महामना मालवीय जी का जीवन दर्शन
आचार्य बलदेव उपाध्याय
मालवीय जी महाराज के जीवन दर्शन की रूप रेखा इतनी समुज्ज्वल तथा अभिव्यक्त है कि उसके समझने के लिये विशेष आयास करने की आवश्यकता नहीं । इनके समीप में आनेवाले व्यक्तियों के लिये उसका विश्लेषण करना विशेष प्रयास साध्य नहीं है ।
हम यहां महामना के 'जीवन दर्शन' की चतुःसूत्री संक्षेप में उपस्थित कर रहे हैं । इस चतुःसूत्री का प्रथम सूत्र है- आस्तिक्य- शास्त्र तथा तत्प्रतिपाद्य ईश्वर में अभ्रान्त श्रद्धा । मालवीय जी को ईश्वर की सत्ता तथा क्रियाशीलता में अटूट विश्वास था और यह विश्वास ही उनके सात्विक जीवन के महती कार्यों की सिद्धि का मूलमन्त्र था । विश्वविद्यालय के ऊपर आर्थिक संकटों का व्यूह खड़ा हो जाता था, परंतु क्या मजाल कि महामना को इनकी रंच भी चिन्ता हो । वे विचारतः तथा कार्यतः दोनों दृष्टियों से आस्तिक थे । वे हमेशा कहा करते थे कि विश्वविद्यालय की स्थापना काशी में बाबा विश्वनाथ जी की अनुग्रह का स्रोत तो कभी सूख ही नहीं सकता । वह तो अजस्त्र प्रवाहित होता रहेगा । उसी के बल पर तो उनकी नगरी काशी में ही इस शिक्षा-संस्थान की स्थापना की गयी है । अनेक बार भारत के गणमान्य दार्शनिकों को मालवीय जी ने अपनी दार्शनिक युक्ति तथा तर्क-प्रणाली से चमत्कृत कर दिया था । दर्शन उनका विषय नहीं था, परंतु उन्होंने विश्वविद्यालय में समाहूत 'आल इण्डिया फिलासॉफिकल कांग्रेस' (द्वितीय अधिवेशन) एक विशिष्ट दार्शनिकों को 'ईश्वरसिद्धि' पर अपने दार्शनिक भाषण से इतना प्रभावित किया कि जीवन भर दर्शन का अध्ययन-अध्यापन करनेवाले ये तत्ववेत्ता विद्वान हतप्रभ से हो गये और महामना की अद्भुत दार्शनिक युक्तियों को सुनकर वे चमत्कृत हो उठे । मालवीय जी की दार्शनिक विचारधारा का अभ्रान्त स्रोत श्रीमद्भागवत था । वे भगवत के मर्मज्ञ विद्वान तथा सरस व्याख्याता थे । इस पुराण की कमनीय स्तुतियाँ उनकी जिह्वा पर नाचती थीं । दर्शन के अध्यापकगण तो ईश्वर के आस्ति-नास्ति के विषय में अनिल तर्क उपस्थित करने में लगे थे, परंतु मालवीय जी ने भागवत के आधार पर ईश्वर की सिद्धि के विषय में इतना अकाट्य प्रमाण, प्रबल युक्ति, बोधगम्य भाषा में प्रस्तुत किया कि श्रोतागण अवाक रह गये । मालवीय जी अपने जीवन के व्यवहारों में भी पूर्ण आस्तिक थे । ईश्वर पर असीम श्रद्धा रखते थे । एक वास्तविक घटना का निर्देश यहाँ असामयिक न होगा ।
विश्वविद्यालय के आरम्भिक जीवन में उसके ऊपर १६ लाख रुपयों का सरकारी कर्जा लद गया था जिसका सालाना सूद ही इस शिशु-संस्था की रीढ़ तोड़ने के लिये पर्याप्त था । मालवीय जी इस आर्थिक संकट से नितान्त व्यग्र थे । कई बार अंग्रेजी सरकार से सहायता की अपील की गयी, परंतु सब व्यर्थ । एक दिन दोपहर से पहले मालवीय जी पण्डित रामव्यास जी पाण्डेय के साथ विश्वनाथजी के मन्दिर में दर्शन के निमित्त गये । एक कोने में खड़े होकर वे भगवान की स्तुति करने लगे । मुख से निकल रहा था विमल श्लोकों का प्रवाह और उधर विश्वनाथ जी के मध्याह्न भोजन की वेला उपस्थित हो गयी । पण्डे लोग स्वभावतः व्यग्र हो उठे । संकेत दिलाने पर मालवीय जी अपने भक्ति-प्रवाह के थाह में आये । मन्दिर से छूटते ही उन्होंने कहा कि कर्जा चुकता हो गया । विश्वनाथ जी ने रूपया दिलवा दिया है । घर पोतने पर आश्चर्य का ठिकाना न रहा, तत्कालीन शिक्षा-सचिव सर गिरिजाशंकर वाजपेयी का टेलीफोन इसी विषय में आया कि सरकार ने तीन वर्षों में कर्जा चुकता कर देने के लिये स्वीकार कर लिया है । ऐसा था अभ्रान्त विश्वास महामना का दैवी अनुग्रह के ऊपर!
