Mahamana Madan Mohan Malaviya

Mahamana Madan Mohan Malaviya
Speeches & Writings

राष्ट्रीय दल

नेशनलिस्ट पार्टी

 

    विगत तारीख १८ तथा १९ अगस्त, सन् १९३४ ई. को राममोहन लाइब्रेरी, कलकत्ता में पूज्य मालवीय जी की अध्यक्षता में राष्ट्रीय विचार वालों की एक सभा हुई थी,  जिसमे  ‘काँग्रेस राष्ट्रीय दल  को स्थापित करने का प्रस्ताव स्वीकृत हुआ था। उक्त दल की नीति निर्धारित करते हुए पूज्य मालवीय जी ने श्री अणे महोदय के साथ निम्नलिखित वक्तव्य प्रकाशित कराया था।

-सम्पादक


      १- यह भलीभाँति विदित है कि हम लोग काँग्रेस की कार्यकारिणी सभा के उन विचारो  से पूर्णतया असहमत हैं जो उसने साम्प्रदायिक निर्णय के सम्बन्ध में प्रकट किए हैं, और इसी कारण हम लोग ‘काँग्रेस पार्लियामेण्टरी बोर्ड से, और एक सज्जन तो काँग्रेस कार्यकारिणी समिति से, त्यागपत्र देने के लिये बाध्य हुए हैं। हमारे साथियों ने हमसे त्यागपत्र लौटा लेने का तथा अपने आक्षेपों पर पुनर्विचार करने का अनुरोध किया,  और हमने भी इस आशा से त्यागपत्र लौटा लिए कि हमारा और उनका मतभेद दूर हो जाय। हमें खेद है कि अधिक विचार करने पर भी हम उस मतभेद को दूर न कर सके,  और अपना त्यागपत्र देने के लिये हमें विवश होना पड़ा।


      २- इस त्यागपत्र का यह आशय नहीं है कि हमने काँग्रेस से चिरकाल के लिये एकदम सम्बन्ध त्याग कर दिया है। हमारा काँग्रेस से साम्प्रदायिक निर्णय के अतिरिक्त और किसी बात में मतभेद नहीं हैं। हमें  हार्दिक खेद है कि काँग्रेस की इस नीति के कारण हमें पार्लियामेण्ट बोर्ड की सदस्यता से त्यागपत्र देना पड़ा। किन्तु हम देशवासियों को विश्वास दिलाना चाहते हैं कि देश तथा काँग्रेस के प्रति अपने कर्त्तव्य का स्मरण करके हम ऐसा कर रहे हैं। हमारा यह विश्वास है कि काँग्रेस कार्यकारिणी समिति तथा पार्लियामेण्टरी बोर्ड ने इस साम्प्रदायिक निर्णय के सम्बन्ध में जिस नीति को स्वीकार किया है,  वह काँग्रेस की उस नीति और सिद्धान्त के सर्वथा प्रतिकूल है, जिसका पालन और पोषण वह अपने जन्मदिन से कर रही है,  और जिसके लिये सदैव कटिबद्ध रही है। समिति का यह भाव कि वह साम्प्रदायिक निर्णय को, जिसे कार्यकारिणी समिति ने सर्वथा ‘असन्तोषजनक, अमंगलकारी’, उपेक्षणीय’, ‘दोषपूर्ण’ और ‘राष्ट्रीयता’ का शत्रु माना है,  न तो स्वीकार करती है और न अस्वीकार ही, देश के कल्याण के लिये घोर घातक है,  और विशेषत: हिन्दुओं के लिये केन्द्रीय व्यवस्थापिका सभा में, हिन्दुओं और सिक्खों के लिये पंजाब में, तथा हिन्दुओं के लिये बंगाल तथा आसाम मेतो प्रतिनिधियों को भेजने के लिये यह और भी दोषपूर्ण और अग्राह्य है। हमारा यह भी विश्वास है कि हमने जिस नीति का समर्थन किया है वह परम्परागत काँग्रेस की मर्यादा तथा प्रथा के अनुसार ही है। इस प्रश्न की अत्यंत राष्ट्रीय महत्ता को देखते हुए हम यह अपना धर्म समझते हैं कि हम देश तथा व्यवस्थापिका सभाओं में वास्तविक राष्ट्रीयता तथा बुद्धिमत्ता को प्रबल करें, जिसको हम ठीक समझते हैं।


      ३- इस उद्देश्य की पूर्त्ति के लिये हम एक राष्ट्रीय दल संघटित करना चाहते हैं, जो श्वेतपत्र तथा साम्प्रदायिक निर्णय के विरुद्ध एक व्यापक आंदोलन देशभर में कर सके; और प्रत्येक प्रान्त से व्यवस्थापिका परिषद् में भेजने के लिये ऐसे सदस्यों को खड़ा करे, जो दोनों बातों के बहिष्कार के लिये काम करें। बिना किसी जाति या धर्म के विचार के,  जो भारतवासी चाहे इसका सदस्य हो सकता है। यह दल केवल राष्ट्रभाव के आधार पर काम करेगा।


     ४- राष्ट्रीय दल उस प्रयत्न का सर्वथा साथ देगा जो साम्प्रदायिक प्रश्न का सर्वसम्मत निर्णय करने के लिये प्रयत्नशील हो। इस का कहना है कि लखनऊ के समझौते पर तबतक कोई कार्रवाई न की जाय, जबतक सम्बद्ध दलों की सम्मति न हो, और जबतक कि कोई नवीन निर्णय नहीं हो जाता,  तबतक सब बातें बदस्तूर बनी रहें।


यदि कभी किसी प्रकार के परिवर्त्तन की आवश्यकता हुई तो यह दल नेहरू रिपोर्ट तथा सन् १९२८ ई. की काँग्रेस के निर्णय का साथ देता है कि “किसी भी प्रतिनिधित्त्व की राष्ट्रीय पद्धति के लिये यह आवश्यक हो जाता है कि उसका स्थापना के पहले ही अलग चुनाव का पूर्णतया बहिष्कार हो जाय। और जुलाई,  सन् १९३ई. की काँग्रेस की उस योजना से काम लेगी,  जिसे महात्मा गाँधी ने गोलमेज सभा के सामने रक्खी थी,  और जिसका समर्थन राष्ट्रीय विचार वाले देश के सभी मुसलमानों ने किया था।


      ५- यह दल उचित अवसर पर,  जबकि सम्प्रदायिक निर्णय श्वेतपत्र के प्रमुख भाग के रूप में ब्रिटिश पार्लिंयामेण्ट के सामने विचार के लिये रक्खा जाता है, उचित नीति का आश्रय लेगा जिससे कि सम्प्रदायिक निर्णय के आपत्तिजनक अंग मूलत: संशोधित हो सकें।


      ६- यह दल इस बात का समर्थन नहीं करता कि धार्मिक विषयों में व्यवस्थापिका सभा किसी प्रकार का हस्तक्षेप करे।


 

काँग्रेस और श्वेतपत्र

 


श्वेतपत्र की भर्त्सना करने पर,  जिसकी कि भारतवर्ष के प्राय: सभी राजनीतिक दलों ने थोड़ी-बहुत निन्दा की है,  काँग्रेस की कार्यकारिणी समिति ने कहा है कि श्वेतपत्र के अतिरिक्त देश के सामने एक यही सन्तोषजनक मार्ग बचा है कि समझदार मतदाताओं द्वारा चुनी गई विधान-विधायिका सभा एक विधान तैयार करे,  आदि।” भारत तथा इंग्लैण्ड, दोनों देशों में सरकार के विचारों को देखते हुए हमें यह बिल्कुल असम्भव दिखाई देता है कि सरकार विधान बनाने के लिये स्वंय एक विधान-विधायिका सभा बुलाएगी अथवा बुलाने में हमारी सहायता करेगी। अतएव हमने उसकी जगह एक राष्ट्रीय सभा बुलाने की कल्पना की है जिसमें कि सभी राजनीतिक दलों के प्रसिद्ध नेता निमंत्रित किए जा सकते हैं। यह निर्विवाद है कि यदि वे नवीन विधान के मर्म्मस्थलों पर एकमत हो गए तो प्राय: समस्त देश उसे स्वीकार कर लेगा।

 


 

काँग्रेस और साम्प्रदायिक निर्णय


      अपनी सम्मति के द्वितीय अंश में कार्यकारिणी समिति ने कहा है कि ‘श्वेतपत्र की अवहेलना से तो सम्प्रदायिक निर्णय स्वयं नष्ट हो जायगा।  अन्य बातों के साथ-ही-साथ विधान-विधायिका सभा का यह कर्त्तव्य होगा कि वह मुख्य-मुख्य अल्पमतों के प्रतिनिधित्त्व का मार्ग निर्धारित करे,  अन्यथा किसी अन्य प्रकार से उनके हितों की रक्षा करे। हमारे विचार से यह कहना कि श्वेतपत्र के साथ-ही-साथ साम्प्रदायिक निर्णय भी स्वतः नष्ट हो जायगा’  ठीक नहीं है। हम अच्छी तरह जानते हैं कि यदि किसी प्रकार श्वेतपत्र के प्रस्ताव गिर भी जायँ तो भी सरकार साम्प्रदायिक निर्णय के उपायों को वर्त्तमान शासन-विधान में सम्मिलित नहीं करेगी। किन्तु यह आशंका सत्य है कि यदि श्वेतपत्र के स्थान में कोई अन्य योजना आई और साम्प्रदायिक निर्णय को यदि योंही छोड़ दिया गया तो वह किसी भी बिल में मिला लिया जायगा। सरकार ने श्वेतपत्र तथा साम्प्रदायिक निर्णय के प्रस्तावों में एक मौलिक भेद रक्खा है। वह श्वेतपत्र के प्रस्तावों पर अपने आक्षेप प्रकट कर सकती है, क्योंकि वह अन्य शासन-विधानों की तरह ही है। किन्तु साम्प्रदायिक निर्णय उनके कथानानुसार सरकार का अन्तिम निर्णय है,  जो तबतक ज्यों-का-त्यों बन जाने से पहले ही कोई अन्य निर्णय नहीं कर लेते,  अथवा दस वर्ष के बाद ही इसमें सर्वदल-सम्मति से कोई हेर-फेर हो सकता है। यह स्वयं सर सेमुएल होर ने कहा है। सर एन. एन. सरकार के एक प्रश्न के उत्तर में सर सेमुएल होर ने कहा था कि साम्प्रदायिक निर्णय श्वेतपत्र के अन्य प्रस्तावों से इस अर्थ में भिन्न है कि उसके विषय में सरकार ने अपना अन्तिम निर्णय दे दिया है। एक दूसरे प्रश्न का उत्तर देते हुए सर सेमुएल होर ने कहा था “मेरी व्यक्तिगत धारणा यही है कि साम्प्रदायिक निर्णय श्वेतपत्र के अन्य प्रस्तावों से पूर्णतया भिन्न हैं। एक तो सरकार ने इस विषय में अपना अन्तिम निर्णय दे दिया है,  दूसरे मेरी व्यक्तिगत धारणा भी,  चाहे उसका जो मूल्य हो, यही है कि यदि साम्प्रदायिक निर्णय के वाद-विवाद को फिर से आरम्भ किया जाए, तो यह समिति अपना कार्य कभी समाप्त न कर सकेगी और भारत के लिये कोई शासन-सम्बन्धी प्रस्ताव भी पास न हो सकेगा।” एक और प्रश्न के उत्तर में उन्होंने कहा था कि वे संयुक्त पार्लियामेण्टरी समिति को इस प्रश्न पर फिर वाद-विवाद करने का परामर्श न देंगे।


