक प्रिय हो | तुम्हारे बुलाने से भगवन नीचों के घर भी चले जाते है | हे सुमुखी ! कलि के समान कोई दूसरा युग नही है | इसमें मै तुमको घर घर , प्राणी प्राणी के ह्रदय में बैठाऊँगा |

दुसरे धर्मो को अलग रख , महोत्सवो में आगे रख , मै तुमको संसार में न फैला दूँ तो मै हरी का दास नही | इस कलयुग में जिन प्राणयो की भगवन ने भक्ति होगी , वे पापी भी क्यों न हो , निर्भय होकर कृष्णमंदिर को – वैकुण्ठ को जावेगे | जिनके चित में प्रेमरूपी भक्ति सदा बसेगी वे विलं मुक्ति स्वप्न में भी यमराज को नही देखेंगे | भगवन ने अपने श्रीमुख से कहा है -----

 

अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभक् |

साधुरेव स मंतव्य:  सम्यक व्यवसितो ही स: ||

क्षिप्र भवति धर्मत्या शचश्रच्छानति निगच्छति |

कौन्तेय प्रतिजानीहि न में भक्त: प्राणश्यति ||

 

कोई कैसे भी दुराचारी क्यों न हो , जो मुझको अनन्य बाव से भजता है , उसको मानो कि वह साधु ही है | उसने अच्छा निचश्रय किया है | वह शीघ्र ही धर्मात्मा होता है और सदा ठहरने वाली शान्ति को पाता है | हे अर्जुन ! मै तमसे प्रतिज्ञा करके कहता हूँ कि मेरे भक्त का भला ही होता है , बुरा नही होता |

 

श्रध्दावन्तो मत्परमा भक्तातिव में प्रिया; |

 

श्रध्दावान् मत्परायन भक्त मुझको अत्यंत प्रिय है | इसी अभिप्राय को गोस्वामी तुलसीदासजी ने अपने ललित गंभीर श्ब्धो में कहा है -------

 

भक्तिवंत आती नीचहु प्रानी | मोहि प्राण सम प्रिय मम बानी ||

भक्तिविही विरचि किन होई | सब जीवन सम प्रिय मोहि सोई ||

 

अन्त्यजो के उधार करने का यही अर्वोत्तं मार्ग है कि हम उनको श्रध्दावान भगवभद्त्त्क बनने में सहायता दे | भक्ति साधन के अनेक मार्ग बताए गए है | उनमे से मै विशेष कर दो उपायों को सामान्य मनुष्यों के लिए विशष उपकारी मानता हूँ | एक कीर्त्तन , अर्थात नामस्मरण , दूसरा भगवन की मूर्ति का दर्शन | नाम का स्मरण सामान्य से सामान्य प्राणी के लिए भी सरल बाट है , किन्तु बड़े फल का देने वाला है | मंस्म्रण की महिमा इसीलिए है की “ यतस्तद्दिष्या मति:” नाम के स्मरण से मनुष्य की मति ईश्रर को ओर ही जाती है | उनके गुणों के स्मरण से मनुष्य के दोष और पाप छूत जाते है | और मान पवित्र तथा प्रकाशमान होता है | आजामील की कथा प्रसिद्ध है | वह कितना बड़ा पापी था तो भी ‘नारायण ‘ उच्चारण करने से वह सब पापो से छुट गया |

 

सर्वेषामप्यधवतामिदमेव सुनिश्कृतम् |

नाम व्याहरण विष्णोर्यतसतद्दिष्या मति: ||

 

सब पापियों के लिए यह उत्तम प्रायश्रित है की वे भगवन का नाम जपे जिससे कि उनके मान में भगवन की भावना जागे | अन्यत्र लिखा है ------

 

नामसकडीत्तन विष्णो: सर्वपापप्राणाशनम् |

 

 

             प्राणामो दुःखशमनस्त नमामि हरि परम् ||        भगवते |

 


 

नामस्मरण से चंडाल श्रपाक भी पवित्र हो जाता है | इस बात को माता देवहूति जी ने बड़े प्रेम से भरे ऊचे स्वर से कहा है -----

 

 

 

यन्नामधेयश्रवणाभिधानात् यत्प्रह्वणात् यत्स्मरणाद्पि क्वचित् |

श्रादोऽपि सघ: स्वनाय कल्पते कुत: पुनस्ते भागव्न्नु दर्शनात् ||

अहो बत श्रचपचोऽतो गरीयान य्ज्जिह्वाग्रे वतर्तते नाम तुभ्यंम् |

तेपुस्तपसते जुहुवु: स्स्नुरार्या गृहणन्ति ये तो ||

 

भगवन ! जो आपके नमो के श्रवण से वा कीर्तन से या आपको नमस्कार करने से अथवा कभी आपका स्मरण से साक्षात् , हो तो वह भी सोम्योग करने वाले पुरुषो के समान आदर के योग्य हो जाता है , तो हे भगवन ! आपको दर्शन करने की महिमा को मै क्या कहू | आहा हा , हे परमेश्वर | वह चंडाल इसीलिए शेष्ट है कि उसकी जिह्वा पर आपका नाम रहता है | जो लोग आपके नाम का कीर्तन करते है , वे श्रेष्ट पुरुष सब ताप कर चुके , सब हवन कर चुके , सब तिथो में स्थान कर चुके और उन्होंने सब वेदों का पठान पठान कर लिया | क्योकि सब पुण्यफल आपको नाम के कीर्तन से प्राप्त हो जाते है | पदमपुराण में लिखा है ------

 

तीर्थीनाच्च पर तीर्थ कृष्णनाम मह्र्षय: |

तीर्थीकुर्वन्ति जगती गृहीत कृषणनाम यै: ||

तीर्थाद्प्यधिक तीर्थ विष्णोर्भजनमुच्यते |

तस्मात् भधंव मनुय: कृष्ण परममगडलम् ||

मुर्ख वा पण्डित वाऽपि ब्राह्मण केशव प्रियम् |

श्रपाक वा मोचयति नारायण: स्वय प्रभु: ||

विष्णुभक्ति विना नृणा पपिष्ठाना विशाम्वर |

उपायों नास्तिक नास्त्यान्य: संततु नरकाम्भुधिम् ||

प्रतिमच्च हरेदृरष्टवा सर्वतीथरफल लभेत |

विष्णुनाम पर जप्त्त्वा सर्व मंत्रफल लभेत ||

पुल्कस: श्रपचो वापी ये चान्ये म्लेच्छजातय: |

तेअपी वन्धा महाभागा हरिपादेकसेवका: ||

किम्पुंनब्राह्मणा पुण्य भक्ता राजर्षयस्तथा |

 

इन सब वचनों से स्पष्ट है की भवन्नाम जपने से पुल्कस और श्रपच भी आदर के योग्य हो जाते है |

 

हरेरर्ग सवनेरुच्चेनृत्यस्तन्नामकृन्नर: |

 

 

पुनाति भुवन विप्रा: गडादिस्लिल यथा ||

दर्शनत्स्पर्शनात्तस्य आलापद्पी भक्तित: |

ब्रह्महत्यादिभिपरापैमर्चयते नात्र संशय: ||

एषा मुखे हरेनाम ह्रदि विष्णु: सनातन |

उदरे विष्णुनैवेध स श्रपाकोऽपि वैष्णव: ||

यस्य नाम महापाप राशि दहित सत्त्वरम् |

तदीयचरण वन्दे भक्तिर्यस्त स वैष्णव: ||

 

इन सब वचनों से यह सार निकलता है की जो श्रध्दावान भक्त है , वह चंडाल या श्रपच भी क्यों न हो , यदि यह  श्रध्दाभक्तिपूर्वक  देवदर्शन की अभिलाषा से मंदिर में जावे तो उसके देखने से , उसके बोलने से और उसके स्पर्श करने से किसी प्राणी को भी दोष नही प्राप्त हो सकता , वरन पुण्य ही प्राप्त हो सकता है |

 

( ३ )

अन्त्यजों का देवदर्शन

 

पिछले प्रकरण में यह दिखा दिया गया है कि अन्त्यजो को संस्कार के रूप में शिव या वैष्णव किसी सम्प्रदाय की मंत्रदीक्षा लेने का अधिकार है | अब इस प्रकरण में यह बाट प्रकट ही जाती है की मंत्रदीक्षा के प्रभाव से शुद्ध और सदाचारी मदिरा मांस- त्यागी , भक्तिभाव से अम्न्वित अन्त्यजो को देवदर्शन का अधिकार है या नही ? इस बाट को स्पष्ट करने के लिए पुराणों का पर्यालोचन सहायक होगा | क्योकि वेदों में प्रचलित देवपूजन का अदिखर , महात्मा और उसकी विधि स्पष्ट रूप से देखने में नही आती है | वेदों में केवल अग्नि , इन्द्र , विष्णु , रूद्र , आदि नामो से देवताओ का वर्णन पाया जाता है | इसके बाद मनवादी प्राचीन स्मृतियो में देवपूजन के अतिरिक्त रूप में इस बाट की कुछ भी चर्चा नही आई है | इसके बाद की अनेक स्मृतियो में अंशत: कुछ कुछ वर्णन पाया जाता है | महात्मा , फल और अधिकारादी समस्त बातो को लेकर पुराण और महाभारतादि ग्रन्थो में ही संगोपान पूर्ण वर्णन मिलता है | इससे सिद्ध है की वर्तमान काल में जितने भी तीर्थ , मंदिर और जी कोई भी पुण्य – स्थान है उनका प्रचार पुराणों में ही प्रतिपादित है न की मनवादी जैसी प्राचीन स्मृतियो में | यधपि पुराणों में वैदिक मत और वैदिक विधान भी पाए जाते है , एव श्रुति और स्मृति के कथित बहुत से निषेध प्रकरण पाए जाते है , तथापि पुराणों का दर्जा स्मृतियों से कम नही माना गया है यही बाट है की  श्रीशंकराचर्या जैसे प्राचीन धर्मोचरयो ने महाभारत और पुराणादि वाक्यों को स्म्रितिवाक्य के रूप में माना है | वर्तमान समय में अनातनधर्मियों के अन्दर जितना भी किर्यातमक धर्म विद्वान है उसका सबसे अधिक श्रेय पुराणों को ही है | पुराण सदा पंचम वेद के रूप में मानी है | पंचदशी में आया है की नारदजी में पंचम वेदरूप को पढ़ा था – “ स पुराणान पंच्वेदन “ | उत्तर्मीमनसा में आया है की इतिहास और पुराण वेद्मुलक है –“तस्मात्समूलमितिहासपुराणम्”  , महाभारत में तो पुराणों की महत्ता के विषय में बहुत कुछ वर्णन मिलता है | अनुशासन पूर्व में आया है कि पुराण , मंवासी स्मृति , अंग सहित वेद और चिकित्साशास्त्र , ये सब इधर की आज्ञा से सिद्ध है | इस कारण कुतर्क से इनका हनन नही करना चाहिए |

 

पुराण मानवों धर्म: साग्डो वेदच्श्रिचिकित्सितम् |

आज्ञासिद्धानि चत्त्वारि न ह्न्तव्यानि हेतुभि: ||

 

महाभारत के प्रारम्भ में ही यह लिखा है कि व्यास जी ने  अट्ठारह पुराणों के बनाने के बाद उनके उपबृंहणस्वरूप महाभारत को बनाया |

 

अष्टादश पुराणानि कृत्वा सत्यवतीसुत: |

 

इनके बाद आदिपर्व में यह वर्णन भी आया है कि इतिहास और पुराण से वेदों की वृद्धि करनी चहिए----“इतिहास पुराणाभ्या वेद समुपृबृंहयेत्” |

इसी प्रकार मनु, याज्ञवल्क्य, व्यासादि स्मृतियों में पुराणों को धर्म के विषय में वेद की तरह बड़े महत्व का स्थान दिया गया है | याज्ञवल्क्य में लिखा है कि पुराण, न्याय, मीमाँसादि चौदह, विधाएँ धर्म के स्थान है-----

 

पुराणन्यायमीमाँसा धर्मशास्त्रग्डमिश्रिता: |

वेदा: स्थानानि विधना धम्मस्य च चतुरर्दश ||

 

छान्दोग्य उपनिषद् के सप्तम अध्याय के प्रथम खण्ड में नारद और सनत्कुमार के संवाद में पुराणों को स्पष्ट रूप से पाँचवाँ वेद खा है | “इतिहास पुराण: पच्ञमो वेदाना वेद:” | धर्म के विषय में पुराणों के इन सब महत्त्वो को लेकर ही महाभारत के आदिपर्व में यह लिखा है कि पुराणों की पुण्य कथाएँ धर्म और अर्थ को देनेवाली होती है----“पुराणसंश्रिता: पुण्या: कथा धर्म्मार्थ संश्रिता:” | श्रुति-स्मृति-प्रतिपादित सुश्र्म धर्म का भी विस्तार पुराणों ने सरल और स्पष्ट कर दिया है | जहाँ साधारण रूप से स्मृति ग्रन्थो में यह आया है कि चाण्डालादी शूद्र जाति को विशिष्ट धर्मादिक उपदेश नहीं देना चाहिए, वहाँ उसी बात को पुराणों में इस प्रकार दिखाया गया है कि यधपि साधारण प्रकार से जैसे व्दिज जाती का बालक उपनयन के पूर्व वेदादि के अध्ययन का अधिकार नहीं रहता है, किन्तु उपन्यनादी संस्कार से संस्कृत और गायत्र्यादि के मंत्र से दिक्षित हो जाने पर उन बातो का अधिकारी हो जाता है, वैसे ही चाण्डालादी अन्त्यज साधारणत: बहुत अंश में सम्मानित नहीं रहता है, किन्तु जब उसको अहिंसा, सत्य, अस्तेय, शौचादी का उपदेश मिल जाता है , और जब वह शैव वैष्णवादि मंत्रो से दीक्षित ह जाता है, तथा मध, मॉस और जुए का परित्याग करके नित्य स्नानादि क्रिया से पवित्र होकर भक्ति-भाव से युक्त होता है तो वह भी समाज में सम्मान का पात्र होकर देवदर्शन, कूप, पाठशाला, तीर्थ, व्रत, उत्सव और कथा पुराण श्रवणादि सामाजिक सर्वसाधारण कार्यो में भाग लेने का पूर्ण अधिकारी हो सकता है | यह पुराणों के विधानों से ही स्पष्ट हो जाता है | इसके निर्णय के लिए पुराणों से बढकर दूसरा कोई भी साधन नजर नहीं आता है | पुराणों में अनेक कथाएँ एसी आई है कि जो चाण्डालादी अन्त्यजो के देव-दर्शन और पूजन से ही विशेष सम्बन्ध रखती है, जिससे यह मालूम होता है कि देव-दर्शन करने से किसी भी अन्त्यज की इहलोक और परलोक में कभी भी दुर्गति नहीं हुई बल्कि सर्वोत्तम गति ही हुई | इस विषय पर स्कन्द्पुराण में बहुत सी कथाएँ इस प्रकार आई है -----

 

नन्दी वैश्य की कथा

 

      स्कन्दपुराण के महेव्श्रर खण्ड में केदारखण्ड के पाँचवे अध्याय में आया है कि पूर्व समय में एक नन्दी नाम का वैश्य अवन्ती नगर में रहता था | वह प्रतिदिन प्रात: तपोबन के एक शिवलिग्ड की बड़ी विधि से पूजा करता था और अनेक प्रकार के फल-फूल मणि-माणिक्य चढाता था | इस प्रकार नन्दी ने वर्षो तक रुद्राभिषेक और शिवार्चन किया | इसी अवसर पर उस घोर जंगल में घूमना हुआ अविवेकी, भूतहिंसक, पापरत एक शिकारी किरात (चाण्डाल जाति) अकस्मात् उस स्थान पर आ पहुचा | वह बहुत प्यासा था, इस कारण पानी ढूँढ़ रहा था | इतने में उसने एक तालाब देखा और उसमे प्रवेश कर, कुल्ला करके पानी पिया | तालाब के सामने ही अभ्दुत शिव मन्दिर को देखा और उसमे अनेक रत्नों से अलग अलग पूजित शिवलिग्ड को देखकर पूजा में चडी हुई रत्नादि सामग्री को बटोर कर इधर उधर कर दिया | पास में पात्र न होने के कारण किसी प्रकार मुह में भरे हुए जल से ही शिवलिग्ड को स्नान कराकर एक हाथ से बिल्बपत्र और दुसरे हाथ से मृगमाँस चढाया तथा दण्डप्रणाम करके मन में यह सकल्प किया कि हे शक्डरजी! आज से मै सावधान होकर पूजा करुगा | आज से तुम मेरे स्वामी हो और मै तुम्हारा भक्त हूँ | इसी प्रकार नियमबद्ध होकर किरात अपने घर चला आया |

     इसके बाद हर रोज की तरह जब नन्दी पूजा करने आया तो उसने वहाँ का वह सब किरात का कार्य्य देखा | यह देखकर नन्दी बहुत चिन्तित हुआ और सोचने लगा कि यह सब कार्य विघ्न सूचित कर रहा है | न जाने कैान दोष हो गया है | जान पड़ता है कि मेरे दुर्भाग्य से ही यह विध्न आ गया है | इस प्रकार्र बहुत विचार कर शिवमंदिर को धोकर अपने घर लौट गया |

घर में नन्दी को दुखी देखकर उसके ओउरिहित ने पूछा कि आप क्यों उदासीन है ? नन्दी ने पुरोहित से सब कथा कह सुनाई | तब पुरोहित ने कहा की इसमें सन्देह नही है की जिसने रत्नादि सामग्री को इधर –उधर फेका है , वह कार्य और अकार्य को न जानने वाला मुर्ख ही था | किन्तु आप तनिक भी चिंता न करे | मेरे साथ प्रात: शिवमंदिर चले, मै उस मुर्ख ही था | किन्तु आप तनिक भी चिंता न करे | मेरे साथ प्रात: शिब्मंदिर चले , मै उस दुष्ट को देखूंगा | यह सुनकर नन्दी दुखित मान से घर में बैठा रहा , और जब रात्रि बीती तो प्रोहित के साथ शिवालय को चला गया | वहा पर उसने विधि विधान के साथ नाना रत्नों से शिव की पूजा की और ब्राह्मणों के साथ दोपहर तक शिवजी जी स्तुति की | इतने में हाथ में धनुष लिए वह बली , महाप्रतापी “महाकाल “ नमक किरात आ पहुचा | किरात को देखते ही नन्दी दर कर विलाप करने लगा और ब्राह्मण भी भयभीत हो गया | तब वह किरात नि:संकोच होकर पहले की तरह सब सामग्री हटाकर शिवजी को बिल्वपत्र , नैवेध और फल चदकर दण्डवत प्रणाम करके घर चला गया |

यह सब देखकर नन्दी पुरोहित – सहित शोक से व्याकुल हो गया | नन्दी को अपनी रत्नमय सामग्री के आगे एक दिन गरीब पत्र पुष्पवाली पूजा अभ्व्य लगी और उसने विघ्नों की आकांशा होने लगी | इस कारन उस ने बहुत से वेदज्ञ ब्राह्मणों को बुलाया और कुल घटना सुना दि | नन्दी को अति शक्ति देखकर सब विप्रो ने यह निश्चय किया कि इस विध्न को देवता भी नही रोक सकते , इस कारन तुम लिग्ड को घर ले चलो | यह सुनकर नन्दी शिवलिग्ड को उखाड़ कर घर में गया और स्वर्ण पीठ में विधि पूर्वक स्थापिक कर अनेक प्रकार के उपचारों से उसकी पूजा की | इसके उपरांत जब दुसरे दिन किरात शिवमंदिर में आया तो उसने देखा की मंदिर में शिव्लिग्द नही है तो वह एकाएक चुप हो गया और एक गंभीर करुण क्रन्दर के साथ भगवन शंकर की प्राथना इस प्रकार करने लगा की हे शम्भो ! कहा चले गए हो | आज मुझे दर्शन दो | यदि मै तुम्हारा दर्शन न कर सका तो निश्चय आज मै आपका शरीर छोड़ दूँगा | हे शम्भो ! हे जगनाथ ! हे त्रिपुरान्तक प्रभो ! हे रूद्र और महादेव ! अपने आप मुझे दर्शन दो |

 

हे शम्भो हे जगन्नाथ त्रिपुरांतकर प्रभो |

हे रूद्र हे महादेव दर्शयात्मान्मत्मना ||

 

इस प्रकार मधुर वाक्यों से शिव को पुकार कर उस वीर किरात ने आपका पेट फाड़ा , फिर बाहुओ को ठोककर क्रोध से बोलने लगा की शम्भो ! मुझे दर्शन दो , मुझे चोद्द्कर कहा जाते हो ?

