Mahamana Madan Mohan Malaviya

Mahamana Madan Mohan Malaviya
Reminiscences

महामना - मेरे पूज्य पितामह - मेरे आदर्श

 

गिरिधर मालवीय

 

मुझे अपने जीवन के प्रारम्भिक वर्ष पूज्य दादाजी के पास रह कर बिताने का सौभाग्य प्राप्त रहा है. बचपन के वे दिन मै अपने जीवन की अमूल्य निधि मानता हूँ. बचपन में ही उनकी जो अमित छवि मेरे मन पर पड़ी, और उसके बाद भी जो कुछ उनके बारे में अपने पूज्य पिता पंडित गोविन्द मालवीयजी तथा माता ऊषा मालवीयजी से सुन कर जाना तो धीरे धीरे समझ में आने लगा कि भगवान श्री रामचन्द्रजी के ही समान महामना मालवीयजी ने भी जीवन पर्यंत पुरुषोचित समस्त मर्यादाओं का पालन करते हुए अपना जीवन यापन किया. ऐसे में मेरी दृष्टि में महामना मालवीयजी को कलियुग के मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में जानना किसी भी प्रकार से गलत न होगा. इस बात का मर्म समझने के संदर्भ में यदि मै यह बतलाऊँ कि हमारे परिवार के इष्ट देव “श्री राधाकृष्णजी” हैं– जिनकी मूर्तियां साथ में लेकर हमारे पूर्वज कुछ शताब्दी पूर्व मालवा से यहाँ आए थे –तथा जो श्रीराधाकृष्णजी आज भी प्रयाग में हमारे पैतृक मकान, जहाँ महामना का जन्म हुआ था, वहाँ आज भी विराजमान हैं तथा जिनके नाम अपनी वसीयत द्वारा महामना ने उस पैतृक भवन का आधा भाग “श्री ठाकुरजी” को देकर उनकी राग–भोग–सेवा निरंतर होते रहने का निर्देश दे रखा है, विद्यार्थियों को अपने संदेश के अंत में महामना ने जो सीख दी है उसमें कहा है:-

 

घट घट व्यापक राम जप रे,

मत कर बैर, झूठ मत भाखै,

मत पर धन हर, मत मद चाखै,

जिव मत मार,जुआ मत खेलै,

मत पर तिय लख, यही तेरो तप रे.

 

तथा अपने इस रिकॉर्डेड वक्तव्य के अंत में उन्होंने विद्यार्थियों से कहा है कि “यदि तुम इतने भाव को ध्यान में रखोगे” तो तुम्हारा  कल्याण होगा. इस तरह श्री राम का नित्य स्मरण करने का निर्देश ही यह स्पष्ट करता है कि विद्यार्थियों के लिए मर्यादा पुरुषोत्तम राम का ही अनुसरण करना ही उन्हें अभीष्ट था जिसका पालन वह स्वतः भी करते थे. इसके पीछे श्री कृष्ण का उन्होंने विद्यार्थियों के समक्ष आदर्श क्यों नहीं प्रस्तुत किया यह समझना भी कठिन नहीं है क्योंकी श्री कृष्ण के गूढ़ चरित्र को समझने के लिए विद्यार्थियों तथा साधारण मनुष्यों में जो वैचारिक परिपक्वता अपेक्षित है उनका पूर्ण विकास तब तक उनमे नही हुआ रहता है तथा वे श्रीकृष्ण के चरित्र की महत्ता को समझ नहीं पाते हैं.

 

महामना के संस्मरण के प्रश्न पर जब मै विचार करता हूँ तो मुझे यह लगता है कि मेरे निजी अनुभव तो महामना से संबंधित अधिक नहीं हैं किन्तु उनके कुछ ऐसे प्रसंग अवश्य हैं जिनके बारे में मुझे अपने पूज्य माता-पिता से प्रामाणिक जानकारी मिली है. उनसब में से कुछ को इस लेख में, दो एक अपने संस्मरणों के साथ, समेटने का प्रयास करता हूँ.

