Reminiscences
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महामना मालवीय जी के कुछ संस्मरण
प्रोo त्रिलोचन पंत
पूज्य मालवीय जी का दर्शन मैंने पहले पहल 1923 में हाथरस में किया था | मैं वहाँ के बांगला हाईस्कूल में नवीं कक्षा का छात्र था | मालवीय जी का स्कूल में भाषण हुआ था | ऊपर से निचे तक उनके शुभ्र उज्जवल वेश को मैंदेर तक देखता रहा | मृदु मुसकान-युक्त उनका कान्तिमान् मुख आज भी मेरी आखों के सामने है | वे लगभग आधा घण्टा बोले थे | भारत के गौरव मय अतीत और उसके कुछ महान् और आदर्श व्यक्तियों की उन्होंने चर्चा की थी | छात्रों से कहा था कि वे देश के भावी कर्णधार हैं | उनकी कार्य क्षमता, निष्ठा, लगन और सेवा पर देश का निर्माण निर्भर है | पराधीन देश के अभ्युदय में वे अनेक प्रकार से सहायक हो सकते हैं और अपने उज्जवल चरित्र से देश का मस्तक ऊँचा कर सकते हैं| बाधाओं, विपत्तियों, कठिनाइयों और असफलताओं से उन्हें हतोत्साह नहीं होना चाहिये | प्रतिकूल परिस्थितियों से लोहा लेने में ही मानव-जीवन की सार्थकता है | उन्होंने कहा कि हिन्दू विश्वविद्यालय की योजना का आरम्भ में अनेक व्यक्तियों ने उपहास किया था | उनके मित्रों ने उसे अव्यावहारिक बताया था और कहा कि एक करोड़ रुपया एकत्र होना असम्भव है पर वे अपने संकल्प को पुरे करने में लगे रहे | उन्हें सफलता मिली | उनकी कल्पना साकार हुई | काशी की इस शिक्षा–संस्था का द्वार सबके लिये मुक्त है | यहाँ जो भी आये, निराश न होगा | मंत्रमुग्ध की भाँति सभी ने उनका भाषण सुना था| वह भाषण कई दिनों तक मुझे याद रहा था | परिस्थितियों से हार न मानने की उनकी बात ने मुझे निश्चित रूप से मुझे प्रभावित किया | मेरे माता-पिता की मृत्यु हो चुकी थी | किसी अन्य सम्बन्धी का सहारा नही था | आर्थिक स्थिति अत्यन्त दयनीय थी | आगे अध्ययन करने की कोई सम्भावना नहीं थी पर उस दिन के मालवीय जी के भाषण ने मेरे मन में यह भावना अवश्य उत्पन्न कर दी कि मुझे आगे भी अध्ययन करना है और मेरी यह भावना उत्तरोत्तर बलवती होती गयी |
जुलाई 1926 में मैं हिन्दू विश्वविद्यालय में ही पहुँच गया और बीo एo की कक्षा में प्रविष्ट हुआ | सन् 1930 में इतिहास में एम० ए० की परीक्षा में उत्तीर्ण हुआ | इन चार वर्षों में अनेक बार मालवीय जी के दर्शन किये; धर्म, समाज, शिक्षा, राजनीति आदि अनेक विषयों पर उनके भाषण सुने पर इस अवधि में केवल एक बार उनके निकट सम्पर्क में आया और उस क्षणिक सम्पर्क को जीवन रहते मैं कभी भूल नहीं सकता | सन् 1929 की घटना है | विरला छात्रावास के ‘अ’ कक्ष के एक कमरे में रहता था | संध्या का समय था | मालवीय जी घूमते हुए उधर आ निकले | मैं कमरे के बाहर ही खड़ा था | उन्होंने मुझसे कहा कि दुर्बल क्यों दीखते हो ? क्या भोजन की ठीक व्यवस्था नहीं है या तुमको कोई और चिन्ता रहती है ? संक्षेप में मैंने अपनी बात कही पर उस थोड़ी-सी बात से ही वे सब कुछसमझ गये और मुझसे कहाकि चिन्ता से तो कुछ हाथ आयेगा नहीं | मन