Speeches & Writings
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अछूतोद्धार मंत्र-महिमा
वेद सब धर्मों का मूल है- वेदोऽखिलो धर्ममूलम् महाभारत में लिखा है-
सत्यान्नास्ति परो धर्मो नानृतात्पातकं परम्। न च वेदात्परं शास्त्रं नास्ति मातृसमो गुरु:।।
सत्य से बड़ा कोई धर्म नहीं, झूठ से बड़ा कोई पाप नहीं, वेद से बड़ा कोई शास्त्र नहीं, माता के समान कोई गुरु नहीं।
यह बात सभी विद्धान् जानते हैं कि पृथ्वीमण्डल पर वेद के समान प्राचीन कोई ग्रन्थ नहीं है। वेद सब धर्मों का मूल है और वह जगत् के समस्त प्राणियों के हित के लिये है। यह विदित है कि वेद की चारों संहिताओं में एक-एक अक्षर के उच्चारण करने के उदात्त, अनुदात्त अथवा स्वरित स्वर नियत हैं। पूर्व काल में द्विजों की कन्याओं का उपनयन-संस्कार होता था और वेद उनको पढ़ाया जाता था। किन्तु वर्त्तमान कल्प में यह प्रथा बन्द कर दी गई और चिरप्रचलित मर्यादा के अनुसार विधिपूर्वक ब्रह्मचर्य के साथ शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष, इन छ: अंगों के साथ स्वरसंयुक्त वेद उन्हीं द्विजाति, अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य के बालकों को पढ़ाया जाता था, जिनका शास्त्र की रीति से उपनयन-संस्कार किया जाता था, और जिनको कठोर नियमों का पालन कराया जाता था। और न केवल शूद्रों को बल्कि ब्रह्मवादिनियों को छोड़कर सामान्यतया ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य स्त्रियों को भी वेद नहीं पढ़ाया जाता था। किन्तु ऋषियों को यह इष्ट था कि सब प्राणियों को वेद के उपदेश का लाभ प्राप्त हो। इसलिये ऋषियों ने वेदों का अर्थ लोकभाषा में प्रकाश करना अपना कर्त्तव्य समझा और महर्षि वेदव्यासजी ने लोकहित के लिये एक वेद को ऋक् यजु:, साम तथा अथर्व नाम चार विभागों में बाँटकर पीछे वेद का अर्थ अपने समय की लोकभाषा संस्कृत में ‘श्रीमन्महाभारत’ में सब प्राणियों के हित के लिये और विशेषकर स्त्री और शूद्र तथा उन और लोगों के लिये जिनको वेद नहीं पढ़ाया जाता था, बहुत उत्तम रूप में प्रकाशित किया।
श्रीमद्भागवत में लिखा है कि द्वापर युग के आने पर महर्षि वेदव्यास ने दिव्यदृष्टि से वह बात विचारी जिससे चारों वर्णों और आश्रमों के प्राणियों का हित हो, और जैसा महाभारत ही में लिखा है-
तपसा ब्रह्मचर्य्येंण व्यस्य वेदं सनातनम्।
इतिहासमिमं चक्रे पुण्यं सत्यवतीसुत:| लोकानां च हितार्थाय कारुण्यान्मुनिसत्तम:||
तपस्या से, ब्रह्मचर्य से, एक वेद को चार भाग में बांटकर सत्यवती के पुत्र मुनियों में श्रेष्ठ वेदव्यासजी ने दया के भाव से जगत के प्राणियों के हित के लिये यह महाभारत, नाम इतिहास रचा । भागवत में भी लिखा है कि इस बात को सोचकर कि स्त्री शूद्र और अन्य जातियों के प्राणियों को, जिनको वेद सुनने में नहीं आता, अपने धर्मकर्म का ज्ञान इसी प्रकार से लोकभाषा के द्वारा हो। इस दया के भाव से महामुनि ने भारत की कथा लिखी।
उसी भागवत में दूसरे स्थल पर स्वयं वेदव्यास भगवान् का वचन है कि मैंने व्रत लेकर महाभारत के नाम से वेद का अर्थ भी प्रकाश कर दिया, जिसमें स्त्री शूद्रादि भी सब लोग धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चारों पदार्थो का उपदेश प्राप्त कर सकते हैं | महाभारत, भागवत, विष्णुपुराण, शिवपुराण तथा अन्य पुराणों में वेद का अर्थ विपुलता के साथ लिखा गया है। इसके अनेक उदाहरण हैं, किन्तु इसका एक बहुत उज्जवल उदाहरण विष्णुपुराण में है। वेदों में पुरुषसूक्त प्रसिद्ध है | प्रायः प्रत्येक विद्वान् ब्राह्मण को वह कण्ठ रहता है। वह पुरुषसूक्त थोड़ा ही बदल और घटा-बढ़ाकर विष्णुपुराण में पूरा दिया हुआ है। उसमें का प्रधान अंश नीचे लिखते हैं-
