Mahamana Madan Mohan Malaviya

Mahamana Madan Mohan Malaviya

महामना का स्वदेशी, औद्योगिक एवं अर्थकारी चिन्तन



अपने देष की तत्कालीन दीन-हीन अवस्था और परीधीनता से व्यथित महामना मालवीय जी ने अपने विद्यार्थी जीवन (1980) में एक कविता लिखी थी, जिसकी निम्र दो पंक्तियाँ प्रसंगात बड़े महत्व की हैं-



पाप दीनता दरिद्रता और दासता पाप।

प्रभु दीजै स्वाधीनता मिटे सकल संताप।।



अर्थात् किसी देष अथवा उसके नागरिकों के लिये सबसे बड़ा अभिषाप या सबसे बड़ी विपदा यदि कुछ है, तो वह है उसकी दीनता, दरिद्रता और दासता। इन त्रासद स्थितियों में जीविका और जीवन के मैलिक अधिकार तो छिन ही जाते है, मनुश्य की अपनी सामाजिक, राश्ट्रीय और मानवीय संवेदनायें तक सूखने लगती हैं। वह सिर उठाकर स्वाभिमान के साथ जी नहीं सकता। सन् 1925 के भारतीय लेजिस्लेटिव असेम्बली में महामना ने कहा था- श्विदेषी सरकार की अधीनता सबसे बड़ा अभिषाप है, जो किसी राश्ट्र पर हो सकता है। वह जनता के पुरुशत्व को नश्ट करता है और भंयकर रूप् में नैतिक स्वभाव को प्रभावित करता है। उनकी मौजूदगी ही भ्रश्टाचारी प्रभाव रखती है।श् इन स्थितियों ने मालवीय जी के युवा मन में यह धारण प्रबल कर दी कि अंग्रजी षासन में मुक्ति के वगैर हमारा बदहाल और कंगाल देष अपने अस्तित्व एवं स्वाभिमान की रक्षा और समुन्नति के मार्ग का अवलम्बन नहीं कर सकता। उसे वे सब अधिकार मय्यसर नहीं हो सकते जो एक सभ्य व अभ्युदय के आकांक्षी देष के लिये अपेक्षित हैं। उनके अनुसार स्वाधीनता का तात्पर्य है् स्वदेष में स्वतंत्रता के साथ जीने के नैसर्गिक व वैधानिक अधिकार की प्रप्ति। इस स्वतंत्रता में स्वराज्य के साथ सुराज्य भी निहित हैं। महामना ने इसी की कामना व संकल्प के साथ सार्वजनिक जीवन में प्रवेष किया और इसके लिये आजीवन संघर्शरत्त रहे। उनका सम्पूर्ण जीवन, कर्म एवं व्यवहार ष्स्वष् चिन्तन से पोशित, प्रेरित एवं पल्लवित रहा।



महामना के अनुसार राश्ट्र की उन्नति का मूल ष्स्वष् निहित है। स्वदेष, स्वाभिमान, स्वाधीनता, स्वराज्य, स्वसंस्कृति, स्वधर्म, स्वभाशा, आदि ये सब उनके हृदय-कोटर में बसने वाले पवित्र भाव थे, जिसको वे भारत की उन्नति का मूल एवं ठोस आधार मानते थे। वे आधुनिक युग में भारतीयता की एक स्पश्ट पहचान व उसके प्रत्यक्ष विग्रह थे। उनके जीवन के सम्पूर्ण संघर्शी पक्षों को स्वदेषी आन्दोलन के रूप् में पारिभाशित किया जा सकता है। व्यापक अर्थ-निहित उनका ष्स्वष् व्यक्तिवाद का नहीं, बल्कि अपनत्व का सूचक है। हमें अपनी भाशा, अपनी संस्कृति, अपनी सभ्यता एवं अपने देष के लोगों से कितना प्रेम और अपनापन है, हम उनकी रक्षा एवं विकास के लिए स्वयं को कितना समर्पित कर सकते है, महामना की दृश्टि में इसी पर हमारे स्वदेषी आन्दोलन की सफलता और देष का उज्जवल भविश्य निर्भर है।



