Reminiscences
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कुलगुरू मालवीय जी:शैक्षणिक आदर्श
डॉ० राजबली पाण्डेय
महामना मालवीय जी आधुनिक भारत के निर्माताओं में प्रमुख थे किन्तु उनकी राष्ट्रीयता राजनीति तक सीमित नहीं थी | वे राष्ट्र और राज्य को जीवन के उच्चतम मूल्यों की प्राप्ति का माध्यम मानते थे और उनका यह भी विश्वास था कि उन मूल्यों की उपलब्धि के बिना राष्ट्र अथवा राज्य शीलवान् और स्थायी नहीं हो सकता |यह आस्था और विश्वास उनको भारतीय परम्परा से मिला था | अथर्ववेद के बारहवें मण्डल के पृथिवीसूक्त के निम्नलिखित मंत्र से वे अनुप्राणित थे-
““सत्यं” बृहदृतमुग्रं दीक्षा तपो ब्रह्म यज्ञ: पृथिवी धारयन्ति”|”
(भूमिसूक्त 1.1)
अर्थात्, महान् सत्य, कठोर नैतिक आचरण, शुभ कार्य करने का दृढ़ संकल्प, तपस्या, वैदिक स्वाध्याय अथवा ब्रह्मज्ञान और सर्वलोकहित के लिये समर्पित जीवन पृथ्वी को धारण करते हैं | इन वेदविहित चिरन्तन साधनों के द्वारा ही वे राष्ट्र का कार्य करना चाहते थे | राजनीतिक कार्य उनके लिए व्यवसाय नहीं था | किसी भी व्यक्तिगत स्वार्थ अथवा पद, मान,प्रतिष्ठा आदि के लिये वे राजनीति का उपयोग नहीं करना चाहते थे | इसीलिये राजनीति उनके पूरे जीवन को आच्छादित नहीं कर सकती थी | राजनीति से अधिक महत्वपूर्ण और मौलिक जीवन के क्षेत्रों में वे अपने समय और शक्ति का उपयोग करते थे | ज्यों ही उन्हें अनुभव हुआ कि राजनीति व्यक्तिगत स्वार्थ और अहंकार का माध्यम बनने जा रही है त्योंही वे राजनीति से उदासीन और तटस्थ होते गये | उन्होंने अपने कार्य के मौलिक क्षेत्रों को पहले से सींचा था, जहाँ वे सुखपूर्वक अपने जीवन की साधना कर सकते थे | धर्म, समाज, संस्कृति और शिक्षा को वे जीवन का आधार मानते थे | वे समझते थे कि इनके उत्थान के बिना राष्ट्र का उत्थान असम्भव और अर्थहीन है | इन क्षेत्रों में उनकी अमूल्य देने हैं | किन्तु इन सभी में वे शिक्षा को अधिक मौलिक मानते थे | निम्नाकितपंक्तियों में उनकी शिक्षासम्बन्धी भावनाओं और विचारों का ही संक्षिप्त दिग्दर्शन किया गया है |
आधुनिक भारत में शिक्षा का श्रीगणेश और प्रसार एक विशेष परिस्थिति में हुआ | इसमें संदेह नहीं कि प्राचीन भारत में ज्ञान, विद्या, कला, शिक्षा आदि का पर्याप्त विकास हुआ था | भारत का यह सांस्कृतिक ॠक्थ बहुमुखी और समृद्ध हैं | इसके साथ गर्वपूर्वक अन्तर्राष्ट्रीय जगत् में खड़ा हुआ जा सकता है | प्राचीन भारत में विद्या के माध्यम भी विशेष प्रकार के थे | गुरूकुल, आश्रम, मठ, मन्दिर और शालाएँ संस्थात्मक माध्यम थे | चरक, परिव्राजक, व्यास, कथा-वाचक आदि जंगम माध्यम थे|
· प्राध्यापक, कशी हिन्दू विश्वविद्यालय एवं प्राच्यविद्|
भारत के ऊपर इस्लाम के आक्रमण के पूर्व तक ये माध्यम न्यूनाधिक मात्रा में अपने कार्य करते रहे | इस्लामी आक्रमण से भारतीय विद्या और कला को बड़ा आघात पहुँचा | उनका अपना विकास रुक गया | विध्वंस के बाद जितना उनका अंश बच रहा, केवल उनके संरक्षण का ही प्रयत्न होता रहा | मुगल साम्राज्य के ह्लासोन्मुख होने पर भारत के कुछ भागों में पुनरूत्थान कीप्रवृत्तियाँ दिखायी पड़ीं | परन्तु इसके पहले कि भारतीय जीवन स्वतंत्र होता, भारत के ऊपर योरोपीय आक्रमण प्रारम्भ हो गये और उन्नीसवीं शती के पूर्वार्द्ध में प्रायः सम्पूर्ण भारत पर अंग्रेजी सत्ता स्थापित हो गयी |
अंग्रेज भारत के राजनीतिक विजय से ही संतुष्ट नहीं थे | व्यापार और आर्थिक लोभ तो उनको यहाँ खींच ही लाया था | उनके शस्त्र के साथ उनका शासन स्थापित हुआ | शासन के साथ उनकी भाषा, धर्म, संस्कृति, आचार-विचार, वेश भूषा, खान-पान और सम्पूर्ण जीवन-पद्धति आयी | अंग्रेजों में राजनीतिक अभिमान के साथ उनमें सांस्कृतिक अभिमान भी था | भारत के ऊपर पूर्ण विजय प्राप्त करने के लिये सांस्कृतिक विजय भी आवश्यक थी | किसी जाति अथवा राष्ट्र को पूर्णतः पराजित करने के लिये उसके व्यक्तित्व और वैशिष्टय नष्ट करना सबसे सफल माध्यम होता है | इतिहास में विजेता जातियों ने प्रायः इसी नीति का प्रयोग किया है | अंग्रेजों ने भी भारत में इसी नीति का प्रयोग प्रारम्भ किया | इसी नीति के कार्यान्वन का सफल साधन शिक्षा थी |
