Mahamana Madan Mohan Malaviya
महामना कृत धर्म और दर्शन की मीमांसा
चन्द्रप्रकाश पाण्डेय
महामना की धर्म में अडिग आस्था थी । बाल्यकाल से ही धर्म और अध्यात्म पर मौलिक चिन्तन उनके स्वभाव का अंग था । बचपन में प्रायः वे यमुना जी के किनारे एकान्त में बैठकर 'गायत्री जप ' किया करते थे । काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में वे श्रीमदभगवद्गीता पर व्याख्यान देते थे । उनके व्याख्यान बड़े ही मौलिक और सारगर्भित हुआ करते थे । शास्त्रों के मूल मन्तव्य को वे सदैव अपने वक्तव्यों में बताया करते थे । उनके लेखों में भी धर्म और दर्शन की पांडित्यपूर्ण विवेचना की झलक मिलती है ।
ईश्वर
इस संसार में सबसे पुराने ग्रन्थ वेद हैं । योरप के विद्वान भी इस बात को मानते हैं कि ऋग्वेद कम -से -कम ४ ,००० (चार सहस्त्र ) वर्ष पुराना है और उससे पुराना कोई ग्रन्थ नहीं । ऋग्वेद पुकार कर कहता है कि सृष्टि के पहले यह जगत अंधकारमय था । उस तम के बीच में और उससे परे केवल एक ज्ञानस्वरूप स्वयम्भू भगवान विराजमान थे और उन्होंने उस अन्धकार में अपने आप को प्रकट किया और अपने तप से अर्थात ज्ञानमयी शक्ति के संचालन से सृष्टि को रचा ।
इसी वेद के अर्थ को मनु भगवान ने लिखा है कि सृष्टि के पहले यह जगत अंधकारमय था । सब प्रकार से सोता हुआ -सा दिखाई पड़ता था । उस समय जिनका किसी दूसरी शक्ति के द्वारा जन्म नहीं हुआ , जो आप अपनी शक्ति से सदा से वर्तमान हैं , उन ज्ञानमय , प्रकाशमय स्वयम्भू ने अपने आपको प्रकट किया और उनके प्रकट होते ही अंधकार मिट गया ।
सृष्टि में आदि में कार्य (स्थूल ) और कारण (सूक्ष्म ) से अतीत एकमात्र मैं (ब्रह्म ) ही था , मेरे सिवा और कुछ भी न था । सृष्टि के पश्चात भी मैं ही रहता हूँ और यह जो जगत्प्रपंच दीख पड़ता है , वह भी मैं ही हूँ तथा सृष्टि का संहार हो जाने पर जो कुछ बचा रहता है वह भी मैं ही हूँ ।
उस समय एक रूद्र ही थे , दूसरा कोई न था । उन जगत -रक्षक ने ही संसार की रचना करके अंत में उसका संहार कर दिया । पृथ्वी और आकाश को उत्पन्न करनेवाले एक महेश्वर देव ही हैं , वे ही सब देवताओं के कारण और उत्पत्ति के स्थान हैं । जो बिना आँख -कान के ही देखते और सुनते हैं , जो सब को जानते हैं तथा उन्हें कोई नहीं जानता , वे परम पुरुष कहे जाते हैं ।
वह एक ही आत्मा पुराणपुरुष , सत्य , स्वंयप्रकाशस्वरूप , अनन्त , सबका आदि कारण , नित्य , अविनाशी , निरंतर सुखी , माया से निर्लिप्त , अखंड , उपाधि से रहित तथा अमर हैं ।
जो वेद कहते हैं कि यह परमात्मा है वही यह भी कहते हैं कि उसको हम आँखों से नहीं देख सकते ।
उस अवयव रहित को विशुद्ध अन्तःकरणवाळा विशुद्ध अन्त :करण द्वारा ध्यान करता हुआ ज्ञान की निर्मलता से देख पाता है ।
इसलिए जो लोग ईश्वर को मन की आँखों (बुद्धि ) से देखना चाहते हैं , उनको उचित है कि वे अपने शरीर और मन को पवित्र कर और बुद्धि को विमलकर ईश्वर की खोज करें ।
हम देखते क्या है ?
हमारे सामने जन्म से लेकर शरीर छूटने के समय तक बड़े -बड़े चित्र -विचित्र दृश्य दिखाई पड़ते हैं , जो हमारे मन में इस बात को जानने की बड़ी उत्कण्ठा उत्पन्न करते हैं कि वे कैसे उपजते हैं और कैसे विलीन होते हैं ? हम प्रतिदिन देखते हैं कि प्रातः काल पौ -फट होते ही सहस्त्र किरणों से विभूषित सूर्यमण्डल पूर्व दिशा में प्रकट होता है और आकाश -मार्ग से विचरता , सारे जगत को प्रकाश , गर्मी और जीवन पहुँचाता , सांयकाल पश्चिम दिशा में पहुँचकर नेत्र पथ से परे हो जाता है । गणितशास्त्र के जाननेवालों ने गणना कर यह निश्चय किया है कि यह पृथ्वी से नौ करोड़ अट्ठाईस लाख तीस सहस्त्र मील कि दूरी पर है । यह कितने आश्चर्य की बात है कि यह इतनी दूरी से इस पृथ्वी के सब प्राणियों को प्रकाश , गर्मी और जीवन पहुँचाता है । ऋतु -ऋतु में अपनी सहस्त्र किरणों से पृथ्वी से जल को खींचकर सूर्य आकाश में ले जाता है और वहाँ से मेघ का रूप बनाकर फिर जल को पृथ्वी पर बरसा देता है और उसके द्वारा सब घास , पत्ती , वृक्ष , अनेक प्रकार के अन्न और धान तथा समस्त जीवधारियों को प्राण और जीवन देता है । गणितशास्त्र बतलाता है कि जैसा एक सूर्य है , ऐसे असंख्य और हैं और इससे बहुत बड़े -बड़े भी हैं , जो सूर्य