इस कथन के महत्त्व की हम उपेक्षा नहीं कर सकते क्योंकि सर सैमुएल होर के कहने पर भी संयुक्त पार्लियामेण्टरी समिति के सभापति ने एन.एन. सरकार को साम्प्रदायिक निर्णय पर और भी उनसे प्रश्न पूछने की अनुमति दे दी थी। इसके अतिरिक्त जब सरकार का साम्प्रदायिक निर्णय प्रकाशित हुआ तो अनेक मुस्लिम नेताओं ने कहा था कि यह अन्तिम निर्णय है। उदाहरण के लिये कहा जाता है कि श्री जिन्ना ने कहा था कि जिन भारतीयों का यह विश्वास है कि श्वेतपत्र के बहिष्काऱ से साम्प्रदायिक निर्णय का स्वत: बहिष्कार हो गया,  जान पड़ता है कि वे यह नहीं समझते कि साम्प्रदायिक निर्णय कोई प्रस्ताव नहीं था। वह तो एक स्वच्छन्द शासक का निर्णय था। इस बात की पुष्टि इससे और भी अधिक हो जाती है कि मुस्लिम नेताओं ने सदैव इस बात पर जोर दिया है कि जबतक समस्त दलों की सम्मति से इसकी जगह कोई और विधान बन नहीं जाता तबतक हिन्दुओं को इसे मान लेना चाहिए। इन बातों पर विचार करते हुए यह मान लेना कि (१) श्वेतपत्र नष्ट हो जायगा (२) श्वेतपत्र के साथ ही साम्प्रदायिक निर्णय भी स्वतः नष्ट हो जायगा, और (३) सरकार इस बात से सहमत होगी कि श्वेतपत्र की जगह एक नवीन विधान बनाने तथा सम्प्रदायिक झगड़े को तै करने के लिये एक विधान-विधायिका सभा बुलाई जाय, कल्याणकारी नहीं है।


     कार्यकारिणी समिति ने अपने वक्तव्य के दूसरे अंश में कहा है- जो हो, देश के भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों में साम्प्रदायिक निर्णय पर सूक्ष्म  मतभेद है। अतएव यह आवश्यकता है कि इसके सम्बन्ध में अपने मन्तव्य को काँग्रेस स्पष्ट व्यक्त कर दे। काँग्रेस भारत-राष्ट्र के भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों की समदर्शिनी प्रतिनिधि सभा है। अतएव मतभेद पर ध्यान देते हुए काँग्रेस तबतक साम्प्रदायिक निर्णय को न तो स्वीकार कर सकती है और न अस्वीकार, जबतक कि मतभेद कायम रहता है। अन्तिम वाक्य में जिस नीति की उद्भावना  की गई है, हम लोग उसके सर्वथा प्रतिकूल हैं। अपने जन्म से लेकर आजतक काँग्रेस ने जिस नीति का पालन किया है, इससे उसमें विशेष स्खलन आ जाता है। यह केवल देश के राजनीतिक पक्ष को ही प्रकट कर सन्तुष्ट नहीं रही है, बल्कि उसको बदलती और मार्ग भी दिखाती रही है। काँग्रेस ने सदैव उन बातों का विरोध किया है जिनको दोषपूर्ण, अन्यायसंगत तथा देश के कल्याण के लिये घातक समझा है, और खुलेआम उन बातों का समर्थन किया है जिनको उचित, यथार्थ या राष्ट्रहित के लिये कल्याणकारी समझा है संयुक्त तथा पृथक् निर्वाचन क्षेत्रों के विषय में भी इसकी यही नीति रही है सन् १९०८ ई. में लॉर्ड मिण्टो की सरकार के एक सदस्य के कहने से मुसलमानों ने केन्द्रीय तथा प्रांतीय व्यवस्थापिका सभाओं के लिये प्रयाप्त तथा पृथक् निर्वाचन क्षेत्र की याचना की थी सन् १९०९ ई. में लाहौर में जो काँग्रेस हुई, उसने “धर्म के आधार पर पृथक् निर्वाचन क्षेत्रों की स्थापना का घोर विरोध किया था” और खेद प्रकट किया था कि “उस विधान के अनुसार जो नियम बने, उनसे समस्त देश में इसलिये व्यापक अशान्ति फैल गई कि उनमें विशेष धर्म के अनुयायियों को प्रतिनिधित्व का अत्यधिक अनुचित और एकांगी भाग देकर उम्मीदवारों की योग्यता तथा निर्वाचन क्षेत्र में सम्राट् की प्रजा में मुसलमान तथा गैर-मुसलमानों का असंगत द्वेषपूर्ण तथा गर्हित विभेद उत्पन्न कर दिया गया


      उस समय भी देश में सैय्यद हसन इमाम तथा लखनऊ के स्वर्गीय नवाब सादिक अली समान थोड़े से प्रसिद्ध राष्ट्रीय मुसलमान थे, जिन्होंने प्रत्यक्ष साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व का विरोध किया था। मुस्लिम नेताओं का समूह इससे सन्तुष्ट था। किन्तु इसी कारण से पृथक् निर्वाचन का विरोध करने से काँग्रेस कभी चुप न रही। कार्यकारिणी समिति ने, जैसा अब कहा है कि चूंकि देश में साम्प्रदायिक निर्णय के सम्बन्ध में तीव्र मतभेद है,  इसलिये काँग्रेस उसे न तो स्वीकार कर सकती है और न अस्वीकार ही। वैसा उसने उस समय नहीं कहा था। प्रत्येक वर्ष काँग्रेस पृथक् निर्वाचन का विरोध करती रही। सन् १९१६ ई. में लखनऊ का समझौता हुआ,  जिसके अनुसार काँग्रेस ने प्रस्तुत समय के लिये पृथक् निर्वाचन तथा मुसलमानों के लिये भिन्न-भिन्न सभाओं में कुछ स्थान सुरक्षित रखने का निश्चय किया। यह इस आशा से किया गया था कि पृथक् निर्वाचन स्वीकार करने से एक सम्प्रदाय का द्वेष दूसरे के प्रति यदि बिल्कुल नष्ट न होगा,  तो कम तो अवश्य ही हो जायगा। पृथक् निर्वाचन के इस अनुभव ने यह प्रकट कर दिया है कि उसने द्वेष को बढ़ाकर राष्ट्रीय विचारों की एकता को बिल्कुल रोक दिया है जो स्वायत्त-शासन के सिद्धान्तों का वृद्धि के सर्वथा प्रतिकूल है। काँग्रेस ने इसी कारण वर्षों तक संयुक्त निर्वाचन का समर्थन तथा पृथक् निर्वाचन का विरोध किया है। गत दस वर्षों में इसी उद्देश्य की पूर्त्ति के लिये पूरा प्रयत्न किया गया है।


मई, सन् १९२८ ई. में भारत के शासन-विधान के सिद्धान्तों पर विचार तथा निर्णय करने के लिये समस्त दलों को एक सभा हुई थी। उसी वर्ष के अगस्त मास में उसने अपनी रिपोर्ट प्रकाशित की जो नेहरू-रिपोर्ट के नाम से प्रसिद्ध है। रिपोर्ट में कहा गया है कि अधिकांश लोगों ने अब यह स्वीकार कर लिया है कि पृथक् निर्वाचन सर्वथा दोषपूर्ण है,  और अवश्य ही उसको समाप्त कर देना चाहिए। फिर भी हम देखते हैं कि अधिकांश मुसलमानों की धारणा रही है कि यह उनका विशेषाधिकार  है,  यद्यपि उनका अधिकांश भाग कुछ अन्य बातों पर विचार कर उन्हें छोड़ने के लिये तैयार है। प्रत्येक व्यक्ति इस बात को जानता है कि पृथक् निर्वाचन राष्ट्रीय भावनाओं की अभिवृद्धि में बाधक होता हैं। परन्तु यह सबके अनुभव की बात नहीं है कि वह अल्पमत वालों के लिये तो और भी बुरा है। पृथक् निर्वाचन का परिणाम यह होता है कि बहुमत वाले अल्पमतवालों की ओर से पूर्णतया स्वतंत्र हो जाते हैं और सामान्यत: उनके कट्टर विरोधी भी बन जाते हैं। पृथक् निर्वाचन इस प्रकार बहुमत वालों को लाभकर होता है। साम्प्रदायिक नेताओं की इससे बन जाती है और बहुमत वाले भी भोगना तो दूर रहा, इससे और भी लाभ उठाते हैं। किसी भी विचक्षण प्रतिनिधित्त्व की प्रतिष्ठा के लिये पृथक् निर्वाचन का मूलत: नष्ट होना अवश्यम्भावी है। हम केवल संयुक्त या मिश्र निर्वाचन ही रख सकते हैं


फलत: नेहरू-समिति ने समस्त भारत की प्रान्तीय तथा केन्द्रीय व्यवस्थापिका सभाओं में संयुक्त या मिश्र निर्वाचन की राय दी थी। उसने यह भी कहा था कि पंजाब तथा बंगाल के अतिरिक्त अन्य प्रान्तों में जनसंख्या के आधार पर मुस्लिम अल्पमतों के लिये स्थान सुरक्षित हो, और साथ ही उनको यह भी अधिकार दिया जाय कि दस वर्ष तक चाहें तो अन्य स्थानों के लिये भी खड़े हों। समस्त दलों की सभा ने इस योजना को स्वीकार कर लिया और फलस्वरूप काँग्रेस ने भी इसे माना। परन्तु, चूँकि नेहरू-रिपोर्ट के प्रति सिक्खों  तथा मुसलमानों ने असन्तोष प्रकट किया था,  इसलिये लाहौर-काँग्रेस ने इसे ताक पर रख दिया और मुसलमानों,  सिक्खों तथा अन्य अल्पसंख्यकों को विश्वास दिलाया कि भविष्य में देश के किसी भी शासन-विधान में साम्प्रदायिक प्रश्नों का वह साधन काँग्रेस को मान्य न होगा जो उससे सम्बद्ध सभी पक्षों को पूरा-पूरा सन्तुष्ट न कर दे।” कार्यकारिणी समिति ने जो सम्मति प्रकाशित की है और जो विचाराधीन है,  उसके अनुसार भी काँग्रेस उस साधन पर विचार न करेगी जो बिल्कुल राष्ट्रीय न हो। परन्तु काँग्रेस उस साधन को स्वीकार करने के लिये उत्सुक है,  जो पूर्णत: राष्ट्रीय न हो,  पर सम्बद्धदल-सम्मत हो,  और इसके विपरीत उस योजना को अस्वीकृत भी करना चाहती है जिसमें किसी भी सम्बद्ध दल को आपत्ति हो। उक्त नीति के अनुसार,  जिसको कि काँग्रेस ने स्पष्ट कर दिया है,  काँग्रेस को साम्प्रदायिक निर्णय की इस योजना को बिना किसी संकोच के अस्वीकृत कर देना चाहिए था, क्योंकि हिन्दू और सिक्ख दोनों सम्प्रदाय इस साम्प्रदायिक निर्णय के घोर विरोधी हैं। ऐसा न कर काँग्रेस की कार्यकारिणी समिति ने कहा है कि काँग्रेस साम्प्रदायिक निर्णय को न तो स्वीकार ही कर सकती है और न अस्वीकार ही। यह ठीक है कि समिति ने यह भी कहा है कि ऐसे उपायों और साधनों को खोज निकालना चाहिए,  जिनसे साम्प्रदायिक निर्णय के स्थान पर कोई ऐसा अन्य निर्णय निकल जाय,  जिसको सभी स्वीकार कर लें। पर इस निर्णय ने तो स्वयं ही सर्वसम्मत साधन के मार्ग को कुण्ठित कर दिया है,  और काँग्रेस की इस उदासीनता ने तो उसके मार्ग को और भी बन्द कर दिया है।


 

साम्प्रदायिक निर्वाचन

 


      मौण्टेग्यू-चेम्सफोर्ड-रिपोर्ट ने भी साम्प्रदायिक निर्वाचन की भरपेट निन्दा की है। इसने कहा था कि साम्प्रदायिक निर्वाचन इतिहास में एक नई वस्तु है। इससे समाज भिन्न-भिन्न वर्गों में बंट जाता है, परस्पर द्वेष उत्पन्न होता है और यह स्वायत्त-शासन-प्रणाली के सिद्धान्तों के विकास का कट्टर शत्रु है। रिपोर्ट में आगे कहा गया था- २२८- हम लोगों की समझ में समस्त प्रस्तावों की यही कसौटी होनी चाहिए कि वे भारत को उत्तरदायी शासन की ओर अग्रसर करने में सहायक होते हैं अथवा नहीं-।    


