महामना-ब्रजभाषा के उत्कृष्ट कवि
महामना पं0 मदनमोहन मालवीय जी का जन्म प्रयाग के एक प्रतिश्ठित मालवीय ब्राहा्रण कुल मे 25-12-1861 ई0 को हुआ। उनके पिता-श्री पं0 बैजनाथ जी संस्कृत के विद्वान थे और श्रीमदभागवत की कथा बहुत सुन्दरता से कहते थे, जैसा सुस्वर वैसा ही सरस और विषद अर्थ भी। जब गहन तात्त्विक प्रसंग आते तो उनको ऐसे सरल रूप् में समझाते कि अल्प-बुद्धि श्रोताओं की भी समझ में आ जाय और जब कोई कथा प्रसंग आता तो उसका षब्द-चित्र अंकित करके सबको मंत्रमुग्ध कर देते। भगवान् को गोचारण सुनाते हुए गायों के रूप रंग का बड़ा ही ललित वर्णन करते। जो एक बार उन्हें सुन लेता, बारम्बार सुनने को लालयित रहता।
महामना जी की आरम्भिक संस्कृत षिक्षा घर पर ही हुई। फिर सरस्वती स्कूल में अंगे्रजी पढ़ने लगे। जब वे पन्द्रह सोलह बरस के थे तभी से हिन्दी के प्रति बड़ा प्रेम था। भारतेन्दु की विभा से प्रभावित होकर उन्हीं के अनुकरण पर मकरन्द उपनाम से ब्रजभाशा में उत्कृश्ट कविता करने लगे-
इंदू सुधा बरस्यो नलिनीन पै, वे न बिना रवि के हरसानी।
त्यों रवि तेज दिखाओ तऊ, बिन इंदु कुमोदिनि ना बिकसानी।।
न्यारी कछू यह प्रीति की रीति, नहीं मकरंद जू जात बखानी।
सँावरे कामरीवारे गुपाल पै, रीझि लटू भईं राधिका रानी।।
भूलहुँ सो हँसि माँगिवो दान को, रंच दही हित पानि पसारन।
भूलहुँ फागु के रागु सबै, कहुँ ताकिह ताकि के कुंकम मारन।।
से तो भयो सबही मकरंद जू, दाखहिं चासि के बैर बिसारन।
जा पर चीर चुराय चढे़, वह भूलिहौ कैसे कंदब की डारन।।
ढूँढ़यो चहूँ झँझरीन झरोखन, ढूँढ़यो किते भरे दाव पहारन।
म्ंजुल कुंजन ढूँढि़ फिर्यो, पर हाय मिल्यौ न कहूँ गिरिधारन।।
आवति नाहिं तउ परतीत, सहा्रौ इतने दुख प्रीति के कारन।
जनत स्याम अजौं उतही, चित चैंकत देखि कंदब की डारन।।
जके मन प्रभु तुम बसौ, सो भय कासों खाय।
सिर जावै तो जाय प्रभु मेरो धरम न जाय।।
समाज-गत दुर्गुणों के प्रति लोक की आँख खोलने के लिए कई प्रहसन भी लिखे और प्रयाग की अव्यवसायिक हिन्दी नाटक मण्डलियों द्वारा उन व्यंग्य रचनाओं के मंचन में स्वयं सफल अभिनय भी किया। एक बार इलाहाबादी फक्कड़ों की धूल उड़ाने वाली अपनी एक रचना में नाटय करते हुए, यह गीत बड़े रंग-ढंग से सस्वर सुनाया था-
गले जुही के हैं गजरे पड़े, रंगीं दुपट्टा तन।
भला क्या पूछिए, धोती तो ढाके से माँगते हैं।।
कभी हम वारनिष पहने कभी पंजाब का जोड़ा।
हमेषा पास डंडा है, ये फक्कड़ सिंह जाते हैं।।
न उधो का हमें लेना, न माधो का हमें देना।।
करैं पैदा सो खाते हैं, न दुखियों को सताते हैं।।
नहीं डिप्टी बना चाहें, न चाहें हम तसिलदारी।
पडे़ अलमस्त रहते हैं, यूँ ही दिन को बिताते हैं।।
न देखें हम तरफ उनकी जो हमसे नेक मुँह फेरें।
जो दिल से हमसे मिलते हैं, झुक उनको देख जाते हैं।।
नहीं रहती फिकर हमको कि लाएं तेल और लकड़ी।