भारत में शिक्षा के सम्बन्ध में अंग्रेजों की तात्कालिक और प्रथम आवश्यकता प्रशासकीय और दूसरी तथा स्थायीसांस्कृतिक थी | आधुनिक इतिहास में अंग्रेजी सत्ता का प्रसार एक चमत्कार है | इस चमत्कार की कला अंग्रेजों ने विकसित की थी | एक मुट्ठी भर अंग्रेज विशाल भारतीय साम्राज्य पर स्वतः शासन कर नहीं सकते थे | इस काम में उनको भारतीयों की सहायता की आवश्यकता थी | भारतीय विजय के समय में उनको सेना का अनुभव था | उन्होंने भारतीय सिपाहियों के द्वारा भारत की विजय की थी | अब वे भारतीय कर्मचारियों के द्वारा भारत का शासन चलाना चाहते थे | उन्होंने देखा था कि विदेशी आक्रमणों से दमित होने के कारण जातीय स्वाभिमान और चेतना लुप्त होने से इस देश में ऐसे व्यक्तियों की कमी नहीं है जो अपनी जीविका और व्यक्तिगत स्वार्थ के लिये अपने को बेचने के लिये तैयार रहते हैं | ऐसे व्यक्तियों का अंग्रेजी शासन के लिये उपयोग करना चाहते थे | ऐसे व्यक्ति तभी पूरे उपयोगी हो सकते थे जब वे अपनी जातीय परम्परा और संस्कृति से पूर्णतः विच्छिन्न और नयीशासन व्यवस्था में निहित स्वार्थवाले हों | शिक्षा-क्रम और जीवन-पद्धति बदलने से ही ऐसा होना सम्भव था | लार्ड विलियम बेण्टिक के शासनकाल में भारत में शिक्षाप्रसार के सम्बन्ध में जो विचार हुए हैं उनमे कहा गया कि इस शिक्षा का उद्देश्य ऐसे व्यक्तियों का निर्माण करना था जो रूप-रंग में तो भारतीय हों,किन्तु आचार-विचार, वेश-भूषा, आस्था-विश्वास में अंग्रेज हों, इस शिक्षा की विशेषतायें थीं| इसका माध्यम-भाषा और पाठ्य-क्रम था | इंग्लैण्ड के शिक्षा-शास्त्रियों में माध्यम को लेकर कुछ मतभेद था | परन्तु लार्ड मैकाले ने यह तर्क देकर सबको शान्त कर दिया—‘अंग्रेजी माध्यम वह शस्त्र है जो अंग्रेजों के राजनीतिक साम्राज्य ने नष्ट हो जाने पर भी भारत के ऊपर उनके बौद्धिक और सांस्कृतिक साम्राज्य की रक्षा करता रहेगा’| लार्ड मैकाले की यह भविष्यवाणी कितनी सत्य थी इसके लिये प्रमाण देने की आवश्यकता नहीं | रोमन साम्राज्य का उदाहरण अंग्रेजों के सामने था | रोमन साम्राज्य नष्ट होने पर भी रोमन लिपि, लातिनी और यूनानी से प्रभावित भाषा, ईसाई धर्म, रोमन चर्च, रोम-यूनान से प्रभावित संस्कृति का साम्राज्य आज भी बना हुआ है | जब रोमन लार्ड इंगलैंड छोड़कर भाग रहे थे तो स्वयं इंग्लैण्ड-निवासियों ने उनसे प्रार्थना की थी कि वे उनको अनाथ छोड़कर वापस न जायँ |
भारत की यह विशेषता रही है कि उसने कभी विदेशी आक्रमण और प्रभाव के सामने पूर्णतः आत्म-समर्पण नहीं किया | भारत में अंग्रेजी सत्ता के फ़ैलने के साथ ही उसके विरूद्ध प्रति-क्रिया प्रारम्भ हो गयी | उन्नीसवीं शती के पूर्वार्द्ध में जो सुधारवादी आन्दोलन चले उसमेंराष्ट्रीय चेतना और पुनरुत्थान की भावना थी | 1857 में तो सशस्त्र विद्रोह हुआ | विद्रोह-दमन के पश्चात् भी राष्ट्रवादी आन्दोलन जारी रहे | इन राष्ट्रवादी आन्दोलनों की एक विशेषता थी | ये भारत को केवल राजनीतिक दासता से ही मुक्त नहीं करना चाहते थे, वे भारत को बौद्धिक और सांस्कृतिक गुलामी से भी मुक्त देखना चाहते थे | राष्ट्रीय महासभा (काँग्रेस) में भाग लेने वालों में ऐसे लोगों की एक बहुत बड़ी संख्या थी| महामना मालवीय जी उनमें अग्रणी थे | व्रह्म-समाज, आर्य-समाज,देवसमाज,रामकृष्ण–विवेकानन्द मिशन सभी इसी दिशा में प्रयत्न कररहे थे | काँग्रेस के अधिवेशनों के साथ अन्य भी राष्ट्रीय सांस्कृतिक संस्थाओं के अधिवेशन होते थे|राष्ट्रीय दृष्टि से जो जाग्रत थे वे अंग्रेजी भाषा और अंग्रेजी शिक्षा के कुप्रभाव को स्पष्ट देख रहे थे; जो उनसे अभिभूत थे उनका तो मार्ग ही भिन्न था | भारत की कई प्रबुद्ध आत्माओं ने भारतीय जीवन-दर्शन का प्रचार सा आरम्भ किया | विवेकानन्द, रविन्द्र, अरविन्द, तिलक आदि ने भारतीयआत्मा के जागरण में महत्वपूर्ण भाग लिया | तिलक ने तो लोक-संग्रह का जीवन दर्शन ही गीता–रहस्य के रूप में प्रस्तुत किया | थियौसौफीयद्दपि विश्व –कल्याण चेतना से प्रेरित थी, परन्तु भारत में राष्ट्रीय चेतना और आत्म –सम्मान जाग्रत करने में इसका कम हाथ नहीं था| इसके द्वारा संचालित भारतीय ब्रह्मविद्या, तत्व –सभा, काशी में सेन्ट्रल हिन्दू कॉलेज आदि भारतीय राष्ट्रीयता के ही उन्नायक थे | गुरूकुल, ऋषिकुल, विद्यापीठ आदि इसी दिशा में प्रयोग और प्रयत्न थे|