सहस्त्रशिर्षा पुरुष: सहस्त्राक्ष: सहस्त्रपात्। सर्वव्यापी भुव: स्पर्शादत्यतिष्ठद्दशान्गुलम्। यद्भूतं यच्च वै भाव्यं पुरुषोत्तम तद्भवान्।। त्त्वत्तो विराट् स्वराट् सम्राट् त्त्वत्तश्चाप्यधिपूरुष:| अत्यरिच्यत सोऽधश्च तिर्यक् चोर्ध्वं च वै भुव:|| त्त्वत्तो विश्वमिदं जातं त्त्वत्तो भूत भविष्यती। त्त्वद्रूप धारिणश्चान्तर्भुतं सर्वमिदं जगत्। त्त्वत्तो यज्ञ: सर्वहुत: पृषदाज्यं पशुर्द्विधा|| त्त्वत्तो ऋचोऽथ सामानि त्त्वत्तश्छन्दांसि जज्ञिरे। त्त्वत्तो यजूंष्यजायन्त त्त्वत्तोऽश्वाश्चाकतोदत:| गावस्त्त्वत्त: समुद्भुतास्त्त्वत्तोऽजा अवयो मृगा:|| त्त्वन्मुखाद्ब्राह्मणास्त्त्वत्तो बाह्यो: क्षत्रमजायत| वैश्यास्तवोरुजा: शूद्रास्तव पद्भयां समुद्गता:|| अक्ष्णो: सूर्योऽनिल: श्रोत्राच्चन्द्रमा मनसस्तव| प्राणेन सुषिराज्जातो मुखादग्निरजायत| नाभितो गगनं ध्योश्च शिरस: समवर्तत। दिश: श्रोत्रात् क्षिति: पद्भयां त्त्वत्त: सर्वमभूदिदम्|| व्यक्त प्रधान पुरुष! विराट् सम्राट् स्वराट् तथा। विभाव्यतेऽन्त: करणै: पुरुषेष्वक्षयो भवान्|| सर्वस्मिन् सर्वभूतस्त्त्वं सर्व: सर्वस्वरूप धृक्| सर्वं त्त्वत्तस्ततश्च त्तवं नम: सर्वात्मनेऽस्तुते।।
इसी रीति से प्राणियों के हित में निरत ऋषियों ने सम्पूर्ण वेद का अर्थ उस समय की प्रचलित सरल लोकभाषा संस्कृत में लिखकर जगत का असीम उपकार किया|
इतिहास-पुराण वेद के समान हैं।
इसी कारण वाल्मीकीय रामायण और महाभारत तथा भागवत आदि पुराणों को पाँचवाँ वेद कहते हैं। छान्दोग्य-उपनिषद् में लिखा है- ‘ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा आथर्वणवेद चार वेद और इतिहास-पुराण पाँचवाँ वेद हैं। भागवत में भी लिखा है- "इतिहासपुराणं च पंचमो वेद उच्यते”। ‘इतिहास-पुराण को पाँचवाँ वेद कहते हैं”। महाभारत के विषय में उसी में ऋषियों का वचन है कि यह कृष्ण द्वैपायन व्यास-रचित वेद है और उन्होंने इसको 'नाना शास्त्रोपबृंहिता’, 'वेदैश्चतुर्भि संयुक्ता' , 'पुण्या' ‘पाप भयापहा' , ‘ब्राह्मी संहिता' अर्थात् अनेक शास्त्रों से बढाई गई, चारों वेदों के अर्थ से युक्त, पुण्य बढाने वाली, पाप और भय को दूर करने वाली ब्राह्मी (वेद की) संहिता कहकर वर्णन किया है।
इसी प्रकार भागवत के विषय में लिखा है कि उसमें श्लोक-श्लोक में पद-पद में वेद का अर्थ भरा है। पुराणों में यह स्पष्ट कर दिया गया है कि पुराण चारों वर्णों के लिये कल्याणकारी हैं, किन्तु स्त्री और शूद्रों के लिये विशेषकर मंगलकारी हैँ, भविष्यपुराण में लिखा है कि राजा शतानीक ने सुमन्तु ऋषि से पूछा कि महाराजा! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य इन तीन वर्णों के लिये तो वेद, वेदांग और मनु आदि धर्मशास्त्र प्राप्त हैं। दीन शूद्र लोग धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का साधन कैसे करें ? इनके चतुर्वर्ग के पाने के लिये तथा चारों वर्णों के कल्याणा के लिये कौन से शास्त्र हैं? यह आप मुझे बताइए। इसके उत्तर में सुमन्तु ऋषि ने कहा-
साधु साधु महाबाहो श्रृणु मे परमं वच:। चतुर्णामपि वर्णानां यानि प्रोक्तानि श्रेयसे।। धर्मशास्त्राणि राजेन्द्र श्रृणु तानि नृपोत्तम। विशेषतस्तु शूद्राणां पावनानि मनीषिभि:।। अष्टादश पुराणानि चरितं राघवस्य च| रामस्य कुरु शार्दूल धर्मकामार्थसिद्धये।। तथोक्तं भारतं वीरे पाराशर्येंण धीमता। वेदार्थं सकलं योज्य धर्मशास्त्राणि च ग्रंभो।। कृपालुना कृतं शास्त्रं चतुर्णामिह श्रेयसे| वर्णानां भव मग्नानां कृतं पोतो ह्यनुत्तमम्||
हे महाबाहो! आपने अच्छा पूछा-आप मेरे सबसे उत्तम वचन को सुनिए |
जो चारों वर्णों के कल्याण के लिये धर्मशास्त्र कहे गए हैं, और विशेषकर जो शूद्रों को पवित्र करने वाले हैं, उनको सुनिए। सब वर्णों के धर्म, अर्थ तथा काम की सिद्धि के लिये अठारहों पुराण और रामायण लिखे गए और इसी प्रकार सब वेदों के अर्थ और धर्मशास्त्र को मिलाकर वेदव्यासजी ने महाभारत को रचा। वे कृपालु थे। उन्होंने चारों वर्णों के प्राणियों के कल्याण के लिये यह शास्त्र लिखा। चारों वर्णों के जों लोग संसार-सागर में गोता खा रहे हैं, उनके लिये उन महर्षि ने सबसे उत्तम यह नौका रच दी।
इन वचनों से स्पष्ट है कि- इन ग्रन्थों के पढ़ने का सबको अधिकार है। तथापि कुछ विद्धानों को यह भ्रम है कि स्त्रियों और शूद्रों को इन ग्रन्थों के पढने का अधिकार नहीं है, केवल सुनने का अधिकार है। यह भ्रम सर्वथा शास्त्र-विरुद्ध है। वाल्मीकीय रामायण में जिसको ‘वेदैश्च सम्मितं’ वेदों के बराबर मानते हैं, आदि के अध्याय में लिखा है-
पठन् द्विजो वागृषभत्त्वमीयात्। स्यात्क्षत्रियो भूमि पतित्त्वमीयात्।।
वणिग्जन: पुण्य फलत्तवमीयात्। जनश्च शूद्रोऽपि महत्त्वमीयात्।।
कि उसको पढ़ने वाला ब्राह्मण बोलने वालों में श्रेष्ठ होता है, क्षत्रिय भूमिका स्वामी होता है, वैश्य व्यापार में लाभ उठाता है और शूद्र भी बड़प्पन पाता है।