कर्तव्यनिष्ठा- उनके जीवन का दूसरा सूत्र था । जिस कार्य का सम्पादन उनके लिये अनिवार्य था उसमें मालवीय जी इतनी लगन से लग जाते थे कि सफलता वेश्या की तरह उनके पीछे लोटती-फिरती थी । इस विषय में वे भीष्मस्तवराज का यह प्रसिद्ध श्लोक अपना आदर्श-वाक्य (मोटो) मानते थे जिसमें ब्रह्म को कार्यरूप बतलाया गया है-
अकुण्ठं सर्वकार्येषु धर्मकामार्थमुद्यतम् ।
वैकुण्ठस्य च यद्रूपं तस्मै कार्यात्मने नमः ।।
चाहे किसी धार्मिक कृत्य का सम्पादन हो और चाहे किसी राजनैतिक कार्य का, वे समान अश्रांत निष्ठा से उन कार्यों का सम्पादन करते थे । विश्वविद्यालय की स्थापना का एक बार जब उन्होंने त्रिवेणी के पावन तट पर संकल्प कर लिया, तब उनकी उपासना का, अनुष्ठान का बस वाही एकमात्र विषय था । लोगों ने उनकी खिल्लियाँ उड़ाई, नाना प्रकार से उनकी योजना को 'खयाली पुलाव' नाम देकर तिरस्कृत वास्तु की कोटि में परिगणित किया, परंतु महामना के चित पर इन विरुद्ध आलोचनाओं का तनिक भी प्रभाव नहीं पड़ा । वे अपने कार्य में अधिक निष्ठा से लग गए जिसका ज्वलन्त दृष्टान्त है यह विशाल हिन्दू विश्वविद्यालय । इस प्रसंग में रोचक बात लिखनी है । गर्मी के दिनों में मालवीय जी नैनीताल अक्सर जाय करते थे । उस साल प्रयाग के गणमान्य वकीलों की मण्डली के साथ वे नैनीताल पहुँचे जिसमें सर सुन्दरलाल, मुंशी ईश्वरशरण आदि प्रख्यात वकील सम्मिलित थे । विश्वविद्यालय की चर्चा उस समय जोरों पर थी,परन्तु प्रायः लोग उसे कल्पना जगत की वस्तु से अधिक महत्व नहीं देते थे । हँसी खेल में ही एक शाम को सर सुन्दरलाल पूछ बैठे- Well, Malav।ya jee when ।s your toy un।vers।ty com।ng ।nto be।ng? अर्थात आपका गुड़िया विश्वविद्यालय कब जन्म ले रहा है । कर्तव्यनिष्ठ मालवीय जी ने तुरन्त उत्तर दिया- My un।vers।ty ।s born to come ।nto be।ng ।n no d।stant future and you, S।r Sunderlaljee, w।ll be ।ts f।rst V।ce-Chancellor, अर्थात, मेरा विश्वविद्यालय नातिदूर भविष्य में उत्पन्न होगा और सुन्दरलाल जी, आप ही इसके प्रथम कुलपति होंगे । मालवीय जी की इस कर्तव्यनिष्ठा पर, इस सहज-सलोने उत्तर पर, वह विद्वनमण्डली चमत्कृत हो उठी और सचमुच महामना के वाक्य शीघ्र ही चरितार्थ हुए । इस योजना के विदूषक सर सुन्दरलाल इसके सूत्रधार बने तथा इसके कुलपति भी । मालवीय जी की वाणी अमोघ सिद्ध हुई ।