अंग्रेजों ने यद्दपि प्रशासकीय आवश्यकता और साम्राज्यवादी विजयिनी प्रवृतियों से प्रभावित होकर भारत में शिक्षा का संगठन किया था, कुछ उच्च शक्तियाँ सारे मानव इतिहास को प्रभावित कर रही थीं | व्यक्ति –स्वातंत्र्य, विचार –स्वातंत्र्य,मानववाद,उदारतावाद आदि के आंदोलन जातीय स्वार्थों और दुराग्रहों को शिथिल करने लग गए थे | विलियंम बेण्टिक के समय में तो छोटे–छोटे स्कूलों और कॉलेजों कीस्थापना हुई | 1858 में ब्रिटिश साम्राज्य की उद्घोषणा के पश्चात् भारत में तीन प्रेसीड़ेंसी विश्वविद्यालयों कलकत्ता, मद्रास और बम्बई की स्थापना हुई | इनके ऊपर इंग्लैण्ड के शिक्षासम्बन्धी आदर्शों का प्रभाव पड़ने लगा | परन्तु भारत मेंइंग्लैण्ड के उदारतावादी शैक्षणिक आदर्शों और साम्राज्यवादी स्वार्थों में काफी संघर्ष चलता रहा | भारत में अंग्रेज शिक्षाशास्त्री और कर्मचारी बराबर इस बात का प्रत्यन करते रहे कि शिक्षा द्वारा यहाँ राष्ट्रीय जागरण और सांस्कृतिक पुनरुत्थान न हो | वे तो फ्रान्स की राजनीतिक क्रान्ति, लोकतांत्रिक सुधार और ओद्योगिकक्रान्ति के प्रभाव को भी शिक्षा – नियन्त्रण के माध्यम से रोकते रहे | जब कि संसार के अन्य देश इन प्रभावों को स्वतन्त्र रूप से अपनी भाषा के माध्यम से ग्रहण कर रहे थे, भारत को नियंत्रण द्वारा इनसे वंचित रखा जा रहा था | 1861 और 1905 के बीच भारत में शिक्षा–सम्बन्धी कई अधिनियम बने, किन्तु इनका उद्देश्य शिक्षा और ज्ञान का प्रसार नहीं, किन्तु इनका स्वतंत्र प्रभावों के विरूद्ध, संकोचन और नियंत्रण था | लार्ड कर्जन के समय में जो “यूनिवर्सिटीज एक्ट” बना उसके स्वरुप, उद्देश्य और उसके विरूद्ध प्रतिक्रिया से सभी प्रबुद्ध लोग परिचित हैं |
अंग्रेजों द्वारा प्रचलित किन्तु नियंत्रित शिक्षण–पद्धति के उद्देश्यों और प्रभावों को देखते हुए जो लोग राजनीतिक और सांस्कृतिक दोनों दृष्टियों से जागरूक थे वे राजनीतिक दासता के साथ बौद्धिक और सांस्कृतिक दासता से भी देश को मुक्त करना चाहते थे | इसलिये अंग्रेजों के प्रशासकीय नियंत्रण से पृथक् और स्वतंत्र होकर शिक्षा के क्षेत्र में नये प्रयोग प्रारम्भ किये गये | जैसा कि ऊपर लिखा गया है, गुरूकुल, ऋषिकुल, शान्ति-निकेतन आदि इसी दिशा में प्रयत्न थे | महामना मालवीय जी भी पाश्चात्य जीवन –पद्धति पर आधारित और सरकार द्वारा नियंत्रित शिक्षण–पद्धति के दोषों से पूर्णतः परिचित थे, उसके कुप्रभावों को तीव्रता से अनुभव करते थे | वे समझते थे कि भारतीय नवयुकों को केवल जीविका के लोभ और राष्ट्रीय दृष्टि से नैतिक पतन से बचाने के लिये स्वतंत्र रूप से संचालित राष्ट्रीय शिक्षा की आवश्यकता है | वे गुरूकुलों, ऋषि-कुलों, शान्ति-निकेतन आदि का आदर करते थे | परन्तु वे यह भी समझते थे कि इनसे देश की वर्तमान समस्या का समाधान नहीं हो सकता | इतिहास चक्र को उल्टा नहीं घुमाया जा सकता | अतीत के जीवन्त-मूल्यों और जीवन–पद्धति के मौलिक सिद्धान्तों का वर्तमान में परिवहन और आत्मसात् होना संभव हो सकता है किन्तु वर्तमान को उसके ऐतिहासिक सन्दर्भ से हटाकर अतीत के स्थानान्तरण नहीं किया जा सकता | जीवन्त अतीत और स्वस्थ वर्तमान, प्राच्य और पाश्चात्य, आध्यात्म तथा उसके अविरूद्ध भौतिक तत्वों का समन्वय सम्भव और वांछनीय है | इस प्रकार राष्ट्रीय शिक्षा आन्दोलन के सन्दर्भ में महामना की कल्पना में एक राष्ट्रीय विश्वविद्यालय कीउद्भावना हुई | यही राष्ट्रीयविश्वविद्यालय बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय (काशी विश्वविद्यालय) के रूप में स्थापित हुआ|
हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना का उद्देश्य काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की योजना केवल नई विद्या –संस्था की स्थापना मात्र नहीं थी | यह बौद्धिक और सांस्कृतिक मुक्ति का राष्ट्रव्यापी आन्दोलन था | हिन्दू विश्वविद्यालय की भावना और योजना का प्रचार काश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक और सौराष्ट्र से लेकर आसाम तक हुआ | इसके द्वारा देश की सांस्कृतिक और राष्ट्रीय भावना एक बार पुनः जाग्रत हो उठी | देश के सभी वर्गों – किसान, वणिक्,सामान्य प्रजा, श्रीमन्त तथा राजा-महाराजा ने उन्मुक्त कण्ठ और उन्मुक्त हस्त से इस योजना का स्वागत किया | यद्दपि भारत की नौकर-शाही प्रारम्भ से ही इस योजना को शंका और द्वेष की दृष्टि से देखती रही, इंग्लैण्ड के उदारदल ने और उस समय के वाइसराय स्वयंलार्ड हार्डिज ने इसका स्वागत