और शरीर को कष्ट होगा | चिन्ता को दूर भगा दो | अपने शरीर और अध्ययन का ध्यान रखो | इतना कहकर वे आगे बढ़ गये | दूसरे दिन गणित के प्राध्यापक और ‘ब’ कक्ष के संरक्षक श्री शुकदेव पाण्डे जी ने मुझे बुलाया और कहा कि कल रात मालवीय जी ने तुम्हारे बारे में मुझसे कहा था | मैं कलेक्शन कमिटी का कुछ काम तुम्हें दे रहा हूँ | आज ही से आरम्भ कर दो | इससे तुम्हारी आर्थिक कठिनाई दूर होगी | विश्वविद्यालय में मेरे सामने कई बार कठिन परिस्थितियाँ आयी थीं | पहले वर्ष में तो मैंने एक बार पढ़ाई छोड़कर चले जाने का भी विचार किया था पर मैं कभी भी अपनी क्षुद्र समस्या को लेकर मालवीय जी के पास नहीं गया था | मैं जानता था कि अनेक विद्यार्थी अपनी कठिनाइयाँ उनको बताते हैं और वे उनकी सहायता करते हैं पर उस दिन मैंने प्रत्यक्ष ही जाना कि वे कितने सहृदय हैं | मैंने उस दिन भी उनसे कोई याचना नहीं की थी पर उन्होंने मेरे अभाव को समझा और उसके निवारण में सहायक हुए | पाण्डे जी ने मेरी और भी सहायता की पर यदि मालवीय जी ने उनसे न कहा होता तो वे मेरी स्थिति न जान पाते | विश्वविद्यालय में कितने ही विद्यार्थी, जिन्होंने भिन्नभिन्न क्षेत्रों में महत्त्वपूर्ण कार्य किये हैं और अब भी कर रहे हैं, मालवीय जी के ॠणी हैं | पैसों से, पुस्तकों से, स्नेहपूर्ण शब्दों से उन्होंने अपने विद्यार्थियों को उपकृत किया | निर्धनता के कारण कोई भी ऊँची शिक्षा से वंचित रहे, यह बात उनको अखरती थी | वे कहा करते थे कि इनमें न जाने कितने भावी साहित्यिक, कलाकार और वैज्ञानिक हैं | इनकी प्रतिभा को प्रकाश में आने का अवसर मिलना ही चाहिये |
केवल विद्यार्थियों की ही नहीं, वे सभी की सहायता करते थे | सेवा और सहायता के उद्देश्य से उन्होंने सन् 1914 में प्रयाग में जिस सेवा-समिति की स्थापना की थी उसका आदर्श ही उनके जीवन का आदर्श था | राजा शिवि के, जिन्होंने अपना माँस देकर शरण में आये हुए कबूतर का प्राण बचाया था, इस कथन में वह आदर्श व्यक्त है |
न त्वहं कामये राज्यं न स्वर्गं नाSपुनर्भवम| कामये दु:खतप्तानां प्राणिनामार्तिनाशनम्||
मैं राज्य की कामना नहीं करता | मुझे स्वर्ग और मोक्ष नहीं चाहिये | दुःख से पीड़ित प्राणियों के कष्ट दूर करने में सहायक हो सकूँ यही मेरी कामना है |
को नु यस्मादुपायोSत्र येनाहं दु:खितात्मनाम्| अन्त:प्रविश्य भूतानां भवेयं दु:खभाक् सदा ||
च्यवन ऋषि का जिन्होंने जल में तपस्या करते हुए, वहाँकी मछलियों के प्राण बचाने के लिये अपना प्राण अर्पण कर दिया था, यह कथन उनके ध्यान में सदा ही रहता था |
वह कौन-सा उपाय है जिसके द्वारा मैं दु:खी जनों के अंत:करण में प्रवेश कर उनके दु:ख से दु:खी होऊँ |
इस श्लोक के निचे एक बार उन्होंने लिखा था कि हजारों वर्ष पूर्व एक प्राचीन ऋषि ने यह प्रार्थना की थी, यही आज मेरी प्रार्थना है | दुसरों के दु:ख का अनुभव कर ही मनुष्य उनके दु:ख को दूर करने में प्रवृत्त हो सकता है | मालवीय जी जीवन भर इन्हीं आदर्शों से अनुप्राणित रहे | उनका जीवन दुसरों के कष्टों को दूर करने के प्रयत्नों से भरा था | व्यक्ति, समाज, धर्म और देश सभी के कार्यों में उनकी यही प्रवृत्ति रही |