जब हम उत्तरदायी शासन के स्वरूप पर विचार करते हैं, और यह देखते हैं कि ससार में किस प्रकार उसका विकास हुआ,  तब हमें ज्ञात होता है कि यूरोप में उसका प्रारम्भिक रूप उसी समय दिखाई दिया था जब जातिगत भावनाओं के ऊपर देशप्रेम ने विजय प्राप्त कर ली थी;  और एक नागरिक के कर्त्तव्य में धर्म तथा वंश का राष्ट्र के सामने कोई महत्त्व न था। पाश्चात्य देशों में जहाँ कि इनके प्रतिकूल भी भावनाएँ विद्यमान थीं, इसके विकास में इसका मूलाधार यही भावना थी। हम साहस के साथ कह सकते हैं कि संसार के जिन देशों में स्वायत्त-शासन का विकास हुआ है, तथा जिन देशों ने संसार में इसका प्रचार किया है, उनका इतिहास इस बात के बिल्कुल प्रतिकूल है कि किसी राज्य ने नागरिकों की विभाजित टोलियों को प्रोत्साहन दिया हो और उनका संघटन कभी भी इस प्रकार किया हो कि उससे वे अपने को प्रथम किसी टोली का अंग समझें और समूचे राज्य की चिन्ता न करें।”


“२३१. अतएव हम प्रत्येक निर्वाचन की किसी भी प्रणाली को स्वायत्त-शासन-सिद्धान्त के विकास में बहुत ही विकट विघ्न समझते हैं।"


परन्तु रिपोर्ट में इतना और कहा गया कि इस आवश्यकता के लिये हम जितनी चिन्ता करें, हमारा विश्वास है कि मुसलमानों की प्रत्येक बातों पर ध्यान देते हुए वर्त्तमान प्रणाली को तबतक प्रचलित रखना चाहिए जबतक परिस्थितियों में परिवर्त्तन नहीं हो जाता,  चाहे इसमें पारस्परिक नागरिकता की भावनाओं की प्राप्ति में थोड़ी ही मदद मिलें। किन्तु हमें कोई कारण नहीं दिखाई देता कि मुसलमानों के लिये उन प्रान्तों में भी साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व अलग रक्खा जाय जहाँ कि उनके वोटों की संख्या अधिक है।


     साम्प्रदायिक निर्वाचन का विस्तार साम्प्रदायिक पद्धति में किसी प्रकार  का योग देने से उसकी माँग और भी बढ़ती जायगी और हमारे निश्चित विचार में राष्ट्रीयता के आधार पर खड़े किए गए प्रतिनिधित्त्व के लिये एकमात्र,  जिस पर उत्तरदायी शासन अवलम्बित हो सकता है,  घातक सिद्ध होगा। साथ ही हमारा विचार है कि एक ऐसा भी सम्प्रदाय है जिसके लिये हमें यह प्रबन्ध तो करना ही होगा। सिक्खों की पंजाब में एक अलग और प्रसिद्ध जाति है। भारतीय सेना में उनका विशेष और बहुमूल्य योग होता है। परन्तु सर्वत्र वे अल्प संख्या में हैं,  और यह अनुभव की बात है कि कहीं भी उनका उचित प्रतिनिधित्त्व नहीं होता। अस्तु,  केवल सिक्खों के लिये हम उस प्रणाली को विस्तृत करने की राय देते हैं जो मुसलमानों के लिये मान्य हो चुकी है।


       गोलमेज सभा में काँग्रेस के एकमात्र प्रतिनिधि महात्मा गॉधी ने पृथक् निर्चाचन के विस्तार को हटाने के लिये परमात्मा से प्रार्थना करते हुए आग्रह के साथ कहा था किजो कुछ मैं पहले कह चुका हूँ, उसी को फिर से दुहरा कर कह देता हूँ कि जहाँ काँग्रेस सदैव उस योजना को स्वीकार कर लेगी,  जिसे हिन्दू-मुस्लिम तथा सिक्ख स्वीकार कर लेते हैं,  वहीं वह किसी अन्य अल्पमतवालों के लिये स्थान सुरक्षित अथवा विशेष निर्वाचन के लिये पक्ष ग्रहण न करेगी। मेरी तुच्छ सम्मति में सर ह्यूबर्ट कार ने जो योजना बनाई है वह राष्ट्रीयता तथा उत्तरदायी शासन के लिये कुठाराघात है। यदि भारत के प्रतिनिधि इतनी छिन्न-भिन्न टोलियों के द्वारा चुने गए,  तो भगवान् ही उनका रक्षक है- यदि किसी शासन-विधान का श्रीगणेश ही इस प्रकार होता है तो मेरे विचार से इस नामधारी उत्तरदायी शासन से,  जिसे सर ह्यूबर्ट कार तथा अन्य महाशयों ने हमारे सामने रक्खा है,  तो कहीं अच्छी वर्त्तमान शासन-पद्धति ही है। साम्प्रदायिक निर्णय उसी योजना के आधार पर बना है,  और काँग्रेस ने इसकी तीन बार कड़ी आलोचना भी की है।


 

साइमन कमीशन

 


साइमन कमीशन ने भी,  जिसने सन् १९३० ई. में रिपोर्ट को थी,  साम्प्रदायिक निर्वाचन की भर्त्सना की थी,  और उसका विस्तार कम करने की इच्छा प्रकट की थी। कमीशन ने कहा कि साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्त्व नियमानुकूल घार्मिक सम्प्रदायों को व्यवस्थापिका में भेजने की योजना तथा उस सम्प्रदाय के नियत स्थान सुरक्षित रखने की नीति- पारस्परिक नागरिक भावनाओं की उन्नति में अवश्य ही एक बहुत बड़ी बाधा है। मॉण्टेग्यू-चेम्सफौर्ड-रिपोर्ट में इसके सम्बन्ध में जो आक्षेप किए गए हैं, वे सभी इस पर लागू हैं। किन्तु परिस्थित पर ध्यान रखते हुए कमीशन ने संकोच के साथ हिन्दू तथा मुसलमानों के किसी नवीन समझौते के अभाव में मुसलमानों के लिये साम्प्रदायिक निर्वाचन को उसी प्रकार प्रचलित रखने का विधान किया था। फिर भी कमीशन ने मुसलमानों के प्रतिनिधित्त्व में पूर्ण संरक्षण स्थापित करने के प्रस्ताव को,  जो उन्हें वर्त्तमान विधान में छ: प्रान्तों में मिल गया है,  तथा पंजाब और बंगाल में पृथक् निर्वाचन क्षेत्र स्थापित कर जनसंख्या के अनुसार प्रतिनिधित्त्व बढ़ाने के प्रस्ताव को (जो उन्हेवर्त्तमान विधान में मिल गया है) अस्वीकृत कर दिया था। कमीशन के कथनानुसार “इस योजना से इन दोनों प्रान्तों में मुसलमानों को साधारण निर्वाचन क्षेत्रों में भी अचल तथा नित्य बहुमत प्राप्त हो जायगा। इतना अधिक हम नहीं बढ़ सकते। कमीशन ने पंजाब तथा बंगाल दोनों  प्रान्तों में,  जहाँ मुसलमान बहुमत में हैं, संयुक्त निर्वाचन का विधान किया था,  जैसा कि कमीशन ने स्वयं कहा है,  कि हमारी हार्दिक इच्छा  है कि पृथक् निर्वाचन के विस्तार को कम करने के लिये समस्त क्रियात्मक उपाय काम में लाए जायँ और दूसरी योजनाओं को परीक्षा के लिये क्रियात्मक रूप दिया जाय।”


    पृथक् निर्वाचन के विरूद्ध एवं संयुक्त निर्वाचन के पक्ष में इस प्रकार विचार प्रकट करने का परिणाम यह हुआ कि मुसलमान नेताओं का लोकमत संयुक्त निर्वाचन के पक्ष में हो रहा था। यह केवल इसी बात से भलीभाँति सिद्ध हो जाता है कि प्रथम गोलमेज सभा की अल्पमत-समिति के सामने मुसलमानों की माँग पेश करते हुए सर मुहम्मद शफी ने दो प्रस्ताव उपस्थित किए थे- (१) समस्त भारत में संयुक्त निर्वाचन के साथ–साथ मुसलमानों के लिये इक्यावन प्रतिशत स्थान बंगाल तथा पंजाब में सुरक्षित हों, अथवा (२) समस्त भारत में पृथक् निर्वाचन के साथ-साथ मुसलमानों के लिये नौ प्रतिशत स्थान पंजाब तथा बंगाल में सुरक्षित हों।


(३)

राष्ट्रवादी मुसलमान और संयुक्त तथा पृथक् निर्वाचन


सन् १९३१ ई. की ग्रीष्म ऋतु में राष्ट्रवादी मुसलमानों ने संयुक्त निर्वाचन के पक्ष तथा पृथक् निर्वाचन के विपक्ष में एक नियत आन्दोलन करना आरम्भ किया। लखनऊ की अप्रैल सन् १९३१ ई. की अखिल भारतीय राष्ट्रीय मुस्लिम सभा के सभापति स्वर्गीय सर अली इमाम ने कहा था पृथक् निर्वाचन का अर्थ है राष्ट्रीयता का निषेध भेद और बिगाड़ से राष्ट्रीयता का उदय नहीं हो सकता। प्रतिनिधित्त्व के उपाय के सम्बन्ध में डॉक्टर अनसारी ने एक प्रस्ताव उपस्थित करते हुए बताया था कि उसी ने उतनी जनता को आकर्षित कर लिया था और कहा था कि बहुत से मामलों में,  जिनका उल्लेख प्रस्ताव में किया गया है और जो समस्त राष्ट्र के कल्याण के लिये हैं, मुस्लिम राष्ट्रवादी दल इसी निष्कर्ष पर पहुँचा है कि देश में संयुक्त निर्वाचन की प्रतिष्ठा हो,  और अल्प मतों के लिये व्यवस्थापिका सभा में स्थान सुरक्षित हों,  जब उनकी संख्या के तीस प्रतिशत से कम हो। साथ ही उनको अन्य स्थानों के लिये खड़ा होने का अधिकार दिया जाय।” डॉक्टर अन्सारी ने संघटित राष्ट्र के उदय के लिये संयुक्त निर्वाचन की अनिवार्यता  को पुष्ट किया और आगे चलकर कहा कि राजनीतिक दृष्टि से पृथक् निर्वाचन से निश्चय ही साम्प्रदायिक द्वेष और वर्ग-विभेद उत्तेजित होते तथा बढ़ते हैं। किसी भी समझौते को रद्द करने के लिये इससे बढ़कर कोई दूसरा अन्य उपाय नहीं हो सकता कि सामान्य बातों पर भी बातचीत कर उसे इधर-उधर कर दे। जून सन् १९३१ ई. की अखिल बंगाल राष्टीय मुस्लिम सभा में भाषण देते हुए डॉक्टर अन्सारी ने कहा था कि मुस्लिम राष्ट्रवादी दल पिछले बीस वर्षों के पृथक् निर्वाचन के दु:खद अनुभव तथा देश की राजनीतिक प्रगति पर ध्यान देने से इस नतीजे पर पहुँचा कि इसी में भारत के मुसलमानों का लाभ है कि संयुक्त निर्वाचन तथा प्रौढ़ मताधिकार ही भविष्य के शासन-विधान में प्रतिनिधित्त्व के आधार पर बनाए जायँ।” बंगाल राष्ट्रीय  मुस्लिम कॉन्फ्रैन्स ने प्रौढ़ अथवा विस्तृत मताधिकार, साथ-ही-साथ संयुक्त निर्वाचन और जनसंख्या के अनुसार स्थान सुरक्षित करने तथा अन्य स्थानों के लिये भी खड़े होने के अधिकार के लिये सिफारिश करते हुए एक प्रस्ताव पास किया था। जुलाई सन् १९३१ ई. में मेरठ में  भाषण देते हुए डॉक्टर अन्सारी ने इस बात पर जोर दिया था कि संयुक्त निर्वाचन के बिना साम्प्रदायिकता तथा साम्प्रदायिक भावों का मूलोच्छेद कभी भी नहीं हो सकता। उन्होंने स्पष्ट कहा कि पृथक् निर्वाचन के सिद्धान्त को स्वीकार करने का अर्थ होगा श्वेत नौकरशाही के विशेषाधिकारों तथा उसके शाश्वत शासन को स्वीकार करना


