Mahamana Madan Mohan Malaviya

Mahamana Madan Mohan Malaviya

महामना का मातृभाषा के प्रति समर्पण 

 

प्रो. देवेन्द्र प्रताप सिंह तथा लोकनाथ

 

प्रस्तावना

 

       महामना पण्डित मदनमोहन मालवीय जी एक महान् देशभक्त और राजनेता थे ही परन्तु उन्होंने देश एवं समाज से जुड़े हुए अनेक क्षेत्रों में कार्य किया और हर क्षेत्र में अपना अप्रतिम स्थान बनाना वे एक महान् शिक्षाविद्, प्रखर पत्रकार, अद्वितीय वक्ता, कुशल अधिवक्ता, श्रेष्ठ समाज सेवी, लोकोपकारी धर्मप्रणेता, परमार्थ के क्षेत्र में एक महान् भिक्षु के साथ ही, वे स्वदेशी, स्वभाषा तथा हिन्दी सहित सभी भारतीय भाषाओं के उन्नयन के लिये पूर्ण समर्पित थे वे भारत की राष्ट्रभाषा आन्दोलन क जनक थे उनके कारण ही भारतीय भाषाओं में नवयुग का उदय हुआ हिन्दी को भारत की राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने का श्रेय भी मालवीय जी को जाता है वे देशभक्ति के लिए मातृभाषा के प्रति प्रेम आवश्यक मानते थे उनका दृढ़ मत था कि साहित्य और देश की उन्नति अपने देश की भाषा के द्वारा ही हो सकती है हिन्दी के प्रति उनके उत्कट लगाव का यही कारण था हिन्दी भाषा के साथ नागरी लिपि के भी वह प्रबल समर्थक थे वे फारसी या रोमन लिपि में हिन्दी लिखने का विरोध करते थे मालवीय जी का मत था कि हिन्दी  “संस्कृत की पुत्री”  है और सभी भारतीय भाषायें आपस में बहनें हैं हिन्दी उनमें बड़ी बहन है यह ध्यान रखना आवश्यक है कि मालवीय जी का हिन्दी प्रेम किसी विवश्तावश नहीं था, वे हिन्दी के अतिरिक्त संस्कृत, अंग्रेजी तथा उर्दू में भी धारा प्रवाह बोलते और लिखते थे उनके अंग्रेजी भाषा के उच्चारण, शब्दों के चयन और व्याकरण की शुद्धता से अंग्रेज भी मोहित हो जाते थे

 

 हिन्दी माध्यम द्वारा विज्ञान और प्रौद्योगिकी शिक्षा

 

       मालवीय जी भारत के गौरवशाली अतीत को पुन: प्रतिस्थापित करने के लिये आधुनिक विज्ञान और तकनीकी की शिक्षा को आवश्यक मानते थे वे आधुनिक विज्ञान की शिक्षा को जन-जन तक ले जाना चाहते थे यह तभी संभव हो सकता था जब शिक्षा का माध्यम मातृभाषा हो विज्ञान और तकनीकी राष्ट्र की धरोहर तभी बन सकती है जब उसकी शिक्षा का माध्यम मातृभाषा बनेगी उनका दृढ़ मत था कि भारतीय आसानी से विज्ञान की शिक्षा भारतीय भाषाओं के माध्यम से प्राप्त कर सकते हैं

 

          महामना का स्पष्ट मत था कि अंग्रेजी जैसी दुरूह भाषा को सीखने  में जितना समय छात्र लगायेगा उसमें वह विज्ञान तथा तकनीकी के प्रायोगिक ज्ञान को प्राप्त कर सकता है मालवीय जी को इस बात की पूरी कल्पना थी कि हिन्दी में विज्ञान तथा तकनीकी की पुस्तकों के निर्माण का कार्य दुरूह, श्रम-साध्य तथा दीर्घकालिक होगा किन्तु जो कार्य आवश्यक हो उसे प्रारम्भ से ही करना चाहिये चाहे वह कितना ही कष्टकारक, कठिन और समय लेने वाला हो ऐसे कार्य धीरज तथा श्रम से अवश्य पूर्ण कर लिये जायेंगे

 

     हमारी तरह ऐसे और भी राष्ट्र-विश्व में थें जिनके पास राष्ट्रीय धरोहर के रूप में विज्ञान तथा तकनीकी पुस्तकें नहीं थी किन्तु उन्होंने अपनी मातृभाषा से ही चमत्कारिक कार्य कर दिखाया इस सन्दर्भ में मालवीय जी प्राय: जापान का उदाहरण देते थे