ऐसा ही रामायण के अन्त में भी लिखा है-
एतदाख्यानमायुषयं पठन् रमायणं नर:|
सपुत्रपौत्रो लोकेऽस्मिन् प्रेत्य चेह महीयते।।
जो प्राणी इस रामायण की कथा को पढ़ता है वह इस लोक में पुत्र, पौत्र और सुख तथा परलोक में आदर पाता है। महाभारत के भी पहले ही अध्याय के अन्त में लिखा है कि जो कोई पवित्र होकर श्रद्धा-भक्ति-सहित इस अध्याय को पढ़े वा सुने वह यहॉ दीर्घायु और कीर्त्ति तथा अन्त में स्वर्ग को पावेगा और अन्त के पर्व में भी लिखा है कि जो कोई सावधान होकर इस भारत की कथा को पढ़ेगा वह नि:सन्देह सबसे बड़ी सिद्धि को पहुँचेगा।
महाभारत के शान्तिपर्व में विष्णु-सहस्त्र-नाम के अन्त में स्पष्ट कह दिया है कि जो मनुष्य इसको सुने और जो इसका पाठ करे उसका इस लोक में और परलोक में भी कोई अमंगल नहीं होगा।
वेदान्तगो ब्राह्मण: स्यात् क्षत्रियो विजयी भवेत्।
वैश्यो धन समृद्ध: स्याच्छूद्र: सुखमवाप्नुयात्।
अर्थात् ब्राह्मण सुने या पढ़े तो वेदान्त का जानने वाला हो। क्षत्रिय सुने या पढ़े तो विजयी हो । वैश्य सुने या पढ़े तो धनसम्पन्न हो। शूद्र सुने या पढ़े तो सुख पावे।
भगवद्गीता के अन्त में भगवान् ने अपने श्रीमुख से अर्जुन से कहा है कि जो कोई मुझमें भक्ति कर मेरे भक्तों के बिच में इसको सूनवेगा और जो कोई मेरे और तुम्हारे इस धर्मयुक्त संवाद को पढ़ेगा, उसने ज्ञानयज्ञ से मेरी पूजा की, ऐसा मैं मानता हूँ | भगवद्गीता के माहात्म्य में भी लिखा है कि इस गीताशास्त्र को जो कोई पुरुष पवित्र होकर पढ़ेगा वह भय और शोक से रहित होकर विष्णुपद को पहुँचेगा। भीष्मस्तवराज के अन्त में लिखा है कि जो इस स्तोत्र को पढ़ेगा या सुनेगा वह सब पाप से मुक्त होकर देहत्याग करने पर विष्णु भगवान् में मिल जायगा।
अनुशासनपर्व में शिव-सहस्त्र-नाम के अन्त में भगवान् कृष्ण का वचन है कि जो इन्द्रियों को वश में रखकर पवित्र होकर बिना व्रत भंग किए नियम से एक महीना इस स्तोत्र का पाठ करेगा वह अश्वमेध यज्ञ का फल पावेगा। और वहीं पर यह भी लिखा है कि-
वेदान् कृत्स्नान् ब्राह्मण: प्राप्नुयात्तु ज्येन्नृप: पार्थ महीं च कृत्स्नाम्। वैश्यो लाभं प्राप्नुयान्नैपुणं च शुद्रो गति प्रेत्य तथा सुखं च।।
अर्थात् ब्राह्मण पाठ करे तो सब वेदों का ज्ञान पावे, क्षत्रिय करे तो पृथ्वी को जीते, वैश्य करे तो लाभ और निपुणाई पावे। शूद्र करे तो यहॉ और परलोक में सुगति पावे। श्रीमद्भागवत में लिखा है-
विप्रोऽधीत्याऽऽप्नुयात्प्रज्ञां राजन्यो दधि मेखलाम्| वैश्यो निधिपतित्त्वं च शुद्र: शुद्धयेत पातकात्।।
अर्थात् ब्राह्मण भागवत् पढ़े तो बुद्धि पावे, क्षत्रिय पढ़े तो सागरपर्यन्त पृथ्वी पावे, वैश्य पढ़े तो बहुत धन पावे, शुद्र पढे तो पाप से शुद्ध हो जाय|
इसी प्रकार से विष्णुपुराण, नारदीयपुराण, शिवपुराण, स्कन्दपुराण, मार्कण्डेयपुराण, वायुपुराण, ब्रह्मपुराण, अग्निपुराण और पदमपुराण में स्पष्ट लिखा है कि जो मनुष्य उनको पढ़े या सुने वह सुख, सम्पत्ति, दीर्घायु, विजय, भक्ति आदि पाता है। इससे स्पष्ट है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, पुरुष और स्त्री सबको पुराणों को पढ़ने का अधिकार है। किसी-किसी पुराण में कहीं-कहीं पर यह लिखा है कि इस कथा या अध्याय को द्विजों को सुनावें। इससे कुछ विद्वानों का यह मत है कि उन अंशों को पढ़ने का अधिकार द्विजों ही को है, और अन्य लोगों के लिये वे अंश निषिद्ध हैं | किन्तु ऐसे अंश बहुत थोड़े हैं।
अन्त्यजों को भी इन ग्रन्थों के पढ़ने का अधिकार है।
मनुजी के वचन के अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, ये तीन वर्ण द्विजाति कहे जाते हैं। चौथा शुद्र वर्ण एक जाति है। पाँचवाँ वर्ण नहीं है। उन्हीं मनुजी के अनुसार ‘शूद्राणां तु सधर्माण: सर्वेऽपध्वंसजा: स्मृता:” इसकी टीका में मेधा तिथि लिखते हैं कि- 'ये पुनरपध्वंसजा: संकरजास्ते शूद्राणां सधर्माण: समानाचारास्तद्धर्मैरधिक्रियन्त इत्यर्थ:। अर्थात् जो प्रतिलोम संकर जाति के लोग चाण्डाल आदि हैं वे शूद्र के सधर्मा हैं, अर्थात जो धर्म शूद्रों का है वही धर्म उनका है। इससे यह सिद्ध होता है कि जैसा शूद्रों को इतिहास पढ़ने तथा सुनने का अधिकार है, वैसा ही सब अपध्वंसजों को, जिनमें अन्त्यज तक हैं, इतिहास-पुराण पढ़ने सुनने का अधिकार है | इसका सारांश यह निकलता है कि जिस मनुष्य को -पुरुष हो वा स्त्री और किसी वर्ण वा जाति का - वेदार्थ से भूषित पुराणों के पढ़ने की श्रद्धा और भक्ति हो, वह उनको पढ़ने का अधिकारी है।