२४ अक्टूबर, सन् १९३१ ई. को पंजाब राष्ट्रीय मुस्लिम सभा के स्वागत समिति के अध्यक्ष मलिक बरकत अली ने कहा कि पृथक् निर्वाचन के प्रतिकार स्वरूप,  जैसा कि हमने उसके दोनों पक्ष को देख लिया है,  यह आवश्यक हो गया है कि समस्त दलों के हित के लिये शासन-विधान से सम्प्रदायों का अलग-अलग खण्डों में विभाजित होना नष्ट हो जाय और उनके स्थान पर संयुक्त निर्वाचन-प्रणाली की स्थापना हो,  जिसके एकात्मक प्रभाव के भीतर हिन्दू और मुसलमान अपनी परम्परागत ईर्ष्या को ठुकरा कर यह अनुभव करने लगें कि वे एक ऐसी जाति के व्यक्ति हैं जिसका मार्ग एक है और जिसका दुखड़ा भी एक ही है। इस प्रकार दोनों पक्षों के कट्टर हठधर्मियों का अभाव हो जायगा।


 

(४)

 

काँग्रेस की योजना


काँग्रेस की कार्यकारिणी समिति ने जुलाई सन् १९३१ ई. में साम्प्रदायिक निर्णय के सम्बन्ध में एक योजना उपस्थित की थी, जिसका उद्देश्य था कि पृथक् निर्वाचन नष्ट हो जाय और उसकी जगह संयुक्त निर्वाचन की स्थापना इस विशेषता के साथ हो जाय कि जहाँ कहीअल्पमत वाले चाहें उनके लिये उनकी संख्या के अनुमान से स्थान सुरक्षित कर दिए जायँ और अन्य स्थानों के लिये खड़ा होने का उन्हें अधिकार भी मिल जाय। महात्मा गाँधी ने गोलमेज सभा में काँग्रेस की ओर से इस योजना  को उपस्थित किया इसके विषय में व्याख्या करते हुए महात्मा जी ने कहा कि ‘साम्प्रदायिक प्रश्न के सम्बन्ध में काँग्रेस की योजना, जो आपको मिल गई होगी,  मैं इतना निवेदन करने का साहस चाहता हूँ कि मैंने जितनी योजनाओं का दर्शन किया है उन सबमें यह सबसे अधिक क्रियात्मक और व्यावहारिक है। मैं मानता हूँ कि इस मेज पर एकत्र हुए साम्प्रदायिक प्रतिनिधियों को यह योजना पसन्द आयेगी,  किन्तु भारत में इन्हीं सब सम्प्रदायों के प्रतिनिधियों ने इस योजना को पसन्द कर लिया है। काँग्रेस की ओर से यह योजना आपके सामने है।


साम्प्रदायिक निर्णय के प्रकाशित होने के पन्द्रह दिन पहले बंगाल की व्यवस्थापिका सभा ने बत्तीस के विरुद्ध सैंतालीस वोट से यह प्रस्ताव पास किया था कि सरकार कृपाकर उचित अधिकारियों को सूचित करेगी कि इस सभा की राय में देश के भविष्य शासन-विधान में पृथक् निर्वाचन की जगह संयुक्त निर्वाचन की प्रतिष्ठा होनी चाहिए

     घोर दु:ख की बात है कि पृथक् निर्वाचन के विरुद्ध संयुक्त निर्वाचन के पक्ष में इतना बहुमत होने पर,  और विशेषत: श्री मौण्टेग्यू और लॉर्ड चेम्सफोर्ड की स्पष्ट और बलिष्ट सम्मिति,  तथा साइमन कमीशन और काँग्रेस के दृढ़ विचार  के होने पर भी निर्वाचन का विस्तार न किया जाय। पार्लियामेण्ट की जननी ब्रिटिश राष्ट्रीय सरकार ने मुसलमानों के सामने संयुक्त निर्वाचन को साइमन कमीशन के कथनानुसार पेश भी नहीं किया और इस प्रकार इसने केवल पृथक् निर्वाचन की रक्षा ही नहीं की,  बल्कि उसके सिद्धान्त को कहीं-कहीं सम्बद्ध सम्प्रदायों की इच्छा के विरुद्ध भी नवीन ढंग से और भी विस्तृत कर दिया। उक्त साम्प्रदायिक निर्णय के अनुसार देश में पन्द्रह प्रकार के पृथक् निर्वाचन क्षेत्र होंगे।


(५)

सरकार ने ऐक्य को भ्रष्ट कर दिया


प्राय: कहा गया है कि हम भारतीय जब आपस में मिलकर साम्प्रदायिक मामले को हल नहीकर सकते,  तब साम्प्रदायिक निर्णय को हमें तबतक के लिये कबूल कर लेना चाहिए जबतक कि हम किसी दूसरे निर्णय को उसकी जगह एक राय से पेश नहीं कर देते।


       हम इसके विपक्ष में हैं। एक अटल निर्णय नहीं,  बल्कि एक निश्चय है, उसके मानने और न मानने का प्रश्न ही क्या? अर्थात सम्प्रदायिक निर्णय तो व्यवस्था के लिये केवल एक प्रस्ताव है,  जो प्रत्यक्ष ही राष्ट्रीयता का विरोधी है,  और उत्तरदायी शासन की स्थापना को बिल्कुल असम्भव कर देता है।


इस सम्बन्ध में इतना निवेदन कर देना उचित है कि साम्प्रदायिक निर्णय के अगस्त सन् १९३२ ई. में प्रकाशित हो जाने पर भी जो ऐक्य-सम्मेलन प्रयाग में किया गया था और हिन्दू महासभा, मुस्लिम लीग, सर्वदल-मुस्लिम कॉन्फरेन्स, सिक्ख तथा भारतीय इसाइयों के प्रतिनिधियों ने जिसमें योग दिया था, वह सप्ताहों के अथक परिश्रम से संयुक्त निर्वाचन के आधार पर एक योजना उपस्थित करने में प्राय: सभी मुख्य बातों में सफल हो गया था। उसकी असफलता केवल इसी में दिखाई पड़ती थी कि बंगाल के फिरंगी उस अधिक प्रतिनिधित्त्व को छोड़ना नहीं चाहते थे,  जो उन्हें साम्प्रदायिक निर्णय में मिल गया था,  और जिसके छोड़ने पर ही हिन्दू-मुसलमानों का समझौता सफल हो सकता था। इससे भी अधिक विषादजनक बात हुई कि २४ दिसम्बर,  सन् १९३२ ई. को जब ऐक्य-सम्मेलन ने केन्दीय व्यवस्थापिका परिषद् में मुसलमानों का बत्तीस प्रतिशत् प्रतिनिधित्त्व स्वीकार कर लिया और सिन्ध के अलग करने के प्रश्न पर भी मुसलमानों तथा हिन्दुओं में कुछ शर्तों पर समझौता हो गया,  तब भारतमंत्री सर सैमुएल होर ने गोलमेज की अन्तिम बैठक में कुछ दिनों के बाद घोषित कर दिया कि मुसलमानों को केन्द्रीय व्यवस्थापिका सभा में ३३१/३ प्रतिशत स्थान सुरक्षित रक्खा जायगा और सिन्ध को अलग कर दिया जायगा। सर सैमुएल होर ने इस बात का एक नवीन प्रमाण पेश कर दिया कि भारतवासी आपस में साम्प्रदायिक समझौते के लिये चाहे जितना प्रयत्न करें,  वे तबतक कृतकार्य नहीं हो सकते जबतक ब्रिटिश सरकार अथवा उसके प्रभावशाली प्रतिनिधि यह नहीं चाहते कि उनमें  ऐक्य स्थापित हो।


  इस घोषणा पर लीडर की टिप्पणी उल्लेखनीय है- गोलमेज कॉन्फ्रेन्स की अन्तिम बैठक में व्याख्यान देते हुए सर सैमुएल होर ने दो घोषणाएँ की थीं। प्रथम तो यह थी कि सरकार ने तै कर लिया है कि सिन्ध तथा उड़ीसा पृथक् प्रान्त होंगे,  और द्वितीय यह कि भावी केन्द्रीय व्यवस्थापिका सभा में ब्रिटिश प्रान्तों में मुसलमानों को ३३१/३ प्रतिशत प्रतिशत प्रतिनिधित्व दिया जायगा।” 


गत अगस्त में प्रकाशित साम्प्रदायिक निर्णय का सम्बन्ध केवल प्रान्तों से था। प्रधानमंत्री ने उस समय कहा था कि केन्दीय व्यवस्थापिका सभा के सदस्यों का निर्णय फिर किया जायगा। उन्होंने वादा किया था कि यदि सम्बद्ध सम्प्रदायों में कोई समझौता हो गया तो वे उसे स्वीकार करेंगे। इस समय परिस्थिति यह है कि सब सम्प्रदाय इस प्रकार के समझौते के लिये अत्यन्त प्रयत्नशील हैं। बहुत कुछ काम हो चुका है,  जिससे सिद्ध होता है कि यह विलम्बित वाद-विवाद सफल होगा। कोई भी व्यक्ति सोच सकता है कि जो सरकार वस्तुतः सब सम्प्रदायों में सद्भाव की वृद्धि चाहती है वह थोड़ी देर प्रतीक्षा करेगी और किसी प्रकार की भी ऐसी चाल न चलेगी,  जिससे सर्वसम्मत समझौते में कोई विघ्न पड़े। द्वितीय, प्रधानमंत्री ने अभी यह घोषित नहीं किया कि उनका निर्णय क्या होगा?  फिर भी ऐसी परिस्थिति में भारत-सचिव झपटकर जनता में सरकार के निर्णय की घोषणा करते हैं कि भविष्य की केन्द्रीय व्यवस्था में एक विशेष सम्प्रदाय को इतना प्रतिनिधित्त्व प्राप्त होगा। भारत-सचिव ने ऐक्य-सम्मेलन को समिति की केन्द्रीय व्यवस्था में साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्त्व के अनुपात की सिफारिश को अवश्य पढ़ा होगा। इतना होने पर भी उन्होंने यह घोषणकर दी। क्या उन्होंने यह सोचा था कि इस प्रकार वे ऐक्य-सम्मेलन के कार्यों में सहायक होंगे?  हमारे लिये यह अत्यन्त आश्चर्य की बात होगी,  यदि कोई व्यक्ति,  जो किसी अधिकारी का पिट्ठू नहीं है और किसी भी झूठ-साँच के लिये वकालत नहीं करता है,  सर सैमुएल होर की इस बेतुकी बात की सफाई देने का नाम भी ले। सिन्ध के अलग करने के विषय में भी यह समीक्षण उसी तरह लागू है। पृथक्करण में ऐक्य-सम्मेलन भी एक महत्त्व का विषय है, जिसके सम्बन्ध में हिन्दू-मुस्लिम समझौता हो गया था


इन घोषणाओं के लिये यही समय क्यों चुना गया? इसके पूछने की हमें कोई जरूरत नहीं दिखाई देती। यह भलीभाँति स्पष्ट कर दिया गया है कि पृथक् निर्वाचन के विरुद्ध और संयुक्त निर्वाचन के पक्ष में लोकमत प्रतिदिन बढ़ता जा रहा था कि सम्राट् की सरकार ने उदारतावश केवल पृथक् निर्वाचन कायम ही नहीं रक्खा, बल्कि उन सम्प्रदायो  के लिये भी,  जो इसके सर्वथा प्रतिकूल थे, उसको बढ़ा दिया। उन्होंने स्वयं अपने को मौण्टेग्यू-चेम्सफोर्ड-रिपोर्ट के इस आक्षेप का शिकार बना लिया।


