Mahamana Madan Mohan Malaviya

Mahamana Madan Mohan Malaviya
Reminiscences

उदबोधन


महात्मा गाँधी

 

पूज्य मालवीय जी, सर राधाकृष्णन, भाइयों और बहनों

 

तीर्थयात्रा

 

आप सब जानते हैं कि आजकल मुझमें तो सफर करने की ताकत ही रही है और इच्छा ही, लेकिन जब मैंने इस विश्वविद्यालय के रजत महोत्सव’ की बात सुनी और मुझे सर राधाकृष्णन का निमन्त्रण मिला तो मैं इन्कार न कर सका

आप जानते हैं कि मालवीय जी के साथ मेरा कितना गाढ़ सम्बन्ध है। अगर उनका कोई काम मुझसे हो सकता है तो मुझे उसका अभिमान रहता है, और अगर मैं उसे कर सकूँ तो अपने को कृतार्थ समझता हूँ। इसलिए जब सर राधाकृष्णन का पत्र मुझे मिला तो मैंने निमन्त्रण स्वीकार कर लिया। यहाँ आना मेरे लिए तो एक तीर्थ में आने के समान है।

यह विश्वविद्यालय मालवीय जी महाराज का सबसे बड़ा और प्राणप्रिय कार्य है। उन्होंने हिन्दुस्तान की बहुत-बहुत सेवायें की हैं, इससे आज कोई इन्कार नहीं कर सकता। लेकिन मेरा ख्याल यह है कि उनके महान कार्यों में इस कार्य का महत्त्व सबसे ज्यादा रहेगा। 25 साल पहले, जब इस विश्वविद्यालय की नींव डाली गई थी, तब भी मालवीय जी महाराज के आग्रह और खिंचाव से मैं पहुँचा था। उस समय तो मैं यह सोच भी नहीं सकता था कि जहाँ बड़े-बड़े राजा, महाराजा और खुद वाइसराय आने वाले हैं, वहाँ मुझ जैसे फकीर की क्या जरूरत हो सकती है। तब तो मैं महात्मा’ भी नहीं बना था। अगर कोई मुझे महात्मा’ के नाम से पुकारते भी थे तो मैं यही सोच लेता था कि महात्मा मुंशीराम जी के बदले भूल से किसी ने पुकार लिया होगा। उनकी कीर्ति तो मैंने दक्षिण अफ्रीका में ही सुन ली थी। हिन्दुस्तान धन्यवाद और सहानुभूति का सन्देश भेजने वालों मे एक वे भी थे और मैं जानता था कि हिन्दुस्तान की जनता ने उन्हें उनकी देश सेवा के लिए महात्मा की उपाधि दी थी। उस समय भी मालवीय जी महाराज की कृपादृष्टि मुझ पर थी। कहीं भी कोई सेवक हो, वे उसे ढूँढ निकालते हैं और किसी किसी तरह अपने पास खींच ही लाते हैं। यह उनका सदा का धन्धा है।

 

भिक्षां देहि


लोग मालवीय जी महाराज की बड़ी प्रशंसा करते हैं। आज भी आपने उनकी कुछ प्रशंसा सुनी हैं, वह सब तरह उसके लायक हैं। मैं जानता हूँ कि हिन्दू विश्वविद्यालय का कितना बड़ा विस्तार है। संसार में मालवीय जी से बढ़कर कोई भिक्षुक नहीं। जो काम उनके सामने जाता है, उसके लिए, अपने लिए नहीं, उनकी भिक्षा की झोली का मुँह हमेशा खुला रहता है, वे हमेशा मांगा ही करते हैं। और परमात्मा की भी उन पर बड़ी दया है कि जहाँ जाते हैं, उन्हें पैसे मिल ही जाते हैं । इसपर भी उनकी भूख कभी नहीं बुझती। उनका भिक्षापात्र सदा खाली रहता है। उन्होंने विश्वविद्यालय के लिए एक करोड़ इकटठा करने की प्रतिज्ञा की थी। एक करोड़ की जगह डेढ़ करोड़ दस लाख रुपया इक्टठा हो गया, मगर उनका पेट नहीं भरा। अभी-अभी उन्होंने मुझसे कान में कहा है कि आज के हमारे सभापति महाराज साहेब दरभंगा ने उनको एक खासी बड़ी रकम दान में और दी है।