से भी अधिक दूर होने के कारण हमको छोटे -छोटे तारों के समान दिखाई देते हैं । सूर्य के अस्त होने पर प्रतिदिन हमको आकाश में अनगिनत तारे -नक्षत्र -ग्रह चमकते दिखाई देते हैं । सारे जगत को अपनी किरणों से सुख देनेवाला चन्द्रमा अपनी शीतल चाँदनी से रात्रि को ज्योतिष्मती करता हुआ आकाश में सूर्य के समान पूर्व दिशा से पश्चिम दिशा को जाता है । प्रतिदिन रात्रि के आते ही दसों दिशाओं को प्रकाश करती हुई नक्षत्र -तारा -ग्रहों की ज्योति ऐसी शोभा धारण करती है कि उसका वर्णन नहीं किया जा सकता । ये सब तारा -ग्रह सूत में बँधे हुए गोलकों के समान अलंघनीय नियमों के अनुसार दिन -से -दिन , महीने -से -महीने , वर्ष -से -वर्ष , बँधे हुए मार्गों में चलते हुए आकाश में घूमते दिखाई देते हैं । यह प्रत्यक्ष है कि गर्मी कि ऋतु में यदि सूर्य तीव्र रूप से नहीं तपता तो वर्षाकाल में वर्षा अच्छी नहीं होती , यह भी प्रत्यक्ष है कि यदि वर्षा न हो तो जगत में प्राणिमात्र के भोजन के लिए अन्न और फल न हों । इससे हमको स्पष्ट दिखाई देता है कि अनेक प्रकार के अन्न और फल द्वारा इस जगत के प्राणियों के भोजन का प्रबंध मरीचिमाली सूर्य के द्वारा हो रहा है । क्या यह प्रबंध किसी विवेकवती शक्ति का रचा है , जिसको स्थावरजंगम सब प्रकार के प्राणियों को जन्म देना और पालना अभीष्ट है अथवा यह केवल जड़ पदार्थों के अचानक संयोग मात्र का परिणाम है ? क्या यह परम आश्चर्यमय गोलकमण्डल से उत्पन्न हुआ है और अपने आप आकाश में वर्ष -से -वर्ष , सदी -से -सदी , युग -से -युग घूम रहा है , अथवा इसके रचने और नियम से चलाने में किसी चैतन्य शक्ति का हाथ है ? बुद्धि कहती है कि 'हैं ', वेद भी कहते हैं कि 'है ' । वे कहते हैं कि सूर्य और चन्द्रमा को , आकाश और पृथ्वी को परमात्मा ने रचा ।
प्राणियों की रचना
इसी प्रकार हम देखते हैं कि प्राणात्मक जगत की रचना इस बात की घोषणा करती है कि इस जगत का रचनेवाला एक ईश्वर है । यह चैतन्य जगत अत्यंत आश्चर्य से भरा हुआ है । जरायु से उत्पन्न होने वाले मनुष्य , सिंह , हाथी , घोड़े , गौ , आदि ; अण्डों से उत्पन्न होने वाले पक्षी ; पसीने और मैल से पैदा होने वाले कीड़े ; पृथ्वी को फोड़कर उगनेवाले वृक्ष ; इन सबकी उत्पत्ति , रचना और इनका जीवन परम आश्चर्यमय है । नर और नारी का समागम होता है । उस समागम में नर का एक अत्यन्त सूक्ष्म किन्तु चैतन्य अंश गर्भ में प्रवेश कर नारी के एक अत्यन्त सूक्ष्म सचेत अंश से मिला जाता है । इसको हम जीव कहते हैं ।
एक बाल के आगे के भाग के खड़े -खड़े सौ भाग कीजिए और उन सौ में से एक के फिर सौ खड़े -खड़े टुकड़े कीजिए और इसमें से एक टुकड़ा लीजिए , तो आपको ध्यान में आवेगा कि उतना सूक्ष्म जीव है । यह जीव गर्भ में प्रवेश करने के समय से शरीर रूप से बढ़ता है । विज्ञान के जाननेवाले विद्वानों ने अनुवीक्षण यन्त्र से देखकर यह बताया है कि मनुष्य के वीर्य के एक विन्दु में लाखों जीवाणु होते हैं और उनमे से एक ही गर्भ में प्रवेश पाकर टिकता और वृद्धि पाता है । नारी के शरीर में ऐसा प्रबंध किया गया है कि यह जीव गर्भ में प्रवेश पाने के समय से एक नाली के द्वारा आहार पावे , इसकी वृद्धि के साथ -साथ नारी के गर्भ में एक जल से भरा थैला बनता जाता है जो गर्भ को चोट से बचाता है । इस सूक्ष्म -से -सूक्ष्म , अणु -से -अणु बाल के आगे के भाग दस हजारवें भाग के समान सूक्ष्म वास्तु में यह शक्ति कहाँ से आती है कि जिससे यह धीरे -धीरे अपने माता और पिता के समान रूप , रंग और सब अवयवों को धारण कर लेता है ? कौन सी शक्ति है , जो गर्भ में इसका पालन करती और इसको बढ़ाती है ? वह क्या अदभुत रचना है , जिससे बच्चे के उत्पन्न होने के थोड़े समय पूर्व ही माता के स्तनों में दूध आ जाती है ? कौन सी शक्ति है , जो सब असंख्य प्राणवन्तों को , सब मनुष्यों को , सब पशु -पक्षियों को ,सब कीट -पतंगों को , सब पेड़ -पल्लवों को पालती है और उनको समय से चारा और पानी पहुँचाती है ? कौन सी शक्ति है , जिससे चीटियाँ दिन में भी और रात में भी सीधी भीत पर चढ़ती चली जाती हैं ? कौन सी शक्ति है , जिससे छोटे -से -छोटे और बड़े -से -बड़े पक्षी अनन्त आकाश में दूर -से -दूर तक बिना किसी आधार के उड़ा करते हैं ?