मिले जो हलुवे छन जाएँ, नहीं झूरी उड़ाते हैं।।
सुनो यारो जो सुख चाहो तो पचडे़ से गृहस्थी के।
छुटो, फक्कड़पना ले लो यही हम तो पास मनमोहन।।
हमें मत भूलना यारो, बसे हैं पास मनमोहन ।
हुई है देर, जाते हैं तुम्हारा षुभ मानते हैं।।
एक अन्य प्रहसन में काले साहब की भूमिका बड़ी खूबी से अदा की और जन्टिल मैंनों पर यह फबती कसी-
हिन्दुओं का खाना पीना हमको कुछ भाटा नहीं।
बीफ चमचे से कटे, होटल में जा खाटा है हम।।
बाबूओ चाचा का कहना लाइक हम करटा नहीं।
पापा कहना अपने बच्चों को भी सिखलाटा है हम।।
म्योर सेन्ट्रल कालिज से उन्होंने 1884 ई0 में बी0ए0 किया। इसके बाद की कथा-व्यथा महामना जी के सिवबा कोई नहीं कह सकता। सुनिये-
बी0 ए0 पास होने के बाद मेरी बड़ी इच्छा हुई कि पिता के समान मैं भी कथा कहूँ और धर्म का प्रचार करूँ। किन्तू घर की गरीबी से सब प्राणियों को दुःख हो रहा था। उन्हीं दिनों उसी गवर्नमेंट स्कूल में जिसमें मैं पढ़ा करता था, एक अध्यापक की जगह खाली हुई। मेरे चचेरे भाई पण्डित जयगोविन्द जी उसमें हेड पण्डित थे। उन्होंने मुझसे कहा िकइस जगह के लिए कोषिष करो। मेरी इच्छा धर्म प्रचार में जीवन लगा देने की थी। मैंने नाही कर दी। उन्होंने माँ मुझे कहने के लिए आईं। मैंने माँ की ओर देखा। उनकी आँखे डबडबा आई थीं। वे आँखे मेरी आँखो में अबतक धँसी हैं। मेरी सब कल्पनाएँ माँ के आँसू में डूब गईं और मैनें अविलम्ब कहा-माँ तुम कुछ न कहो। मैं नाकरी कर लूँगाा।
इस प्रकार 40/- मासिक पर महामना जी की अध्यापक वृत्ति आरम्भ हुई।़़..........1886 ई0 में कांगे्रस का महाधिवेषन कलकत्ता में हुआ। उसमें महामना जी के भाशण से प्रभावित होकर राजा रामपाल सिंह ने, साग्रह उनको 200/- मासिक पर, अपने हिन्दी दैनिक हिन्दोस्तान का सम्पादक नियुक्त किया (यहाँ यह उल्लेखनीय है कि उन दिनों हिन्दोस्तन, हिन्दी का एक मात्र दैनिक था)। राजा साहब, कालाकाँकर (जिला प्रतापगढ़ अवध) के ताल्लुकेदार थे और देष-प्रेम, निर्भीकता एवं हिन्दी हितैशिता में अतुल्य थे। उनमें जहाँ ये सब गुण थे वहीं एक दुर्बलता भी थी। वह सांयकाल के बाद सुरा-सेवन किया करते और कभी-कभी तंरगित भी हो जाते। अतः महमना जी ने उनसे वचन ले लिया कि उस समय वह उनको कभी न बुलावेंगे। यदि बुलाया तो उसी समय संपादन छोड़कर वे घर चले जायेंगे।
महामना जी ने षीघ्र ही अपने दैनिक के लिये हिन्दी के तीन दिग्गजों, स्व0 प्रताप नारायण मिश्र, स्व0 अमृतलाल चक्रवर्ती और स्व0 गोपाल राम गहमरी की टीम बनाई, सह-संपादक रूप में।
यही नहीं; 1889 ईं0 में महामना जी धर्म महामण्डल के अधिवेषन में मथुरा गये थे। वहाँ उन्हें स्व0 बालमुकुन्द गुप्त मिले। उर्दू में उनकी तूती बोलती थी; वे उर्दू के अ़िद्वतीय लेखक हो चुके थे। महामना जी ने उनसे हिन्दोस्तान में आने का आग्रह किया। उनकी बात गुप्त जी कैसे न मानते। वह महामना जी के स्टाफ में आ गये और उर्दू में लिखना सदा के लिये छोड़ दिया।
