कवि मकरन्द के रूप में महामना
आलोक पुरुष : पं० मदनमोहन मालवीय
एक मनुष्य एक साथ अनेक विद्याओं, कलाओं एवं विशेषताओं का धनी नहीं होता । यदि ऐसा होता है तो उस पर नियति की विशिष्ट कृपा-दृष्टि समझी जानी चाहिए । उक्त कसौटी पर जब हम मालवीय जो को आरूढ़ करते हैं तो प्रतीत होता है कि वे नियति के परम कृपा-पात्र थे । अन्यथा जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में उन्हें सफलता के शिखर प्राप्त नहीं हो सकते थे ।
राजनीतिज्ञ, धर्मज्ञ तथा शिक्षा शास्त्री, समाज शास्त्री, विधिज्ञ यानी बहुज्ञ थे मालवीय जी । किन्तु इन सबके अतिरिक्त एक वरीय रूप या कर्म भी उनकी विद्व्ता को प्रकट करता है और वह कर्म था कवि कर्म । जितने अच्छे वे राजनीतिज्ञ, धर्मज्ञ, शिक्षाविद एवं समाजज्ञ, विधिज्ञ थे, इतने ही अच्छे, सुन्दर कवि भी ।
पन्द्रह-सौलह वर्ष कि आयु में उनका कवि-कंठ निनादित हो गया था और वह भी उत्तमता के साथ । अनायास और सजह भाव से उनका कवि-कर्म उद्घाटित हुआ । जो नियति का वरदान ही माना जा सकता है ।
उल्लेख्य है कि कवि-कर्म सुकर नहीं होता, अपितु दुष्कर कर्म है । यदि यह बात न होती तो किसी मनीषी को निम्नांकित पद्यांश लिखने, कहने की आवश्यकता न पड़ती ।
कवित्वं दुर्लभं लोके, शक्तिस्तत्र सुदुर्लभा ।
संसार में मनुष्य-देहाकार पाने पर भी कवित्व पाना दुर्लभ है और यदि कवित्व मिल भी जाए तो कवित्व-शक्ति प्राप्त होना अति दुर्लभ है ।
घिस-घिस कर सुगन्ध विकीर्ण करने वाला चन्दन काष्ठ चन्दन-वन में जहां-तहां हो सकते हैं, किन्तु बिना घिसे ही सुगन्ध फैलाने वाला चंदन वृक्ष उन सब से अलग तथा बिरल होता है, जो घिसने पर ही महकते हैं । वस्तुतः वे चंदन-वृक्ष के साहचर्य से चन्दनवत हो जाते हैं तथा सामान्य वृक्षों की तुलना में चन्दन समझ लिए जाते हैं, जब कि यथार्थ में वे चन्दन नहीं होते ।
तो मनीषी, कवियों के सम्पर्क-संसर्ग में आने पर अकवि भी कवि माने जाने लगते हैं और अभ्यास के द्वारा वे कवि-कर्म भी करने लगते हैं किन्तु नैसर्गिकी प्रतिभा के अभाव में वे कवित्व-शक्ति से रहित होते हैं । नैसर्गिकी प्रतिभा लेकर जन्मा कवि स्वतः कविता या कवि-कर्म में प्रवृत हो जाता है । कोकिल की तरह । भ्रमर की तरह । न कोकिल को 'कुहू' स्वर-संगीत की शिक्षा देता कोई अन्य और न भ्रमर को गुंजन की ।
