Mahamana Madan Mohan Malaviya

Mahamana Madan Mohan Malaviya

महामना और नागरी प्रचारिणी सभा

 

सुधाकर पांडेय

 

किसी भी क्षेत्र में युगजीवन को नवीन चेतना की लहरों से आंदोलित करना सहज नहीं है I चेतना की लहरों को कर्म की अनुगामिनी बना लोकजीवन में शिवतत्व की प्रतिष्ठा करना तो सदा से ही भागीरथी की अवतारणा करने के समान माना गया है I ऐसा करने वाले तपःपूतों को श्रद्धावनत हो लोक युगयुगांतर तक स्मरण करता रहता है I उसे इससे सनातन प्रेरणा मिलती है I


नागरीप्रचारिणी सभा को महामना के उन्मेषशील व्यक्तित्व की छाया इसके जन्मकाल से ही प्राप्त है I सभा की स्थापना के प्रथम वर्ष से उन्होंने सभा की संरक्षकसदस्यता स्वीकार को और जीवनपर्यन्त उसमें संबद्ध रहे I


सामान्यतः लोकजीवन इस बात का साक्षी है कि संमानित लोग संस्थाओं ले सदस्य तो हो जाते हैं लेकिन उनकी प्रवर्तियों को पल्लवित करने की चिंता उनमें नहीं रहती किन्तु मालवीय जी के संबंध में ऐसा नहीं किया जा सकता I जिस दिन से वे संरक्षकसदस्य हुए उसी दिन से प्रयाग में वकालत करते हुए भी सभा की सेवा में संलग्न हो गए I नागरीप्रचारिणी के माध्यम से की गई उनकी हिन्दीसेवाओं को दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है I प्रथमतः हम उनकी उन सेवाओं का उल्लेख करेंगे जो हिन्दी भाषा और देवनागरी लिपि के प्रचार, प्रसार एंव उसके अधिकार की पुनःस्थापना से संबद्ध हैं तथा दूसरे वर्ग के अंतर्गत उन सेवाओं की चर्चा की जायगी जिनके बल पर सभा की कार्यक्षमता एंव संपदा में वृद्धि हुई I


जिस समय पर नागरीप्रचारिणी सभा की स्थापना हुई उस समय हिन्दी भाषा और देवनागरी लिपि को वह अधिकार भी प्राप्त नहीं था जो अन्य देशी भाषाओँ को था I परिवर्तित युग में लोक भाषा की व्याप्ति के प्रमुख साधन विद्यालय तथा न्यायालय थे I लार्ड मेकाले की योजना शिक्षा के क्षेत्र में प्रचलित थी I सर सैयद अहमद खां द्वारा हिन्दू उर्दू के रोपे गए संघर्ष का बीज वृक्ष हो चुका था I सन १८३७ ई० तक न्यायालयों की भाषा फारसी थी I सर्वसाधारण के लिए दुरूह समझकर देशी भाषा के प्रयोग की भी सुविधा सरकार ने १८३७ में दी I फलतः बंगाल में बँगला, उड़ीसा में उड़िया, गुजरात में गुजराती और महाराष्ट्र में मराठी का प्रयोग किया जाने लगा पर मध्यप्रदेश, बिहार और संयुक्तप्रांत में हिंदुस्तानी का ही प्रयोग चलता रहा I अंग्रेज अधिकारियों को यह समझा दिया गया था कि उर्दू ही हिंदुस्तानी है; अतः हिन्दी के इन प्रांतों की अदालतों में फारसी लिपि में उर्दू का ही प्रयोग चलता रहा I इस भ्रम का बोध बिहार और मध्यप्रदेश के शासन को तो ४४ वर्ष के उपरान्त हो गया पर संयुक्तप्रांत की सरकार ने इधर कतई ध्यान नहीं दिया I नागरीप्रचारिणी सभा की स्थपना ऐसे ही समय में हुई थी I यद्धपि सन १८७५ और १८८५ के विधान इस पक्ष में थे की समन आदि उर्दू और हिन्दी दोनों में भरे जायँ तो भी छल, बल और स्वार्थ के वात्याचक्र के बीच फारसी लिपि में उर्दू का ही प्रयोग ऐसे कार्यों में होता रहा I हिन्दी का कहीं ठिकाना भी नहीं था I सभा की स्थापना के उपरांत तत्कालीन गवर्नर काशी आए और सभा के प्रतिनिधिमंडल ने इस संबंध में उनसे मिलना चाहा परन्तु उस इसके लिये अवसर ही नहीं दिया गया I ठीक इसी समय हिन्दी के विरुद्ध एक और कुचक्र चला, वह था रोमन लिपि को सरकारी दफ्तरों की लिपि बनाने का आंदोलन I सभा ने गवर्नर को पत्रक तो अर्पित कर दिया किन्तु उनके सचिव का उत्तर चालू राजनीतिक ढंग का था कि यथावसर इस प्रार्थनापत्र पर विचार किया जायगा I