किया | जब 1916 में हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना हुई तो इसका अखिल भारतीय और सर्वदलीय स्वरुप स्पष्ट दिखायी पड़ा | स्थापना-समारोह में देश के प्रसिद्ध नेता, शिक्षा-शास्त्री, राजा-महाराजा, श्रीमन्त और सभी वर्गों की अपार जनता उपस्थित थी | इसमें लार्ड हार्डिज और महात्मा गाँधी (तब केवल श्री गाँधी) दोनों वर्तमान थे | यह स्वतन्त्र राष्ट्रीय शिक्षा का महान् पर्व था; ऐसा लगा कि एक बार पुनः काशी में देश की भारती जाग उठी| महामना मालवीय जी हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्थापक कुलपति थे, यद्दपि वे प्रथम कुलपति नहीं थे | वे संविधान के अन्तर्गत स्वतः नियुक्त अंथवांकिसी सरकारी पदाधिकारी द्वारा मनोनीत नहीं थे | वे विश्वविद्यालय की भावना और योजना के प्रवर्तक थे | अतः सबके आदर और श्रद्धा से कुलपति पद पर प्रतिष्ठित हुए | विश्वविद्यालय की उनकी एक कल्पना थी | उसको वे साकार देखना चाहते थे | विश्वविद्यालय के सभी अंगों के निर्माण और व्यवस्था में उनका एक आदर्श और उद्देश्य था | मालवीय जी महामना होने के कारण छोटे पैमाने पर कोई चीज सोचते ही नहीं थे | विश्वविद्यालय की उनकी विराट् कल्पना थी | वे चाहते थे कि विश्व में जितना भी ज्ञान संभव हो उसका अन्वेषण,सृजन,परिवर्धन और वितरण विश्वविद्यालय में हो और इस ज्ञान के द्वारा भारतीय चरित्र और बुद्धि का विकास हो | किन्तु सबसे पहले उनके सामने एक मौलिक प्रश्न था | विद्या अथवा शिक्षा का उद्देश्य क्या होना चाहिये ? यहाँ पर वे औपनिषदिक आदर्श से प्रेरित थे | उपनिषदों में विद्या उद्देश्य स्पष्ट लिखा हुआ है –‘सा विद्या या विमुक्तये’ (विद्या वह है जो मुक्ति के लिये हो) और मुक्ति वह है जो मानव को सभी प्रकार के बन्धनों –आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक और आध्यात्मिक से छुटकारा दिलाये | उनके विचार में विद्या मुक्ति अथवा स्वतंत्रता के लिये ही है | विद्या मुक्ति का माध्यम है | इस विद्या की पद्धति भी स्वतंत्र होनी चाहिये | और उसका अनुसरण होना चाहिये स्वतंत्र अध्यापकों और छात्रों द्वारा | जो स्वतः स्वतंत्र नहीं है वह दूसरों को मुक्ति का मार्ग नहीं बतला सकता मुक्त ही दूसरों को मुक्त कर सकता है ---मूक्तश्चान्यान् विमोचयेत् | इस आदर्श को ध्यान में रखकर महामना ने प्रारम्भ से ही मानव व्यक्तित्व और चरित्र के विकास के लिये स्वतंत्र वातावरण का निर्माण किया |विश्वविद्यालय के वातावरण में रहनेवालों के चेहरे पर उन्मुक्ता अंकित दिखायी पड़ती थी| जब जब देश की मुक्ति का आन्दोलन चला, विश्वविद्यालय के सभी द्वार उन्मुक्त हो जाते थे | विश्वविद्यालय के अध्यापकों और छात्रों ने राष्ट्रीय आन्दोलनों में बराबर भाग लिया | इसके लिये वे कभी दण्डित अथवा निष्कासित नहीं हुए | महामना प्रायः ऐसे अवसरों पर कहा करते थे कि विश्वविद्यालय और राष्ट्र का अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है | देश और राष्ट्र की मुक्ति के लिये एक नहीं, अनेक विश्वविद्यालयों का बलिदान किया जा सकता है | अतः विश्वविद्यालय सर्वतोभावेन स्वतंत्रता के माध्यम से, स्वतंत्रता के लिये स्थापित था | दूसरा मौलिक प्रश्न महामना के सामने था विद्या के स्वरुप और विषय का | आजकल विद्या सामान्य रूप से सभी प्रकार के ज्ञान के लिए प्रयुक्त होती है | परन्तु भारतीय परम्परा में ज्ञान के दो प्रकार थे- विद्या और अविद्या | विद्या आध्यात्मिक ज्ञान को कहते थे और अविद्या भौतिक अथवा पार्थिव ज्ञान को | दोनों ही प्रकार के ज्ञान मानव जीवन की पूर्णता और मुक्ति के लिए आवश्यक थे | उपनिषदों में कहा गया है –
विद्याच्च अविद्याञ्चयस्तद्वेदोभयं सह | अविद्या मृत्युं तीत्वांविद्ययाऽमृतश्नुते || (ईशावास्योपनिषद्) (जो विद्या और अविद्या के साथ-साथ जानता है, वह अविद्या (भौतिक ज्ञान) के द्वारा मृत्युलोक (संसार) को पार कर विद्या (अध्यात्मिक ज्ञान) के द्वारा अमृतत्व को प्राप्त करता है)| यह भी कहा गया है कि जो केवल भौतिक ज्ञान का अर्जन और अध्यात्मिक ज्ञान का संचय करता है और भौतिक ज्ञान कि उपेक्षा करता है, वह उससे भी गहरे अधंकार में विलीन हो जाता है | आध्यात्मिक और भौतिक ज्ञान का परस्पर विरोध संसार के लिए घातक है, इस बात को महामना भली-भाँति अनुभव करते थे | मध्ययुगीन भारत स्वयं इसका