नरों और नारियों की , मनुष्यों की , गौवों की , सिंहों की , हाथियों की , पक्षियों की , कीड़ों की सृष्टि कैसे होती है ? मनुष्यों से मनुष्य , सिंहों से सिंह , घोड़ों से घोड़े , गौवों से गौ , मयूरों से मयूर , हंसों से हंस , तोतों से तोते , कबूतरों से कबूतर , अपने -अपने माता -पिता के रंग -रूप अवयव लिए कैसे उत्पन्न होते हैं ? छोटे -से -छोटे बीजों से किसी अचिन्त्य शक्ति से बढ़ाये हुए बड़े और छोटे असंख्य वृक्ष उगते हैं तथा प्रतिवर्ष और बहुत वर्षों तक पत्ती , फल , फूल , रस , तैल , छाल और लकड़ी से जीवधारियों को सुख पहुँचाते , सैकड़ों , सहस्त्रों स्वादु , रसीले फलों से उनको तृप्त और पुष्ट करते , बहुत वर्षों तक श्वास लेते , पानी पीते , पृथ्वी और आकाश से आहार खींचते आकाश के नीचे झूमते -लहराते हैं ?
इस आश्चर्यमय शक्ति की खोज में हमारा ध्यान मनुष्य के रचे हुए एक घर की ओर जाता है । हम देखते हैं , हमारे सामने यह घर बना हुआ है । इसमें भीतर जाने के लिए एक बड़ा द्वार है । इसमें अनेक स्थानों में पवन और प्रकाश के लिए खिड़कियाँ तथा झरोखें हैं । भीतर बड़े -बड़े खम्बे और दालान हैं । धूप और पानी रोकने के लिए छतें और छज्जे बने हुए हैं । दालान -दालान में , कोठरी -कोठरी में , भिन्न -भिन्न प्रकार से मनुष्य को सुख पहुँचाने का प्रबंध किया गया है । घर के भीतर से पानी बाहर निकालने के लिए नालियाँ बनी हुई हैं । ऐसे विचार से घर बनाया गया है कि रहनेवाले को सब ऋतु में सुख देवे । इस घर को देखकर हम कहते हैं कि इसका रचनेवाला कोई चतुर पुरुष था , जिसने रहने वालों के लिये जो -जो प्रबंध आवश्यक था , उसको विचार कर घर रचा । हमने रचनेवाले को देखा भी नहीं , तो भी हमको इसका निश्चय होता है कि घर का रचनेवाला कोई था या है और वह ज्ञानवान , विचारवान पुरुष है ।
अब हम अपने शरीर की ओर देखते हैं । हमारे शरीर में भोजन करने के लिये मुँह बना है । भोजन चबाने के लिये दाँत बने हैं । भोजन को पेट में पहुँचाने के लिए गले में नली बनी है । उसी के पवन के मार्ग के लिए एक दूसरी नली बनी है । भोजन को रखने के लिए उदर में स्थान बना है । भोजन पचकर रुधिर का रूप धारण करता है , वह ह्रदय में जाकर इकठ्ठा होता है और वहाँ से सिर से पैर तक सब नसों में पहुँचकर मनुष्य के सम्पूर्ण अंग को शक्ति , सुख और शोभा पहुँचाता है । भोजन का जो अंश शरीर के लिए आवश्यक नहीं है , उसके मल होकर बाहर जाने के लिए मार्ग बना है । दूध , पानी या अन्य रस का जो अंश शरीर को पोसने के लिए आवश्यक नहीं है , उसके निकलने के लिए दूसरी नली बनी हुई है । देखने के लिए हमारी दो आँखें , सुनने के लिए दो कान , सूंघने को नासिका के दो रन्ध्र और चलने -फिरने के लिए हाथ -पैर बने हैं । संतान कि उत्पत्ति के लिए जनन -इन्द्रियाँ हैं । हम पूछते हैं - क्या वह परम आश्चर्यमय रचना केवल जड़ पदार्थों के संयोग से हुई है या इसके जन्म देने और वृद्धि में , हमारे घर के रचयिता के समान , किन्तु उससे अनन्तगुण अधिक किसी ज्ञानवान , विवेकवान , शक्तिमान , आत्मा का प्रभाव है ?
मन और वाणी की अदभुत शक्तियाँ
इसी विचार में डूबते और उतराते हुए हम अपने मन की ओर ध्यान देते हैं तो हम देखते हैं कि हमारा मन भी एक आश्चर्यमय वस्तु है । इसकी -हमारे मन की विचारशक्ति , कल्पनाशक्ति , गणनशक्ति , रचनाशक्ति , स्मृति , धी , मेधा , सब हमको चकित करती हैं । इस शाक्तियों से मनुष्य ने क्या -क्या ग्रन्थ लिखे हैं , कैसे -कैसे काव्य रचे हैं , क्या -क्या विज्ञान निकाले हैं , क्या -क्या आविष्कार किये हैं और कर रहे हैं । यह थोड़ा आश्चर्य नहीं उत्पन्न नहीं करता । हमारी बोलने ओर गाने की शक्ति भी हमे आश्चर्य में डुबा देती है । हम देखते हैं कि यह प्रयोजनवती रचनादृष्टि में सर्वत्र दिखाई पड़ती है ओर यह रचना ऐसी है कि जिसके अन्त तथा आदि का पता नहीं चलता । इस रचना में एक -एक जाति के शरीरों के अवयव ऐसे नियम से बिठाये गए हैं कि सारी सृष्टि शोभा से पूर्ण है । हम देखते हैं कि सृष्टि के आदि से जगत में एक कोई अदभुत शक्ति काम कर रही है , जो सदा से चली आयी है , सर्वत्र व्याप्त है और अविनाशी है ।
हमारी बुद्धि विवश होकर इस बात को स्वीकार करती है कि ऐसे ज्ञानात्मिका रचना का कोई आदि , सनातन , अज , अविनाशी , सत -चित -आनन्दस्वरूप , जगत -व्यापक , अनन्त -शक्ति -सम्पन्न रचयिता है । उसी एक अनिर्वचनीय शक्ति को हम ईश्वर , परमेश्वर , परब्रह्म , नारायण , भगवान , वासुदेव , शिव , राम , कृष्ण , विष्णु , जिहोवा , गॉड , खुदा , अल्लाह आदि सहस्त्रों नामों से पुकारते हैं ।
वह परमात्मा एक ही है
एक ही परमात्मा है , कोई उसका दूसरा नहीं । एक ही को विप्रलोग बहुत से नामों से वर्णन करते हैं । है एक ही , किन्तु उसको बहुत प्रकार से कल्पना करते हैं ।
विष्णु सहस्त्रनाम और शिव सहस्त्रनाम इस बात के प्रसिद्द उदाहरण हैं । युधिष्ठिर ने पितामह भीष्म से पूछा कि 'बताइए , लोक में वह कौन एक देवता है ? कौन सब प्राणियों का सबसे बड़ा एक शरण है ? कौन वह है , जिसकी स्तुति करते , जिसको पूजते मनुष्य का कल्याण होता है ?