उत्साह- उनके जीवन-दर्शन का तीसरा सूत्र था । वे अदम्य उत्साह के सदा प्रगतिशील उत्स थे । उनकी वाणी में, उनके कार्य में तथा उनके मन में- इन तीनों स्तरों पर उत्साह विलसित होता था । जान पड़ता था कि 'विषाद' शब्द उनके कोश में कहीं भी विद्यमान नहीं था । वे कभी विषाद को जानते ही नहीं थे । विषण्ण होना उनके स्वभाव के सर्वथा प्रतिकूल था । मालवीय जी के दिव्यवचन आज भी हमारे कर्णकुहरों में गूँज रहे हैं जिन्हें दीर्घ रोग से क्षीणकाय होने पर भी उन्होंने पण्डितों से कहा था- आज मेरा शरीर इस रोग के कारण अवश्य ही क्षीण और निर्बल हो गया है, परन्तु मुझे पूर्ण विश्वास है है कि मैं पूर्ववत स्वस्थ हो जाऊँगा । पतझड़ के दिनों में पीपल का पत्ता झड़ने लगता है । वह केवल एक निष्पत्र स्थाणु (ठूँठ) रह जाता है । परन्तु शीघ्र ही उसमें नई-नई कोमल पत्तियाँ निकल आती हैं । उसे देखकर मैं जीवन से हताश नहीं होता । मेरी क्षीणकाया पुनः पूर्ववत बल-सम्पन्न तथा पुष्ट हो जायगी । मुझे पूर्ण विश्वास है ।
यहाँ महामना के उन वचनों को याद करें । वे कहा करते थे कि जब तक असफलता मनुष्य की छाती पर बैठकर उसका गला न घोंटे, जब तक आशा को एक फीकी भी दूरस्थ क्षितिज पर दिख पड़े, तब तक मनुष्य को निराश नहीं होना चाहिये, प्रत्युत पूर्ण उत्साह के साथ काम में डट जाना चाहिये । विश्वास रखें वह काम सिद्ध होकर ही रहेगा । इस विषय में उनका प्रिय श्लोक था-
उत्थातव्यं जागृतव्यं योक्तव्यं भूतिकर्मसु ।
भविष्यतीत्येव मनः कृत्वा सततमव्यथैः ।।
'काम होकर ही रहेगा'- यह मान करके सतत व्यथाहीन होकर मानवों को उठना चाहिये; जागना चाहिये तथा कल्याणप्रद कामों मने निरन्तर लग्न चाहिये ।
महामना इस श्लोक के समुज्ज्वल उदाहरण थे । निराशा वे कभी जानते ही नहीं थे । कार्य के सम्पादन में व्यथा उन्हें कभी पीड़ा नहीं पहुँचाती थी । वे सोच ही नहीं सकते थे कि यदि कार्य विधिवत किया जाय, तो वह किस प्रकार सिद्ध नहीं हो सकता ।
आत्मविश्वास- उनके जीवन-दर्शन का चतुर्थ सूत्र है । अपने ऊपर, अपनी शक्तियों के ऊपर अटूट विश्वास उनमें कूट-कूट कर भरा था । इसका उपदेश वे सदा दिया करते थे- गीता प्रवचन के अवसर पर इस विषय में उनका प्रिय श्लोक था-
उद्धरेदात्मना त्मानं नात्मानमवसादयेत ।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ।।
(गीता ६.५)
'आत्मावसाद' बड़ी ही बुरी वस्तु है और आत्मविश्वास बड़ा ही महनीय पदार्थ है । आत्मा अनन्त शक्तियों का निकेतन है । विश्व की समस्त शक्तियाँ आत्मा में अन्तर्हित रहती है । आवश्यकता है उनके उद्बोधन की, उन्हें जगाने की । महामना आत्विश्वास की जाग्रत मूर्ति थे । विश्वविद्यालय की सिद्धि में इस मन्त्र ने बढ़ा ही महत्वपूर्ण कार्य किया । मालवीय जी को अपने उद्देश्य की पवित्रता में पूर्ण विश्वास था । इसी गुण के कारण उन्होंने अनेक विषम विपत्तियों को दूर भगाया तथा जीवन में अनेक विजय प्राप्त की । विश्वविद्यालय की स्थापना के अवसर पर गांधी जी