Reminiscences
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आरती की आरती
डॉo शिव मंगल सिंह ‘सुमन’
देखते-देखते काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की हीरक जयंती का भी पर्व आ गया| आज से 10 वर्ष पूर्व उसकी स्वर्ण जयंती में भी सम्मिलित होने का सौभाग्य मुझे सुलभ हुआ था, पर इस क्रम में आज से 35 वर्ष पूर्व की रजत जयंती की स्मृति आनायास ही उमड़ आई| प्रातः स्मरणीय पo मदन मोहन मालवीय का वह अंतिम संकल्प था| वह विश्वविद्यालय के लिए ही नहीं राष्ट्र के लिए भी युगांतर की बेला थी| कारण, बसंत पंचमी फरवरी 1942 में उनका आयोजन हुआ था और ठीक 6 महीने बाद अगस्त 1942 में गाँधी जी का ऐतिहासिक ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन छिड़ गया था। महात्माजी की महामना से वह अंतिम भेंटथी। जब मैंने जुलाई सन् 1937 में एम.ए.हिन्दी में प्रवेश लिया था तब तोमहामना ही हमारे उपकुलपति थे|उनका वह सौम्य वेष,लगभग 5फीट5 इंच की कसी हुई शरीर यष्टि,गौर वर्ण, प्रदीप्त मुखमण्डल,श्वेत अंगरखा, श्वेत अंतरवासक,श्वेत उत्तरीय,श्वेत पगड़ी,मस्तक पर चंदन का श्वेत टीका और वाहन के रूप में श्वेत मोटरगाड़ी भी। मैंने अपने जीवनमें ऐसा भव्य मनमोहक व्यक्तित्व नहीं देखा। भाषा के समय गंगोत्री के झरने सी तरल-सरलवाणी नैसर्गिक आशीष सी दूधिया मुस्कान| दिल भी उन्होंने शहंशाहों का पाया था। संतरणके लिए तरणताल बनाने की सूझी तो आधी मील लंबी पक्की नहर ही बनवा दी,विश्वविद्यालय परिसर के चारों ओर परकोटा और गोपुर के लिए भी लाखों की योजना। प्रवेशद्वार भी पुरुरवा के प्रासाद के तोरण की याद दिलाने वाला, जिस पर प्रात: संध्या शहनाईऔर नगाड़े का स्वर मधु गुंजित हो सके।उत्सवों और पर्वों पर उसका आयोजन भी होताथा। संध्या समय प्राय: वे परिसर की एक परिक्रमा करते थे। कभी-कभी नहर के पास कारसे उतर कर टहलने लगते,वहाँ विश्वनाथ मंदिर बनाने की उनकी कल्पना थी,जो अब साकारभी हो गई है। उस समय कोई प्रोफेसर या विद्यार्थी मिल जाता तो उससे नहर में नहाने काआग्रह करते। अध्यापक विद्यार्थी दोनों उनके आदेश का पालन कर धन्य होते। कभी-भी ऐसालगा ही नहीं कि वे हमारे कुलपति हैं,सदा यही भावना होती थी कि परिवार का पिता अपनेप्रगाढ़ वात्सल्य से हमें उपकृत कर रहा है। कण्व, गौतम और सांदीपनि की परम्परा याद होआती। उनका वह क्षीरसागरी उल्लास देखकर बार-बार अंतर्मन बुदबुदा उठता था कि जब तकतुम जीवित हो तब तक हम विद्यार्थी अनाथ नहीं हैं। हिन्दी विभाग में भी उस वर्ष हिन्दी केअध्वर्यु बाबू श्यामसुन्दर दास ने अवकाश प्राप्त ही किया था और स्वनामधन्य पंo रामचन्द्रशुक्ल अध्यक्ष के पद पर आसीन हुए थे। उस समय के विश्वविद्यालय का वातावरण हीनिराला था। जिस ओर भी दृष्टि जाती, तपःपूत चरणचिन्हों के उभार दिखाई पड़ते। कलामहाविद्यालय के प्राचार्य रंगास्वामीआयंगर, अंग्रेजी विभाग के अध्यापक डॉo नाग,राजनीतिविभाग के डॉo गुरूमुख निहाल सिंहऔर डॉo पुनताम्बेकर, प्राचीन इतिहास एवं संस्कृत विभाग में डॉoअल्तेकर,दर्शन विभाग में डॉ0 अधिकारी,डॉo मित्रा और डॉ0अत्रे, हिन्दीविभाग में भी आचार्य शुक्ल के अतिरिक्त आचार्य केशवप्रसाद मिश्र,डॉo पीताम्बरदत्त बडथ्वाल आदि। महिला महाविद्यालय में मानद प्राध्यापक के रूप में अयोध्या सिंह उपाध्याय‘हरिऔध’और सबसे अधिक ऋषितुल्य ‘डे’बाबा। अभियांत्रिकी महाविद्यालय के प्राचार्य केरूप में उस समय फिलपाट नामक अंग्रेज सज्जन थे। इसी प्रकार संस्कृत महाविद्यालय औरविज्ञान महाविद्यालयों में राष्ट्र के चोटी के विद्वान् समासीन थे जिसका समयाभाव से उल्लेखकर पाना इस समय संभव नहीं प्रतीत होता।