निराशा के इस वातावरण के बीच भी सभा द्वारा नागरी की प्रतिष्ठा का प्रयत्न चलता रहा I २० अगस्त १८९६ ई० को 'बोर्ड ऑफ रेवेन्यू' ने सभा क्क यह आग्रह स्वीकार कर लिया की समन आदि हिन्दी में जारी किये जायँ I इस सफलता के फलस्वरूप सभा के कार्यकर्ताओं का उत्साह द्विगुणित हो गया I ऐसे ही समय इस कार्य में महामना का योग सभा को मिला I नागरीप्रचारिणी सभा की प्रबंधसमिति ने १३ अगस्त १८९६ ई० में यह निश्चय किया कि  देवनागरी लिपि को राजकीय कार्यालयों में स्थान दिलाने के लिये सभा का एक प्रतिनिधिमंडल गवर्नर से मिले I उपसमिति के सदस्यों ने इस प्रसंग में प्रांतव्यापी दौरा किया और बाबू श्यामसुन्दरदास ने पं० मदनमोहन मालवीय से प्रयाग में संपर्क स्थापित किया I पं० मदनमोहन मालवीय ने इस क्षेत्र में आश्चर्यजनक क्षमता का परिचय दिया I


मालवीय जी ने दो साल के अथक परिश्रम के उपरांत अंग्रेजी में एक विस्तृत निबंध 'कोर्ट करेक्टर ऐंड प्राइमरी एजुकेशन' शीर्षक से लिखा I इस निबंध-लेखन में उन्होंने अत्याधिक श्रम किया, आँकडे एकत्र किए, छानबीन की I इस कार्य में उन्होंने सरकारी कार्यालयों की भी धुल फाँकी I हिन्दी और देवनागरी लिपि को समर्थन करनेवाला यह तथ्यपूर्ण तथा वैज्ञानिक निबंध सन १८९७ में इंडियन प्रेस से प्रकाशित हुआ I यद्धपि यह निबंध अंग्रेजी में था तो भी हिन्दी में लिख जाने की अपेक्षा यह अधिक लाभकारी प्रमाणित हुआ, क्योंकि जिन्हें सत्य का साक्षात्कार कराना था वे सब अँग्रेजी जाननेवाले हो लोग थे I इस निबंध में सहिष्णुतापूर्वक जो तर्क हिन्दी के पक्ष में मालवीय जी द्वारा उपस्थित किए गए उनका उत्तर दे सकना सहज नहीं I


