Mahamana Madan Mohan Malaviya

Mahamana Madan Mohan Malaviya
Reminiscences

संस्मरण

 

डॉ० राय कृष्णदास

 

 महामना का आदर्श वाक्य था-

उत्साहो बलवान् राजन्|

 

महामना जी कहा करते थे कि मैं कर्मठता का उपदेश गौरयों (छोटी चिड़ियों) से लेता हूँ जो सबेरे ही सबेरे हर्षोद्रेक से चहचहाती हुई अपने काम में निरत हो जाती हैं |

 

वह त्रिकाल संध्योपासन नियमित रूप से नित्य करते थे | जब कार्यवश मोटर पर या ट्रेन में लेट होते तो सब कपड़ा लत्ता पहने आपोहिष्ठामयोभुव: - मंत्र से अपने को पवित्र करके वहीं संध्या कर लेते| यह बात उन्होंने सुनाई थी| उनका सिद्धान्त था कि जिस प्रकार मुस्लिम नमाज के पाबन्द हैं, उसी प्रकार हिन्दुओं को भी संध्या वंदनमें नियमित होना चाहिए

                    

मानस-मराल स्वo शम्भूनारायण जी चौबे रामचरितमानस के पूर्ण ज्ञाता और अनुसन्धानी तो थे ही, हृदय भी उन्होंने बहुत पवित्र पाया था जैसा रामानुरागी का होना चाहिये | प्राय: महामना के दर्शनार्थ आया करते और उनके सामने विनीत तथा स्पष्ट हृदय से अपनी शंकायें रखते; उनका समाधान प्राप्त करते | एक दिन उन्होंने पूछा कि ‘महाराज, आप जब संध्यावन्दन करते हैं तो मन पूर्णत: एकाग्र होता है?’ महामना जी का उत्तर था- ‘कभी होता है, कभी नहीं|

 

‘जब नहीं होता तो आप क्या सोचने लगते हैं?’ मानस-मराल जी ने जिज्ञासा की | ‘तब मैंविश्वविद्यालय की समुन्नति के उपाय सोचने लगता हूँ – ऐसा था उनका वात्सल्य, इस महानिर्माण पर|’

                            

1908 ई० के आस-पास की बात है | महामना जी रेल से कहीं जा रहे थे | उनका सहयात्री था एक जापानी | सूती कपड़ा बनाने वाली किसी जापानी मिल की ओर से भारत इसलिए आया था कि भारतीय स्त्रियों की पसन्द वाली तरह–तरह की जनानी धोतियों का संग्रह कर के अपने मिल ले जाय | वहाँ से उसी मेल का माल तैयार कर के भारत भेजा जाय |

 

ऐसे–ऐसे उपायों से भारतीय बुनकरों का व्यवसाय नष्ट किया जा रहा था | स्वदेशी प्रचार की एक सार्वजनिक सभा में उन्होंने यह वृत्तान्त सुनाया था |

 

लीडर-Anchorपांचवापुत्र

अभी “लीडर”ने अपने दो वर्ष पूरे न किये थे कि अर्थाभाव के कारण उसे बन्द कर देने की बात सोची जाने लगी | महामना जी को जब यहस्थिति ज्ञात हुई तो उन्होंने दृढ़तापूर्वक निश्चय किया कि उसे जीवित रखना ही है|

 

एतदर्थ धन एकत्र करने का काम अपने घर से ही आरम्भ किया | अपनी धर्मपत्नी से कहा –“यह न समझो कि तुम्हें केवल चार पुत्र हैं | तुम्हारा पांचवा पुत्र है – ‘लीडर|’आज वह मरणशैय्यागत है | उसे जीवित रखना ही है |” बस उनकी गद्गद् सहधर्मिणी (सौ० कुन्दन देवी) ने अपने सारे स्वर्णाभूषणमहामना जी को दे दिये, जिन्हें बेचकर महामना जी ने साढ़े तीन हजार रूपये “लीडर” की रक्षा में लगाया| ........तब और धन भी तदर्थ एकत्र किया |

 

किसी कानूनी सलाह के लिए मेरे मामाजी महामना जी के यहाँ गये | उनको महामना जी बहुत मानते थे| जब सरकारी स्कूल में पढ़ाते थे, उनके विद्यार्थी रह चुके थे, मामा जी | महामना जी उस समय अपने आफिस में न थे | उनकेरिहायशीघर के बगल में ही उनका अभ्युदय प्रेस वाला मकान था, जिसके उपरी मंजिल में एक नन्हा सा कमरा था | महामना जी को जब एकान्त की आवश्यकता होती,वहाँ चले जाते |

 

जब हम लोग पहुँचे, वे अपनी उसी निभृत कुटीर में थे | तो भी मामाजी के आने की सूचना उनको दी गयी और उन्होंने हमलोगों को तुरन्त बुला लिया |

 

वहाँ उनके आसपास अनुत्तरित पत्रों के चार–पाँच पुलिन्देरक्खे थे | कहने लगे –“कार्य वयस्तता और दौड़ –धूपके कारण ये सब पत्र क्या जाने कब से अनुत्तरित पड़े हैं |”

 

कहते हुए पत्रों को भी देख रहे थे | उनमें से एक को लेकर करम ठोकने लगे – “दादाभाई नौरोजी की चिट्ठी है, छः महीने से पड़ी है |”

 

1911 ई० में महामना जी विश्वविद्यालय के लिए बनारस में चन्दा एकत्र कर रहे थे | उन दिनों मिर्जापुर के बडहल राज्य की एकमात्र अधिकारिणी, रानी साहब काशीवास कर रही थीं | उनसे अच्छी सहायता मिलने की संभावना थी |

 

संयोगवश मैं महामना जी के पास बैठा था | उन्होंने कहा –‘सुना है, तुम बहुत अच्छी हिन्दी लिखते हो | रानी साहब के नाम मेरी ओर से लिखो, मैं हस्ताक्षर कर दूँगा | किसी भी दाता को छोडूँगा नहीं|’

 

‘हाँ, ब्राह्मण का पेट कभी नहीं भरता’ मेरी जबान से निकल गया |

 

अरे, यह क्या कहते हो |सन्तोष ही ब्राह्मण का लक्षण है | जिसमें लोभ है वह ब्राह्मण कहाँ ! मुझमें तो चन्दा उगाहने का लोभ विश्वविद्यालय के निमित्त है |

 

1911 ई० में जब महामना जी विश्वविद्यालय के लिए धन-संग्रह का अभियान तेजी से चला रहे थे तो उन्होंने बनारस की एक सार्वजनिक सभा में जो भाषण दिया था उसका महत्वपूर्ण अंतिम अंश इस प्रकार था –

 

“यदि अपने देश की उन्नति करना है और अपने देश को कला, कौशल, धन–धान्य में पूर्ण समृद्धिशाली बनाना है तो दिल खोलकर शक्ति के अनुसार विश्वविद्यालयकी सहायता अवश्य कीजिए|”

 

चौबीस करोड़ हिन्दुओं में एक करोड़ रूपया जमा होना कोई बड़ी बात नहीं है | एक–एक आना देने से भी डेढ़ करोड़ रूपया सहज में एकत्र हो सकता है | केवल आपको चेतने की देर है |”

 

यहाँ एक अनुकरण करने योग्य बात सुनाता हूँ, जिसे प्रस्ताविक मुस्लिम यूनिवर्सिटी के प्रेमी एक मुसलमान नायब तहसीलदार ने बड़े उत्साह से कहा था-“जब तक हमारी मुस्लिम यूनिवर्सिटी नहीं खुल जाती, हम लोगों को चैन नहीं पड़ेगा | हमारे बड़े-बड़े लोग जैसेबेगम भोपाल और हिज हाइनेस आगा खाँ वगैरह सभी ने तय कर लिया है कि इस साल हम लोगों के रमजान के दो महीने माने जाएँ | याने हम लोग दो महीने रोजा मनायेंगे | इस तरह जो बचत होगी साथ ही एक–दो महीने की तनख्वाह या दूसरी आमदनी यूनिवर्सिटी के लिये देंगे | जो लोग एकमुश्त एक माह की आमदनी नहीं दे सकते, उनसे किश्त करके छः माह में लिया जायेगा |”