२२९. जातिभेद तथा वर्गभेद स्थापित करने का अर्थ होता है- एक राजनीतिक सम्प्रदाय को दूसरे के विरुद्ध संघटित रूप में खड़ा कर देना। इसका प्रभाव यह पड़ता है कि मनुष्य एक दूसरे को अपना पट्टीदार समझता है, नागरिक नहीं। इस बात का पता लगा लेना, कि किस प्रकार इस परिपाटी का राष्ट्रीय प्रतिनिधित्त्व के रूप में परिवर्त्तन हो जाता है, अत्यन्त दुस्तर है। ब्रिटिश सरकार पर प्रायः यह दोष लगाया जाता है कि वह शासन करने करने के लिये जनता को सम्प्रदायों में विभक्त कर देती है। परन्तु, यदि वह उसी समय व्यर्थ में उनको विभक्त करती है, जब कि उनका दावा होता है कि वह उनको स्वायत्त शासन के मार्ग पर अग्रसर कर रही है, तो उसके लिये यह अत्यन्त दुस्तर हो जायगा कि वह कपटी और अदूरदर्शी कहलाने से बच सके


(६)

स्थान सुरक्षित रखने की नीति


 पृथक् निर्वाचन के साथ व्यवस्थित बहुमत पृथक् निर्वाचन को कायम रहने देना, तथा जहाँ वह पहले नहीं था, वहाँ भी उसको विस्तार कर देना ही साम्प्रदायिक निर्णय का आक्षेपपूर्ण अंग नहीं है। इस निर्णय की सबसे भयंकर बात तो यह है कि इसने भारत के समस्त प्रान्तों में पृथक् निर्वाचन के साथ-साथ व्यवस्थित बहुमत भी स्थापित कर दिया है। जिन प्रान्तों में मुसलमान अल्प संख्या में हैं, उनके लिये पृथक् निर्वाचन को किसी तरह बिहित मानते हुए श्री मौण्टेग्यू तथा लॉर्ड चेम्सफोर्ड ने कहा था- किन्तु हम उन प्रांतों में मुसलमानों के लिये साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्त्व के कायल नहीं हो सकते,  जिनमें वे बहुमत में हैं। इसके दस वर्ष बाद इसी विषय पर विचार करते हुए नेहरू-समिति ने कहा कि, बहुमत के लिये स्थान सुरक्षित रखना केवल उत्तरदायी शासन को ठुकराना ही नहीं है बल्कि उस सिद्धान्त की, जिस पर उत्तरदायी शासन अवलम्बित रहता है,  जड़ खेदना भी है। बहुमत के लिये स्थान सुरक्षित रखने का दुराग्रह करना और साथ ही पूर्ण उत्तरदायी शासन को माँग पेश करना बिलकुल मूर्खता नहीं तो और क्या है? उत्तरदायी शासन का तात्पर्य है- वह शासन,  जिसकी शासक-मण्डली व्यवस्थापकों तथा व्यवस्थापक निर्वाचकों के प्रति उत्तरदायी है। यदि शासक-मण्डली के सदस्यों ने बहुमत के बल पर, संरक्षण के सहारे, निर्वाचकों की स्वतंत्र इच्छा नहीं,  सब कुछ प्राप्त कर लिया है,  तो न तो यह निर्वाचकों का प्रतिनिधित्त्व हुआ न उत्तरदायी शासन का कोई श्रीगणेश ही।


     हिन्दुओं और सिक्खों पर प्राय: यह आक्षेप किया गया है कि वे पंजाब तथा बंगाल में, जहाँ मुसलमानों का बहुमत है,  उनके साथ स्थान सुरक्षण के सम्बन्ध में कभी किसी निर्णय पर नहीं पहुँचते। परन्तु इसका कारण उनके पक्ष में है। नेहरू-समिति ने जैसा दिखाया है कि बहुमत वाले सम्प्रदाय को सुरक्षित स्थान देने से उस सम्प्रदाय को यह व्यवस्थित अधिकार प्राप्त हो जाता है कि वह निर्वाचकों की इच्छा के विरुद्ध स्वच्छन्द शासन करे,  जो लोक-शासन को भावना के सर्वथा प्रतिकूल है। पंजाब में हिन्दुओं और सिक्खों तथा बंगाल में हिन्दुओं ने जिस मार्ग को ग्रहण किया,  उसके औचित्य का यहाँ संक्षेप में  विचार कर दिया गया। यदि व्यवस्थित बहुमत पृथक् साम्प्रदायिक निर्वाचकों में  चुना गया तो दशा और भी भयावह हो जाती है।


मान लीजिए कि पृथक् मुस्लिम निर्वाचन क्षेत्रों से इक्यावन वा बावन प्रतिशत सदस्य निर्वाचित हुए हैं। वे केवल उन्ही मुसलमान निर्वाचकों के प्रति उत्तरदायी होंगे जिन्होंने उन्हे चुना है। हिन्दुओं, सिक्खों,  इसाइयों आदि अन्य गैर-मुस्लिम निर्वाचकों के प्रति उनका कोई उत्तरदायित्त्व न होगा। क्योंकि उनके चुनाव में उनका कोई हाथ न था। जहाँ तक मुसलमानों का सम्बन्ध है,  उनके लिये तो उत्तरदायी शासन उक्त प्रान्त में स्थापित हो गया। परन्तु गैर मुस्लिम लोगों के लिये तो उक्त प्रान्त में उत्तरदायी शासन का नाम भी न रहेगा। उस प्रान्त में यह बहुमत धार्मिक सम्प्रदाय का अल्पमत धार्मिक सम्प्रदायों पर स्वच्छन्द शासन होगा। विलोमत: यही दशा वहाँ हो जायगी जहाँ मुसलमान अल्पमत और हिन्दू बहुमत में है। किसी भी सभ्य समाज के स्त्री-पुरुष इस प्रकार की योजना को पसन्द करेंगे,  इसकी कल्पना नहीं हो सकती। यह विश्वसनीय भी नहीं है कि ब्रिटिश पार्लियामेण्ट एक ऐसा विधान पास कर दे जिससे उत्तरदायी शासन की ओट में एक ऐसा स्वच्छन्द शासन स्थापित हो जाय, जिसे ऐसा करने का कोई अधिकार नहीं है। ब्रिटिश सरकार अपने उस कर्तव्य को,  जो करोडों मनुष्यों के प्रति है,  जो उसके मैदान में आने के पहले अपने देश का शासन करते थे,  इस प्रकार किसी एक शासन-मण्डली को, जिसके विधाता प्रत्येक प्रान्त में किसी धार्मिक सम्प्रदाय के निर्वाचित सदस्य हैं,  बिना अन्य सम्प्रदायों की सम्मति या उनको इच्छा के विरुद्ध सौंप नहीं सकती। प्रत्येक राष्ट्रवादी भारतीय का कर्त्तव्य है कि वह ऐसी अनुदार राष्ट्रद्रोही योजना का विरोध करे।


 

सिक्खों का विचार  

 


सामान्यत: सभी राष्ट्रवादियों ने इस प्रस्तावित प्रबन्ध की भर्त्सना की है, परन्तु पंजाब के सिक्खों तथा बंगाल और पंजाब के हिन्दुओं ने स्वभावत: इसके प्रतिकूल अपना घोर असन्तोष प्रकट किया है। बहुत से सिक्ख नेताओं ने मिलकर एक वक्तव्य प्रकाशित किया है,  जिसमें कहा है कि- हमें तो बढ़ी हुई जनसंख्या के अनुसार कोई लाभ नहीं हुआ और न हमको वह विशेषाधिकार ही मिला जो उसका स्वभावसिद्ध परिणाम है। किन्तु मुसलमानों के लिये केवल छ: प्रान्तों में विशेषाधिकार सुरक्षित ही नहीं रक्खा गया, बल्कि पंजाब में उनको उससे भी कहीं अधिक दिया गया जितना कि उन्होंने माँगा था। प्रथम गोलमेज सभा में प्रधानमंत्री से बातचीत करते समय मुसलमान प्रतिनिधि अपने सम्प्रदाय के लिये पंजाब में पचास प्रतिशत प्रतिनिधित्त्व पर सहमत हो गए थे,  किन्तु सरकार के निर्देश ने उन्हें एक्यावनवें स्थान,  अर्थात् बावन प्रतिशत देने का वचन दे दिया है। क्योंकि बहुत सम्भव है कि श्रमजीवियों  के दो स्थान, जिन्हें  निर्णय ने यों ही छोड़ दिया है,  जो किसी भी सरकार के लिये उचित नहीं है।  मुसलमानों को प्राप्त होंगे।


धार्मिक सम्प्रदाय को बावन प्रतिशत का निश्चित बहुमत बनाकर सरकार ने सदा के लिये इस सम्भावना को दूर खदेड़ दिया है कि धार्मिक सम्प्रदाय के अतिरिक्त किसी अन्य आधार पर कोई संघटन हो सकता है अथवा विभिन्न सम्प्रदायों में कभी किसी प्रकार का आपस में समझौता भी सम्भव है, प्रजातन्त्र शासन की पद्धति का तो इस निर्णय ने मूलोच्छेद ही कर दिया है। सिक्ख समुदाय केवल पंजाब के लिये ही एक राष्ट्रीय सरकार नहीं चाहता, अपितु समस्त भारत के लिये उत्सुक है और इसलिये वह इस प्रकार के निर्णय को कदापि स्वीकार नहीं कर सकता,  जो प्रजातंत्र की ओट में एक धार्मिक सम्प्रदाय को दूसरों पर सदा के लिये हावी कर साम्प्रदायिक भेदभावों को बढ़ाता है और उन्नति की घड़ी को कई युग पीछे घसीट देता है। इससे कहीं अच्छा तो वर्त्तमान विधान को ही सह लेना है।


“यह निर्णय अन्तिम निर्णय प्रतीत होता है। हमारा विश्वास है कि ब्रिटिश सरकार के एक प्रान्त की आधी जनता को उसकी इच्छा के विरुद्ध,  बलपूर्वक दूसरे सम्प्रदाय के शासन में कर देने के कार्य,  तथा उसकी सम्मति के बिना एक नवीन शासन के विधान का समर्थन सभ्य संसार कदापि न करेगा। हमारी धारणा है कि परम्परा से प्रजातंत्र की भावनाओं के आदर करने वाली न्यायपूर्ण और उदार ब्रिटिश पार्लियामेण्ट अधिकांश जनता को उसकी इच्छा के विरुद्ध बलपूर्वक एकांगी शासन-विधान में बाँधने की सम्मति न देगी


      श्री रामानन्द चटर्जी ने ‘माडर्न रिव्यू’ में लिखते हुए कहा है “इस निर्णय पर मुख्यतः इस दृष्टि से नहीं विचार किया जायगा कि इससे अमुक भारतीय वर्ग का अहित होता है या यह अमुक के विरुद्ध है, बल्कि यह समूचे भारत के लिये अमंगलकारी है। यह ब्रिटिश का रक्षक और भारत का विरोधी है” “प्रजातन्त्र एवं उत्तरदायित्त्व शासन की एक जरूरी शर्त्त यह है कि जो आज अल्पमत वाले हैं वे कल अन्य मत वालों को अपने मत में मिलाकर अथवा किसी अन्य उपाय से बहुमत वाले बन जायँ। इस प्रकाऱ समस्त दल अपनी विद्धत्ता, लोकहित-कामना और शक्ति से राष्ट्र का भरपूर मंगल करने के योग्य हो जाता हैं। शासक-दल की इस अस्थिरता से बहुमत में यह भाव बराबर बना रहता है कि उसे राष्ट्र का वास्तविक हित करना है;  साथ ही स्वच्छन्द, अनियमित और भ्रष्ट उपायों के प्रयोग से अपने स्वत्त्व से हाथ धोना है। परन्तु यदि किसी विधान द्वारा एक धार्मिक सम्प्रदाय को एक सम्प्रदाय के रूप में बहुमत के आधार पर शासक बना दिया जाता है,  तो देश में किसी प्रकार का प्रजातन्त्र या उत्तरदायी शासन नहीं हो सकता और ऊपर कहे गए लाभों का एकदम नाश हो जाता है। साम्प्रदायिक निर्णय तो प्रजातन्त्र तथा उत्तरदायी शासन के प्रमुख अंगों के विरुद्ध लोगों को उत्साहित करता है, और यदि उसको कार्य रूप में परिणत कर दिया गया तो वह भारत को,  उत्तरदायी शासन के समस्त लाभों से वंचित कर देगा। 