इस प्रकार क्रोध से शिव जी पुकार मचाकर शरीर से मास और आंत को काटकर शिवलिग्द वाले गड्डे में चडाने लगा | फिर कुछ देर बाद स्वस्थचित होकर उसके पास के तालाब में देर तक स्नान किया और उसी भांति शीघ्र ही जल तथा बिल्वपत्र लाकर उससे जैसा बन पढता था , वैसा शिवपूजन कर वहा पर शिव के ध्यान में मगन होकर भूमि में दण्ड के समान गिर गया |

यह सब हो जाने के बाद वहा पर कपूर के समान गौरवर्ण और जटाजूटधारी चन्द्रशेखर भगवन संकर अपने गणों के साथ प्रकट हुए . और उस दिन , किन्तु परम भक्त किरात को हाथ से पढ़कर आश्रासन देते हुए शिवजी कहने लगे कि हे महात्मे और ऊचे विचारवाले वीर ! मेरे भक्त हो , तुम्हे जो अच्छा लगे वह मांगो | भगवन शंकर के यह कहने पर वह महाकाल नाम की किरात प्रसन्न होकर परम भक्ति के साथ भूमि में दण्ड के समान गिर गया | इसके अनन्तर भगवन शंकर से बोला की वरदान के विषय में आप से मेरी यह प्राथना है की हे शंकर ! इसमें सन्देह नही है कि मै आपका दास हुन्न और आप मेरे स्वामी है | आप जन्म जन्मान्तर में आपकी भक्ति दीजिय | तुम माता पिता , भाई बन्धु , मित्र , गुरु , महामंत्र और सदा मंत्र्वेध कारन तीनो लोको में आप से बढ़कर दूसरा कुछ भी नही है |

महाकाल किरात की इन सब निश्क्मा बातो को सुनकर आशुतोष भगवन शंकर के तुरन्त ही उसे आपकी सभा का मुख्या और द्वारपाल का पद दे दिया | उस समय चारो ओर से भरी . डमरू , दुन्दुभी और शंख का नाद होने लगा | संसार में चारो ओर ध्वनि फैल गयी |

उस समय के हर्षनाद को सुनकर आति आश्रचर्य के साथ नन्दी शीघ्र ही उस तपोवन में गया , जहा पर अपने प्रथम गणों के सहित भगवान शंकर विराजमान थे | नन्दी ने वहा पर किरात को बड़े ध्यान से देखा और आश्रचर्ययुक्त होकर बड़ी नर्मता के साथ उससे खा कि हे परंतप! तुम भक्त हो , तुमने परम समाधि से शुभ को यहाँ बुलाया है |मै तुम्हारा भक्त होकर यहाँ आया हूँ | मेरे विषय में शंकर जी से निवेदन कर दो |

नन्दी की इस बाट को सुनकर वह दयालु किरात जल्दी से नन्दी को अपने हाथ में लेकर शंकर जी के पास गया | इतने में भगवन शंकर ने किरात से हंसकर कहा की रूद्रगणों के समीप तुम किसको ले आय हो ? किरात ने कहा , भक्तवत्सल भगवन ! यह नित्यप्रति आपकी पूजा करनेवाला , नन्दी नाम का वैश्य है , इसको आप मेरा मित्र समझे| क्योकि यह अनेक पुष्प , धन , धान्य और नाना प्रकार के रत्नों से तथा आपके जीवन से भी आपकी पूजा करता था |

यह सुनकर शिवजी ने कहा --- “ हे महामते” ! महाकाल ! मै नन्दी वैश्य को नही जनता , तुम मेरे भक्त हो और सखा हो | जो मनुष्य उपधिरहित है और जो उदार मान कि भगवन ! मै तुम्हारा भक्त हूँ और नन्दी मेरा हितैषी है | भगवन के किरात की यह विनती सुन ली और उन दोनों को आपना और ईश्वर की पूजा के द्वारा महाप्रभाव वाले उस श्रेष्ट किरात ने एक वैश्य का उद्धार किया |

इसी अध्याय के पहले इस प्रकार का वर्णन मिलता है की अच्छे आचार विचार वाले जो वर्णश्रमि ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य और शुद्र मुरुमुख से उपदेश पाकर शिवपूजा में लगे रहते है और विध को शिवमय देखते है तथा इसी प्रकार जी कोई भी पुरुष एव चाण्डाल भी शिवपूजक हो तो वः शम्भु का अत्यन्त प्रिय होता है |

    इसी खण्ड के तैतीसवे अध्याय में आया है कि किसी पुल्कस (अन्त्यज) ने प्रसंगवश शिवपूजा की, उसने अविनाशी शिव को पाया, तो फिर जो मनुष्य श्रद्धा, भक्ति के साथ शिव रूप परमात्मा के लिए पत्र, पुष्प, फल, चन्दनादी चढाते है, उसके फल के विषय में कहना ही क्या है, वे तो इस संसार के रूद्र के ही समान होते है, इसमे सन्देह नहीं | स्वल्पबुद्धिवाले ‘चण्ड’ नामक पुल्कस ने प्रसंगवश शिवपूजा की तो उसका जीवन सफल हो गया | फिर आगे चलकर तिरानबेवे श्लोक में यह वर्णन आया है कि भगवान् शंकर के प्रसाद से व्श्रपच भी वरिष्ट (मान्य) होता है | इस कारण प्रयत्न से शंकर की पूजा करनी चाहिए |

    इसी अध्याय के तिरासिवे श्लोक में इस प्रकार की कथा आई है कि किसी चच्ञला ब्राह्मणी के अधर्म कर्म से एक चाण्डाल पैदा हुआ | वः अत्यन्त पापी, सुरापी, चोर, ठग, शिकारी, धर्मरहित और अत्यन्त दुष्टात्मा था | वह एक समय शिवरात्रि के अवसर पर शिवालय में गया, और शिव के पास उसके उपवास रक्खा | उसको स्वयम्भु लिग्ड रुपी भगवान् शंकर के समीप ही अकस्मात् मौके- मौके पर शिवशास्त्र भी श्रवण हो गया | इन सब कामो के फ्लो से वह चाण्डाल पुण्ययोनि को प्राप्त हुआ |

     इसी महेशखण्ड में केदारखण्ड के आठवे अध्याय के एक सौ सोलहवें श्लोक में यह विधान आया है कि स्त्री, शूद्र और व्श्रपचादि अन्त्यज जो कोई भी लिग्ड रुपी सदाशिव की पूजा केते है, वे सर्व-दुःख-विनाशक उस शिव को प्राप्त करते ही है |

    इसी के आगे यह भी वर्णन आया है कि मनुष्य क्या पशु भी किसी प्रकार दर्शनदि करने से परम स्थान को चले गए----“पशवोऽपि परं याता: कि पुनर्मानुषादय:” || आगे इसी खण्ड के इकतिसवे अध्याय में यह वर्णन मिलता है कि गिरी लोग (पर्वताधिष्ठातृ देवता) कहते है कि हे शम्भो ! हम तुम्हे नमस्कार करते है, ह्म आपकी शरण में आए है | तुमने अपने दर्शन से व्श्रपचो को वरिष्ठ (मान्य) किया है | एक जगंह इसी अध्याय में भगवान् शंकर धर्मराज से कहते है |

 

बहुना जन्मनामन्ते मयि भावोऽनुवर्तते |

प्राणिना सर्वभावेन जन्माभ्यासेन भो यम ||

तस्मात्सुकृतिन: सर्वे येषा भावोऽनुवर्तते |

जन्मजन्मानुवृत्तानां विस्मय नैव कारयेत् ||

स्त्री बाल शुद्रा: व्श्रपचाधमाच् प्राग्जन्मसंस्कारवशाद्धि धर्म |

योनि गता: पापिषु वर्तमानास्तथापि शुद्धा मनुजा भवन्ति ||

 

    अर्थत् हे यम् ! प्राणियों को जन्म-जन्मान्तर के अध्याय से अनेक जन्म वाले सभी प्राणियों को पुन्यात्मा समझना चाहिए | इस विषय में थोडा भी आच्श्रर्य न करना चाहिए | हे धर्मराज ! यधपि मनुष्य पूर्वजन्म के कर्मानुसार स्त्री, बाल, शुद्र, व्श्रपच या अधम से भी अधम योनि में पहुचा जाता है, और पाप-कर्मो में विधमान रहता है, फिर भी मुझमे भाव रखने वाले ऐसे प्राणी शुद्ध मनुष्य होता है, अर्थात उन्हें अशुद्ध या घृणित नहीं समझना चहिए | इस खण्ड के उन्नीसवे अध्याय में लोमशजी ब्रह्मणों से कहते है कि शिवभक्ति में लगे हुए मुक, अंध, पंगु, अज्ञानी और अन्त्यज जाति के चाण्डाल तथा व्श्रपचादि कोई भी हो, वे सब परम गति को जाते है | इस कारण सब मनुष्यो को सदा शिव की पूजा करनी चहिए |

         केदारखण्ड के इकतीसवे अध्याय में स्वामी कार्तिकेय को शिव का ही स्वरूप बताते हुए यह वर्णन आया है कि सत्यशील, शान्त, दानी, वेद-वेदाग-पारंगत, धर्मनिष्ठ, जितेन्द्रिय, रागव्देषरहित और निर्लोभी याज्ञिक लोग जिस उत्तम गति को प्राप्त करते है, उसी गति ही हे शम्भो ! आपका दर्शन करने वाले अधम व्श्रपच भी प्राप्त करते है | इसी बाट को व्ही पर फिर सत्ताइसवे श्लोक में भी खा है-----

 

कुमारदर्शनात्सर्वे व्श्रपचा अपि यन्ति वै |

सद्गति त्त्वरितेनैव कि क्रियते मयाऽधुना ||

 

कर्म-चाण्डाल की कथा

 

इस कथा में जाती-चाण्डाल की अपेक्षा कर्म-चाण्डाल को अधम दिखाया गया है | इस कथा से यह बाट स्पष्ट हो जाता है कि जाति-चाण्डाल के देवदर्शन और पूजनादि से देव-विग्रह में वैसा दोष नहीं होता है जैसा कि कुछ लोग समझते है, किन्तु कर्म चाण्डाल चाहे किसी भी ऊँची जाति का क्यों न हो | यह कत्था स्कन्द महापुराण के ब्रह्मखण्ड के धर्मारण्य के सत्ताइसवे अध्याय के गोवात्स्तीर्थ के महात्म्य प्रकरण में इस प्रकार आई है कि देवताओ ने गोवत्सतीर्थ में एक प्राचीन शिवलिग्ड की स्थापना की | स्थापना के बाद वह लिग्ड प्रतिदिन बढने लगा | इस प्रकार की वृद्धि देखकर देवताओ को भय होने लगा | इतने में आकाशवाणी के रूप में यह शिववाणी हुई कि “आप लोग बिलकुल भय न करे, किन्तु किसी चाण्डाल को लाकर उसे मेरे सामने स्थापित करे|” यह सुनकर देवता लोगो ने भी वैसा ही किया, किन्तु इस पर भी शिवलिंग्ड की वृद्धि में कमी नही हुई, कारण कि देवता लोगो को यहा मालूम नही था कि यहा पर किसी प्रकार का चाण्डाल विवक्षित है, इस कारण वे लोग जाति चाण्डाल को ले आए |

    इसके बाद पुन: यह आकाशवाणी हुई कि देवता लोगो में जो कर्म- चाण्डाल हो उसे मेरे आगे लाओ | यह सुनकर देवताओ को अति आच्श्रर्य हुआ और किसी कर्मचाण्डाल को नगर तथा गाँवो में खोजने लगे | इतने में उन्हें पापकर्म में रत और अपने को ब्रह्मण बताने वाला मनुष्य मिला | वः ब्राह्मण भूखे, प्यासे, दुर्बल लोग शिवजी के आगे ले आए | देवली के आगे आते ही वः कर्म-चाण्डाल भस्म हो गया, तब से उस जगह का नाम चाण्डाल स्थल पड़ गया | उसी समय शिवलिग्ड वृद्धि को छोडकर अपने अव्रूप में आ गया |

इसी ब्रह्मखण्ड के ब्रहमोतर खण्ड में आया है कि शिवभक्तियुक्त चंडाल , पुल्कस , स्त्री , पुरुष , नपुसक चाहे जो कोई भी हो वह संसार के बंधन में छूट जाता है | भक्ति के आगे कुल, आचार , शील और गुणों से क्या , यदि मनुष्य शम्भु की भक्ति से युक्त है तो वह सब देहधारियो का बंध होता है |

 

शबर की कथा

 

 जिसकी जैसी भावना और श्रद्धा होती है उसको वैसा फल अवश्य मिलता है , इस विषय को लेकर इसी ब्रह्मोत्त्र खण्ड के सत्रहवे अध्याय में सूतजी ने ॠषियो से शबरी की कथा कहीं है | शास्त्र से चंडाल जाति का ही एक भेद शबर जाति मानी जाती है | वह कथा इस प्रकर है की पच्चल के रजा का सिहकेतु नाम का एक पुत्र था | वह क्षात्रधर्म में तत्पर और सर्व गुणों से युक्त था | एक समे वह राजकुमार कुछ नौकरों को साध लेकर जीव जन्तुओ से भरे हुए जंगल में शिकार खलने गया | शिकार के लिए वान में घूमते हुए उसके किसी “ शबर “ नौकर ने जीर्ण , टूटे टूटे और गिरे हुए एक देवालय को देखा |

उसने उस मंदिर में गिरे हुए आधारपीठ के ऊपर अपने मूर्तिमय भाग्य के समान एक सीधा और सूक्ष्म शिवलिग्द देखा |

अपने पूर्वजन्म के शुभ कर्मो से प्रेरित होकर उस शबर ने तुरन्त ही शिवलिग्द को लेकर राजपुत्र को दिखाया और कहने लगा कि स्वामिन ! देखिये , यह कैसा मनोहर लिग्ड है ! मैंने इसको देखा है , इस कारन मै अपने विभव के अनुसार आदर से इसकी पूजा करूँगा | मुझे इसकी पूजा – विधि बताइए , क्योकि भगवन महेश्रर तो मंत्रज्ञ और बिना मत्रज्ञ सभी के पूजने पर प्रसन्न हो जाते है |

निषाद के इस प्रकार पूजा विधि पूछने पर हसी करने में चतुर उस राजकुमार ने हसकर पूजा की यह साधारण विधि कही की संकल्प लेकर शुद्ध और ताजे पानी से स्नान करके पवित्र आसन और बैठकर सुन्दर गन्ध , पत्र , पुष्प , धुप और दीप से शिव की पूजा करे | भगवन शंकर चिता भस्मधारी है | अत: पूजा के उपरांत चिताभस्म उपहार देवे और अपने भोज्य अन्न का नैवेध चड़ावे , फिर धूप दिपदि समग्री चडावे , यथा शक्ति गाना बजाना और नृत्य भी करे | इसके बाद भगवान् को नमस्कार करके प्रसाद धारण करे | साधारण रूप में तमसे पूजा विधि कह दि है | भगवन शंकर चिताभ्स्य से शीघ्र संतुष्ट हो जाते है ------

 

इति तेन निषादें पृष्ट पार्थीवन्दन: |

प्रत्युवाच प्रह्स्येन परिहासविचक्षण: ||

सडकल्पेन सदा कुर्यादभिषेक न्वम्भसा |

उप्वेश्यसने शुद्रे शुभेर्गन्धाक्षतैन्रवै: ||

 

सूतजी कहते है की रजा ने हसी के साथ यह पूजा का उपदेश दिया और चंद नाम के शबर ने रजा के वचनों को नतमसतक होकर धारण किया |

