Mahamana Madan Mohan Malaviya

Mahamana Madan Mohan Malaviya
Reminiscences

        मैं धन्य होकर लौटा : एक संस्मरण

          पंडित मौलीचन्द्र शर्मा

पूज्य मालवीय जी और पूज्य पिता जी दीनदयाल शर्मा का आपसी सम्बन्थ बहुत घनिष्ठ था। दोनोएक दूसरे की भाई कहा करते थे। मालवीय जी कुछ मास बड़े थे, अत: पिता जी उन्हें ज्येष्ठभ्राता करके ही मानते रहे। इस घनिष्ठता का मुझे बडा लाभ मिला। मालवीय जी के बहुतनिकट रहते और उनके जीवन तथाप्रवचनों और दैनिक वार्तालापों को देखने सुनने और उनसेसीखने के अनगिनत अवसर मिले। अब सोचता हूँ तो अनुभव होता है कि उन सम्पर्कों सेजो कुछ पाया है, वह अमूल्य है और उस देन के लिये आज मेरा मस्तक उस पुण्यश्लोकमहात्मा के प्रति एक पितृत्व के नाते ही नहीं, एक गुरु के नाते भी आभार से झुक जाता है।वे अवसर धन्य थे। अनेक सुभाषित श्रीमद्भागवत तथा अन्य पुराणों के उनके मुँह से समय-समय पर नि:सृत होते रहते थे। उनका संग्रह यदि किया गया होता तो वह आज एक राष्ट्रीय निधि होती, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं।

उन सम्बन्ध की अनेकों स्मृतियाँ स्मृति-पटल पर अंकित हैं, उनमें से एक यहॉ देता हूँ-

मैं अठारहवें वर्ष में था। पिता जी द्वारा स्थापित दिल्ली के हिन्दू कॉलेज में पढ़ता था;बहीं बोर्डिग में रहता था। उन दिनों कॉलेज कश्मीरी द्वार के भीतर उस विशाल भवन में थाजो गदर से पहले सरधना वाले नवाब का महल था । उसी के साथ लगी हुई रायबहादुर सुल्तानसिंह की कोठी थी। प्राय: वहीँ महामना मालवीय जी आकर ठहरा करते थे। जाडों के दिनथे, बाबू (हम उन्हें इसी अभिधा से पुकारते थे) वहाँ आये हुए थे । प्रात: आठ बजे के लगभगजल्दी समझ कर मैं उनके पास आया। बाहर के कमरे में 'लीडर' के सम्पादक श्री सीं0 वाई०चिन्तामणि बैठे हुए मिलने की प्रतीक्षा कर रहे थे। एक दो और भी थे जिन्हें मैं पहचानतानही था।

इतने में मालवीय जीं का निजी सेवक बाहर आया। उससे पता चला कि वे पूजा मेंहैं। मुझे जानता ही था। मैने कहा और उसने मालवीय जी को अन्दर जाकर समाचार दियातो उन्होंने मुझे बुला लिया। मुझे बडा आनन्द हुआ कि इतने बड़े-बडे आदमियों को बिठायेरखकर उन्होंने मुझें भीतर बुला लिया।

अन्दर गया तो देखा कि वे आसन पर जमे श्वेत लोई ओढे पूजा कर रहे हैं। सामनेचौकी पर श्रीमद्भागवत खुली हुई थी, पाठ चल रहा था। यह उनका नित्य नियम था। मैनेउनके चरण छुए बिना ही दूर से झुककर प्रणाम किया, इसलिये कि मैं बिना स्नान किये गयाथा। पूजा मे बैठे हुए उनका स्पर्श कैसे कर सकता था? अस्तु, मैं बैठ गया।

एक क्षण बाद उन्होंने पुस्तक से आँखे उठाकर चश्मा चढाये हुए मेरो ओर देखा । एकक्षण देखते रहे और कछ खिन्न से होकर पूछा, "शुन्य मस्तक क्यो हो" मैं कुछ घबरा गया