“संयुक्त निर्वाचन के आधार पर यह कहा जा सकता है कि प्रान्तीय व्यवस्थापिका सभाओं के बहुमत सदस्यों को चाहे वे किसी भी धार्मिक सम्प्रदाय, जाति,  वर्ग या वंश के हों,  समस्त सम्प्रदायों ने निर्वाचित किया है,  और इसके लिये सभी उत्तरदायी हैं। अतएव निर्वाचित सदस्य भी अपने को समस्त वर्गों के प्रति उत्तरदायी समझेंगे और समस्त के साथ ही प्रत्येक वर्ग के कल्याण के लिये अवश्य प्रयत्नशील होंगे। परन्तु पृथक् निर्वाचन से बहुमत कहीं-कहीं केवल हिन्दुओं द्वारा निर्वाचित होगा या नहीं, तो गैर-मुस्लिम या गैर-इसाई द्वारा। विशेषत: बंगाल में बहुमत या तो मुसलमानों का होगा या मुसलमानों तथा फिरंगियों का मिलकर,  जो केवल उन्हीं के धर्मवालों या उन्हीं जैसे देशभक्तों के द्वारा चुने जायेंगे। अस्तु,  भारत का प्रत्येक प्रान्त विदेशियों के स्वच्छन्द शासन में होगा। क्योंकि ब्रिटिश सत्ता ज्यों-की-त्यों बनी रहेगी,  और व्यवस्थापिका सभाओं में ऐसे सदस्यों का बहुमत रहेगा जो न तो समस्त वर्गों द्वारा चुने गए हैं और न समस्त वर्गों की हितकामना ही करते हैं। फलस्वरूप उनके प्रति न तो सामान्यजन उत्तरदायी होंगे और न वे ही,  जो लोक-हित के लिये प्रयत्नशील हैं। यह बड़ी भयंकर स्थिति होगी। इसे स्वायत्त शासन या प्रतिनिधि शासन भी नहीं कह सकते। यह उन लोगों का शासन होगा जिनके निर्वाचन के सम्बन्ध में समस्त प्रजा कुछ भी नहीं कर सकती”।  


 

लाहौर का ट्रिव्यून

 


      सम्राट की सरकार की योजना को बिल्कुल राष्ट्रद्रोही तथा अयोग्य” कहते हुए लाहौर के ट्रिव्यून पत्र ने एक लम्बे लेख के उपसंहार में कहा है कि इस बात का सबसे विलक्षण भाग तो यह है कि श्री रैम्जे मैक्डौनल्ड को यह आशा है कि यह नवीन योजना शासन-विधायक उत्कर्ष के मार्ग से एक विघ्न को दूर करेगी। परन्तु वस्तुत: इस प्रकार के उत्कर्ष के मार्ग में यह एक अटल विघ्न उपस्थित करेगी। भारत में शासन-विधान के उत्कर्ष का केवल यही अर्थ हो सकता है कि उसमें प्रजातंत्र और उत्तरदायी स्वशासन का उत्कर्ष हो। पृथक् साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्त्व और व्यवस्थापिका सभा में व्यवस्थित साम्प्रदायिक बहुमत करने की योजना के सामने प्रजातंत्र और उत्तरदायी स्वशासन व्यर्थ और प्रत्यक्ष हो असम्भव है। नवीन विधान के अनुसार भारत में व्यवस्थापिका सभाओं को जो वास्तविक अधिकार मिलेगा,  वह हर हालत में साम्प्रदायिक निर्वाचकों के प्रति उत्तरदायी होंगे,  जिसका परिणाम यह होगा कि अल्पमत सदैव राजनीतिक शक्ति से वंचित रहेगा। श्री मैक्डौनल्ड बहुत ही बूढ़े अनुभवी और अति विचक्षण राजनीतिज्ञ हैं, जो इतना भी नहीं जानते कि यह उत्तरदायी शासन नहीं, बल्कि उत्तरदायी शासन का निषेध है। जिस नवीन योजना में हाथ बंटाने के लिये श्री रैम्जे मैकडोनल्ड सभी भारतीयों  को आमंत्रित करते हैं, उसकी सफलता का अर्थ होगा- भारत के राष्ट्रीय आशाओं  और उमंगो का पूरा विनाश। इस प्रकार की योजना के प्रयोग में योग देना राष्ट्रीय आत्महत्या है।


‘सर्वैण्ट ऑफ इण्डिया’  जिसे अत्यन्त नरम दल का पत्र कहते हैं, इस विषय में कहता है- सम्राट् की सरकार का साम्प्रदायिक निर्णय जो प्रकाशित हुआ है,  दो बातोको स्पष्ट करता है। एक तो यह कि साम्प्रदायिक निर्वाचन बदस्तूर बना रहा,  और दूसरा यह कि पंजाब में मुसलमानों को प्रभावशाली साम्प्रदायिक बहुमत मिल गया। भारत छिन्न-भिन्न कर दिया गया। ब्रिटिश सरकार ने भारत मे  राष्ट्रीयता को उपज पर वज्रपात कर दिया। काँग्रेस के जन्मदाताओं और परम्परागत अनेक राजनीतिक सुधारकों का भारत के छिन्न-भिन्न सम्प्रदायों से एक संघटित राष्ट्र उत्पन्न करने का स्वप्न,  यदि सर्वथा भंग नहीं हो गया,  तो कम-से-कम भविष्य में बहुत दिनों के लिये टाल दिया गया। यह ब्रिटिश सरकार की कृपा है। भारत में ब्रिटिश राज्य का यह महाप्रसाद है


हम इस विषय को और नहीं बढ़ावेंगे,  और तुच्छ-से-तुच्छ बुद्धि वाले को भी यह स्पष्ट हो  गया होगा कि पृथक् साम्प्रदायिक निर्वाचन के आधार पर व्यवस्थित बहुमत राष्ट्रीयता और उत्तरदायी शासन का विरोधी है।


(७)

स्वच्छन्द निर्णय और स्थानों का अनुचित विभाजन


      साम्प्रदायिक निर्णय का अन्तिम,  किन्तु अटूट आक्षेपपूर्ण रूप,  जो हमारा ध्यान साहस आकर्षित कर लेता है,  वह है,  जिसने कुछ सम्प्रदायों के पक्ष लिया है और दूसरों के प्रति द्वेष का परिचय, जिसका विधान निर्णय में पर्याप्त कर दिया है। बंगाल में फिरंगियों के लिये यह पक्षपात बहुत ही धैर्य के साथ किया गया है। जनसंख्या की दृष्टि से उनकी संख्या नगग्य है। दो हजार में एक- किन्तु उन्हें अत्यन्त अधिक प्रतिनिधित्त्व दिया गया है। व्यवस्थापिका सभा में कुल दो सौ पचास स्थान हैं,  जिनमें पच्चीस स्थान, अर्थात् दस प्रतिशत उनके लिये सुरक्षित हैं। हिन्दू तथा मुसलमान दोनों का अहितकर यह कार्य केवल इस दृष्टि से किया गया है कि फिरंगी-शक्ति सम्पन्न रहें। जनसंख्या की दृष्टि से मुसलमानों  से लगभग पाँच प्रतिशत और हिन्दुओं से लगभग ६.६ प्रतिशत स्थान छीन लिए गए हैं। इस प्रकार यद्यपि फिरंगियों को अत्यधिक प्रतिनिधित्त्व दे देने के कारण हिन्दू तथा मुसलमान दोनों के स्थान छिन गए हैं,  तथापि मुसलमानों की अपेक्षा हिन्दुओं का अधिक अहित हुआ हैं। निदान,  हिन्दुओं का यह कहना सर्वथा सत्य है कि पंजाब तथा बंगाल दोनों प्रान्तों में अल्प मतों के संरक्षण का सिद्धान्त उनके लिये नहीं रहा है,  और उनको विवश कर दिया गया है कि वे अपने स्वत्त्व में से भी कुछ दूसरों को भेंट करें।


       दिसम्बर सन् १९३२ ई. के प्रयाग के ऐक्य-सम्मेलन में बंगाल के हिन्दू तथा मुसलमान दोनों इस बात पर सहमत हो गए थे कि फिरंगियों को जो अत्यधिक प्रतिनिधित्त्व मिल गया है, उसमें से वे कुछ छोड़ दे  जिससे मुसलमानों को संयुक्त निर्वाचन साथ-ही-साथ इक्यावन प्रतिशत सुरक्षित स्थान मिल जायँ और हिन्दू अथवा अन्य जातियों की जनसंख्या को,  जो सामान्य निर्वाचन क्षेत्र में शामिल हैं,  ४४.७८ प्रतिशत प्रतिनिधित्त्व मिल जाय,  जो जनसंख्या की दृष्टि से उन्हें अवश्य मिलना चाहिए। परन्तु फिरंगियों के प्रतिनिधियों ने उस अनुचित लाभ को छोड़ने से इनकार कर दिया,  जो उनके लिये निर्णय सुरक्षित था। उनकी इस कृपा के कारण प्रयाग के ऐक्य-सम्मेलन का समझौता कार्यरूप में परिणत न हो सका। आसाम में भी हिन्दुओं का अहित करके फिरंगियों को अत्यधिक प्रतिनिधित्त्व दिया गया है।

     भिन्न-भिन्न प्रान्तोमें भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों को जो स्थान दिए गए हैं,  उनकी गहरी छानबीन हमें नहीं करनी है। कुछ महीने पहले बड़ी व्यवस्थापिका सभा के बहुत से अमुस्लिम सदस्यों ने संयुक्त पार्लियामेण्टरी समिति के सामने जो एक नोट पेश किया था,  जिसमें इसका सारांश दिया हुआ है,  उसमें कहा गया है कि- साइमन कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में दो सौ पचास स्थानों में से पचहत्तर स्थान मुसलमानों,  तथा एक सौ पचास स्थान हिन्दुओं के लिये सुरक्षित रक्खे;  अर्थात् हिन्दू और मुसलमानों के स्थानों में दो और एक का अनुपात,  जब कि उनकी जनसंख्या का अनुपात लगभग तीन और एक है। भारत-सरकार ने साइमन रिपोर्ट के ऊपर अपनी विज्ञप्ति में मुसलमानों के लिये बड़ी व्यवस्थापिका सभा के एक सौ पचास स्थानों में से पचास स्थान सुरक्षित रक्खे“साम्प्रदायिक निर्णय ने मुसलमानों के लिये बड़ी व्यवस्थापिका सभा में कुल दो सौ पचास स्थानों में बयासी  स्थान सुरक्षित रक्खे, अर्थात् कुल का ३३१/३ प्रतिशत, जब कि सामान्य निर्वाचन के लिये केवल एक सौ पचास स्थान ही छोड़े गए हैं। सामान्य निर्वाचन क्षेत्रों में से इस प्रकार जो पैंतालीस स्थान ले लिए गए हैं, उनमें से सात स्थान मुसलमानों को दे दिए गए हैं, और पैंतीस स्त्रियों, श्रमजीवियों, व्यापारियों और भूमिपतियों के लिये विशेष निर्वाचन क्षेत्र के रूप में सबके लिये रखे गए हैं, जिनमें से तृतीयांश सम्भवत: मुसलमानों को मिल जायगा। इस प्रकार उनके स्थान तैंतीस की जगह अड़तीस प्रतिशत कर दिए गए हैंजहाँ तक प्रान्तों का सम्बन्ध है,  जब प्रान्तों में  स्थानों की संख्या आठ सौ बयासी है,  इनमें से दो सौ सत्ताईस स्थान मुसलमानो  के हैं। श्वेतपत्र की प्रस्तावना में प्रान्तीय सभाओं के सदस्यों की संख्या एक हजार पाँच सौ पचासी है। उनमें से आठ सौ उन्तालीस स्थान सामान्य निर्वाचन क्षेत्रों के लिये और चार सौ बानवे स्थान मुसलमानों के लिये सुरक्षित हैं। इस प्रकार मुसलमानों  के लिये सामान्य निर्वाचन क्षेत्रों के आधे से अधिक स्थान सुरक्षित हैं, यद्यपि उनकी जनसंख्या समस्त जनसंख्या की चौथाई से अधिक नहीं है