 

“देखा आपने; समझा आपने? यह दिल से निकली बात है | मुसलमानों में इस समय जो जागृति है उसकी षोडशांश भी हमलोगों में नहीं है | इसी से कहता हूँ कि हिन्दुओं, चेतो |तुम्हारे पास धन है, धर्म है, शक्ति है, उत्साह है, ऐक्य है, सभी कुछ है, देर है केवल जागने और चेतने की |”

                                

1911 ई० की बरसात में मैं एक काम से महामना जी की सेवा मेंउनके प्रयाग वाले घर में गया | काम की बात हो जाने पर मेरे स्वास्थ्य आदि के विषय में पूछने लगे और जब मैंने कहा कि बहुत ठीक नहीं रहता तो उन्होंने एक श्लोक सुना कर कहा कि इसके अनुसार चलो सब क्रम ठीक हो जायेगा –

 

“ जितेन्द्रिय व्यायामी, लघु पथ्याशी नरो न रोगी स्यात्

यदि मनसा वचसा वा द्रुह्यति नित्यं न भूतेभ्यः |

 

इसके उपरान्त और बातें होती रहीं |जब मैंने विदा मांगी तो उन्होंने पुछा कि दारागंज जाओगे न? वे जानते थे कि दारागंज में मेरी ननिहाल थी | इतना ही नहीं जब वे स्कूल में अध्यापन करते थे तो मेरे मामा बाबू लक्ष्मीनारायण उनके शिष्य थे, स्वभाव के बड़े क्रोधी | महामना जी प्रायः कहा करते – लक्ष्मीनारायन की आधी विपत्ति उनके स्वभाव के कारण है | अस्तु,मैंने निवेदन किया- जी हाँ दारागंज जा रहा हूँ | उन्होंने कहा कि मुझे भी लेते चलो, मुझे (महामहोपाध्याय) पं० आदित्यराम भट्टाचार्य के पास चलना है | उन दिनों हिन्दू विश्वविद्यालयकी योजना क्रमशः मूर्तरूप ले रही थी | महामना जी के मुख्य परामर्शदाता पंडित जी ही थे, उन्हीं की स्मृति में विश्वविद्यालयका निकटवर्ती गाँव आदित्यनगर बसाया गया |

 

प० आदित्यराम जी बहुत बड़े अध्यापक ही नहीं शिक्षा–शास्त्री भी थे | भारत में आधुनिक शिक्षा का क्या रूप होना चाहिए इसके मर्म पर उन्होंने अच्छा चिन्तन किया था | काशी विश्वविद्यालयकी रूप रेखा में उनके विचारों का प्रयाप्त अंश है | उन्होंने विद्यार्थियों के लिए अनेक उपयोगी पाठ्य –पुस्तकें लिखी थी | उस समय कौन ऐसा विद्यार्थी था जिसने उनके ॠजु व्याकरण, गद्य – पद्यसंग्रह और संस्कृत शिक्षा न पढ़ी हो और उनसे लाभान्वित न हुआ हो | जब उन्होंने म्योर सेन्ट्रल कालेज से अवकाश ग्रहण किया था तो उनके सम्मानार्थ एक सभा हुई थी, उसमें जब मालवीय जी बोलने को उठे तो उनका गला भर आया और आँसू गिरने लगे | इससे उनके प्रति महामना जी की गहरी गुरू –भक्ति का अनुमान किया जा सकता है |

 

विश्वविद्यालय का वास्तु-निवेश (ले आउट) मैंने सरस्वती जी के नाचते मयूर के रूप में किया है | मध्य में उसका शोभन शरीर है, केन्द्रीय कार्यालय और विश्वेश्वर का मंदिर, तब उत्तरोत्तर वर्धमान अर्धवृतोंमें महाविद्यालयों के भवन, खेलों के मैदान, छात्रावास और स्टाफ के आवास वाले बंगले | यह अर्धवृतों की अवली है, नृत्य-मयूर का कलित पिच्छ-कलाप|’महामना जी ने अपनी यह कलापूर्ण कल्पना, एक दिन मुझे सुनायी थी |

                                   

विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग प्रारम्भ करने पर, उसका पाठ्यक्रम निर्धारित करने के हेतु महामना जी ने कई व्यक्तियों को नागरी प्रचारिणी सभा में एकत्र किया उनमे मैं भी था | चन्दबरदायीसे द्विवेदी-काल तक की प्रतिनिधि रचनायेंचुननी थीं | चयन सर्वसम्मति से हो चला किन्तु चलती गाड़ी में बिहारी सतसई का रोड़ा अटक गया |

 

कई विद्वानों का विरोध था | महामना जी चुपचाप दोनों पक्ष के तर्क सुन रहे थे, ध्यानपूर्वक |

बहस तूल पकड़ रही थी, मुझसे न रहा गया | महामना जी से निवेदन किया कि “सतसैया के दोहरे” कैसे छोड़े जा सकते हैं | तब उन्होंने सुनाया-मैंने अपनी युवावस्था में बिहारी के तीन सौ निष्पंक दोहे चुने थे;नायिका ने केवल स्वकीया को ही लिया था | उसी प्रकार का निर्दोष संकलन अपने पाठ्यक्रम में भी निश्चय रहना चाहिए |

कोई इसका विरोधी न था |

 

 

 

महामना जी विश्वविद्यालय के लिए खोज-खोज कर एक से एक विद्वान प्राध्यापक बुलाये थे | उनमें एक डॉ० गणेशप्रसाद जी गणित के अन्तराष्ट्रीय ख्याति के विद्वान् थे | इसी प्रकार वनस्पति शास्त्र के प्राध्यापक डॉ० बीरबल साहनी; वह भी विश्वविख्यात थे |

गणितज्ञ होने के कारण डॉ० गणेशप्रसाद की एक चूड़ी ढीली थी और वह लोगों से झगड़ उठते थे | एक दिन वह डॉ० साहनी से उलझ पड़े जिन्होंने उन्हें ‘डैम स्काउंड्रल’ कह दिया | इसकी लिखित शिकायत डॉ० प्रसाद ने महामना जी से की | उन्होंने डॉ० साहनी से लिखित कैफियत तलब की |

डॉ० साहनी ने यह लिखित कैफियत दी-“यस, आइ कॉल्ड हिम डी०-एस-सी०|”

डॉ० प्रसाद डी० एस सी० थे | डॉ० साहनी के इस विलक्षण उत्तर से महामना जी इतने प्रसन्न हुये कि मामला फाइल करा दिया | मार्ले-मिन्टो रिफार्म के बाद, बड़े लाट की जो काउन्सिल बनी उसके सदस्य महामना जी और गोखले जी थे | सरकार की ओर से कोई प्रस्ताव उपस्थित किया गया जिसका महामना जी ने विरोध किया, गोखले ने समर्थन | प्रस्ताव सरकार के पक्ष में स्वीकृत हो गया |  

कुछ दिनों बाद गोखले जी ने महामना जी से कहा- उस समय आप सही थे; मैं गलती पर था |

“सरकारी वर्ग ने आपके जठर द्वारा पहुँच कर आपको मुट्ठी में कर लिया था ,” महामना जी का गूढ़ उत्तर था |

उन दिनों परिस्थिति यह थी कि फिरंगियों ने नरम दल वाले नेताओं की कमजोरी ताड़ ली थी | ये नेता फिरंगियों से बराबरी वाला सामाजिक दर्जा पाने पर फूले न समाते, समझने लगते कि हमने (हमारे देश ने) अब समान पद पा लिया | बड़े-बड़े अफसर, स्वयं बड़े लाट तक उन्हें खाने पर बुलाते और वे उनके शिकार हो जाते, क्या गोखले,क्या सरतेजबहादुर, क्या सर सी० वाइ० चिन्तामणि...... सभी का एक ही हाल था |

 

बकौल अकबर इलाहाबादी-

गम तो लीडर को बहुत है मगर आराम के साथ,

कौम के गम में डिनर खाते हैं हुक्काम के साथ |

इस बार भी वही हुआ था | वाइसराय ने गोखले को खाने पर बुलाकर अपने शीशे में उतार लिया था | जब वह अपनी भूल समझे, महामना जी से रोना रोये |