नागरीप्रचारिणी सभा ने इस कार्य को आगे बढ़ाने के लिये १७ व्यक्तियों का एक व्यापक मंडल बनाया जिसमें सामान्यतः सभी वर्गों के लोग थे I हिंदीतर भाषाभाषी विशिष्ट जन भी इसमें संमिलित किए गए I इस मंडल में नागरीप्रचारिणी सभा के केवल एक प्रतिनिधि थे और वे थे मालवीय जी I प्रांत के गवर्नर सर एंटोनी मैक्डोनेल ने प्रतिनिधिमंडल से मिलने के लिये मार्च, १८९८ का दिन निश्चित किया I उस समय मालवीय जी ने साठ हजार हस्ताक्षरों से युक्त एक निवेदनपत्र भी अपनी पुस्तिका के साथ संलग्न का दिया I मालवीय जी ने जिस गंभीरता के साथ उस समय काम किया उससे हिन्दी की विजय की आशा दृष्टिगोचर होने लगी I इतने मात्र से ही मालवीय जी ने इस कार्य को यहीं छोड़ना उचित नहीं समझा I वे तो ऐसे मनीषियों में से थे जो अपने स्वप्नों को बिना मूर्त किए चैन लेनेवाले नहीं होते I उन्होंने बाबू श्यामसुन्दरदास को इस बात के लिए उत्प्रेरित किया कि वे प्रांत के विभिन्न बड़े नगरों का दौरा कर वहाँ के हिन्दीप्रेमियों को इस दिशा में आंदोलन करने के लिये संगठित करें I संयोग से मैक्डोनेल ने उन्हीं नगरों का दौरा किया जिनमें श्यामसुन्दरदास जी हिंदी आंदोलन के लिये समितियाँ बना चुके थे I मालवीय जी कि प्रेरणा से उनके संरक्षण में संचालित इस आंदोलन ने ऐसा प्रभाव दिखलाया कि हिंदी और देवनागरी लिपि को लेकर देश भर में एक आंदोलन खड़ा हो गया I देश भर की पत्र-पत्रिकाओं ने ने इसे अपनी मर्यादा का विषय बना लिया I अंततोगत्वा १८ अप्रैल १९३० में आंशिक रूप से यह प्रयास सफल हुआ I हिंदी और देवनागरी की इस प्रतिष्ठा का मुख्य श्रेय नागरीप्रचारिणी सभा को है, तो भी इसके अनन्य प्रेरणासूत्र के रूप में मालवीय जी महाराज की सेवाएं अविस्मरणीय रहेंगी I शिक्षा के क्षेत्र में भी उन्हीं की तपस्या से हिंदी को प्राथमिक विद्यालयों से लेकर विश्वविद्यालयों तक में स्थान मिला I


इसके पश्चात नागरीप्रचारिणी सभा के माध्यम से हिंदी के प्रचारक्षेत्र में जो कार्य उन्होंने किया वह भी इससे कम गौरवशाली नहीं रहा है I हिंदी को केवल प्रांत की भाषा बनाकर ही मालवीय जी को संतोष नहीं हुआ क्योंकि हिंदी को ही वे राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीअक्र करनेवाले महान व्यक्ति थे I इस दिशा में प्रथम महत्वपूर्ण प्रयत्न नागरीप्रचारिणी सभा ने हिंदी-साहित्य-सम्मलेन की स्थापना के द्वारा किया I इसमें भी मालवीय जी का योग कम नहीं था I