यद्यपि महामना जी ने अपने जीवन में हिन्दी के लिये एक-से-एक काम किये, परंतु हिन्दी को उनकी सर्वोपरि देन, गुप्त जी हैं। गुप्त जी सरीखा दूसरा षैलीकार आज तक हिन्दी में नहीं हुआ। हिन्दी को वह जो कुछ दे गये वह एक अमर निधि है।
अब एक दिन ऐसा आया कि राजा साहब ने अपनी पान-गोश्ठी के समय महामना जी को बुला भेजा। वे उनके पास गये तो, किन्तू अपना त्याग-पत्र लिये हुए। राजा साहब को अपनी भूल पर बड़ा खेद हुआ। अडिग महामना जी दूसरे ही दिन प्रयाग लौट आये (1889 ई0) तथापि उनके प्रति राजा साहब का स्वभाव ज्यों-का-त्यों बना रहा। उन्होंने महामना जी का वेतन बंद नहीं किया।
महामना जी ने कानून पढ़ना तै किया और यथा समय वे प्रयाग हाईकोर्ट के वकील हो गये (1892 ई0)। प्रैक्टिस चल निकली। उन दिनों महामना जी ने एक ऐसा मुकदमा लिया जो उनके ही बूते का था-
महामना जी के कुछ पूर्ववर्ती, मिर्जापुर के सुप्रसिद्ध व्यक्ति थे महन्त जैराम गिरि, जिनकी प्रतिश्ठा और रियासत राजाओं के टक्कर की थी। उनके उत्तराधिकारी हुए उनके षिश्य महन्त परमानन्द गिरि। उनकी स्थानीय अंगे्रजी जन्ट से कुछ खटपट हो गयी। उसने उनपर एक झूठा फौजदारी मुकदमा कायम कर दिया, संभवतः कत्ल का या तत्सम किसी अन्य अपराध का।
वह अंग्रजी की पूरी धाक का जमाना था। डर के मारे किसी वकील को महन्त जी की ओर होने की हिम्मत न थी। महामना जी ने निर्भीकतापूर्वक उस मुकदमें को लिया ही नहीं, सुराम् कौषलपूर्वक कुछ ऐसे लिखित प्रमाण भी प्राप्त कर लिये कि जन्ट साहब को लेने के देने पड़ गये।
बस महामना जी की प्रैक्टिस ही नही ंचमक उठी, वह एक दिन में देष-विख्यात भी हो गये।
वकालत में इतना आगे आकर भी उनका मन न लगा। वे देष सेवा में रम गये। कांग्रेस में सम्मिलित होकर, राजनीतिक कामों में सक्रिय भाग लेने लगे और निरन्तर आगे बढ़ते गये। उन दिनों उन्होंने एक बड़ा काम और किया। नागी लिपि उत्तर प्रदेष की अदालतों से बहिश्कृत थी। काषी नागरी प्रचारिणी सभा ने अदालतों में नागरी लिपि चलाने का महदुद्योग आरम्भ किया। किन्तू यदि महामना उस आन्दोलन के अग्रणी न हुउ होते तो सरकार कुछ न करती; सभा का सारीा प्रयास विफल हो जाता। यह उन्हीं का बूता था कि सरकार से देवनागरी लिति को अदालतों में स्थान दिलया (1900 ई0)।
1907 ई0 की वसन्त पंचमी से महामना जी ने एक स्वयं सम्पादित हिन्दी साप्ताहिक पत्र निकालना आरम्भ किया। इसका नामकरण- अभ्युदय हिन्दी के उदात्त साहित्यकार पं0 बालकृश्ण भट्ट ने किया था।
पत्र के प्रथम अग्रलेख में महामना जी कहते है.......पृथ्वी मण्डल पर जितने पर्वत हैं उनमें सबसे ऊँचा नगाधिराज हिमालय है। हमारी अभिलाशा है कि हमारे देष का अभ्युदय भी उतना ही ऊँचा हो?.......