                              

बनारस के एक तेज-मिजाज रईस का, यहाँ के कलक्टर से किसी बात पर झगडा हो गया | उन्होंने उसकी शिकायत उत्तर प्रदेश के गवर्नर को लिख भेजी और उनसे मिलने का समय मांगा | ऐसे शिकायती पत्र कलक्टर के द्वारा ही जाते हैं | कलक्टर को बाध्य होकर उसे भेजना पड़ता है | इस मामले में भी वही हुआ और गवर्नर ने उनसे मिलने का समय निश्चित किया | तब वह महामना जी के पास उपस्थित हुए और उनसे पुछा कि गवर्नर से मैं क्या-क्या बांते करूँ | कहने कि आवश्यकता नहीं कि महामना जी को सारा मामला विदित था |   

महामना जी ने कहा कि तुम इतने समझदार हो कि तुम्हें बात-चीत की सीख देना आवश्यक नहीं | मुझे केवल इतना परामर्श देना है कि गवर्नर से उर्दू में बात करना, अंग्रेजी में नहीं | यदि उर्दू में बात करोगे तो तुम बीस पड़ोगे वह उन्नीस पड़ेंगे, अंग्रेजी बातचीत में वह बीस पड़ेंगे तुम उन्नीस पड़ जाओगे|

महामना जी यात्रा में मुहूर्त एवं दिशाशूल आदि का विचार नहीं करते | कही जाना होता तो तैयार होकर नारायण उच्चारण करके प्रस्थित हो जाते |

 

सन् 1924 कीबात है | वर्तमान युग में हिन्दू–मुस्लिम एकता की जन्म भूमि दिल्ली में साम्प्रदायिक उपद्रव कीअग्नि प्रज्वलित हुई देखकर महात्मा गाँधी और देश के अन्य नेता उसे बुझाने के लिए यहाँ एकत्रित हुए | उस समय मालवीय जी महाराज भी आए और बिड़ला मिल कि सब्जी मंडी वाली कोठी में ठहरे | सन् 1924 में दिल्ली के हिन्दू–मुस्लिम झगडे का केन्द्र सदर बाजार ही था | वह बाजार तीन–तीन हिस्सों में बटा हुआ है | जहाँ बड़े–बड़े मुसलमान सौदागरों कीदुकानें थीं | उसे आगे पहाड़ी धीरज की बस्ती है जिसमें जाट, गुर्जर, अहीर, माली आदि जातियों के लोंगो की अधिकताथी | पश्चिमी किनारे पर हिन्दूराव का बाड़ा है, जो मुस्लिम प्रधान था | अब भी कसाबघर की समीपता के कारण वहाँ कसाइयों की आबादी बहुत अधिक है | आजादी की इस परिस्थिति के कारण शहर में थोडा सा भी साम्प्रदायिक विक्षोम होने पर सदर बाजार में घोर युद्ध की भेरी बजने लगती थी, सन् 1924 में भी ऐसा ही हुआ था |

 

एक दिन संध्या के समय सदर बाजार पहाड़ी धीरज की एक चौपाल में इलाके के प्रमुख हिन्दुओं की एक पंचायत बुलाई गई थी | उसमें मालवीय जी भी पधारे थे | शान्ति स्थापना के सम्बन्ध में विचार करते–करते बहुत देर हो गई | रात के लगभग नौ बज गए | मुझे मालूम था की पण्डित जी साढ़े-नौ बजे की गाड़ी से बाहर जाने वाले हैं | मैंने उन्हें याद दिलाया कि समय हो रहा है, अब बात–चित समाप्त कीजिए, परन्तुपण्डित जी की तसल्ली अभी नहीं हुई थी | सेक्रेटरी को आज्ञा थी कि वह रिजर्व की हुई सीट पर बिस्तर बिछा छोड़े | इस कारण कुछ अटपटी बात होते हुए भी मुझे फिर याद दिलाना पड़ा कि गाडी का समय हो रहा है चलिए, इस समय सवा नौबज चुके हैं |पण्डित जी ने हाँथ के इशारे से मुझे रोकते हुए बातचीत जारी रखी | जब साढ़े-नौ बज गए तब फिर एक बार घड़ी सामने रख कर पण्डित जी को याद दिलाना पड़ा; इसका कुछ असर हुआ और पण्डित जी बातचीत का सिलसिला समाप्त करके खड़े हो गए | मोटर में बैठकरपण्डित जी ने मुझे इन शब्दों में आश्वासन दिया | आपने कहा कि-यह समझना गलत है कि केवल हम ही लेट होते हैं, क्योंकि ट्रेनें भी प्रायः लेट होती हैं | आपने अपने अनुभव के आधार पर कहा कि ट्रेन मनुष्य से भी अधिक लेट होती है | यही कारण है कि देर होने के कारण मेरी गाड़ीशायद ही कभी छूटी हो | यदि कभी छूट भी गई तो मेरा काम कभी नहीं रूका | इस कथन की पुष्टि में पण्डित जी ने अपनी एक अनुभूत घटना सुनाई जो इतिहास का अंग होने के योग्य है, इसलिए उसे मैं यहाँ दोहराता हूँ –

वह घटना तब हुई थी, जब भारत के वायसराय लार्ड चेल्म्सफोर्ड थे | पण्डित जी को एक अत्यन्त आवश्यक कार्य से ऐसी जगह जाना पड़ा, जहाँ इलाहाबाद से रेल द्वारा तीन-चार घंटों में पहुँचा जा सकता था | उसी दिन रात के समय पण्डित जी को इलाहाबाद वापस पहुँचनाअत्यन्त आवश्यक था| शायद वह किसी सार्वजनिक सभा में सभापतित्व करने वाले थे | उस जगह का कार्य समाप्त करके इलाहाबाद वापस जाने के लिए जब पण्डित जी स्टेशन पर पहुँचे तो मालूम हुआ कि जिस गाड़ी से इलाहाबाद जाना चाहिए था, वह निकल चुकी थी | पण्डित जी के सुदीर्घ जीवन में यह घटना अपवाद ही समझनी चाहिए, क्योंकि स्टेशन पर देर से पहुँचने पर भी गाड़ी उन्हें मिल ही जाती थी | उस दिन मानों अनहोनी हो गई | वह लेट हो गए, गाड़ी लेट नहीं हुई | परन्तु पण्डित जी आशा का सूत्र छोड़ने वाले नहीं थे | उन्होंने स्टेशन मास्टर से दर्याफ्त किया कि क्या और कोई गाड़ी, फिर चाहे वह मालगाड़ी ही हो, इलाहाबाद के लिए मिल सकती है या नहीं | स्टेशन मास्टर ने उत्तर दिया कि हाँ, मालगाड़ी आने वाली थी, परन्तु वह दूसरे स्टेशन पर रूक गई है,क्योंकि वाइसराय की स्पेशल वहाँ से गुजरने वाली है | इससे भी निराश न होकर पण्डित जी ने पूछा कि क्या वाइसराय की स्पेशल यहाँ नहीं ठहर सकती | स्टेशन मास्टर ने बतलाया कि स्पेशल ट्रेन यहाँ नहीं ठहरेगी और यदि अकस्मात् लाइन क्लीयर देने में ही कोई भूल न हो जाए तोउसे किसी प्रकार ठहराया भी नहीं जा सकता | 

इस पर पण्डित जी ने उसे सुझाया कि क्या यह सम्भव नहीं कि लाइन क्लीयर देने में चूक कर दी जाए, जिससे ट्रेन यहाँ ठहर जाए | जब स्टेशनमास्टर ने यह आशंका प्रकट की कि ऐसा करने से लाइन क्लीयर देने वालों पर आपत्ति आ सकती है, तो पण्डित जी ने उसे आश्वासन दिया कि मैं ऐसा नहीं होने दूँगा |

