प्रयाग में एकता सम्मेलन
प्रोo मुकुट बिहारीलाल
सन् 1933 ईस्वी में मालवीय जी महाराज ने प्रयाग में एकता सम्मेलन, हिन्दू मुसलमानों में समझौता करने के लिए बुलाया था। उस समय अगर ब्रिटिश सरकार चालें न चलती तो समझौता हो ही गया था। हिन्दू-मस्लिम साम्प्रदायिक समस्या पर बात करते हुए मालवीय जी महाराज ने लेखक से एक बार कहा था कि उन्होंने आजीवन किसी का अनहित नहीं चाहा अर्थात् वह मुसलमानों का भी अनहित नहीं चाहते हैं।
पूज्य मालवीय जी महाराज अपने देश में अपना राज्य के सिद्धान्त को मानते थे। वह चाहते थे कि हिन्दुस्तान शीघ्र ही स्वतंत्र हो। वह बड़े भारी देश भक्त थे। उन्हें अपने देश और संस्कृति का गर्व था। आजीवन वह हिन्दुस्तान की स्वतंत्रता के लिए भरसक परिश्रम करते रहे।
स्वतंत्रता के संघर्ष में संलग्न मालीवय जी दूसरे देश के निवासियों की कोई सेवा न कर सके। पर इसमें सन्देह नहीं कि उनका दृष्टिकोण व्यापक था और वह मनुष्यमात्र के हितचिन्तक थे। उनकी राष्ट्रीयता सार्वभौम थी, मानवता का अंग थी। वह विश्वशान्ति के समर्थक थे और उनका विचार था कि उसके लिए धार्मिकता और नैतिकता की वृद्धि आवश्यक है।
मानवता के पुजारी मालवीय जी का प्रेम मानव-समाज तक ही परिमित न था। वह प्राणिमात्र का हित चाहते थे। गो-सेवा में उन्हें विशेष आन्नद आता था। बचपन से लेकर मरते दम तक वह गो सेवा करते रहे। कहा जा सकता है कि गौ-सेवा करते हुए ही उन्होंने अपने प्राण छोडे़। पर उनका प्रेम गौओं तक ही सीमित न था। कुत्ते आदि जीवों पर भी उनकी दया सदा रहती। शिवराम जी वैद्य ने अपने एक लेख में लिखा है कि जब मालवीय जी नौजवान थे तो उन्होंने जख्म के दुःख से तड़पते सड़क पर एक कुत्ते की वेदना से दु:खी हो उस कुत्ते की सेवा की, स्वयं उसके जख्म पर दवा लगायी। लेखक को भी एक बार मालवीय जी की समदर्शिता देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। अपने से थोड़ी दूर पर बैठे एक कुत्ते को देखकर वे प्रेम और आनन्द में मग्न हो कहने लगे कि “इसमें जो आत्मा है , वही मुझमें है। जिस प्रकार मुझे इस स्थान पर बैठे शीतल वायु सेवन करने में आनन्द आ रहा है, उसी प्रकार इस कुत्ते को भी आ रहा है।” मालवीय जी का यह वाक्य सुनकर और उनकी सौम्य आकृति देखकर लेखक को ऐसा अनुभव हुआ मानो पूज्य मालवीय जी समदर्शिता अनुभव कर रहे हैं।
मानवता और सार्वभौमिकता ही मालवीय जी की दृष्टि में व्यक्तित्त्व के विकास की परिणति है। उनका स्वर्ग और मोक्ष दोनों पर विश्वास था पर वह स्वयं इन दोनों में से एक की भी इच्छा नहीं रखते थे। उन्हें श्रीमदभागवत् में कहे रन्तिदेव के यह वाक्य सदा याद रहते थे कि “मुझे ॠद्धि और सिद्धि नहीं चाहिए। मैं तो यही चाहता हूँ कि सब दु:ख तप्त प्राणियों के ताप से तपित हो उनके ताप का निवारण करूँ।” यही आदर्श उन्होंने सेवा समिति के स्वयंसेवकों के सामने रखा था और इसी आदर्श पर वे अन्त तक आचरण करते रहे। तप्त प्रणियों के ताप से तप्त मालवीय जी जीवन भर ताप-निवारण में लगे रहे और उनकी यही बलवती इच्छा थी कि भगवान् एक बार पुनः ताप-निवारण और समाज- सेवा करने का अवसर दें I
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