16 मार्च सन्1932 को मैं अनायास ही मालवीय जी की सेवा में पहुँच गया | एक दिन पूर्व मुझे मुरादाबाद में उनके कनिष्ठ पुत्र स्वo गोविन्द मालवीय जी का यह तार मिला था कि पिता जी ने तुम्हें बुलाया है, तुरन्त चले आओ| मैं उसी दिन उज्जैन से अस्थायी अध्यापन कार्य से मुक्त हो कर लौटा था और कुछ समय तक घुमने फिरने की इच्छा थी पर मैं दूसरे दिन ही मालवीय जी के समक्ष उपस्थित हुआ और उसी क्षण से ही मैं उनकी सेवा में संलग्न हो गया | उसी समय उन्होंने गोविन्द जी से कहा था कि अभी तो यह अकेले हैं | इन्हें मकान भी जल्दी नहीं मिलेगा | ये यहीं रहेंगे | इनके खान-पान का ठीक प्रबन्ध करना | दूध रोज मिलना चाहिये | इन्हें कोई कष्ट ना हो | मैं सोचने लगा कि अभी तो मैंने काम आरम्भ भी नहीं किया है और मालवीय जी को मेरी सुविधा की इतनी चिन्ता हो गयी है | पहले ही दिन उन्होंने मेरे प्रति जो आत्मीयता व्यक्त की, वह उनके जीवन के अन्तिम दिन तक बनी रही | लगभग 14 वर्षों तक मुझे उनकी सेवा का अवसर मिला | उनसे मैंने बहुत कुछ सीखा और पाया | मैंने बार-बार अनुभव किया कि वे सबके आत्मीय हैं |उनकी सेवा और सहायता का क्षेत्र असीम है | इस सम्बन्ध में अपनी जानकारी की कुछ घटनाओं का उल्लेख अप्रासंगिक न होगा |
सन् 1932 या सन् 1933 में मालवीय जी पुना गये थे | एक सज्जन ने एक रुग्ण बालक रघुनाथ भाऊ साहब को उसके घर पर ही जाकर देखने का उनसे आग्रह किया | बालक को घोर शारीरिक और मानसिक कष्ट था | उसके आधिक काल तक जीवित रहने की आशा नहीं थी किन्तु उसकी यह भावना थी कि मालवीय जी के दर्शन से उनको शान्ति मिलेगी | उसने स्वयं ही उनके दर्शन की इच्छा व्यक्त की थी| मालवीय जी उसके घर गये, उसको सान्त्वना दी और धीरज के साथ कष्ट सहन करते हुए अपने आपको भगवान् को अर्पण करने का उसको उपदेश दिया | भागवत–कथित गजेन्द्रमोक्ष भी स्तुति द्वारा भगवान् का ध्यान करने को भी उनसे कहा बालक ने मालवीय जी के उपदेश का पालन किया और जितने दिन वह जीवित रहा, उसने अपनी पीड़ा में कमी का अनुभव किया | कष्ट सहन करने में उसे पहले जैसी कठिनाई प्रतीत नहीं हुई | उसकी माता ने मालवीय जी को एक पत्र में लिखा था कि मेरा पुत्र मृत्यु से पूर्व अपना यह सन्देश आपके लिये छोड़ गया है |
“परम आदरणीय पण्डित जी ! आपके उपदेश और गजेन्द्रमोक्ष स्तोत्र के निरंतर पाठ करने का मेरे मन पर इतना अच्छा प्रभाव हुआ है कि मुझे अब न तो मृत्यु का भय है और न शरीर छोड़ने का दु:ख | मुझे शक्ति के स्त्रोत आत्मा की प्राप्ति हो गयी है और मैं अब प्रसन्न हूँ| मुझे इस संसार की असारता का ज्ञान हो गया है और अब मैं चुपचाप शान्ति के साथ इस शरीर का त्याग कर ब्रह्म में समा जाने में समर्थ हूँ | आपके उपदेश की कृपा से मैं अपने जीवन के लक्ष्य तक पहुँच सका हूँ”|