बात तय हो गई | लाइन क्लीयर देने वाले आदमी ने अपना हाथ इतनी दूर रखा कि ट्रेन को लाइन क्लीयर न मिल सका | गाड़ी स्टेशन पर रूक गई | पण्डित जी प्लेटफ़ॉर्म पर ही खड़े थे | झट उस डिब्बे के सामने जा पहुँचे, जिसमे वाइसराय बैठा हुआ था | वाइसराय ने पण्डित जी को देखकर बाहर मुँह निकालते हुए पुछा,  ‘हैलो पण्डित, आप यहाँ कहाँ ?’ पण्डित जी उत्तर दिया कि ‘मैं यहाँ इलाहाबाद वापस जाने के लिए खड़ा था | आपकी स्पेशल ट्रेन के कारण गाड़ियाँ रूक गईं,जिससे मैं लटकता रह गया |’ वाइसराय ने सज्जनता को निभाते हुए कहा, “आइए,मेरी गाड़ी में आजाइए | मैं आप को इलाहाबाद पहुँचा दूँगा |” पण्डित जी बगैर तकल्लुफ के वाइसराय के डब्बे में बैठ गए | साथ ही बातचीत के सिलसिले में गाड़ी रोकने की पूरी कहानी सूना कर बिचारे सिगनलर की सफाई भी कर दी | इस तरह स्टेशन पर देर में पहुँचने पर भी पण्डित जी इलाहाबाद समय पर पहुँच गए |ऐसी घटनाओं ने पण्डित जी के आत्मविश्वास को बहुत अधिक बढ़ा दिया था | उन्हें यह अटल विश्वास सा हो गया था कि शीघ्र या विलम्ब में कार्य अवश्य सिद्ध होगा |

यह घटना पण्डित जी ने हमको सदर से दिल्ली स्टेशन की और जाते हुए रास्ते मेंसुनाई| स्टेशन पर जा कर देखा कि गाड़ी सचमुच 10-11 मिनट लेट थी, मानों पण्डित जी की प्रतीक्षा में |

इसी प्रकार की एक और घटना इलाहाबाद स्टेशन की है | पण्डित जी बांकीपुर के कांग्रेस अधिवेशन में जा रहे थे | उससे कुछ दिन पहले ही दिल्ली में लार्ज हार्डिंग पर बम गिरने की घटना हुई थी | उस दिन सायंकाल के समय प्रयाग में बम फेंकने वाले की निन्दा करने के लिए विराट् सार्वजनिक सभा काआयोजन किया गया था | सर सुन्दरलाल उसके सभापति थे | मालवीय जी उसी दिन दिल्ली से प्रयाग पहुँचे थे | सभा में मुख्य भाषण उन्हीं का हुआ | मैं भी दिल्ली से पण्डित जी के साथ ही प्रयाग गया था और ठहरा भी उन्हीं के पास था | सभा में जाते समय पण्डित जी यह आदेश दे गए थे कि उनका सामान समय से पहले स्टेशन पर पहुँचा दिया जाए और बिस्तर बिछा रखा जाए | पण्डित जी के प्राइवेट सेक्रेटरी के साथ मैं सभा से जल्दी उठ गया और हम दोनों सामान लेकर स्टेशन पर जल्दी पहुँच गए | आज्ञानुसार सब कुछ कर दिया गया | नौकर को सर्वेन्ट की कोठरी में बिठाकर हम दोनों प्लेटफ़ॉर्म पर पण्डित जी की प्रतीक्षा करने लगे | गाड़ी के छूटने का समय हो गया गार्ड ने हरी झण्डी दिखाई, फिर सीटी बजाई और गाड़ी हिलने लगी | तब हम लोगों को सामान की चिन्ता हुई, सेक्रेटरी साहब ने डब्बे में घुसकर पण्डित जी का बिस्तर लपेटा और बाहर फेंक दिया | नौकर भी नीचे उतर आया | सारा सामान प्लेटफोर्म पर उतार कर सेक्रेटरी महोदय भी कूदकर ट्रेन से उतर आए | उस समय गाड़ी के लगभग आधे डब्बे प्लेटफोर्म से बाहर जा चुके थे | गाड़ी अकस्मात् रूक गई | हम लोग देखने लगे कि गाड़ी रूकने का क्या कारण हुआ ? देखते क्या हैं कि आगे–आगे मालवीय जी और उनके पीछे–पीछे डॉ० भगवानदास जी प्लेटफोर्म पर बने हुए पुल पर से गाड़ी की ओर भागे आ रहे हैं | पाठक विश्वास रखे कि भागे शब्द का प्रयोग मैंने अतिरंजना में नहीं किया | दोनों महानुभाव वस्तुतः भागे आ रहे थे | दोनों के दाएँ हाथ गाड़ी को रोकने के लिए उठे हुए थे | वहाँ सभी लोग मालवीय जी को पहचानते थे | उन्हें आते देखकर स्टेशन मास्टर ने गाड़ी को लाल झण्डी दिखला दी | गाड़ी खडी हो गई | सामान फिर से डब्बे में लगा दिया गया और पण्डितजी के पीछे–पीछे मैं भी गाड़ी पर सवार हो गया|

महात्मा मुंशीराम (पीछे, स्वामी श्रद्धानन्द जी) के पुत्र सम्पादक-प्रवर स्व० इन्द्रविद्यावाचस्पति ने, नवम्बर 1956 ई० के आजकल में महामना जी के कुछ संस्मरण लिखे हैं | ये दोनों उनके हैं |

                               

महामना जी ने पूरा उद्योग किया कि जिन ब्राह्मणों का खान–पान और रहन-सहन एक सा है उनमें ब्याह-शादी होने लगे |अपनी पौत्री का विवाह एक गौड़ ब्राह्मण से करके उन्होंने यह पथ प्रदर्शन भी कर दिया | फिर उन्होंने ब्राह्मणों की कई उपजातियों के लोगों को एकत्र करके अनुरोध किया कि आप लोग भी इस सिद्धान्त को कार्यान्वित करें | किन्तु कोई सहमत न हुआ तो उन्होंने सखेद कहा कि अभी तो आप हमारी बात नहीं मानते लेकिन समय आपसे इस सिद्धान्त को मनवा लेगा |

उस समय पण्डितों की मनोवृति इतनी संकीर्ण थी कि वाल्मीकि रामायण के प्रथम सर्ग में ही जो चारों वर्णों को रामायण पाठ में समान अधिकार दिया गया है उसकी चौथी पंक्ति को उन लोगों ने इस प्रकार बदल लिया –

श्रृण्वश्च शुद्रोऽपि महत्वमीयात् |

अर्थात् शूद्रों को केवल सुनने का अधिकार है | महामना जी इससे दुखी थे |

शिव जी के पंचाक्षर मंत्र की दीक्षा वह सवर्ण और अछूत सभी हिन्दुओं को दशास्वमेध घाट पर एक भाव से निरन्तर दिया करते |

निम्नोद्दतपत्र महामना जी ने स्व० जमनालाल जी बजाज को 1926 ई० में लिखा था | इस पर किसी विवृत्ति की आवश्यकता नहीं –

                                    श्री: ||

प्रिय जमनालाल जी,

      आपने अपने भगवद्भक्त पूर्वजों के स्थापित किये भगवान् लक्ष्मीनारायण के मन्दिर में ब्राह्मण से लेकर चांडालपर्यंत सब श्रद्धालु भाइयों को जगत्पिता की पावन मूर्ति का दर्शन करने की स्वतंत्रता दी और जो कूएँबनवाये उन पर सब जाति के भाइयों को स्वच्छ बर्तन से पानी भरने का अधिकार दिया, यह सुनकर मुझको बहुत संतोष हुआ | आपके ये दोनों काम सर्वथा शास्त्र के अनुकूल हैं और घट-घट वासी विश्वात्मा इससे प्रसन्न होगा |

      परमात्मा आपकी धर्म की भावना,देश भक्ति और निष्काम लोक-सेवा के भाव को दिन-दिन अधिक दृढ करें और आपके द्वारा देश का और लोक का दिन-दिन अधिक उपकार हो |

विश्वविद्यालय, काशी                                                   आपका

अ.श्रावण शुक्ला 19,                                             मदनमोहन मालवीय  सं० 1985

एक बार पूज्य बापू के आमंत्रण पत्र पर महामना जी सेवाग्राम गये और वहाँ एक सप्ताह रह कर लौटे, रामनारायण मिश्र ने उनसे वहाँ का हाल पूछा | महामनाजी ने कहा- पुराणों में तपोवन के जो वर्णन पढ़ा करता था, वहाँ आखों देख आया |