वास्तव में कवि वही होता है, जो जन्मतः विदग्ध हृदय होता है । यानी अति चातुर्य युक्त हृदय और विशेष रूप से दग्ध हृदय । सन्ताप-भरा हृदय । समग्र रूप से करुणा से परिपूर्ण हृदय । 'स्व' में विश्व्त्व की समग्रता और विश्व्त्व में 'स्व' का समापन । अर्थात स्व- अपने सुख को समष्टि में बांटने की शक्ति और समष्टि के दुःख को आत्मसात करने की शक्ति का नाम ही कवित्व-शक्ति है । जो इसे जन्मतः लेकर आता है, वही कविमनीषि होता है ।
तो मालवीय जी भी कवित्व-शक्ति को जन्मतः लेकर आए थे, तभी पन्द्रह-सोलह वर्ष की आयु में सौष्ठव-माधुर्य तथा भक्ति, प्रेम भाव से संयुक्त कविता वे लिख पाए । अन्यथा इस आयु में कुशल-पत्र तक सही नहीं लिख पाते आज के किशोर ।
मालवीय जी ने मात्र चौदह साल की अवस्था में श्लेष अलंकार से युक्त निम्न दोहा लिख डाला था ।
यह रस ऐसो ब्यूरो है, मन को देत बिगारि ।
याते पास न जाइए, जब लौं होइ अनारि ।
श्रृंगार रस की भावभूमि पर आधारित उक्त दोहे में 'अनारि' शब्द के श्लेष पर ध्यान देना होगा । यहां एक ओर तो अनारि का अर्थ नासमझ है और दूसरी तरफ अनारि का अर्थ नारी-विहीन है । यानी जब तक मनुष्य में अच्छी समझ पैदा न हो जाए, वह श्रृंगार-रस-भोग विलास की तरफ न जाए क्योंकि भोग वासना मन को बिगाड़ देती है और जब तक मनुष्य विवाहित न हो जाए, नारी वाला न हूँ जाए, तब तक भोगेच्छा को अपने मन में न पनपने दे, अन्यथा नारियों की ओर मन दौड़ेगा, जो नैतिक दृष्टि से उचित नहीं ।
जिन दिनों उक्त दोहा लिखा गया, वह युग आधुनिक हिन्दी-साहित्य के जनक भारतेन्दु बाबू हरिश्चंद्र का था । वे हिन्दी के उन्नयन के लिए साहित्य-दरबार का आयोजन करते थे, जिनमें वे लोग अपनी-अपनी रचना (कविता) सुनाया करते थे; जिन्हें हम आज हिन्दी के महान साहित्यकार के रूप में स्वीकार कर नत मस्तक होते हैं । जो हिन्दी खड़ी-भाषा के आधार स्तम्भ सिद्ध हुए ।
एक बार उस साहित्य दरबार में भारतेन्दु जी ने समस्या पूर्ति की पंक्ति प्रस्तुत कर उस पर कविता लिखने को स्व-समकालीनों से कहा । समस्या पूर्ति की पंक्ति निम्न थी:-
रीझि लट्टू भई राधिकारानी ।
स्पष्ट है कि राधा कृष्ण पर रीझ गई थी और उस पर मुग्ध हो गई थी । प्रश्न है क्यों और कैसे, किसलिए? सबका समाधान कविता में होना था ।
काशी में उपस्थित कवियों ने तो साहित्य-दरबार में उपस्थित हो कर अपनी-अपनी समस्यापूर्ति की कविता सुनाई, किन्तु कुछ समस्यापूर्ति वाली कविताएं भारतेन्दु को डाक द्वारा भी प्राप्त हुईं । जिनमें से एक प्रयाग(इलाहाबाद) से किसी मकरन्द ने भेजी थी । भारतेन्दु ने जब उस कविता को देखा, पढ़ा तो वे कविता और कवि दोनों पर मुग्ध हो गए । जरा मकरन्द द्वारा लिखी समस्या पूर्ति वाली कविता की बानगी देखिए!