इसके बाद वह शबर अपने घर चले आने पर भी प्रतिदिन लिग्डमूर्ति महेश्रर की पूजा करता था | और पूजा में राजकुमार के उपदेशानुसार धूप , दीप , नैवेध , गन्ध , अक्षत , पुष्प और चिताभस्य का उपहार चढाया करता था | इस प्रकार अपनी स्त्री के साथ भक्ति – पूर्वक शिवपूजन करते हुए उसके कुछ वर्ष सुख के साथ बीते |

किन्तु राजकुमार ने शिवपूजा के उपहार में चिताभस्य देने पर विषय जोर दिया था | एक दिन ऐसा हुआ कि जब शबर शिवपूजा के लिए प्रवृत हुआ है चिताभस्म से पूर्ण पात्र में जरा भी भस्म नही दिखाई दि | इस पर उसने इधर उधर बहुत खोज की | जब उसे भस्म नही मिली तो वह थक कर घर चला आया | उसने अपनी स्त्री को बुलाया और कहा की आज मुझे चिताभस्म नही मिली | हे प्रिय! बताओ, अब मै क्या करू? मालुम पढ़ता है मुझ पापी की शिवपूजा में विध्न आ गया है | जो कुछ हो , परन्तु मै पूजा के बिना क्षण भर भी जीवित रहने का उत्साह नही कर सकता | क्या करू , पूजा सामग्री के लुप्त होने पर कोई नही सूझ रहा है | समस्त अर्थ को देनेवाला गुरु का आदेश भी नष्ट नही होना चाहिए | आर्थ भस्म नष्ट हो गयी है | उसके बिना पूजा करू तो गुरु का उपदेश बाधित होता है | अपने पति को इस प्रकार याकुल देखकर शबर की स्त्री बोली कि पतिदेव ! डर मत करो , मै उपाय से चिताभस्म मिल जायगी |” इस पर शबर ने कहा कि शारीर ही धर्म , अर्थ , कम और मोक्ष का साधन है | इस नवयोवन वाले शरीर को क्यों छोड़ती हो ? तुम्हारे संतान भी नही है , फिर क्यों इसे जलाना चाहती हो ? पति को ऊतर देती हुई वह स्त्री बोली कि जो कोई दुसरे के लिए प्राणत्याग करता है उसका हिवन की सफलता के विषय में कहना ही क्या है ! क्या मैंने पूर्व जन्म में घेर ताप किया है , दान दिया है , क्या मैंने सौकड़ो पूर्व जन्मो में शम्भु का अर्चन किया है , क्या मेरे पिता का कुछ भी पुण्य है , क्या मेरे जन्म से माता की कुछ भी कृतार्थता है ? यदि ये सब बाते होती तो यह दुःखद दशा न होती | अत: मै भगवान शंकर के लिए प्रदीप्त अग्नि में शरीर छोड़ दूंगी |

अपनी पतनी का दृढ निच्श्रय और शंकर में भक्ति देखकर शबर ने भी दृढ संकल्प होकर शिव की पूजा की | शबर की स्त्री अपने पति के पास जाकर स्नान से शुद्ध और आभूषणों से अलकृत होकर, घर में अग्नि लगाकर भक्ति से घर की प्रदक्षिणा, अपने गुरु को नमस्कार और हृदय में शिव का ध्यान करके अग्नि में प्रव्वेश करने के लिये तैयार होती हुई हाथ जोडकर यह विनती करने लगी-------

 

पुष्पाणि सन्तु त्व देव ममेन्द्रियाणि धूपोऽगुरुर्वपुरिदं हृदय प्रदीप: |

प्राणा हवीषि करणानि तवाक्षताच्श्र पूजाफल व्रजतु सम्प्रत्मेष जीव: ||

वाञ्छामि नाहमपि सर्वधनाधिपत्य न स्वर्गभूमिमचला न पद विधातु: |

भुयो भवामि यदि जन्मनि जन्मनि स्या त्त्वत्पादपक्डजलसन्मकरन्दभृग्डी ||

जन्मनि सन्तु मम देव श्ताधिकानी माया न में विशतु चितमबोधहेतु: |

किच्चित्क्षणाधर्मपि ते चरणरविनदान्नापैतु में ह्रदयमीश नमो नमस्ते ||

 

अर्थात हे देव ! मेरी इन्द्रिया तुम्हारे लिए पुष्प हो , यह शरीर अगुरु धूप के रूप में हो जाय , ह्रदय प्रदीप हो , प्राण हविष हो और कर्मेन्द्रिया अक्षत हो जाय | इस प्रकार की पूजा के फल को अब यह जिव प्राप्त होवे | मै सम्पूर्ण धन का मालिक होना नही चाहती , स्थिर सर्वर्गभूमि और ब्रह्मा का पद भी नही चाहती , किन्तु मै यही चाहती हूँ की यदि मेरा पुर्नजन्म हो तो उसमे मै तुम्हारे प्द्कलम में शुशुभित प्राग को चाहने वाली भ्रमरि बनू| हे देव ! चाहे मेरे सैकड़ो जन्म हो , किन्तु उन जन्मो में मेरे चित के अन्दर अज्ञान को पैदा करने वाली माया प्रवेश ना करे , और हे ईश ! मेरा चित आधे क्षण के लिए भी तुम्हारे चरणारविन्द से अलग ना हो “ बस , आपको नमस्कार है |

इस प्रकार शंकर को प्रसन्न करके दृढ संकल्प वाली शबरी जलती हुई अग्नि में कूद पड़ी और क्षण भर से भष्म हो गयी | इधर शबर को भी शिवपूजन के आगे संसार का कुछ पता नही था | वह जले हुए घर के पास पूजा कर रहा था | उसे चिताभस्म भी मिल गयी | पूजा करने के बाद प्रसाद लेते समे शबर को प्रतिदिन नम्रता के साथ हाथ जोड़ कर प्रसाद लेने के लिए आने वाली अपनी स्त्री का स्मरण हुआ | स्मरण के साथ ही उसने पीछे खड़ी अपनी स्त्री को देखा और घर को भी फेले की तरह ज्यो का तयो देखा | यह सब देख कर शबर को बड़ा आश्चर्य हुआ | वह सोचने लगा की यह स्वप्न तो नही है , अथवा माया तो नही है | सन्देह – निनृति के लिए स्त्री से पूछना लगा की अग्नि में भस्म होने पर भी  तुम कैसे आ गयी और यह माकन कैसे खड़ा हो गया ?

उत्तर में वह बोली की जब मैंने घर जला कर अग्नि में प्रवेश करा तो मुझे अपना कुछ भी खयाल नही रहा और ना अग्नि का ही अनुभव हुआ | मुझे बिलकुल भी ताप नही मालूम हुआ | मुझे ऐसा जान पड़ा जैसे मैंने जाल में प्रवेश किया हो | मै क्षण भर से सुषुपति जैसी अवस्था में पढ़ गयी , इतने में मैंने घर को बिना जले के समान देखा | इस समय देव पूजा के बाद प्रसाद लेने आई हू |

भगवन भक्तो की परीक्षा के लिए अनेक माया रचा करते है | सुधामा के मुट्ठी भर तणडुल के भक्षण के ही भगवन ने ही उसका जीवन पलट दिया था | इसे चमत्कार मय रहस्यों से हमारा धर्मिक साहित्य भरा पड़ा है | युँही बाट इस शबर की कथा में समझनी चाहिए | इसके बाद उस दम्पति के सन्मुख एक सुन्दर दिव्य विमान आ पंहुचा | उसमे शिव के चार अनुचर भी थे | उन लोगो ने शबर और शबरी का हाथ पकड़ कर उन्हें विमान पर बैठा लिया देव दूतो के करो का स्पर्श होते ही वे दम्पति शिव के सारुप्य को प्राप्त हो गये | यह सब कथा सुना कर सुत जी कहते है -------

 

तस्माच्छुध्दव सर्वेषु विधेया पुण्यकर्मसु |

निचोऽपि शबर: प्राय श्रध्दया योगिना गतिम ||

की जन्मा सकलवर्णजनोंत्त्मेन |

कि विद्या सकलशस्त्रविचारव्त्या ||

यस्यास्ति चेतसि सदा परमेशभक्ति: |

कोऽन्यस्ततस्त्रिभुवने पुरुषोऽस्ति धन्य: ||

 

अर्थात , सब पुण्य – कर्मो में श्रध्दा अवश्य करनी चाहिए | श्रध्दाके प्रभाव से ही नीच शबर भी योग्यो की गति को प्राप्त हो गया | सबमे उचे वर्ण और जन्म से क्या ? समस्त शतर में विचार वाली विद्या से क्या ? जिसके ह्रदय में परमेश्वर

के प्रति अटूट भक्ति होती है उसके बढ़ कर इस संसार में और कोन  धन्य हो सकता है ?

आगे चल कर काशी खण्ड में लिखा है की तुलसीदल से शाली ग्राम की पूजा करने वाला ब्राह्मण , श्त्रिये , वैश्य शुद्र , अन्तत्यजादी , चाहे कोई भी , वह देवताओ के यहाँ “पारिजात “ की माला से पूजा जाता है | विष्णु भक्ति से युक्त इसे मनुष्य को विष्णु का भक्त और सर्वश्रेष्ठ समझना चाहिए |  

 

शालिग्रामशिला येन पूजिता तुलसीदलै: |

स पारिजातमलाभि: पूज्यते सुरसदमनी ||

ब्राह्मण: क्षत्रियो वैश्य: शुद्रो वा यदि वेतर: |

विष्णुभक्तिसमायुक्तो ज्ञेय: सर्वोत्तमचश्र स: ||

 

काशीखण्ड के ब्यासिवे अद्याय में ‘विरेश म्हालिग्द’ के आविभार्व की कथा के प्रशंग में यह वर्णन आया है की “ मित्र जित “ नाम के रजा के राज्य में अन्त्यज भी वैष्णवी दीक्षा प्राप कर के शंखचक्रादी से विहीनत थे और वे लोग यग्य में दीक्षित के समान हो गये , अर्थात दीक्षित की समान पवित्र आचरण हो गये |

प्राचीन काल में चंडाल प्रयत्न अन्त्ज्य मात्र को तिरत – यात्रा करने का पूर्ण आधिकार था | इस विषय पर काशीखण्ड के अठटान्वेवे अध्याय में महा देव जी “ महानंद “ नाम के ब्राह्मण की कथा में विष्णु से कहते है की महा नन्द नाम का कोई ब्राह्मण काशी में रहता था | फेले वे बड़ा शान्त और सदा चारी था कुछ काल के बाद विवाह हुआ | उसकी स्त्री स्दाचारनी नही थी | उसके संसर्ग से वह ब्राह्मण भी पतित और भ्रष्ट चारी हो गया | इसी अवसर पर पर्वत प्रान्त से एक धनी चंडाल आया | उसने “ चकर “ नाम के तलाब में स्नान कर के यह घोषणा की कि मै धन देना चाहता हू , जाती का चंडाल हू | कोई प्रतिग्रह लेने वाला हो तो उसे धन दूँगा |

यह घोषणा सुन कर ऊँगली के इशारे से ब्राह्मण को दिखा कर कहा की यही तुमसे प्रतिग्रह लेना | यह सुन कर वह अन्त्यज उस ब्राह्मण के पास क्या और दंडवत – प्रणाम कर के कहने लगा की हे महाब्राह्मण ! मेरा उधार करो | मेरी तीर्थ यात्रा सफल करो , मेरे पास कुछ वास्तु है , अनुग्रह के सत्न उससे ग्रहण करो |

इस प्रकार महाब्राह्मण ने अन्त्ज्य से सब धन देने को कहा | चंडाल ने भी कहा की कोई चिंता नही ,में जितना धन लाया हूँ , उससे आपको दे दूँगा | आप मेरे लिए विश्वनाथ के सामान है , क्यंकि जो मनुष्य दुसरे का उधार करते है , दुसरे के इच्छा पूरी करते है और प्रुपकर शील है , वे विश्वेश के अंश ही है |

इस प्रकार ब्राह्मण की प्प्रथ्ना स्वीकार कर के चंडाल “ विश्वेश: प्रियता “ कह कर विश्वेश की बुद्धि से ब्राह्मण को सब धन दे कर घर लौट गया |

आसत प्रतिग्रह के कारन ब्रह्मण को अधम योनि प्राप्त हुई | उस लोगो में उससे अपमानित भी होना पढ़ा |पीछे काशी में मरने के कारन वह मुक्त हो गया | किन्तु तीर्थ यात्रा और दान करने वाले चंडाल का विरोध किसी ने नही किया , उसने प्रसंता – पूर्वक तीर्थ यात्रा की | इन प्रकरणों से यह पता लगता है की पूर्व काल ने अन्त्यजो के लिए तीर्थ यात्रा की कुछ रोक – टोक नही थी |

आगे चल कर अन्त्य्खंड में यह वर्णन आया है की महा देव जी पारवती जी से खाते है अवन्तय में मुक्तिश्वर से दर्शन से एक अन्त्यज जाती का व्याध मुक्ति को प्राप्त हुआ था | यह कथा इस प्रकार है ---- शिवजी बोले की हे पारवती ! मुक्तिश्वर के दर्शन मात्र से मुक्ति हो जाती है |

 

‘यस्य दर्शनमात्रेण मुक्तिर्भवति पार्वति |’

 

पहले रथन्तर मन्वंतर में मुक्ति नाम का ब्राह्मण था | उसने महाकाल वान ने समीप योग में तत्पर हो कर १३ वर्ष तक ताप किया | वाही पर महाकाल के समीप सुन्दर मुक्तिलिग्ड भी था | एक समय वह ब्राह्मण शिप्रा नदी में स्नान करने गया जब वह स्नान करके जप करने लगा तो उसने अपने सन्मुख एक भयंकर व्याध को देखा | उसके हाथ में धनुष था , लाल लाल आखे थी | उससे देखते ही ब्राह्मण दर गया और नारायण देव का ध्यान करता हुआ वाही पर खड़ा रह गया |

इस प्रकार मान में हरि का ध्यान करने वाले ब्राह्मण को सामने देख कर भयभीत सा होकर धनुष – बाण फेक कर व्याध ने कहा की मै तुम्हे मारने की इच्छा से जाहा आया था , किन्तु इस समय तुम्हारे प्रभाव शाली दर्शन से ही बुद्धि बदल गयी है | मैंने आज तक जीविका के लिए हजारो ब्रह्मा हत्याए और स्त्री हत्याय की है , किन्तु मेरा चित कभी भी दुखी नही हुआ | परन्तु अब मै तुम्हारे समीप ताप करना चाहता हू , अत: उपदेश देकर मुझ पर अनुग्रह करो |

ब्राह्मण ने यह विचार कर की यह तो ब्रह्मा घटी है और पाप करने वाला है , व्याध की प्राथना पर चुप होकर कुछ भी ध्यान नही दिया | किन्तु कुछ ना कहने पर भी व्याध वाही तहर गया और स्नान कर के मुक्ति लिग्ड के समीप आ गया | हे देवि ! ब्राह्मण से साथ ज्यो ही उसने अविनाशी मुक्तिलिग्द देव का दर्शन किया , उस्सी समय देवी देह होकर उसी लिग्ड में लीन हो गया |

हे देवि ! यह आश्चर्य देख कर मुक्ति नमक ब्राह्मण मन – ही मन विचारे लगा की पाप युक्त और समाधि रहित यह व्याध एकदम मुक्त हो गया , किन्तु घोर ताप करने पर भी मैंने ना तो परम मुक्ति पाई और ना भगवन की मूर्ति ही पाई |

यह कथा इस प्रकार हमारे लिए अत्यंत उपदेश प्रद है| क्यंकि वासी ही स्थिति इस समय हमारे समाने है | मुक्ति नमक ब्राह्मण अपनी श्रेष्ठता और तपस्या के आगे उस अन्त्यज जाती के व्याध को हिन् और पतित समझता था | किन्तु जब सामने ही स्नानादि से शुद्ध हो कर व्याध ने साथ ही दर्शन किया तो उस व्याध को भगवन का दर्शन और मुक्ति मिल गयी , परन्तु ब्राह्मण आश्चर्य करके देखता ही रह गया | फिर जाल ले , अन्दर जाकर घोर ताप करने लगा |

आगे चल कर इसी प्रकाण्ड के तिरपनवे अध्याय में भगवन शंकर पारवती से महाकाल वान के विश्वेश्वर के दर्शन के महातमय में कहते है की विदर्भ देश का विदुरथ नाम का रजा अत्यंत पापा वहारी था | पापा धिन जन्म – कर्म के अनुसार ग्यारहवे जन्म में भी वह अवन्तय शेत्र के अन्दर चंडाल योनि ने जन्मा | एक दिन चोरी के लिए ब्राह्मण के घर गया तो तत्काल चोरी में पकड़ा गया | उससे लाथ्दारी चोकी दरो ने बांध कर पेड़ में लटका दिया | उसके पास ही शुलेश्वर के ऊतर की और एक हिव्लिग्द था , चंडाल ने उससे देख लिया | वहा उत्तम ऐश्वर्य भोग कर पुनह भूतल के अन्दर विदर्भ देश में विश्वेश नाम का रजा हुआ | लिग्ड – दर्शन के पुण्य से उससे पूर्व जन्म की बात भी याद रही |

इसी प्रकार की एक कथा इसी खण्ड के छियासठवे अध्याय में आई है | संशेओ में वह यह है | शिवजी पार्वती जी कहते है ----

द्वापर युग में एक चंडाल बालक को किसी के आक्षेपपूर्ण बचनो से यह पता लगा की मै चंडाल योनि का हूँ | उसको अत्यंत दुःख हुआ और वह ताप के लिए जंगल में चला गया | उसके घोर ताप किया | उसके ताप से देवता चिंतित होने लगे | इन्द्र ने आकर उससे कहा की तुम मुशी के भोगो को छोड़ कर ताप क्यों करते हो |  हे माँ तंग ! मै वरदान देना चाहता हू |जो इच्छा हो मॉंगो |

इस पर माँ तंग ने कहा की मै ब्राह्मणय चाहता हू , इस कारण मै ताप कर रहा हू | बस , मुझे यही वर दो | उत्तर में इन्द्र ने कहा की यह वर कठिन है , तुम इससे प्राप्त नही कर सकते हो | तपस्या छोड़ दो नही अनिष्ट होगा | किन्तु उस चंडाल ने एक गंदुठे से खड़े होकर 100 वेर्ष तक घोर ताप किया |

इन्द्र ने आकर फिर वाही बाते कही | परन्तु माँ तंग तुसी तरह फिर घोर ताप करने लगा | इस तरह अनेक बार इन्द्र आये पर चंडाल भी कुछ परवाह ना कर कठिन ताप करता गया | इन्द्र भी पुन:- पुन: आकर उसको समझाते गये की ब्राह्मण दुर्लभ है , तुमे वह नही ,मिल सकता है | अत: उसको छोड़ दो , कोई दूसरा वर मानगो |

इस पर होकर ब्राह्मण मा तंग ने बड़ी फटकार के साथ कहा की दुःख से पीड़ित मेरे ह्रदय को क्यों बेधते हो ? मुझ मरे हुए को क्यों मरते हो ? मुझे उस पर शॉक है जो ब्राह्मणय प्राप्त कर उसका पालन नही करता है |

हे इन्द्र ! यदि क्षत्रियादी तीनो वर्णों के लिए ब्राह्मणय बाव दुषप्राप्य है तो बताओ की विश्वामित्र ने उससे कैसे प्राप्त किया ? देखो राजषिृ ! वित्हव्य ने भी ताप के प्रभाव से ब्राह्मणय प्राप्त किया था , इस कारन मै द्वन्द और परिग्रह – रहित होकर ताप करूँगा और आहिंसा , दम , सत्य तथा धर्म में स्थिर क्यों ना हो सकूंगा ?