     स्थान-विभाजन की प्रस्तुत नीति प्रत्यक्षतः दोषपूर्ण है। सभी भारतीय राष्ट्रवादियों का यह कर्त्तव्य है कि वे इस बात के लिये कटिबद्ध हो जायँ कि इसका उचित उपाय हो जाय और सभी दलों के साथ न्याय हो। इस अवस्था को सुधारने का प्रयत्न करें जिससे जनता के प्रत्येक वर्ग में सामंजस्य और शील का उदय हो,  और राष्ट्रीय स्वायत्त-शासन की सफलता के लिये जो कुछ आवश्यक है,  उसकी प्रतिष्ठा हो।


 (८)

 कतिपय विख्यात राष्ट्रवादियों के मत


          ऐसे राष्ट्रवादी भारतीयों ने, जिन पर किसी प्रकार के साम्प्रदायिक पक्षपात का आक्षेप नहीं किया जा सकता,  साम्प्रदायिक निर्णय को राष्ट्रद्रोही,  अन्यायपूर्ण त्तथा स्वच्छन्द कहकर उसकी भर्त्सना की है, जिससे यह निष्कर्ष निकलता है कि वे इसके भरपूर बहिष्कार के पक्ष में हैं। उनमे  से कुछ एक के विचार यहाँ उद्धृत किए जाते हैं।


पण्डित जवाहरलाल नेहरू


     हिन्दू और मुस्लिम साम्प्रदायिकता पर विचार करते हुए पण्डित जवाहरलाल नेहरू ने उनकी भर्त्सना की है और कहा है कि यह बिल्कुल सच है कि हिन्दू महासभा जीवनभर संयुक्त निर्वाचन के पक्ष में तत्पर रही है,  और निश्चय ही यही एक ऐसी राष्ट्र‍‌ योजना है जो हमारे प्रश्न को हल कर सकती है। यह भी सच है कि साम्प्रदायिक निर्णय राष्ट्रीयता के सर्वथा विपरीत है,  और उसे इसीलिये रचा गया है कि वह भारत को विभिन्न साम्प्रदायिक टोलियों में विभक्त कर दे,  और उनमें फूट की भावनाओं को बलिष्ठ कर दे जिससे ब्रिटिश साम्राज्य का पंजा और भी दृढ़ हो जाय


 

श्री बिट्ठलभाई पटेल


 

प्रधानमंत्री के साम्प्रदायिक निर्णय की विस्तृत आलोचना करते समय श्री बिट्ठल भाई पटेल ने घोषित किया था कि यह साम्प्रदायिक निर्णय ब्रिटेन के इस दावे की पोल को अच्छी तरह खोल देता है कि वह भारत को प्रजातन्त्र स्वायत्त-शासन के योग्य बनाने के विकट कार्य में तल्लीन है।” उनकी दृष्टि में उक्त निर्णय का लक्ष्य है “साम्प्रदायों को विभिन्न टोलियों में विभाजित कर भारत में उसी के सहयोग से ब्रिटिश शासन को और भी दृढ करना, क्योंकि इसाई भी तीन भागों में विभक्त कर दिए गए हैं-(१)फिरंगी,  (२) गोरे और (३) हिन्दुस्तानी। स्त्रियों की पंक्ति में भी साम्प्रदायिकता का बीज बोकर और भारतीय इसाइयों को भी साम्प्रदायिक निर्वाचन का- जिसे वे नहीं चाहते- पाठ पढ़ाकर ब्रिटिश सरकार ने यह स्पष्ट दिखा दिया कि वह देश की प्रजा को किस हद तक विभिन्न टुकडों में बाँट सकती हैयह सब कार्रवाई तब होती है जब बंगाल की कौन्सिल ने मुसलमानों की सहायता से संयुक्त निर्वाचन के लिये सिफारिश की, और जब कि दलित वर्गों में से अधिकांश संयुक्त निर्वाचन के पक्ष में थे। श्री पटेल ने दिखाया है कि बंगाल और आसाम में फिरंगियों को मनमाना भाग दिया गया है और सम्पूर्ण विधान ही प्रजातंत्र का विरोधी है। ”


 

डॉक्टर अन्सारी तथा शेरवानी के वक्तव्य


 

      डॉक्टर अन्सारी तथा श्री शेरवानी ने बॉम्बे क्रौनिकल के जर्मन प्रतिनिधि को फ्रेबर्ग में जो वक्तव्य दिया था, उसमें साम्प्रदायिक निर्णय के सम्बन्ध में कहा गया था कि “भारतवासियों को जो कारण आज छिन्न-भिन्न कर रहे हैं,  उनको यह निर्णय और भी स्थिर रखता तथा उत्तेजित करता है। साम्प्रदायिक वर्गों के पोषण और विस्तार तथा अन्य नवीन वर्गों एवं लाभों की उद्भावना से भविष्य के साम्प्रदायिक सहयोग की सम्भावना बिल्कुल नष्ट-भ्रष्ट हो जाती है। इस निर्णय ने तो हिन्दू जाति पर वज्रपात किया है, मुसलमान, जिनको इस निर्णय में कृपादृष्टि से देखा गया है,  उन प्रान्तों में,  जिनमें वे अल्प संख्या में हैं, उस दशा को प्राप्त होंगे,  जो एक हिन्दू परिवार में उस विधवा की होती है,  जिसका प्रबन्ध उसके द्रोही सौतेले पुत्र करते हैं। निर्णय के फलस्वरूप साम्प्रदायिक मुसलमानों ने बंगाल तथा पंजाब के बहुमत को खोकर कुछ प्रान्तों में व्यर्थ के कुछ स्थान प्राप्त किए हैं, जो भारत में मुस्लिम प्रश्न को जटिल बनाए हुए हैं। भारत के भविष्य उचित शासन-विधान का यथार्थ आधार केवल संयुक्त निर्वाचन का प्रौढ मताधिकार और प्रजातन्त्र शासन के सिद्धान्तों के साथ श्रीगणेश हो सकता है। वक्तव्य में और भी डटकर विचार करने का निश्चित अवसर प्राप्त था,  तो वह यही अवसर है। भारतवासियों को सचेत करते हुए वक्तव्य के उपसंहार में कहा गया है कि अपनी मातृभूमि को इस घोर घपले से बचाओ अपने को इस अत्यन्त नीच अपमानजनक स्थिति से उबारो और श्रद्धा के साथ विश्वास करो कि यह निर्णय दोनों सम्प्रदायों की आँखें खोल देगा। बस, विवेक और सद्भाव का नवीन युग अगुआनी के लिये द्वार पर खड़ा है।”


बाबू राजेन्द्र प्रसाद


      पूछने पर बाबू राजेन्द्र प्रसाद ने अपना अभिमत इस प्रकार व्यक्त किया- साम्प्रदायिक समस्या को किसी राष्ट्रीय पद्धति पर हल करने के लिये काँग्रेस सदैव तत्पर रही है। ब्रिटिश सरकार के घोषित नामधारी साम्प्रदायिक निर्णय ने तो राष्ट्रीयता की जड़ ही उड़ा दी। उसने पृथक् निर्वाचन् के सिद्धान्त को केवल कायम ही नहीं रक्खा है बल्कि अचिन्त्य सीमा तक उसको सचमुच बिछा भी दिया है। घर की पवित्रता भी नहीं बच पाई है। विभक्त करने के लिये स्त्रियाँ भी ढूंढ ली गई हैं, और उनको उनकी खुली इच्छा के विरुद्ध टुकड़ों में बाँट दिया गया है


    “समस्त योजना मूलत: निकृष्ट है और इस प्रकार रची गई है कि जहाँ कहीं अब तक भेद का नाम भी न था,  वहाँ भी भेद उत्पन्न किए गए हैं, और इस तरह ब्रिटिश शासन को और भी स्थायी बनाया गया है। इसका अभीष्ट उद्देश्य यह प्रतीत होता है कि एक सम्प्रदाय को दूसरे सम्प्रदाय के प्रतिकूल खड़ा कर भविष्य में राजनीतिक प्रश्नों पर एकमत होने की सम्भावना को इस प्रकार यदि बिल्कुल नष्ट न कर दे,  तो उसे दुस्तर तो अवश्य ही बना दे। भविष्य में आने वाले सुधार की यह एक बानगी है। जो लोग अब तक ब्रिटिश साधुता और न्याय में अत्यन्त विश्वास रखते थे,  वे भी अब चकरा गए होंगे


सर प्रफुल्लचन्द्र राय


‘लीडर  की प्रार्थना पर सर प्रफुल्लचन्द्र राय ने साम्प्रदायिक निर्णय के सम्बन्ध में कलकत्ते से उसके पास अपनी यह सम्मति भेजी थी- अत्यन्त भ्रष्ट। वर्ग को वर्ग से लड़ाने वाला,  राष्ट्रीयता की उपज का ग्रह। ”


बंगाल के राष्ट्रीय मुसलमानों का विरोध


        बंगाल के राष्ट्रीय मुस्लिम दल की कार्यकारिणी समिति की एक बैठक में,  जो चौधरी मुअज्जम हुसैन की अध्यक्षता में कलकत्ते में हुई थी,  निम्नांकित प्रस्ताव पास हुए- बंगाल के राष्ट्रीय मुस्लिम दल की कार्यकारिणी समिति की यह बैठक ब्रिटिश मंत्रिमण्डल का राय से प्रधानमंत्री द्वारा दिए गए साम्प्रदायिक निर्णय का उग्र विरोध इन कारणों से करती है-

        (अ) कि यह पृथक् निर्वाचन को स्वीकार करता है, जो उत्तरदायी शासन के सर्वथा विपरीत है।

(ब) इसने बंगाल के मुसलमानों को सदा के लिये व्यवस्थित अल्प मत बना दिया है।

(स) इसने भूमिपतियों और व्यापारियों के लिये विशेष क्षेत्र रक्खे हैं और उसके विस्तार को अन्यान्य लाभो  के लिये बढ़ा दिया है।

(ई) इसने चालाकी से मुसलमानों के लिये पृथक् निर्वाचन रहने दिया है,  जिससें फिरंगियों और गोरों के लिये भी पृथक् निर्वाचन रक्खे जायँ। उनको इतने अधिक प्रतिनिधित्त्व दे दिए जायँ कि बंगाल कौन्सिल में उनका बोल-बाला रहे।

(उ) इसकी रचना इस रूप में हुई है कि इससे भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों में फूट उत्पन्न हो जाय और उत्तरदायी स्वायत्तशासन की बात खटाई में पड़ जाय।

(ऊ) इसने कृषकों की एकदम उपेक्षा की है जिनकी संख्या प्रान्त में अत्यन्त अधिक है।

(ए) विभिन्न सम्प्रद्रायों में समझौता होने के मार्ग को इसने प्राय: बन्द का दिया है,  क्योंकि इसने पहले ही नियत कर दिया है कि कोई भी निर्णय तबतक मान्य न होगा जबतक सभी सम्प्रदाय उसे स्वीकार न कर लें


 

संयुक्त प्रान्त का उदार दल

 


        संयुक्त प्रान्त के उदार दल की सामान्य बैठक प्रयाग में हुई थी,  जिसमें साम्प्रदायिक निर्णय पर विचार किया गया था,  और निम्नलिखित प्रस्ताव पास हुए थे-


      (अ) संयुक्त प्रान्त का उदार दल सरकार के उस निश्चय को, जो साम्प्रदायिक निर्वाचन निर्णय का अंग है,  बहिष्कार करता है,  क्योंकि उसने पृथक् और साम्प्रदायिक निर्वाचन को कायम रक्खा तथा उसके दोष को विस्तृत कर दिया है;  बहुत से विभिन्न वर्गों की रक्षा के लिये उन्हें अलग स्थान दिए हैं; यह पारस्परिक राष्ट्रीय भावनाओं के उत्कर्ष में बाधक और साम्प्रदायिक द्वेष को भड़काने वाला गिना जाता है; पंजाब तथा बंगाल के हिन्दुओं के लिये,  जिनकी संख्या उक्त प्रान्तों  में कम है और जिन्हें औसत से भी कम स्थान दिए गए हैं, अहितकर है;  और फिरंगियों को,  विशेषत: बंगाल और आसाम में हिन्दू तथा मुसलमानों का अहित करके अत्यन्त अधिक प्रतिनिधित्त्व दिया है