पत्र में माता ने यह भी लिखा था कि आपका परम शिष्य अन्तिम क्षण तक गजेन्द्रमोक्ष–स्तुति का पाठ करता रहा और परम शान्ति और संतोष के साथ उसने प्राण-विसर्जन किया | एक दु:खी और व्यथित बाल को मालवीय जी सुख और संतोष पहुँचा सके यह महान् पुण्य का ही कार्य है |
दुसरों की सहायता की एक और घटना का भी मैंद्रष्टा हूँ |सन् तो याद नहीं है पर रात्रि के 11 बजे थे | मालवीय जी के मकान पर संगीत का आयोजन हुआ था | सभी जा चुके थे और मालवीय जी भी विश्राम के लिये जा रहे थे | उसी समय दक्षिण भारत के कुछ छात्र, जो विश्वविद्यालय में अध्ययन कर रहे थे, उनके समक्ष पहुँचे और कहा कि एक बालक का प्राण संकट में है | दो दिन से वह आपके अस्पताल में है | उसका मल–त्याग करना बंद हो गया है, डॉक्टरों की सम्मति में उसकी अंतड़ियों में गाँठ पड़ गयी है और कल उसका आपरेशन करने का उन्होंने निश्चय किया है | आपरेशन सफल होगा यह वे निश्चित रूप से नहीं कह सकते | बालक एडमीशन परीक्षा देने आया है | हमारे साथ ठहरा है |उसके बचाने का आप कुछ उपाय कीजिये | मालवीय जी ने उनकोआश्वस्त किया और तुरन्त डॉक्टरों को बुलाया और पूछा कि आपरेशन के अतिरिक्त क्या और कोई उपाय बालक को रोग-मुक्त करने का नहीं है? उन्होंने कहा कि आयुर्वेद और ऐलोपैथी दोनों ही औषधियों का वे प्रयोग कर चुके हैं | कोई प्रभाव रोगी पर नहीं हुआ है | कल आपरेशन करना ही होगा | बचने की आशा पाँच प्रतिशत ही है | मालवीय जी ने उसी समय अपने एक सम्बन्धी होमियोपैथी के डॉक्टर श्री दिवस्पति भट्ट को नगर से लाने के लिये मोटर भेजी | वे आये और अस्पताल में रोगी को देखा | उन्होंने 24घण्टों तक आपरेशन न करने का अनुरोध किया और यह आशा व्यक्त की कि उनकी औषधि से लाभ होगा | मैंने ही उनकी दवा लाकर रोगी को दी और पहली खुराक स्वयं ही खिलायी | दुसरे दिन सुभ 10 बजे रोगी ने मल-त्याग किया और शाम तक सभी उसकी ओर से निश्चिन्त हो गये और यह भी अस्पताल में चला गया | अर्द्धरात्रि के उस पहर में मालवीय जी उन विद्यार्थियों से दुसरे दिन आने के लिये कह सकते थे पर उन्होंने परिस्थिति की गुरुता को समझा और रोगी को तुरन्त सहायता पहुँचाई | सुबह तक उसकी हालत और भी ख़राब हो सकती थी |
सन् 1934 की जनवरी के अन्तिम सप्ताह में बिहार में भयंकर भूकम्प हुआ | कई नगर ध्वस्त हुए और प्रान्तवासियों की अपार हानि हुई| भीषण दुर्घटना का समाचार पाते ही मालवीय जी नेदेश से सहायता की अपील की और स्थान-स्थान से प्राप्त धन राशी बाबू राजेन्द्रप्रसाद जी को भेजी | कुछ समय बाद स्वयं भी कई स्थानों पर गये और व्यथित व्यक्तियों को सान्त्वना दी | भूकम्प-पीड़ित व्यक्तियों की चिन्ता में वे अपना धर्म-कर्म भी भूल गये | 30 जनवरी को चन्द्रग्रहण हुआ था | सनातनधर्मी ग्रहण–काल में जप और पाठ करते हैं | मालवीय जी जप करेंगे, इस विचार से उनके सेवक मूड़ी ने चौकी, माला और पुस्तक यथास्थान रख दी थी और स्वयं गंगास्नान करने चला गया था पर मालवीय जी के सामने भूकम्प का प्रलयंकर दृश्य था, कुछ समय पूर्व ही बाबू राजेन्द्रप्रसाद