 

बचपन की मेरी याददाश्त को कुरेदता हूँ तो सब से प्रमुख जो बात मन में आती है वह यह की पूज्य दादाजी (जिन्हें हम सब “बाबूजी“ कहते थे) प्रेम, कोमलता पवित्रता की प्रति –मूर्ति थे. सुबह ही वह नित्य कर्म से निवृत्त हो कर संध्या–पूजन कर, बिलकुल साफ़-सुथरे शुभ्र वस्त्र पहन कर तैयार हो जाते थे. बच्चों में घर में मै व मेरी पांच बड़ी बहने उनके पास रहते थे. हमारा शेष परिवार प्रयाग में हमारी दादीजी के पास रहता था. उनको सभी लोग जाकर कर प्रणाम करते थे और मुझे जो याद है वह “चिरंजीवी-भव, यशस्वी भव” कह कर आशीर्वाद देते थे. उनके पास जाना ही हमें बहुत अच्छा लगता था. सबको वह प्रेम से बैठाते थे, उनका कुशल क्षेम पूछते थे और किसी का यदि कोई काम होता तो उसके विषय में निर्देश देते थे. हम लोग अपने अपने स्कूलों  में जाने के पहले उनका आशीर्वाद प्राप्त करते थे. शाम को जब वह घर पर होते तो “गायनाचार्यजी” उनके घर के बाह्य बरामदे में उनको भजन सुनाते थे जिसे वहाँ उपस्थित सबलोग सुना करते थे. उनके दिन के भोजन के समय तो हमलोग विद्यालयों में होते थे लेकिन रात्रि के भोजन में वे अधिकतर “मोहनभोग” (गौ के दूध में भुना हुआ आटा मिलाकर बनाया पतला हलुआ) लेना पसन्द करते थे, जो मेरी माताजी उनके लिए बनाती थीं. अक्सर वह मुझे उस “मोहन भोग ” को ले जाकर उन्हें देने कहती थीं–जो करना मुझे बहुत ही अच्छा लगता था. “अच्छा बच्चा तुम ले आए हो“ कहकर वे उसे बड़े प्रेम से पी लिया करते थे.

 

         हम बच्चों से उन्हें “सिंहासन हिल उठे राज वंशो ने भृकुटी तानी थी, बूढे भारत में भी आई फिर से नई जवानी थी,गुमी हुई आजादी की कीमत सबने पहचानी थी, दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी, चमक उठी सन सत्तावन में वह तलवार पुरानी थी, बुन्देलों हरबोलों के मुह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मरदानी वह तो झाँसी वाली रानी थी” की पूरी कविता सुनना उनको बहुत अच्छा लगता था.

 

मेरे अपने जीवन में जो एक बहुत ही रोचक क्षण मेरा उनके साथ बीता, उसे बताता हूँ. मेरी दूसरी सबसे बडी बहन सुधाजीजी का विवाह गर्मियों में होना था. सब तैयारियाँ विधिवत चल रही थीं. हमारे घर में बालक के यज्ञोपवीत के लिए भी मंडप बनता है तथा विवाह जैसी भव्यता के साथ ही हमारे घर में बालक का यज्ञोपवीत भी होता है. उस समय मै आठ वर्ष का पूरा हो चुका था. विवाह के बिल्कुल पहले ही महामना ने मेरे पिताजी जी को बुलाया तथा कहा कि मेरा जनेऊ भी मेरी बहन के विवाह के समय ही जो मंडप बना है या  बनना है उसी में कर दिया जाए. मेरे पिताजी ने एक बार उनसे कहा भी कि “अभी हो बहुत छोटा है और विधिवत ब्राह्मण बटु के लिए जिस प्रकार नियम से नित्य संध्या-पूजन करना चाहिए वह संभवत: नहीं कर पाएगा”—लेकिन दादाजी ने कहा कि “यह आठ वर्ष का हो चुका है तथा ब्राह्मण बटु का यज्ञोपवीत आठ वर्ष के हो जाने पर ही होना चाहिए अत: इसका जनेऊ उसी समय विवाह के लिए बने मंडप में किया जाए. उन्होंने यह भी कहा कि इसलिये भी मेरा जनेऊ तत्काल किया जाए क्योंकि वह स्वत: मुझे “गायत्री मंत्र” गुरु के रूप में देना चाहते थे. तदनुसार मेरा जनेऊ किया गया. मुंडन करके कौपीन धारण करके जब मेरा यज्ञोपवीत हो गया तो मुझसे कहा गया कि गुरु मंत्र लेने मुझे अपने बाबा के पास जाना है तथा जो मंत्र वह धीरे धीरे मेरे कान में कहेंगे उसे मुझे उनके साथ पांच बार दुहराना है. उस समय तक बाबा काफी कमजोर हो गए थे तथा उनकी आवाज भी बहुत धीमी हो गई थी. तब तक मुझे गायत्री मंत्र आता भी नहीं था, तथा उसे रट कर याद करने का समय भी नही बचा था. अत: जब पूज्य बाबा मेरे कान में धीरे धीरे करीब करीब फुसफुसाते हुए गायत्री मंत्र कहते थे तब जितना मेरी समझ में आता था उतना मै दुहरा देता था. पाँच बार कान में मंत्र देने के बाद बाबा ने मुझसे कहा “चिरंजीवी भव”.ये वाक्य मेरा बचपन से खूब अच्छी तरह सुना हुआ था अत: मैने भी “चिरंजीवी भव” कह दिया. यह सुनते ही सब लोग खूब हँसे –लेकिन बाबा ने गद्गद हो कर कहा कि “नव बटु मुझे आशीर्वाद दे रहा है” आज जब मै इस मूर्खता  का स्मरण करता हूँ” तो मुझे स्वत: अपने पर हँसी आती है.

