Mahamana Madan Mohan Malaviya

Mahamana Madan Mohan Malaviya
Reminiscences

पूज्य मालवीय जी महाराज के सान्निध्य में

 

 डॉo भुवनेश्वरनाथ मिश्र ‘माधव’

 

काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में आने का एकमात्र और प्रबलतम आकर्षण था पूज्य मालवीय जी महाराज का सान्निध्य | पूज्य मालवीय जी जब काशी में होते एकादशी, पूर्णिमा, जन्माष्टमी, रामनवमी तथा अन्य ऐसे महत्त्वपूर्ण पर्वों पर विश्वविद्यालय के विशाल हाल में महाभारत या श्रीमद्भागवत की कथा बाँचते | कथा क्या बाँचते अपना हृदय उँड़ेलते | उस समय उनका वेश-रेशमी धोती, रेशमी चादर- बड़ा ही भव्य लगता | यों उनका रंग भी तपाये हुए सोने का सा था | उन्होंने शायद ही कभी रंगीन वस्त्र धारण किया हो | यहाँ तक कि उनके लिये कुलपति का ‘गाउन’ भी श्वेत रेशम का था जिस पर सुनहरा बार्डर लगा था | मालवीय जी महाराज का जैसा दिव्य निर्मल चरित्र वैसा ही उनका श्वेत दिव्य पहनावा | सिर पर श्वेत पगड़ी, गले में तहाया हुए श्वेत दुपट्टा जो दोनों ओर घुटनों को छुता, श्वेत अंगरखा, श्वेत धोती या चौड़ी मुहरी का पजामा, पैरो में सफेद मोजे और सफेद कैनवश के जूते, ललाट पर श्वेत मलयागिरि चन्दन और चेहरे पर दिव्य प्रसन्नता की ज्योति |

 

    छात्र-जीवन में कई बार उनके चरण प्रान्त में बैठकर भागवत और महाभारत की कथाएँ सुनने का देव-दुर्लभ सौभाग्य मिला, सचमुच देव दुर्लभ सौभाग्य ! किसी विश्वविद्यालय का कुलपति अपने छात्रों और अध्यापकोंकोभागवत और महाभारत सूनाता हो यह प्राचीन काल में भले ही संभव हो परन्तु अब कहाँ मिलेगा ? इन कथाओं में भी द्रौपदी का प्रसंग, गजेन्द्र-मोक्ष का प्रसंग मालवीय जी को विशेष प्रिय थे | द्रौपदी की कथा सुनाते समय जब वे स्वयं अपने को द्रौपदी की परिस्थिति में अनुभव कर साश्रु श्लोक-पाठ करते तो हजारों हजार छात्रों, अध्यापकों की आखों से आँसुओं की गंगा जमुना उमड़ आती-उनसे सुने हुए वे श्लोक आज भी प्राणों के निभृत में गूँज रहे हैं-

 

गोविन्द!  द्वारिकावासिन्!  कृष्ण!  गोपीजनप्रिय!

कौरवै:  परिभूतां  मां  किं  न  जानासि  केशव!

हे  नाथ!  हे   रमानाथ!     ब्रजनाथार्तिनाशन!

कौरवार्णवमग्रां     मामुद्धरस्व      जनार्दन!

कृष्ण!  कृष्ण!  महायोगिन्!  विश्वात्मन्!  विश्वभावन!

प्रपन्नांपाहि  गोविन्द!    कुरुमध्येऽवसीदतीम्!

 

इन श्लोकों का जब महामना साश्रु पाठ करने लगते तो लगता कि स्वयं द्रौपदी ही असहायावस्था में भगवान् श्रीकृष्ण को पुकार रही है और भागवान् श्रीकृष्ण उसकी आर्त एवं आतुर पुकार पर प्रकट हो गये हैं! उस समय मालवीय जी के गालों पर आसुओं की धारा का अजस्त्र प्रवाह देकर श्रोताओं का हृदय भी उमड़ आता और एक ऐसा वातावरण बन जाता जिसमेंसर्वत्र-

 

अन्तर्बहिर्यदि  हरिस्तपसा  तत:  किम् |

नान्तर्बहिर्यदि  हरिस्तपसा  तत:  किम् ||

आराधितो  यदि हरिस्तपसा  तत:  किम् |

नराधि यदि हरिस्तपसा  तत:  किम् ||

 

मंगलमय दिव्य अनुभूति छा जाती | उन कथाओं का रस, उनकी ज्योति, उनकी छाप आज भी ज्यों की त्यों प्राणों के प्राण में बनी हुई है- वह अमर है, अमिट है क्यों शाश्वत है | मालवीय जी महाराज के सान्निध्य में बिताये हुए जीवन के पूरे बीस बाइस वर्ष कितने अनमोल थे!

