Reminiscences
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वह अपनत्व जिसे हम भूल नहीं सकते
कुँवर सुरेश सिंह
बचपन में अपने गाँव में जो वस्तु मुझे सबसे अधिक आकर्षित करती थी वह था मेरे पितामह (स्वर्गीय राजा रामपाल सिंह) के समय का प्रेस जहाँ हिन्दी का सर्वप्रथम दैनिक पत्र ‘हिन्दो-स्थान’” छपता था| बाबा साहब के स्वर्गवास के बाद से प्रेस बन्द पड़ा था क्योंकि रियासत कोर्ट ऑफ वार्डस के अधीन थी लेकिन कभी-कभी कोई उसे ठेके पर ले लेता था और प्रेस में फिर कुछ दिनों के लिये चहल पहल हो जाती थी| मुझे थोड़ा भी अवकाश मिलता तो सीधा प्रेस जा पहुँचता और वहाँ के पुराने कंपोजीटरों के बीच बैठकर उनसे बाबा साहब (राजा रामपाल सिंह) तथा पूज्य मालवीय जी के किस्से सुना करता| पूज्य मालवीय जी प्रेस के बगल वाले कच्चे मकान में किस तरह सादगी से रहते थे, बाबा साहब उनका कितना आदर करते थे, वे केवल उन्हीं के सामने शराब नहीं पीते थे और फिर एक दिन किस प्रकार शराब के नशे में चूर रहने पर मालवीय जी से उनका साक्षात्कार हुआ जिससे दुसरे ही दिन मालवीय जी यहाँ से चले गये| इसी तरह के न जाने कितने किस्से मैं सुनता और कल्पना करता कि कभी बड़े होने पर पूज्य मालवीय जी के अवश्य दर्शन करूँगा| हम तीन भाई थे| सबसे बड़े राजा अवधेश सिंह, मँझले कुँवर बृजेश सिंह उसके बाद मैं| हम लोग शुरू ही से कालविन स्कूल भेज दिये गये और बचपन ही से हम लोगों को एक फौजी अंग्रेज गारजियन की देख रेख में कर दिया गया था क्योंकि कोर्ट ऑफ़ वार्डस के अधिकारियों को हम लोगों के देशप्रेम की खबर लग चुकी थी| उसी बीच पूज्य मालवीय जी लखनऊ पधारे| हम लोग उनके दर्शनों के लिये आतुर हो उठे लेकिन अंग्रेज गारजियन बहुत सख्त था| बड़े भाई साहब ने उससे बिना पूछे ही हम दोनों भाइयों का साथ लिया और अमीनुद्दोला पार्क जा पहुँचे जहाँ पूज्य मालवीय जी का व्याख्यान हो रहा था| सभा के समाप्त होने पर जब हम लोगों ने अपना परिचय देकर उनके चरण छुए तो मालवीय जी कालाकांकर का नाम सुनते ही भाव-विभोर और गद्गद हो उठे| उन्होंने बड़े प्यार से हमलोगों के सर पर हाँथ फेर कर कहाँ- ‘”भगवान् करे तुम लोग भी अपने बाबा की तरह निर्भीक बनो’|” यही उनका प्रथम आशीर्वाद था| इसके बाद हम लोग अक्सर उनसे मिलते रहे और वे भी जब कभी लखनऊ पधारते तो हम लोगों को जरुर अपने पास बुला भेजते| एक बार हम लोग नैनीताल में थे तो पूज्य मालवीय जी भी नैनीताल आये| एक दिन वे हमारी कोठी पर आये तो अंग्रेज गारजियन ने हमारे मँझले भाई साहब की बड़ी शिकायत की| भाई साहब ने कुछ ही दिनों पहले खद्दर पहनना शुरू कर दिया था जिससे साहब बहादुर बहुत चिढ़ते थे| खद्दर से ज्यादा चिढ़ उन्हें भाई साहब के उस मोटे सोंटे से थी जिसे भाई साहब उनके साथ घुमने जाते समय अपने हाथ में लिये रहते थे| साहब की जिद थी कि वे उस सोंटे का त्याग कर दें लेकिन भाई साहब उसे त्यागना नहीं चाहते थे| साहब ने मालवीय जी से इसकी शिकायत की| साहब की शिकायत सुनकर हम लोग सोचने लगे कि पता नहीं मालवीय जी क्या करेंगे ? साहब की बात रखेंगे कि भाई साहब की| मालवीय जी जब चलने