 

      भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का इक्कीसवाँ अधिवेशन काशी में गोपाल कृष्ण गोखले की अध्यक्षता में १९०५ में सम्पन्न हुआ उस अधिवेशन में अनेक विद्वान् शिक्षण जगत् से सम्बन्धित भी थे मालवीय जी ने उनकी एक बैठक टाउन हाल में ३१ दिसम्बर १९०५ को बुलाकर उनके समक्ष काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की योजना रखी इसके तुरन्त बाद ही जनवरी १९०६ में कुम्भ मेले के समय सनातन धर्म महासभा के समक्ष भी इस योजना पर विचार किया गया उस महासभा में जो भाषा सम्बन्धी प्रस्ताव स्वीकार हुआ, अत्यंत महत्त्वपूर्ण है काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना के मूल उद्देश्यों में से एक था कि विज्ञान तथा तकनीकी ज्ञान के उन्नयन तथा विस्तार के लिए संस्कृत अथवा अन्य भारतीय भाषाओं के माध्यम से पठन-पाठन की व्यवस्था की जायेगी

 

      समय के साथ जैसे-जैसे विश्वविद्यालय का कार्य प्रगति करता गया, हिन्दी तथा संस्कृत के माध्यम के विरुद्ध विद्वानों का मत बनना प्रारम्भ हो गया यह उस समय की परिस्थितियों में अव्यवहारिक लगा इस अवधारणा के लोग काल्पनिक और अव्यवहारिक मानने लगे किन्तु मालवीय जी अपने विचारों पर अडिग रहे और आगे बढ़ते रहे

 

      काशी हिन्दी विश्वविद्यालय की स्थापना के महान् उद्देश्य की पूर्ति के लिए शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी स्वीकार करना पड़ा किन्तु साथ ही यह भी निश्चित किया गया कि जैसे ही हिन्दी भाषा में पाठ्यपुस्तकें तैयार हो जायेंगी, माध्यम बदल दिया जायेगा इस प्रकार मालवीय जी की धारणा की ज्ञान- विज्ञान का प्रसार और मौलिक विचारों की अभिव्यक्ति सुगमता से हिन्दी में ही हो सकती है, भारत तथा भारत मंत्री के दुराग्रह के कारण मूर्तरूप नहीं ले पाये अंग्रेजी ही अर्वाचीन विद्यायों की शिक्षा का माध्यम बनी

 

       अंग्रेजी दूसरी भाषा के रूप में पढ़ाई जायेगी विश्वविद्यालय के उद्देश्यों में भी भारतीय और अन्य भाषाओं में पाठ्यपुस्तकों को तैयार करना जोड़ दिया गया

 

       नवम हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्षीय भाषण में मालवीय जी ने कहा कि आधुनिक जीवन उन्नीसवीं शताब्दी की है,  अत: जितनी विज्ञान की पुस्तकें हैं वह अंग्रेजी में है आवश्यता हुई तो उसके अनुसार पुस्तकों का निर्माण हुआ इसके पूर्व लगभग २००० वर्षों से अधिक समय से भारत ज्ञान-विज्ञान से ओतप्रोत था,  तब गणित, ज्योतिष, खगोलशास्त्र, आयुर्वेद आदि की पुस्तकें संस्कृत में थी इसी प्रकार आवश्यकतानुसार हिन्दी में आधुनिक विज्ञान की पुस्तकों का लेखन कोई बहुत बड़ी बाधा नहीं होगी संस्कृत में शब्दों का भण्डार बहुत बड़ा और गहरा है इसकी जड़ें बहुत दूर तक फैली हुई हैं फिर कैसे कहा जा सकता है कि हमारी भाषा अयोग्य है

 

      अंग्रेजी के महत्त्व को देखते हुए भी उन्होंने कहा कि आधुनिक विज्ञान का परिचय हमें इसी भाषा के द्वारा हुआ है इस लाभ को देशव्यापी करने के लिये भारतीय भाषाओं के आश्रय में जाना होगा यह कार्य देशी भाषा ही कर सकती है उन्होंने कहा कि सूर्य का काम बिजली नहीं कर सकती है, इसी भाँति विदेशी भाषा के द्वारा आधुनिक ज्ञान प्रसारित नहीं कर सकते हैं

 