 

सभी के लिए एक नियम

 

अब महामना के जीवन के कुछ प्रसंगों का उल्लेख़ करता हूँ, जो बहुत कम जाने जाते हैं. महामना मालवीयजी काशी हिन्दूविश्वविद्यालय की स्थापना के लिए प्रयाग से काशी आ गए थे.  उनका पूरा परिवार प्रयाग में ही रहता रहा. प्रयाग मे मेरे पिता पूज्य पंडित गोविन्द मालवीय, जो उनके सबसे छोटे पुत्र थे, ने दसवीं कक्षा स्कूल  से पूरी कर के प्रयाग विश्वविद्यालय में दाखिला ले लिया था. महामना ने उन्हें काशी आकर काशी हिन्दूविश्वविद्यालय में आगे की पढाई करने को कहा – सो पिताजी काशी जाकर छात्रावास में रह कर पढाई करने लगे. महामना का यह नियम था कि वे छात्रावास जाकर विद्यार्थियों से उनके कुशल  क्षेम व पढ़ाई आदि के बारे में पूछा करते थे. जब वे छात्रावास जाते तो पहले से ही छात्रावास के वार्डेन को सूचित कर दिया करते थे. जिस छात्रावास में मेरे पिताजी थे उसके वार्डेन गणितके प्रख्यात विद्वान डॉ गणेश प्रसादजी थे. जब महामना छात्रावास पहुँचे तो डॉo गणेश प्रसादजी साथ हो लिए. महामना का आना सुन कर सब विद्यार्थीअपने अपने कमरों के दरवाजों पर बरामदे में खड़े हो गए. महामना हर कमरे मे रहने वाले विद्यार्थियों से उनका कुशल –क्षेम पूछते आगे बढ़ रहे थे. हॉस्टल के कोने वाले कमरे में मेरे पिताजी थे सो वे भी कमरे के बाहर आकर खड़े  हो गए. जब महामना मेरे पिताजी के कमरे पर आए तो उन्होंने पिताजी से पूछा कि उनके कमरे में और कौन विद्यार्थी है क्योंकि पिताजी अकेले ही कमरे से बाहर आए थे.जबकि बाकी हर कमरे से दो दो विद्यार्थी बाहर आकर उनसे मिले थे. पिताजी ने महामना को बताया कि वे उस ”कार्नर रूम” में अकेले ही रहते थे. इस बात पर महामना ने डॉo गणेश प्रसादजी से कहा कि “कॅार्नर रूम” तो अन्य कमरों से बडा होता है फिर भी उन्होंने मेरे पिताजी को अकेले ही उस कमरे मे क्यों रखा जब कि अन्य कमरों में २ विद्यार्थी हैं तो एक और विद्यार्थी को उस कमरे में क्यों नहीं रखा. यह सुनकर डॉo गणेश प्रसाद जी ने नाटकीय अंदाज में कहा

 

           “मिस्टर वाइस चांसलर, इट इज माइ प्रेरोगेटिव टू अलौट रूम्स ऑफ माइ हॉस्टल टू एनी  

           स्ट्यूडेन्ट ऐस आइ विश, एन्ड आइस्ट्रौंगली प्रोटेस्ट फॉर इन्टरफियरिंग इन माई डिस्क्रीशन.”