उदहारण था | झूठी आध्यात्मिकता और जीवन के पार्थिव पक्ष की उपेक्षा से दरिद्र भ्रष्टाचारी जीवन का ही निर्माण हो सकता है | महामना त्याग की मूर्ति थे परन्तु देश की दरिद्रता को अभिशाप समझते थे | वे आध्यात्मिक ज्ञान के साथ आधुनिक विज्ञान की सहायता से देश को समृद्ध बनाना चाहते थे | इसलिए विश्वविद्यालय में पाठ्य–विषयों के सम्बन्ध में उन्होंने इस बात का ध्यान रखा कि जहाँ एक ओर धर्म, दर्शन तथा सामाजिक शास्त्रों का अध्ययन-अध्यापन हो, वहाँ दूसरी ओर वाणिज्य, शुद्ध विज्ञान, यंत्र–विज्ञान तथा औद्योगिक विज्ञान आदि पार्थिव और भौतिक शास्त्रों का भी उच्चतम ज्ञान प्राप्त हो | ज्ञान के इन दोनों पक्षों के समन्वय तथा संवर्धन के वे बहुत बड़े समर्थक थे | महामना के सामने तीसरा महत्वपूर्ण प्रश्न था विश्वविद्यालय के स्थान, स्वरुप और आवास का | विश्वविद्यालय का अखिल भारतीय होना उनके विचार में आवश्यक था | अंग्रेजी सरकार ने कोई अखिल भारतीय विश्वविद्यालय नहीं स्थापित किया था जो भारत का भावनात्मक एक्य स्थापित करता | अंग्रेजी साम्राज्य का एक्य सैन्यबल, दास्य और शासन यंत्र पर आधारित था | उसके सामने राष्ट्रीयता का कोई प्रश्न था भी नहीं | महामना राष्ट्रीय एकता के लिए एक सर्वदेशीय विश्वविद्यालय का महत्व समझते थे| अब प्रश्न यह था कि इस दृष्टि से भारत में कौन सा स्थान सर्वदेशीय होगा | इसका उत्तर था काशी, जो युग-युग से भारतीय ज्ञान और संस्कृति का केन्द्र थी | काशी पृथ्वी पर ‘प्रकाश’ अथवा ज्ञान का प्रतीक, अविमुक्त क्षेत्र और आनन्द कानन मानी जाती थी | जिसके बारे में भारतीय सन्तों ने कहा था: ‘जन्म मुक्ति महि जानि ज्ञान खानि अघ हानि कर| जहँ बस शम्भू भवानी सो काशी सेइस कस न |’ डॉ० एनी बेसेंट ने ‘सेन्ट्रल हिन्दू कालेज’ के लिए वाराणसी को चुना था | महामना को स्थान चुनने में कोई कठिनाई नहीं हुई | उनका जन्मस्थान तीर्थराज प्रयाग था, जिसका कि महत्त्व कोई कम नहीं था | परन्तू परम्परा से ‘सर्वविद्या की राजधानी’ काशी को उन्होंने विश्वविद्यालय के लिए चुना | आज के युग में विश्वविद्यालय न तो पारिवारिक गुरूकुल का और न वन में स्थित आश्रम का रूप ग्रहण कर सकता है | उसका स्थान तो घर और वन के बीच कहीं भी हो सकता था | इसलिए महामना ने निश्चय किया कि काशी नगरी से अनतिदूर गंगा के किनारे, अर्द्ध एकांत किन्तु स्वच्छ वातावरण में विश्वविद्यालय की स्थापना की जाय | सेन्ट्रल हिन्दू कालेज विश्वविद्यालय को मिल चुका था, परन्तु वह नगर के कोलाहल में था | भगवान् विश्वनाथ की तरह काशीनरेश का वरद हस्त महामना को प्राप्त था | गंगा के किनारे काशी नरेश ने विश्वविद्यालय के लिए भूमि प्रदान की और 1916 में विश्वविद्यालय का शिलान्यास हुआ | उसी वर्ष भीषण बाढ़ आ जाने के कारण विश्वविद्यालय को गंगा के किनारे से थोडा हटना पड़ा | परन्तु बहुत दूर नहीं | विश्वविद्यालय के भवनों के निर्माण में भी महामना की भारतीय आत्मा और ह्रदय की विशालता का परिचय मिलता है | भारतीय कला के लिए उनके मन में प्रगाढ प्रेम था | भवन उनके लिए केवल लम्बाई, चौड़ाई और ऊंचाई का नाम नहीं था | वह एक भावना, शिक्षा और सौंदर्य का प्रतीक था| इसलिए भवन-निर्माण में आधुनिक सामग्रियों और तकनीक का उपयोग करते हुए भी भारतीय स्थापत्य के सिद्धान्तों, अलंकरणोंऔर प्रतीकों का प्रचुर उपयोग किया गया | महामना के समय में जितने महाविद्यालयों, छात्रावासों और अध्यापकों के आवास के लिए भवन बने उनमें भारतीय स्थापत्य के कला तथ्य, भावना-पक्ष का ध्यान रखा गया | यदि हिन्दू विश्वविद्यालय के भावनात्मक ह्रास का मूर्त इतिहास कोई देखना चाहे तो वह महामना के परवर्ती भवनों में दिखायी पड़ेगा | भारतीय स्थापत्य कला के प्रेमी हैवेल के उंपलभ्भों से प्रभावित होकर अंग्रेज शासकों ने नई दिल्ली के निर्माण में भारतीय कला के प्रतीकों और अलंकरणों को अपनाया था | परन्तु आज का भारतीय बाहरी प्रभाव से अभिभूत है | जिस प्रकार अमरीकी भारत के भविष्य पर चढ़ता जा रहा है वैसे ही अमरीकी स्थापत्य भारतीय कला के ऊपर | भवन-निर्माण की दृष्टि से भी हिन्दू विश्वविद्यालय की कल्पना विराट थी | हिन्दू विश्वविद्यालय तपोवन नहीं था अपितु विद्या का विशाल देवालय था | मालवीय जी की राष्ट्रीय भावना और उनका आत्म-सम्मान छप्पर और फूस से संतुष्ट होने वाला नहीं था | उनकी