महामना मालवीय जी के अनुसार- श्स्वदेषी से ही सुराज्य की प्राप्ति होगी। ष्सुराज्यष् का तात्पर्य है निर्दोश षासन-व्यवस्था। स्वदेषी देष की निर्धनता दूर करने का साधन है, देष की जनता के प्रति हमारा एक धार्मिक कत्र्तव्य है, और वह निःसन्देह मानवता का धर्म है।श् अतएव यह राश्ट्र सापेक्ष ठोस बुनियादी परिवर्तनों की अपेक्षा रखने वाला एक युगान्तकारी प्रयास है, जिसका लक्ष्य वाहृा्र षक्तियों की व्यावसायिक एवं औपनिवेषक नीति तथा बौ˜िक आतंक के विरु˜ राश्ट्र की प्रतिरोधी एवं प्रतिस्पर्धात्मक क्षमताओं का विकास करना है। यद्यिप यह लड़ाई बाहृा्र और आन्तरिक दोनों मोर्चों पर है, किन्तू आन्तरिक विकासात्मक ढाँचे की मजबूती ही हमें वाहृा्र मोर्चों पर सबल रूप में खड़ी करेगी।



महामना ने अपने साप्ताहिक पत्र ष्अभ्युदयष्  के एक सम्पादकीय मे लिखा है- श्गहरा, गाढ़ा, उत्कृश्ट, अन्य सब भावों को दबा देने वाला, अपने देष का प्रेम ही स्वदेषी का अर्थ है।श् उनके अनुसार श्स्वदेषी आन्दोलनो का मुख्य उद्देष्य देषा की आर्थिक दषा को सुधारना है। देष की दषा तभी सुधर सकती है, जब देष में देषी चीजों का व्यापार बढे़, और जो हमारे नित्य की आवष्यकता चीजें है, वे यहाँ बनने लगें।श् यह भी कि-श्अपने देष की बनी चीज प्राप्य होते हुये, चाहे वो कुछ घटिया और महँगी ही क्यो न हो, विदेषी चीज खरीदनी पाप हैश् वैश्विक व्यापार के वर्तमान दौर में महामना का यह कथन और भी प्रासंगिक दिख रहा है, जब विदेषी कम्पनियों के उत्पादों के भारी मा़त्रा में देष के बाजारों में बिक्री के प्रभाव और उनकी व्यावसायिक नीति के चपेट में आकर देष के लाखों लघु-कुटीर उद्योग-धंधे अब तक धराषायी हो चुके हैं। महामना ने उक्त बात 100 वर्श पहले गुलामी के दौर में कही थी, किन्तु उसकी प्रासंगिकता आजाद भारत में आज भी यथावत बनी हुई है। आज देष में विदेषी निवेष एवं खुदरा व्यापार का दरवाजा काफी कुछ खोल दिया गया है। इस संदर्भ में भी महामना का एक कथन काफी महत्वपूर्ण दिख रहा है-



भारत में विदेषी पूँजी-निवेष और विदेषी पूँजीपतियों को संरक्षण दिये जाने के प्रष्न पर महामना ने सन् 1924 में लेजिस्लेटिव असेम्बली में कहा था- श्यथावष्यक विदेषी पूँजी का प्रयोग एक बात है, और देष के औद्योगिक जीवन को विदेषी पूँजीपतियों के हाथ सौपं देना दूसरी बात है। जहाँ किसी स्थिति में पहली चीज अनिवार्य एवं लाभप्रद है, वहाँ दूसरी सर्वथा हानिकारक एवं भयाबह! देषज उद्योगों की उन्नति के लिए जनता को कुछ आर्थिक कश्ट सहन करने के लिए प्ररित एवं बाध्य किया जा सकता है, पर विदेषियो के व्यापार की अभिवृöि हेतू भारतीय जनता को कश्ट सहने के लिए बाध्य करना अन्याय होगा। किसी सभ्य देष में ऐसा नहीं होता।श्