स्त्री शूद्रों को ॐकार सहित मंत्रों के उच्चारण का अधिकार है।
यदि पुर्वोद्धत वचनों से यह सिद्ध है कि स्त्री शूद्रों को पुराणों के पढ़ने का अधिकार है तो यह भी आप ही सिद्ध है कि उन पुराणों के अन्तर्गत मन्त्रों के उच्चारण करने का उनको अधिकार है। पुराणों में जो अनेक मंत्र आए हैं उनका आरम्भ ॐकार से होता है| इसलिये सब पुराण के पढ़ने के अधिकारियों को ॐकार सहित मंत्रों के उच्चारण करने का अधिकार है | इसमें भी पुराण ही प्रणाम हैं| विष्णु-सहस्त्रनाम के पढ़ने का शूद्रों का अधिकार है| यह उसी के अन्त में स्पष्ट लिखा है| उसको वेदव्यासजी ने 'सर्वप्रहरणायुध ओऽमिति’ इन शब्दों मे समाप्त किया है|
श्रीमद्भागवत के पढ़ने का शूद्रों को अधिकार है| उसमें आदि के अन्त तक ॐकार सहित अनेक मंत्र भरे हैं| प्रायः सब स्कन्धों के प्रारम्भ में 'ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ यह मंत्र गर्जता है| पाँचवें स्कन्ध में अनेक ॐकार सहित मंत्र है। ‘ॐ नमो भगवते उत्तम श्लोकाय' इत्यादि। छठें स्कन्ध में ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ ‘ॐ नमो नारायणाय’ ये दोनों मंत्र नारायण कवच मे आए हैं। उसी स्कन्ध में ‘ॐ नमो नारायणाय पुरुषाय महात्मने विशुद्ध सत्त्वधिष्णाय महाहंसाय धीमहि' यह मंत्र आया है। उसी स्कन्ध में स्त्रियों के पुंसवन व्रतविधान में लिखा है कि जिस स्त्री को अच्छे पुत्र पाने की कामना हो वह पति की आज्ञा लेकर पुंसवन व्रत करे और प्रतिदिन नहाकर लक्ष्मी सहित विष्णु की पूजा इस मंत्र से करे-
‘ॐनमो भगवते महापुरुषाय महानुभावाय महाविभूतिपतये सह महाविभुतिभिर वलिमुपहरामि’ इति, और ‘ॐ नमो भगवते महापुरुषाय महाविभूति पतये स्वाहा’ इस मंत्र से आहुति दे। आठवें स्कन्ध में भगवान् कश्यप ने पयोव्रत के विधान में अदिति देवी को उपदेश किया कि स्त्री 'ॐ नमो नारायणाय' इस मूल मंत्र से होम करे। पद्मपुराण में वासुदेवाभिधान नाम स्तोत्र है, जिसमें 'ॐ नमो भगवते वासुदेवाय' इस मंत्र की महिमा वर्णित है। उसमें लिखा है कि उस स्तोत्र को जो ब्राह्मण पढ़ेगा उसकी सब इच्छाएँ पूरी होंगी, क्षत्रिय पढ़ेगा तो जय पावेगा, वैश्य पढ़ेगा तो धनधान्य से पूरा होगा और शूद्र पढ़ेगा तो सुख पावेगा। विष्णु धर्मोत्तर में द्विजों को वैदिक पुरुषसूक्त और श्रीसूक्त से हवन करने की विधि बतला कर लिखा है-
एतत्प्रोक्तं द्विजातीनां स्त्रीशूद्रेषु च यच्छृणु। द्वादशाष्टाक्षरौ मंत्रौ तेषांप्रोक्तौ महात्मनाम्।। हितौ तौ च द्विजातीनां मंत्रश्रेष्ठौ नराधिप| तेभ्योप्यधिक मंत्रोऽपि विद्यते न हि कुत्रचित्।।
अर्थात् यह वैदिक विधि तो द्विजातियों के लिये कही। अब स्त्रियों और शूद्रों के लिये जो विधि है वह सुनो। उनके लिये द्धादशाक्षर 'ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ और अष्टाक्षर 'ॐ नमो नाराणाय’ ये मंत्र गहे गये हैं| हे राजन्! ये मंत्र द्विजातियों के लिए भी कल्याणकारी है, अर्थात् चारों वर्णों को इन मंत्रो को जपना चाहिए | इससे बड़ा कोई मंत्र नहीं हैं। ब्रह्मपुराण में विष्णु पूजनविधि नाम के एकसठवें अध्याय में लिखा है-
ॐकरादिसमायुक्तं नमस्कारान्तदीपितम्। तन्नाम सर्वसत्त्वानां मंत्र इत्यभिधीयते ||
ॐ नम: से युक्त परमात्मा के नाम जैसा ही 'ॐ नमो नारायणाय' प्राणी मात्र का मंत्र है | अर्थात् उसके जपने के सब अधिकारी हैं| उसी पुराण में उसी अध्याय में लिखा है कि जो लोग और किसी मंत्र से विष्णु की पूजा करना नहीं जानते वे ‘ॐ नमो नाराणाय’ इसी मूल मन्त्र से आवाहन ,स्नान, गन्ध, पुष्पादि षोडश उपचार से पूजन करें और इसी का जप करें|
नृसिंहपुराण के बासठवें अध्याय में वैदिक पुरुषसूक्त से विष्णु की पूजा विधि वर्णित की गई है| उनको सुनकर राजा सहस्त्रानीक ने मार्कण्डेय ऋषि से कहा कि इस विधि से तो पूजा वे ही लोग कर सकते हैं जो वेद के जानने वाले हैं। इसलिये वह पूजा विधि बताइए जो सर्वहित हो, अर्थात् जिसके अनुसार सब प्राणी विष्णु का पूजन कर सकें। उसके उत्तर में मार्कण्डेयजी ने कहा-
अष्टाक्षरेण मंत्रण नरसिंहमनामयम्। गन्धपुष्पादिभिर्नित्यमच्र्चयेदच्युतं नर:|| राजन्नष्टाक्षरो मंत्र: सर्वपापहर: पर:| समस्तयज्ञफलद: सर्वशान्तिकर: शुभ:||