भावना और कल्पना समृद्ध कलात्मक थीं| इस दृष्टि से मालवीय जी सात्विक राग के सुन्दरतम उदाहरण थे | हिन्दू विश्वविद्यालय का संविधान और संगठन जो महामना ने अपनाया वह भी अपना वैशिष्ट्य रखता था |वह अन्य विश्वविद्यालयों का अनुकरण नहीं था | उस समय अंग्रेजी साम्राज्य भारत में अपनी शक्ति की चरम सीमा पर था | देश का राजनीतिक तथा शैक्षणिक जीवन पूर्णतः नियंत्रित था | परन्तु ऐसी विषम परिस्थिति में भी उस समय लोकतांत्रिक सिद्धान्तों के आधार पर हिन्दू विश्वविद्यालय का संविधान पूर्ण लोकतांत्रिक था | इसमें शैक्षिणिक और व्याक्तिगत स्वातंत्र्य का पूर्ण ध्यान रखा गया था| अपनी आन्तरिक व्यवस्था में यह पूर्णतः स्वायत्त तथा सरकारी हस्तक्षेप से मुक्त था | इसकी सर्वोच्च अधिकारणी संस्था कोर्ट थी | इसमें देश के सभी विभिन्न वर्गों का प्रतिनिधित्व था, सरकारी प्रतिनिधियों की संख्या नगण्य थी | कोर्ट ही विश्वविद्यालय के प्रमुख अधिकारियों तथा कार्यकारणी परिषद् का निर्वाचन करती थी | चांसलर, प्रो० चांसलकर, वाइस–वांसलर, प्रो० वाइस-चांसलर, ट्रेजरर सभी कोर्ट द्वारा चुने जाते थे | विश्वविद्यालय की नीति और कार्यक्रम भी कोर्ट द्वारा ही निर्धारित होते थे | संविधान कि दूसरी विशेषता यह थी कि इसमें प्रशासकीय और शैक्षणिक अंग में पार्थक्य था | शैक्षणिक अंग पूर्णतः स्वायत्त थी | सीनेट और सिंडिकेट शैक्षणिक कार्यो में स्वतंत्र थी, कार्यकारिणी परिषद् की मुखापेक्षी नहीं | कार्यकारिणी का मुख्य काम था साधनों की व्यवस्था करना और कर्मचारियों की नियुक्ति| जिस प्रकार लोक-स्वातंत्र्य के लिये प्रशासन और न्याय का पार्थक्य आवश्यक माना जाता है वैसे ही विश्वविद्यालय में भी व्यवस्था और शिक्षणका पार्थक्य विचार और शास्त्र के विकास के लिये आवश्यक समझा गया था | इसी प्रकार सत्ता और ज्ञान के पार्थक्य तथा अधिकार के विकेन्द्रीकरण द्वारा विश्वविद्यालय का कार्य मालवीय जी के समय में बिना अनावश्यक हस्तक्षेप और संघर्ष के चलता था | ऐसे संविधान के अन्तर्गत महामना जी कुलपति चुने जाते थे | हिन्दू विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर कुलपति कहलाते थे, उपकुलपति नहीं | ‘उपकुलपति’ उपपति के समान लगता है जो विश्वविद्यालय के उच्चतम अधिकारी के अनुरूप नहीं था | उपकुलपति शब्द तभी से अधिक प्रचलित हुआ है जब से राज्यपाल अथवा मुख्यमंत्री चांसलर होने लगे हैं | मालवीय जी निर्वाचित कुलपति होने में गर्व का अनुभव करते थे, प्रशासन से मनोनीत अथवा नियुक्त होना उनके स्वाभिमान और लोकतांत्रिक भावना के विरुद्ध था | कोर्ट का विश्वासपात्र और श्रद्धेय होने के लिए यह आवश्यक भी था | वास्तव में मालवीय जी केवल कुलपति ही नहीं कुलगुरू भी थे; केवल व्यवस्थापक नहीं उपदेष्टा भी थे | महामना की कुलपति अथवा कुलगुरु की एक अपनी कल्पना भी थी | उनके सिद्धान्त के अनुसार हिन्दू विश्वविद्यालय का कुलपति भारतीय संस्कृति का मर्मज्ञ तथा आचार-विचार,वेश-भूषा, खान–पान, आदि में भारतीय होना चाहिये और जनता में उसे भारतीय दिखायी भी पड़ना चाहिये | साथ ही साथ उसे राष्ट्रीय तथा राष्ट्रीय तत्त्वों का उन्नायक होना चाहिये |उनका यह भी विचार था कि विश्वविद्यालय का कुलपति सम्मानित तथा अवैतनिक होना चाहिये | वे समझते थे कि वैतनिक अथवा किसी भी प्रकार के आर्थिक स्वार्थवाले व्यक्ति का वह प्रभाव अध्यापकों,छात्रों और जनता पर नहीं पड़ सकता जो एक शिक्षण संस्था के कुलगुरु की ओर से पड़ना चाहिये | भारतीय निष्ठा का यह एक मौलिक सिद्धान्त है जिसको मालवीय जी दृढता से पकडे हुए थे | वे जानते थे कि उच्चतम वेतन पानेवाला व्यक्ति आतंक तो थोड़े समय के लिये जमा सकता है, किन्तु स्थायी प्रभाव नहीं डाल सकता | काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के कुलपति में और भी कई गुण होने चाहिये जो मालवीय जी में थे| उन गुणों का उल्लेख मालवीय जी स्वयं तो नहीं करते थे किन्तु दूसरों ने उनके सम्बन्ध में किया है | सन् 1938 में मालवीय जी की इच्छा से कोर्ट के अधिवेशन में कुलपति पद के लिये डॉ0 शान्तिस्वरूप भटनागर ने सर राधाकृष्णन् के नाम का प्रस्ताव करते हुए कहा “हिन्दू विश्वविद्यालय के वाईस-चांसलर में तीन गुण मुख्यतः आवश्यक हैं | प्रथमतः उसे हिन्दी का प्रौढ़ वक्ता होना चाहिये,क्योंकि आधुनिक युग में भारतीय हृदय तथा