 

मालवीय जी महाराज के यहाँ गरीब छात्रों की बराबर भीड़ लगी रहती थी | वे सच्चे अर्थ में ‘कुलपति’ थे- आज के से वेतनभोगी दण्डाधिकारी ‘वाइस-चैंसलर नहीं | ‘कुलपति’ शब्द अपने इतिहास में मात्र मालवीय जी महाराज पर ही ‘फिट’ बैठा | अभावग्रस्त छात्रों को महामना नाना प्रकार से सहायता पहुँचाते-पैसे से, वस्त्रों से, पुस्तकों से, जाड़े में कम्बलों से और सबसे अधिक अपने प्यार भरे प्रोत्साहनों से | वे प्राय: कहते, तुम आर्य-सन्तान हो, आर्य की तरह चलो, आर्य की तरह रहो | ‘आर्य’ शब्द मालवीय जी को बड़ा ही प्रिय था | इस एक शब्द में उनके लिए भारतीय जीवन, भारतीय साधना, भारतीय संस्कृति का तेज जगमगा रहा है | महावीर जी अपने बंगले के जिस कमरे में रहते थे उसमें एक पलंग, एक बहुत बड़ी चौड़ीचौकी जिस पर उसकी पुस्तकें रहती, कोने में पूजा का पंचपात्र, चंदनादि | कमरे में दो बड़े-बड़े चित्र थे, एक उनके पूजनीय पिता जी श्री चतुर्वेदी बज्रनाथ जी मालवीय का और दूसरा उनकी पूजनीया माता श्री मुनादेवी जी का | पिता जी ब्रजनाथ जी मालवीय स्वयं भागवत के बहुत प्रसिद्ध कथावाचक थे, माता जी धर्मप्राणा थीं | इसका पुण्य प्रभाव पूज्य मालवीय जी महाराज के चरित्र पर पड़ना ही था और पड़ा भी अजस्त्र भाव से |

 

मालवीय जी के यहाँ आने वालों का प्राय: तांता लगा रहता | देश के बड़े से बड़े नेता के दर्शन पूज्य मालवीय जी के कारण हम लोगों को बैठे बिठाये विश्वविद्यालय में ही हो जाया करते | भाई परमानन्द, स्वामी श्रद्धानन्द,डॉo मुंजे, सर सप्रू, सर चिन्तामणि, श्री केलकर, गोस्वामी गणेशदत्त, श्री अणे, लाला लाजपत राय मालवीय जी के अन्तरंग सखा एवं सुहृद् थे | डॉo बेसेण्ट, डॉo भगवानदास, सर जगदीशचन्द्र बोस, श्री सीo वेंकटरमण, श्री प्रफुल्लचन्द्र राय आदि उनके उपासकों में थे | पूज्य मालवीय जी की त्याग-भावना से प्रेरित होकर ही देश के एक से एक चूड़ान्त विद्वान् काशी विश्वविद्यालय में नाममात्र का वेतन लेकर आ गये- प्राय: प्रत्येक विभाग का अध्यक्ष तो ऐसा महामनीषी मूर्धन्य विद्वान् था ही जिसकी कीर्ति ना केवल भारतवर्ष में अपितु समस्त शिक्षित जगत्में देदीप्यमान थी | उस समय के हिन्दू के विश्वविद्यालय के प्राध्यापकों की सूची मात्र पढ़ने से अतीत का गौरव झलक उठता है और सबके सिरमौर थे हमारे प्राचार्य आनन्दशंकर बापू भाई ध्रुव जो विद्या के समुद्र और ज्ञान के सूर्य ही थे, ऐसा प्रकाण्ड विद्वान् अब कहाँ मिलेगा ?