1908 ई0 में सरकार प्रेस ऐक्ट और न्यूज पेपर ऐक्ट निर्माण करने की तैयारी में थी। उसके विरोध में महामना जी ने एक अखिल भारतीय सम्मेलन का आयोजन इलाहाबाद में किया। उन्हीं दिनों उन्होंने अनुभव किया कि सरकारी दमन चक्र का विरोध करने के लिये एक अंग्रेजी समाचार पत्र भी आवष्यक है; उसी के द्वारा आन्दोलन देष व्यापी हो सकता है।
निदान, उन्होंने त्यागमूर्ति पं0 मोतीलाल नेहरू के सहयोग से विजया दषमी (24 नवम्बर), 1909 ई0 को अंगे्रजी दैनिक लीडर निकाला। निपुण एवं अनुभवी चिरंतन अंग्रेजी पत्रकार स्व0 नगेन्द्रनाथ गुप्त और नवोदित सी0 वाइ0 चिन्तामणि को उसके संपादन का भार सौंपा गया। षीघ्र ही लीडर की धाक जम गयी।
1909 ई0 में प्रयाग के माघ मेले के अवसर पर महामना जी ने सनातम धर्म महासभा का आयोजन किया। पहले वे भारत धर्म महामण्डल के बडे़ कर्मठ सदस्य थे किन्तू वहाँ की भ्रश्टता के कारण अलग होकर यह नई संस्था स्थापित की थी।
डसका यह अधिवेषन बहुत सफल हुआ। अनेक प्रवक्ता और महोपदेषक आये थे। स्वयं महामना जी का भी नित्य प्रवचन होता। संयोगवष उसी सयम माघ मेले में एक स्थानीय औद्योगिक प्रदर्षनी भी आयोजित थी। तो छोटी-सी किन्तू उसमें बहुत कुछ प्रदर्षित हुआ था। उसके दर्षकों की भीड़ महासभा में भी पहुँच जाती। इस प्रकार पंडाल खचाखच भरा रहता।
वहीं महामना जी ने काषी में हिन्दू विष्वविद्यालय की स्थापना के संकल्प की घोशणा की। उनके श्री-मुख के एक वाक्य का इतना अंष आज भी विस्मृत नहीं हुआ है- जिस समय दस हजार विद्यार्थी गंगा तट पर बैठकर संध्यावन्दन करेंगे उस समय कैसी षोभा होगी।
उसी जमाने में उन्होंने अपने इस महास्वप्र की चर्चा गोखले से की थी, किन्तू महान् होते हुए भी उनमें महामना की इयत्ता मापने की क्षमता न थी- क्या तुम पागल हो गये जो हैव यू बिकम् मैड कहकर गोखले ने उनका उपहास किया।
उक्त महासभा के दस ग्यारह महीने बाद प्रयाग में दो देषव्यापी समारोह हुए-एक तो कांग्रेस का महाधिवेषन, दूसरे विषाल अखिल भारतीय प्रदर्षनी, जिसके जोड़ की प्रदर्षनी अद्यावधि देष में नहीं हुई, यद्यपि स्वतन्त्रता के बाद दिल्ली में एकाधिक विष्व प्रदर्षनियाँ भी हुई।