महामना ष्स्वदेषीष् के अग्रवर्ती पुरोधा थे। उन्होंने अपने युवाकाल में ही इसका व्रत ले लिया, और जीवनभर पूरी निश्ठा के साथ उसका पालन करते रहे। देषी उद्योग-धंधो तथा षिल्पकला व दस्तकारी के विनाष से व्यग्र मालवीय जी ने इनके संरक्षण व संवर्öन हेतू कुछ देषभक्त लोगों को साथ लेकर सन् 1881 में प्रयाग में एक देषी ष्तिजारमष् कम्पनी की स्थापना की थी। उन दिनों उनका एक सार्वजनिक अपील हुआ करता था- वरत्र््राहि के कारण बढ़ौ इहाँ विदेषी राज।



जे विदेषी वस्त्र्र्र को जो तुम चहो स्वराज।



ठन पंक्तियो से विदित है कि वस्त्र्र्रद्योग हमारी आर्थिक सर्मöि का प्रमुख आधार था, उसे ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने अपनी व्यावसायिक नीति द्वारा नश्ट कर भारत में अपना व्यापारिक कारोबार फैलाया था। भारत में कपास की खेती अंगे्रजों को अपना वस्त्र-व्यवसाय चमकाने के लिये काफी मुफीद साबित हुई थी। इन स्थितियों को देख कर महामना ने 16 वर्श की अल्पावस्था में ही विदेषी वस्त्र न पहनने का संकल्प ले लिया, और पुनः पुरे जीवन में कभी विदेषी वस्त्र धारण नहीं किया।



यहाँ हम भारत के जिस काल की चर्चा कर रहे है, वह हर तरह से उथल-पुथल का काल था। अंग्रजों ने भारत का बेरहमी से आर्थिक षोशण किया और देष की औद्योगिक एवं व्यावसायिक क्षमताओं का अपने हित में दोहन कर उसे पूरी तरह पंगू और देष को दिवालिया बना दिया। मुगल आक्रान्ताओं ने भारत को बल-पुर्वक लूटा एवं बर्बाद किया था, किन्तू नीति-विषारद अंग्रेज जाति ने अपनी कूटनीतिक चाल से हमारे रक्त को ही निचोड़ लिया। दादाभाई नौरोजी के अनुसार- श्अंगेजों से पहले के षासक कसाइयों की तरह थे, जो अनियमित रूप से जहाँ तहाँ से माँस काट लेते थे, किन्तू अंग्रेज तो अपनी यांत्रिक क्षमता के तेज चाकू से इस देष के हृदय को ही काट-काट कर ले जाते थे।श् उस काल में हमारे धन-वैभव एवं कला-कौषल के साथ औद्योगिक एवं व्यावसायिक ज्ञान-वैभव की भी लूट मची हुई थी। परिणामतः करोडों़ देषवासियों की जीविका का आधार मात्र अवैज्ञानिक एवं साधनहीन खेती रह गई, जो विभिन्न तरह के सरकारी व गैर-सरकारी मनमाने टैक्स तथा षोशण व आत्याचार के कारण बाँझ सी हो गई। समृद्ध किसान एवं व्यावसायी मजदूरी करने के लिये विवष हुये। उस समय नौकरी की स्थिति बड़ी विचित्र थी। 1892 में ष्पब्लिक सर्विस कमीषनष् की संस्तुतियों की आलोचना करते हुये मालवीय जी ने कहा था- श्पारिश्रमिक के उन स्थानों पर जहाँ भरती करने की अपनी योग्यता एवं चरित्र से भारतीय पूरी तरह सक्षम है, योरोपीय नियुक्त कर दिये जाते है।श्  यही नहीं, उनके अनुसार सबसे कम वेतन के पदों पर भारतीयों को ही रखा जाता था। वेतन व पेन्षन मद में प्रतिवर्श जहाँ 14.5 करोड़ रुपये विदेषों में जाता था। वहाँ सिर्फ 3.1 करोड़ रुपये भारतीयों के पास। इसपर महामना ने कहा श्संसार का कोई भी ऐसा देष नहीं जो हिन्दुस्तान से अधिक गरीब हो और जहाँ प्रषासकों का वेतन यहाँ से अधिक हो।श् 1882 के काँग्रेस अधिवेषन में उन्होनें कहा था कि लगभग 10 करोड़ भारतीयों की कमाई प्रतिवर्श अंगे्रज अफसरों के वेतन और पेन्षन के रूप में इंग्लैण्ड चली जाती हैं।