मई सन १९१० ई० को नागरीप्रचारिणी सभा ने यह निश्चय किया कि काशी में हिंदी-साहित्य-सम्मलेन का आयोजन किया जाय I साथ ही यह निश्चय भी किया कि सम्मलेन में किन विषयों पर विचार हो और कौन सभापति चुना जाय I इसका निर्णय समाचारपत्रों में लेख छपवाकर हिन्दीप्रेमियों से कराया जाय I इस कार्य के लिये ११ व्यक्तियों की प्रबंधसमिति बनाई गई I पं० मदनमोहन मालवीय, पं० महावीरप्रसाद द्विवेदी और श्री गोविन्दनारायण मिश्र के नाम सभापतिपद के लिये आए और नागरीप्रचारिणी सभा की प्रबंधसमिति ने मालवीय जो को ही हिंदी-साहित्य-सम्मलेन के प्रथम सभापति के रूप में स्वीअक्र किया I सम्मलेन का प्रथम अधिवेशन १०,११ और १२ अक्टूबर १९१० को नागरीप्रचारिणी सभा में हुआ I सम्मलेन का आयोजन व्यापक मतभेद के अंतर्गत हुआ था I पं० मदनमोहन मालवीय ने इस अवसर पर सभापतिपद से सभा के पक्ष का प्रबल समर्थन किया और हिंदी के पक्ष में जो कुछ भी उन्होंने निवेदन किया वह अत्यंत विद्व्त्तापूर्ण तथा हिंदी के हित का परम साधक था I विभिन्न प्रांतों से ३०० प्रतिनिधि इसमें सम्मिलित हुए तथा ४२ संपादक विभिन्न प्रदेशों के इस अवसर पर पधारे थे I इस सम्मलेन में अदालतों में नागरी लिपि के प्रचार, यूनिवर्सिटी शिक्षा में हिंदी के प्रवेश, हिंदी पाठ्य-पुस्तकों के लेखन, राष्ट्रभाषा और राष्ट्रलिपि के रूप में नागरी के प्रयोग, स्टांपों और सिक्कों पर नागराक्षरों की प्रतिष्ठा आदि विषयों के संबंध में महत्वपूर्ण निश्चय हुए I इन निश्चयों का कार्यान्वयन ही हिंदी की प्रगति की कहानी का मूलाधार बना I सभापतिपद के लिये मालवीय जी का नाम प्रस्तावित करते समय महामहोपाध्याय पं० सुधाकर द्विवेदी ने उनके संबंध में जो कुछ कहा था वह पूर्णतः सत्य था; इस सम्मलेन का सभापतित्व किसी ऐसे पुरुष को देना चाहिए जिसमें चंचलता हो, गंभीरता हो और जो बड़े-बड़े कामों पर विचार से विचार करे, मेरी समझ में जिस पुरुष को गवर्नमेंट ने प्रधान माना वाही माननीय पं० मदनमोहन मालवीय महाशय इस पद के लिये सर्वतोभाव से उपयुक्त पुरुष हैं I' पं० श्यामबिहारी मिश्र ने उस अवसर पर कहा था 'हिंदी की उन्नति जो आज दिखाई देती है उसमें मालवीय जी का उद्द्योग मुख्य कहना चाहिए I इस अवसर पर हमें दूसरा सभापति इनसे बढ़कर नहीं मिल सकता I'


इस सफल सम्मलेन की एक और विशेषता थी और वह विशेषता थी 'पैसा फंड' की व्यवस्था I नागरी अक्षरों तथा हिन्दीसाहित्य के अभ्युदय के लिये एक निधि की स्थपना के संबंध में सभापति महाशय ने अत्यंत मार्मिक अपील करते हुए पैसा फंड में सहायता देने के लिये लोगों को उत्साहित किया फिर तो सम्मलेन में पैसा बरसने लगा और तत्काल ३५२४-- रूपए का चंदा एकत्र हो गया I साथ ही नागरीप्रचारिणी सभा पर जो ६०००) का ऋण हो गया था उसे भी चुका देने का आश्वासन मिला I मालवीया जी महाराज ने स्वंय ११००० पैसों की सहायता का वचन दिया I


इस प्रकार इस सम्मलेन द्वारा सभा का सभी प्रकार से लाभ हुआ I सन १९२८ में सम्मलेन का १८ वाँ अधिवेशन काशी नागरीप्रचारणी सभा में पुनः हुआ जिसके स्वागताध्यक्ष पं० मदनमोहन मालवीय बने I सभा के प्रांगण में आयोजित यह सम्मलेन भी अत्यंत सफल रहा  I इतना सफल कि सभा के इतने भूतपूर्व सभापति किसी भी अधिेवशन में उपस्थित नहीं हुए थे I नागरीप्रचारिणी सभा के सुपुत्र सम्मलेन  की सेवाओं से हिन्दीजगत परिचित है और मालवीय जी की इस पर भी जीवनपर्यन्त कृपा रही I