मनुष्य 'ॐनमो नारायणाय' इस अष्टाक्षर मंत्र से विष्णु भगवान् नरसिंह की पूजा करे। इसी से गन्ध पुष्पादि सोलहों उपचार से पूजन करे। हे राजन्! यह अष्टाक्षर मंत्र सब पापों का हरने वाला, सब यज्ञों के फल का देने वाला, सब दु:ख और दोष की शान्ति करने वाला है। उसी पुराण के अठारहवें अध्याय में शुकदेवजी के इस प्रश्न पर कि-
कि जपन् मुच्यते तात सततं विष्णुतत्पर:| संसारदु:खात्सर्वेषां हिताय वद मे पित:||
हे पिताजी! विष्णु भगवान् का भक्त किस मंत्र को जपता हुआ संसार-सागर के दु:ख से छुटकारा पाता है। उत्तर में भगवान् वेदव्यासजी ने कहा है कि-
अष्टाक्षरं प्रवक्ष्यामि मंत्राणां मंत्रमुत्तमम्। यं जपन् मुच्यते मर्त्यो जन्मसंसारबन्धनात्|| एकान्ते निर्जनस्थाने विष्णवग्रे वा जलान्तिके। जपेदष्टाक्षरं मंत्रं चित्ते विष्णु विधाय वै।।
अष्टाक्षर मंत्र सब मंत्रों में उत्तम है। कोई मनुष्य हो, जिसको एक दिन मरना अवश्य है, इसको जपकर जन्म और संसार के बंधन से छूट जाता है| एकान्त में, निर्जन स्थान में, विष्णु के आगे या नदी जलाशय के पास, भगवान् विष्णु को मन मन्दिर में बिठाकर इस मंत्र को जपे।
ॐ नमोनारायणायेति मंत्र:सर्वार्थसाधक:|
भक्तानां जपतां तात स्वर्गमोक्षफलप्रद:|| सर्ववेदरहस्येभ्य: सार एष समुद्धत:| विष्णुनां वैष्णवानां हि हिताय मनुजां पूरा|| एतत्सत्यं च धर्म्यं च वेद-श्रुति निदर्शनात्। एतत्सिद्धिकरं नृणां मंत्ररूपं न संशय:|| अष्टाक्षरमिमं मंत्रं सवंदु:खविनाशनम्। जप पुत्र महाबुद्धे यदि सिद्धिमभीप्ससि।।
‘ॐनमो नारायणाय' यह मंत्र सब कामनाओं को पूरा करने वाला है, भक्ति से जपने वालों को स्वर्ग और मोक्ष तक का देने वाला है। निश्चय करके वैष्णवों के और सब मनुष्यमात्र के लिये प्राचीन काल में भगवान् विष्णु ने सब वेदोपनिषदों में से दूध में से मक्खन की भाँति साररूप इस मंत्र को निकाला। यह मंत्र निश्चय करके मनुष्यमात्र के लिये सब दु:खों का नाश करने वाला हैं और सब सिद्धि का देनेवाला है। हे मेरे महाबुद्धिमान् पुत्र! यदि तुम सिद्धि चाहते हो तो इस मंत्र को जपो।
ॐ नम: शिवाय
इसी प्रकार ‘ॐ नम: शिवाय’ इस मंत्र को जिसको श्रद्धा हो, वह जपने का अधिकारी है। 'ॐ नम: शिवाय' यह छ: अक्षर का मंत्र है। इसी को लोक में पंचाक्षर कहते हैं। यह बात स्कन्दपुराण, शिवपुराण और लिन्गपुराण के वचनों से स्पष्ट है।
स्कन्दपुराण में लिखा है-
शैवं षडक्षरं दिव्यं मंत्रमाहुर्महर्षय:|
देवानां परमो देवो यथा वै त्रिपुरान्तक:| मंत्राणां परमो मंत्रस्तथा शैव: षडक्षर:|| एष पंचाक्षरो मंत्रो जपतृणां मुक्तिदायक:| संसेव्यते मुनिश्रेष्ठैरशेषै: सिद्धिकांक्षिभि:|| भवपाशनिबद्धानां देहिनां हितकाम्यया। आहों नम: शिवायेति मंत्रमाद्य: शिव: स्वयम्।। मंत्रराजाधिराजोऽयं सर्ववेदान्तशेखर:| सर्वज्ञाननिधानं च सोऽयं चैव षडक्षर:|| तस्मात्सर्वप्रदो मंत्र: सोऽयं पंचाक्षर: स्मृत:| स्तभि: शूद्रैश्च संकीर्णैर्धार्यते मुक्तिकांक्षिभि:||
अर्थात् यह जो छ: अक्षरवाला शैव मंत्र है, उसको महर्षि लोग दिव्य मंत्र कहते हैं। जैसे देवताओं में सबसे बड़े देव त्रिपुरासुर को मारने वाले महादेव हैं, वैसे ही यह छ: अक्षर वाला शिवमंत्र सब मंत्रो से बड़ा है | यही पंचाक्षर मंत्र, अर्थात् लोक में पंचाक्षर नाम से प्रसिद्ध मंत्र जपने वालों को मुक्ति देनेवाला हैं। जो मुनिश्रेष्ठ सिद्धियों की आकांक्षा करते हैं, वे सब इसी मंत्र से उपासना करते हैं, संसार के फ़्राँस में जितने प्राणी बंधे हैं उनके लिये स्वयं आदिदेव महादेव ने 'ॐ नमः शिवाय’ इस मंत्र को अपने मुख से कहा। यह सब मंत्रों का राजाधिराज है, सब वेदान्त का शिरोमणि है, सब ज्ञान इसमें भरा हुआ है। वही यह छ: अक्षर वाला मंत्र है। इसलिये सब मनोरथों को पूरा करने वाले इस पंचाक्षर के नाम से प्रसिद्ध मंत्र को मुक्ति चाहने वाले सब स्त्री, शूद्र और संकर जाति के लोग जपते हैं।
शिवपुराण में वायवीय संहिता के उत्तर भाग के ग्यारहवें अध्याय में शिवजी ने अपने श्रीमुख से शैव धर्म का उपदेश किया है। उसमें ब्राह्यण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र, ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ, सन्यासी, सधवा और विधवा स्त्रियों को-