भारत में औद्योगिक हृास क्रम सैनिक विद्रोह (1875) के पहले से ही आरम्भ हो गया था। ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने हमारे देष के सारे पुराने उद्योगों को धराषायी कर दिया। उधर इंग्लैण्ड और योरोप में तेजी से उद्योग-धधों के नयो-नये तकनीक विकसित होते जा रहे थे, जिससे षिक्षा के अभाव में भारतीय लोग अपरिचित थे। योरोप की धरती पर रेलगाडि़या 17वीं षताब्दी से ही चलने लगी थीं, वह भारत के लिये के लिये 200 वर्श बाद भी एक आष्चर्य की वस्तु थी। भारत में रेलवे का विकास षुरू होने के पहले तक बिट्रेन अपनी समृद्धि के चरमोत्कर्श पर था। भारत में रेलवे के विकास के पीछे अंग्रजों का अपना व्यावसायिक हित निहित था। भारतीय व्यापारियों के लिये रेलवे किराये-भाड़े बढ़ा दिये गये थे, जिससे एक जगह से दूसरी जगह माल पहुँचाना उनके लिये मुष्किल था। अत्यधिक सीमा-षुल्क के कारण उसे बाहर भेजना भी कठिन था। इस प्रकार भारतीय रोजगार ठप पड़ गये और सिर्फ कृशि एवं दस्तकारी ही हमारी जीविका के साधन रह गये। किन्तू सिंचाई-सुविधा के अभाव में कृशि सूखती गयी, दस्तकारी में उत्पादन की कमी आयी। फलस्वरूप देषवासियों को प्रतिवर्श अकाल, भुखमरी आदि का सामना करना पड़ा।


1896 के काॅग्रेस अधिवेषन में मालवीय जी ने देष में व्याप्त निर्धनता, अकाल एवं भुखमरी की स्थिति पर कहा था।- श्पाँच करोड़ भारतीय भुखमरों जैसा जीवन व्यतीत करते हैं, और लाखों प्रतिवर्श भुखमरी का षिकार हो रहे हैं। पिछले वर्शों में 22 बार अकाल पड़े, जिनमें 2 करोड़ 90 लाख आदमियों की मृत्यु हुई तथा पिछल 11 वर्श में 55 लाख व्यक्ति प्लेग से मरे। पर 20 वर्श से मजदूरी में काई बढ़ोत्तरी नहीं हुई। मँहगी षासन-व्यवस्था, देषी कला एवं व्यवसाय की अवनति तथा किसानों पर आपत्तिजनक अधिक लगान, निर्धनता के मूल कारण हैं।श्



सन् 1908 के प्रान्तीय काॅन्सिल में महामना ने कहा था-श्जनता की निर्धनता, जनता के दुःखों का मूल कारण है।.....सम्पूर्ण राजस्व का एक चैथाई से भी कम भाग जन-कल्याण सम्बन्धी कामों पर खर्च होता है, जिसका परिणाम यह है कि बाहर से इस साम्राज्य की जितनी तड़क-भड़क दिखाई दे रही है, उतनी ही भारतीयों की दषा बुरी हो गयी है।.....और जबतक इस व्यवस्था में एकदम परिवर्तन नहीं किया जाता, तबतक जनता के अत्यन्त हितकर स्चत्वों की उन्नति असंभव है।.....सरकार जनता के बिना नहीं रह सकती. जनता की निर्धनता सरकार के औचित्य पर प्रष्नचिहृ खड़ा करती है।



उक्त स्थितियों में देष में काफी निराषाजनक स्थिति बन चुकी थी, पूरी भारतीय चेतना कुंठित और दिषाहीन थी। अंग्रजों द्वारा देष के आर्थिक षोशण की भंयकरता की अनुमान भारतेन्दू बाबू हरिष्चन्द्र की सिर्फ एक पंक्ति से भी लगाया जा सकता है- ष्सारा हिन्द हजम कर जाता।ष् अंग्रेजों के आंतक से लोग इतने भयवीत थे कि वे सिर उठाकर नहीं चल सकते थे-ष्कठिन सिपाही द्रोह अनल जा जल बस नासी। जिन भय सिर न उठाय सकत कहँॅु भारतवासी।। (भारतेन्दु)। उस काल के कवियों, साहित्यकारों ने भी भारत की आर्थिक विपन्नता का प्रमुख कारण भारतीय ज्ञान-विज्ञान, कला-कौषल एवं उद्योग-धंधो का नश्ट होना, और अंग्रजों की आर्थिक सम्पन्नता का प्रधान कारण उनका वैज्ञानिक तथा यांत्रिक होना बताया है।