                                

नागरी प्रचारिणी सभा में महामना जी का एक भाषण था, निश्चित समय के एक घंटे बाद वे वहाँ पहुँचे | भीड़ उनके लिए आकुल थी |

उनके पहुँचते ही पंo रामनारायण मिश्र ने,जो सभा के प्रमुख कर्मी थे साथ ही महामना जी के भक्त भी, उलाहना दिया, विलम्ब के लिए |

महामना जी ने नितान्त तटस्थ भाव से उतर दिया-रामनारायण, ‘टेक मी एज आइ याम’ रामनारायण, मैं जैसा भी हूँ, उसी रूप में मुझे ग्रहण करो |            

एक महानुभाव जिनको मैं अपना छोटा भाई मानता और उनसेअद्वय भाव रखता, बड़े निकृष्ट प्राणी थे |आरम्भ में मैं इस तथ्य को बिल्कुल भाँप न सका... उन्होंने अनेक अन्य दुराचारों के साथ-साथ एक आर्थिक गोलमाल भी किया था | यद्दपि मैं उस गोलमाल से बिल्कुल अलग था फिर भी उनके संसर्ग के कारण मुझ पर भी आपत्ति आ गई और जेल जाने के लक्षण प्रतीत होने लगे |

मैं महामना जी की शरण में आया और अपनी विपत्ति उन्हें सुना कर रक्षा का उपाय बताने कि प्रार्थना की |

उन्होंने मुझे श्रीमद्भागवत के आठवें स्कन्ध वाले गजेन्द्रमोक्ष का उपदेश दिया और कहा कि पूर्ण भक्ति पूर्वक आर्त होकर इसका प्रतिदिन पाठ करते रहो; तुम पर कोई आंच नहीं आवेगी |

इसी प्रसंग में उन्होंने यह भी बताया कि एक बार उत्तर प्रदेश सरकार ने यह निर्णय किया कि हाईकोर्ट इलाहाबाद से उठकर लखनऊ चला जाय | मैंने त्रिवेणी तट पर तीन दिन तक इस स्तोत्र का अखंड पाठ किया | हाईकोर्ट को स्थानान्तरित करने की आज्ञा रद कर दी गई |

उस भँवर से उबरने पर मैं उनके दर्शनार्थ आया | उस समय कहीं जाने के लिए वे मोटर पर सवार हो रहे थे | मुझसे वात्सल्य पूर्ण प्रश्न किया-सब ठीक है न ?

मैं इतना गद्गद् हो गया था कि रुद्ध कंठ से उनका चरण-स्पर्श मात्र कर सका |

 

1933की गर्मियों का बात है | काशी मेंद्विवेदी अभिनन्दन उत्सव समाप्त हो चुका था | आचार्य द्विवेदी जी अपने गाँव लौट रहे थे | हिन्दी प्रेमियों की एक भारी भीड़ उन्हें छोड़ने स्टेशन गई थी, किन्तु ट्रेन में देर थी I आचार्यवर ने उस भीड़ को साग्रह वापस कर दिया |

वे वेटिंग रूम में बैठ गए | केवल उनके कतिपय निकटवर्ती व्यक्ति रह गए थे | तभी महामना जी भी वेटिंग रूम में पधारे | उन्हें भी वही गाड़ी पकडनी थी | दोनों महानुभावों में वार्तालाप होने लगा | आचार्य द्विवेदीजी जितने ही निराशावादी, महामना जी उतने ही आशावादी |

दिवेदी जी महाराज अपने गिरते स्वास्थ्य की चर्चा उनसे करने लगे | महामना जी उन्हें बार-बार समझाते जाते थे कि यह सब आपकी मनोदशा के कारण है | किन्तु दोनों ही महारथी अपने अपने पक्ष पर दृढ़ रहे और कुछ देर बाद अन्य चर्चा होने लगी |

कविवर सियारामशरण गुप्त भी वहाँ उपस्थित थे | आचार्यवर को पहुँचाने आए थे | उन्होंने अवसर पाकर महामना जी के सामने एक सादा कागज उनका हस्ताक्षर प्राप्त करने के लिए,उपस्थित किया | सियाराम जी के एक भतीजे हस्ताक्षर संग्रह करते थे | उन्हीं के लिए उन्होंने वहकागज़ महामना जी के सामने रखा था |

उन्होंने सहर्ष उस पर हस्ताक्षर कर दिया | तब सियाराम जी ने प्रार्थना की कुछ लिख भी दीजिए, महामना जी ने उत्तर दिया-बस |

 

सियाराम जी ने सस्मित निवेदन किया आप के हस्ताक्षर के ऊपर बहुत-सा अंश सादा है, यदि  

 

मैं स्वार्थ साधन के लिए उस पर कुछ लिख दूँ तो ? सियाराम जी को यह युक्तिपूर्ण उक्ति महामना जी को बहुत जँची और उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक यह प्रासंगिक सूक्ति अपने हस्ताक्षर के उपर लिख दी-

बालादपि सुभाषितं ग्राह्यम् |

 

उस समयकी एक बात और याद आ गई | बापू का पूना वाला अनशन चल रहा था |  महामना जी बहुत ही चिन्तित थे | मेरे यह पूछने पर कि क्या होगा, कहने लगे –“मैं तो समझता हूँ कि गाँधी जी ने सोच लिया है कि यहाँ तो कुछ हो–हवा नहीं रहा है;अब यहाँ से चलो |”इस वाक्य में उनके ह्रदय की पीर भरी थी |

 

मक्खीचूस से 25 शैय्याओ का वार्ड बनवाया

 

एक बार महामना जी का दर्शन करने बम्बई के एक बड़े धनाढ्य सेठआये | उनसे महामना जी ने कहा कि विश्वविद्यालय अस्पताल में बहुत थोड़ी रोगी शय्याएँ हैं आप बीस-पच्चीस शय्याओं के लिए आर्थिक सहायता दीजिए | किन्तु सूखे सोंठ सेठिया ने अपनी असमर्थता व्यक्त की |

कुछ दिनों बाद महामना जी कार्यवश बम्बई गये | वहाँ सुना कि सेठिया अस्पताल में पड़े हैं |  महामना जी के संग ज्योतिषाचार्य रामव्यास जी भी थे | व्यास जी से उन्होंने कहा कि चलो उन्हें देख आवें | व्यास जी ने निवेदन किया कि उस मक्खीचूस के यहाँ क्या चलियेगा | महाराज ने उत्तर दिया चलो तो-और अस्पताल पहुँचे |

सेठियाबीमारी का कष्ट झेल रहे थे, महामना जी ने उन्हें प्रेम पूर्वक देखा और ढाढस बँधाया |

जब वे बिदा होने लगे तो सेठिया ने स्वेच्छया उनसे साग्रह प्रार्थना की कि मेरी ओर से अस्पताल में पच्चीस शय्याओं का वार्ड बनवा दीजिए |

                     गायब दान की रकम कमाई से पूरी की

 

महामना जी को शिमला में किसी नरेश वा धन-कुबेर ने विश्वविद्यालय के लिए एक बड़ी रकम दी | नोटों का वह बंडल लेकर महामना जी जब अपने निवास स्थान पहुँचे, बैंक का समय बीत चुकाथा | उन्होंने बंडल अपनी डेस्क के दराज में रख दिया | वे दराज का ताला कभी बन्द न करते |

दूसरे दिन रकम बैंक भेजने के लिए उन्होंने दराज खींचा | पाया, बंडल गायब है | एक स्वजन ने उसे उड़ा लिया था |

उन्होंने कोई पूछताछ न की | तब तक उन्होंने प्रैक्टिस एकदम छोड़ न दी थी; कभी कदा मुकदमा ले लेते थे | इलाहाबाद लौटने पर उन्होंने एक मामला ले लिया और उनकी फीस से दान वाली रकम भर दी |

महामना जी के निकट सम्बन्धी स्व० व्रजमोहन जी व्यास की चर्चा ऊपर हो चुकी है | एक बार वह महामना जी के पास बैठे थे; कई अन्य संबंधी भी थे | किसी घरेलू गुत्थी पर, जिसके कारण महामना जी बहुत आहत थे, विचार हो रहा था | प्रसंग वश महामना जी ने, एक लंबी सांस लेकर, व्यास जी से कहा- व्यास जी, बहुत कुछ झेल चूका हूँ | अब कुछ व्यापता नहीं |