मालवीय जी सदा ही हिंदी के उस रूप के समर्थक रहे जो इसका प्राकृत रूप है I वे हिंदुस्तानी के कट्टर विरोधी थे I नागरीप्रचारिणी सभा ने इस संबंध में जब कभी कोई सहायता उनसे चाही उन्होंने अपनी अतिकार्यव्यस्तता के बीच भी इसके लिये अवकाश निकाला I


हिन्दीजगत का सर्वाधिक वर्तमान पुण्यतीर्थ सभाभवन है जिसे इस युग के समस्त हिन्दीप्रेमी श्रद्धावनत हो माँ भारती की तपस्या की अनंत प्रेरणभूमि के रूप में जानते, मानते और पूजते हैं I सबह की समस्त प्रवर्तियों का जिस भवन से संचालन, नियंत्रण तथा पल्लवन हुआ, महामना का उससे भी संबंध निजत्व का था I इसके निर्माण में भी उन्होंने महत्वपूर्ण योगदान दिया था I सन १८९८ ई० तक सभा का कार्य यत्रतत्र दान, मँगनी एंव किराए की कोठरियों में चलाया जाता था किन्तु कार्य के विस्तार ने सभा को अनुभव करा दिया कि बिना निजी भवन के अब उसका विस्तार नहीं है I सभा की आर्थिक स्थिति बहुत दयनीय थी I तो भी जुलाई १८९८ ई० को सभा की प्रबंधसमिति ने भवन बनाने का निश्चय किया I उस समय वातावरण भी ऐसा नहीं था कि यह संकल्प सहज ही पूरा किया जा सकता क्योंकि केवल भवन ही नहीं बनवाना था अपितु साहित्य के भंडार की श्रीवृद्धि के लिये किए गए संकल्पों की पूर्ति भी करनी थी I पर संकल्प सभा का संबल था I भवन के साथ ही साथ सभा को ऐसे स्थायी कोष की आवश्यकता थी जिसकी आय से उसमें स्थिरता आती I फलतः फरवरी १९०१ ई० को स्थायी कोष के लिये ट्रस्टियों का चुनाव सभा ने किया I जो द्रव्य सभाभवन के निर्माण के लिये संगृहीत था वाही स्थायी कोष की पूँजी बना I पं० मदनमोहन मालवीय जी भी ११ ट्रस्टियों में से एक थे I इस मंडल के जिम्मे मुख्य कार्य सभाभवन के निर्माण का था साथ ही इतने धन की व्यवस्था का भी था जिसके सूद से सभा अपने अन्य कार्य चला सके I इन निधि के नियम बनाने का कार्य भी इस समिति को ही सौंपा गया था I सभा के हित के लिये ऐसे ठोस और सुचारू नियम बनाए गए जिनसे सभा को शक्ति मिली I आय के संचय एंव व्यय के उचित प्रबंध के लिये जिस संरक्षकमंडल की स्थापना की गई मालवीय जी उसके भी अत्यंत प्रभावशाली सदस्य थे I २३ वर्ष तक सभा के आर्थिक प्रबंध का सारा कार्य यह संरक्षकमंडल करता रहा और मालवीय जी इसके सदस्य तथा समय समय पर पदाधिकारी भी थे I इस संरक्षकमंडल की देखरेख में भवननिर्माण का कार्य भी पूरा हुआ I इसमें मालवीय जी का योग कम महत्व का नहीं था I १९ फरवरी १९०४ ई० को संयुक्तप्रदेश के लेफ्टिनेंट गवर्नर ने काम चलाऊ रूप में निर्मित सभाभवन का उदघाटन किया I उन्हें उस समय अँग्रेजी में जो मानपत्र दिया गया उसको ना केवल मालवीय जी महारज ने देखकर सँवारा था अपितु गृहप्रवेशोत्सव समिति के सदस्य के रूप में उस समय उन्होंने सभा के हित में महत्वपूर्ण भूमिका भी निभाई थी I अधूरा सभाभवन बनता गया, पर सभा के कार्यो में उत्तरोत्तर विस्तार होते रहने के कारण उसे बराबर स्थानाभाव का अनुभव होता रहा I इस विस्तार की पूर्ति के लिये रायकृष्ण जी ने सभाभवन के समीप की अपनी जमीन जिसका मूल्य लगभग १५०००) रूपए था, सभा को दान कर दिया I हिंदी के महान कोश 'हिंदी शब्दसागर' की समाप्ति के उत्सव में कोशोत्सव के अवसर पर नए भवन का शिलान्यास (१४ फरवरी १९२८ ई०) महामना ने किया I प्रस्तरमंजूषा में जो ताम्रपत्र रखा गया उसमें मालवीय जी के संबंध में जो कुछ निवेदन किया गया था, वह निम्नांकित है-