न्यायालयों में हिन्दी और देवनागरी लिपि प्रयोग

 

     महामना मालवीय जी ने नागरी लिपि की भूरि-भूरि प्रशंसा की है इसके गुणों की चर्चा करते हुये वे अन्य भाषा के विद्वानों के मतों को भी उद्धृत करते थे प्रोफेसर मोनिया विलियम्स का कथन है – “स्थूल रूप से कहा जा सकता है कि देवनागरी अक्षर से बढ़कर पूर्ण और उत्तम अक्षर दूसरे नहीं है” उन्होंने इसे देवनिर्मित तक कहा है मालवीय जी का मानना था कि संसार में यदि कोई सर्वांगपूर्ण अक्षर है तो वह नागरी के हैं, प्रत्येक शब्द का उच्चारण देखने मात्र से ज्ञात हो जाता है संस्कृत भाषा की यही लिपि है नागरी लिपि में लिखे हुये शब्दों को उसका अर्थ न जानने वाला भी सुगमता और शुद्धतापुर्वक पढ़ सकता है

 

महामना जी द्वारा स्थापित और पोषित हिन्दी संस्थायें

 

      महामना मालवीय जी ने हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिये कई संस्थाओं के सृजन एवं संचालन में महती योगदान दिया मालवीय जी सन् १८७५ में १४ वर्ष की अवस्था में ही भारतेन्दु मण्डल के सबसे कम आयु के कवि के रूप में ख्याति अर्जित किये थे उस समय तक भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का “निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल” का नारा प्रचलित हो गया था उन्हीं के प्रयास से सन् १८८४ में प्रयाग में हिन्दी उद्धारिणी प्रतिनिधि मध्य सभा की स्थापना हुई थी सन् १८९३ ई. में उन्होंने काशी नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना में पूर्ण सहयोग दिया इसके मूल में हिन्दी उद्धारिणी प्रतिनिधि सभा की प्रेरणा निहित थी

 

     हिन्दी प्रचार-प्रसार के उद्देश्यों से सन् १९१० में इलाहाबाद में अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन की स्थापना का श्रेय भी मालवीय जी को ही जाता है अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन का प्रथम आधिवेशन काशी के नागरी प्रचारिणी सभा में १० अक्टूबर १९१० को सम्पन्न हुआ जिसकी अध्यक्षता मालवीय जी ने ही की ‘भारती भवन’ पुस्तकालय मालवीय जी के निवास के निकट ही सन् १८४९ में स्थापित हुआ इसमें प्रमुखत: हिन्दी और संस्कृत की पुस्तकें ही संग्रहित की गई इंग्लिश की पुस्तकों के लिये इलाहाबाद में थर्नहिल मेमोरियल लाइब्रेरी पहले से ही थी भारती भवन पुस्तकालय के मालवीय जी जीवनपर्यन्त न्यासी बने रहे मालवीय जी के प्रेरणा से सन् ४३ में प्राचीन ग्रन्थों के हिन्दी अनुवाद प्रकाशित करने के लिये ‘अखिल भारतीय विक्रम परषिद् की स्थापना हुई

 

हिन्दी-साहित्य सम्मेलन

 

      हिन्दी साहित्य सम्मेलन का अधिवेशन में मुम्बई में हो रहा था मालवीय जी ने अपने अध्यक्षीय भाषण में  “देवनागरी लिपि में लिखी हुई हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने का आग्रह किया उनका तर्क था कि यह भारत के अधिकांश प्रान्तों में किसी न किसी रूप में प्रचलित है इसको बोलने वालों की संख्या में किसी अन्य भारतीय भाषा के बोलने वालों से आधिक है कई अन्य भारतीय भाषाएँ बोलने जैसे गुजराती, बंगाली, मराठी भी हिन्दी अच्छी प्रकार से बोल लेते हैं वे हिन्दी के मुसलमान कवियों का स्मरण बड़े ही श्रद्धा के साथ करते थे रहीम, रसखान, जायसी के साथ वह सम्राट अकबर का भी नाम लेते थे अकबर का यह दोहा प्राय: लोगों को सुनाते थे-

 

जाको जस है जगत में, जगत सराहे जाति

ताको जीवन सफल है, कहत अकबर साहि।।

 