जी से फोन पर बात कर चुके थे | मुझसे कहा कि लिखो- देशवासियों से अपील की कि नित्य ही बिहार में भूकम्प-पीड़ितों के लिये द्रव्य संग्रह करो | अगले रविवार को बिहार दिवस मनाओ| गउओं–पशुओं की रक्षा करो | जो सहायता अब तक दी गयी है वह संतोषप्रद है पर अधिकाधिक प्रयत्न होना चाहिये.... पूरा लिखा कर पढ़ने को कहा | एक बार, दो बार, पाँच-छ: बार सुना | नींद आने लगी | मैंने कहा आप जप कर लीजिये | चन्द्रमा का मोक्ष हुआ ही चाहता है | मालवीय जी के मन में भूकम्प व्याप्त था | जप न कर सके पर अपील पूरी लिखा दी और अगले दिन वह समाचारपत्रों में प्रकाशित हो गयी| उस दिन ही टाउनहाल में एक सभा हुई| श्रीप्रकाश जी और संपूर्णानन्द जी ने मुँगेर और मुजफ्फरपुर आदि की दुर्दशा का हाल सुनाया | मालवीय जी ने भी सहायतार्थ अपील की | लौटते हुए ग्रहण की चर्चा चलाने पर उन्होंने कहा था ‘मेरे जीवन में ऐसा कदाचित् ही हुआ है कि मैंने ग्रहण के अवसर पर जप और पाठ न किया हो पर कल तो भूकम्प की ही चिन्ता रही और जप-पाठ न कर सकने का मुझे कोई दु:ख नहीं है |’
ताo 5 सितम्बर 1935 को पशुबलि-प्रथा के विरोध में जयपुर राज्य के पण्डित रामचन्द्र शर्मा वीर ने कलकत्ता में आमरण अनशन किया था और यह आन्दोलनदेशव्यापी हो गया था | स्थान-स्थान से सहायता और समर्थन के संदेशवीर जी को मिले थे पर कलकत्ता के कालीमन्दिर के प्रबन्धकों पर कोई प्रभाव नहींपड़ा था | अनशन के 28वें दिन वीर जी की दशा चिन्ताजनक हो गयी थी | वजन 30 पौंड घट गया था | वीर जी के पिता, भक्त, सेवक सभी चिन्तित थे | वीर जी के प्राणों की आहुति किसी को भी अभीष्ट न थी | कुछ व्यक्ति मालवीय जी के पास पहुँचे और उनसे वीर जी के प्राण बचाने का अनुरोध किया | अनशन के 30वें दिन 4 अक्टूबर को सुबह 8 बजे मालवीय जी वीर जी के स्थान पर पहुँचे और मृतप्राय, अत्यन्त दुर्बल, अर्द्धनिद्रित वीर जी को जगाकर गंगाजल से स्वयं उनका मुख धोया और उन्हें ‘दुर्गा सप्तशती’ का पाठ सुनाया | मालवीय जी कालीघाट मन्दिर गये और सेवाभक्तों से बात की | पचास वर्ष पूर्व मालवीय जी इसमन्दिर गये थे | वहाँ पर होनेवाली पशुबलि देखकर उन्होंने जीवन भर वहाँ न जाने की प्रतिज्ञा की थी पर वीर जी की जीवन-रक्षा के लिये उन्होंने अपनी प्रतिज्ञा तोड़ दी | वह उस दिन रात्रि को फिर वीर जी से मिले थे और दो घण्टे तक उनसे बात करते रहे थे, मार्ग में कालीमन्दिर के सेवाभक्तों से दुबारा बात कर लगभग 12 बजे अपने निवासस्थान बिरला पार्क लौटे थे | वीर जी का अनशन चलता रहा | स्वo रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने भी अनशन त्यागने के लिये वीर जी को लिखा | 6 अक्टूबर को कलकत्ता में माहेश्वरी भवन में एक विराट सभा हुई | मालवीय जी ही उस सभा के अध्यक्ष थे | कुछ नवयुवकों ने कालीघाट-मन्दिर में पशुबलि का खूंटा उखाड़ने का निश्चय किया था | इससे हिंसा फैल सकती थी | मालवीय जी ने रोष में कोई हिंसात्मक कार्रवाई न करने की अपील की और यह आशा व्यक्त की कि वे वीर जी