फिर नम्रता के साथ मा तंग ने कहा की हे इन्द्र ! किसिस प्रकार पुरुषार्थ से दैव – बल को ना हटा सका | इतना प्रयत्न करने पर भी विप्रता को प्राप्त ना कर सका | मेरा कुछ भी पुंज हो और यदि मै तुम्हारा कृपा पात्र हू तो हे देव ! मुझे वहा उपाय बताओ जिससे मै विप्र हो जाऊ और मेरी अक्षय कीर्ति हो जाये |

   मातंग के इतना कहने पर इन्द्र ने प्रसन्न होकर शिवलिग्ड का उतम महातम्य कहा और  चंडाल को यह आदेश दिया कि महाकाल वन में  ब्रह्रा ने दिव्या मुर्तिधारी सुन्दर लिग्ड की स्थापना की है ,वह लिग्ड सिंध्देश्वर के पूर्व में है |उसके दर्शन करने से ही तुम विप्रत्व को प्राप्त कर लोगे | अर्थात  ब्राहमण की तरह सदाचारी ,सत्यव्रता ,जितेंद्र्य और मान्य हो जायोगे |

इन्द्र का उपदेश पा कर मातंग रमणीक महाकाल वन में गया, वहा पर दूसरे सिद्ध शेत्र में अशेष फल देने वाले उस लिग्ड का दर्शन किया और अनेक प्रकार के पुष्पों से शिवार्चन किया |

इस प्रकार मातंग से पूजित भगवान शंकर बोले, ओह ! तुम बड़े भाग्यशाली हो की तुमने मुझे प्रसन्न कर लिया | भुर्भुवादी सारा ब्रह्माण्ड मुझसे उत्तपन्न हुआ है | मै भाकत्जानो को वर देने वाला हू और दुष्ट आत्माओ को शाप देने वाला भी हू | मेरे प्रसाद से और दिग्द्दर्शन के कारन तुम्हे अक्षय विप्रतव की प्राप्ति होगी | वह चंडाल बह्मंडय को पा गया, फिर वह दिव्ज पूजा के प्रभाव से बह्रमालोक में चला गया | हे देवि ! इस लिग्ड के प्रभाव से चंडाल मातंग ने दुर्लभ विप्रतव प्राप्त किया | इसी कारन ब्रम्ह्लोक को देने वाले उस लिग्ड को संसार में “ मतेंगेश्वर “ कहते है

इतना ही नहीं शिवजी कलिकाल के लिए विशेष आदेश कहते है की कलयुग में जो लोग वर्णाश्रम से द्वेष रखते हो, पाखंड वचनों पर विशेष धयान देते हो, मर्यादा रहित हो, शंकित, लोलुप, निर्दय, निष्ठुर और धृष्ट हो, वे लोग भी उस शिव लिग्ड के दर्शन से सवर्ग को जाते है |

इसी के आगे अटत्र्वे अध्याय में यह वर्णन आया है की राजा चित्रसेन की लड़की चित्रसेन से अपने पूर्व जन्म के वृतांत में कहती है की पूर्व जन्म में मैंने अपने पति को वश में करने के लिए औषधि का प्रयोग किया यहा | उस दुष्ट कर्म के फल के कर्मानुसार चंडाल योनि में गयी | वहा में अनेक फोड़ो से पीड़ित रही | मुझ दींन दुखिया को चारो और से कुत्ते घेरे रहते थे और बार-बार नोच खाते थे इस प्रकार मार्ग में कुत्तो से नुची हुई मुजको भेडियो ने छेक लिया | उसके द्वारा व्यथित की जाती हुई भी मै किसी प्रकार महाकाल वन में चली गयी | वहा पर भगवान के दर्शन की लालसा से पिपलादेश्वर के पास में महादेव जी का दर्शन पा गयी | बस मै भगवान के दर्शन मात्र से दिव्य विमान से इन्दर्पुरी को चली गयी | मै दिव्यमाला, दिव्यभूषण और दिव्यम्बर्धरिणी हो गयी | वहा पर देवताओ ने मेरी पूजा की और बंदीजनो ने स्तुति की | उसके उपरांत उस लिग्ड के दर्शन के प्रभाव से ही अब तुम्हारे घर में पैदा हुई हू |

अवन्त्य खण्ड के रेवाखण्ड में एक सो इक्तालिस्वे अध्याय में तापेश्वर तीरथ के महातम्य के प्रसंग में माकंडेयजी युधिष्टिर से कहते है -----

 

हे  युधिष्टर ! इसके बाद सर्वोत्तम पपेक्षर तीर्थ में जाना चाहिए | जहा पर व्याध से भयभीत हरिणी सिद्ध होकर ओने अंगो को त्यागकर अन्तरिक्ष लोक में चली गई | यह सब देख कर हरिणी का पीछा करने वाला व्यद भी आचर्य में पढ़ गया | व्याध ने धनुष-बाण छोडकार हजारो वर्ष तक तपस्या की | इसके बाद महेश्र्वर प्रसन्न होकर व्याध से बोले की हे महाव्याध ! अपनी इच्छा के अनुसार वर मागो | व्याध ने कहा की हे देवेश ! यदि आप संतुष्ट है और वर देना चाहते है तो मुझे अपने समीप वास दीजिए |

हे व्याध ! ऐसा ही होगा | यह कह कर महादेव जी अंतर्धान हो गए | भगवान के अंतर्धान हो जाने के बाद व्याध ने महेश्वर की स्थापना की और वह विधि-पूर्वक पूजा कर के स्वर्ग को चला गया | तब से वह तीर्थ तीनो लोको में प्रसिद्ध हो गया और व्याध के कारण वह तीर्थ तापेश्र्वर नाम से प्रसिद्ध हो गया | उस तीर्थ में स्नान करके जो मनुष्य शंकर का पूजन करता है वः शिवलोक में जाता है |

    नागरखण्ड में यह कथा आई है कि जब वसिष्ठ के पुत्रो ने त्रिशंकु को शाप देकर चाणडाल बना दिया , उसने चंडालत्व को छोड़ने और यज्ञपूर्ति के लिए विश्वामित्र से प्राथना की | विश्वामित्र ने कहा की मै तीर्थयात्रा के प्रभाव से तुम्हारा चंडालत्व छोड़ दूँगा | इस कारन तुम मेरे साथ तीर्थयात्रा करो | तीर्थयात्रा के प्रभाव से तुम शुद्ध होकर यज्ञ क्रिया के भी पात्र हो जाओगे | क्यंकि संसार में ऐसा कोई भी पाप नही है कि जो तीर्थयात्रा  के प्रभाव से नाश न हो सरे | इस प्रकार विश्च्य करके विश्वामित्र त्रिश्कु को अनेक तीर्थो में ले गए | अन्त में अर्बुद पर्वत के अचलेशवर मंदिर से बाहर निकलते समय उन्हें मार्कण्डेय मुनि मिले तो विश्वामित्र ने त्रिश्कु का सब अमाचार सुनाया | इस पर मार्कण्डेय ने विश्वामित्र से खा कि इस पर्वत के नैॠत्य दिशा की ओर आनर्त देश में पटल के अन्दर हाटकेश्वर का मंदिर है , वहा पर एक गंगम नदी भी है | उसमे स्नान करके हाटकेश्वर का दर्शन करने से त्रिशकु से विश्वामित्र बोले कि हे राजेन्द्र ! प्रसन्नता की बाट यह है कि तुम चंडालत्व से मुक्त हो गए हो |

प्रभासखण्ड के तीसवे अध्याय में आया है | शिवजी पार्वतीजी से कहते है कि हे पार्वती ! द्दिज लोग समुंद्र स्नान करने के उपरांत प्रभाव क्षेत्र के “कपर्दी “ महादेव की पूजा “ गणानानत्वा “ मंत्र से करे | और शुद्र लोग अष्टाक्षर मंत्र से पूजा करे | आगे चलकर फिर शिवजी कहते है कि कार्य के अनुसार भगवान शंकर के अलग अलग अवतार होते है | प्रभासक्षेत्र ‘सोमेश्रर; का दर्शन स्त्री , म्लेच्छ , शुद्र और जो कोई भी अन्त्यजाती करते है , वे स्वर्ग जाते है | हे देवि ! यज्ञ , दान तथा स्वाध्याय और वर्त को न करने पर भी सब मनुष्य शिवालय में जाते है | सोमनाथ का यह प्रभाव देखकर ही अग्निष्टोमादी क्रिया लुप्त हो गई है | बाल , वृध्द , स्त्री और शुद्र्दी सभी लोग उनका दर्शन करके परम गति को प्राप्त करते है |

एक कथा के अन्दर मार्कण्डेय मुनि राजा इन्द्रधुमन से कहते है कि चन्द्रशर्मा नाम के ब्राह्मण के पितामह कर्मवशात प्रेतयोनि में चले गए | उनकी मुक्ति के लिए चन्द्रशर्मा तीर्थयात्रा करने लगा | अन्त में वह ‘ सोमनाथ ‘ तीर्थ में पंहुचा | सोमनाथ की तीर्थयात्रा करने पर उसके पितामह लोग प्रेतयोनि से छूट गए | इस पर पितामहो ने उससे कहा की संसार में वे पुत्र पौत्र धन्य है , जो सोमनाथ को देखकर द्वारिका की यात्रा करके कृष्ण का दर्शन करते है |

इस प्रकार चंडाल भी जो सोमनाथ में शंकर और द्वारिका में कृष्ण की यात्रा करता है वह पितरो के साथ परम मुक्ति पाटा है |

आगे इसी खण्ड में इसी प्रकरण के अडतीसवे अध्याय में प्रह्लाद अपने पौत्र बलि से कहता है कि तीर्थयात्रा के प्रसंग से स्वरिका जाने वाले श्रपचादी अन्त्यज भी धन्य होते है | इस प्रकार पितरो के उद्देश्य से लोग भगवत्सम्बन्धी तीर्थो को प्राप्त करते है | इस प्रकार पितरो के उद्देश्य से लोग भगवत्सम्बन्धी तीर्थो को प्राप्त करते है , दान और भक्ति के साथ भगवान् की पूजा करते है , ऐसे विष्णु के भक्तो के सत्कार से हमे जो तप्ति होती है , वैसी गया के पिण्डदान से नही होती है | अत: वे संकीर्ण जातिया भी पवित्र है , जो मधुसूदन की भक्त है तथा जनार्दन की भक्ति न करने वाले कुलीन भी म्लेच्छ के समान है |

इस प्रकार सकन्द्पुरण की समाप्ति पर यह वणन आया है कि शिवजी पारवती से कहते है कि हे सुरसुन्दरि  इधर – उधर बहुत –से शिवलिंगडो के दर्शन से क्या प्रयोजन है ,”वरुणेश” को देखने से ही सब तीर्थो का फल मिल जाता है |ब्राह्राण ,क्षत्रिय ,वैश्य , शूद्र ,अन्त्यज ,मूक ,बधिर ,बाल और स्त्री चाहे जो कोई भी हो ,वरुणेश का दर्शन करने से सब स्वर्गधाम को चले जाते है |

इसी प्रकार पदमपुराण में भी स्पष्ट रीति से अन्त्यजो द्वारा देवदर्शन और पूजन की अनेक कथाए देखी जाती है | पुराणो में जहा कही भी भूमिस्थ देवताओ का वर्णन आया है ,वहा पर प्रायः इस तरह का वर्णन आया है कि “  सौराषट में सोमनाथ ,उज्जैन में महाकाल ,अमलेश्वर मे ॐकार ,हिमालय में केदार ,काशी में विश्वेश और सेतुबंधादि में रामेशादि नाम से शिवलिग्ङ की प्रतिष्ठा रहती है | “ इन लिगङो के जो महात्म्य पुराणों में दिए गए है , उन सबो में अधिकांश इस प्रकार की ही कथाए है कि अमुक लिग्ड  की पूजा अमुक निषाद , चांडाल या शबर ने की तो उसको परम गति प्राप्त हुई | अमुक लिग्ड के दर्शन करने से अमुक शबर को भगवान का दर्शन हुआ | इन माहात्म्यो को लेकर ही वर्तमान काल में काशी , सेतुबन्ध प्रभृति  स्थानों में मंदिरों के अन्दर शिवपूजा चली आ रही है | एव अयोध्या , मथुरा प्रभृति तीर्थ – स्थानों में विष्णु का निवास तथा उनका महात्म्य भी पुराणों में उसी प्रकार वर्णित है | उसमे भी अन्त्यजो के दर्शन और पूजन का महत्व दिखाया गया है | ऐसा कही भी नही आया है कि अन्त्यजो के देवदर्शन करने से मूर्ति अपवित्र होती हो |

इस विषय पर पदमपुराण में अनेक कथाए आई है | उनमे कुछ इस प्रकार है | पहले समय रत्नग्रीव नाम का राजा काशीपुर में राज्य करता था | वह अत्यंत धर्मात्मा और दयालु था | इक दिन उसने सोचा कि मै आनन्द के साथ बहुत दिनों तक राज्य कर चुका हू अब मुझे हरिपूजन और तीर्थयात्रा करनी चाहिये | रात्रि में इस प्रकार धयान करके वह सो गया | स्वप्न में उसे एक तपस्वी ब्राहमण दिखाई दिया | प्रातः उठकर राजा मंत्रयो के सहित सभा में बैठा | इतने में उसने एक तपस्वी ब्राहमण को देखा और कहा कि आपके दर्शनों से मेरा पाप छूट गया है | मुझे ऐसा तीर्थ बताया कि मै गर्भवास के बन्धन से छूट जाऊ | ब्राहमण ने कहा कि सब देवो में रामचंद्र सेव्य है | हे राजन मै कच्ची , काशी , अयोध्यादी अनेक तीर्थो में गया हूँ | परन्तु जो अध्दुत बाट मैंने पुरुषोतम से समीप नील पर्वत पर देखी है , वैसि कही भी नही देखी | उस पर श्रद्धा करने से पुरुष लोग सनातन ब्रह्मा पा जाते है |

हे राजन ! जब मै घूमता हुआ नील पर्वत पर पहुंचा तो मैंने भीलो ( अन्त्यज विशेषों ) को देखा जो चतुभुर्ज ( धर्म , अर्थ , कम , मोक्ष से युक्त ) दिखाई देते थे | मै आश्चर्य में पढ़ गया | मै सोचने लगा कि शंख , च्रक , गदादी धारण किए हुए और वनमाला से विभूषित ये लोग विष्णुभक्त से लगते है | मैंने सन्देह दूर करने के लिए उनसे पूछा कि आप लोगों का यह उत्तम स्वरूप कैसे हो गया ? उन्होंने हस करके कहा कि यह बेचारा ब्राह्मण पिण्ड के महत्त्व को नही जनता है | मैंने उससे पिण्ड का महत्त्व पूछा , तो उत्तर में किरातों ने कहा कि हे ब्राह्मण ! हमारा एक बालक एक दिन जामुन का फल खता , खेलता और कूदता हुआ बालको के सहित मनोहर गिरि – शिखर पर चला ह्या | वहा उसने सोने की बित्वाला तथा नाना रत्नों से जटित एक अभ्द्रुत मंदिर देखा | यह देखकर बालक को बड़ी उत्सुकता हुई कि यह क्या है और इसके अन्दर क्या चीज़ है ? यह सोचकर बड़े भाग्य से घर ( मंदिर ) के अन्दर चला गया | बालक ने अन्दर जाकर सुरसुरों से अन्द्नीय हरि का दर्शन किया और नैवेध भक्षण किया | मूर्ति का दर्शन करने और नैवेध करने और नैवेध भक्षण करने के कारन बालक चुतुभुर्ज हो गया | जब बालक घर लौट आया तो हम लोगो ने पूछा कि तुम्हे यह सवरूप कैसे प्राप्त हुआ ? ऊतर में बालक ने कहा कि मै पर्वत के शिखर पर चला गया था | वहा पर मैंने भगवान का दर्शन और नैवेध ग्रहण किया था , उसी से यह सब हुआ है | इसके बाद हम लोगो ने भी उस दुर्लभ देव का दर्शन किया और स्वादिष्ट उन्नादी का भक्षण किया | तुम भी जाकर दर्शन कर लो |

हे राजन ! यह सब सुनकर मैंने भी देवदर्शन किया और ऊतम फल पाया | अत: शीघ्र जाकर दर्शन कर आओ | रजा ने ब्राह्मण से यह सब समाचार और तीर्थयात्रा क विधान सुनकर मंत्रियों को यह आदेश दिया कि मेरे नगर में रहने वाले और मेरी आज्ञा मानने वाले सभी लोग मेरे साथ चले | मंत्रियों यह घोषणा की कि सब लोग चल कर पापनाशक पुरुषोतम भगवान के दर्शन करे | यह घोषणा सुनते ही ब्राह्मण से लेकर रजक , चर्मकार , किरात , मिस्त्री , दर्जी , तमोली प्रभ्रति अनुलोम और प्रतिलोम श्द्रपर्यन्त सभी लोग देवदर्शन और तीर्थयात्रा के लिए पुर से बाहर चले गए |