विश्वविद्यालय की रजत जयंती के पूर्व महामना ने देश-विदेश के प्रसिद्ध दर्शनशास्त्री डॉo सर्वेपल्ली राधाकृष्णन् को अपना उत्तराधिकारी बनाया था। महामना की आंतरिक कामनाथी कि यह रजत जयंत्युत्सव अपने ढंग का अनुपमेय हो। इसीलिए उनके व्यक्तिगत आग्रहस्वरूप देश-विदेश के विश्रुत विद्वान्, कुलपति,राजे-महाराजे और ऐश्वर्यशाली व्यक्तित्व एकमंच पर लाए जा सके। उनका प्रभविष्णु व्यक्तित्व ही कुछ ऐसा सामासिक था कि यह पर्वभारत की अनेकता का ज्योतिर्मय बिम्ब बन गया। एक ओर बड़े-बड़े धर्माचार्यों के प्रवचन,दूसरी ओर सर सी. वी. रमण का स्लाइड के साथ भाषण,तीसरी ओर पं0 ओंकारनाथ ठाकुरके निर्देशनमें कामायनी का संगीत रूपक और चौथी ओर महाराज कुमार विजयानगरम केसंयोजन में क्रिकेट के सर्वोच्च खिलाड़ियों का क्रीड़ा प्रदर्शन| ऐसा वैविध्य और उन्मेष तोफिर इस प्रांगण में देखने को नहीं मिला।
सबसे बड़ी बात तो यह थी कि महामना ने इस महोत्सव के मुख्य अतिथि के रूपमें महात्मा गाँधी को आमंत्रित किया था। महात्माजी के कारण उस समय की कांग्रेस कीमहासमिति के सदस्य पं0 जवाहर लाल नेहरू,सरोजिनी नायडू, वल्लभभाई पटेल, मौलानाअबुल कलाम आजाद,आचार्य कृपलानी,डॉ0 जाकिर हुसैन आदि महारथियों के दलविश्वविद्यालय के प्रांगण में जिस ओर भी निकल जाते थे कौतूहल का समा बँध जाता था।महामना की वंदना के लिए जिस प्रकार राजे महाराजे,सेठ साहूकार,राजनीतिज्ञ, शिक्षाशास्त्री उमड़ पड़े थे। उनके राजर्षि वेष का प्रभामण्डल कुछ ऐसा प्रभासित हो उठा कि बार-बार राजर्षिजनक के प्रति सीता-माता की उक्ति सर्वांश में सार्थक-सी प्रतीत हो उठती थी।
पितु बैभव बिलास मैं दीठा। नृप मणि मुकुट मिलित पदपीठा।।
इस महोत्सव का विस्तृत वर्णन तो समय की अपेक्षा रखता है। इस समय केवल एकछोटी-सी घटना का उल्लेख कर मैं अपनी मातृ संस्था के मुकुट में जड़े हीरक की आरतीउतारने का उपक्रम मात्र कर रहा हूँ। महामना के परमप्रिय पौत्र स्वo श्रीधर मालवीय कासहपाठी होने के कारण मेरा मंदिर में प्रवेशसहज हो गया था और यदा-कदा अपनी टूटी-फूटी रचनाओं द्वारा उनके मनोरंजन का सुयोग भी सुलभहो जाता था। उस समय की हमारीमित्रमण्डली में इतिहास के नवोन्मेषी युवा विद्वान् डॉoभगवतशरण उपाध्याय,राजबलीपाण्डेय,नेपाल के भूतपूर्व प्रधानमंत्री बी. पी. कोइराला,कम्युनिस्ट पार्टी के उत्सर्गशील नेतारुस्तम सैटिन,भागलपुर विश्वविद्यालय के भूतपूर्व कुलपति देवेन्द्र प्रसाद सिंह, समाजवादीपार्टी के गुरुदेवशरण,राजस्थान के भूतपूर्व गृह-सचिव विष्णुदत्त शर्मा आदि थे। अखिलभारतीय कांग्रेस के वर्तमान अध्यक्ष श्री बरुआ भी इसी मित्रमण्डली के सदस्य थे पर वे मुझसेएक दो वर्ष सीनियर थे। एक दिन अनायास ही महामना ने मुझे बुलवाकर कहा कि रजतजयंती के अवसर पर एक समवेतगान लिखकर लाओ। वैसे विश्वविद्यालय के कुलगीत केरूप में स्व0 शांतिस्वरूप भटनागर का “मधुर मनोहर अतीव सुन्दर ये सर्वविद्या की राजधानी”तो लोकप्रिय था ही पर मुझे तो महर्षि मालवीय के आदेश का पालन कर स्वयं को धन्य करनाथा। मैंने एक तुकबंदी तैयार ही कर डाली कुछ ऐसा संयोग हुआ कि बसंतपंचमी के दिनजब महात्माजी प्रात: 8 बजे के लगभग महामना से मिलने गए तो उन्होंने मुझे बुलवा भेजा।