भीष्म ने उन्हें बताया 'मनुष्य प्रतिदिन उठकर सारे जगत के स्वामी , देवताओं के देवता , अनन्त , पुरुषोत्तम की सहस्त्र नामों से स्तुति करे । सारे लोक के महेश्वर , लोक के अध्यक्ष (अर्थात शासन करनेवाले ), सर्वलोक में व्यापक विष्णु की , जो न कभी जन्में हैं , न जिनका कभी मरण होगा , नित्य स्तुति करता हुआ मनुष्य सब दुखों से मुक्त हो जाता है । जो सबसे बड़ा तेज है , जो सबसे बड़ा तप है , सबसे बड़ा ब्रह्म हैं और जो सब प्राणों के सबसे बड़े शरण हैं । जो पवित्रों में सबसे पवित्र , सब मंगल बातों के मंगल , देवताओं के देवता और सब प्राणी मात्र के अविनाशी पिता हैं ?'
इससे स्पष्ट है कि विष्णु सहस्त्रनाम तथा और ऐसे स्तोत्र सब एक ही परमात्मा कि स्तुति करते हैं । और मनुष्य मात्र को उचित है कि नित्य सांय -प्रातः उस परमात्मा का ध्यान करे और उसकी स्तुति करे ।
उसी एक की तीन संज्ञा हैं ब्रह्मा , विष्णु , महेश । ये उसी एक परमात्मा की तीन संज्ञा अर्थात नाम हैं ।
वे एक ही जनार्दन भगवान सृष्टि , पालन और संहार करनेवाले ब्रह्मा , विष्णु तथा शिव नाम की तीन संज्ञा प्राप्त करते हैं ।
भगवान नारायण अविनाशी , अनन्त , सर्वत्र व्यापक तथा माया से अलिप्त हैं , यह स्थावर -जंगमरूप सारा संसार उनसे व्याप्त है । उन जरारहित आदि देवता को कोई शिव , कोई सदा सत्यस्वरूप विष्णु और कोई ब्रह्मा कहते हैं ।
है विष्णो ! सृष्टि , पालन तथा संहार इन तीन गुणों के कारण मैं ही ब्रह्मा , विष्णु और शिव नामक तीन भेद से युक्त हूँ । हे हरे ! वास्तव में मेरा स्वरूप सदा भेदहीन है । मैं , आप , यह (ब्रह्मा ) तथा रूद्र और आगे जो कोई भी होंगे , इस सबका एक ही रूप है , उनमें कोई भेद नहीं है , भेद मानने से बंधन होता है ।
ब्रह्म का पूर्ण और अत्यन्त हृदयग्राही निरूपण -वेद , उपनिषद और पुराणों का सारांश -भागवत के एकादश स्कंध के तीसरे अध्याय में दिया हुआ है ।
राजा जनक ने ऋषियों से कहा - 'हे ऋणिगण ! आपलोग ब्रह्मज्ञानियों में श्रेष्ठ हैं , अतएव आप मुझे यह बताइए कि जिनको नारायण कहते हैं उन परब्रह्म परमात्मा का ठीक , स्वरूप क्या हे ?
पिप्पलायन ऋषि ने कहा - 'हे नृप ! जो इस विश्व के सर्जन , पालन और संहार का कारण हे परन्तु स्वंय जिसका कोई कारण नहीं है ; जो स्वप्न , जागरण और गहरी नींद कि दशाओं में भीतर और बाहर भी वर्तमान रहता है ; देह , इन्द्रिय , प्राण और ह्रदय आदि जिससे संजीवित होकर , अर्थात प्राण पाकर अपने -अपने कार्य में प्रवृत्त होते हैं , उसी परमतत्व को नारायण जानो । जैसे चिनगारियाँ अग्नि में प्रवेश नहीं पा सकतीं , वैसे ही मन , वाणी , आँखें , बृद्धि , प्राण और इन्द्रियाँ उस परमतत्व का ज्ञान ग्रहण करने में असमर्थ हैं और वहाँ तक पहुँच न सकने के कारण उसका निरूपण नहीं कर सकतीं ।
वह परमात्मा कभी जन्मा नहीं , न वह कभी मरेगा , न कभी बढ़ता है और न घटता है ; जन्म -मरण आदि से रहित वह सब बदलती हुई अवस्थाओं का साक्षी है । एवं सर्वत्र व्याप्त है , सब काल में रहा है और रहेगा , अविनाशी और ज्ञानमात्र है । जैसे प्राण एक है , तो भी इन्द्रियों के भिन्न होने से आँखें देखती हैं , कान सुनते हैं , नाक सूँघती है इत्यादि भावों के कारण एक -दूसरे से भिन्न प्रतीत होते हैं , ऐसे ही आत्मा एक होने पर भी भिन्न -भिन्न देहों में अवस्थित होने के कारण भिन्न प्रतीत होती है ।
जितने जीव जरायु से उत्पन्न होते हैं - मनुष्य , गौ , घोड़े , हाथी , सिंह , कुत्ते , भेड़ , बकरी आदि , जो पक्षी वर्ग अण्डों से उत्पन्न होते हैं , जो कीट वर्ग पसीने , मैल आदि से उत्पन्न होते हैं और जो वृक्ष वर्ग (पेड़ -विटप ) पृथिवी को फोड़कर उगते हैं , इस सबों में सम्पूर्ण सृष्टि में जहाँ -जहाँ जीव के साथ प्राण दौड़ता हुआ दिखाई देता है , वहाँ -वहाँ ब्रह्म है । जब सब इन्द्रियाँ सो जाती हैं , जब 'मैं हूँ ' यह अहंभाव भी लीन हो जाता है , उस समय को निर्विकार साक्षी रूप हमारे भीतर बैठा हुआ ध्यान में आता है और जिसका हमारे जागने कि अवस्था में 'हम अच्छे सोये ', 'यह सपना देखा ', इसप्रकार कि स्मृति होती है , वही ब्रह्म है , इत्यादि ।
यह ब्रह्म कहाँ है ?