(ब) यह दल इस धारणा को फिर दुहराता है कि कोई भी उत्तरदायी शासन-प्रणाली तब तक भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों में परस्पर सहयोग की भावना उत्पन्न नहीं कर सकती,  जबतक वह संयुक्त निर्वाचन पर अवलम्बित न हो। इस प्रकार अवलम्बित होने से ही वह अपने कार्य में सफल हो सकती है और जनसामान्य के जीवन को असाम्प्रदायिक एवं अजातीय मार्ग पर उन्नत कर सकती है

                (९)

कार्यकारिणी समिति के निर्णय का परिणाम उसने यह कहा है कि अन्य बातों के कारण साम्प्रदायिक निर्णय दोषपूर्ण तो है ही,  पर राष्ट्रीय दृष्टि से विचार करने पर यह सर्वथा असन्तोषजनक है। उसने यह और भी कहा है कि जैसे यह प्रत्यक्ष ही है  कि साम्प्रदायिक निर्णय के अनिष्ट परिणामों को रोकने का एकमात्र यही उपाय है कि आपस में समझौता करने के साधन और ढंग निकाले जायँ। कार्यकारिणी समिति ने इसको,  बिल्कुल घरेलू प्रश्न कहकर व्यर्थ में ब्रिटिश सरकार अथवा अन्य किसी बाहरी अधिकारी से प्रार्थना करना रोक कर आपस में ही समझौता कर लेने को कहा है। उसको इस बात की सुध नहीं रही कि अब यह प्रश्न घरेलू नहीं रह गया। अब तो यह ब्रिटिश सरकार के हस्तक्षेप के कारण विराट् राजनीतिक प्रश्न बन गया है। अन्त में  हम लोगों ने परस्पर सन्धि की इच्छा से निवेदन किया कि बड़ी व्यवस्थापिका सभा में वोट देने के लिये काँग्रेस-जनों को यह अधिकार रहेगा कि वे अपनी इच्छानुसार साम्प्रदायिक निर्णय पर वोट दें। परन्तु कार्यकारिणी समिति को इससे भी सहमत होने के लिये कोई उपाय नहीं सूझा। कार्यकारिणी समिति की इस चेष्टा का परिमाण यह होगा कि जो राष्ट्रवादी काँग्रेस के टिकट पर व्यवस्थापिका सभा के लिये सदस्य चुना जाय, वह साम्प्रदायिक निर्णय के विरुद्ध, (यदि किसी ने इस पर कोई प्रस्ताव उपस्थित कर दिया) वोट देने से वंचित रक्खा जायगा। उसे इतना करने का भी अधिकार न रहेगा कि वह किसी ऐसे प्रयत्न में शरीक हो सके जो साम्प्रदायिक निर्णय के विरुद्ध ब्रिटिश सरकार अथवा अन्य किसी बाहरी अधिकारी से सहायता लेने के लिये किया जाय। इसका परिणाम यह होगा कि जब संयुक्त पार्लियामेण्टरी समिति और बाद में ब्रिटिश पार्लियामेण्ट इस प्रस्तावित व्यवस्था पर,  जिसमें सरकार का साम्प्रदायिक मन्तव्य भी जुडा होगा,  विचार करेंगे,  जब देशभर में चुनाव-चर्चा एवं श्वेतपत्र के बहिष्कार के रूप मे  एक भयंकर आन्दोलन खड़ा होगा,  और उस व्यापक तथा भयावह अवसर पर काँग्रेस के आदमी साम्प्रदायिक निर्णय पर उदासीनता की नीति का पालन करेंगे,  और कार्यकारिणी समिति की इस करनी से मौनं सम्मतिलक्षणम् यह भ्रामंक धारणा और भी दृढ़ होगी कि काँग्रेस ने साम्प्रदायिक निर्णय को स्वीकार कर लिया, और फलत: उसे हिन्दू और सिक्खों ने भी मान लिया।


हमारा विश्वास है कि ऊपर जो कुछ कहा गया है,  उससे स्पष्ट अवगत हो गया होगा कि काँग्रेस की कार्यकारिणी समिति तथा पार्लियामेण्टरी बोर्ड का यह कर्त्तव्य था कि साम्प्रदायिक निर्णय के सम्बन्ध में, जो निर्वाचकों को पन्द्रह भिन्न-भिन्न टुकड़ों में बाँटने की सलाह देता है,  वे उदासीन रहने की नीति का आदेश न देते,  प्रत्युत् प्राणपण से उसका विरोध करते,  और सन् १९३१ ई. की कार्यकारिणी समिति की पद्धति पर अग्रसर होते। महात्मा गाँधी ने गोलमेज परिषद् के सामने जो कहा था कि काँग्रेस चाहे जितने वर्षों तक अरण्यरोदन करती रहे,  परन्तु कभी वह ऐसे प्रस्ताव को सुनने के लिये तैयार न होगी जिसकी छत्रच्छाया में स्वतंत्रता और उत्तरदायी शासन का दृढ़ वृक्ष पनप न सके,  उसका प्रतिपादन करना कार्यकारिणी समिति का कर्त्तव्य था। हमें खेद है कि हमें कहना पड़ता हैं कि हमारे विचार में ऐसा न कर उसने राष्ट्रहित की हत्या की है और सामान्यत: राष्ट्रवादियों तथा विशेषत: हिन्दुओं और सिक्खों को ऐसा अवसर दे दिया है कि वे उसकी भरपेट चिन्ता करें।


 

 (१०)

उपाय


       काँग्रेस कार्यकारिणी समिति के इस निर्णय से जो हानि की सम्भावना है, उसका निराकरण फिर भी हो सकता है, और स्वराज्य अथवा राष्ट्रीय स्वायत्त शासन की ओर देश को फिर भी फिर भी बढ़ा सकते हैं। परन्तु यह तभी सम्भव है जब नाना प्रकार के सम्प्रदायों के नेता, जो प्रस्तुत विचारों से सहमत हैं, जुटकर कार्य करें। साम्प्रदायिक निर्णय की त्रुटियों को अच्छी तरह दिखाकर नेशनलिस्ट प्रेस ने देश का बड़ा उपकार किया है। अनेक संस्थाओं तथा महानुभावों ने भी यही किया है। मुस्लिम भाइयों के सिवा  सारा देश साम्प्रदायिक निर्णय के विरोध से गूंज उठा है। श्वेतपत्र के प्रस्तावों के निपट असन्तोषजनक स्वरुप की निन्दा करने में भी देश एकमत है। ये प्रस्ताव कितने असन्तोषजनक हैं,  इसका पता इस बात से साफ चल जाता है कि ब्रिटिश भारतीय समुदाय (ब्रिटिश इण्डियन डेलिगेशन के) बाइस सदस्यों ने संयुक्त पार्लियामेण्टरी समिति के सम्मुख भारत के शासन-सुधार के सम्बन्ध में एक अत्यन्त उदार और व्यापक संयुक्त वक्तव्य भेजा है,  जिसमें उन्होंने भारत की उदार जनता के सन्तोष के लिये प्रस्तुत पद्धति में,  उनकी दृष्टि से जिन प्रधान परिवर्त्तनों का होना आवश्यक है, उनको निदर्शित किया। इस विनीत प्रार्थना के स्वीकृत हो जोने की भी कोई आशा नहीं है। इसके विपरीत आशंका इस बात की है,  कि ग्रेट ब्रिटेन की पाषाण हृदय कट्टर रूढिवादी जनता के समूह को सन्तुष्ट करने के लिये श्वेतपत्र के प्रस्ताव कहीं और भी अधिक भारत के विरुद्ध एवं ब्रिटेन के अनुकूल न बना दिए जाय। अब तो राष्ट्रों के संयुक्त संघ (कॉमनवेल्थ ऑफ नेशन्स) में भारत और ब्रिटेन के तुल्य भाग की कोई चर्चा ही नहीं रही। अब रही औपनिवेशिक स्वराज्य की बात। श्वेतपत्र में तो उसके नाम से भी बाल-बाल बचने का प्रयत्न किया गया है। साम्प्रदायिक निर्णय और श्वेतपत्र के प्रस्तावों की गहरी गणना इसलिये इतनी चालाकी से नहीं की गई है कि भारत में उत्तरदायी शासन तब तक दृढ़ रहे जब तक उसके दृढ़ रहने की सम्भावना हो।


      इन परिस्थितियों में हम भारतीयों के लिये परम आवश्यक है कि हम सचेत हो जायँ और स्थिति की असलियत को अच्छी तरह समझें। अब भी निराश होने का कोई कारण नहीं। देश में जितने राजनीतिक संघटन इस समय मौजूद हैं और निकट भविष्य में हम लोग जितने और प्राप्त कर लेने की उचित आशा करते हैं,  उनके संयोग से हम स्वराज्य के संग्राम में सफलता की ओर बहुत कुछ आगे बढ़ जायेंगे। इसी लक्ष्य की ओर अग्रसर करने के लिये हम कहते हैं कि-


       (१) काँग्रेसजनों में जिन मतभेदों के कारण फूट हो गई है,  उनको हटाने के लिये समस्त भारत-काँग्रेस-समिति की यथासाध्य शीघ्रतिशीघ्र एक बैठक होनी चाहिए और उसमें साम्प्रदायिक निर्णय के विषय में कार्यकारिणी समिति ने जो निश्चय किया है उसपर फिर से विचार किया जाय,  ताकि वह कार्यकारिणी समिति की सन् १९३१ ई. की पद्धति पर आगे बढ़े।


       (२) समस्त काँग्रेसजन,  समस्त राष्ट्रवादी,  एवं वे सभी लोग जो भारत को शीघ्र एक पूर्ण स्वतंत्र शासक राष्ट्र के रूप में देखने के लिये लालायित हैं,  एकमत होकर मान लें कि साम्प्रदायिक निर्णय तथा श्वेतपत्र दोनों के ही प्रस्ताव-राष्ट्रद्रोही,  अर्थात् प्रत्येक दृष्टि से राष्ट्रीय स्वायत्त-शासन के उत्कर्ष के घातक हैं; और इसीलिये उक्त सभी लोगो  को एक साथ इन दोनों पर आक्रमण करना चाहिए।


      (३) उनको व्यवस्थापिका सभा के लिये चुनाव में उन्हीं उम्मीदवारों का पक्ष ग्रहण करना चाहिए जो साम्प्रदायिक निर्णय तथा श्वेतपत्र दोनों के ही विरोधी और राष्ट्रीय माँग के समर्थक हैं।


      (४) विभिन्न सम्प्रदायों के नेता आपस में मिलकर शीघ्र ही एक राष्ट्रीय गोष्ठी इस दृष्टि से करें कि वैधानिक तथा साम्प्रद्रायिक दोनों ही मसलों का कोई मुनासिब निष्कर्ष एकमत से निकल आए।


      (५) हमें अपनी और अपनी जनता की रक्षा, किंकर्त्तव्यविमूढ़ता, लाचारी तथा उस भावना से अवश्य नहीं करनी चाहिए जो किसी अवश्यम्भावी काम को देखकर झुक जाने की हो जाती है; और सभी उचित तथा शान्त साधनों के आधार पर तब तक संग्राम करने के लिये तुल जाना चाहिए जब तक हम उसे जीत न लें जो हमारा जन्म-सिद्ध अधिकार है, अर्थात् जबतक हम पूर्ण स्वतंत्र होकर अपना प्रबन्ध उसी प्रकार न करने लगें जिस प्रकार स्वयं ग्रेट ब्रिटेन को अपना प्रबन्ध करना पड़ता है।


इस उपाय के अवलम्बन से हम साम्प्रदायिक भेदभाव से मुक्त होंगे,  राष्ट्रीय एकता प्राप्त करेंगे और उस स्वतंत्रता के अधिकारी हो जायेंगे, जिसकी हमें लालसा है, और जिसके लिये हम परमात्मा से प्रार्थना करते हैं।



अगस्त                                                              मदन मोहन मालवीय 

सन् १९३४ ई.                                                       एम.एस.अणे

Mahamana Madan Mohan Malaviya