के लिए डांडी पर बैठे और हम लोग उनका पैर छूने गये तो उन्होंने भाई साहब के हाथ से सोंटा लेकर कहा, ‘बड़ी सुन्दर लाठी है भाई तुम्हारी, हम जैसे बुड्ढों को यहाँ ऐसी लाठी के बिना चढ़ाई पर बड़ा कष्ट होता है| मैं इसे लिये लेता हूँ| लो तुम हमारी छड़ी अपने पास रखो’| यह कहकर उन्होंने बड़े कौशल से साहब का भी मान रख दिया और मँझले भाई साहब भी प्रसाद स्वरुप छड़ी पाकर प्रसन्न हो गये| किसी का जी दु:खाना वे जैसे जानते ही नहीं थे| इसी तरह की एक घटना अपने सम्बन्ध की सुना दूँ| जब मैं काशी विश्वविद्यालय में पढ़ता था तो मालवीय जी ने यह घोषणा की कि वे दशाश्वमेध घाट पर हरिजन तथा अन्य सभी भाईयों को मन्त्र देंगे| चूँकि मेरा ऐसी बातों पर विश्वास नहीं था और वहाँ जाकर उनसे दीक्षा न लेना उनका अपमान करना होता, यही सोच कर मैंने वहाँ जाना ठीक नहीं समझा| लेकिन मेरे मास्टर शाहब श्री सुन्दरम् जी मुझे फोटो लेने के लिये यह कहकर वहाँ लिवा ले गये कि हम लोग फोटो लेकर पहले ही वापस आ जायेंगे| जब मैं वहाँ पहुँचा तो सुन्दरम् साहब ने सबके सामने घोषित कर दिया कि पहले वे, गोविन्द जी तथा सुरेश जी मन्त्र लेंगे| मैं बुरी तरह फँस गया| मंत्र लेता हूँ तो अपने को धोखा देता हूँ और नहीं लेता हूँ तो इतने दर्शकों के सम्मुख पूज्य मालवीय जी का अपमान होता है| अन्त में मैंने मन्त्र न लेने का ही फैसला किया और हाथ जोड़कर कहा- "बाबु जी, आप जानते ही हैं कि मेरा इस पर विश्वास नहीं है, मैं आपको और अपने को धोखा देना नहीं चाहता| आशा है आप क्षमा करेंगे"|” सब लोग स्तब्ध हो गये| मालवीय जी ने बड़े स्नेह से कहा --"”अपने बाबा के मार्ग पर चलकर भला तुम कैसे इस पर विश्वास करोगे, मनुष्य को वही संकल्प लेना चाहिये जिसे वह निभा सके| तुम्हारे सत्य भाषण से मैं बहुत प्रसन्न हूँ"| ”और मैंने देखा कि उस दिन से मैं उनका कोप-भाजन नहीं वरन् उनका और स्नेह-भाजन बन गया और उनकी निगाह में और ऊँचा उठ गया, ऐसा विशाल हृदय था उनका| शिक्षा-काल में मुझे लगभग दो वर्षों तक काशी विश्वविद्यालय में रहना पड़ा, जहाँ मैं भी उनके घर का एक प्राणी-सा हो गया था| उन दो वर्षों की न जाने कितनी घटनाएँ आज भी आँखों के सामने हैं और उनका स्नेहपूर्ण व्यवहार तो जीवन भर एक पवित्र धरोहर के समान हृदय में सुरक्षित रहेगा| काशी में नित्य ही कोई बड़ा आदमी उनसे मिलने आता| कभी जब मैं भी वहाँ उपस्थित रहता तो वे मेरी ओर संकेत करके कहते- "इन्हें आप जानते हो ? ये कालाकांकर के राजा रामपाल सिंह के पौत्र हैं, राजा रामपाल सिंह का एहसान मैं कभी नहीं भुल सकता, वैसा बहादुर आदमी अब कोई नजर नहीं आता|” काशी में मेरा अधिक समय बीमार में ही बिता, जिससे मेरी उपस्थिति पढ़ाई के दर्जे में कम हो गयी| मैंने मालवीय जी से इसके बारे में कहा तो उन्होंने अनजाना-सा बनकर पूँछा- “"तो हाजिरी कम होने से क्या होगा?"” मैंने कहा, "”बाबू जी, इम्तहान में न बैठ पाऊँगा और एक साल फिर उसी दरजे में रहना होगा"|” मालवीय जी ने कहा- ”"एक बात बताओ, पढ़ना अच्छी चीज है या बुरी?"” मैंने कहा- "”अच्छी"|” "तो फिर पढ़ने से घबराते क्यों