            जिस पर महामना ने भी नाटकीय अंदाज़ में कहा

 

            “आई ऐमएक्सट्रीमली सॉरी मिस्टर वार्डेन, एन्ड आइसिन्सियरली अपौलोजाइस.

 

         और महामना घूम कर चार पाँच कदम पीछे जाकर वापस पुन: डाक्टर गणेश प्रसादजीसे बोले

 “जी आप यहाँ के वार्डेन साहब हैं,मेरा नाम मदन मोहन मालवीय है. मेरा बेटा गोविन्द मालवीय आपके हॉस्टल में रह करयहाँ पढाई कर रहा है, लेकिन मेरी इच्छा है कि अब वह यहाँ पढाई न कर के इलाहाबाद जाकर पढाई करे. इस लिए आपसे निवेदन है कि आप उसकी इस हॉस्टल से छुट्टी कर दें.”

 

इस पर डॉo गणेश प्रसाद ने कहा की यह आप क्या कह रहे हैं तो महामना ने उत्तर दिया कि देखिए मै आपके किसी अधिकार के विरुद्ध कुछ भी नही कर रहा हूँ– यह तो एक पिता का अधिकार है कि वह यह निर्णय करे की उसका बेटा कहाँ पढाई करे–सो मै अपने उसी अधिकार से आपसे यह निवेदन कर रहा हूँ. लाचार हो डॉo गणेश प्रसादजी बोले- “महाराज, आपसे कोई नही जीत सकता, बताइए क्या करना है,तब महामना ने कहा मेहरबानी करके इस कमरे में एक विद्यार्थी और रख दीजिए. अस्तु.

 

बिना बिजली के रहे छात्रों को कष्ट ना हो

 

 एक अन्य प्रसंग- काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में इंजीनियरिंग कालेज बनने के बाद वहाँ विश्वविद्यालय की अपनी बिजली आ गयी थी. क्योंकि बिजली का उत्पादन कम था अत: बिजली केवल हॉस्टल में विद्यार्थियों को दी जाती थी. किंग साहब ने  जो इंजीनियरिंग कालेज के प्रिंसिपल थे कई बार चाहा कि महामना के निवास पर भी बिजली लगा दी जाए जिससे महामना को विश्वविद्यालय का काज निपटाने में सुविधा हो,किन्तु हर बार महामना यह कहकर बिजली नहीं लगवाने देते थे कि अभी ही जो बिजली विद्यार्थियों को मिल रही है उसकी रोशनी बहुत कम है और यदि उनके यहाँ बिजली लग गई तो लोड बढने से विद्यार्थियों की बिजली और भी धीमी हो जाएगी. इसके अतिरिक्त अध्यापकों को पहले बिजली मिलनी चाहिए क्योंकि उन्हे स्वत: पढाई करनी होती है तथा विद्यार्थियों को पढाना पड़ता है. इस तरह प्रोफेसर किंग साहब चाहते हुए भी महामना के घर पर बिजली नही लगवा पा रहे थे. एक बार महामना विश्वविद्यालय में ही पधार रहे किन्ही अति विशिष्ट मेहमान को लिवा लाने के लिए स्वत: काशी से तीन दिन के लिए बाहर गए. प्रिंसिपल किंग साहब ने सब अधिकारियों के साथ मिलकर यह निर्णय कराया वह अति विशिष्ट महोदय महामना के साथही महामना के निवास में ही ठहरेंगे. इस निर्णय के बाद उन्होंने तत्काल महामना के घर में बिजली लगवा दी और महामना के वापस आने पर कह दिया कि बिजली उनके लिए नही बल्कि विश्वविद्यालय के अति विशिष्ट मेहमान के लिए लगाई गई है. इस प्रकार जाकर महामना के घर में बिजली लगी.