इस प्रकार रजा रत्नग्रीव अनेक तीर्थ और दानादि क्रिया करता हुआ ब्राह्मण से लेकर अन्त्यज पर्यन्त सब लोगो को लेकर नील पर्वत पर पहुचा | वहा पर उसने अनेक सेवको के साथ भगवान का दर्शन , उनकी स्तुति और पूजा की |

इसी पुराण के उत्तरखण्ड में शिवरात्रि के माहात्म्य में आया है कि एक चणड नाम का पुलकं अत्यन्त क्रूर और पापी था | शिवरात्रि के दिन रात्रि जागरण और किसी प्रकार उसने शिवपूजा कर ली | उसके प्रभाव से उसे परम गति प्राप्त हुई |

शिवजी कहते है कि चंडाल जाति का एक चंड नाम का पुल्कस भी शिवार्चन से तीर्थानां को प्राप्त हुआ , तो फिर जो श्रद्धा तथा भक्ति से शिवजी को पुष्पादि चढाते है , वे इस संसार में रूद्र स्वरूप ही होते है | इस प्रकार निषाद की कथा से युक्त शिवरात्रि का महात्म्य लिग्डपुराण , शिवपुराण , स्कन्दादिपुराण में बड़े विस्तार के साथ वर्णित है | ये सब कथाए प्रसिद्ध है | उनका विस्तार करना व्यर्थ है | संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि एक निषाद , चंडाल , शबर या पुल्कस से किसी प्रकार शिवरात्रि का व्रत और शिवार्चन हो जाने के कारन ही आज शिवरात्रि का वर्त बड़े महत्त्व के साथ भर में जाना जाता है |

पदम्पुराण में ब्रह्माखण्ड के बीसवे अध्याय में लिखा है कि महापिनी कलीप्रिया नाम की एक शुद्रा थी | वह अपने पति को जीवित रखना नही चाहती थी | उसकी दुष्टता से किसी प्रकार उसका पति मर गया और उसके उपपति को भी गैंडे ने खा लिया | इस पर वह अत्यन्त विलाप करके लगी | अन्त में वह दुसरे नगर में चली गई | नगर में जाते ही उसने देखा कि बहुत से पुरुष और स्त्रिया धूप दिपादी से राधादामोदर की पूजा कर रहे है | क्लिप्रिया ने पूछा कि आप लोग क्या कर रही हो ? ऊतर में उन स्त्रियों ने कहा कि यह कार्तिक का मास है | हम सब लोग सर्वपापहर राधादामोदर की पूजा कर रही है | यह सुनकर उसने भी मांस का परित्याग करके राधादामोदर की पूजा की | फलत: अन्त में विष्णुपद को प्राप्त हो गयी | उसको विश्नुदूत सुन्दर विमान में बैठकर विष्णुलोक को ले गए |

पद्मपुराण के उत्तरखंड के पचासवे अध्याय में “ दोलोत्सव “ का विस्तत वर्णन आया है  |यह उत्सव बड़े समारोह के साथ अनेक स्थानों में मनाया जाता है | इस उत्सव में अन्त्यज पर्यन्त सभी सनातनधर्मिको को एकत्रित होकर दर्शानादी का शिकार कहा गया है | इस उत्सव का वर्णन महादेवजी ने पार्वतीजी से इस प्रकार किया है | हे देवि ! अब मै तुमसे उत्सवो की विधि कहता हूँ | उनमे सबसे पहले चैत्रमास के “ दोलोत्सव “ को कहता हूँ , उसे सुनो | हे देवि ! चैत्रशुक्ल एकादशी के दिन दोलारूढ़ विष्णु का पूजन विशेष रूप से करना चाहिए | जो पुरुष दोलारूढ़ कृष्ण को देखते है वे हजारो अपराधो से मुक्त हो जाते है | अधिक क्या कहे , कलिकाल में जो मनुष्य दोला में आरुद भगवान ह्नार्दन को देखते है वे यदि गोधाती पापी जन हो तो भी मुक्त हो जाते है फिर औरो के विषय में कहना ही क्या है | डोलोतसव में विष्णु को देखने के लिए सभी रुद्रादी देवता दोला में चले आते है | डोले में स्थित विष्णु को देखते से तीनो लोको का उत्सव हो जाता है चैत्र , वैशाख में जो मनुषय डोले में स्थित विष्णु को देखते है वे महादेव से स्तुत्य होकर विष्णु के साथ आनंद क्रीड़ा करते है | डोले में दक्षिण ओर मुंह किय हुए विष्णु के दर्शन करने से मनुष्य ब्रह्माहत्या से मुक्त हो जाता है | अधिक क्या कहे , डोले में स्थिति विष्णु सर्वपापहर होते है | जो मनुष्य उनकी पूजा करता है उनको भगवान सब कुछ देता है |

“ॐ नमो भगवते वासुदेवाय “ इस मन्त्र से दोलाविष्णु की पूजा करनी चाहिय | “ॐ नमो भगवते वासुदेवाय मन्त्रेण पुंजन तत्र कारयेत् “| पुन: अघर्य देकर बचे हुए अघर्य के जल को वैष्णवों को देवे | फिर वहा उपस्तिथ सभी लोगो को विष्णु के दोले ( झूले ) को झुलाना चाहिए | हे देवि ! उस दिन दोलोत्सव देखने के लिए पृथ्वी भर के तीर्थ और क्षेत्र आते है | एवम् बरहमन क्षत्रिय , वैश्य और शुद्रादी अन्य जातिया उसे देखने आती है | उन सबों को शंखचक्रधारी ही समझना चाहिए | अर्थात दर्शनार्थ आय हुए ब्राह्मण से लेकर अन्त्यजपर्यन्त मनुष्य जाति को वैष्णव समझना चाहिए |

इसके आगे के भगवन शकर ने दोलोत्सव की तरह दुमनोत्सव की भी विधि और उसका महात्म्य दिखाया है | उसमे भी भगवान शकर कहते है की चैत्रमास की शुक्ल द्व्रद्शी को विधि पूर्वक दुमनोत्सव मनाना चाहिए |

हे देवि ! जो मनुष्य दुमनोत्सव के दिन मज्जरी से विष्णु की पूजा करता है वह मेरी ही पूजा करता है | मधप , मांसभक्षी , स्वर्णहरी और ब्राह्मणघाती दुमनोत्सव देखते है , तो पापों से छुट जाता है |

ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य , शुद्र , अन्त्यजादि किसी का भी कुल क्यों न हो , वह कुल धन्य धन्य और महान है जो दुमनोत्सव में मज्जरी से विष्णु की पूजा करता है |

आगे चलकर इसी उत्तरखंड के एक सौ सताइसवें अध्याय में शालिग्राम शिलार्चन और दर्शन के विषय में शिवजी कहते है कि शालिग्राम की शिला पुण्य , पवित्र और धर्माकरिणी है | जिसके दर्शन मात्र से ब्रह्माघाती शुद्ध हो जाता है | श्रुति के अनुसार वह घर सब तीर्थो मेंश्रेष्ट तीर्थ के समान है जिसमे शिलाग्रम्शिला रहती है | ब्राह्मण को पांच , क्षत्रिय को चार, वैश्य को तीन और शूद्र को एक शिला पूजनी चाहिए | शालिग्राम शिला के पूजन मात्र से ही शूद्र मुक्ति को प्राप्त होता है | से देवि ! अधिक क्या कहे, मुक्ति चाहने वाले पुरुषो को शालिग्राम शिला का पूजन करना चाहिए | इसी अध्याय में एकसौदोवे श्लोक में भगवन् शंकर कहते है-----


भक्तिहीनैच्श्रतुर्वेदै: पठितै: कि प्रयोजनम् |

व्श्रपचो भक्तियुक्त्स्तु त्रिदशैरपि पूज्यते ||


    अर्थात्, भक्ति-हीन होकर चारो वेद पढ़ने से क्या लाभ है ! यदि चाण्डाल भी भक्ति करे तो उसकी देवता लोग पूजा करते है | आगे एकसै चवालीसवे अध्याय में साभ्रमती गंगा के किनारे धवलेव्श्रर तीर्थ में “धवलेश” के महात्म्य में स्कन्दपुराण वाली नन्दी और किरात की कथा ज्यो-कीत्यों आई है | उसके अन्त में भगवान् शंकर कहते है ------

 

एको नन्दी महाकालो द्वावेतौ शिववल्लभौ |

ये पापिनो ह्मधर्मिष्ठा अन्धा मूकाच्श्र पग्डव: ||

कुलहिना दुरात्मन: व्श्रपचाधा हि मनवा: |

यादृशास्तादृशाच्श्रान्य आराध्य धवलेव्श्ररम् ||

“गतास्तेऽपि गमिष्यन्ति नात्र कार्या विचारणा |”

--पदमपु. उत्तर ख. १४४ अ.

 

    अर्थात, इस धवलेव्श्रर के पूजन और दर्शन से किरात और नन्दी शिव के द्वारपाल हो गए | अत: पापी, अधर्मरत, अन्ध, दुरन्ता, मूक, पंग और कुलहीन तथा व्श्रचादि मनुष्य चाहे जैसे भी हो धवलेव्श्रर की आराधना करके उत्तम लोक को जायेगे और चले भी गए है, इसमे सोच-विचार करने की कोई बाट नहीं है | नन्दी और किरात की कथा की तरह की एक कथा ब्रह्मपुराण के गौतमी महात्म्य के निन्योन्वेवे अध्याय में आई है | यह बढ़ी सुन्दर कथा है | एक ब्राह्मण से ब्रह्माजी ने उस कथा को इस प्रकार कहा है------ हे द्विज ! महादेव के चरणों की भक्ति देने वाला, रोग और पाप नाशक “भल्ल” नाम का एक तीर्थ है, उसकी पुण्यकथा सुनो | गंगा के दक्षिण और क्षीगिरि के उत्तर तट पर “आदिकेश” नाम के लिग्डरुपी महादेव है | वे ॠषियो से पूजित और सब कामो को देनेवाले है | हे द्विज ! परम श्रमिक सिन्धुद्वीप नाम के एक ॠषि थे | उनके भाई का नाम “वेद” था | वे भी परम ॠषि थे | वे वेद-ॠषि त्रिलोचन त्रिपुरारी उन “आदिकेश” को मध्याह्र में सदा पूजते थे और भिक्षाटन करने के लिए गाँव में चले जाते थे की उसी समय एक परम धार्मिक किरात उस पर्वत पर शिकार के लिए आता था और चारो और घूम कर अनेक मृगो को मारकर थका हुआ, माँस को धनुष पर लटका कर ‘आदिकेश’ शिव भगवान के पास जाया करता था | उस समय मॉस को बाहर ही रख देता था | समीप में ही गंगा पर जाकर मुह से पानी तथा एक हाथ से किसी भी पेड का पत्ता और दुसरे हाथ से नैवेध के लिए मास लाकर तन्मय होकर आदिकेश के पास जाकर वेद ॠषि के द्वारा की गई पूजा को पाँव से हटाकर “शिव प्रसन्न होवे” कहकर स्नान, पत्र और मॉस के नैवेध से पूजा करता था | शिव-भक्ति के बिना उसको कुछ भी अच्छा नहीं लगता था | इस प्रकार प्रतिदिन आकर शिव-पूजा करके घहर लौट जाता था |

     ब्रह्माजी कहते है कि जैसी उसकी अपूर्व भक्ति और पूजा थी, शंकर भगवान् भी उसके लिए वैसे ही प्रसन्न थे | भगवान् की स्तिथि ही विचित्र होती है | जब तक वः भील नहीं आता था तब तक भगवान् भी सुखी नहीं रहते थे | भला शम्भु की भक्ति के ऊपर अत्यन्त कृपा को कौन जन सकता है ? 

  इस प्रकार व्याध को पार्वती-सहित “आदिकेश” महादेव की पूजा करते भुत दिन बीत गए | इधर वेद- ॠषि क्रुद्ध होकर यह सोचा करते थे कि मंत्र और भक्ति ये युक्त मेरी शिवपूजा को प्रतिदिन कैान पापी नष्ट कर देता है ? ऐसे पापी को अब मै मार डालुँगा | क्योकि जो पुरुष गुरु, देव ,व्दिज और स्वामी का द्रोही होता है वः मुनि का भी बध्य होता है, फिर यह शिवद्रोह  करने वाला तो सबका बध्य हो सकता है |

      इस प्रकार वेद- ॠषि विचारने लगे कि न मालूम यह किस दुष्ट पापात्मा की चेष्टा है | मै तो सुन्दर फल, पुष्प, कन्द और मूल से शिव- पूजा कर जाता हू , वह सब हटाकर मॉस और पेड के पत्तो से दूसरी पूजा कर जाता है | जो हो अब मै उसको मार डालुँगा | यह सब सोचकर वेद-ॠषि पूजक कप ता लगाने के लिए चिप गए | इतने में प्रतिदिन की भांति वः व्याध “आदिकेश” के पास आया | नित्य की तरह पूजा करते हुए उस व्याध से आदिकेश महादेव बार-बार कहने लगे कि हे महाबुद्धिवाले व्याध ! क्या तुम थके हो ? तुम देर में कैसे आए ? हो तात ! तुम्हारे बिना मै दु:खिता था | हे पुत्र ! मै कुछ भी सुख नहीं पा रहा हू | इस कर्ण तुम थोडा विश्राम कर लो |

ब्रह्माजी कहते है कि इस प्रकार बोलते हुए शिवाजी को देखकर वेद-ॠषि आव्श्रर्य में पड़ गए और क्रोध के मरे कुछ भी नहीं बोले | किन्तु व्याध प्रतिदिन की तरह पूजा करके अपने घर चला गया |

वेद-मुनि क्रुद्ध हो शिवाजी के पास आकर बोले की हे ईश ! इस पापी, क्रिया-ज्ञान-रहित, जिवहिंसा करने वाले , क्रुर, निर्दय, नीच-जाती, अज्ञानी, गुरुपरम्परा-रहित, सदा बुरा काम करनेवाले और अजितेन्द्रिय व्याध को तो आपने दर्शन दिया है और मुझसे बात तक नहीं करते हो | मै व्रती होकर विधानानुसार तुम्हारी पूजा करता हू, स्त्री-पुत्रादि से रहित होकर सदा तुम्हारी पूजा करता हू | किन्तु यह बड़े आच्श्रर्य की बाट है कि वह व्याध दूषित मॉस से तुम्हारी पूजा करता है उसके लिए तो आप प्रसन्न है और मेरे लिए नहीं | इस प्रकार क्रुद्ध होकर वेद- ॠषि ने निच्श्र्य किया की इस अपकारी व्याध के सिर में पत्थर मार देता हू | ब्रह्माजी कहते है कि वेद भुनी के यह सब ख चिकने पर “आदिकेश” महादेव हँसकर बोले की कल तक ठहर जाओ, तब मेरी शिला को उसके शिर पर मरना | इस पर वेद-मुनि ने भी अच्छा कहकर हाथ में उठाई हुई शिला फेक दि और क्रुद्ध होकर यह खा की अच्छा कल ही सही |

     इसके बाद वेद-मुनि अगले दिन आकर स्नानादि करके प्रतिदिन की तरह शिवपूजन करने लगे, तो उन्होंने देखा की शिवजी के मस्तक में बडा भरी घाव हुआ है और उससे लहू की धारा भ रही है | यह देखकर वेद-मुनि आच्श्रर्य और शंका में पड़ गए | वः सोचने लगे कि कोई महा उत्पात हो नहीं वाला है | फिर उन्होंने मिट्टी, कुशा, गोबर और गंगाजल से उस लिग्ड को धोकर पूजा की |

      इस बीच वः निष्पाप व्याध आ गया | उसने जब शिवाजी के मस्तक पर घाव देखा तो तुरंत ही ‘यह कैसी विचित्र बात है’ कहकर तीखे बाणो से अपने शरीर को सैकड़ो बार छेद दिया | वः विचार करने लगा कि कौन ऐसा पवित्र हृदय वाला होगा जो स्वामी की विवृत दशा सहन कर लेगा | वह अपने को बार बार धिक्कारने लगा कि मेरे जीतेजी भगवान की यह दशा हो गई |

व्याध के इन सब कर्मो को देखकर महादेवी आश्चर्य में पढ़ गए और वेदज्ञो में श्रेष्ट वेद – मुनि से बोले –

 

पश्य व्याधं महाबुद्धे भक्तं भावेन स्न्युतम् |

तत्व तु मृद्धि: कुशौर्वभिर्मुधन स्पृष्टवासि ||

अनेन सहसा ब्रह्मन् ममाऽऽत्मापी निवेदित: |

भक्ति: प्रेमथ्वा श्क्तिर्विचारो यत्र विधते |

तस्मादस्मै वरान्दासये पश्च्तुभ्य दिजीत्तम ||

 

अर्थात , हे वेद ! भाव से भरे हुए भक्त व्याध को देखो | तुमने तो केवल कुश , मिट्टी और जल से मेरा मस्तक छुआ है , पर इसने तो एकदम मेरे लिए अपना शरीर भी दे दिया | इसमें भक्ति , प्रेम , शक्ति और विचार विधमान है | इस कारण सर्वप्रथम इसको वर दूँगा , फिर तुम्हे दूँगा | ब्रह्माजी कहते है कि महेश्रर ने कयाध के वरदान मांगने के लिए अनुरोध किया | व्याध ने कहा कि देवेश ! तुम्हारा जो निर्माल्य है वह हमे मिले और मेरे नाम से तीर्थ हो जय और इस तीर्थ का ऐसा महत्त्व हो की इसके स्मरण से ही सब यज्ञो का फल मिल जय | शिवजी ने व्याध की प्राथना स्वीकार कर ली | इस कारन वह “ भिल्ल “ तीर्थ समस्त पापस्मुह का विनाशक हो गया |

इस कथा से यह बाट स्पष्ट है कि एक अन्त्यज के पुराने पर भी वेदज्ञ ब्राह्मण ने शिवलिग्द को अपवित्र नही माना | एवम् एक भक्त व्याध अज्ञ होने पर भी भावमात्र से शिव पुराण करने पर सर्वोत्तम फल पा गया |