हो"” उन्होंने मुस्कुरा कर कहा- ”"विद्यार्थियों को दरजे का ख्याल किये बिना सच्चे मन से पढ़ना चाहिये, ये दरजे तो ऐसे ही बना दिये गये हैं"|” मुझे कुछ उदास देखकर उन्होंने बड़े स्नेह से कहा- ”"मेरा विश्वाश मानो, पढ़ाई स्कूल और कॉलेजों में नहीं होती, जिसे पढ़ना होता है वह यहाँ से निकल कर पढ़ता है| तुम्हारे बाबा कहाँ कॉलेज में पढ़े थे लेकिन वैसा विद्वान् मैंने बहुत कम देखा है| विद्या के लिये तपस्या करनी पड़ती है, जीवन भर पढ़ने का सौभाग्य तो विरले को ही मिलता है"|” मैं उनके इन अमृतोपम शब्दों से प्रसन्नचित घर लौट आया| उसके कुछ ही दिनों बाद पूज्य बापू ने नमक सत्याग्रह आन्दोलन की घोषणा कर दी| मैंने उनसे अपनी डांडी यात्रा की टोली में मुझे भी सम्मिलित करने की प्रार्थना की तो उन्होंने लिखा कि मैं अपना जत्था बनाकर पैदल रायबरेली जाऊँ। मैंने जब वह पत्र मालवीय जी को दिखाया वे पहले तो गम्भीर हो उठे लेकिन फिर बड़े स्नेह-सिंचित शब्दों में कहा- "आज्ञा तो तुम्हें गाँधी जी से मिल ही चुकी है, हाईकोर्ट के फैसले के बाद लोअर कोर्ट के फैसले की क्या जरूरत है? तुम देश के सच्चे सेवक बनो यही मेरा आशीर्वाद है"। कॉलेज छोड़कर मैं अपना जत्था लेकर रायबरेली गया, लेकिन नमक कानून भंग करने पर भी हम लोग नहीं पकड़े गये। मैंने उसी समय सुना कि मालवीय जी पेशावर गोलीकाण्ड की जाँच के लिये रावलपिंडी जा रहे हैं, जहाँ से वे पेशावर जायेंगे और वहाँ उनकी गिरफ्तारी अवश्य होगी। इससे पहले मालवीय जी कभी जेल नहीं गये थे। वे पहली बार सक्रिय आन्दोलन में भाग लें और मैं उनके साथ न रहूँ यह मुझे अच्छा न लगा। मैं अकेले ही यहाँ से रावलपिंडी के लिये रवाना हो गया। मालवीय जी ने रावलपिंडी में मुझे अकस्मात् देखकर कहा- "अरे तुम यहाँ कैसे"? "आपकी सेवा करने के लिये आया हूँ"”- मैंने उत्तर दिया। “"घर पूछकर आये हो या ऐसे ही भाग आये हो"? उन्होंने स्नेह से मुस्कुरा कर पूछा। ‘“आपके निकट रहने के लिये भी क्या किसी से पूछने की आवश्यकता है?" मैंने उत्तर दिया, मालवीय जी स्नेह-पूर्ण दृष्टि से मेरी ओर देखने लगे। हम लोग थोड़े दिनों तक रावलपिंडी में रहे, जहाँ का बंधा हुआ कार्यक्रम था। दिनभर हमलोग पेशावर गोलीकाण्ड के लोगों की दरखास्तें लिखा करते और मालवीय जी लोगों से बातें और परामर्श करते, शाम को उनकी कहीं न कहीं मीटिंग होती जिसमें हजारों लोग जमा हो जाते | दोपहर को जब खाना तैयार हो जाता तो मालवीय जी ऊपर आते। वे आलमारी पर रखी हुई चाँदी की छोटी थाली, कटोरी और गिलास को अपने हाथ से धो-माँज कर चौके में बैठ जाते और बगल में एक कम्बल बिछाकर मेरे साथ श्री वेंकटेशनारायण जी तिवारी बैठते, श्री गोविन्द जी हम लोगों को खाना परोसते, खाने के बाद मालवीय जी अपने बर्तन स्वयं माँज कर आलमारी पर रख देते और नीचे जाकर कुछ देर आराम करते। रात को हम चारों आदमी मैदान में तख्त पर बातचीत करते-करते सो जाते। ऐसा सादा जीवन तो मैंने किसी भी नेता का नहीं देखा। करीब दो सप्ताह बाद जब हम चारों आदमी पेशावर के लिये रवाना हुए तो स्टेशन पर तिल रखने की जगह नहीं थी। पेशावर में करफ्यू लगा