इन्दु सुधा बरस्यो नलिनीन पै,
वे न रवि के बिना हरसानी ।
त्यों रवि तेज दिखायो तऊ बिन,
इंदु कुमोदनि सह बिकसानी ।
न्यारी कछु यह प्रीती की रीत,
नहीं 'मकरन्द जू' जाति बखानी ।
सांवरे कामरीवाले गुपाल पै,
रीझि लट्टू भई राधिकारानी ।
वे कब ते उत ठाढ़े अहं,
इति बैठी आहों तुम नारी चुपानी ।
थाकी तुम्हें समझावत साम तैं,
ऐसी मैं रावरि बानि न जानी ।
मोहि कहा पै यह मकरन्द हुं,
जो कहुं खीझि कै रूसन ठानी ।
अजु मनाए न मानती हों,
कल्ह आपु मनाईहो राधिकारानी ।
मांगत मोतिन माल नहीं,
नहि मांगत तोसों भोजन पानी ।
सारी न मांगत हों 'मकरन्द'-
न थारी अनेक सुगन्धन सानी ।
मांगत हों अधरा रस रंचक,
सोउ न दीजतु हो सनमानी ।
संता एति तुम्हें नहि चाहिए,
बाजति हों चहूं राधिकारानी ।
धूम मची ब्रज फागुरी आज बजैं,
डफ, झांझ अबीर उड़ानी ।
ताकि चलै पिचका दुहुं ओर,
ग्लीन में रंग की धार बहानी ।
भीजैं भिगोवैं ठाड़े 'मकरन्द'-
दुहुं लखि सोभा न जात बखानी ।
ग्वालन साथ इतैं नन्दलाल, उतैं-
संग ग्वालिन राधिकारानी ।
प्रयाग में उन्हीं मकरन्द की भारतेन्दु बाबू हरिश्चंद्र की 'हरिश्चंरा चन्द्रिका' पत्रिका में 'डारन' समस्या पूर्ति भई प्रकाशित हुई थी ।
भूली हैं सो हंसि मांगिबो दान को,
रंच दही हित पानी पसारन ।
भूलि हैं फागु के रागु सबै वह-
ताकहि ताकि कै कुमकुम मारन ।
सो तो भयौ सब ही 'मकरन्द जू'
दाखहिं दाखि कै बैर बिसारन ।
जापर चीयर चुराय चढ़े-
वह भूलिहैं कैसे कदम्ब की डारन ।
ढूंढ्यो चहूं झँझरीन झखोरन,
ढूंढ्यो कितै भर दाव पहारन ।
मंजुल कुंजन ढूंढि फिरयो-
पर हाय! मिल्यो न कहूं गिरिधार ।
लावत नाहिं तउ परतीति,
सह यौ इतनो दुःख प्रीति के कारन ।
जानत स्याम अजौं उतही-
चित चौंकत देखि कदम्ब की डारन ।
उक्त समस्या पूर्ति मालवीय जी ने १६-१७ वर्ष की आयु में लिखी थीं और राधिकारानी पूर्ति वाली कविता जब भारतेन्दु जी को डाक से प्राप्त हुई थी, तो उन्होंने मकरन्द को काशी आकर स्व-मुख से कविता सुनाने को आहूत किया था, किन्तु अति संकोची मदनमोहन ने पत्र द्वारा उन्हें सूचित किया था- 'मैं प्रयाग के अहियापुर मोहल्ले का निवासी हूँ और मेरा वास्तविक नाम मदनमोहन है । मकरन्द उपनाम से आपको कविता भेजी है । मैंने आपको अपना मन से गुरु धारण किया है । मैं बालक गुरुजनों के समक्ष बोल भी पाउंगा या नहीं, अतः मुझे संकोच होता है ।
इस तरह 'मकरन्द' की वास्तविकता प्रकट हुई थी । मालवीय जी ने दर्जनों दोहे और कविताएं लिखी थीं और कॉलेज में अध्ययन करते हुए भी उनका लेखन-कर्म अबाध चलता रहा । उन्हीं दिनों उन्होंने जेन्टिलमैन शीर्षक से दो कविताएं लिखी थी । प्रथम में अपने फक्कड़पन और मस्ती का वर्णन किया था और दूसरी में फैशन परस्त जेन्टिलमैनों पर करारा व्यंग्य कसा था । यहां पर कुछ पंक्तियां प्रस्तुत की जा रही हैं ।
गरे जूही के हैं गजरे, पड़ा रंगी दुपट्टा तन,
भला क्या पूछिए धोती तो ढाके से मंगाते हैं ।
कभी हम वारनिश पहनें, कभी पंजाब का जोड़ा,
हमेशा पास डंडा है, ये फक्कड़सिंह गाते हैं ।
न ऊधौ से हमें लेना, न माधो को हमें देना,
करें पैदा जो खाते हैं व दुखियों को खिलाते हैं ।
नहीं डिप्टी बना चाहें, न चाहें हम तसिल्दारी,
पड़े अलमस्त रहते हैं, यूं ही हम दिन बिताते हैं ।