अथ वक्ष्यामि देवेशि भक्तानामधिकारिणाम्। विदुषां द्विजमुख्यानां वर्णधर्मं समासत:||
इस श्लोक से आरम्भकर "इति संक्षेपत: प्रोक्तं ममाश्रमनिषेवणम् अर्थात् इस प्रकार से मैंने संक्षेप में मेरे आश्रमनिषेवण करने की विधि कही” यहाँ तक तेइस श्लोकों में सब वर्ण और आश्रमवालों का विशेष-विशेष धर्म अलग-अलग वर्णन कर उसके आगे उन सब वर्ण और आश्रमवालों का सामान्य धर्म नीचे लिखे श्लोकों में बताया है-
ब्रह्मक्षत्रविशां देवि! यतीनां ब्रह्मचारिणाम्। तथैव वानप्रस्थानां गृहस्थानां च सुन्दरि|| शूद्राणामथ नारीणां घर्म एष सनातन:| ध्येयस्त्त्वयाहं देवेशि सदा जाप्य: षडक्षर:||
है देवि! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, यती, ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ, गृहस्थ, शूद्र और स्त्री सबों का (सर्वमान्य) यह सनातनधर्म है कि तुम्हारी मूर्त्ति से युक्त मेरी मूर्त्ति का ध्यान किया करें और सदा 'ॐ नम: शिवाय' इस षडक्षर मंत्र का जप किया करें |
शिवपुराण में उसी संहिता के बारहवें अध्याय में लिखा है कि भगवान् श्रीकृष्ण ने महर्षि उपमन्यु से कहा कि आप पंचाक्षर का माहात्म्य मुझे सुनाइये। इस पर उपमन्युजी बोले-
पंचाक्षरस्य माहात्म्यं वर्षकोटिशातैरपि। अशक्यं विस्तराद्वक्तुं तस्मात्सन्क्षेपत: श्रृणु||
पंचाक्षर का माहात्म्य कोटि वर्ष में भी विस्तार के साथ कहना सम्भव नहीं है।
इसलिये संक्षेप में सुनिये।
वेदे शिवागमे चायमुभयत्र षडक्षर:। मंत्रस्थित: सदा मुख्यो लोके मंचाक्षर: स्मृत:।। सर्वमंत्राधिकश्चायमोन्काराद्य: षडक्षर:। सर्वेषां शिवभक्तानामशेषार्थ प्रसाधक:।। मंत्र सुखमुखोच्चार्यमशेषार्थ प्रसिद्धये| प्रार्होनम: शिवायेति सर्वज्ञ: सर्वदेहिनाम्|| अन्त्यजो वाऽधमो वाऽपि मूर्खे वा पण्डितोऽपि वा। पंचाक्षरजपे निष्ठो मुच्यते पापपंजरात्। इत्युक्तं परमेशेन दैव्या पृष्टेन शूलिना। हिताय सर्वमर्त्यानां तिष्यजानां विशेषत:||
वेद और शैव आगम दोनों में यह मंत्र छ: अक्षर का सदा से स्थित है और सब मंत्रों में मुख्य है। लोक में यही पंचाक्षर के नाम से प्रसिद्ध है। ॐकारयुक्त पूजा मंत्र सब मंत्रों में बड़ा हैं, और जिनको आदिदेव महादेव में भक्ति है, उनकी सब कामनाओं को पूरा करने वाला है। सर्वज्ञ शिवजी ने सब प्राणियों के सब अर्थो को सिद्धि के साधन ‘ॐ नम: शिवाय’ मंत्र को, जिसको सब लोग सुख से उच्चारण कर सकते हैं, अपने श्रीमुख से कहा। अन्त्यज हो या नीच हो, मूर्ख हो या पण्डित हो, जो पंचाक्षर का जप नित्य श्रद्धा से करता है, वह पाप के पंजर से छूट जाता है। परमेश्वर शिवजी ने सब प्राणियों के हित के लिये विशेषकर कलियुग में उत्पन्न प्राणियों के हित के लिये पार्वती के पूछने पर ऊपर लिखा वचन कहा।
शिव-पार्वती संवाद
पार्वतीजी ने शिवजी से पूछा कि-
कलौ कलुषिते काले दुर्जये दुरतिक्रमे। अपुण्यतमसाच्छन्ने लोके धर्मपरान्मुखे।। क्षीणे वर्णसमाचारे सन्करे समुपस्थिते। सर्वाधिकारे संदिग्धे निश्चिते वा विपर्यये।। तदोपदेशे विहते गुरूशिष्यक्रमें गते| केनोपायेन मुच्यन्ते भक्तास्तव महेश्वर||
कलियुग में विकराल काल के आने पर जब पापरूपी अन्धकार फैल जाय और लोग धर्म से विमुख हो जायं, जब वर्णाश्रम धर्म क्षीण हो जाय और वर्णसंकर बढ़ने लगे, जब सब लोगों को समी धर्म विषयों में सन्देह होने लगे, और गुरु और शिष्य के क्रम से उपदेश देने का क्रम न रहे तो महेश्वर! आपके भक्त किस उपाय से पाप से छूटते हैं? शिवजी बोले-
आश्रित्य परमां विद्यां हृद्यां पंचाक्षरीं मम| भक्त्या च भावितात्मानो मुच्यन्ते कलिजा नरा:|| मनोवाक्कायजैर्दोषैर्वक्तुं स्मर्त्तुमगोचरै: दूषितानां कृत्घ्नानां निर्द्दयानां खलात्मनाम्।। लुब्धानां वक्रमनसामपि मत्प्रवणात्मनाम्। मम पंचाक्षरी विद्या संसारभयतारिणी।। मैयवमसकृद्देबि प्रतिज्ञातं धरातले। पतितोऽपि विमुच्येत मद्भक्तों विद्ययानया ।।
इत्यादि।
कलियुग में उत्पन्न प्राणी मेरी पंचाक्षरी विद्या का आश्रय लेकर, अर्थात् पंचाक्षर मंत्र को नित्य श्रद्धा से जपकर और मेरी भक्ति से अपनी आत्मा को पवित्र कर पाप से छूटते हैं। मन से, वचन से और काया से किए हुए ऐसे पापों से दूषित प्राणियों को जिन पापों को मुख से वर्णन करना और भी कठिन हो, और जो किए हुए उपकार को नहीं मानते, ऐसे कृतघ्नों को, दयारहित क्रूर प्राणियों को, और दुष्ट आत्माओं को, लोभियों को, और कुटिल मनवालों को भी, यदि वे मेरी ओर अपनी आत्मा को झुकावें तो मेरा पंचाक्षर मंत्र उनको संसार के सब डरों से छुडा देता है। हे देवि! मैंने पृथ्वीतल पर बार-बार प्रतिज्ञापूर्वक यह कहा है कि यदि पतित भी हो तो इस मंत्र के साधन से पाप से छूट जाता है।