 

एक अन्य प्रसंग के साथ इस लेख को विराम देता हूँ. महामना ने मेरे पिता जी पंडित गोविन्द मालवीय को एमo एo,एलएल बीo की पढाई पूरी करने के बाद अपना निजी सचिव बना लिया था तथा शुरू में २५० रुपए प्रति माह वह उन्हे अपने कमाए हुए पैसों से देते थे. १९३५ तक उनकी तनख्वाह बढा कर ३५० रुपए प्रति माह हो गयी थी. तब तक मुझसे बड़ी मेरी ५ बहने पैदा हो चुकी थीं. ऐसे में एक दिन पिताजी ने दादाजी के पास जा कर कहा कि यदि उन्हें निजी सचिव के कार्य के छुट्टी मिल सके तो वे कुछ व्यापार आदि कर के थोडा पैसा कमा लें जिससे लड्कियों की पढाई लिखाई व ब्याह शादी की व्यवस्था हो सकेगी जिसपर महामना ने उन्हे अपने सचिव के पद से मुक्ति दी. उसके बाद पिताजी ने अपने कारोबार से अच्छा पैसा कमाया जब वर्ष १९३६ में, महामना ने स्वास्थ्य  के आधार पर कुलपति पद डॉo सर्वपल्ली राधाकृष्णन को सौंपने का निश्चय किया तथा डॉo राधाकृष्णन ने ६ महीने बाद कुलपति बनकर आना स्वीकार किया तो महामना ने यह जान कर, कि मेरे पिताजी तब तक एक घर बनवाने की स्थिती में हो चुके हैं, उनसे काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के बाहर एक घर बनवाने कहा जिसका भूतल ६ महीने में बनकर तैय्यार हो गया. डॉo राधाकृष्णन को कुलपति पद सौपने के बाद उन्होने वहीं पर सबको बतलाया कि क्योंकी अब वह विश्वविद्यालय से सेवा निवृत्त हो गए हैं, अत: अब वे विश्वविद्यालय के बाहर ही, जो उनके पुत्र ने घर बनवा लिया है, उसमे जाकर रहेंगे. यह सुनते ही पूरे  ऐम्पीथियेटर के पंडाल से “नो नो नो नो” की आवाज आने लगी,जिस पर महामना ने स्पष्ट किया कि यह विश्वविद्यालय उनका निजी नहीं है बल्कि देश के दान में दिये पैसों से बना है अत: यह आवश्यक है कि जिस दिन जो भी व्यक्ति विश्वविद्यालय से अवकाश ग्रहण करे, उसी दिन से वह विश्वविद्यालय का भवन छोड़ कर अन्य निवास में रहने की व्यवस्था करे, अत: उनका विश्वविद्यालयका भवन छोड़ने का निर्णय उचित है तथा उनकी बात का तथा निर्णय का सम्मान होना ही चाहिए. जब उनकी इस बात को भी, विशेष कर विद्यार्थी गणों ने नही माना और वे सब जाकर रास्ते में लेट गए कि हम आपको नहीं जाने देंगे, तो डॉo राधाकृष्णन साहब ने वहीं ऐलान किया किविश्वविद्यालय में एक पद “रेक्टर” का खाली पडा हुआ है, जो अभी तक नहीं भरा गया है, तथा महामना को तत्कालीन प्रभाव से विश्वविद्यालय का “लाइफ लौंग” रेक्टर नियुक्त करके जिस भवन में वे अभी तक रह रहे थे उसका नाम “रेक्टर्स लॉज” कर दिया गया है, अत: महामना को विश्वविद्यालय से अवकाश नहीं दिया गया है और उन्हें वही “रेक्टर्स लॉज” में ही रहना होगा कहकर उनको विश्वविद्यालय में ही रोक लिया. इस प्रकार महामना को विश्वविद्यालय से बाहर  नहीं जाने दिया गया.

 

उपरोक्त तथ्य यह दिखलाते हैं कि महामना की सोच कितनी ऊँची थी. आज कोई एक छोटा सा भी संस्थान बना कर उसमें अपनी तथा अपने परिवार वालों के लिए विशेष सुविधाएँ जुटाने में लगा रहता है, किन्तु महामना ने आरंभ से ही निस्पृह भाव से विश्वविद्यालय बनवाकर उसे देश को समर्पित कर दिया. उन्हे अकारण ही “महामना”नही कहा गया है.

Mahamana Madan Mohan Malaviya