     मालवीय जी इस तथ्य को स्वीकार करते थे कि हिन्दी में उर्दू फारसी तथा अंग्रेजी के बहुत से शब्द आ गये हैं किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं निकालना चाहिये कि यही हिन्दी का रूप है उनकी मान्यता थी कि हिन्दी भाषा उन्हीं शब्दों से बनी है जो हिन्दी भाषण या लेख में वे अंग्रेजी शब्दों का पुट किसी भी भाँति स्वीकार नहीं करते थे

 

काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में हिन्दी माध्यम

 

      काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना के समय, मालवीय जी के कई सहयोगियों की यह धारणा थी कि विश्वविद्यालय में प्रारम्भ में शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी रखा जाय जिससे दक्षिण तथा पूर्व प्रान्तों में विद्यार्थियों तथा अध्यापकों को कोई असुविधा न हो मालवीय जी इस विचार से सहमत नहीं थे उनका कहना था कि अगर यह सनातन सत्य है कि शिक्षा का प्रभावी माध्यम मातृभाषा है तो उसका प्रयोग प्रारम्भ से ही होना चाहिए, नहीं तो पुस्तकों के निर्माण में विलम्ब होता रहेगा और अंग्रेजी माध्यम निरन्तर चलता रहेगा१०

 

        मालवीय जी का यह कथन कितना सत्य था वह आज की परिस्थिति से सभी को विदित है सन् १९२९ ई. में मालवीय जी ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में दीक्षान्त भाषण दिया इस अवसर पर भी आपने शिक्षा के प्रभावी माध्यम के रूप में हिन्दी की चर्चा की उन्होंने कहा कि विश्वविद्यालय की स्थापना से ही संचालकों का ध्रुवतम है कि शिक्षा का माध्यम उच्च कक्षाओं में भी हिन्दी को किन्तु विशेष परिस्थितियों के कारण अभी इसे क्रियान्वित नहीं किया जा सकता है उन्होंने कहा कि “अभी हमारी राष्ट्रभाषा को अंग्रेजी का स्थान ग्रहण करने में कुछ समय अवश्य लगेगा

 

काशी हिन्दू वि.वि. में हिन्दी भाषा का पठन-पाठन

 

        हिन्दी शिक्षा का माध्यम तो नहीं बन पायी किन्तु एक भाषा के रूप में वह बी.ए. की कक्षाओं में पढ़ाई जाने लगी स्नातकोत्तर स्तर पर भी हिन्दी को एक विषय के रूप में पढ़ाया जाने लगा कलकत्ता विश्वविद्यालय के बाद स्नातकोत्तर कक्षाओं में हिन्दी का पठन-पाठन प्रारम्भ करने वाला काशी हिन्दू विश्वविद्यालय दूसरा विश्वविद्यालय हुआ सन् १९२२ ई. में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग की स्थापना हुई यहीं बाबू श्यामसुन्दर दास, पण्डित रामचन्द्र शकुल, पण्डित अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’, बाबू भगवान् दीन जैसे विद्वानों का सान्निध्य हिन्दी प्रेमी विद्यार्थियों का प्राप्त होता था

 

        महात्मा गाँधी जी ने मालवीय जी ने देवेनागरी लिपि और हिन्दी के प्रचार-प्रसार के प्रयास को १९४२ ई. के कशी हिन्दू विश्वविद्यालय के रजत जयन्ती के दीक्षान्त भाषण में खूब सराहा और मालवीय जी ने भी गाँधी जी को आश्वस्त किया कि निकट भविष्य में जैसे ही पाठ्य पुस्तकें हिन्दी  भाषा में तैयार हो जायेगी, शिक्षा का माध्यम हिन्दी हो जायेगा 

 

अनुवाद के पक्षधर

 

     मालवीय जी का सदैव आग्रह रहता था कि विश्व की श्रेष्ठ पुस्तकों का हिन्दी में अनुवाद कर हिन्दी भाषी जनता को उपलब्ध कराना चाहिए प्राय: इस विश्व में, वे अंग्रेज़ी  के लेखकों का उदाहरण देते थे दृष्टान्त किए रूप में कहते थे “अंग्रेजी अपनी भाषा में संसार की जब उन्नत भाषाओं के उत्त्मोतम ग्रन्थों का अनुवाद कर डाले हैं संस्कृत के ऊँचे-ऊँचे काव्य नाटकों का, चारों वेदों का, वाल्मीकि रामायण तथा तुलसीदास के रामचरित मानस का और आल्हा-रुदल तक का अनुवाद कर लिया है

 

संस्कृत भाषा का प्रचार

 

        काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना का एक मुख्य उद्देश्य संस्कृत भाषा का प्रचार-प्रसार तथा संस्कृत ग्रन्थों को अच्छी प्रकार से सम्पादित और मुद्रित कर उन्हें सुरक्षित रखने का था उन दिनों संस्कृत का पठन-पाठन ब्राह्मणों के मध्य ही सीमित था अन्य लोगों की भी इसके प्रति रुझान बढ़े और देश के हर प्रान्त में पूर्व की तरह विद्वानों की आदान-प्रदान की भाषा बने, इसके लिये मालवीय जी पूर्ण रूपेण समर्पित थे संस्कृत भाषा जीविकोपार्जन के लिए भी एक सशक्त माध्यम होनी चाहिए तभी लोगों का आकर्षण इस ओर बढ़ेगा वे चरित्र के विकास के लिये भी संस्कृत को आवश्यक  मानते थे

 

       काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की पहली रुपरेखा में मालवीय जी ने यह सुविधा रखी कि जो छात्र संस्कृत माध्यम से शिक्षा ग्रहण करना चाहेंगे उन्हें यह सुविधा प्रदान कि जायेगी किन्तु धर्मशास्त्र के तथा आयुर्वेद के पठन-पाठन के लिये संस्कृत माध्यम आवश्यक होगा। अन्य के शिक्षा माध्यम हिन्दी होगी। मालवीय जी हिन्दी की प्राचीनता संवत् ११२५ से मानते थे जब चन्द्रकवि बरदायी ने पृथ्वीराज रासो की रचना की। यह भी सत्य है कि पहले इसे भाषा कहा जाता था और कालान्तर में इसे हिन्दी या शौरसेनी कहा जाने लगा।  

 

महामना और हिन्दी पत्रकारिता

 

     मालवीय जी एक प्रखर एवं यशस्वी पत्रकार थे उन्होंने कई साप्ताहिक तथा दैनिक समाचार पत्रों एवं पत्रिकाओं का सम्पादन एवं प्रकाशन किया उन्होंने हिन्दोस्थान इण्डियन ओपिनियन, एडवोकेट, अभ्युदय, लीडर, मर्यादा, हिन्दुस्तान टाइम्स और सनातन धर्म जैसे पत्र –पत्रिकाओं के प्रकाशन एवं संचालन में महती भूमिका निभाई कालाकांकर के राजा राजपाल सिंह ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ का प्रकाशन कर रहे थे किन्तु उसे एक दैनिक के रूप में परिवर्तित करना चाहते थे इस दायित्व को उन्होंने मालवीय जी को सौंपा इस प्रकार भारत के प्रथम हिन्दी दैनिक के सम्पादक के रूप में भी मालवीय जी चिरस्मणीय रहेंगे सन् १८८९ में सम्पादन का कार्य छोड़कर वे कालाकांकर से इलाहाबाद आ गये मालवीय जी के सम्पादकत्व में अभ्युदय का जन्म हुआ सन् १९०७ की बसंत पंचमी से अभ्युदय का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ। सन् १५ में यह समाचार पत्र साप्ताहिक से दैनिक हो गया।

 

       हिन्दी पाठकों के लिये मालवीय जी ने मर्यादा नामक पत्र प्रयाग से निकलने की व्यवस्था की कुछ समय में ही यह लोकप्रिय हो गया इसका मुख्य उद्देश्य हिन्दी का उन्नयन और राजनीतिक नवजागरण था

 

       मालवीय जी अंग्रेजी दैनिक लीडर तथा हिन्दुस्तान टाइम्स से भी सम्बंधित रहे मालवीय जी की ही प्रेरणा से उसी प्रेस में हिन्दी भाषा का हिन्दुस्तान भी १२ अप्रैल सन् १९३६ से प्रकाशित होने लगा इस समाचार पत्र का पहला अंक कांग्रेस को समर्पित था

 

निष्कर्ष

 