परन्तु अपने बचाव के लिये कहा कि "अभी स्नान संध्या जो नहीं किया है।" वे अधिक खिन्नहोकर परन्तु बडे स्नेह से बोले, "अच्छा तो अभी तक स्नान संध्या भी नही किया है! औरतुम ब्राह्मण के बालक हो और ब्राह्मणा भी श्रोत्रिय वंशावतंस व्याख्यानवाचस्पति पंडितदीनदयालु शर्मा के पुत्र ।" जैसे घडो पानी पड़ गया,मुझे कही छिपने को जगह होती तो छिपजाता |जी चाहता था कि मुँह तो छिपा ही लूँ पर क्या करत्ता? मुँह से कुछ भी कहना सम्भवन हुआ। नीचे मुँह किये, दुबका-सा बैठा रहा। कुछ क्षण मेरी इस आत्मग्लानि वे देखते रहे।मेरे लिये वे क्षण युग के समान बीते होंगे। फिर अकस्मात् बडे कोमल और मृदुभाव से वेबोले, "बेटा, देखता हूँ तुम्हें अपनी भूल का अनुभव और उस पर मन में पक्षात्ताप हो रहाहै। पक्षात्ताप ही प्रायश्चित है, यदि उसके साथ फिर वैसी भूल न करने का संकल्प भी हो।इससे मन पवित्र हो ज़।ता है।" मुझे सहारा मिला। बोला, "मै भी यही सोच रहा हूँ।

वे फिर बोले, "तुम्हें लाज आ रही है, मैं प्रसन्न हूँ। अब ऊपर देखो।" मैने वैसा हीकिया। उन्होंने पूछा कि मेरे पास वाल्मीकि रामायणा है कि नहीं?मेरे पास नहीं थी । तब उन्होंनेनौकर को बुलाकर मुझे एक पुस्तक मँगाकर दी, जिसका नाम था "सनातनधर्म-संग्रह |" इसमेंवेदों, पुराणों, रामायण, महाभारत्त तथा स्मृतियों आदि से अनेक सुन्दर उध्दरण  संगृहीत थे।उनमें एक सन्दर्भ वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड का था। उसमें वर्णन था कि श्रीराम जबऋषि वशिष्ठ के आश्रम में विद्याध्ययन के लिये गये तो वहाँ उनकी दिनचर्या क्या थी। उन्होंनेवह स्थल निकाल कर खुली पोथी मुझे दी और कहा,इसे पढो । मैने उसका पाठ उन्हें सुनाकरकिया। दिन रात के चौबीसों घण्टों की चर्या उसमें विस्तार से दी थी। मालवीय जी ने पूछा,इतना संस्कृत तो तुम समझते होगे।" मैंने 'हॉ' कहा तो वे प्रसन्न हुए और बोले, "वचनदो कि एक मास तक नित्यप्रात: इसका पाठ संध्या के साथ किया करोगे ।" मैने सम्मति प्रकटकी तो बोले, "ऐसे नहीं, आओ मेरे चरण-स्पर्श करके कहो।" मैं गद्गद हो गया। उन्होंनेसिर पर हाथ धर कर आशीर्वाद दिया तो ऐसा लगा मानो अपना ब्राह्मणत्व उन्होंने मुझे वरदानमें दिया हो। मैं धन्य होकर लौटा।

उस दिन से एक मास नही, प्राय: छ: मास तक वह पाठ नित्य होता रहा-ब्राह्म मुहूर्तसंध्या के बाद| पौष माघ में भी तारों की छाँव में मै खुले में स्नान कर संध्या के लिये बैठजाता। नित्य अपने जीवन कौ उसमें वर्णित चर्या से मिलाता। नित्य अपनी कमियां सामने आतीं,ग्लानि होतो, उन्हें त्याग पूरी ब्रह्मचर्य की चर्या निर्वाह करने की प्रेरणा होती।

धीरे-धीरे बढिया नये बने कोट-पतलून, टाई-कालर उतर गये । खादी की धोती और कुर्तेने उनका स्थान ले लिया। फिर प्राय: एक वर्ष मैं ब्रह्मचारी के समान नंगे पॉव, नंगे सिर, बिनाजूती के और बिना छतरी लिए केवल धोती कुर्ते में ही कॉलेज में तथा घर-बाजार में जातारहा। कुछ दिन साथी और प्रोफेसर सभी हँसे, परन्तु पीछे सभी आदर करने लगे।

आज याद करता हूँ तो लगता है कि उस दिन यदि मालवीय जी का वह उपदेश औरआशीष न मिला होता तो जीवन को शायद वह दिशा, संयम की वह दीक्षा और अपनीपरम्पराओ में वह निष्ठा न मिलती जो इस जीवन की सबसे बडी कमाई है।

Mahamana Madan Mohan Malaviya