एक ही परमात्मा सब प्राणियों के भीतर छिपा हुआ है , सबमें व्याप रहा है , सब जीवों के भीतर का अन्तरात्मा है , जो कुछ कार्य सृष्टि में हो रहा है , उसका नियंता है । सब प्राणियों के भीतर बस रहा है , सब संसार के कार्यों के साक्षी रूप में देखनेवाला , चैतन्य , केवल एक , जिसका कोई जोड़ नहीं और जो गुणों के दोष से रहित है ।
वेद , स्मृति , पुराण कहते हैं कि यह देवों का देव अग्नि में , जल में , वायु में , सारे भुवन में , सब औषधियों में , सब वनस्पतियों में , सब जीवधारियों में व्याप रहा है ।
वह परमदेव विश्व का रचनेवाला सदा प्राणियों के ह्रदय में स्थित है । अपने -अपने ह्रदय में स्थित इस महात्मा को शुद्ध ह्रदय से , विमल मन से अपने में विराजमान देखते हैं , वे अमर होते हैं ।
लोक में न उसका कोई स्वामी है , न उसके ऊपर आज्ञा चलानेवाला है , न उसका कोई चिन्ह है । वही सबका कारण है , उसका कोई कारण नहीं , उसको कोई उत्पन्न करने वाला नहीं , न उसका कोई रक्षक है ।
उस -सब सामर्थ्य और अधिकार रखनेवालों के सबसे बड़े परम ईश्वर , देवताओं के सबसे बड़े देवता , स्वामियों के सबसे बड़े स्वामी , सारे त्रिभुवन के स्वामी , परम पूजनीय देव को ऋषियों ने जाना है ।
इस विषय में याज्ञवलक्य मुनि ने सब वेदों का तत्व यों वर्णन किया है ।
एक सौ चौवालीस सहस्त्र हित और अहित नाम कि नाड़ियाँ प्रत्येक मनुष्य के ह्रदय से शरीर में दौड़ी हुई हैं । उसके बीच में चन्द्रमा के समान प्रकाश वाला एक मंदक है , उसके बीच में अचल दीप के समान आत्मा विराजमान है , उसी को जानना चाहिए । उसी का ज्ञान होने से मनुष्य आवागमन से मुक्त होता है ।
यह आत्मा मनुष्य से लेकर पशु -पक्षी , कीट -पतंग , वृक्ष -विटप समस्त छोटे -बड़े जीवधारियों में समानरूपी विराजमान है ।
ब्रह्म कि ज्योति अपने भीतर ही है , वह सब जीवधारियों में एक सम है , मनुष्य मन को अच्छी तरह शान्त और स्थिर कर उसी में उसको देख सकता है ।
वही पण्डित है , जो विनाश होते हुए मनुष्य के बीच में विनाश न होते हुए सब जीवधारियों में बैठे हुए परमेश्वर को देखता है ।
सब ज्योतियों की वह ज्योति , समस्त अंधकार के परे चमकता हुआ , ज्ञानस्वरूप , जानने के योग्य , जो ज्ञान से पहचाना जाता है , ऐसा वह परमात्मा सब का सुहृद , सब प्राणियों के ह्रदय में बैठा है ।
ऐसे घट -घट व्यापक उस एक परमात्मा की मनुष्यमात्र को विमल भक्ति के साथ उपासना करनी चाहिए और यह ध्यान कर कि वह प्राणिमात्र में व्याप्त है , प्राणिमात्र से प्रीति करनी चाहिए । सब जीवधारियों को प्रेम की दृष्टि से देखना चाहिए ।
अतएव सबको अपने ही समान सुख -दुःख होता है , ऐसी बुद्धि धारण करके सब प्राणियों के आत्मा और ईश्वर भगवान श्रीहरि की भक्ति करो । दैत्य , यक्ष , राक्षस , स्त्रियाँ , शूद्र , व्रजवासी गोपाल , पशु , पक्षी और अन्य पातकी जीव भी भगवान अच्युत की भक्ति से निस्संदेह मोक्ष को प्राप्त हो गये हैं । गोविन्द भगवान के प्रति एकांत -भक्ति करना और चराचर समस्त प्राणियों में भगवान है , ऐसी भावना करना ही इस लोक में सबसे उत्तम स्वार्थ है ।
सनातनधर्म का मूल
यह ज्ञान कि भगवान सब प्राणियों के ह्रदय में स्थित हैं , सम्पूर्ण सनातन धर्म का सदा से चला आता हुआ और सदा रहनेवाला मूल है ।
विद्या और विनय से युक्त ब्राह्मणों में , गौ -बैल में , हाथी में , कुत्ते में और चाण्डाल में पण्डित लोग समदर्शी होते हैं , अर्थात सुख -दुःख के विषय में उनको समान भाव से देखते हैं ।
जो पुरुष सबके सुख -दुःख के विषय में अपनी उपमा से समान दृष्टि से देखता है , उसी को सबसे बड़ा समझना चाहिए ।
धर्म का सर्वस्व सुनो और सुनकर इसके अनुसार आचरण करो । जो अपने को प्रतिकूल जान पड़े , जिस बात से अपने को पीड़ा पहुँचे , उसको दूसरों के प्रति न करो ।
दूसरे के प्रति हमको वह काम नहीं करना चाहिए जिसको यदि दूसरा हमारे प्रति करे , तो हमको बुरा मालूम हो या दुःख हो । संक्षेप में यही धर्म है ; इसके अतिरिक्त दूसरे सब धर्म किसी बात की कामना से किये जाते हैं ।
जो चाहते है कि मैं जीऊँ , वह कैसे दूसरे के प्राण हरने का मन करे ! जो -जो बात मनुष्य अपने लिए चाहता है , उसको चाहिए कि वही -वही बात औरों के लिए भी सोचे ।