था और सारा पंजाब जोश से भरा था। जैसे ही हम लोगों की ट्रेन ने अटक का पुल पार किया कि हम चारों आदमी गिरफ्तार कर लिये गये और अगले रटेशन कैम्बलपुर में उतार लिये गये। शाम तक मशीनगनों और फौजी दस्तों के बीच रखकर हम लोगों को फिर पंजाब की सरहद में छोड़ दिया गया। कैम्बलपुर में मालवीय जी को अपने से ज्यादा मेरी फिक्र सातने लगी। उन्होंने कहा, "तुम अकेले घर से इतनी दूर आकर गिरफ्तार हो गये, यह ठीक नहीं हुआ, लोग मुझे क्या कहेंगे?" मैंने कहा- "लोग यही कहेंगे कि कैसा भाग्यशाली लड़का था, जिसे देशसेवा के साथ ही साथ आपकी सेवा का भी सौभाग्य प्राप्त हो गया।" लेकिन उनकी चिन्ता तब तक दूर न हुई जब तक हम लोग फिर रावलपिंडी वापस न आ गये, मुझे अनेक नेताओं के साथ रहने का अवसर प्राप्त हुआ है लेकिन जैसा अपनत्व का भाव पूज्य मालवीय जी के हृदय में था वैसा मैंने और किसी के हृदय में नहीं पाया। रावलपिंडी में किसी दिन जब किसी सभा का आयोजन न रहता तो हम लोग मोटर पर घूमने चले जाते| एक दिन हम लोग कार से "मरी" जा रहे थे तो मालवीय जी ने सूरदास के कुछ पद गाकर सुनाये। उनका वह कोमल स्वर और उनकी वह सुरीली आवाज आज भी मेरे कानों में गूँज रही है, उन्हें संगीत का बहुत अच्छा ज्ञान है यह तो मैं जानता था लेकिन वे खुद भी इतना अच्छा गा लेते हैं इसका पता मुझे उसी दिन चला। उसके बाद वे सूरसागर के एक अच्छे और संशोधित संस्करण के अभाव पर दु:ख प्रकट करने लगे। फिर थोड़ी देर तक चुप रहने के बाद उन्होंने मुझसे कहा, ‘अब तो तुम जेल चल ही रहे हो। सूरदास जी के सुन्दर पदों का एक अच्छा संकलन कर डालो। जेल में ऐसे कामों के लिये अच्छा अवसर मिलता है।" मैंने उनकी आज्ञा शिरोधार्य की और जेल में उस संकलन को पूरा करके उनकी सेवा में प्रस्तुत कर दिया। रावलपिण्डी से मैं उनसे आज्ञा लेकर घर वापस आया क्योंकि उनके जेल जाने में अभी देर थी और साथियों के बन्द हो जाने से मेरा जी बाहर नहीं लग रहा था। मैं वहाँ से लखनऊ आकर फौरन ही गिरफ्तार हो गया। मेरे जेल जाने पर मेरे बड़े भाई राजा अवधेश सिंह भी जेल-यात्रा की तैयारी करने लगे। मैंने यह देखकर कि उनके जेल जाने पर रियासत जब्त हो जायगी, सारा समाचार मालवीय जी तक पहुँचा दिया और भाई साहब से मैंने प्रार्थना की कि वे जेल जाने से पूर्व मालवीय जी से आज्ञा ले लें। भाई साहब जब मालवीय जी से दिल्ली-जेल में मिले तो उन्होंने उनसे कहा, ‘आपका यह निर्णय सुनकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई है। इस समय देश के प्रत्येक व्यक्ति का यही कर्तव्य है। अब यदि आप मुझे अपने वंश का हितैषी समझते हैं, तो इतना मेरे ऊपर छोड़ दीजिये कि आपके जेल जाने का समय मैं निर्धारित करूँ।" भाई साहब निरुत्तर होकर लौट आये और इस प्रकार मालवीय जी ने राज्य पर आने वाले भावी संकट को निकट नहीं आने दिया। आज उनका भौतिक शरीर अवश्य पन्चतत्त्व में मिल गया है लेकिन उनकी कीर्ति अजर अमर है। कभी-कभी जब उनकी देवतुल्य मूर्ति आँखों के सामने आ जाती है तो यह सोचकर हृदय आनन्द से भर उठता है कि उनका चरण-सेवक होने के नाते मैं भी कितना भाग्यशाली हूँ। |