को महामना ने इसी सदगुण के कारण लोगों की दृष्टि में सम्मानित किया था । लेखक ने के बार साहस बटोर कर उनके जीवन-दर्शन के विषय में यह पूछा था- महाराज, आपने स्वार्थ तथा परमार्थ का, सिद्धांत तथा लोकव्यवहार का अपने जीवन में अद्भुत सामंजस्य उपस्थित किया है । हम लोग एक ओर झुकते हैं तो दूसरा दृष्टि से ओझल हो जाता है । इस विषय में आपका उपदेश क्या है? महामना ने छूटते ही गीता के सात्विककर्ता के विषय में कथित इस श्लोक को अपने जीवन का आदर्श बतलाया-
मुक्तसङ्गोनहंवादी धृत्युसाहसमन्वितः ।
सिध्यसिध्योनिर्विरकारः कर्ता सात्विक उच्यते ।।
इस श्लोक में सात्विक कर्ता के चार लक्षण बतलाये हैं- वह आसक्ति से सदा रहित रहता है; अहंकार से सर्वथा शून्य होता है; धैर्य और उत्साह से समन्वित होता तथा कार्य की सिद्धि और असिद्धि में किसी प्रकार विकृति नहीं रखता । यदि कार्य सिद्ध हो जाय, तो कोई हर्ष नहीं, यदि असिद्ध हो जाय, तो कोई विषाद नहीं ।
यह श्लोक मालवीय जी के जीवन-दर्शन का सार अंश प्रस्तुत करता है । वे यथार्थतः सात्विककर्ता थे । इतने बड़े महत्वपूर्ण कार्य का सम्पादन किया, परन्तु उन्हें इसका न हर्ष था और न गर्व । वे देश तथा राष्ट के मंगल के निमित्त इस कार्य में अटूट श्रद्धा से, अदम्य उत्साह से, कर्तव्य बुद्धि से लगे रहे और जो किया वह सचमुच विलक्षण था ।
मालवीय जी सच्चे अर्थ में महात्मा थे । 'महात्मा' का लक्षण इस प्रसिद्ध श्लोक में वर्णित है-
विपदि धैर्यमथाभ्युदये क्षमा सदसि वाकपटुता युधि विक्रमः ।
यशसि चाभिरुचिवर्यसनं श्रुतौ प्रकृतिसिद्धमिदं हि महात्मनाम् ।।
महात्मा के जो छः लक्षण यहाँ बतलाये गये हैं वे महामना के पूर्ण वैभव के साथ प्रकट थे । विपत्तियों में धीरता, अभ्युदय में क्षमा, सभा में वाक-चातुरी, युद्ध में विक्रम, यश में अभिरूचि तथा शास्त्र-श्रवण में अनुराग- इन छहों की सत्ता महामना में पूरे रूप में थी । 'महामना' यह उपाधि भी उनमें सर्वथा चरितार्थ होती थी । मालवीय जी में हृदय हि हृदय था । विपन्न के साथ पूरी सहानुभूति तथा अनुराग उनके जीवन में पग-पग पर दृष्टिगोचर होते हैं । ऊपर उनके बहुमुखी जीवन के विश्लेषण करने पर लेखक के हाथ जो चार सूत्र उपलब्ध हुए हैं वे इस अनुष्टुप में निबद्ध हैं-
आस्तिक्यं चात्मविश्वासः उत्साहः कार्यनिष्ठता ।
चतुःसूत्री समाख्याता मालवीयमहात्मानः ।।
महामना की पवित्र स्मृति में उनकी महती कृपा से आनम्र लेखक कीये पंक्तियाँ श्रद्धांजलि के रूप में यहाँ उपन्यस्त हैं । इन महापुरुष का जीवन-दर्शन हमारे जीवन में प्रकाश-स्तम्भ का कार्य करे; भगवान से यही प्रार्थना है ।
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