जन-साधारण को स्पर्श करने के लिये यह एकमात्र अखिल भारतीय माध्यम है | दुसरे उसे अंग्रेजी का भी सफल वक्ता होना चाहिये, क्योंकि आधुनिक ज्ञान और अन्तर्राष्ट्रीय व्यवहार का यह मुख्य माध्यम है | तीसरे, उसे सफल भिक्षुक होना चाहिये जिससे वह भारतीय जनता से भीख माँगकर विश्वविद्यालय के लिये साधन एकत्र कर सके |” समय बदल चुका है किन्तु उपर्युक्त कथा का सत्य नहीं बदला है | वास्तव में हिन्दी एक प्रादेशिक अथवा भारत के बड़े भूभाग कीभाषा मात्र नहीं है | जो हिन्दी के बारे में इतना ही जानते हैं वे हिन्दी को नहीं जानते | वह भारतीय अभिव्यक्ति की बहुत बड़ी शक्ति है | इस रहस्य को इस युग में पुर्णतः दो ही व्यक्तियों ने जाना|महामना मालवीय जी और महात्मा गाँधी | अंग्रेजी अथवा अन्य किसी भी विदेशी माध्यम के द्वारा भारतीय हृदय पर भावात्मक अथवा नैतिक प्रभाव नहीं पड़ सकता | भारत के लिये अंग्रेजी वाहनमात्र है, जनता पर उसका भावात्मक प्रभाव कभी पड़ ही नही सकता | किसी अच्छी अंग्रेजी बोलनेवाले की कोई प्रशंसा कर सकता है किन्तु उसके प्रति श्रद्धा नहीं | भारतवर्ष में प्राचीन काल में शिक्षा और भिक्षा का घनिष्ठ सम्बन्ध था | आचार्य और विद्यार्थी दोनों समाज से भिक्षार्जित साधन पर जीते थे, अतः उनकी सभी वृत्तियाँ समाजनिष्ठ और लोकप्रवण होती थीं | आज के युग में घर-घर भिक्षा माँगना तो सम्भव नहीं, किन्तु समाज के सभी वर्गों से साधन एकत्र कर विश्वविद्यालय चलाना सम्भव है | महामना ने यही किया | राजा महाराजाओं से लेकर दरिद्र भिखारी तक से उन्होंने भिक्षा माँगी | वे जानते थे कि केवल सरकार अथवा दो चार श्रीमन्तों पर अवलम्बित होने से विश्वविद्यालय का व्यक्तित्त्व और शैक्षणिक स्वातंत्र्य नष्ट हो जायेगा | वे प्रशासन से पूर्ण सहायता लेने के पक्षपाती नहीं थे | उनकी यह आशंका सत्य निकली | कुलगुरु मालवीय जी अध्यापकों और छात्रों के लिये क्या थे, इस बात को वे ही लोग जानते हैं जो उनके समय में विश्वविद्यालय में अध्यापक अथवा छात्र थे | वे विश्वविद्यालय के उच्चतम अधिकारीमात्र नहीं थे, उनके लियेविश्वविद्यालय अपना कुल अथवा परिवार था, जिसकी चिन्ता निरन्तर उनके मानस में बनी रहती थी | वे कुल के पिता, आचार्य और गुरु थे | विश्वविद्यालय के प्रति उनमें सहज भावात्मक अनुराग था | उनके विशाल ह्रदय में अध्यापकों के प्रति आदर का भाव था | उनको वे अधिक वेतन नहीं दे सकते थे,परन्तु उसके बदले में उन्होंने प्रचुर सम्मान दे रखा था | उनके समय में अध्यापकों के केवल दो ही वर्ग थे प्रोफेसर और सहायक प्रोफेसर | वास्तव में एक ही वर्ग प्रोफेसर, रीडर और लेक्चरर का पद वे अध्यापक के अनुरूप नहीं समझते थे | विश्वविद्यालय के सभी क्षेत्रों में उनको उचित स्थान और अधिकार मिला था | मालवीय जी इस बात को अच्छी तरह जानते थे कि विश्वविद्यालय के आधार अध्यापक हैं, वाइस चांसलर अथवा रजिस्ट्रार का कार्यलय नहीं | इसलिये उनके समय में अध्यापक-गरीबी से रहकर भी सम्मान और गर्व का अनुभव करते थे | छात्रों के लिये मालवीय जी के ह्रदय में अपार करुणा और हित-कामना थी | विश्वविद्यालय का द्वार तो सभी वर्ग के छात्रों के लिये खुला हुआ था, परन्तु दीन विद्यार्थियों पर तो उनकी बिशेष कृपा थी| वास्तव में मालवीय जी का ह्रदय माता का ह्रदय था | वे ‘वन्दौं सीताराम पद जिनहिं परम प्रिय खिन्न’ के उपासक थे | उन दिनों सरकारी नौकरों के लड़के अथवा सम्पन्न वर्ग के महत्वकांक्षी छात्र प्रायः उन विश्वविद्यालयों में जाते थे जहाँ की पढाई से सरकारी नौकरी आसानी से मिल सकती थी | परन्तु सामान्य और गरीब घरों के अधिक विद्यार्थी हिन्दू विश्वविद्यालय में ही पहुँचते थे | गरीबी के कारण हिन्दू विश्वविद्यालय से कोई वापस नहीं जाता था | जुलाई के महीने में छात्र किसी भी छात्रावास में अपना सामान डाल देते थे, किसी प्रकार अपना नाम लिखा लेते थे | दो-दो वर्ष तक भी फीस के बकाये में भी नाम नहीं कटता था | यदि परीक्षा के समय तक भी फीस न दे पाते तो वे अन्त में मालवीय जी तक पहुँचते थे | वस्तुतः गरीब छात्रों की पूरी अथवा आधीफीस को वे ऐसे अवसरों पर माफ़ ही कर देते थे | इसके अतिरिक्त मालवीय जी के पास कई सहायतार्थ कोष थे जिनसे छात्रों को पुस्तकों, भरण पोषणादि के लिए भी धन मिलता रहता था | ऐसे कई छात्र जो कभी कठिन रोगों से आक्रान्त हो जाते