का अनशन स्थगित करा देंगे | सभा के बाद रात के 8 बजे मालवीय जी वीर जी के पास तीसरी बार गये | उन्होंने एक वर्ष तक अनशन स्थगित रखने का उनसे अनुरोध किया और कलकत्ता के कई प्रतिष्ठित पुरुषों का प्रार्थना–पत्र उनको दिया और कहा कि इसको आप पढ़ लीजिये | आपको विश्वास हो जायगा कि आप उपवास स्थगित करके धर्म की अधिक सेवा कर रहे हैं | अपनी व्यवस्था भी उन्होंने वीर जी को दी | व्यवस्था में उन्होंने लिखा था ‘नैतिक और धार्मिक सभी दृष्टियों से ‘वीर’ के उपवास का स्थगित किया जाना वस्तु स्थिति की दृष्टि से पूर्णत: उचित है, यह मेरा निश्चित मत है |’ वीर जी ने मालवीय जी की बात मानी और उनके हाथ से लेकर मौसंबी का रसपान किया | दुसरे दिन भी मालवीय जी वीर जी के पास गये और तीन घण्टे उन्हें समझाते रहे | मालवीय जी के प्रयत्न से वीर जी की प्राण रक्षा हुई | स्वस्थ होने के बाद पशु बलि के विरोध में देश भर में वीर ने आन्दोलन किया | उन्हें सफलता भी मिली | कालीघाट की मन्दिर में पशुवध बन्द नहीं हुआ था | जून में वीर जी कलकत्ता आये और वहाँ इस हिंसक प्रथा के विरुद्ध जनमत तैयार करते रहे | उनके भाषणों पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया था | 30 अगस्त से उन्होंने फिर आमरण अनशन कर दिया | 40 दिन तक यह अनशन चलता रहा, बीच में उनका मस्तिष्क भी विकृत हो गया था | मालवीय जी उनके लिये इस बार भी चिन्तित रहे पर रुग्णावस्था के कारण कलकत्ता नहींजा सकते थे | उन्होंने पंo हीरावल्ल्भ शास्त्री को उनके पास भेजा था और उन्हेंलिखा था कि जब मैं आपसे पिछले वर्ष मिला था तब आपने मुझको गुरुभाव से सम्मानित किया था | उस बात को स्मरण करके ही मैंअत्यन्त प्रेम से आपको उपदेश करता हूँ कि आप अनशन-व्रत को समाप्त कर दें | भागवत-कथित ध्रुव की कथा सुनने का भी उनसे अनुरोध किया था और कथासुनानेके उद्देश्य से भी शास्त्री जी को भी उनके पास भेजा था | अनशन के 40वें दिन रात्रि के प्रथम प्रहर में मालवीय जी का पत्र वीर जी को सुनाया गया था | कलकत्ता के कई गण्यमान्य व्यक्ति भी अनशन समाप्त करने की प्रार्थना लेकर वहाँ उपस्थित थे | वीर जी के मन में यदि कुछ हिचकिचाहट रही होगी तो मालवीय जी के पत्र से उन्हें बल मिला होगा | सबका आग्रह देखकर उन्होंने नीबू का रस लेकर 9 बजे अनशन भंग किया था |
सन् 42 की क्रान्ति के दिनों में जब सरकार की कठोर और उग्र दमन-नीति के कारण नेता और पथ-प्रदर्शक कारागारोंमें बन्द कर दिये गये थे और देशवासी नौकरशाही की नग्न पाशविकता से त्रस्त थे,उस समय स्वयं घूम फिर सकने में असमर्थ होते हुए भी मालवीय जी ने अर्थसंग्रह कर पड़ोसी जिलों के कितने ही परिवारों को सहायता पहुँचाई थी | मानपुर के भूदेव जी को उन्होंने कई बार इसी उद्देश्य से बलिया भेजा था | सन्42 में बलिया जाना और वहाँ से सकुशल लौट आना चमत्कार ही माना जाता था, उन दिनों मालवीय जी निराश व्यक्तियों की आशा और निराश्रितों के आश्रय थे | वे चाहते थे कि वे स्वयं पीड़ित व्यक्तियों के बीच में पहुँच कर उनकी सहायता करें किन्तु 82 वर्ष की अवस्था में उनके दुर्बल शरीर ने उन्हें असमर्थ कर दिया था | फिर भी घर बैठे ही उन्होंने पर्याप्त सहायता भिजवाई थी |