     मालवीय जी का सुविचारित मत था कि देश की उन्नति अपने देश की भाषा द्वारा ही हो सकती है जब अंग्रेजों की प्रतम विश्वयुद्ध में विजय हुई तो मालवीय जी ने इसका श्रेय इंगलिश भाषा को दिया जिसमें देशभक्ति से ओतप्रोत साहित्य उपलब्ध है अंग्रेजी साहित्य स्वदेशाभिमान में भरा है जन-तंत्र में जनता की राजकाज जनता की भाषा से ही सुचारू रूप से सम्पन्न हो सकती है देश की भाषा में ही न्यायपालिका, विधायिका और शासन का कार्यभार होना चाहिये वे शिक्षा के माध्यम के लिये भारतीय भाषाओं के प्रबल पक्षधर थे अंग्रेजी के साथ अन्य विदेशी भाषाओं के पठन-पाठन के भी वह हिमायती थे किन्तु इन्हें वह द्वितीय भाषा के रूप में ही स्वीकार करते थे मालवीय जी का विचार था कि हिन्दी देवनागरी लिपि में ही लिखी जाय न कि रोमन या पारसी लिपि में

 

     मुम्बई में आज से लगभग सौ वर्ष पूर्व सन् १९१९ ई. में मालवीय जी ने अपने नवम हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्षीय भाषण को समाप्त करते हुए कहा था कि अंग्रेजी की भाँति एक दिन हिन्दी विश्व की भाषा बनेगी उन्होंने विश्वास जताया कि एक दिन हिन्दी का वटवृक्ष बढ़कर फूले-फलेगा और देश को लाभ पहुँचायेगा१२

 

सन्दर्भ

 

१. दर, एस. एल., सोमस्कन्द, एस. (१९६६),  हिस्ट्री ऑफ बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी बनारस      हिन्दू यूनिवर्सिटी प्रेस, पृष्ठ संख्या – ६१

२. वही, पृष्ठ संख्या – ७१-७२

३. वही, पृष्ठ संख्या – ७१-७२

४. वही, पृष्ठ संख्या – ७६

५. दर, एस. एल., सोमस्कन्दन, एस, (१९६६), हिस्ट्री ऑफ बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी, बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी प्रेस, पृष्ठ संख्या – ८२

६. लाल, मुकुट बिहारी (१९७८), महामना मदन मोहन मालवीय, मालवीय अध्ययन संस्थान, का. हि. वि. वि. पृष्ठ संख्या – १५४

७. दर, एस. एल., सोमस्कन्दन, एस. (१९६६), हिस्ट्री ऑफ बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी प्रेस, पृष्ठ संख्या – १५०

८. प्रधान, अवधेश (२००७), महामना के विचार, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी, पृष्ठ संख्या- ३४

९. सिंह, देवेन्द्र प्रताप, शुक्ल, श्यामसुन्दर (२०११), महामना पण्डित मदन मोहन मालवीय, विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान, संस्कृत भवन कुरुक्षेत्र, पृष्ठ संख्या – १५४

१०.  दर, एस. एल., सोमस्कन्द, एस. (१९६६),  हिस्ट्री ऑफ बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी, बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी प्रेस, पृष्ठ संख्या – ७२

११. दर, एस.एल., सोमस्कन्दन, एस. (१९६६), हिस्ट्री ऑफ बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी, बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी प्रेस, पृष्ठ सख्या – ६३

१२.  प्रधान,  अवधेश (२००७), महामना के विचार, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी, पृष्ठ संख्या- ३०७

 

                                             (प्रो. देवेन्द्र प्रताप सिंह) डिस्टिंगविश्ड प्रोफेसर,

                                                        खनन अभियांत्रिकी विभाग,

                                                   प्राद्योगिकी संस्थान, का.हि.वि.वि.

 

==========================================================================

     अनेक विशिष्ट ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और सामाजिक कारणों से हिन्दी सम्पूर्ण भारत की राष्ट्र की वाणी है भाषायी सहिष्णुता के कारण बनते-बनते यह एक महासमुद्र बन गया है, जिसमें देश की प्राय: सभी समुन्नत भाषायी नदियों का प्रवहमान एकता–सलिल समाहित है और इसी कारण यह विश्वभाषा बनने के लिए पूर्ण समक्ष है

 

पद्मश्री पोद्दार रामावतार ‘अरुण’

 

v   

      दुनिया के हर देश में, हर काल में मौलिक चिन्तन का जन्म मातृभाषा में ही हुआ है वही उर्वरा मातृभाषा, यदि अनुवाद की धाय माँ बनने को बाध्य हो जाए तो पन्ना धाय के हतभागे बेटे की तरह उसकी अपने कोख जाये के सीन में आततायी का खंजर उतरना एक अनिवार्य त्रासदी बन जाती है

                मृणाल पाण्डेय

======================================================================  

Mahamana Madan Mohan Malaviya