थे उनकी चिकित्सा की विशेष व्यवस्था मालवीय जी करा देते थे | उन तक छात्रों का पहुँचना सुलभ था | इसलिये बहुत से छात्र उनके व्यक्तिगत सम्पर्क में आ जाते थे | कोई भी छात्र उनके निकट सम्पर्क में जाकर वात्सल्य का ही अनुभव करता था | विश्वविद्यालय में मालवीय जी ने छात्रों के शिक्षण और ज्ञानवर्धन की व्यवस्था तो की ही थी, किन्तु उनका उद्देश्य केवल कार्यक्षम नागरिक अथवा सेवा आयोग के लिये उपयुक्त कर्मचारी उत्पन्न करना नहीं था | वे क्षमता और जानकारी से अधिक महत्व भावात्मक विकास और चरित्र-गठन को देते थे| इसलियेविश्वविद्यालय में ऐसे वातावरण का उन्होंने संयोजन किया था जहाँ से समुन्नत, स्वाभिमानी और लोकसेवी मनुष्य निकल सकें | छात्र संघ, पार्ल्यामेंट, साहित्यिक समितियाँ, व्याख्यान मालाएँ, कथा-वार्ता, पर्व-उत्सव आदि मनुष्य-निर्माण के माध्यम थे | इनमें मालवीय जी स्वत: रस और भाग लेते थे | विद्यार्थी इस आयोजनों में उनके दर्शन और भाषण के लिये लालायित रहा करते थे | सरकारी नौकरियों के लिये तो काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में पढना अयोग्यता माना जाता था | यहाँ के छात्र सरकार के लियेसंदिग्ध और खतरनाक समझे जाते थे |परन्तु विश्वविद्यालय से निकले हुए छात्र, अध्यापक, साहित्यकार, वकील, इंजीनियर और समाज-सेवियों के रूप में देश में चारों ओर छा गये थे| मालवीय जी की प्रेरणा और प्रभाव उनके जीवन का बहुत बड़ा सम्बल और प्रेरणा का श्रोत था| छात्रों में विनय और अनुशासन की मालवीय जी की एक विशिष्ट कल्पना थी|विद्यार्थियों में शिष्यत्व का भाव ही विनय अथवा अनुशासन का आधार है| यह अधिकारियों और अध्यापकों की सहानुभूति, वात्सल्य और हितकामना से उत्पन्न होता है| विनय प्रभावात्मक और अन्तर्निहित होता है| नियंत्रण, शक्ति और प्रहार से यह पैदा नहीं किया जा सकता| इसीलिये शैक्षणिक विधान और वातावरण सैनिक और प्रशासकीय वातावरण से भिन्न होता है| मालवीय जी केविश्वविद्यालय के प्रांगण में रहना ही छात्रों में विनय और अनुशासन के लिये पर्याप्त था| उनका स्नेह, वात्सल्य और सर्वभूत हित-कामना स्वतः लोगों पर प्रभाव डालती थी| उनके पास जाने मात्र से एक विशेष प्रकार का ह्रदय-परिवर्तन हो जाता था| सभा समितियों में उनके जाने-मात्र से शान्ति और व्यवस्था उत्पन्न हो जाती थी| कोई भी अपराधी व्यक्ति उनके सम्मुख जाकर लज्जित और परिवर्तित हो जाता था| छात्रों के संघटनों को वे प्रोत्साहन देते थे| किसी नैतिक उद्धेश्य के लिये उनके आन्दोलनों को वे वैध मानते थे | सार्वजनिक अथवा राजनीतिक कार्यक्रम तथा आन्दोलनों में भाग लेने के लिये कोई छात्र कभी दण्डित नहीं हुआ| मालवीय जी के सामने विश्वविद्यालय, देश और लोक में कोई भेद नहीं था | इसलिये वेशैक्षणिक एकांगीणता में विश्वास नहीं करते थे| वे समग्र और संतुलित जीवन के निर्माता थे| महामना मालवीय जी कुलगुरु के अनेक और विविध पहलू हैं, जिन सबका एक छोटे से लेख में वर्णन नहीं हो सकता| उनका ह्रदय विश्व के समान विशाल और दृष्टि समष्टिगत थी| वे चाहते थे कि विश्वविद्यालय में शिक्षण और ज्ञानार्ज़न से बढकर मनुष्य में ह्रदय की विशालता और चरित्र का निर्माण हो| विश्वविद्यालय उनके लिये लोक-संवेदना और लोकहित का माध्यम था| वे विश्वविद्यालय को यांत्रिक संघठन, कारखाना या फौजी छावनी नहीं बनाना चाहते थे | उनका स्वप्न पृथ्वी पर उतरा किन्तु पूरा नहीं हुआ| जिस प्रकार महात्मा गाँधी के जीवन-दर्शन का देश में विघटन हुआ उसी प्रकार मालवीय जी के जीवनादर्शों का | संतोष इतना ही है कि उनके जीवन-काल में उनके आदर्शों का दु:खान्तअन्त नहीं हुआ| वे अपने भाषणों में प्रायः कहते थे कि वे अविमुक्त धाम, मोक्षदायिनी काशी में रहकर भी मोक्ष नहीं चाहते थे; वे भारत और विश्वविद्यालय की सेवा करने के लिये पुन: जन्म लेना चाहते थे- न त्वहं कामये राज्यं न स्वर्गं नाऽपुनर्भवम् | कामये दु:ख़तप्तानां प्राणिनामार्तिनाशनम् || इसीलिये पंचक्रोशी के भीतर न जाकर विश्वविद्यालय के अपने आवास में उन्होंने शरीर-त्याग किया| मेरा विश्वास है कि विश्वविद्यालय के ऊपर अभी भी उनकी आत्मा का संचरण होता होगा| विद्या के भारतीय आदर्शों की प्रतिष्ठा और राष्ट्र की वास्तविक और पूर्ण मुक्ति के लिये वे फिर जन्म लेंगे|
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