तीर्थस्वरूप मालवीय जी


मैं जानता हूँ कि मालवीय जी महाराज स्वयं किस तरह रहते हैं। यह मेरा सौभाग्य है कि उनके जीवन का कोई पहलू मुझसे छिपा नहीं। उनकी सादगी, उनकी सरलता, उनकी पवित्रता और उनकी मुहब्बत से मैं भलीभाँति परिचित हूँ। उनके इन गुणों में से आप जितना कुछ ले सकें, जरूर लें। विद्यार्थियों के लिए तो उनके जीवन की बहुतेरी बातें सीखने लायक हैं। मगर मुझे डर है कि उन्होंने जितना सीखना चाहिए, सीखा नहीं है। यह आपका और हमारा दुर्भाग्य है। इसमें कोई कुसूर नहीं। धूप में रह कर भी कोई सूरज का तेज पा सके तो उसमें सूरज बेचारे का क्या दोष? वह तो अपनी तरफ से सबको गर्मी पहुँचाता रहता है, पर अगर कोई उसे लेना ही चाहे, और ठण्ड में रहकर ठिठुरता फिरे तो सूरज भी उसके लिए क्या करे? मालवीय जी महाराज के इतने निकट रहकर भी अगर आप उनके जीवन से सादगी, त्याग, देशभक्ति, उदारता, और विश्वव्यापी प्रेम आदि सदगुणों का अपने जीवन में अनुकरण कर सकें, तो कहिये, आपसे बढ़कर अभागा और कौन होगा?


कैसी गुलामी


अब मैं विद्यार्थियों और अध्यापकों से दो शब्द कहना चाहता हूँ:


मैंने तो सर राधाकृष्णन से पहले ही कह दिया था कि मुझे क्यों बुलाते हैं? मैं वहाँ पहुँचकर क्या कहूँगा? जब बड़े-बड़े विद्वान मेरे सामने जाते हैं, तो मैं हार जाता हूँ। जब से हिन्दुस्तान आया हूँ, मेरा सारा समय कांग्रेस में और गरीबों, किसानों और मजदूरों वगैरा में बीता है। मैनें उन्हीं का काम किया है। उनके बीच मेरी जबान अपने आप खुल जाती है। मगर विद्वान के सामने कुछ कहते हुए मुझे बड़ी झिझक मालूम होती है। श्री राधाकृष्णन ने मुझे लिखा कि मैं अपना लिखा हुआ भाषण उन्हें भेज दूँ। पर मेरे पास उतना समय कहाँ था। मैने उन्हें जवाब दिया कि वक्त पर जैसी प्रेरणा मुझे मिल जायगी, उसी के अनुसार मैं कुछ कह दूँगा। मुझे प्रेरणा मिल गई है। मैं जो कुछ कहूँगा, मुमकिन है, वह आपको अच्छा लगे। उसके लिए आप मुझे माफ कीजिएगा। यहाँ आकर जो कुछ मैंने देखा और देखकर मेरे मन में जो चीज पैदा हुई, वह शायद आपको चुभेगी। मेरा खयाल था कि कम से कम यहाँ तो सारी कारवाई अंग्रेजी में नहीं, बल्कि राष्ट्रभाषा में ही होगी । मैं यहाँ बैठा यही इन्तजार कर रहा था कि कोई कोई तो आखिर हिन्दी या उर्दू में कुछ कहेगा। हिन्दी, उर्दू सही, कम-से-कम मराठी या संस्कृत में ही कुछ कहता। लेकिन मेरी सब आशायें निष्फल हुईं।


अंगेजों को हम गालिंयां देते हैं कि उन्होंने हिन्दुस्तान को गुलाम बना रखा है, लेकिन अंगेजी के हम खुद ही गुलाम बन गए हैं। अंग्रेजो ने हिन्दुस्तान को काफी पामाल किया है।