'आज माघ शुक्ल , गुरूवार, सं० १८९५ को इसके दूसरे नवीन भवन का शिलान्याससंस्करण देश के पूज्य नेता पं० मदनमोहन मालवीय द्वारा संपन्न हुआ I ईश्वर इस सभा की नित्य उन्नति करे, हिंदी भाषा तथा नागरी लिपि का स्वावलंबी भारवर्ष में अखंड राज्य हो और इसके द्वारा भारतवासी एकता के सूत्र में बँधकर राष्ट्र के निर्माण में सफल हों I'


इस अवसर पर जो शिलालेख लगाया गया वह इस प्रकार है-


'इस स्थल पर नागरीप्रचारिणी सभा काशी के नवीन भवन का शिलान्यास संस्कार माघ शुक्ल सं० १८९५ वि० को महामना पं० मदनमोहन मालवीय जी के करकमलों से संपन्न हुआ I'


यद्दपि सभा इस संकल्प की पूर्ति आज तक कर सकी तो भी मालवीय जी के हाथों रोप गए इस संकल्प की पूर्ति निकट भविष्य में निश्चय ही होगी इसमें संदेह नहीं I इस प्रकार आर्थिक क्षेत्र में भी मालवीय जी की सेवाएँ सभा को स्थायित्व प्रदान करनेवाली रही हैं I


नागरीप्रचारिणी सभा की कीर्ति का बहुत बड़ा कारण आर्यभाषा पुस्तकालय भी है I भारतवर्ष में हिंदी का यह अपने ढंग का अन्यतम पुस्तकालय है I इसकी सहायता के अभाव में विश्वविद्द्यालयों में होनेवाले अनुसंधानकार्य पुरे नहीं हो पाते I इसमें संगृहीत पुस्तकें तथा पत्र पत्रिकाएँ हिंदी की गौरव हैं I मिर्जापुर के श्री गदाधर सिंह का आर्यभाषा पुस्तकालय नागरीप्रचारिणी सभा को १६ जून १८९८ ई० को प्राप्त हो गया I इसका प्रवर्धित रूप आर्यभाषा पुस्तकालय है I श्री गदाधर सिंह का प्रवसान होने के उपरांत सभा अत्यंत झंझट में पड़ गई, यद्द्पि अपनी मृत्यु के पूर्व ही वे २५ जुलाई १८९८ को सभा के पक्ष में वसीयतनामा लिख गए थे I उस वसीयतनामे के द्वारा पुस्तकालय की यथोचित उन्नति और स्थायित्व के लिये वे अपनी समस्त संपत्ति सभा को अर्पित कर गए थे I इस वसीयतनामे के विरोध में कई विपक्षी खड़े हुए I फलतः सभा को मुक़दमा लड़ना पड़ा I यह मुकदमा बहुत लंबा चला और हाई कोर्ट तक भी गया I सन १९०४ को सभा हाई कोर्ट से मुकदमा जीत गई I इसका भी श्रेय पं० मदनमोहन मालवीय जी को है I जिस तत्परता-दक्षता के साथ उन्होंने सर सुन्दरलाल जी आदि की सहायता से सभा के पक्ष का समर्थन किया वह विरल ही है I