अहिंसा , सत्य , अस्तेय धर्म , जिनका समय में पालन करना सब प्राणियों के लिए विहित है और जिनके उलंघन करने से आदमी नीचे गिरता है , इन्हीं सिद्धांतों पर स्थित हैं । इन्हीं सिद्धांतों पर वेदों में गृहस्थों के लिए पंचमहायज्ञ का विधान किया गया है कि जो भूल से भी किसी निर्दोष जीव की हिंसा हो जाय , तो हम उसका प्रायश्चित करें । जो हिंसक जीव हैं , जो हमारा या किसी दूसरे निर्दोष प्राणी का प्राणाघात करना चाहते हैं या उनका धन हरना या धर्म बिगाड़ना चाहते हैं , जो हम पर या हमारे देश पर , हमारे गाँव पर आक्रमण करते हैं या जो आग लगाते हैं या किसी को विष देते हैं - ऐसे लोग आततायी कहे जाते हैं । अपने या अपने किसी भाई या बहिन के प्राण , धन , धर्म , मान की रक्षा के लिए ऐसे आततायी पुरुषों या जीवों का आवश्यकता के अनुसार आत्मरक्षा के सिद्धांत पर वध करना धर्म है । निरपराधी , अहिंसक जीवों की हिंसा करना अधर्म है ।
इसी सिद्धांत पर वेद के समय से हिन्दू लोग सारी सृष्टि के निर्दोष जीवों के साथ सहानुभूति करते आये हैं । गौ को हिन्दू लोकमाता कहते हैं , क्योंकि वह मनुष्य जाति को दूध पिलाती है और सब प्रकार से उनका उपकार करती है । इसलिए उसकी रक्षा करना तो मनुष्य मात्र का विशेष कर्तव्य है , किन्तु किसी भी निर्दोष या निरपराध प्राणी को मारना , किसी का धन या प्राण हरना , किसी के साथ अत्याचार करना , किसी को झूठ से ठगना , ऊपर लिखे धर्म के परम सिद्धांत के अनुसार अकार्य , अर्थात न करने की बातें हैं । और अपने समान सुख -दुःख का अनुभव करनेवाले जीवधारियों की सेवा करना , उनका उपकार करना , यह त्रिकाल में सार्वलौकिक सत्य धर्म है ।
इसी मूल सिद्धांत के अनुसार वेद धर्म के माननेवालों को उपदेश दिया गया है कि वह केवल मनुष्यों को ही नहीं , किन्तु पशु -पक्षियों तथा समस्त जीवों को बलिवैश्वदेव के द्वारा नित्य कुछ आहार पहुँचाना अपना धर्म समझे । और यज्ञों को करने के बाद मनुष्य अपनी इच्छा के अनुसार दूसरा अन्न ले , पृथिवी के पवित्र भाग में रख फिर सावधानता पूर्वक समस्त जीवों के लिए बलि दे । और यों कहें - 'देवता , मनुष्य , पशु , पक्षी , सिद्ध , यक्ष , सर्प , नाग , अन्य भूत समूह , प्रेत , पिशाच तथा सम्पूर्ण वृष तथा चींटी , कीड़े और पतंगे आदि जीव जो कर्मबंधन में बंधे हुए भूखे तड़प रहे हों और मुझसे अन्न चाहते हों , उनके लिए यह अन्न मैंने रख छोड़ा है , इससे उनकी तृप्ति हो और वो सुखी हों । सब जीव , यह अन्न और मैं सब विष्णु ही हैं , उसने अन्य कुछ भी नहीं है , इस कारण मैं जीवों के शरीरभूत इस अन्न को उन प्राणियों कि रक्षा के लिए देता हूँ । यह जो चौदह प्रकार का भूतों का जो समूह है , इसमें जो सम्पूर्ण जीव -समूह स्थित हैं , उनकी तृप्ति के लिए मैंने यह अन्न दिया है । वे प्रसन्न हों ।' मनुष्य यों कहकर प्राणियों के उपकारार्थ पृथ्वी पर श्रद्धापूर्वक अन्न दे , क्योंकि गृहस्थ सबका आधार होता है ।
इसी धर्म के अनुसार सनातनधर्मी नित्य तर्पण करने के समय न केवल अपने पितरों का तर्पण करते हैं , किन्तु समस्त ब्रह्माण्ड के जीवधारियों का ।
देवता , दैत्य , यक्ष , नाग , गन्धर्व , राक्षस , पिशाच , गुहाक , सिद्ध , कुष्मांड , वृक्ष -वर्ग , पक्षीगण , जल में रहनेवाले जीव , बिल में रहनेवाले जीव , वायु के आधार पर रहनेवाले जन्तु , ये सब मेरे दिए हुए जल से तृप्त हों । समस्त नरकों कि यातना में जो प्राणी दुःख भोग रहे हैं , उनके दुःख शान्त करने कि इच्छा से मैं यह जल देता हूँ । जो मेरे बधु -बांधव न रहे हों और जो किसी और जन्म में मेरे बांधव रहे हों , उनकी तृप्ति के लिए और उनकी तृप्ति के लिए भी जो मुझसे जल पाने कि इच्छा रखते हों , मैं यह जल अर्पण करता हूँ ।
वैश्यदेव में जो अन्न कुत्ते और कौवों के लिए निकाला जाता है , उसको छोड़कर शेष बलि कि मात्रा बहुत कम होती है , इसलिए यह 'सर्वभूतेभ्य :' सब प्राणियों को पहुँच नहीं सकता । तथापि यह जानते हुए भी - बलिवैश्वदेव का करना प्रत्येक गृहस्थ का कर्तव्य इसलिए माना गया है कि वह उस पवित्र , उदार भाव को प्रकट करता है कि मनुष्य मानता है कि उसका सब जीवधारियों से भाईपन का सम्बन्ध है और इस भाव को आँसुओं के समान प्रेम के जल से नित्य सींचकर जगत के आकाश में जीवधारी मात्र में परस्पर भाईपन का भाव स्थापित करने का उत्कृष्ट और प्रशंसनीय मार्ग है ।