सन् 1907 में प्रान्तीय काॅन्सिल की एक बहस में मालवीय जी ने कहा था- श्षुद्ध कृशि प्रधान देष व्यावसायी और उद्योग- धन्धी देष की अपेक्षा अधिक समुन्नत और आत्म-संरक्षण के योग्य नहीं हो सकता।श् किन्तू इसके साथ वे इस बात से सहमत थे कि श्सर्वाडंगपूर्ण कृशि सभी व्यापार तथा व्यवसाय की जननी है तथा राज्य की आर्थिक उन्नति की कृशि-व्यवसाय की उन्नति से गहरा सम्बन्ध है।श्  वे पुराने देषी उद्योग-धंधो के विकास के साथ आधुनिक उपकरणों से सुसज्जित बडे़-बडे़ उद्योगों के विस्तार के भी पक्ष में थें।



उक्त परिस्थिितियों ने महामना मालवीय जी को स्वदेषी आन्दोलन के लिये प्रेरित किया। उन्होनें ष्देषी तिजारम कम्पनीष् की ओर से अनेक वर्शों तक नुक्कड़ों, सभाओं आदि में स्चदेषी की महत्ता व आवष्यकता से जनता को अवगत कराया और उनमें जागृति उत्पन्न की। अपनी अन्य संस्थाओं-ष्हिन्दू समाजष् ष्हिन्दू समाजष्, ष्भारतधर्म महामण्डलष् ष्सनातमधर्म महासभाष्, तथा विभिन्न-पत्र-पत्रिकाओ, जिनके वे सम्पादक व संस्थापक थे, द्वारा भी स्वदेषी का प्रचार करते रहे। सन् 1886 से कंग्रेस मंचों तथा 1902 से प्रान्तीय कॅान्सिल तथा केन्द्रीय असेम्बली के लगातार 30 वर्शों तक निर्वाचित/मनोनीत सदस्य की हैसियत से भी उन्होंने स्वदेषी आन्दोलन को जारी रखा और देषी उद्योग-धन्धों के पुनरुत्थान, मझोले एवं भारी उद्योगों की स्थापना, वैज्ञानिक परिशद के गठन, षिल्प इंजीनियरिंग षिक्षण संस्थाओं की स्थापना; कृशि, औधोगिक, वाणिज्यिक एवं प्रयोगात्मक वैज्ञानिक षिक्षा के समुचित प्रबन्ध की माँग सरकार के समक्ष निरन्तर उठाते रहे।



सन् 1906 में प्रयाग-संगम पर आयोजित सनातनधर्म महासभा सम्मेलन में महामना ने देष के प्रत्येक स्त्री-पुरुश से देष स्वातंत्र्य और समृद्धि के लिए अपने हाथ से बने खद्दर का, और जहाँ यह संभव न हो, वहाँ देषी मिलों के बने कपड़े का व्यवहार करने और विदेषी वस्त्र न खरीदने की अपील की थी। उल्लेख्य है कि उस समय तक गाँधी जी का खादी आन्दोलन षुरू नहीं हुआ था। 1905 में आपने वाराणसी में भारतीय औद्योगिक सम्मेलन की अध्यक्ष्यता कर तथा ष्युक्त प्रान्त में औद्योगिक सम्मेलन आयोजित करा कर देष में औद्योगिक षिक्षा के विकास एवं स्वदेषी वस्तुओं के उत्पादन को प्रोत्साति करने हेतू पुरजोर प्रयास किया था। उसी साल आपने काषी हिन्दू विष्विद्यालय का प्रास्पेक्टस तैयार किया। उसमें स्वदेषी-पद्धति पर आधारित एवं आधुनिक ज्ञान से पोशित कृशिक, औद्योगिक, वैज्ञानिक एवं व्यावसायिक षिक्षा-सम्बन्धी आपके गवेशणात्मक चिन्तनों का अध्ययन किया जा सकता है। (देखें-हिस्ट्री आॅफ द बी.एस.यू.)।