पहुँचते ही स्व0त्रिलोचन पंत जो महामना के मुख्य सचिव थे,सीधे मुझे उसी कक्ष में लेगए जिसमें आजकल उनके बंगले के मुख्य द्वार की दाईं ओर महामना का चित्र रखा हुआ है। मैंने भावावेश में दोनों महापुरुषों के चरणों में मस्तक रख दिया। महामना ने मेरा कोई परिचय दिये बिना ही महात्माजी को उक्त समवेत गान सुनाने का आदेश दिया। मैं तोआत्मविभोर हो दोनों महापुरुषों को इतने निकट देखकर मंत्रमुग्ध सा खड़ा था,अतएव घबड़ाई हुई आवाज में जल्दी-जल्दी कविता पढ़ने लगा-
हमारा विश्वविद्यालय,हमारा विश्वविद्यालय
हमारे ध्यान का मंदिर हमारे ज्ञान का मंदिर बसा गंगा किनारे विश्व के सम्मान का मंदिर उठी बज बीन विणापाणि के नव-ताल-स्वर-लय मय | हमारा विश्वविद्यालय,हमारा विश्वविद्यालय
महात्माजी ने अर्ध निमीलित नयनों से सिर हिलाया। जैसे ही मैंने दूसरा छंदपढ़ा किमहामना ने कहा कि इस छंद को निकाल दो। यह ठीक नहीं है। मैं हतप्रभ हो गया पर इसीक्षण बापू ने बड़े विनोदी भाव से कह दिया कि “यह नहीं निकल सकता,यह नहीं निकल सकता”। ऐसा नहीं था कि दोनों में से किसी ने मुझे श्रेष्ठ कवि बनने का आशीर्वाद दे दियाहो पर मैं अपने भाग्य पर स्वयं ईर्ष्या कर रहा था कि विश्व के दो महानतम महापुरुषोंकोकविता सुनाने का यह सुयोग सुलभ होना मेरे कितने बड़े पुण्य का परिचायक है। जिस छंदपर दोनों में थोड़ी सी बतकही हुईं, वह था-
हुआ युग धर्म का बंदा फिरा दर दर किया चंदा खड़ा होकर दिया उसने पुन: भारत का नालंदा। हमारे विश्वकर्मा की,हमारे मालवी की जय हमारा विश्वविद्यालय,हमारा विश्वविद्यालय।
इसके बाद जल्दी-जल्दी सारी कविता पूरी कर मैंने पुन: दोनों के चरण स्पर्श किए।मालवीय जी ने वात्सल्यस्निग्ध नैनों से मुझे जाने का संकेत किया और मैं खोया-खोया-सा बाहर निकल गया। बाद में जब कुछ प्रकृतिस्थ हुआ तो ख्याल आया कि उस छंद में महामनाकी प्रशंसा आ गई थी,अतएव उतना अंश निकलवा देना चाहते थे। आजकल हमारे शीर्षस्थनेतागण अपने अभिनंदन में बड़े आग्रह से स्वागत गीत लिखाते हैं अथवा सुनकर पुलकितहो उठते हैं। यह कविता रजत जयंती उत्सव की स्मारिका के अंतिम पृष्ठ पर मुद्रित है जिसकासंपादन अभियांत्रिकी महाविद्यालय के युवक व्याख्याता गोविन्दवल्लभ पंत ने किया था। बादमें तोदो महर्षियों के बीच की यह क्षणिक नोंक-झोंक विद्वानों की चर्चा का विषयबन गई। इस महोत्सव में वाइसराय के प्रतिनिधि और विदेशी विद्वानों के उपस्थित रहने पर भी महात्माजीने अपना दीक्षांत भाषण हिन्दी में दिया था। प्रारम्भ में कुछ आवाजें अंग्रेजी की आई पर युगदेवता की दीपशिखा सी आस्था उन झंकोरों के बीच अचंचल बनी रही। इसके पूर्व भीजब एक बार महामना के जन्म दिवस मैंने लिखा था-
हे राजर्षि महर्षि दीन माता के भव्य पुजारी। तोहमारे आराध्य देव ने काफी देर तक मुझे राजर्षि और महर्षि का अंतर समझाते हुए स्नेहसिक्तझिड़की से कृतार्थ किया था। मैं रजत जयंती के इस सतत प्रज्वलित स्मृति दीप से हीरक जयंतीके ज्योतिर्मय कलश की आरती उतारता हूँ। इत्यलम्|
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