इस धर्म की उदारता की प्रशंसा कौन कर सकता है ? इसकी उदारता इस धर्म के बड़े -से -बड़े परम पूजित आचार्य महर्षि वेदव्यास की , जो 'सर्वभूतहिते रतः ' सब प्राणियों के हित में निरत रहते थे । उन्हीं का उद्घोष है -
"सब प्राणी सुखी हों , सब नीरोग रहें , सब सुख -सौभाग्य देखें , कोई दुखी न हो ।"
उसी धर्म के प्राणाधार भगवान श्रीकृष्णचन्द्र ने सारे जगत के प्राणियों को यह निमंत्रण दे दिया है कि - "सब और धर्मों को छोड़कर तुम मुझ एक कि शरण में आओ । मैं तुमको सब पापों से छुड़ा लूँगा । सोच मत करो ।' मैं सब प्राणियों के लिए समान हूँ । न किसी से द्वेष करता हूँ , न कोई मेरा प्यारा है । जो मुझको भक्ति से भजते हैं , वे मुझमें हैं और मैं उनमें हूँ ; पापी -से -पापी भी क्यों न हो , यदि वह और सबको छोड़कर मेरा ही भजन करता है , तो उसको साधु ही मानना चाहिए । थोड़े ही समय में वह धर्मात्मा हो जायगा और उसको शाश्वती शान्ति मिल जायगी । हे अर्जुन ! मैं प्रतिज्ञा करके कहता हूँ , जो मेरा भक्त है , उसका बुरा नहीं होगा । हे कुन्ती के पुत्र ! मेरी शरण में आकर जो पापयोनि से उत्पन्न प्राणी भी हैं और स्त्री , वैश्य और शूद्र - ये भी निश्चय सबसे ऊँची गति को पायंगे ।
धन्य हैं वे लोग , जिनको इस पवित्र और लोक - प्रेम से पूर्ण धर्म का उपदेश प्राप्त हुआ है । मेरी यह प्रार्थना है कि इस ब्रह्मज्योति कि सहायता से सब धर्मशील जन अपने ज्ञान को विशुद्ध और अविचल कर और अपने उत्साह को नूतन और प्रबल कर सारे संसार में इस धर्म के सिद्धांतों का प्रचार करें और समस्त जगत को यह विश्वास करा दें कि सबका ईश्वर एक ही है और वह अंशरूप से न केवल सब मनुष्यों में , किन्तु समस्त जरायुज , अण्डल , स्वदेज , उद्भिज , अर्थात मनुष्य , पशु , पक्षी , कीट , पतंग , वृक्ष और विटप सबमें समान रूप से अवस्थित है और उसकी सबसे उत्तम पूजा यही है कि हम प्राणिमात्र में ईश्वर का भाव देखें , सबसे मित्रता का भाव रखें और सबका हित चाहें । सार्वजनीन प्रेम से इस सत्य ज्ञान के प्रचार से ईश्वरीय शक्ति का संगठन और विस्तार करें । जगत में ज्ञान को दूर करें , अन्याय और अत्याचार को रोकें और सत्य , न्याय और दया का प्रचार कर मनुष्यों में परस्पर प्रीति , सुख और शान्ति बढ़ाएँ ।
" गीता धर्म की निधि है "
मेरा विश्वास है कि मनुष्य जाति के इतिहास में सबसे उत्कृष्ट ज्ञान और अलौकिक शक्ति - संपन्न पुरुष भगवान श्रीकृष्ण हुए हैं । मेरा दूसरा विश्वास यह है कि पृथ्वी मण्डल की प्रचलित भाषाओँ में उन भगवान श्रीकृष्ण की कही हुई भगवद्गीता के समान छोटे वपु में इतना विपुल ज्ञानपूर्ण कोई दूसरा ग्रन्थ नहीं है ।
वेद और उपनिषदों का सार , इस लोक और परलोक दोनों में मंगलमय मार्ग का दिखानेवाला , कारण , ज्ञान और भक्ति - तीनों मार्गों द्वारा मनुष्य को परमश्रेय के साधन का उपदेश करनेवाला , सबसे ऊंचे ज्ञान , सबसे विमल भक्ति , सबसे उज्जवल कर्म , यम , नियम , त्रिविध ताप , अहिंसा , सत्य और दया के उपदेश के साथ -साथ धर्म के लिए धर्म का अवलम्बन कर , अधर्म को त्यागकर युद्ध करने का उपदेश करनेवाला यह अद्भुत ग्रन्थ है - जिसमें १८ छोटी अध्यायों में इतना सत्य , इतना ज्ञान , इतने ऊँचे गम्भीर सात्विक उपदेश भरे हैं , जो मनुष्य -मात्र को नीची -से -नीची दशा से उठाकर देवताओं के स्थान में बैठा देने की शक्ति रखते हैं । मेरे ज्ञान में पृथिवी मण्डल पर ऐसा कोई दूसरा ग्रन्थ नहीं है , जैसा भगवद्गीता है । गीता धर्म की निधि है । केवल हिन्दुओं की ही नहीं , किन्तु सारे जगत में मनुष्यों की निधि है । जगत के अनेक देशों के विद्वानों ने इसको पढ़कर लोक की उत्पत्ति , स्थिति और संहार करनेवाले परम पुरुष का शुद्ध सर्वोत्कृष्ट ज्ञान और उनके चरणों में निर्मल निष्काम परम भक्ति पप्राप्त की है । वे पुरुष और स्त्री बड़े भाग्यवान हैं , जिनको इस संसार के अन्धकार से भरे घने मार्गों में प्रकाश दिखानेवाला यह छोटा , किन्तु अक्षय स्नेह से पूर्ण धर्म -प्रदीप प्राप्त हुआ है । जिनको यह धर्म -प्रदीप (धर्म की लालटेन ) प्राप्त है , उनका यह भी धर्म है कि वे मनुष्यमात्र को इस परम पवित्र ग्रन्थ को पहुँचाने का प्रयत्न करें ।