उक्त पंक्तियों से पता चलता है कि परिश्रम से स्वयं जीना और दूसरों को जिंदा रखना, खिलाना मालवीय जी की नीति का अंग था तथा डिप्टी कलक्टर, तहसीलदार बन कर अंग्रेज-सरकार की गुलामी में रहना उन्हें पसंद न था । यानी छात्र-जीवन से ही कट्टर देश भक्त थे मालवीय जी ।
जेन्टिल मैनी पर कसी तीव्र व्यंग्य की बानगी देखने योग्य है ।
अहले योरप पूरा जेन्टिलमैन कहलाता हैं हम,
डोंट से बाबू टू मी मिस्टर कहा जाता है हम ।
हिन्दुओं का खाना-पीना हमको सब कुछ भाता नहीं,
बीफ में चमचे से कटे होटल में जा खाता है हम ।
कोट औ पतलून पहने, हैट अब सिर पर धरे,
इवनिंग में वाक करने पार्क को जाता है हम ।
प्रार्थना ,विनती परक दोहे और पद्य भी मालवीय जी ने पर्याप्त लिखे । साथ ही विविध भाव परक दोहे भी । कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं ।
चंदा सूरज तुम रचे, रचे सकल संसार,
दृढ़ राखो मोसह सत्य में, बिनवौं बारम्बार ।
उठों धरम के काम में, उठों देश के काज,
दीं बंधु! तुव नाम लें, नाथ रखियो लाज ।
अंश उसी के जीव हो, करौ उसी से नेह,
सदा रहो दृढ़ धर्म चिर, बसो निरामय देह ।
मालवीय जी की प्रार्थना-परक कवितांश की छटा दर्शनीय है ।
रवि शशि सिरजन हार पर्भु, मैं विनवत हों तोहि,
पुत्र सूर्य सम तेजयुत, जग उपकारी होंहि ।
मैं दुर्बल अति दीन प्रभु, तुव शक्ति अपार,
हरहु अशुभ, शुभ दृढ़ करहु, बिनवहुं बारम्बार ।
मालवीय जी की कवित्व-शक्ति और अलंकार, छंद योजना का सही अनुमान क्या अब भी दुष्कर है? शब्द चयन, गुम्फन और भावाभिव्यक्ति सभी तो अदभुत है । वर्तमान के अध कचरे किन्तु दम्भी तथाकथित हिन्दी सेवी के नाम पर कुछ लोग 'हिन्दी जगत के मूर्धन्य साहित्यकार' के पर्चे छपवा कर लोगों के मध्य वितरित करते देख, उस महामना की सरल, सहज तथा निरभिमानी छवि नेत्रों के आगे थिरकने लगती है; जिन्हें आधुनिक हिन्दी साहित्य के प्रपितामह स्व० भारतेन्दु बाबू हरिश्चंद्र ने मान्य, स्वीकार किया था, एक व्युतपन्नमति कवि के रूप में और प्रतिभावान के रूप में ।
दूसरी तरफ वर्तमान के ये साहित्यकार नाटकबाज हैं, जिन्होनें एक पंक्ति न गद्य लिखा है न कविता, फिर भी हिन्दी जगत के मूर्धन्य साहित्यकार! बेहतर हो कि ऐसे मक्कारों को मुर्दा साहित्यकार कहा, माना जाए । समझा जाए और इनके मक्कारपने पर दंड की व्यवस्था कायम की जाए, ताकि समाज को भ्रमित न कर पाएं ऐसे लम्पट, पाखंडी लोग ।
कितना अच्छा हो कि जिन हिन्दी-भाषा की संस्थाओं को मालवीय जी ने रोपा, सींचा तथा विशाल पादप रूप दिया, वे सब मिलकर मालवीय जी द्वारा लिखित एक-एक पंक्ति को ढूंढ करके उनको पुस्तकाकार करें तथा हिन्दी साहित्य जगत को मालवीय जी की कवित्व-शक्ति एवं लेखन सम्यक रूप में परिचित कराएं । ऐसा करना वर्तमान सन्दर्भ में देश और समाज हित में परमोपयोगी हो सकता है और आगामी पीढ़ियों के लिए प्रेरणा, सम्बल बन सकता है । मालवीय जी के ही शब्दों में-
रक्षा होवै धर्म की, बढ़ै जाति को मान,
देश पूर्ण गौरव लहै, जय भारत-संतान ।
हमारे धर्म यानी चरित्र की रक्षा हो सके तथा भारतीय कौम (जाति) को सम्मान प्राप्त हो । राष्ट्र (भारत) पूर्ण गौरव को प्राप्त करे और भारत पुत्रों को जय सुस्थिर हो ।
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