आगे सन् 1907 में नैनीताल एवं प्रयाग में औद्योगिक सम्मेलनों का आयोजन करा कर आपने ष्यू.पी. इण्डस्ट्रियल एसोसिएषनष्  के गठन में महत्त्वपूर्ण योगदान किया। नैनीताल में कृशिक एवं औद्योगिक प्रदर्षनियाँ लगवायीं। उन्हीं दिनों ष्प्रयाग षुगर कम्पनीष् की स्थापना हुई, जिसमें आपकी विषेश भूमिका थी। सन् 1907 में ही सूरत काँग्रेस अधिवेषन में भाग लेने के बाद आपने गुजरात क्षेत्र में स्वदेषी का व्यापक प्रचार किया और 1910 में प्रयाग में एक विषाल कृशिक एवं औद्योगिक प्रदर्षनी का आयोजन कराया। आप ही के लगातार प्रयत्नों के फलस्वरूप सन् 1916 में सरकार ने टी.एस हालैण्ड की अध्यक्षता में दो वर्श के लिए ष्भारतीय औद्योगिक आयोगष् का गठन किया था।



मार्च 1932 में मालवीय जी ने काषी में एक ष्अखिल भारतीय स्वदेषी संघष् की स्थापना कर स्वदेषी आन्दोलन और तेज किया। इसी वर्श बड़ा बाजार, कल्कत्ता में आपने स्वदेषी वाणिज्यक संग्रहालय का उद्घाटन किया। 1934 में कालपी में आयोजित स्वदेषी प्रदर्षनी के अवसर पर प्रशित संदेष में आपने कहा था।- श्मैं गत 56 वर्शों से स्वदेषी का उपयोग कर रहा हँ। मैं देष-सेवा को ईष्वर-सेवा मानता हूँ। आज देष के लाखों कारीगर अपने गुणों का सहारा लेकर भी अपने परिवार का पालन नहीं कर पा रहे हैं, क्योकि विलायती वस्तुओं ने उनका बाजार बन्द कर दिया है। स्वदेषी व्रत से देष का धन देष में ही रहेगा, जनता धन-बल के साथ-साथ धर्म-बल भी बढ़ेगा। परमात्मा आप सबको अपनी भक्ति के साथ-साथ देषभक्ति भी प्रदान करें।श् सन् 1931 में जब सरकार ने कपड़ा उद्योगों को संरक्षण देकर अपने को मालामाल करने की नीति अपनाई तब मालवीय जी ने उद्योगतियों की भत्र्सना करते हुए कहा था- श्मेरी इच्छा है कि बम्बई जीवित रहे। भारत की गरीबी और पतन के साथ बम्बई की समृद्धि नहीं हो सकती।श्



1927 में लेजिस्लेटिव असेम्बली में ष्मुद्रा विधेयकष् पर बोलते हुए महामना ने कहा था- श्देष के आर्थिक उत्थान के लिए पुराने घरेलू उद्योगों-धन्धों का पुनरुत्थान तथा नवीन उद्योगों की स्थापना दानों जरूरी हैश्, लेकिन श्किसी देष की सारी औद्योगिक षक्ति वृहद उद्योगों में केन्द्रित नहीं की जा सकती। म़झोले उद्योगों के साथ देषी उद्योगों का प्रोत्साहन और संरक्षण राज्य का कत्र्तव्य है।श्  महामना चाहते थे कि गाँव-गाँव, घर-घर में कुटीर उद्योगों के जाल विछा दिए जाएँ ताकि कोई भी óी-पुरुश बेरोजगार न रहे और लोग आर्थिक रूप से स्वावलम्बी बन सकें। इतिहासकर डाॅ. एस.सी. रायचौधरी के अनुसार- मालवीय जी ने गाँधी जी के कार्यों को काफी आसान बना दिया था। वे अपने युवाकाल से ही स्वदेषी के प्रबल समर्थक रहे। उन्होनें कुटीर उद्योगों के साथ-साथ औद्योगीकरण की आवष्यकता पर भी बल दिया, जिससे बेरोजगारी की समस्या दूर की जा सके।श्



 

Mahamana Madan Mohan Malaviya