अरुद्रो वा सारुद्रो वा सकृत् पंचक्षरेण य:| पूजयेत् पतितो वापि मूढो वा मुच्यते नर:|| षडक्षरेण वा देवि तथा पंचाक्षरेण वा। सब्रह्माने्ण मां भक्त्या पूजयेत् यदि मुच्यते।। पतितोऽपतितो वापि मंत्रेणानेन पूजयेत्।।
चाहे उसने विधि से शिवमंत्र का उपदेश लियो हो चाहे न लिया हो, पतित हो वा मूर्ख हो, जो एक बार भी श्रद्धा तथा भक्ति से पंचाक्षर मंत्र का जप करता है वह पाप से छूट जाता है। हे देवि! छ: अक्षर 'ॐ नम: शिवाय' से या पाँच अक्षर 'नम:शिवाय' से जो भक्ति से मेरा पूजन करे वह मुक्ति को पाता है। चाहे पतित हो या अपतित हो, सबको इस मंत्र से पूजन करना चाहिए। शिवजी ने कहा-
किमत्र बहुनोक्तेन भक्ता: सर्वेऽधिकारिण:| मम पंचाक्षरे मंत्रे तस्माच्छेृष्टतरो हि स:||
अर्थात् इस विषय में बहुत कहने से क्या, जिन प्राणियों को मुझमें भक्ति है, वे सब इस पंचाक्षर मंत्र के जपने के अधिकारी हैं। इसीलिये यह सब मंत्रों में श्रेष्ठ है। हे देवि! यह रहस्य मैं तुमको बताता हूँ| इसको तुम रक्षित रखना। हर एक से इसको न कहना, विशेषकर किसी नास्तिक से न कहना।
सदाचारविहीनस्य पतितस्यान्त्यजस्य च| पंचाक्षरात्परं नास्ति परित्राणं कलौ युगे।। अन्त्यजस्यापि मूर्खस्य मूढस्य पतितस्य च| निर्मर्यादस्य नीचस्य मंत्रोरऽयं न च निष्फल:।। सर्वावस्थां गतस्यापि मयि भक्तिमत: परम् | सिद्धयत्येव न सन्देहो नापरस्य तु कस्यचित्||
अर्थात् सदाचार से विहीन जो पतित है, अर्थात् घोर कुकर्म करने से या अपना धर्म छोड़कर किसी दूसरे मत को मान लेने के कारण जो धर्म से गिर गया है अथवा अन्त्यज (चाण्डाल आदि) है, उसका इस कलियुग में पंचाक्षर से परे कोई रक्षा करनेवाला नहीं। मूर्ख अन्त्यज भी हो और दुर्बुद्धि पतित भी हो, जो सब मर्यादा से गिर गया है और सब प्रकार से नीच है, वह भी इस मंत्र को जपे तो उसका इस मंत्र का जपना निष्फल नहीं जाता । किसी भी अवस्था में प्राणी हो, पर यदि उसकी मुझमें भक्ति है, तो उसका पंचाक्षर मंत्र जपना उसको सब पापों से छुड़ा देता है और वह सब सुख का साधन बन जाता है।
उपमन्यु ऋषि ने श्रीकृष्ण भगवान् से कहा कि इस प्रकार से साक्षात् महादेवी पार्वतीजी से महादेव शिवजी ने सारे जगत् के हित के लिये इस पंचाक्षर मंत्र की विधि को कहा। लिन्गपुराण में भी पचासवें अध्याय में पार्वतीजी के पूछने पर शिवजी ने पंचाक्षर मंत्र की महिमा और उसका स्वरूप वर्णन किया है।
श्री भगवानुवाच
पंचाक्षरस्य माहात्म्यं वर्षकोटिशतैरपि। न शक्यं कथितुं देवि तस्मात्सण्क्षेपत: श्रृणु।। पंचाक्षरप्रभावाच्च लोका वेदा महर्षय:| तिष्ठन्ति शाश्वता धर्मा देवा: सर्वमिदं जगत्।। तदिदानीं प्रवक्ष्यामि श्रृणु चावहिताऽखिलम्। अल्पाक्षरं महार्थं च वेदसारं विमुक्तिदम्।। आज्ञासिद्धमसदिग्धं वाक्यमेताच्छिवात्मकम्| नानासिद्धियुतं दिव्यं लोकचित्तानुरञ्जकम्।। सुनिश्चितार्थं गम्भीरं वाक्यमेतच्छिवात्मकम्। मंत्रं सुखमुखोच्चार्यमशेषार्थप्रसाधकम्|| तद्विजं सर्वविद्यानां मंत्रमाद्दं सुशोभनम्। अतिसूक्ष्मं महार्थं च ज्ञेयं तद्वदबीजवत्|| वेद स त्रिगुणातीत: सर्वज्ञ: सर्वकृत् प्रभु:| ओमित्येकाक्षरे मन्त्रे स्थित: सर्वगत: शिव:|| मन्त्रे षडक्षरे सूक्ष्मे पंचाक्षरतनु: शिव:| वाक्यवाचकभावेन स्थित: साक्षात्स्वभावत:|| वेदे शिवागमे वापि यत्र यत्र षडक्षर:| मंत्र: स्थित: सदा मुख्यो लोके पंचाक्षरो मत:|| किं तस्य बहुभिर्मन्त्रै: शास्त्रैर्वा बहुविस्तृतै:। यस्यैवं हृदि संस्थोऽयं मंत्र: स्यात् पारमेश्वर:|| तेनाधीतं श्रुतं तेन तेन सर्वमनुष्टितम्। यो विद्वान् वै जपेत् सम्यगधीत्यैव विधानत:|| एतावधि शिवज्ञानमेतावत् परमं पदम्| एतावद्वब्रह्मविद्या च तस्मान्नित्यं जपेद्बुध:||
लिंगपुराण में लिखा है कि शिवजी ने अपने श्रीमुख से पार्वतीजी से कहा कि जिस पंचाक्षर विद्या का माहात्म्य तुम मुझसे पूछती हो वह वेद में भी और शैव आग्रम में भी, दोनों ही स्थानों मे षडक्षर, छ: अक्षर का मंत्र है। लोक में लोग उसको पंचाक्षर के नाम से कहते हैं। और यह भी कहा है कि-