मेरी यह अभिलाषा और जगदाधार जगदीश से प्रार्थना है कि मैं अपने जीवन में यह समाचार सुन लूँ कि बड़े -से -बड़े से लेकर छोटे -से -छोटे तक प्रत्येक हिन्दू -संतान के घर में एक भगवद्गीता की पोथी भगवान की मूर्ति के समान भक्ति और भावना के साथ रक्खी जाती है । और मैं यह भी सुनूँ कि और -और धर्मों के माननेवाले इस देश के तथा पृथिवी मण्डल के और सब देशों के निवासियों में भी भगवद्गीता के प्रचार का इस कार्य के महत्व के उपयुक्त सुविचारित और भक्ति , ज्ञान और धन से सुसमर्थित प्रबंध हो गया है ।
श्रीमद्भगवद्गीता कि महिमा
श्रीमद्भवद्गीता की महिमा मैं क्या लिखूँ ? उसके आदि के तीन श्लोकों में जो महिमा कह दी गयी है , उसके बराबर कौन कह सकता है ? उन तीन श्लोकों को कितनी ही बार पढ़ चुकने पर भी जब उनका स्मरण होता है , मन में अद्भुत भाव उदित होते हैं । कोई अनुवाद उन श्लोकों की गम्भीरता और मधुरता को पा नहीं सकता ।
मुझको श्रीमद्भगवद्गीता से अत्यंत प्रेम है । मेरा विश्वास और अनुभव है कि इसके पढ़ने और सुनने से मनुष्य को ईश्वर का सच्चा ज्ञान प्राप्त होता है और उनके चरण -कमलों में अचल भक्ति होती है । इसके पढ़ने से मनुष्य को दृढ़ निश्चय हो जाता है कि इस संसार को रचने और पालन करनेवाली कोई सर्वव्यापक शक्ति है ।
इसी एक शक्ति को लोग ईश्वर , ब्रह्म , परमात्मा इत्यादि अनेक नामों से पुकारते हैं । भागवत के पहले ही श्लोक में वेद व्यास जी ने ईश्वर के स्वरुप का वर्णन किया है कि 'जिससे इस संसार कि सृष्टि , पालन और संहार होते हैं , जो त्रिकाल में सत्य है , अर्थात जो सदा रहा भी , है और रहेगा भी - और जो अपने प्रकाश से अन्धकार को सदा दूर रखता है , उस परम सत्य का हम ध्यान करते हैं ।' उसी स्थान में श्रीमद्भगवद्गीता का स्वरुप भी इसप्रकार से संक्षेप में वर्णित है कि इस भागवत में - जो दूसरों की बढ़ती देखकर डाह नहीं करते , ऐसे साधुजनों का सब प्रकार के स्वार्थ से रहित परम धर्म और वह जानने के योग्य ज्ञान वर्णित है , जो वास्तव में सब कल्याण का देनेवाला और आधिभौतिक , आधिदैविक और आध्यात्मिक - इन तीनों प्रकार के ताप को मिटानेवाला है । और ग्रंथों से क्या , जिन सुकृतियों नें पुण्य कर्म कर रक्खे हैं और जो श्रद्धा से भागवत को पढ़ते या सुनते हैं , वे इसका सेवन करने के समय से ही अपनी भक्ति से ईश्वर को अपने ह्रदय में अविचल रूप से स्थापित कर लेते हैं । ईश्वर का ज्ञान और उसमें भक्ति परम साधन - ये दो पदार्थ जब किसी प्राणी को प्राप्त हो गए , तो कौन -सा पदार्थ रह गया , जिसके लिए मनुष्य कामना करे और ये दोनों पदार्थ श्रीमद्भगवद्गीता से पूरी मात्रा में प्राप्त होते हैं । इसलिए यह पवित्र ग्रन्थ मनुष्यमात्र के लिए उपकारी है । जबतक मनुष्य भागवत को पढ़ें नहीं और इसमें उसकी श्रद्धा न हो , तबतक वह समझ नहीं सकता कि ज्ञान -भक्ति -वैराग्य का यह कितना विशाल समुद्र है । भागवत के पढ़ने से उसको यह विमल ज्ञान हो जाता है कि एक ही परमात्मा प्राणी -प्राणी में बैठा हुआ है और जब उसको यह ज्ञान हो जाता है , तब वह अधर्म करने का मन नहीं करता ; क्योंकि दूसरों को चोट पहुँचाना अपने को चोट पहुँचाने के समान हो जाता है । इसका ज्ञान होने से मनुष्य सत्य धर्म में स्थिर हो जाता है , स्वभाव से ही दया धर्म का पालन करने लगता है और किसी अहिंसक प्राणी के ऊपर वार करने कि इच्छा नहीं करता । मनुष्यों में परस्पर प्रेम और प्राणिमात्र के प्रति दया का भाव स्थापित करने के लिए इससे बढ़कर कोई साधन नहीं । वर्तमान समय में , जब संसार के बहुत अधिक भागों में भयंकर युद्ध छिड़ा हुआ है , मनुष्यमात्र को इस पवित्र धर्म का उपदेश अत्यंत कल्याणकारी होगा । जो भगवद्भक्त हैं और श्रीमद्भागवत के महत्व को जानते हैं , उनका यह कर्तव्य है कि मनुष्य के लोक और परलोक दोनों के बनानेवाले इस पवित्र ग्रन्थ का सब देशों कि भाषाओँ में अनुवाद कर इसका प्रचार करें ।