इस पर व्यास जी ने, जिन्हें संस्कृत और उर्दू के पांच सौ से अधिक सुभाषित याद थे, महामना जी को ग़ालिब का यह शेर सुनाया –

रंज के खूगर हुआ इंसां तो मिट जाता है रंज |

मुश्किलें हम पर पड़ीं इतनी आसां हो गयीं ||

                                                              (खूगर-अभ्यस्त)

 

सुनकर आप बोले-फिर कहिए, व्यास जी |

और, जब व्यास जी ने पुनः यह उक्ति सुनायी तो उनकी आँखों से टपटप आँसू टपकने लगे |

आचार्य सीताराम जी चतुर्वेदी महामना जी के विशेष कृपा पात्र थे, एवं बहुधा उनके साथ-साथ रहते थे | उन दिनों का एक संस्मरण आचार्य महोदय से सुनिए –

मैं महामना मालवीय जी महाराज के साथ उज्जैन गया था | वहाँ सभा में अन्य लोगों के साथ मुझे भी माला पहना दी गई थी और मैंने भी अन्य लोगों की देखा-देखी उतारकर रख दी थी किन्तु मालवीय जी महाराज माला पहने रहे | सभा समाप्त होने पर मालवीय जी महाराज ने मुझसे पूछा- “तुमने माला क्यों उतार दी?” मैं समझ नहीं पाया और मैंने कह दिया –“सब लोग उतार रहे थे, मैंने भी उतार दी |” तब उन्होंने कहा-“देखो, माला उतारने से माला पहनाने वाले का भी अपमान होता है और माला का भी |”

इस प्रसंग में उन्होंने कविवर बिस्मिल इलाहाबादी के गुरू नूह नारवी का यह शेर सुनाया—

हारों में गुंथे, जकड़े भी गए, गुलशन भी छुटा, सीना भी छिदा |

पहुँचे मगर उनकी गरदन तक, यह खुश इकबाली फूलों की ||

 

माला उतारने से फूलों की खुश-इकबाली(भाग्यशालित्व) भी हम नष्ट कर डालते हैं |

तब से आज तक मैं कभी माला नहीं उतारता हूँ, यद्दपि माला उतारकर रखने वालों के बीच मैं नक्कू अवश्य बना रहता हूँ, पर मुझे उसकी हिचक नहीं है |

गाड़ी पर कौन किसको विदा करें ?

बीकानेर के महाराज गंगासिंह की महामना जी पर बहुत श्रद्धा थी |एक बार वे लोग शिमला से एक ही दिन नीचे लौटे| कालका रेलवे स्टेशन पर उनकी भेट हो गयी और वार्तालाप होने लगा |

महामना जी को बनारस आने के लिए डाक गाड़ी पर सवार होना था;महाराज ने उनसे कहा कि चलिए आपको सवार करा आऊँ |

वे जब मेल वाले प्लेटफार्म पर पहुँचे तो ज्ञात हुआ कि गाड़ी छूटने में भी देर है | महामना जी ने उनसे कहा-तो चलिए आपको बिठा आऊँ | उन लोगों की बातचीत में इतना आनन्द आ रहा था कि बिछुड़ना न चाहते थे |

जब महामना जी बीकानेर के स्पेशल तक पहुँचे तो महाराज ने कहा – यह कैसे हो सकता है कि आप यहाँ तक कष्ट करें और मैं आपको पहुँचाने न चलूँ | दोनों जन पुन: प्रत्यावर्तित हुये | यह सिलसिला तीन बार चला | तब महाराज ने महामना जी से आग्रह किया-देखिए मेरी स्पेशल तो मेरे आज्ञाधीन है | आपकी गाड़ी तो समय से छूट जायेगी | अतः मैं हार नहीं सकता | अब आप कष्ट न कीजिए; मेरी बिनती मानकर सवार हो जाइये | अन्ततः महाराज उनको बैठाकर गाड़ी के गति पकड़ने पर उनको प्रणाम करके, अपनी स्पेशल कीओर लौटे |

                                   

महामना जी पाक विद्या विशारद थे | प्रवास में वे स्वयं पाकी रहते और स्वभाव से पर्फेक्शनिस्ट होने के कारण, साथ ही इस कारण भी कि उनका परिवार बहुत अच्छा भोजन बनाता, वे रसोई एक कला के रूप में बनाते |

जब वे बंबई जाते तो सेठ नरोत्तम मुरार जी ठाकरशी के अतिथि होते | बंबई के उद्योग पतियों में उन दिनों नरोत्तम भाई देश प्रेम और उदारता में अग्रणी थे |

      जब महामना जी आप भोजन बनाते तो नरोत्तम भाई की श्रीमती जी वहीं बैठी रहती |

वे अभी जीवित हैं | बताती हैं कि महामना जी फुलका ऐसा सेंकते कि वह फूलकर डब्बा हो जाता किन्तु उस पर तनिक भी चित्ती न पड़ती | तब वे उनसे बड़ी आत्मीयता से कहते- “बऊ, तुमको फुलका खाना होगा |” महामना जी का आग्रह वह कैसे टालतीं | बताती हैं,वैसे फूलके जीवन भर में कभी नहीं खाये |

उत्तर प्रदेश के एक उच्च शिक्षाधिकारी का नाम था, नैपाल सिंह | एक बार वह महामना जी से मिलने आये | आपने उनका नाम पूछा; उन्होंने उक्त नाम बताया | आपने कहा नैपाल क्या?तुम्हारा नाम है –नेहपाल सिंह | तब से वह अपने नाम का यही रूप बर्तने लगे |बनारस में एक सुयोग्य अध्यापक थे| पंजाबी सारस्वत ब्राह्मण होने के कारण उनका नाम था, निक्का मिश्र; उन्होंने हिन्दी क्षिप्र-लेखन पद्धति निर्मित की जो वैज्ञानिक,परिपूर्ण साथ ही सरल भी है | जब महामना जी ने उनका नाम सुना तो उसे निष्कामेश्वर मिश्र कर दिया, जिसे मिश्र जी ने सादर स्वीकार कर लिया |

इसी प्रकार,हिन्दी के अपने ढंग वाले एक ही आलोचक और साहित्यकार स्व० शान्तिप्रिय द्विवेदी का नामकरण भी महामना जी का ही किया है, उनके सौम्य एवं विनम्र स्वभाव के कारण | उनका पूर्व-नाम था मुच्छन दुबे |

नर्सनेअपनी पूरी कमाई विश्वविद्यालय को अर्पित की

 

विश्वविद्यालय के चिकित्सा संकाय में एक क्षत्राणी नर्स थीं; सिताबो देई | वह निःसन्तान थीं; अपना समस्त अर्जन उन्होंने विश्वविद्यालय को इस निमित्त अर्पित कर दिया कि उससे एक आवास बना दिया जाये, जिसके किराये की आय योग्य क्षत्रिय विद्यार्थी को छात्रवृति रूप में दी जाये |

महामना जी ने यह दान सवात्सल्य स्वीकार करते हुए, उनसे कहा- “तुम सीता देवी हो; सिताबो देई नहीं |” तुम्हारे दान से निर्मित मकान का नाम होगा सीता-निवास |

महामना जी का नियम था कि वे निरन्तर बोर्डिंग हाउसों का निरीक्षण किया करते | एक दिन एक बोर्डिंग में उन्हें एक ऐसा विद्यार्थी दिखाई दिया जो अपना अपव्यय करता था | रंग पीला, गाल चुचके,आँखें धँसी | महामना जी ने उसे अपने पास बुलाकर ममत्व एवं आदेश पूर्वक कहा-  “यह कुटेव छोड़ दो |”

 

बापूकेलिए५०बी . एच .यू.भीन्यौछावरकरदेता

 

जब 1942 ई० वाला आन्दोलन आरम्भ हुआ तो विश्वविद्यालय के कुछ विद्यार्थी 12 अगस्त को महामना जी से यह पूछने आये कि उसमें भाग लें वा न लें, क्योंकि भाग लेने में इस बात का डर था कि सरकार यूनिवर्सिटी को जब्त कर लेगी |