वराहपुराण में धर्मव्याध और मातंग की एक कथा आई है | उसमे यह वर्णन आया है कि एक धर्मव्याध अत्यन्त धर्मात्मा था | वह पंचयज्ञ और देव्पुजनादी विधियों को जनता था | एक समय व्याध और उसकी लाध्की के ससुराल वालो से पवित्रता के विषय में झगड़ा चला | धर्मव्याध ने अपनी लाध्की के ससुर मातंग से कहा कि तुम मुझे झूठे ही हिंसक होने का दोष लगा रहे हो | मै तो एक ही हिंसा करता हूँ | तुम्हारे घर में तो आचार , देवपूजा , अतिथि का पूजन आदि क्रियाओ में एक भी कर्म नही है | इस कारन मै तुम्हारे घर भोजन नही करूँगा | मुझे घर जाकर श्राद्ध करना है |इतना कहकर व्याध अपने घर चला गया | घर जाकर उसने देवता और पितरो का पूजन किया , अन्त में घर का भार पत्र के ऊपर छोड़कर लोकप्रसिद्ध पुरुषोत्तम तीर्थ की यात्रा करने चला गया | वहा जाकर श्लोकपाठ के साथ ताप करने लगा | इस प्रकार तीर्थ में जाकर व्याध ने अनेक स्तोत्रो से स्तुति की | उनमे सर्वप्रथम श्लोक यह है -----

 

नमामि विष्णु त्रिदशारिनाशन विशालवक्ष: स्थल संश्रितश्रियम् |

    सुशासन नीतिमता परागडति त्रिविक्रम मंदरधारिण सदा ||

 

इस प्रकार पुरुषोत्तम तीर्थ में ताप करता और सतोत्रपाठ करता हुआ वह धर्मव्याध भगवान का दर्शन पाकर सनातन पद को पहुच गया |

शिवपुराण स्नत्युकार सहिता के पन्द्रहवे अध्याय में शिवपुराण और दर्शन के विषय में आया है कि शिवजी के दर्शन , शिव्शास्त्र के श्रवण और नाम सकिर्तन से स्त्री , शुद्र और अन्त्यजादि कोई होवे , सब अश्रमेध के फल को पाते है और पाप मुक्त हो जाते है |

इस प्रकार सब पुराणों में अनेक कथाए आई है , यो यह सिद्ध करती है की शुद्ध और भावभक्ति से युक्त स्नारणधर्मानुयायी अन्त्यज भी सदा से देवदर्शनादी का अधिकारी होता आया है |

प्राचीन ॠषि , मुनि , महात्मा , संत , सद्धू , सभी धर्मात्मा लोग इन दिन आशय सधर्मी भाइयो के लिए उदार होते आए है | मर्यादापुरुषोत्तम भगवान रामचंद्र जब वन में भक्तिन शबरी के आश्रम में पहुचे तो उन्होंने उससे घ्रणा नही की | क्योकि भीलनी बह्मा और आभ्यंतर शुद्धि तथा भ्किभाव से समन्वित थी | भगवन ने उस अन्त्यज जाति की बुढिया की कुतिया में जाने में जरा भी संकोच नही किया | पद्मपुराण में आया है कि भगवान रामचंद्र शबरी के पास गए तो शबरी ने उनका स्वागत किया और अन्स्कर करके उन्हें अपनी कुतिया में बैठाया और पाव धोकर वन्य फल पुष्पों से पूजा की तथा अनेक प्रकार के सुन्दर मधुर फलमुल दिय | भगवन ने शबरी के फ्लो को खाकर उसे मुक्ति दि |

इतना ही नही बल्कि भगवन व्याध ने तो इन दिन भाइयो के उद्धार के लिए ही महाभारत और पुराणों का संकलन किया |

भागवत में आया है कि ---

 

स्त्री शुद्र दिजबंधूना त्रयी न श्रुतिगोचरा |

कर्मश्रेयसि मूढ़ाना श्रेय एवं भवेदिह ||

“इति भारतमखयान कृपया मुनिना कृतम् |”

 

अर्थात , स्त्री , शुद्र और दिजबंधु के कान तक श्रुति नही पहुच सकती है | किन्रू किसी प्रकार उन्हें अपने धर्म , अर्थ और कामादि पदार्थो की प्राप्ति हो , इस कारण व्यास मुनि ने उनके कल्याणार्थ महाभारत जैसे वेद्सरामय ग्रन्थ की रचना की | इस बात को व्यासजी ने अपने ही मुख से उसी वचन से और भी स्पष्ट कर दिया है -----

 

भारत व्यपदेशेन हमामनायर्थश्र दर्शित: |

दृश्यते यत्र धर्मादि स्त्री शुद्रादिभिरप्युत ||

 

अर्थात , मैंने महाभारत के भने वेदों का भी अर्थ दिखा दिया है , जिसमे कही हुई धर्मदी विधि में स्त्री शुद्रदि भी अभिकारी हो जाते है | इन सब बातो के पर्यालोचन से यह स्पष्ट है कि महाभारत तथा पुराणों की रचना दिजो के हित के अतिरिक्त विशेषता स्त्री शुद्रादि जाति के कल्याण के लिए ही की गयी है  |

यही बाट है कि विष्णु पुराणादि ग्रंतो में पुरुष सूक्त जैसे वैदिक मंत्रो को कुछ हेर फेर करके रखा गया है | एव त्रेवंणिरक सम्बन्धि गय्त्र्यादी मंत्रो की दीक्षा के बदले इन भाइयो के लिए पुराणों में पंचाक्षर , अष्टाक्षर और दादशाक्षर जैसे बहुत से मंत्रो का विधान दिया गया है | इस विषय में मैने “ मंत्र – महिमा “ और “ सनातन धर्म प्रदीप “ में कुछ विस्तार के साथ वर्णन किया है | इसी प्रकार पुराणदि ग्रन्थो में आए हुए स्तोत्र तथा महात्म्य ग्रन्थो के पढ़ने के विषय पर शुद्रादिको के लिए स्पष्ट रूप से आया है कि यदि शुद्र इस स्तोत्र को पढ़े तो उसे सद्गति प्राप्त होती है |

नर्मदा स्तोत्र के बारे में मत्स्यपुराण में लिखा है ----

 

वैश्यस्तु लभते लाभ शुद्र: प्राप्नोति सद्गतिम |

मुर्खस्तु लभते विधा त्रिसन्ध्य य: पठेन्नर: ||

वैश्यस्तु लभते लाभ शुद्रश्रैव शुभा गतिम् ||

 

खेद है की इस पर भी कुछ निबन्धकरो ने शुद्रो के पुराण पढने के विरुध्द सम्मति दि है | लोकमान्य बल गंगाधर तिलक भी पौराणिक विधान के द्वारा स्त्री , शुद्र अन्त्यजादि जाति के उद्धार के विषय में गीता के नवे अद्याय और गीतारहस्य में स्पष्ट सम्मति दे गए है | कलियुग में शुद्रो के लिए भक्ति मुख्य कही गयी है | कुछ लोगो की यह धरना है की शूरो जो जप और ताप का अधिकार नही है , अन्यथा “ शम्बूक” को राम्चद्र्जी न मरते | किन्तु एसी धारणा पर यह समझ लेना अत्यवश्यक है कि युग भेद से धर्म भेद और यगानुसार अधिकारी का भी भेद माना गया है | मनुस्मृति में आया है कि सत्य , त्रेता , द्वापर और कलियुग में विभिन्न धर्मो की प्रधानता रहती है | सत्ययुग ताप प्रधान होता है , त्रेता ज्ञान प्रधान , द्वापर यज्ञ प्रधान , और कलियुग में दान की मुख्य धर्म होता है |

उस समय ब्राह्मण , क्षत्रिय और वैश्य तपस्वी और ज्ञाननिष्ट होते थे | उनकी सेवा से ही शुद्र भी संस्ग्रानुसार धर्म , अर्थादि पुरुषार्थ का भागी हो जाता था | अत: उस युग के विरुद्ध स्मार्त ताप करना शुद्र के लिय उचित नही समझा गया | किन्तु लाकियुग में ही यही कहा गया है की शुद्र और ब्राह्मणदि वर्ग की विष्णु और शिवदी देवपूजन और भगवन्नाम – कीर्तन से मुक्त हो सकते है | गरुणपुराण में आया है की कलियुग में हरी कीर्तन से श्रय होता है | इस कारन हरी का ज्ञान , ध्यान और पूजन करना चाहिए | पदम्पुराण उत्तर खण्ड में आया है की कलियुग में विष्णु के ध्यान में लगे हुए शुद्र धन्य होते है | वे इस लोक में सुख भोग कर परलोक में विष्णु पद को पाते है |

जिस समय में जो नियम विशेष रूप से रहता है उसके विरुद्ध करने पर ही दंड मिलता है | किन्तु इसका यह अभिप्राय नही है कि श्द्रो को पहले कोई अधिकार ही नही था | शुद्र के लिए यह कही नही आया की वह “ सेवा “ धर्म के सिवाय अन्य कोई धर्म ना करे | किन्तु जहा कही भी शुद्र के लिए सेवा धर्म का विधान किया गया है वहा पर सेवा धर्म मुख्य धर्म समझा गया है , अर्थात विरती के लिए शुद्र का सेवा धर्म ही मुख्य धर्म है | यदि शुद्र के लिए सेवा धर्म के अतिरिक्त सब धर्म वर्जित होते तो स्मृतिग्रन्थो में शुद्र के दस या बारह संस्कार विहित ना होते | व्यास स्मृति में आया है कि गर्भाधान से लेकर व्र्तादेश संस्कार –पर्यत्न दस संस्कारो को शूद्र करे ,किन्तु वेद –मंत्र –रहित विधि से | निर्णय सिन्धु में उद्धत शागड़ृधर का वचन है कि दिव्जो के सोलह संस्कार है और शुद्र के बारह | मदनरत्न में शुद्रो के जातकर्म , नामकरण , निष्क्रमण अन्न प्रशन , चुडाकर्म , विवाह और पुन्चम हा यज्ञ ये गेहारह संस्कार कहे गये है | विष्णु स्मृति में आया है की पंच हा यज्ञो का विधान शुद्र के लिए भी कहा गया है और उसके लिए नमस्कार मंत्र कहा गया है |

इन सब वाक्यों की संगती लेकर यह स्पष्ट हो जाता है की यहाँ पर शास्त्रों में यह आया है की शुद्र का कर्म केवल सेवा – धर्म है , उसका अभिप्राय यही है की सेवा धर्म की शुद्र की व्रिति के लिए प्रधान धर्म है , जैसे की व्रिति के लिए ब्राह्मण का अध्यापन , याजन और प्रतिग्रह मुख्य धर्म है , न की दुसरे के लिए| किन्तु इन विधानों का यह अभिप्राय नही है की ब्राह्मण अध्यापननदि के सिवाय और कर्म करे ही नही | यही बाट शुद्र के सेवा – धर्म में भी लागु है | अतएव मनु के -----

 

“ एकमेव तु शूद्रस्य प्रभु: कर्म समादिशत् “

 

इस श्लोक की टिका में कुल्लूक भट्ट ने लिखा है की ‘एक ही ‘ कहने से प्रधन्य का निर्देश होता है क्योकि द्नादी कर्म भी उनके लिए विहित है |

इसी प्रकार अन्त्यजो के लिए भी धर्म और कर्म का विधान कहा गया है क्योकि अन्त्यज जाति भी शुद्र वर्णन के ही अंतर गत है | शुचि और अशुचि का तारतम्य लेकर ही उनको कही – कही पर एक जाति या अवर्ण कहा है | किन्तु शत्रो में अनेक जगह अन्त्यजो को भी शुद्र वर्णन में ही गिनाया है | कुछ लोगो का यह कहना है की वियातीय सयोग से पैदा होने वाली यह जाति वर्णन के अन्दर नहीं आ सकती है | यदि इस न्याय से ही इस जाति को वर्णन ना मने जाये तो कोई भी शुद्र जाति इसी नही है जो शास्त्रत: शंकर सिद्ध ना होती हो | अत: शत्रो में शुद्र वर्णन को ही दो विभागो में कर दिया है | उसमे अन्त्यज वह वर्ग है जिसकी गर्भ और शरीर – संबंधी अशुचि अधिक रहती है | इसी कारण इन्हें असच्छुद्र कहा गया है | किन्तु व्रिति- निमितक सामजिक कार्य को स्पष्ट करने के लिए ही कही – कही पर शस्त्रों ,में उनका वणोतरादि स्वतंत्र रूप से प्रतिपादन किया गया है , किन्तु ये सब शुद्र वर्ण में ही है | इसी लिए शास्त्र कर स्च्छुद्र और असच्छुद्र की परिभाषा इस प्रकार करते है की जो शुद्र पंच यज्ञ करता हो , द्विजाति सेवा करता हो वह सच्छुद्र है | इसके अतिरिक्त मनमानी करने वाला असच्छुद्र है |

तात्पर्य है की अन्त्यज भी शुद्र श्रेणी की ही एक जाति है | अत; उसे भी शुद्रो के तुल्य अनेक धार्मिक सामान अधिकार कहे गये है | इस विचार को लेकर ही अनेक जगह अन्त्यजो के संस्कार भी कहे गये शागड़ृधर में आया है की गर्भाधनादि पांच संस्कार अन्त्योजो को बी विहित है | इसी प्रकार अन्त्यज प्रयतन सभी शुद्रो को ब्राह्मणदि वर्णों के सामान ही अहिंसादि का उपदेश मनु में दिया गया है ----

 

अहिसासत्यमस्तेय शौचमिन्द्रियनिग्रह: |

एतसामासिक धर्म चातुर्वनयेऽब्रवीन्मनु: ||

 

अर्थात – अहिंसा , सत्य , चोरी ना करना और पवित्रता से धर्म ब्राह्मण से लेकर अन्त्यज पर्यन्त सभी के लिए है |

 

 प्रकरणसामथ्र्यात्संकीणृानामप्य्यधर्मो वेदितव्य: |      कुलपुक:

 

आगे चल कर मनु ने पुन: यह कहा की जितने भी व्यभिचार – जन्य अर्तिलोम सक्डर है वे सब शुद्रो के सधर्मा है | यही बाट है की ज्ञानवल्क्य ने अन्त्यजपर्यत्न  सब शुद्रो को अहिंसा , सत्य , अस्तेय , शौचइन्द्रिया , निग्रह , दान , दम , दया और शान्ति धर्म का उपदेश किया है | शुद्र कमला कर में लिखा है की “ अहिंसादि “ धर्म सबके लिए सामान है|  इसलिए निबंद – ग्रन्थो में शुद्र के तुल्य ही अन्त्यजो को भी महीने भर का अशौच कहा है | शुद्र और द्वजति के सधर्म अहोने के कारण ही पुराणादि शास्त्रों में अन्त्यजो के लिए तीर्थ , वर्त देव पूजनदि  का अधिकार कहा गया है | नृसिहपुराण , में लिखा है ----

 

ब्राह्मण: क्षत्रिय वैश्य: स्त्री: शुद्रनत्यजातय: |

सम्पूज्य त सुरश्रेष्ट नरसिह अपुधर |

मुच्यन्ते चाशुभैर्भार्जन्मकोटि स्मुभ्दवै: ||

 

यही श्लोक ब्रह्मा पुराण के पचपनवे तथा उन्स्थ्वे अद्याय में भी आयुआ है | [पुन: इसी पुराण के कृष्णस्नान प्रकरण वाले बसठवे अध्याय में आया है की ज्येष्ट की पूर्णिमा के दिन कृष्ण स्नान के लियए ऊतम मच्च बनाना चाहिए | उस दिन सुभद्रा , राम और कृष्ण की मूर्ति को स्थापित करना चाहिए और उस मच पर स्थापित कृष्ण आदि की मूर्ति जब धूप – दिपदि तथा ब्राह्मण ,क्षत्रिय , वैश्य और अनुलोम प्रतिलोम आदि शुद्रो से तथा हजारो स्त्री –पुरुषो से घिरी रहती है तब ग्रस्त  स्नातक , याति और ब्रह्मा चारी लोग बलराम के सहित भगवन को स्तनं करवाते है | ऐसे अवसर पर जो मनुष्य पुरुषोतम भगवन को देखते है , वे अविनाशी पद प्राप्त करते है | इसी तरह वर्त के बारे में देवि पुराण में आया है की स्नान किये हुए और हर्ष चित वाले भक्ति युक्त ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य और अन्त्यजादि शुद्र , म्लिच्छ , स्त्री और जो कोई भी हो वे सब वर्त के अभिकारी है | किन्तु वैश्य और शुद्र दो रात्रि से आधिक उपवास ना करे |

यहाँ पर उपवास का निषेद महातप  के विषय में समझना चाहिये ना की सब वरतो में | ईशान सहिता का वचन है की शिवरात्रि का वर्त सब पापो को नाश करने वाला है , उसका अधिकार ब्राह्मण से लेकर चंडाल तक सबको है |

देवल का कथन है की सभी वर्णों के मनुष्य वर्त , उपवास और शारीरक कष्ट सहन से पाप – मुक्त हो जाते है ------

 

वरतोपवास नियमै : शरीरोतापनैस्तथा |

वर्णना: सर्वे विमुच्यन्ते पातकेभ्यो न संशय: ||

 

व्यस्स्मृति का वचन है की चतुर्थ वर्ण होने पर भी शुद्र में वर्णतत्व होने के कारन वह धर्म का अधिकारी है – “ शुद्रो वर्णश्रतुथोऽपि वर्णत्त्वाध्दर्ममहति |”

 