 

     एमo एo के बाद सन् 30 की आँधी में मैंबह गया सूखे पत्ते ही तरह | लगभग तीन वर्ष की आवारागर्दी के बाद सोचने की फुर्सत मिली की अब किया क्या जाय कि पूज्य मालवीय जी महाराज का मेरे घर के पते पर तार मिला कि “शीघ्र मिलो”| हजारों हजार छात्रों के मध्य मुझे स्मरण किया गया इस भाग्य पर कौन नहीं इतरायेगा? सुतरां मैंकाशी, महाराज जी के चरण-प्राप्त में पहुँचा | पहुँचते ही आदेश हुआ कि “महाशिवरात्रि पर ‘सनातनधर्म’ निकाल देना है और तुम उसके सम्पादक हुए” मैं अवाक् था, किंकर्त्तव्य विमूढ़| उन्होंने कहा, “छपाई कागज आदि की व्यवस्था ज्ञानमण्डल में कर दी है, तुम निश्चित रूप से अभी से कार्य आरम्भ कर दो, मैं मसूरी जा रहा हूँऔर शायद तीन चार महीने बाद लौटूँ|” मैंने बड़ी नम्रता से निवेदन किया, “बाबू जी ( इसी नाम से हम सभी छात्र और अध्यापक पूज्य मालवीय जी महाराज को संबोधित किया करते थे! ) अधिक अच्छा होता सम्पादक के लिये आप या तो पंo लक्ष्मणनारायण जी गर्दे या पंo अम्बिकाप्रसाद जी बाजपेयी या पंo गिरिधर शर्मा चतुर्वेदी को आमन्त्रित करते, नहीं तो पंo केदारनाथ शर्मा सारस्वत तो यहाँ है ही | मैं एक सहायक सम्पादक अच्छा हो सकता हूँ, ‘सनातनधर्म’ का सम्पादक बनने की योग्यता, विद्वत्ता, शक्ति मुझमे नहीं है,” परन्तु उन्होंने साफ ‘ना’ कह दिया और कह दिया कि “मैं कहता हूँ तुम कर सकते हो और बढ़िया कर सकते हो|”

 

माँ अन्नपूर्णा, बाबा विश्वनाथ तथा संकटमोचन में जाकर प्रार्थनापूर्वक मैंने ‘सनातनधर्म’ का सम्पादन-भार स्वीकार कर लिया और दो तीन महीनों के अन्दर ही यह साप्ताहिक स्वालंबी ही नहीं ‘कमाऊ’ भी बन गया | पूज्य मालवीय जी महाराज के नाम के कारण बात की बात में सारे देश में इसके ग्राहक बने-धूम मच गई– पंजाब, सीमाप्रान्त, कोहाट, नौशेरा, मालाकन्द, ऐबटाबाद, रावलपिंडी में अधिक | यह सब पूज्य मालवीय जी महाराज के नाम का चमत्कार तो था ही साथ ही गोस्वामी गणेशदत्त जी ने पंजाब और सीमाप्रान्त में सनातनधर्म सभाओं का जाल-सा बिछा दिया था | ‘सनातनधर्म’ उन सभी सभाओं में जाने लगा | ‘सनातनधर्म, के लेखक भी सधे हुए, चुने हुए व्यक्ति थे- मoo पंo प्रमथनाथ तर्कभूषण, मoo पंo गिरिधर शर्मा चतुर्वेदी, आचार्य महावीरप्रसाद जी द्विवेदी, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, पंo अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’, लाला भगवानदीन, डाo भिखनलाल आत्रेय, डाo अचलबिहारी सेठ, डाoबड़थ्वाल आदि आदि | सम्पादक मण्डल में मेरे अतिरिक्त डाo राजबली पाण्डेय, श्री सीताराम चतुर्वेदी श्री गयाप्रसाद जोशी, श्री हीरावल्ल्भशास्त्री थे | व्यवस्थापक थे श्री गणेशदत्त आचार्य पत्र खूब चला | स्वयं मालवीय जी महाराज उसमें सम्पादकीय स्तम्भ के अन्तर्गत समय-समय पर लिखते | गोस्वामी गणेशदत्त जी उत्तर काशी से अपना प्रेरणा-पूर्ण उद्बोधन मन्त्र भेजते रहते | प्रथम पृष्ठ आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी जी के लिये सुरक्षित था | वे प्राय: श्रीमद्भागवत का एक श्लोक लेकर उसकी भक्तिपूर्ण व्याख्या करते- बड़ी ही सुन्दर और सरस शैली में | मoo पंo गिरिधर शर्मा चतुर्वेदी, मoo पंo प्रमथनाथ तर्कभूषण, आचार्य धु्व और आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जी भी लगभग प्रत्येक अंक में लिखते, केवल प्रथम कोटि के लेखकों के लिए ही ‘सनातनधर्म’ का मार्ग उन्मुक्त था | यों मालवीय जी चाहते थे कि भारतवर्ष में जितने ग्राम हैं कम से कम उतने अंक ‘सनातनधर्म’ के अवश्य छपे | मालवीय जी कोई छोटी बात सिच ही नहीं सकते थे | ‘महामना’ उन पर अक्षरश: घटता था |