उस दल में महामहिम जैराम दास दौलतराम के पुत्र, अर्जुन दौलत राम भी थे | उन्होंने मुझे बताया कि उस समय महामना जी अपने आवास वाले लान पर बैठे थे | विद्यार्थी मंडली की बात सुनकर  उन्होंने यह ओज-पूर्ण उत्तर दिया—“मैंने एक यूनिवर्सिटी इतना समय लगा कर बनायी है | यह क्या यदि ऐसी पचास युनिवर्सिटी बनायी होती तो मैं उनको भी बापू जी के लिए दे देता |”

........और, उनकी आँखों से टप-टप आँसू गिरने लगे |

1942 ई० वाले आन्दोलन में जब सरकार की शनिदृष्टि काशी हिन्दू विश्वविद्यालय पर पड़ी और यहाँ भारी धर-पकड़ के साथ-साथ इंजीनियरिंग कालेज के बड़े कीमती-कीमती उपकरण, जिनसे बंदूक आदि बनाने की आशंका थी, उसको सेना उठा कर ले जाने लगी,लोगों ने महामना जी का ध्यान उधर दिलाया| वह तनक भी विचलित नहीं हुये, सुतरां सत्व समाविष्ट होकर मात्र इतना कहा---

‘मिथिलायां प्रदीप्तायां न में दहति किच्चन’    

 

पौराणिक आख्यान यों है कि महर्षि बादरायण जब अपने पुत्र शुकदेव जी को सारा तत्व ज्ञान दे चुके तब उनसे कहा कि अभी कुछ शेष हैं; राजर्षि जनक के पास जाकर अपना अध्यात्म ज्ञान परिपक्व करो |

तदनुसार सुकदेव जी मिथिला गये और राजर्षि के द्वारपाल द्वारा प्रवेश की आज्ञा पाकर अपना कमण्डलु द्वारपाल को ही सौंपते हुए जनक जी के पास गये | समादर और समुचित आसन पाकर बैठ गये और अपने पिता की आज्ञा उनसे कहते हुये उपदेश कीप्रार्थना की |

उसी समय मिथिला नगरी में प्रचण्ड आग लग गई जो राज प्रासाद तक आ पहुँची | शुकदेव जी तेज़ी से उठकर अपना कमण्डलुबचाने के लिए द्वार की ओर दौड़े | जब वे कमण्डलु सहित महाराज के सामने आये तो अग्नि एकाएक शान्त हो गई और राजर्षि जनक ने उनसे कहा कि मुझे जो उपदेश देना था दे चुका | देखो तुममें इतनी आसक्ति बनी है कि तुम एक कमण्डलु के लिए भाग गये और मैं इस भावना के साथ यहाँ स्थित रहा कि “मिथिलायां प्रदिप्तायां न में दहति किंचन”| अब तुम परिपक्व हो गये |

                        अदब - दूसरोंकीसुविद्याकाध्यान

 

सी० वाइ० चिन्तामणि को सिगरेट पीने की आदत थी | एक बार वह महामना जी के साथ रेलयात्रा कर रहे थे; अदब के कारण उनके सामने सिगरेट न पीते, बाथरूम में चले जाते | महामना जी लख गये और थोड़ी-थोड़ी देर बाद स्वयं बाथरूम में जाने लगे |

जब कभी महामना जी पाते कि कोई व्यक्ति झूठ बोल रहा है, तो लठमार यह न कह देते कि तुम्हारी बात गलत है | सुतराम तेजस्विता पूर्वक कहते-

“मैं तो आपको बहुत सच्चा आदमी समझता था और अब भी समझता हूँ, फिर भला कैसे कहूँ कि आपकी बात सही नहीं है |”

      बस उसकी कलई खुल जाती |

महामना जी की आदत थी कि जब उन्हें कोई व्याख्यान देना होता उसके पहले उनका जो विश्रान्ति समय होता उसमें वे कुछ न कुछ पढ़ते अवश्य | इस पठन से उस व्याख्यान का कोई सम्बन्ध न होता | जो चीज सामने आ जाती उसी को पढ़ते | किन्तु ऐसा सतत संयोग होता कि जिस भी पुस्तक को वे पढ़ते यह उनकी बताई बात है- उनमें उन्हें कोई न कोई ऐसा मार्के का शब्द, वाक्य या विचार मिल जाता जो उनके व्याख्यान के लिए एक उत्कृष्ट सामग्री होती | उसका वे उपयोग करते और उनका व्याख्यान खिल उठता |

महामना जी से किसी ने कहा कि आपको लोग सदा घेरे रहते और बातों में ही सारा समय बीत जाता है, काम करने कीतो छुट्टी मिलती ही नहीं |

      .......मेरे सारे काम बातों में ही हो जाते हैं .....उनका निश्चित उत्तर था | कसरत करने की बात चली | महामना जी सीख दे रहे थे कि सबको प्रतिदिन व्यायाम करना चाहिए | एक व्यक्ति ने कहा कि मुझे काम के मारे अवकाश ही नहीं मिलता | महामना जी ने कहा- मुझे भी दम मारने की छुट्टी नहीं मिलती | फिर भी, मैं नित्य व्यायाम कर लेता हूँ | अंग्रेजी में एक पुस्तक है- द लेजी मैन्स एक्सरसाइज | उसमें सो कर उठते ही बिस्तर में पड़े-पड़े कसरत कर लेने की विधि दी है | तदनुसार मैं शय्या छोड़ने के पहले ही व्यायाम कर लेता हूँ | और उसी समय उन महाशय को शय्या व्यायाम कर दिखाने लगे |

महामना जी अपने स्टैनो वा प्राइवेट सेक्रेटरी को कोई डिक्टेशन देते तो पूरा हो जाने पर उसे सुनते और कुछ न कुछ परिवर्तन करते | तब वह टाइप होने जाता; कभी-कभी टंकण आरम्भ होने से पहले ही ड्राफ्ट मंगाकर पुनरपि परिवर्तन करते | इतना ही नहीं; जब वह टाइप होकर हस्ताक्षर के लिए उनके सामने रक्खा जाता तो उसे पुनः संशोधित करते | यदि किंचित संशोधन होता तो हस्ताक्षर कर देते | यदि अधिक,तो वह पुनः टाइप किया जाता | कहीं तब वह हस्ताक्षरित होता |ऐसे परफेक्शनिस्ट थे, वे |

प्रयाग का विशाल माघ मेला देखकर किसी विदेशी पर्यटक ने महामना जी से जिज्ञासा की कि इतना भारी जन-समूह कौन एकत्र करता है ?

महामना जी के पास ही पंचांग रक्खा था | उन्होंने उसे उठा कर उस पर्यटक के सामने रखते हुए, उत्तर दिया-“यह क्षीण कलेवर पंजिका|”

तब ब्योरे में जाकर उसे समझाया कि इसमें वे समय दिये हैं जिनमे त्रिवेणी स्नान करने से पुन्य होता है| बस राष्ट्र स्वयं अपने को संयोजित करके इस मेले का रूप धारण कर लेता है |

कहने की आवश्यकता नहीं है कि इस समाधान द्वारा उन्होंने यह भी ध्वनित कर दिया कि भारतीय कैसे संघठन शक्ति-संपन्न हैं |

 

मुझेमुक्तिनहीचाहिए

 

महामना जी ने आदेश दे रक्खा था कि जब उनका अवसान काल आये तो वे काशी में न ले जाये, क्योंकि काश्यां मरणान्मुक्ति:  |

‘मुझे मुक्ति नहीं चाहिए |’ मुझे तो पुनः जन्म लेकर विश्वविद्यालय की सेवा करनी है |

एक बार महामना जी को चिकित्सकों ने एकमत परामर्श दिया कि आपको पूरे विश्राम कीआवश्यकता है| जब तक हम लोग कहें न, तब तक काम बिल्कुल न कीजिए | परंतू वे कहाँ सुनने लगे |