यहाँ पर यह आशंका हो सकती है कि स्मृतिग्रन्थो में अत्यजो में से जिन्हें अस्पृश्य कहा गया है वे कैसे देव्दार्शनादी को सकते है ? ऋषि और शास्त्र के तात्पर्य के अनुसार इस आशंका पर पौरणिक विधानों के अनुसार यह समझ लेना उचित है कि कोई शुद्र जाति गर्भ , बिज और वृति सम्बन्धी आशुचिता के कारण किसी अंश में कभी अस्पृश्य भी हो तो जब सदुपदेश का पालन करे और पौराणिक मंत्रो से दिखित हो जय , अथवा उसमे उत्कृष्ट भक्ति जग तथा वह सदाचार , अमेध्य भक्षण का त्याग , स्वकर्म में रत और स्नानादि से पवित्र जीवन बिताने लगे तो वह ‘ निषाधस्थ पति न्याय’ से उपयुक्त बातो का पूर्ण अधिकारी हो सकता है | अन्यथा चंदाडलादी  के विषय का सारा महात्म्य कथा आदि विधान निरर्थक हो जायेगे | इसी जगह अर्थवाद की कल्पना करने पर शिष्टो का यह वचन है कि भगवान के नाम में जो मनुष्य अर्थवाद की सम्भावना करता है वह नरक में गिरता है |

इस पर भी अर्थवाद की शंक की जय तो कोई हेतु नही है की सभी पौराणिक विधानों ने अर्थवाद ना माना जाये | क्योकि तीर्थ , स्नान , व्रतादि सभी कृत्यों का मह्त्व्व उसी प्रकार वर्णित है जैसे चंडालादी के देवपूजन और दर्शनादि अधिकार की कथा | ऐसे विधानों का सब जगह यही अभिप्रिय रहता है कि पहले मनुष्य में स्वाभाविक या नामितिक , चाहे कोई भी दोष क्यों न हो , या समझा जय , किन्तु वह मनुष्य के पवित्राचरण , ब्रह्मा आभ्यन्तर शुद्धि और भगवभ्द्क्ति होने पर दूर हो जाता है | तात्पर्य यह कि मनुष्य चाहे स्वाभाविक या अस्वाभाविक , चाहे किसी तरह के दुष्ण से युक्त क्यों न हो , यदि वह सत्कर्म और भगवभ्द्क्ति की ओर चले लगता है तो उसके दूषन धीरे धीरे लुप्त होने लगते है | वह फिर अपने जातिकार्य और उसी में रहते हुए भी दिन दिन ऊचा उठता जाता है | लोक में सम्मानित और आदरणीय होकर अन्त में परम पद को प्राप्त होता है | इन आशयो को लेकर ही भगवन गीता में कहते है-----

 

मा हि पर्थ व्यापाश्रित्य येऽपि स्यु: पापयोनय: |

स्त्रियों वेश्यास्तथा शुद्रस्तेऽपि यान्ति परा गतिम् ||

अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् |

साधुरेव स मंतव्य: स्म्यग्यव्यवसितो हि स: |

क्षिप्र भवति धर्मात्मा षश्रच्छनति निगच्छति ||

 

यही बाट है की भगवान रामचंद्र एक अन्त्यज जाति की बुढिया स्त्री शबरी की जीर्ण शीर्ण  कुटी में गए और उन्होंने उसके अघर्य , फल तथा फुल आदि को ग्रहण किया |

यही बाट है कि जजली जैसा तपस्वी ब्राह्मण एक बनिये के पास धर्मोपदेश सुनने गया है और एक तपस्वी ब्राह्मण धर्मोपदेश लेने के लिए धर्मव्याध के पास गया |

एसी एसी कथाओ , विधानों और महत्म्यो का यही तात्पर्य रहता है कि मनुष्य पहले चाहे कैसे ही स्वाभाविक या नौमितिक दोषों से युक्त कतो न हो , यदि वह मंदिक्षा , भाकिभावना और सदाचार से सम्पन्न हो जाता है तो वह दोषनिर्मुक्त होकर सम्मान्य , आदरणीय और स्व्वर्ग के सामाजिक साधारण धर्म का अधिकारी हो जाता है | इनता ही नही , बल्कि उसकी बीज सम्बन्धी और शरीर सम्बन्धी अपवित्रता चली जाती है , जैसे की ब्राह्मण , क्षत्रिय और वैश्य दिजतियो की मर्भ और राजवीर्य दोष की अशुद्धि , नामकरण , चूडाकर्म , उपनयनदी संस्कार से दूर हो जाती है , तथा स्वाध्याय , मघमांस के त्याग का वर्त , होम , ज्योतिष्टोमादी यज्ञ और पंचमहायज्ञो से शरीरस्थ आत्मा ब्रह्मा पर्पटी के योग्य हो जाता है | इस बाट को मनु ने स्पष्ट रूप से स्वीकार किया है | मनु के दितीय अद्याय में आया है कि दिजतियो को वैदिक कर्मो से गर्भाधनादि संकर करना चाहिए , क्योकि वह इस लोक और परलोक में पाप क्षयकारी होता है | यहाँ पर क्ल्लुक लिखते है कि परलोक में यज्ञ सम्बन्धी फल के साथ सम्बन्ध होता है , इस कारन संस्कार परलोक का पवन है | इस लोक में वे संस्कार के द्वारा वेदादि के अधिकारी हो जाते है |

गर्भाधान जत्क्र्मादी संस्कारो में दिज लोगो के गर्भ और बीज सम्बन्धी पाप दूर हो जाते है | इस शुद्धि के बाद दिज बालक अशुद्धि के कारन अब तक जिन स्वाध्यायादि कार्यो में अनधिकारी या अस्पृश्य था , उन स्वध्ययादी कार्यो का अधिकारी हो जाता है | इस प्रकार शुद्ध ब्राह्मणदि दिज की आत्मा ब्रह्मा प्राप्ति के योग्य हो जाती है |

बस इसी प्रकार अन्त्यजादि शुद्र भी पुराणदि विहित मंत्रदीक्षा , कथा पुराणदि श्रवण , सदाचार और भक्ति भवदी से सम्पन्न होकर उत्तम शुद्र हो सकता है और अनेक कार्यो के अधिकारी हो सकते है | इन सब बातो को लेकर ही पुराणों में अन्त्यजादि शुद्रो के लिए अनेक विधान देखे जाता है | इसी प्रकार कार्य तथा उत्पतिक्रिम की प्रधनाता को लेकर ही शुद्रो में उत्तमादी भेद का विधान देखा जाता है | वस्तुतः अन्त्यज भी शुद्र वर्ण की अवांतर जाति है | जैसे ब्राह्मण से ब्राह्मणी में उत्पुन्न ब्राह्मण कहा जाता है , और वह कन्यकुब्ज आदि अवांतर जातिवाला भी कहा जाता है | उसी प्रकार शुद्रा से उत्पन्न संतान शुद्र और अन्त्यजादि की गणना शुद्रो में न हो तो शास्त्रों में सच्छुद्र  का यौगिकरत बोधक लक्षण कभी न किया होता , बल्कि ऐसा पारिभाषिक लक्षण किया होता है कि गोपनापितादी अमुक जाती से अमुक जाति तक स्च्चुद्र है और शेष असच्छुद्र है | किन्तु सब जगह सच्छुद्र का यौगिकरत सूचक लक्षण ही किया गया है | यही बाट चारो वर्णों के अवांतर माननीय वर्ग विशेष के लिए भी शास्त्रों में कही गयी है | जैसे कि श्रोत्रिया ब्राह्मण या पडीक्तपावन ब्राह्मण नाम किसी कन्यकुब्ज आदि वर्ग के लिए नही कहा गया है , बल्कि वेदज्ञो में श्रेष्ट और वेदविहित कर्मो से सल्गन ब्राह्मण को ही श्रोत्रियदि शब्दों से कहा गया है | यह दूसरी बाट है कि वैसे ब्राह्मण के कुल को एक श्रोत्रिय जाती मान लिया गया है |

इसी प्रकार शास्त्रों में सच्छुद्र का जो विस्तृत मिलता है , वह किसी शुद्रांतगर्त वर्ग विशेष के लिए नही कहा गया है | स्कन्दपुराण में सुन्दर वैज्ञानिको और शास्त्रियों दंग से स्च्छुद्रो का निरूपण किया गया है | इस विषय में स्कन्द के पूछने पर शिवजी बोले कि सच्छुद्र वाही है जिसकी पत्नी धर्म की मर्यादा और वेदमार्ग से विवाहिता हो , समान कुल और रूपवाली हो | तथा सच्छुद्र वाही है जिसकी पत्नी देवोक्त रीति से विवाहिता हो और नपुंसकतत्व , हिनंगता आदि दस दोषों से रहित हो |

इनमे विवाहादि बहुत सि मर्यादा की बाते अन्त्यजो में भी पूर्ण रूप से विधमान है | शास्त्रों में अन्त्यजो की विभिन्न परिभाषा देखी जाती है | व्यासस्मृति में तो ग्वाले , नाऊ आदि को भी अन्त्यज कहा है |

इन बातो के विचार से यह सिद्ध होता है कि अन्त्यज शब्द अछूत का बोधक नही है , बल्कि शुद्रो के वर्ग विशेष को अन्त्यज कहा है | उसमे भी कुछ स्मृतियों को छोड़कर शेष में अन्त्यजो की गणना में विरोध है | यह भी नही है की सभी प्रतिलोम शुद्र अन्त्यज कहे जाते हो | क्योकि यम, अग्नि, और अग्डिरा में मत से धोबी , चमार , नट मघमांस ने निरत जाति , मल्लाह , मेद और भील , ये सात जातिया ही अन्त्यज है |

 

रजकश्रर्मकारश्रच नटो बुरुड एव च |

कैवर्टमेदभिल्लाश सप्तैते अन्त्यजा: स्मृत: ||

 

इन जातियों में अब एक आध को छोड़कर अन्य अस्पृश्य नही मणि जाती है | उदाहरण के लिए कैवर्त को कोई भी अस्पृश्य नही मानता है | किन्तु रजक जैसी एक आध जाति को कही कही पर अंशत: अछूत मानते है | यह भाव भी धीरे धीरे हट रहा है | मनुस्मृति में अन्त्यज की अरिभाषा कही नही की है | दसवे अध्याय में केवल , अंत्यावसायी शब्द दिया है | उसमे भी दो चार जातियों की गणना नही है , किन्तु निषाद की स्त्री में चंडाल से उत्पन्न को अंत्यावसायी कहा है | मनु के अनुसार अन्त्यज कोई परिगणित जाति नही है | संकर जाती का निरूपण करने वाले दसवे अध्याय में अन्त्यज शब्द तक नही आया है | किन्तु एकसौ दसवे श्लोक में शुद्र का बोधक “ अन्त्यज्नमा “ शब्द आया है |

इसी प्रकार यह भी विधान देखने में नही आता है कि जितने भी “प्रतिलोम” शुद्र है वे सब अस्पृश्य है | नही तो सुत , मगध , वैदेह प्रभृति प्रतिलोम शुद्रो को उत्तम शुद्र न समझा जाता | इस सुत जाति में उत्पन्न होकर ही सूतजी ने ऋषयो को पुराण सुनाया था | यधपि कुर्मपुराण और अग्निपुराण में पुराण के वक्ता सूतजी ब्रह्मा के यज्ञ के पृषदाज्य से पैदा हुए थे , तथापि पुराणों में अनेक जगह यह भी वर्णन आता है कि वाही सूतजी शुद्र जाती के थे | इस विषय में स्कन्दपुराण नागरखण्ड के एक सौ चौरानवेवे अध्याय में आया है कि जब सूतजी ने ऋषयो से कहा की दिन , रात , युग और ब्रह्मादी प्राप्ति ही नित्य वस्तु है | उसकी प्राप्ति के बाद पुनर्जन्म नही लेना पढता है |

इस पर ऋषयो ने ब्रह्माज्ञान की प्राप्ति के बारे में सूतजी से पुच्चा की किस प्रकार मनुष्यों को ब्रह्माज्ञान की प्राप्ति हो सकती है ? यदि जानते हो तो हमसे कशो | उत्तर में सूतजी बोले की मेरी शक्ति ही क्या है जो ब्रह्माज्ञान कह सकू | जो खुद नही जनता वह दुसरे से कैसे कह सकता है | किन्तु अपने पिता के आदेश से मै

हाटकेश्रवर तीर्थ में गया था | वहा पर रक्खी हुई पादुकाओं की मैंने पूजा की | उसी से मुझे ज्ञान हो गया और जो कुछ भी मैंने पुराणों का उतम तत्व सुना है , वह सब और वर्तमान तथा भविष्य  को मै पादुका के प्रसाद से जानता हू | किन्तु मै वेद का पढना नहीं जानता , क्योकि मै सूत जाति का हू , मुझमे सूतत्व विधमान है | फिर भी वेद के सब अर्थ को मै जानता हू |

   यहाँ पर सूतजी ने अपनी स्थिति या जाती को स्वतः वर्णन किया है | इन सब विचारो को लेकर यही सिद्ध होता है कि अनुलोम संकरत्व या प्रतिलोम संकरत्व  किसी जाती की अस्पृश्यता का हेतु नहीं है बल्कि व्यभिचार  के कारण ही किसी – किसी को कही – कही पर अस्पृश्य कहा गया है | मनु चाहते थे कि व्यभिचार फैलने न पावे | आज भी वयभिचार –जन्य संतान को नीच दृष्टि से देखा जाता है | सांकर्य को रोकने और लोकमर्यादा को स्थिर करने के लिए ही मनु को इस प्रकार के दंड का विधान करना पड़ा | यह बात मनु के दसवे अधयाय के संकर प्रकरण के अंतिम भाग से सूचित होती है | किन्तु अब उन अन्त्यजो में अनन्त काल से विवाहित मर्यादा बंध गई है और वे लोग सहृद जाती की सेवा आदि मुख्य कर्म करते आ रहे है | इस पर उन्हें सदुपदेश, पुराणवार्त्ता और मंत्रदीक्षा आदि दी जाय तो उन्हें भी उतम शूद्र की तरह आदरणीय और देवदर्शनादी का अधिकार मानना चाहिए | इस पर भी कुछ लोगो का यह कहना है कि मनु के निम्नलिखित वचनों के अनुसार-----

 

न शुद्राय मतिं दधान्नोच्छिष्ट न हविष्कृतम् |

                      न चास्योपदिशेद्धर्म न चास्य व्रतमादिशेत् ||            अध्याय ४-८ |

विप्रसेवैव शूद्रस्य विशिष्ट कर्म कीत्यते |

                    यदतोऽन्यद्धि कुरुने तभ्दवत्यस्य निष्फलम ||           अध्याय१०-१२३

न शूद्रे पातक किच्ञिन्न च संस्कारमर्हति |

                      नास्याधिकारो धर्मेऽस्ति न धर्मेत्प्रतिषेधनम् |           अध्याय ||१२६||

 

   अर्थात् शूद्र को धर्मव्रतादि का उपदेश नहीं देना चाहिए | सेवाकर्म ही उसका मुख्य धर्म है, इससे कर्म निष्फल हो जाता है | शूद्र को कोई पातल नहीं लगता, उनके लिए कोई संस्कार नहीं है, उनको धर्म का भी अधिकार नहीं है |” “एव स्त्री शूद्रपतनानी षट्”, “प्रतिलोमास्तुधर्महीना:” “सर्वधर्मबहिष्कृत:” इत्यादि स्मृत्त्यन्तर के वचनों के अनुसार शुद्रों को या अन्त्यजो को किसी प्रकार के धर्म का अधिकार नहीं है | किन्तु ऐसी आशंका पर प्राचीन निबन्धकारो और व्याख्याकारो ने यही समाधान किया है कि शुद्रादि के लिये साधारणत: धर्ममात्र का निषेध नहीं है, किन्तु उसी धर्म या उपदेश का निषेध है जिसका सम्बन्ध वैदिक तथा स्मार्त विधातो से है, जो कि केवल वेदमंत्र-पूर्वक उपनयन-संस्कार-युक्त व्दिजो को प्राप्त है | यदि उसको धर्म मात्र का उपदेश वर्जित होता तो स्मृति और पूराणादि ग्रन्थो में पंचयज्ञ का विधान, विष्णुपूजन, शिवपूजन, और व्दादश संस्कारादि का विधान शूद्र के लिये कभी न किया होता | ऊपर एक सौ तेइसवे श्लोक के कुल्लूक ने लिखा है कि सेवाधर्म का ही उपदेश अन्य धर्म की निवृति के लिए नहीं है | क्योकि उसके लिए पाक यज्ञ भी खे गए है | अत: “सेवैव” यह विधान सेवा-धर्म की स्तुति के लिये है | फिर आगे “न शूदे् पातक किच्ञित्” एस श्लोक पर कुल्लूक ने लिखा है – ‘न पात के किच्ञित्’ का अभिप्राय यही है कि जिस लहसुन, प्याज आदि के भश्रण में ब्राह्मण आदि को पाप माना गया है, वह पाप शूद्र को नहीं लगता है | इसका यह अभिप्राय नहीं है कि ब्रह्मह्त्यादि पंच महापातको का दोष शूद्र को लगता ही नहीं | एव “न संस्कारमर्हति” इसका यही अभिप्राय है कि वैदिक मंत्रपूर्वक होने वाले उपनयनादि संस्कार शूद्र के लिये नहीं होते | एव “नास्याधिकारोऽधर्मेऽस्ति” इत्यादि वाक्यों का यही अभिप्राय है कि अग्निहोत्र आदि वैदिक कर्म करने का उसको अधिकार नहीं है |

       इसी प्रकार जहा पर यह कहा गया है कि “सर्वबहिष्कृत:” वहा पर भी यही अभिप्राय है कि अन्त्यज आदि अपने आचरण और धर्म में न हो तो ऐसे उन्मत्त, ‌उछण्ड, उच्छृड्खल और मर्यादा-रहित को धर्म-उपदेश न दे | किन्तु जो अपनी मर्यादा और आचार पर स्थिर है, उसे स्मृति और पुराणादि विहित धर्मो का उपदेश अवश्य दे | अतएव अन्त्यजादि शुद्रो को लश्र्य करने ही मनु कहते है कि यदि प्रतिलोक शूद्र निर्लोभ होकर शुद्ध भाव से गौ, ब्राह्मण, स्त्री और बालक में से किसी एक की रक्षा के लिये प्राण दे दे तो स्वर्ग प्राप्ति के समय सिद्दि प्राप्त करता है |