प्रज्ञा


इसके लिए मैंने उनकी कड़ी-से-कड़ी टीका भी की है, परन्तु अंग्रेजों की अपनी इस गुलामी के लिए मैं उनको जिम्मेदार नहीं समझता। खुद अंग्रेजी सीखने और अपने बच्चों को अंग्रेजी सिखाने के लिए हम कितनी-कितनी मेहनत करते हैं? अगर कोई हमें कह देता है कि हम अंग्रेजों की तरह अंग्रेजी बोल लेते हैं, तो मारे ख़ुशी के फूले नहीं समाते। इससे बढ़कर दयनीय गुलामी और क्या हो सकती है? इसकी वजह से हमारे बच्चों पर कितना जुल्म होता है? अंग्रेजी के प्रति हमारे इस मोह के कारण देश की कितनी शक्ति और कितना श्रम बरबाद होता है? इसका पूरा हिसाब तो हमें तभी मिल सकता है, जब गणित का कोई विद्वान् इसमें दिलचस्पी ले। कोई दूसरी जगह होती है, तो शायद यह सब बरदास्त कर लिया जाता, मगर यह तो हिन्दू विश्वविद्यालय है। जो बातें इसकी तारीफ में अभी कही गई हैं, उनमें सहज ही एक आशा यह भी प्रकट की गई है। यहाँ के अध्यापक और विद्यार्थी इस देश की प्राचीन संस्कृति और सभ्यता के जीते-जागते नमुने होंगे। मालवीय जी ने मुँह-मांगी तनख्वाहें देकर अच्छे-से-अच्छे अध्यापक यहाँ आप लोगों के लिए जुटा रखे हैं। अब उनका दोष तो कोई कैसे निकाल सकता है? दोष जमाने का है। आज हवा ही कुछ ऐसी बन गई है कि हमारे लिए उसके असर से बच निकलना मुश्किल हो गया है। लेकिन अब वह जमाना भी नहीं रहा, जब विद्यार्थी जो कुछ मिलता था, उसी में सन्तुष्ट रह लिया करते थे। अब तो वे बड़े-बडे़ तूफान भी खड़े कर लिया करते हैं। छोटी-छोटी बातों के लिए भूख हड़ताल तक कर देते हैं। अगर ईश्वर उन्हें बुद्धि दे, तो वे कह सकते हैं, हमें अपनी मातृभाषा में पढ़ाओ। मुझे यह जानकर खुशी हुई कि यहाँ आन्ध्र के 250 विद्यार्थी हैं। क्यों वे सर राधाकृष्णन के पास जायें और उनसे कहें कि यहाँ हमारे लिए एक आन्ध्र-विभाग खोल दीजिए और तेलुगू में हमारी सारी पढ़ाई का प्रबन्ध करा दीजिए? और अगर वे मेरी अक्ल से काम करें, तब तो उन्हें कहना चाहिए कि हम हिन्दुस्तानी हैं, हमें ऐसी जबान में पढ़ाइए, जो सारे हिन्दुस्तान में समझी जा सके। और ऐसी जबान तो हिन्दुसतानी ही हो सकती है।


 
कहाँ जापान, कहाँ हम?


जापान आज अमेरिका और इंग्लैण्ड से लोहा ले रहा है। लोग इसके लिए उसकी तारीफ करते हैं। मैं नहीं करता। फिर भी जापना की कुछ बातें सचमुच हमारे लिए अनुकरणीय हैं। जापान के लड़कों और लड़कियों ने युरोप वालों से जो कुछ पाया है, अपनी मातृभाषा जापानी के जरिये ही पाया है, अंग्रेजी के जरिये नहीं। जापानी लिपि बड़ी कठिन है, फिर भी जापानियों ने रोमन लिपि को कभी नहीं अपनाया। उनकी सारी तालीम जापानी लिपि और जापानी जबान के जरिये ही होती है। जो चुने हुए जापानी पष्चिमी देशों में खास किस्म की तालीम के लिए भेजे जाते है, वे भी जब आवश्यक ज्ञान पाकर लौटते हैं, तो अपना सारा ज्ञान अपने देशवासियों को जापानी भाषा के जरिये ही देते हैं। अगर वे ऐसा करते और देश में आकर दूसरे देशों के जैसे स्कूल और कालेज अपने यहाँ भी बना लेते हैं, और अपनी भाषा को तिलांजलि देकर अंग्रेजी में सब कुछ पढ़ाने लगते तो उससे बढ़कर बेवकूफी और क्या होती? इस तरीके से जापान वाले नई भाषा तो सीखते, लेकिन नया ज्ञान सीख पाते। हिन्दुस्तान में तो आज हमारी महत्त्वाकांक्षा ही यह रहती है कि हमें किसी तरह कोई सरकारी नौकरी मिल जाय, या हम वकील, बैरिस्टर, जज, वगैरह बन जायें। अंग्रेजी सीखने में हम बरसों बिता देते हैं, तो भी सर राधाकृष्णन या मालवीय जी महाराज के समान अंग्रेजी जानने वाले हमने कितने पैदा किये हैं? आखिर वह उक पराई भाषा ही है? इतनी कोशिश करने पर भी हम उसे अच्छी तरह सीख नहीं पाते। मेरे पास सैकड़ो खत आते रहते हैं। इनमें कई एम0 0 पास लोगों के भी होते हैं, परन्तु चूँकि वे अपनी जबान में नहीं लिखते, इसलिए अंग्रेजी में अपने खयाल अच्छी तरह जाहिर नहीं कर पाते।