पंचाक्षरै: सप्रणवो मंत्रोऽयं हृदयं मम| गुह्याद्ह्यतरं साक्षान्मोक्षज्ञानमनुत्तमम्।।
ॐकार सहित पाँच अक्षरों से युक्त यह मंत्र मेरा हृदय है। सब गुह्य अर्थात् बहुत जतन से रक्षित रखने योग्य वस्तुओं से भी अनमोल है, और साक्षात् मोक्ष का देने वाला है। आगे चलकर भगवान् शिवजी ने मंत्र का विनियोग बताने में स्पष्ट ‘ॐ नम:शिवाय' के ओंकार से आरम्भ कर मकार तक एक-एक अक्षर का ऋषि, छन्द, स्वर आदि अलग-अलग बताया है। इससे अधिक इस बात का प्रमाण क्या हो सकता है कि जिसको लोग पंचाक्षर मंत्र कहते हैं, वह षडक्षर अर्थात् छ: अक्षर का मंत्र है। शिवपुराण, स्कन्दपुराण, लिन्गपुराण तीनों ही शैवपुराण एक स्वर से कहते हैं कि पंचाक्षर नामक मंत्र का रूप 'ॐ नम: शिवाय' ही है। तीनों ही कहते हैं कि शिवजी ने मनुष्यमात्र के हित के लिये 'ॐ नम: शिवाय' इस मंत्र को अपने श्रीमुख से कहा और पार्वतीजी से यह कहा कि कोई भी प्राणी हो, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, अन्त्यज़, पतित, पुरुष या स्त्री, जो इस मंत्र को जपे उसका यह कल्याण करेगा।
‘षडक्षरेण वा देवि तथा पंचाक्षरेण वा’
चाहे 'ॐ नम: शिवाय’ इन छ: अक्षरों से जपे चाहे 'नम: शिवाय' इन पाँच अक्षरों से जपे, इससे यह स्पष्ट है कि श्रुतिस्मृति-पुराण-प्रतिपादित सनातनधर्म के अनुसार श्रेष्ठ-से-श्रेष्ठ ब्राह्मण से लेकर चाण्डाल पर्यन्त सब मनुष्यों को जिनकी परमेश्वर में भक्ति हो 'ॐ नमो नारायणाय' और "ॐ नम: शिवाय' इन मंत्रों के जपने का और इनके द्धारा ईश्वर की उपासना करने का पूरा अधिकार है।
नित्य की उपासना
ध्येय: सदा सवितृमण्डलमध्यवर्त्ती। नारायण: सरसिजासनसन्निविष्ट:||
प्रतिदिन सूर्य के उदय और अस्त होने के समय प्रत्येक पुरुष और स्त्री को प्रातःकाल स्नानकर और सायंकाल हाथ, मुँह, पैर धोकर सूर्य के सामने खड़े होकर सूर्यमण्डल में विराजमान सारे जगत् के प्राणियों के आधार परमेश्वर परब्रह्म नारायण को 'ॐ नमो नारायणाय' इस मंत्र से अर्ध्य देकर और जल न मिले तो यों ही हाथ जोड़कर मन को पवित्र और एकाग्र कर श्रद्धा-भक्ति-पूर्वक एकसौ अठाइस या कम-से-कम दस बार प्रात:काल ‘ॐ नमो नारायणाय' इस मंत्र को सायंकाल ‘ॐ नम शिवाय’ इस मंत्र को जपना चाहिए और जप के उपरांत परमात्मा का ध्यान कर नीचे लिखी प्रार्थना करनी चाहिए|
ॐ नमो नारायणाय
सब देवन के देव प्रभु सब जगके आधार| दृढ राखौ मोहि धर्मं में बिनवौं बारम्बार|| चन्दा सूरज तुम रचे रचे सकल संसार| दृढ़ राखौ मोहि सत्यमें बिनवौं बारम्बार|| घट-घट तुम प्रभु एक अज अविनाशी अविकार| अभयदान मोहि दीजिए बिनवौं बारम्बार|| मेरे मन मन्दिर बसौं करौ ताहि उजियार| ज्ञान-भक्ति प्रभु दीजिए बिनवौं बारम्बार|| सत-चित-आनन्द-घन प्रभु सर्व-शक्ति-आधार| धनबल जनबल धर्मबल दीजै सुख संसार|| पतित-उधारन दुखहरन दीन-बन्धु करतार| हरहु अशुभ शुभ दृढ़ करहु बिनवौं बारम्बार|| जिमि राखे प्रह्लाद को ले नृसिंह अवतार| तिमि राखौ अशरण-शरण बिनवौं बारम्बार|| पाप दीनता, दरिद्रता और दासता पाप| प्रभु दीजै स्वाधीनता मिटै सकल सन्ताप|| नहिं लालचबस लोभबस नाहीं डरबस नाथ| तजौं धरम वर दीजिए रहिय सदा मम साथ|| जाके मन प्रभु तुम बसौं सो डर कासों खाय| सिर जावे तो जाय प्रभु मेरो धरम न जाय|| उठौं धर्म के काम में उठौं देश के काज| दीनबन्धु तब नाम लै नाथ राखियो लाज||
सनातनधर्म की रक्षा और प्रचार चाहनेवाले समस्त सत्पुरुष और सत्स्त्रियों से विनयपूर्वक मेरी प्रार्थना है कि जो लोग वैदिक दीक्षा पा चुके हैं, उनको भी इन सार्वजनिक मंत्रों का जप करना चाहिए, और प्रत्येक हिन्दू सन्तान को इन परम कल्याणकारी मंत्रों की दीक्षा लेकर तथा अपने और सब भाई और बहनों को दिलाकर अपना और उनका धार्मिक जीवन पवित्र और प्रकाशमय करना चाहिए, जिससे धर्म में उनकी श्रद्धा बढ़े और दृढ रहे, वे अपने देश और समाज में सुख, सन्मान और स्वतंत्रता से रहें, तथा दिन-दिन ऊपर उठें और संसार के अन्य मतों के माननेवाली जातियों की दृष्टि में भी सम्मान के योग्य हों। इससे हमारी आत्मा भी प्रसन्न होगी और सारे जगत् का पिता, सबका सुहृद्, सबको शरण देनेवाला, घट-घट व्यापी परमात्मा भी प्रसन्न होगा।
ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:।
(प्रयाग, माघ कृष्ण ११ संवत् १९८६)
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