मैंने कुछ घटनाओं का ही यहाँ उल्लेख किया है | उनका जीवन ऐसी कितनी ही घटनाओं का भण्डार है | उनका संग्रह किया जाय तो एक अच्छी खासी पुस्तक तैयार हो जायगी | मालवीय जी के पास से कदाचित् ही कोई निराश लौटता था | ऐसे ही व्यक्तियों के लिये कहा गया है-
धन्य: स एको भुवि मानवानां स उत्तम: पुरुष: स धन्य:| यस्यार्थिनो वा शरणागता वा नाशाभिभन्गाद्विमुखा: प्रयान्ति ||
संसार में मनुष्यों में वही पुरुष उत्तम है, वही धन्य है जिसके द्वार से अर्थी और शरणागत विमुख नहीं लौटता है | मालवीय जी ने देश और समाज के अभ्युदय के लिये जीवन भर अनेक कार्य किये पर सेवा और सहायता के कार्य ही उनके सर्वश्रेष्ठ कार्य माने जायेंगे | सेवा के सम्बन्ध में उन्होंने जो विचार व्यक्त किये हैं, वे जानने, मनन करने और व्यवहार में आने योग्य हैं |उनका उल्लेख कर देना उचित प्रतीत होता है |उन्होंने लिखा था-
‘अपनी इच्छा से—बिना किसी प्रकार के बन्धन व स्वार्थ के दीन–दु:खी प्राणी की सेवा करना इससे परे क्या यज्ञ है, क्या तप है, क्या दान है,क्या सुख है | असहाय प्यासे को पानी, भूखे को अन्न,शीत से सताये हुए को वस्त्र देना, जले हुए के घाव पर मलहम लगाना, डूबते को बचा लेना, जिसके घर में आग लगी हो उसके घर भी आग बुझाना, उसके प्राणियों को आग से बचा लेना, रोगी को औषधि देकर रोग की पीड़ा से छुटा देना, अन्धों को सहारा देना, अनाथबच्चों और विधवाओं के माता, पिता, भाई बनना, मेलों में निराश बिछुड़े हुए को मिलाकर उन्हें नया प्राण देना, जो अनजान अकिंचन प्राणी विदेशों में अकेल छूट गये हैं उनको सहायता दे कर उनके घर पहुँचाना, ठग–लुटेरों और अन्यायियों से सताये जाने वालों का रक्षक होना, समाज की बिना वेतन की पुलिस बनना, शुद्ध और निष्काम सेवा करना इससे पवित्र क्या मार्ग हो सकता है, इससे अधिक क्या सुख और सौभाग्य का विषय हो सकता है | मुझे शब्द नहीं मिलते कि मैं सेवा–धर्म की महिमा और उससे उत्पन्नआनन्द का वर्णन करूँ | इसके सिवाय इस महिमा और आन्नद का पूरा ज्ञान शब्दों के द्वारा कराने की मेरी सामर्थ्य नहीं है | मेरे विचार में यह प्रत्येक प्राणी को अपने अनुभव ही से प्राप्त हो सकता है |’ सेवा कार्य के लियेही उन्होंने पंo मूलचन्द मालवीय और पंoहृदयनाथ कुंजरू के सहयोग से प्रयाग में सेवा समिति की स्थापना की थी | समिति ने शीघ्र ही अखिल भारतीय रूप धारण कर लिया था और अपने जीवन काल से देश के भिन्न-भिन्न भागों में समिति सेवा के पवित्र और महत्त्वपूर्ण कार्य में संलग्न है |
मालवीय जी का जीवन त्याग, तपस्या और साधना का जीवन था | ‘स्व’ की उन्होंने कभी चिन्ता न की, परहित, समाजहित और देशहित के कार्यों में उन्होंने अपना जीवन उत्सर्ग कर दिया | उनके विचार और कार्य सदा ही जन-मानस को शुभ कार्यों की प्रेरणा देते रहेंगे | · |