चुनांचे यहाँ बैठे-बैठे मैंने जो कुछ देखा, उसे देखकर मैं तो हैरान रह गया। जो कार्रवाई अभी यहाँ हुई, जो कुछ कहा या पढ़ा गया, उसे जनता तो कुछ समझ ही नहीं सकी। फिर भी हमारी जनता में इतनी उदारता और धीरज है कि चुपचाप सभा में बैठी रहती है और खाक समझ में आने पर भी यह सोचकर सन्तोष कर लेती है कि आखिर हमारे नेता ही हैं? कुछ अच्छी ही बात कहते होंगे। लेकिन इससे उसे लाभ क्या? वह तो जैसी आई थी, वैसी ही खाली लौट जाती है। अगर आपको शक हो, तो मैं अभी हाथ उठाकर लोगों से पूछूँ कि यहाँ की कार्रवाई में वे कितना कुछ समझे हैं? आप देखियेगा कि वे सब कुछ नहीं, कुछ नहीं, कह उठेंगे। यह तो हुई आम जनता की बात। अब अगर आप यह सोचते हों कि विद्यार्थियों में से हर एक ने हर बात को समझा है, तो वह दूसरी बड़ी गलती है।


आज से पच्चीस साल पहले जब मैं वहाँ आया था, तब भी मैंने यही सब बातें कहीं थीं। आज यहाँ आने पर जो हालात मैंने देखे, उसने उन्हीं चीजों को दोहराने के लिए मुझे मजबूर कर दिया।


शारीरिक ह्नास


दूसरी बात जो मेरे देखने में आई, उसकी तो मुझे जरा भी उम्मीद थी। आज सुबह मैं मालवीय जी महाराज के दर्शनों को गया था। वसन्त पंचमी का अवसर था, इसलिए सब विद्यार्थी भी वहाँ उनके दर्शनों को आये थे। मैंने उस वक्त भी देखा कि विद्यार्थियों को जो तालीम मिलनी चाहिए, वह उन्हें नहीं   मिलती  ।  जिस सभ्यता, कह्मोशी और तरकीब के साथ उन्हें चलते आना चाहिए, उस तरह चलना उन्होंने सीखा ही नहीं था। यह कोई मुश्किल काम नहीं, कुछ ही समय में सीखा जा सकता है। सिपाही जब चलते हैं, तो सिर उठाये, सीना ताने, तीर की तरह सीधे चलते हैं, लेकिन विद्यार्थी तो उस वक्त आड़े-टेढ़े, आगे पीछे, जैसा जिसका दिल चाहता था, चलते थे। उनके इस चलने’ को चलना कहना भी शायद मुनासिब हो, मेरी समझ में तो इसका कारण भी यही है कि हमारे विद्यार्थियो पर अंग्रेजी जबान का बोझ इतना पड़ जाता है, कि उन्हें दूसरी तरफ सर उठाकर देखने की फुरसत नहीं मिलती। यही वजह है कि दरअसल उन्हें जो सीखना चाहिए, वे सीख नहीं पाते।