समय समय पर सभा की अन्य विशिष्ट प्रवृतियों में भी वे योग देते रहे I जिस समय नागरीप्रचारिणी सभा पं० महावीरप्रसाद द्विवेदी का अभिनंदन कर रही थी उस समय मई १९३३ ई० को सभा में अभिनन्दनोत्सव मनाया गया और मई को इलाहाबाद में द्विवेदी मेले का आयोजन हुआ जिसका उदघाटन महामना ने ही किया I आज तक अभिनंदन का इतना सफल आयोजन किसी साहित्यकार का नहीं हो सका I


वृद्ध हो जाने पर भी मालवीय जी का आशीर्वाद निरंतर सभा पर था I उसकी प्रवर्तियों को प्रवर्धित देखने के लिये वे आशीर्वाद के साथ ही साथ पथप्रदर्शन करनेवाली मूल्यवान राय भी देते थे I इस बात से हिंदीजगत भली भाँती परिचित है कि हिंदी और हिंदुस्तानी के संघर्ष में जिस दृढ़ता के साथ और सम्मलेन के पक्ष का उन्होंने समर्थन किया था वह अत्यंत महत्वपूर्ण था I


 

सन १९४६ मने मालवीय जी के तिरोधान से सभा का एक वयोवृद्ध वास्तविक संरक्षक उठ गया I उस समय सभा ने जो शोकप्रकाश किया था वह इस प्रकार है-



 

'अत्यंत शोक का विषय है कि इस वर्ष हमारे बीच से कई वयोवृद्ध साहित्य-सेवी उठ गए I महामना मालवीय जी बहुत दिनों से रुग्ण हो गए थे, परन्तु जब कभी हिंदी भाषा और साहित्य तथा देवनागरी लिपि एंव भारतीय संस्कृति संबंधी कोई गंभीर समस्या उठ कड़ी होती थी, वे बराबर अपना परामर्श और आशीर्वाद देते रहे I हिंदी से उन्हें आरम्भ से ही कितना अनुराग था यह इसी से प्रकट होता है कि सभा के आरम्भ काल में आर्यभाषा पुस्तकालय के जन्मदाता श्री गदाधर सिंह जी की वसीयत वाले मुक़दमे में, सभा से उस समय कोई विशेष संपर्क वा संबंध ना होते हुए भी, मालवीय जी ने बिना कुछ पारिश्रमिक लिए बड़ी लगन से पैरवी की थी I इसके उपरांत तो सभी कार्यों में उनका प्रमुख योग प्राप्त होता रहा I संयुक्प्रांत की कचहरियों में नागरी का प्रवेश करने के लिए उन्होंने ६०  हजार व्यक्तियों के हस्ताक्षर से सरकार के पास स्मृतिपत्र भेजा था एंव 'कोर्ट कैरेक्टर ऐंड प्राइमरी एजुकेशन' नामक महत्वपूर्ण अँग्रेजी पुस्तक तैयार करके सभा द्वारा प्रकाशित कराई थी I हिंदी-साहित्य-संमेलन की योजना बनाने का श्रेय उन्हीं को है I काशी में संमेलन का जो पहला  अधिेवशन हुआ था उसके सभापति भी वे ही थे I ऐसे कर्मयोगी को खोकर कौन जाति दुखी ना होगी I'


जिस व्यक्ति का सभा के प्रत्येक कार्य में घनिष्ठ योगदान रहा हो, जिसने हर स्थिति में उसे नैतिक समर्थन प्रदान किया हो तथा जो इसका प्रेरणास्त्रोत रहा हो उसके प्रवासन पर सभा ने जो शोक अनुभव किया वह स्वाभाविक था I आज सभा महामना के कर्तव्य से प्रेरणा लेती हुई विकास के अनेक नए प्रतिमान स्थापित कर अपने पथ पर आगे बढ़ती चली जा रही है I


Mahamana Madan Mohan Malaviya