 

मालवीय जी के जीवन में कभी किसी प्रकार की लघुता आयी ही नहीं | हिन्दू जाति, हिन्दू राष्ट्र, हिन्दू धर्म के स्तम्भ होते हुए भी वे कभी साम्प्रदायिक नहीं थे | कांग्रेस के वे प्रथम श्रेणी में प्रथम पंक्ति के उत्कृष्टतम नेता थे और देश के लिये जेल की यातनाएँ सहीं, नाना प्रकार के कष्ट झेले, चार चार बार कांग्रेस के अध्यक्ष हुए, उसकी कार्यकारिणी में रहे और जब जब कांग्रेस संकटों में फँस गयी मालवीय जी ने उसे उबारने का सफल प्रयत्न किया | राष्ट्र की आवश्यकता पर उन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से सहरत्र छात्र-छात्राओं तथा अध्यापकों को देशसेवा के लिये स्वेच्छया और सहर्ष भेज दिया और विश्वविद्यालय में ताला लग गया |

 

विश्वविद्यालय के पुरातन छात्र मिलते तो वे उनसे तीन प्रश्न करते- (1) संध्या करते हो ? (2) दूध कितना पीते हो ? (3) कितनी संतान है ? बात बात में तीन महावाक्य उनके मुख से निकला करते थे-

 

       (1) निर्बल के बलराम |

       (2) बीती ताहि बिसारी दे, आगे की सुध लेय |

       (3) हारिये न हिम्मत, बिसारिये न राम नाम |

 

      सोते जागते निरन्तर ‘जनहित’ ही उनका लक्ष्य रहा | सनातनधर्म की रक्षा, हिन्दी प्रेम, आदर्श शिक्षा प्रणाली, गो भक्ति, देश की मुक्ति और उन्नति यही उनके अन्तस्तल के परम प्रिय विषय थे |

 

    मालवीय जी का मस्तिष्क राजनीतिक का था और इस विषय में उनके आदर्श थे श्रीकृष्ण-महाभारत के श्री कृष्ण | परन्तु मालवीय जी का हृदय था एक रससिक्त कवि का, रस पिपासु भक्त का और कभी-कभी सर्वथा एकान्त में स्वरचित कविताएँ सुनाते तो लगता रसखान और घनानन्द इनके सामने तुच्छ हैं| उनसे सुनी हुइ एक ‘सोहनी’ अभी भी प्राणों में गूँज रही है-

 

 

नींद   तोहे   बेचोंगो,  जो  कोउ   गाहक   होय |

आयरे ललना फिरि गये अंगना, मैं पापिनि रही सोय|

जो कोउ गाहक होय !

 

     उस महान् आत्मा के प्रति अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए उनके चरणों में नतमस्तक हैं-

 

यस्य   स्मरणमात्रेण   जन्मसंसारबंधनात्|

विमुच्यते  नमस्तस्मै  मालवीयै  नमो नम: ||

 

 

 


Mahamana Madan Mohan Malaviya