बौद्धिक थकान


एक और बात मैंने देखी। आज सुबह हम श्री शिवप्रसाद गुप्त के घर से लौट रहे थे। रास्ते में विश्वविद्यालय का विशाल प्रवेश द्वारा पड़ा। उस पर नजर गई तो देखा, नागरी लिपि में हिन्दू विश्वविद्यालय इतने छोटे हरुफों में लिखा है कि ऐनक लगाने पर भी नहीं पढ़ पाते पर अंग्रेजी Banaras Hindu University ने तीन चौथाई से भी ज्यादा जगह घेर रखी थी। मैं हैरान हुआ कि यह क्या मामला है? इसमें मालवीय जी महाराज का कोई कसूर नही। यह तो किसी इन्जीनियर का काम होगा। लेकिन सवाल तो यह है कि अंग्रेजी की वहाँ जरूरत ही क्या थी? क्या हिन्दी या फारसी में कुछ नहीं लिखा जा सकता था? क्या मालवीय जी, और क्या सर राधाकृष्णन सभी हिन्दू-मुस्लिम एकता चाहते हैं। फारसी मुसलमानों की अपनी ख़ास लिपि माने जाने लगी है । उर्दू का देश में अपना ख़ास स्थान है । इसलिए अगर दरवाजे पर फारसी  में, नागरी में या हिन्दुस्तान की दूसरी किसी लिपि में कुछ लिखा जाता, तो मैं उसे समझ सकता था। लेकिन अंग्रेजी में उसका वहाँ लिखा जाना भी हम पर जमे हुए अंग्रेजी जबान के साम्राज्य का एक सबूत है। किसी नई लिपि या जबान को सीखने से हम घबराते हैं, जब कि सच तो यह है कि हिन्दुस्तान की किसी जबान या लिपि को सीखना हमारे लिए बायें हाथ का खेल होना चाहिए। जिसे हिन्दी या हिन्दुस्तानी आती है, उसे मराठी, गुजराती, बंगाली वगैरा सीखने में तकलीफ ही क्या हो सकती है? कन्नड़, तमिल, तैलगू और मलयालम का भी मेरा तो यही तजुरबा है। इनमें भी संस्कृत से निकले हुए काफी शब्द रे पड़े हैं। जब हममे अपनी मादरी जबान या मातृभाषा के लिए सच्ची मुहब्बत पैदा हो जायेगी तो हम इन तमाम भाषाओं को बड़ी आसानी से सीख सकेंगे। रही बात उर्दू की, सो वह भी आसानी के साथ सीखी जा सकती है। लेकिन बदकिस्मती से उर्दू से आलिम यानी विद्वान् इधर उसमें अरबी और फारसी के शब्द भर रहे हैं। नतीजा ठूँस-ठूँस कर भरने लगे हैं- उसी तरह, जिस तरह हिन्दी के विद्वान हिन्दी में संस्कृत शब्द। इसका यह होता है कि जब मुझ जैसे आदमी के सामने कई लखनवी तर्ज की उर्दू बोलने लगता है, तो सिवा बोलने वाले का मुँह ताकने के और कोई चारा नहीं रह जाता।


अपनी विशेषता चाहिए


एक बात और। पश्चिम के हर विश्वविद्यालय की अपनी एक एक विशेषता होती है। केम्ब्रिज और आक्सफोर्ड को ही लीजिए। इन विश्वविद्यालयों को इस बात का नाज है कि इनके हर एक विद्यार्थी पर इनकी अपनी विशेषता की छाप इस तरह लगी रहती है कि वे फौरन पहचाने जा सकते हैं। हमारे देश के विश्वविद्यालयों की अपनी ऐसी कोई विशेषता होती ही नहीं। वे तो पश्चिमी विश्वविद्यालयों की एक निस्तेज और निष्प्राण नकल भर हैं। अगर हम उनको पश्चिमी सभ्यता का सिर्फ सोख्ता या स्याही सोख कहें, तो शायद बेजा होगा। आपके इस विश्वविद्यालय के बारे में अकसर यह कहा जाता है कि यहाँ शिल्प-शिक्षा और यन्त्र-षिक्षा का इंजीनियरिेंग और टेक्नालाजी का देश भर में सबसे ज्यादा विकास हुआ है और इनकी शिक्षा का अच्छा प्रबन्ध है। लेकिन इसे मैं यहाँ की विशेषता मानने को तैयार नहीं। तो फिर इसकी विशेषता क्यो हो? मैं इसकी एक मिसाल आपके सामने रखना चाहता हूँ। अलीगढ़ के कितने छात्रों को आप अपनी ओर खींच सके है? दरअसल आपके दिल में चाह तो यह पैदा होनी चाहिए कि आप तमाम मुसलमान विद्यार्थियों को यहाँ बुलायेंगे और उन्हे अपनायेंगे।