महामना जी ने इन दोनों सुयोगों का लाभ उठाकर अपनी योजना और आगे बढ़ाई। हिन्दू विष्वविद्यालय सोसाइटी की स्थापना हुई। महामना जी ने सर सुन्दरलाल से बहुत बिनती की िकवे उसका मंत्रित्व स्वीकार कर लें, किन्तू उन्होंने सब प्रकार की सहायता देते हुए भी जबतक सरकार का रूप ज्ञात न हो जाय तबतक मंत्री होने से इनकार कर दिया। तब महामना जी ने अपने बूते पर कार्य आरम्भ कर दिया। सबसे पहले कलकत्ता से कई लाख का चन्दा किया।
सबसे बढ़कर उन्होंने यह कर दिखाया। कि उसी समय डाॅ एनी बेसेन्ट और धर्म महामण्डल की ओर से महाराज दरभंगा के जो विष्वविद्यालय विशयक प्रयत्न आरम्भ हो गये थे उन्हें अपनी योजना में अन्तर्भुक्त कर लिया।
अब सबसे बड़ा अड़ंगा था सरकार से विष्वविद्याालय की मान्यता प्राप्त करना। उन दिनों बडे़ लाट के षिक्षा मन्त्री थे, सर हाइकोर्ट बटलर। उन्होंने महामना जी से स्पश्ट कह दिया कि यदि षिक्षा का माध्यम अंगे्रजी रखा जाय तब तो सरकार चार्टर दे देगी अन्यथा नहीं, क्योकिं जिस समय तक आप अंग्रेजी भाशा में लिखते, बोलते, पढ़ते, पढाते हैं तब तक तो हमें षन्ति रहती है; उस समय तक हम आपकी सब बातों और चालों की भली-भाति समझ सकते हैं और स्थिति संभाल सकते हैं, पर लिस मसय आप अपनी भाशा में कार्य करना आरम्भ कर देते हैं तब उसका समझना हमारे लिए कठिन हो जाता है। इस कारण मातृभाशा द्वारा उक्त षिक्षा देने की अनुमति सरकार से किसी अवस्था में नहीं मिल सकती।
महामना जी ने सोच-विचार कर बटलर की बात मान ली। इससे यह तो हुआ कि सर सुन्दरलाल ने विष्वविद्यालय सोसायटी का मन्त्रित्व स्वीकार कर लिय और राजा महाराजा भी मुक्त-हस्त से चन्दा देने लगे। दरभंगा नरेष ने भी इस दिषा में उल्लेखनीय कार्य किया। किन्तु विष्वविद्यालय सदा के लिये अंग्रजी का गढ़ बन गया।
इस प्रसंग में पंजाब-केसरी लाला लाजपत राय ने जब महामना जी से कहा कि चार्टर मिले या न मिले विष्वविद्यालय तो बनेगा ही। महामना जी ने उत्तर दिया कि चार्टर मिलेगा और मिलेगा-एवं यूनिवर्सिटी बनेगी और बनेगी। इन वाक्यों में उन दोनों व्यक्तियों की मनोवृत्ति का अच्छा परिचय मिलता है।
फिर तो पेषावर से ब्रहा्रपुत्र तक और हिमालय से कन्याकुमारी तक चन्दा उगाहने का महामनाजी ने ऐसा अथक और अभूतपूर्व परिरम किया जो वर्णन के परे है। लाख वाले ने लाखों लाख दिया। खाक वालों ने पाई पैसाा और चिथडा़ गुदडा़ तक दिया। कवि के षब्दों में-
जय देव मन्दिर देहली,
सम भाव से जिस पर चढ़ी, नृप हेम-मुद्र
और रंक वराटिका।।
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