तब भाई शिवप्रसाद गुप्त उन्हें हठ पूर्वक अपने घर, सेवा-उपवन ले गये और स्वयं चौकसी से उनकी पहरेदारी करने लगे |किन्तु कर्मठ महामना जी को बिना काम किये चैन कहाँ? वे हवा खाने के नाम पर, मोटर से बाहर चले जाते और सेवा उपवन के फाटक के ठीक बगल में एक बहुत बड़ा वृक्ष है जो चबूतरे आवेष्ठित है, वहीं बैठकर विश्वविद्यालय के कर्मियों के मसले निबटाते |

भाई शिवप्रसाद को इसकी सूराग लग गयी | बस, उन्होंने यह नियम बना लिया कि वह भी महामना जी के संग घूमने जाने लगे | तब वे कर्मी और स्वयं महामना जी भी लाचार हो गये | भाई शिवप्रसाद ने उन कर्मियों को फटकारा भी|

और महामना जी को कैद से तभी छोड़ा जब चिकित्सकों ने, बिना किसी ननु नच के, उन्हें काम करने की छूट दे दी |

 

महामना जी का अन्तिम क्षण बिल्कुल निकट आ गया था और वे मूर्च्छित पड़े थे; उनके निकट गीता पाठ हो रहा था| गीता के 18वें अध्याय में भगवान् का अन्तिम उपदेश यों है—

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणंव्रज |

अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः || (18.66)

गीता के सभी वैष्णव भाष्यकारों के अनुसार यह भगवान् का परम उपदेश है | जब यह श्लोक पढ़ा गया तब एक पाठकर्ता ने त्वा के बदले त्वाम् कह दिया | (संस्कृत में तुमको के अर्थ में त्वा और त्वाम् दोनों ही सर्वनाम आते हैं, किन्तु गीता में त्वा ही प्रयुक्त हुआ है त्वाम् नहीं) उन्होंने उस मूर्च्छितावस्था में ही हूँउँउँ कह कर अशुद्धि का वारण किया |

 

1. स्वनामधन्य, देश-रत्न स्व० शिवप्रसाद गुप्त अब हमें “आज” दैनिक, ज्ञानमण्डल प्रकाशन और काशी विद्यापीठ के जन्मदाता एवं भारत मातामंदिर के निर्माता रूप में ही याद हैं | परन्तु उनका व्यक्तित्व कितना अतुल्य और असामान्य था, इसे हमने बिसार दिया है |

कोट्याधीश होते हुये भी वह इतने निरभिमान और निर्मद थे कि उन्होंने अपने को एक सामान्य जन के अतिरिक्त और कुछ नहीं देखा | उदार वह इतने थे कि सैकड़ों व्यक्तियों (जिनमें वरिष्ठ और इतर राजनीतिक कर्मी, समाजसेवी, साहित्यिक, ऐसे लोग-स्त्री वा पुरुष-जिनके दिन बिगड़ गये थे, रोगी,वृद्ध और अपाहिज आदि) की और संस्थाओं की मुक्तहस्त सहायता निरन्तर किया करते और वह भी इस अनासक्ति पूर्वक कि, बाइबिल के शब्दों में, दाहिने हाथ का दिया, बायां हाथ नहीं जानता था| किसी को दौड़ना न पड़ता | घर बैठे नियत दिन सहायता पहुँच जाती | निर्भीक वह ऐसे थे कि कभी किसी से नहीं चपे| बड़े से बड़े की किसी कि बात पर उनकी सहमति न होती तो दृढ़तापूर्वक व्यक्त कर देते | एक बार विश्ववन्द्धबापू की किसी बात से असहमत होकर उनको लिख भेजा था-“बापू मैं आपके चरणों की पूजा कर सकता हूँ; मष्तिष्क की नहीं |”

देश पर अपने को न्योछावर कर दिया था उन्होंने | यद्दपि स्वयंपक्के आर्य समांजी थे, फिर भी धार्मिक उदारता इतनी थी कि कुल-गत वल्लभ-संप्रदाय वालेठाकुर जी की सेवा पर पूरा खंर्च-बर्च करते रहे | किसी अन्य धर्म का भी कभी विरोध नहीं किया |

आरम्भ में उनका संबंधक्रान्तिकारियों से था | इसी चक्कर में एक बार अमेरिका से लौटते हुये,सिंगापुर में गिरफ्तार कर लिये गये थे; गोली से उड़ा देने की नौबत आ गयी थी | किन्तु बाद में पक्के गाँधीवादी कांग्रेसी हो गये थे, सदा के लिए | फिर भी अन्य राजनीतिक दल वालों से उनका कोई असद्भाव न था |

देश को स्वतंत्र देखने के लिए वह तड़पते रहे | अक्सर गुनगुनाया करते- मेरे दिल के फफोले फूँटेंगे कब? राजनीति के साथ-साथ हिन्दी पर भी उनका अगाध प्रेम था | उनके सारे काम काज हिन्दी में होते; लेखन शक्ति भी थी, उनमे | अंग्रेजी के लिए कहा करते- “जब तक यह गर्दनिया देकर निकाली न जाएगी, निकलेगी नहीं |”

 

कविवर ‘अकबर” इलाहाबादी ने महामना जी की प्रशस्ति में एकशेर कहा है-

“हजार शेख ने दाढ़ी बढाई सन की-सी |

मगर वो बात कहाँ मालवी मदन की-सी ||”

कहने की आवश्यकता नहीं कि ‘सनकी’(झक्की) का भी वाचक है |

 

 

निदेशक

भारत कला भवन

काशी हिन्दू विश्वविद्यालय

 अंग्रेजी हटाने के साथ-साथ अंग्रेजी कैलेण्डर के बहिष्कार के निमित्त उन्होंने विक्रम संवत् और मास (जो अंग्रेजी कैलेण्डर की भाँति नियमित है) का प्रचलन किया जो आज भी काशी विद्यापीठ,नागरी प्रचारिणी सभा, अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मलेन, “आज” और ज्ञान मंडल में चलता है |

पुस्तक संग्रह का उन्हें बेहद शौक था I लाखों रूपये की एक-से-एक अलभ्य मुद्रित और हस्तलिखित ग्रन्थ उन्होंने एकत्र किए थे |

महामना जी पर उनकी परम श्रद्धाथी,विद्यार्थी जीवन से ही | बी० ए० कीपढाई के लिए वह इलाहाबाद चले गये थे| वहीं उनके संपर्क में आए | जिस प्रकार महामना जी के पुत्र उनको “बाबू” कहते उसी प्रकार भाई शिवप्रसाद भी | केवल जबानी नहीं; उन्हें वस्तुतः पिता मानते |

महामना जी के एक गुण की वह बहुत बड़ाई किया करते | कहते कि आगे बढ़ना तो सब नेता जानते हैं, किन्तु कहाँ पीछे हटना चाहिए, जो युद्ध का यह एक आवश्यक अंग है |  यह मात्र महामना जी जानते हैं|

जब विश्वविद्यालय के लिए कलकत्ता में चन्दा आरम्भ हुआ तो उनकी वहाँ वाली गद्दी (जिसके सबसे बड़े भागीदार वही थे) ने एक लाख का चन्दा देकर धन-संग्रह के अभियान का श्री गणेश किया | यही नहीं चन्दा उगाहने के दौरान वह महामना जी के संग रहे | कुछ लोग इस बात की शिकायत किया करते कि ऐसे कुलीन होकर भी वह कुलियों की तरह जमीन पर टाट, कबंलबिछाकर सोते हैं |

परन्तु रईसीका अहंकार उनमें छू तक नहीं गया था | हाँ,अतर और स्वादु भोजन का शौक उन्हें अवश्य था | स्वयं उत्कृष्ट पाककर्त्ता भी थे | वे विशुद्ध खादी धारी थे और स्वयं कातते भी महीन से महीन |

उनको क्रोध बहुत कम आता, किन्तु जब आता तो शिव से रूद्र हो जाते | मजा यह था कि जिस पर क्रोध करते,उस पर न उतारते | उतारते अपनी चीजों पर | प्रलयंकर ताण्डव करते हुए, उनको तोड़-ताड़ फाड़-फ़ूड,फेंक-फांक प्रकृतिस्थ होकर, वहीं के वहींभोलानाथ हो जाते |

 

 

 

 

 


Mahamana Madan Mohan Malaviya