हिन्दुस्तान की पुरानी संस्कृति का सन्देश


इसमें शक नहीं कि आपके विद्यालय को काफी धन मिल गया है, आगे भी मिला रहेगा, लेकिन मैंने जो कुछ कहा है, वह रुपये को खेल नहीं। अकेला रुपया सब काम नहीं कर सकता। हिन्दू विश्वविद्यालय से मैं विशेष आशा तो इस बात की रखूँगा कि यहाँ वाले इस देश में बसे हुए सभी लोगों को हिन्दुस्तानी समझें, और अपने मुसलमान भाइयों को अपनाने में किसी से पीछे रहें। अगर वे आपके पास आयें, तो आप उनके पास जाकर उन्हें अपनाइए। अगर इसमें हम नाकामयाब भी हुए तो क्या हुआ? लोकमान्य तिलक के हिसाब से हमारी सभ्यता दस हजार बरस पुरानी है। बाद के कई पुरातत्वशास्त्रियों ने इसे उससे भी परानी बताया है। इस सभ्यता में अहिंसा को परम धर्म माना गया है। चुनांचे इसका कम से कम एक नतीजा तो यह होना चाहिए कि हम किसी को अपाना दुश्मन समझें। वेदों के समय से हमारी यह सभ्यता चली रही है। जिस तहर गंगा जी में अनेक नदियाँ आकर मिली हैं, उसी तरह इस देशी संस्कृत-गंगा में भी अनेक संस्कृतिरुपी सहयक नदियाँ आकर मिली हैं यदि इन सबका कोई सन्देश या पैगाम हमारे लिए हो सकता है तो यही कि हम सारी दुनियाँ को अपनायें और किसी को अपना दुश्मन समझें। मैं ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ  कि वह हिन्दू विश्वविद्यालय को यह सब करने की शक्ति दे। यही इसकी विशेषता हो सकती है। सिर्फ अंग्रेजी सीखने से यह काम नहीं हो पायेगा। इसके लिए तो हमें अपने प्राचीन ग्रन्थों और धर्मशास्त्रों का श्रद्धापूर्वक यर्थाथ अध्ययन करना होगा, और यह अध्ययन हम मूल ग्रन्थों से सहारे ही कर सकते हैं।


आखिरी बात


अन्त में एक बात मुझे और कहनी है। आप लोग रहते तो महलों में हैं, क्योंकि मालवीय जी महाराज ने आपके लिए ये महलों जैसे छात्रालय वगैरा बनवा दिये हैं, पर इसका मतलब नहीं कि आप महलों में रहने के आदी बन जायें। आप मालवीय जी महाराज के घर जाइए और देखिए, वहाँ आपको इनमें से काई चीज मिलेगी ठाठ-बाट होगी, साजो-सामान और किसी तरह का कोई दिखावा। उनसे आप सादगी और गरीबी का पाठ सीखिए। आप यह कभी भूलिए कि हिन्दुस्तान एक गरीब देश है और आप गरीब माँ-बाप की सन्तान हैं। उनकी मेहनत का पैसा यों ऐशो आराम में बरबाद करने का आपको क्या हक है? ईश्वर आपको चिरंजीवी करे और सदबुद्धि दे कि जिससे आप मालवीय जी महाराज की त्याग-शीलता, आध्यात्मिकता और सादगी से अपने जीवन को रंग सकें और आज जो कुछ मैंने आपसे कहा है, उस पर समझदारी के साथ अमल कर सकें।

 


Mahamana Madan Mohan Malaviya