         फिर इस श्लोक के आगे ही मनु ने सब लोगो के लिये अहियादी का विधान किया है | इनसे स्पष्ट है कि अन्त्यजादि किसी के लिए भी साधारण रूप से धर्मोपदेश का निषेध नहीं है | जहा मनु ने “न शुद्रे पातक किच्ञित्” यह विधान दिया है | उसके आगे ही लिखा है कि जो धर्मज्ञ शूद्र धर्म की प्राप्ति चाहते है, वे यदि आचारवान् लोगो का आचरण करते हुए वैदिक मंत्ररहित किन्तु नमस्कार मंत्रपुर्वपंचयज्ञादी क्रिया का अनुष्ठान करते रहे तो उन्हें विघ्न नहीं आता है | इस लोक और परलोक में वे प्रशसा पाते है |

      कुछ लोग त्रिस्थली सेतु में दिए हुए----“य: शुद्रेणार्चित लिग्ड विष्णु वा प्रणमेंन्नर: | न तस्य निष्कृतिर्द्रृष्टा प्रायच्श्रित्तायुतैरपि” इत्यादि नारदीय वचनों को लेकर खा कहते है कि शूद्र को पुजनादी का अधिकार ही नहीं है | इस पर भी भुत कुछ समाधान पहले दे दिया है, फिर भी------

 

शूद्र कर्माणि यो नित्य स्वियानि कुरुते प्रिये |

             तस्याहमर्चा ग्रह्नमि चन्द्रखण्ड विभुषिते ||          स्कन्द

              “चतुर्वर्णैस्तथा विष्णु: प्रतिष्ठाप्य: सुखार्थिभि:”        देवीपुराण

 

           इत्यादि शतश: शूद्र-पूजा-विधायक वचनों के अनुसार यह बात सिद्ध होती है कि शुद्रो के व्दारा बिना मंत्र के प्रतिष्ठापित देव का पूजन नहीं करना चहिए | कारण कि वह प्रतिमा वैदिक मंत्रो से प्रतिष्ठत नहीं रहती है | यहा पर यह विवक्षित नहीं है कि शूद्र व्दिज से प्रतिष्ठत सार्वजनिक मूर्ति की पूजा न करे | इन सब तात्त्विक विचारो से यह स्पष्ट है कि शूद्र को व्दिजसेवा के अतिरिक्त्त, श्राद्ध, देवपूजन, दर्शन, गर्भाधानादि व्दादश संस्कार, व्रत, उपवास, तीर्थ-यात्रा, पौराणिक मंत्र जप, मालाधारण, स्तुति, दया, दान और अहिंसादि अनेक धर्म का पूर्ण अधिकार है |

     महाभारत में कहा है कि श्राद्ध, न्याय ,सत्य, क्रोध, स्वदार-सन्तोष, शौच, अनसूया, आत्मज्ञान, सहनशक्ति, यह शूद्रपर्यन्त सभी मनुष्यों का धर्म है | हेमाद्रि में विष्णु का वचन है कि क्षमा, शौच, दम, दान, इन्द्रिय संयम, सत्य, अहिंसा, गुरुसेवा, तीर्थयात्रा, दया, नम्रता, अलोभ, देव और ब्राह्मण से लेकर अन्त्यजपर्यन्त के ये सब धर्म है |

      पुरणो में तो अन्त्यजपर्यन्त शुद्रो के लिये अन्यन्त स्पष्ट और मनोहर रूप में विधि और विधान दिए गए है | क्यों न हो, पुराणों के निर्माण का विषय उदेश्य इन दीन भाइयो को उठाना ही है | भविष्य में लिखा है कि विशेषतया शुद्रो के धर्म, अर्थ आदि की प्राप्ति के लिए व्यासजी ने वेद और धर्मशास्त्र का सार भरकर पुराण और भारत को बनाया | अतएव भागवत के व्दितीय स्कन्ध के चतुर्थ अध्याय के अठारहवे श्लोक में खा गया है कि जिस भगवान् के भक्तो के आश्रय पर रहने से ही किरात, हूणादि जाती और भी जो कोई पतित-से-पतित क्यों न हो शुद्ध हो जाती है , ऐसे भगवान् को नमस्कार है | यह सब अन्त्यादि जनों को भगवभ्डक्त्या शुद्ध करने के लिए ही खा गया है | यदि उनके लिए भी हम भगवान् का दर्शन रोक दे तो परमात्मा जाने हमे कहा स्थान मिलेगा | एस प्रकार उत्तम और संस्कृत शूद्र के लिए बड़ा ही सुन्दर प्रकरण स्कन्द्पुराण के व्याहखण्ड के दो सैा इकतालिसवे अध्याय में देखा जाता है |

   शिवाजी कहते है कि शुद्रो को अपनी भार्या में प्रेम, शुद्धि, नैकरी का पोषण, नित्य श्राद्ध-क्रिया, अग्निहोत्रादि रूप इष्ट क्रिया करना, पंचयज्ञ, स्नान, तर्पण, अग्नि में मंत्ररहित होम , ब्रह्मयज्ञ और स्त्री के साथ अतिथि-पूजा केनी चाहिए | आगे इसी अध्याय में अन्त्यज जाति का धर्म एस प्रकार विशेष रूप से आया है |

      यहा पर पहले शिल्पी, नर्तक, रजकादि अठारह जातियों प्रकृति नाम से कही गई है | इस कारण ‘तासा’ शब्द उसी प्रकृति के लिए आया है | अत: शिल्पी, रजक, नर्तक, चाण्डाल, वर्धकि, मत्स्यघाति प्रभृति जातियों को ब्रह्मण की सेवा, वष्णु का ध्यान, मंत्ररहित शिवार्चन, तीर्थस्नानादि पुण्यकर्म और दानकर्म  करने चाहिए, क्योकि श्रद्धा से दुष्ट दान का क्षय कभी नहीं होता है | एवम् इस प्रकृति की जातियों के लिये अहिसादि धर्म का भी उपदेश भी दिया गया है |

      फिर इसी अध्याय में गृहस्थ शूद्र का लक्षण बताया गया है कि शुद्र नित्य षड्दैवत श्राद्धा और ह्न्तकारपूर्वक अग्निपूजन बिना मंत्र के करे और देव-व्दिज को नमस्कार और उनमे भक्ति करे | प्रात:काल उठकर देवादि का पादाभिवन्दन करके विष्णुभक्ति के श्लोको को पढ़ने से विष्णुत्त्व प्राप्त होता है | वर्ष में होनेवाले व्रत करने वाला, तिथि, वार और देवता के बारे में विचार रखकर चलने वाला और जीवो को अन्न देने वाला शूद्र गृहस्थ शूद्र खा जाता है | अमंत्रपूर्वक कर्म करता हुआ भी शूद्र मुक्त हो जाता हिया और चातुर्मास्य व्रत करनेवाला शूद्र भी हरिभाव को पहुचना है | इस प्रकार स्मृति, पुराण, भारतदि इतिहास ग्रन्थो में उदारता के साथ भुत से सामाजिक विधान और कथाएँ है जिनका अधिकार व्दिजति ही तरह अन्त्यजादि शूद्र भाइयो को भी है | इस पर भी आत्मबल की कमजोरी के कर्ण आजकल बहुत सि बातो में उन्हें अनधिकारी समझकर रथयात्रा जैसे कई एक “देवोत्सवो” में परस्पर विवाद और व्देषमय झगड़ा चल जाता है | किन्तु ॠषियो का हृदय उदार था | उन्होंने रथयात्रादि जैसे देवोत्सवो में शामिल होने का अधिकार उन्हें भी दे रक्खा है | वे भी व्दिजातियो की तरह सनातनधर्मो है | उनके सर्वसाधारण सामाजिक कार्यो में प्रवेश पाने में बाधा नहीं डालनी चहिए | ऐसे अवसर के लिए ही तो शास्त्रों का कथन है कि यदि कोई अपने सधर्मा भाई को हर समय अस्पृश्य समझता हो तो उसको यह समझ लेना चाहिए कि देवयात्रा, विवाह, यज्ञप्रकरण और समस्त उत्सवो में छुआछुत का विचार नहीं रहता है -------

 

देवयात्राविवाहेषु यज्ञप्रकरणेषु च |

                       उत्सवेषु च सर्वेषु स्पृष्टास्पृष्ट न विधते ||          अत्रि, २४६ |

 

      इसी प्रकार बृहस्पति का वचन है कि तीर्थ, विवाह, यात्रा, संग्राम, देशाविप्लव, नगर और ग्रामदाह के समय छुआछुत से कुछ भी दोष नहीं होता है----

 

तीर्थे विवाहे यात्रायां संग्रामे देशाविप्लवे |

                          नगर ग्रामदाहे च स्पृष्टास्पृष्टिर्न दुष्यति ||              बृहस्पति: |

इसी प्रकार शातातप का भी वचन मिलना है------- 

ग्रामे तु यत्र संसृष्टिर्यात्रायां कलहादिषु |

ग्रामसन्दूषणे चैव स्पृष्टिदोषों न विधते ||

 

    केवल विधान ही नहीं किन्तु ॠषि लोगो ने इस तरह के नियमो का पूर्ण पालन भी किया था | स्कन्द्पुरण नागरखण्ड के सड़सठवे अध्याय में यह वर्णन आया है कि जब परशुराम ने सहरत्रार्जुन पर चडाई की तो इन अन्त्यजो की सुसज्जित सेना को साथ लेकर ही चडाई की थी | पितृअशौच से मुक्त होकर तीक्ष्ण पुलिन्द, मेदक, भील्ल आदि की सुसज्जित सेना लेकर परशुरामजी सहरत्रार्जुन से लड़ने गए | उस लड़ाई में वीर शबरो ने सहरत्रार्जुन की सेना को परास्त किया और सैनिको को बांध लिया | फिर इसके आगे के अध्याय भी आया है कि पुन: जब क्षत्रियों ने उपद्रव मचाया तो भी पुलिन्द, शबर, मेदक आदि अन्त्यजो की सेवा लेकर परशुराम, युद्ध के लिए निकल पड़े | इतना ही नहीं, बल्कि जब वसिष्ठजी और विव्श्रमित्रजी में घोर युद्ध के लिये निकल पड़े | इतना ही नहीं, बल्कि जब वसिष्ठजी और विव्श्रमित्रजी में घोर युद्ध हुआ तो वसिष्ठजी की और से शबरादि अन्त्यजो ने बड़ी वीरता के साथ लड़ाई में विजय पाई | अर्थात् गाय के चीत्कार को सुनकर वसिष्ठजी की ओर से असख्य शबर पुलिन्दादी लड़ाई के लिए निकल पड़े और उन लोगो ने विव्श्रमित्रजी की सेवा का नाश के दिया | यहा यह ध्यान रहे कि जिन पुलिन्द, शबर, मेद प्रभृति जातियों को लेकर परशुराम आदि वीरो ने लड़ाई लड़ी थी, वे सब चाण्डाल जाति के ही भेद मने जाते है, अर्थात् प्लव, मातगादि चाण्डाल कहे जाते है | इसी के बाद फिर आया है कि किरात, शबर, पुलिन्द, ये तीन मलिन जतियाँ भी चाण्डाल के ही भेद है--------

 

   “भेदा: किरातशबरपुलिन्दा म्लेच्छजातय: |”   अम. शूद्रवर्ग १९-२० |

 

   अब यहा पर यह विचरता चाहिए की उस अवसर पर इन्हे अस्पृश्य माना जाता तो कब सम्भव था कि वे लोग परशुराम आदि का साथ देते या स्पर्शदोष को मानकर भी सेना का संचालन कर लेते, एव पुलिन्दादि से क्षत्रिय लोग लडने आते ? इत्यादि | इसी प्रकार रथयात्रादि जैसे देवोत्सवो में भी अन्त्यज आदि सनातनधर्म शूद्र भाइयो के शामिल होने में कोई दोष नहीं समझा गया है | रथयात्रा के विषय को लेकर ही पद्मपुराण में आया है कि रथ में बैठे हुए पुरुषोत्तम भगवान् और बलभद्र, सुभद्रा और देवो को जो पुरुष देखता है वः विष्णुलोकवासी होता है और मुक्त हो जाता है | इसके बाद आया है की रथयात्रा में द्विजादि लोग स्तोत्र-पाठ करते हुए जाते है और सूतमाग्ध प्रभृति लोग कृष्ण की कीर्ति गाते हुए जाते है | फिर आया है कि रथयात्रा के समय जो लोग भगवान् को प्रणाम करते है वे मुक्त हो जाते है, जो लोग पीछे-पीछे चलते है, वे देवता के समान शरीर वाले होते है, और जो लोग जय शब्द करते, नाचते और गाते हुए जाते है वे लोग उत्तम वैष्णवों के संसर्ग के कर्ण मुक्त हो जाते है |

      ये सब स्पष्ट वाक्य है | इनमे संकोच करने का कोई कारण नहीं है | अत: इन वचनों के अनुसार कम-से-कम साधारण रीति से अन्त्यजादि सभी जाति के सनातनधर्मियो को रथयात्रा जैसे साधारण देवोत्सवो में शामिल होने का अधिकार शास्त्र से प्राप्त है |

 

अन्त्यजो कस विधाधिकार

 

   विधा के बिना किसी देश या जाती की उन्नति असम्भव है | अन्यजो में जो कुछ भी त्रुटि समझी जाती है , उसका सबसे प्रबल कारण उनमे विधा-प्रचार की कमी है | शास्त्रों में विधा के अनेक भेद है | परन्तु यहा पर विधा का अभिप्राय लिपि बोध द्वारा स्कुल में शिक्षा ग्रहण करना है | इसकी भी अधिकार अन्त्यज भाइयो को पूर्णतया प्राप्त है | सुख है कि अभी तक इस बात का विशेष प्रबन्ध नहीं हो सका | समाज में धर्म की विपरित बावना ने ऐसा कुप्रभाव जमा रक्खा है कि कुछ लोगो ने इन भाइयो के स्कुल में पढने का विरोध किया है | और फलस्वरूप अन्यज भाइयो को कष्ट सहन करना पड़ा | इसके लिए मुझे बड़ा संताप है | धार्मिक भावना को लेकर जिनकी यह धारणा है कि अन्त्यजादि जाति को पढाना उचित है , उनको शास्त्रीय सिद्धान्तो का स्मरण करा देना अन्त्यजो की शिक्षा में उपकारी होना | इस पर पद्मपुराण और देवीपुराण के विधादान के प्रकरण में सर्वोत्तम विस्तृत वर्णन मिलता है | उसमे से परम सारभूत और सर्वोपकारी कुछ वचन ये है ------

विधादानात् परं दान न भूत न भविष्यति |

येन दत्तेन चत्नोति शिवं परम कारणम् |

विधा च श्रूयते लोके सर्वधर्म्मप्रदायिका |

तस्माद्विधा सदा देया पण्डितैधार्मिकैव्र्दिजै: |

पद्मोत्तर खं. ११७ अ. |

 

    अर्थात्, विधादान से बढ़कर प्र्म्दन न तो हुआ और न होगा | विधादान करने से मनुष्य परम कल्याण-स्वरूप शिवाजी को प्राप्त करता है | विधा सब धर्म को देने वाली कही जाती है | इस कर्ण धार्मिक द्विज पंण्दिजो को उचित है कि वे सदा विधा दे | इसी प्रकार देविपुराण में आया है कि विधा कुल की, जाती की , रूप की और पुरुष सम्बन्धी पात्रता की परवाह नहीं करती है | बल्कि जो कोई भी विधा पढ़े उसका उपकार ही करती है | यहा पर यह श्लोक बड़े गौरव का है------

 

अन्त्यजा अपि यां प्राप्य क्रीडन्ते ग्रहराक्षसै: |

सा विधा केन मीयेत यस्या: कोऽन्य: समोऽपि न ||

 

    अर्थात् जिस विधा के प्रभाव से या विधा पढ़कर अन्त्यज भी चन्द्रसूर्यादि ग्रह और पराक्रमशील राक्षसों के साथ खेला करते है, और जिसके बराबर इस संसार में और कोई भी नहीं है, उस विधा की उपमा किससे दि जा सकती है | इस प्रकार शिक्षा देने के विषय में शिवधर्म में आया है ----

 

संस्कृतै: प्राकृतैर्वाक्यै: शिष्य चैवानुरूपत: |

देशभाषाधुपापैच्श्र बोधयेत् स गुरु: स्मृत: ||

 

अर्थात् गुरु व्ही है जो कि संस्कृत, प्राकृत और देशभाषा के द्वारा चाहे किसी प्रकार से भी शिष्य को बोध करा दे | बस इस विषय में इतना ही दिखाना सर्वसन्तोषजनकहोगा | इस पर उदारता के साथ शुद्ध हृदय से मनन करने की आवश्यकारी है कि ‘सर्वभूतहितेरत’ ॠषियो का आशय सदा उदार और सर्वउपकारी रहा | उन्होंने सब समय के उपयोगी विधान अपने अक्षय धर्मग्रन्थो में रख दिए है | उस पर भगवन् व्यासजी से जितना हो सकता है तो व्यासजी की दी हुई धार्मिक अमृत संजीवनी बूटी से | आगे भी यदि हमे धर्मपूर्वक जीवित रहना है तो व्यासजी के ही वचनामृत पीकर जीवित रह सकते है | उसके सिवा और कोई प्रबल शरण नहीं है | व्यासजी की दृष्टि में जैसे द्विजाति थे, उससे भी बढ़कर असमर्थ दीन अन्त्यजादि शूद्र भाई थे | उनको शायद हमसे भी अधिक इन भाइयो की रक्षा की चिंता थी | इसी प्रकार अन्त्यज भाई को भी शामिल कर रक्खा है | बस उनकी इस सूक्ष्म दृष्टि को पहचानना ही स्नात्न्धार्मिक के लिये परम कल्याणकारी होना | अन्त में व्यासजी की इस अमृत वाणी को स्मरण कर इस विषय को यही समाप्त करता हू |

 

येन येन प्रकारेण परेषामुपजीवनम् |

भविष्यति च तत्काय्र्य धीमता पुरुषेण हि ||

स्त्रियापि चैव तत्काय्र्य परोपकरणान्वितम् |

यदुकत्तं करुणासारै: सारं कि तदिहोच्यताम् |

                        धर्मार्थी मनुजो यच्श्र न स वार्यो महात्मभि: ||                स्कन्द पु. 

श्री विव्श्रनाथ: प्रसीदतु ||

         (काशी, चैत्र कृष्ण, संवत् १९९३)

 

 

 

 

 

 

 

 

    

 

 

 

 

Mahamana Madan Mohan Malaviya